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________________ २१८ पञ्चसंग्रह पर्याप्त जीवसमासमें पाँच भंग होते हैं-१ आठके बन्धमें आठका उदय और आठका सत्त्व; २ सातके बन्धमें आठका उदय और आटका सत्त्व; छहके बन्धमें आठका उदय और आठका सत्त्व; ४ एकके बन्धमें सातका उदय और आठका सत्त्व; ५ एकके बन्धमें सातक सातका सत्त्व । केवलीके दो भंग होते हैं-एकके बन्धमें चारका उदय और चारका सत्त्व तथा अबन्धमें भी चारका उदय और चारका सत्त्व ॥५॥ .. इनकी अङ्कसंदृष्टि मूलमें दी है। अब गुणस्थानमें बन्धादि त्रिसंयोगी भंगोका निरूपण करते हैं[मूलगा०५] 'अट्ठसु एयवियप्पो छास। वि गुणसण्णिदेसु दुवियप्पो । . पत्तेयं पत्तेयं बंधोदयसंतकम्माणं' ॥६॥ छसु मिच्छाइसु मिस्सरहिएसु दो भंगा ८८ एगेगो अहसु-८ ८ ८ ८ ७ ७ ४ ४ अथ गुणस्थानेषु तत्रिसंयोगभङ्गान् योजयति--[ 'अदृसु एयवियप्पो' इत्यादि । ] अष्टसु गुणस्थानेषु प्रत्येकं बन्धोदयसत्वकर्मणां एकैको भङ्गः । पट सु गुणस्थानसंज्ञिकेषु प्रत्येकं द्वौ द्वौ विकल्पौ भनौ भवतः। तथा हि-मिश्रापूर्वकरणानिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायोपशान्तक्षीणकषाय-सयोगायोगगुणस्थानेषु अष्टसु प्रत्येक एकैकं गुणस्थानं प्रति एकैको भङ्गः । केषाम् ? बन्धोदयसत्त्वकर्मणामेकैको भेदः ।तद्चना-- मिश्र अपू० अ० सू० उ० सी० स० अ० बं० ७ ७ ७ ६ . . . . स. ८ ८ ८ ८ ८ ७ ४ ४ मिथ्यात्व-सासादनाविरत-देश-प्रमत्ताप्रमत्तेषु षट्सु गुणस्थानेषु प्रत्येकं एकैकं गुणस्थानं प्रति द्वौ द्वौ विकल्पौ भङ्गी भवतः ८८ । एवं भङ्गा दश भवन्ति १०॥६॥ __ पुनरपि बन्धोदय-[ सत्त्व ] रचना रच्यते१४ मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० सी० स० अ० बं० ७८ ७८ ७ ७८ ७.८ ७८ ७८ ७ ७ ६ १ १ १ . स० ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ७ ४ ४ अन्तिम आठ गुणस्थानों में कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंका पृथक्-पृथक् एक-एक भंग होता है। तथा मिश्रगुणस्थानको छोड़कर प्रारम्भके छह गुणस्थानोंमें दो-दो भंग होते हैं।॥६॥ विशेषार्थ-मिश्र गुणस्थानके विना मिथ्यात्व आदि छह गुणस्थानोंमें आठ प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व; तथा सातप्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व; ये दो भंग होते हैं। मिश्रगुणस्थानमें सात 1. सं० पञ्चसं० ५, ६ । 2. ५, 'मिथ्यादृष्टयादीनां इत्यादिगद्यभागः (पृ० १५०)। १. सप्ततिका० ५। । नब छसु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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