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________________ १६ पञ्चसंग्रह ऐसा ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध हुआ है, जिसके मूल प्रकरण दोनों सम्प्रदायोंमें थोडेसे पाठ भेदोके साथ समानरूपसे सम्मान्य हैं और दोनों ही सम्प्रदायके आचार्यों ने उसपर प्राकृत भाषामें भाष्य-गाथाएँ और पूर्णियाँ तथा संस्कृत भाषामें टोका और वृत्ति आदि रची हैं। दोनों सम्प्रदायोंके इन पञ्चसंग्रहोंमें निबद्ध, संकलित या संगृहीत वे पाँच ग्रन्थ या प्रकरण कौनसे हैं, पाठकों को यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है, अतः सर्वप्रथम उन प्रकरणोंका परिचय दिया जाता है। दि० पञ्चसंग्रहके पाँचों प्रकरणोंके नाम दो प्रकारसे मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं प्रथम प्रकार १ जीवसमास २ प्रकृतिसमुत्कीर्तन ३ बन्धस्तव ४ शतक ५ सप्ततिका ० पञ्चसंग्रहके पाँचों प्रकरणों के नाम दो प्रकारसे मिलते हैं, जो कि इस प्रकार हैं द्वितीय प्रकार प्रथम प्रकार १ सत्कर्मप्राभूत २ कर्मप्रकृति ३ कथायाभूत Jain Education International द्वितीय प्रकार १ बन्धक २ बध्यमान ३ बन्धस्वामित्व ४ शतक ५ सप्ततिका १ बन्धक २ बन्धव्य ३ बन्ध-हेतु ४ बग्ध-विधि ५ बन्ध - लक्षण दि० परम्पराके पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकारवाले पाँचों प्रकरण संग्रहकारके बहुत पहलेसे स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें चले आ रहे थे । संग्रहकारने देखा कि उनकी रचना संक्षिप्त या सूत्रात्मक है, तो उसने पूर्व - परम्परागत ग्रन्थोंके नामोंको और उनकी गाथाओंको ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रखकर और उन गाथाओंको मूलगाथाका रूप देकर उनपर भाष्य-गायाओंकी रचना की। दूसरे प्रकार के नाम मिलते हैं अमितगतिके पञ्चसंग्रह में, जिन्होंने पूर्वोक्त प्राचीन प्राकृत पञ्चसंग्रहका संस्कृत भाषामें कुछ पल्लवित पद्यानुवाद किया है । परन्तु उन्होंने भी प्रत्येक प्रकरणके अन्तमें नाम वे ही प्राचीन दिये हैं। द्वितीय प्रकारके नामोंका तो उल्लेख उन्होंने ग्रन्थके प्रारम्भमें किया है । परन्तु अर्थकी दृष्टिसे द्वितीय प्रकारके नामोंकी संगति प्रथम प्रकारके नामोंके साथ बैठ जाती है । यथा ४ बन्ध-कारण ५ बन्ध-भेद १ वन्धक नाम कर्मके बांधनेवालेका है, जीवसमास में कर्म-बंध करनेवाले जीवोंका ही चौदह मार्गेणा और गुणस्थानोंके द्वारा वर्णन किया गया है । २. बध्यमान नाम बंधनेवाले कमोंका है; प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक द्वितीय अधिकारमें उन्हीं कमकी मूलप्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियोंका वर्णन किया गया है । ३. बन्ध-स्वामित्व और बन्धस्तव एकार्थक ही हैं । ४. शतक यह नाम वस्तुतः गुण-कृत नहीं, गाथाएँ १०० ही है, इसलिए इसे शतक कहते हैं ये दोनों नाम भी परस्परमें संगत बैठ जाते हैं । अपितु संख्षाकृत है अर्थात् इस प्रकरणको मूल प्राचीनऔर इसमें कर्मबन्धके कारण आदिका ही वर्णन है, अतः ५. सप्ततिका यह नाम भी संख्याकृत है, क्योंकि इस प्रकरणको मूल-गाथाएं भी ७० ही है और उनमें कर्मबन्ध योग, उपयोग लेश्या आदिकी अपेक्षा भेदों या भंगों का वर्णन किया गया है। इस प्रकारसे दि० परम्पराके पञ्चसंग्रहों में पाये जानेवाले दोनों प्रकारके नामोंमें कोई मौलिक अन्तर या भेद नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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