SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 597
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३० पञ्चसंग्रह अनिवृित्तिकरणमें उपशम होनेवाली प्रकृतियोंका क्रम इस प्रकार है-७, ८, ६, १५, १६, १८, २०, २२, २४, २५, २६ ।। अब आचार्य उपयुक्त क्रमसे उपशान्त होनेवाली प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैं--- अण मिच्छ मिस्स सम्म संढित्थी हस्सछक्क पुंवेदो । वि ति कोहाई दो दो कमसो संता य संजलणा ॥४८७॥ ७।१।१।६।१२।२।२।२।१।११।१। एए मेलिया २८ ।। अनन्तानुबन्धि चतुष्कं १ मिथ्यात्वं १ मिश्रं १ सम्यक्त्वप्रकृतिः १ एवं सप्तप्रकृत्युपशमकः असंयताद्यनिवृत्तिकरणान्तो भवति । सप्तप्रकृत्युपशमकोऽनिवृत्तिकरणः ७ स्वसंख्यातबहुभागेषु पण्ढवेदमुपशमयति १ । तदनन्तरं स्त्रीवेदमुपशमयति १ । तदनन्तरं हास्यादिषट्कमुपशमयति ६ । तदनन्तरं पुंवेदमुपशमयति । ततः द्वि-त्रिकपाय-क्रोधादिको द्वौ द्वौ उपशमयति । अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधद्वयमुपशमयति २। तदनन्तरं अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानमानद्वयमुपशयति २ । तदनन्तरं तन्मायाद्वयमुपशमयति २। तदनन्तरं तल्लोभद्वयमुपशमयति २। तदनन्तरं संज्वलनक्रोधमुपशमयति १। तदनन्तरं संज्वलनमानमुपशमयति । एवमनिवृत्तिकरणो मोहप्रकृतीनां षड्विशतेरुपशमको भवति २६ । सूचमसाम्परायः संज्वलमायामुपशमयति ५ । तदनन्तरं उपशान्तकः संज्वलनलोभमुपशमयति १॥४८॥ ७।११।६।१।२।२।२।२।१।१।१।१ । एताः सर्वाः मिलिताः २८ । अनिवृत्तिकरण बादरसाम्परायगुणस्थानके संख्यात भागों तक तो अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति; इन सातका उपशम रहता है। तदनन्तर नपुंसकवेदका उपशम करता है, तदनन्तर स्त्रीवेदका उपशम करता है। तदनन्तर हास्यपट्क (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, और जुगुप्सा) का उपशम करता है। तदनन्तर पुरुषवेदका उपशम करता है। तदनन्तर अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, इन प्रकृतियों का उपशम करता है। तदनन्तर दोनों मध्यम भानकषायोंका उपशम करता है। तदनन्तर दोनों मध्यम-मायाकषायोंका उपशम करता है। तदनन्तर दोनों मध्यम लोभकषायोंका उपशम करता है। तदनन्तर संज्वलन क्रोधका उपशम करता है। तदनन्तर संज्वलन मानका उपशम करता है। तदनन्तर संज्वलन मायाका उपशम करता है। तदनन्तर संज्वलन बादरलोभका उपशम करता हुआ दशवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। पुनः दशवें गुणस्थानके अन्त में सूक्ष्म लोभका भी उपशम करके ग्यारहवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। इस प्रकार सातसे लेकर छब्बीस प्रकृतियोंका उपशम अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें होता है ॥४८७॥ [मूलगा०५६] सत्तावीसं सुहुमे अट्ठावीसं च मोहपयडीओ। उवसंतवीयराए। उवसंता होंति णायव्वा ॥४८८।। सुहुमे २७ । उवसंते २८ । सूचमसाम्पराये सप्तविंशतिमोहप्रकृत्युपशामको मुनिः सूचमसाम्परायस्थो भवति २७ । अष्टाविंशतिमोहप्रकृत्युपशामक उपशान्तकषायो भवति । इत्येवमुपशान्तपर्यन्तं मोहप्रकृत्युपशामको भवति ज्ञातव्यः । मोहनीयस्योपशमो भवति । अन्यकर्मणामुपशमविधानं नास्तीति । एतत्सर्वमोहोपशमविधानं पञ्चसंग्रहोक्तमस्ति । 1. सं० पञ्चसं० ५, ४५७ । 2.५, ४६१ । १. इन दोनों गाथाओंके स्थानपर श्वे. सप्ततिकामें कोई गाथा नहीं है। बि ओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy