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________________ पञ्चसंग्रह अपूर्वकरणमें उदयस्थान चार होते हैं। उन्हें नौ योगोंसे गुणित करने पर छत्तीस भङ्ग होते हैं। इन पूर्वोक्त योग-भङ्गोंको चौबीससे गुणा करनेपर सर्व उदयस्थान-सम्बन्धी भङ्ग प्राप्त हो जाते हैं ॥३३६॥ अपूर्वकरणमें उदयस्थान ४ को नौ योगोंसे गुणा करने पर ३६ भङ्ग होते हैं । अब योगसम्बन्धी उक्त सर्व भंगोंका निर्देश करते हैं 'चउवीसेण य गुणिया सव्वट्ठाणाणि एत्तिया होति । वारसयसहस्साइछस्सदवाहत्तराइच ॥३३७॥ १२६७२ । एते पूर्वोक्तस्थानविकल्पाश्चतुर्विशत्या २४ गुणिताः मिथ्यादृष्टौ १६२०।२८८ पिण्डिताः २२०८।। सासादने ११५२ । मिश्रे १६० । असंयते १६२० । देशे १७२८ । प्रमत्त २११२ । अप्रमत्त १७२८ । अपूर्वकरणे ८६४ । सर्वे एकत्रीकृताः द्वादशसहस्रपटशतद्वासप्ततिप्रमिताः सर्वोदयस्थानविकल्पाः १२६७२ भवन्ति ॥३३७॥ ऊपर जो योगसम्बन्धी सर्व उदयस्थानोंके अंग बतलाये हैं, उन्हें चौबीससे गुणा करने पर बारह हजार छह सौ बहत्तर सर्व भंग होते हैं ॥३३७॥ विशेषार्थ-ऊपर मिथ्यात्वगुणस्थानमें पर्याप्तकालसम्बन्धी योगभंग ८० और अपर्याप्तकालसम्बन्धी १२ बतलाये हैं, उन्हें उदय-प्रकृतियोंके परिवर्तनसे सम्भव २४ भंगोंसे गुणा करने पर क्रमशः (८०४२४ =) १६२० और (१२४२४ =) २८८ आते हैं । इन दोनोंको जोड़ देने पर (१६२० + २८८=) २२०८ भंग मिथ्यात्वगुणस्थानमें प्राप्त होते हैं। सासादनमें योग भंग ४८ हैं । उन्हें २४ से गुणित करने पर (४८x२४ =) सर्व भंग ११५२ होते हैं । मिश्रमें योगभङ्ग ४० हैं। उन्हें २४ से गुणित करने पर (४०४२४ =) सर्व भङ्ग ६६० होते हैं। अविरतमें योगभङ्ग ८० हैं। उन्हें २४ से गुणित करने पर (८०x२४ =) सर्व भङ्ग १६२० होते हैं। देशविरतमें योगभङ्ग ७२ हैं। उन्हें २४ से गुणित करने पर (७२ ४२४ =) सर्व भङ्ग १७२८ होते हैं । प्रमत्तविरत में योग-भङ्ग ८८ हैं । उन्हें २४ से गुणित करने पर (८८४२४ =) सर्व भङ्ग २११२ होते हैं । अप्रमत्तविरतमें योगभङ्ग ७२ हैं । उन्हें २४ से गुणित करने पर (७२४२४ =) सर्व भङ्ग १७२८ होते हैं । अपूर्वकरणमें योगभङ्ग ३६ हैं। उन्हें २४ से गुणा करनेपर (३६४२४ = ) सर्वभङ्ग ८६४ होते हैं। प्रत्येक गुणस्थानके इन सर्वभङ्गोंको जोड़ देनेपर (२२०८४११५२ + ६६०+ १६२०+ १७२८+ २११२+ १७२८+८६४ = ) १२६७२ सर्वगुणस्थानोंके योग सम्बन्धी भङ्गोंका प्रमाण जानना चाहिए। इन भङ्गोंकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है :-- क्रमांक गुणस्थान उदय-विकल्प गुणकार भंग मिथ्यात्व पर्याप्त १० ८० २४१९२० अप० ३ १२ २४ २८८ २ सासादन पर्याप्त १२ ४८ २४ ११५२ मिश्र ४० २४६६० योग १० 1. सं०पञ्चसं० ५, ३५६-३६१ । तथा 'मिथ्यादृष्टौ योगाः' इत्यादिगद्यभागः' (पृ. २०६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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