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________________ ३०२ पञ्चसंग्रह अनिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्पराययोः आपकश्रेण्यारूढानां च चक्षुरादिदर्शनावरणचतुष्कस्य बन्धे सति स्त्यानगृद्धित्रिकं विना षट्प्रकृतीनां सत्ता, चक्षुरादिचतुर्णामुदयः । अथवा निद्रितानां एकनिगासहिततदेवेति पञ्चानां मुदयः ५। ४ ५ ॥१३॥ दर्शनावरण कर्मके नौ प्रकृतिक बन्ध और सत्त्वस्थानमें सभी प्रकृतियोंका बन्ध और सत्त्व होता है। छह प्रकृतिक स्थानमें स्त्यागृद्धित्रिकके विना शेष छहका बन्ध और सत्त्व होता है। तथा चार प्रकृतिक स्थानमें निद्रा और प्रचलाके विना शेष चारका बन्ध और सत्त्व होता है। दर्शनावरण कर्मके चार प्रकृतिक उदयस्थानमें चक्षुदर्शनावरणादि चार प्रकृतियोंका उदय पाया जाता है। तथा पाँच प्रकृतिक उदयस्थानमें निद्रा आदि पाँच प्रकृतियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिके उदयके साथ उक्त चार प्रकृतियोंका उदय पाया जाता है। मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानमें दर्शनावरण कर्मका नौ प्रकृतिक बन्ध और नौ प्रकृतिक सत्त्व रहता है । मिश्र गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भाग पर्यन्त छह प्रकृतिक बन्ध और नौ प्रकृतिक सत्त्व रहता है। अपूर्वकरणके दूसरे भागसे लेकर उपशामक और क्षपक दोनों प्रकारके अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें, तथा उपशामक सूक्ष्मसाम्परायमें चार प्रकृतिक बन्ध और नौ प्रकृतिक सत्त्व रहता है । अनिवृत्तिकरण क्षपक और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकके चार प्रकृतिक बन्ध और छह प्रकृतिक सत्त्व रहता है ।।१०-१३॥ [मूलगा०८] 'उवरयवंधे संते संता णव होति छच्च खीणम्मि । खीणते संतुदया चउ तेसु चयारि पंच वा उदयं ॥१४॥ उवसंते ४ ५ खीणे ४ ५ खीणचरमसमए य ४ एवं सब्वे १३ । संते इति उषशान्तकषायगुणस्थाने उपरतबन्धे अबन्धे सति नवप्रकृतिसत्तास्वरूपा भवन्ति ४ ५। क्षीणकषायस्य क्षपकश्रेण्यां स्त्यानगृद्धिवयं विना पण्णां प्रकृतीनां सत्ता ४ ४१ क्षीणकषायस्य द्विचरमान्ते षट् सत्ता। क्षीणकषायस्य चरमसमये अबन्धे सति चक्षुरादिचतुर्णामुदयः ४ । चक्षुरादिचतुर्णा सत्ता ४ । ४ । तेषु सर्वेषु मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायोपान्त्यसमयपर्यन्तेषु जाग्रजीवेषु चक्षुर्दर्शनावरणादीनां चतुर्णामुदयः ४ । वा निद्रितजीवानां कदाचिदेकनिद्रया सहितं तदेव चतुष्कमिति पञ्चानामुदयः ५। एवं सर्वे भङ्गास्त्रयोदश १३ ॥१४॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, १४-१७ । तथाऽग्रेतनगद्यांशश्च (पृ० १५२)। १. श्वे० सप्ततिकायामस्याः स्थाने इमे द्वे गाथे स्त:-- वीयावरणे नवबंधगेपु चउ पंच उदय नव संता। छुच्चउबंधे चेवं चउबंधुदए छलंसा ॥८॥ उवरयबंधे चउ पण नवंस चउरुदय छच्च चउसंता । वेयणियाउगमोहे विभज मोहं परं वोच्छं ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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