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________________ १२४ पञ्चसंग्रह चतुथे प्रकार-५।६।१५।४।३।२।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर २८०८०० भङ्ग होते हैं । पंचम प्रकार-श६।१५।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर १०८००० भङ्ग होते हैं । षष्ठ प्रकार-५।६।६।४।३।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर ५६१६० भङ्ग होते हैं। उक्त छहों प्रकारोंके भङ्गोंके प्रमाणको जोड़ देनेपर ( १०८००० +१८७२०० + २८८०००+ २८०८००+१०८०००+५६१६०=) तेरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व मध्यम भङ्गोका प्रमाण १०२८१६० होता है। का० अन० भ० मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले चौदह बन्ध-प्रत्यय- ४ . . सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस ४ ० १ प्रकार है मिच्छक्ख पंचकाया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो चउदह हवंति ते हेऊ ॥११॥ ११।५।३।१२।१। एदे मिलिया १४ । अथ चतुर्दशप्रत्ययभेदे पञ्चचतुश्चतुस्वित्रिद्विकायविराधनादिभेदान् गाथापट्केनाऽऽह-['मिच्छक्ख पंचकाया' इत्यादि । ११५।३।१२।१ एते पिण्डीकृताः ५१ प्रत्यया मध्यमा भवन्ति । एतेषां भङ्गा: ५।।६।४।३।२।१० परस्परेणाभ्यस्ताः ४३२०० उत्तरोत्तरविकल्पाः स्युः ।। ५१६॥ अथवा मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय तोन, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; इस प्रकार चौदह बन्ध-प्रत्यय होते है ॥११॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+५+३+१+२+१=१४ । मिच्छक्खं चउकाया कोहाइचउक एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो चउदस हवंति ते हेऊ ॥१२०॥ ११।४।४।१।२।१। एदे मिलिया १४ । ५।१।४।४।१।२।। एते मीलिताः १४ मध्यमप्रत्यया भवन्ति । एतेषां च मङ्गाः ५।६।१५।४।३।२।१३ अन्योन्यगुणिता: १४०४०० विकल्पा भवन्ति ।।१२०॥ ___ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक, इस प्रकार चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१२०॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+४+१+२+१=१४ । मिच्छक्खं चउकाया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च एय जोगो य ॥१२१॥ १।१।४।३।१।२।१।। एदे मिलिया १४ । १।१।४।३।१२।१।१ एकत्रीकृताः १४ । एतेषां भङ्गाः ५।६।१५।४।३।२।२।१० परस्परेण गुणिताः २१६००० भवन्ति । अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और एक योग; इस प्रकार चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१२१॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+३+१+२+१+१=१४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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