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________________ १०२ पञ्चसंग्रह मिथ्याष्टि-सासादनाऽविरतगुणस्थाने भवति । सयोगस्य प्रतरलोकपूरणकाले कार्मणावसरे च भवति । अयोगि-सिद्धयोश्चानाहारो ज्ञातव्यः ॥७०॥ [ तथा चोक्तम्-] विग्गहगइमावण्णा समुग्घाया केवली अयोगिजिणा । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा' ॥६॥ इति मार्गणासु यथासम्भवं गुणस्थानानि समाप्तानि । - आहारमार्गणाको अपेक्षा आहारक जीवोंके मिथ्यात्वादि सयोगिकेवल्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं । तथा अनाहारक जीवोंके मिथ्यात्व, सासादन, अविरतसम्यक्त्व, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये पाँच गुणस्थान जानना चाहिए ।।७।। ___ इस प्रकार मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका निरूपण समाप्त हुआ। अब गुणस्थानों में उपयोगोंका वर्णन करते हैं[मूलगा०११] 'दोण्हं पंच य छच्चेव दोसु एकम्मि होंति वामिस्सा । सत्तुवओगा सत्तसु दो चेव य दोसु ठाणेसु ॥७१॥. ५।५।६।६।६।७।७।७।७।७।७१७१२।२। अथ गुणस्थानेषु यथासम्भवमुपयोगान् गाथात्रयेण दर्शयति-['दोण्हं पंच य छच्चेव' इत्यादि । मिथ्यात्व-सासादनयोद्वयोः उपयोगाः पञ्च ५ । ततः अविरत-देशविरतयोः द्वयों पडुपयोगाः ६ । एकस्मिन् मिश्रे मिश्ररूपाः षडुपयोगाः ६ ! सप्तसु प्रमत्तादिषु सप्त उपयोगाः ७ । सयोगयोद्धयोः गुणस्थानयोः द्वावुपयोगी २ भवतः ॥७॥ गुणस्थानेषु सामान्येन उपयोगाःगु० मि. सा. मि. सा० दे० प्र० भ० अ० अ० सू० उ० सी० स० भयो. मिथ्यादृष्टि और सासादन इन दो गुणस्थानोंमें तीनों अज्ञान और चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शन ये पाँच-पाँच उपयोग होते हैं। अविरत और देशविरत इन दो गुणस्थानोंमें आदिके तीनों ज्ञान और आदिके तीनों दर्शन इस प्रकार छह-छह उपयोग होते हैं। एक तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें उक्त छहों मिश्रित उपयोग होते हैं। अर्थात् मत्यज्ञान मतिज्ञानसे मिश्रित होता है, इसी प्रकार शेष भी मिश्रित उपयोग जानना चाहिए। प्रमत्तविरतसे लेकर क्षीणकषायान्त सात गुणस्थानों में आदिके चार ज्ञान और आदिके तीन दर्शन इस प्रकार सात-सात उपयोग होते हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन दो गुणस्थानोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग होते हैं ।।७१॥ अब उक्त मूलगाथाके इसी अर्थको दो भाष्यगाथाओंके द्वारा स्पष्ट करते हैं 'अण्णाणतिय दोसुं। सम्मामिच्छे तमेव मिस्सं तु । णाणाइतियं जुयले सत्तसु मणपजएण तं चेव ॥७२॥ 1. सं पञ्चसं० ४, ११। 2. ४, 'तत्राज्ञानत्रय' इत्यादिगद्यभागः (पृ० ८२) । १. प्रा०पञ्चसं० १,११७ । गो० जी० ६६५ । २. शतक० ११। द ब एयं । द ब जोगो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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