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________________ सप्ततिका है और स्त्रीवेदका क्षय होने पर ग्यारहप्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इस प्रकार पाँच प्रकृतिक बन्धस्थान में दोनों श्रेणियोंकी अपेक्षा छह सत्तास्थान होते हैं । चारप्रकृतिक बन्धस्थानमें द्विकप्रकृतिक और एकप्रकृतिक ये दो उदयस्थान और अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह और पाँच प्रकृतिक सात सत्तास्थान होते हैं । चार प्रकृतिक बन्धस्थान भी दोनों श्रेणियों में होता है । अतः उनके साथ उपशमश्रेणी में अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्तास्थान होते हैं। शेष चार सत्तास्थान क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा जानना चाहिए | उनमें से तेरह, बारह और ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थानोंका वर्णन तो पाँच प्रकृतिक बन्धस्थानके समान ही जानना चाहिए। उसी जीवके हास्यादिषट्कके क्षय हो जाने पर पाँच प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तीन, दो और एक बन्धस्थानमें एक प्रकृतिक उदय और चार चार सत्तास्थान होते हैं, यह बात पहले स्वयं ग्रन्थकार बतला आये हैं । उन चार सत्तास्थानोंमेंसे अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्तास्थान तो उपशमश्रेणी में ही होते हैं। शेष चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक और द्विप्रकृतिक एक-एक सत्तास्थानका स्पष्टीकरण यह है कि उसी अनिवृत्तिबादर संयत के वेदों का क्षय होने पर चार प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है । संज्वलन क्रोध के क्षय हो जाने पर तीन प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, संज्वलन मानके क्षय हो जाने पर द्विप्रकृतिक सत्तास्थान होता है और संज्वलन मायाके क्षय हो जाने पर एकप्रकृतिक सत्तास्थान होता है । पुनः अबन्धक सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके एकप्रकृतिक उदयस्थानके साथ एकप्रकृतिक सत्तास्थान होता है । किन्तु अबन्धक सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमकके एक प्रकृतिक उद्यस्थानके साथ अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्तास्थान पाये जाते हैं । [मूलगा [०२० ] 'दस णव पण्णरसाइ बंधोदयसंतपय डिठाणाणि । भणियाण मोहणिज्जे इत्तो णामं परं वोच्छं ॥ ५१ ॥ ३३५ मोहनीये बन्धोदयसत्त्वप्रकृतिस्थानानि क्रमेण दश ३० नव ६ पञ्चदश १५ भणितानि । मोहनीयप्रकृतिबन्धस्थानानि १० मोहप्रकृत्युदयस्थानानि १ मोहप्रकृतिसत्त्वस्थानानि १९ । इतः परं नामकर्मणस्तानि बन्धोदय सत्त्वप्रकृतिस्थानान्यहं वच्यामि ॥ ५१ ॥ इस प्रकार मोहनीयकर्मके दश बन्धस्थान, नौ उदयस्थान और पन्द्रह सत्त्वस्थान कहे । अव इससे आगे नामकर्मके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंको कहेंगे ॥५१॥ अब उनमें से सबसे पहले नामकर्मके बन्धस्थान कहते हैं [ मूलगा०२१] तेवीसं पणुवीसं छव्वीसं अट्ठवीसंमुगुतीसं । तीसेकतीस मेगं बंधट्टाणाणि णामस्स ॥ ५२ ॥ Jain Education International २३।२५।२६।२८।२६|३०|३१॥१॥ नामकर्मणः बन्धस्थानानि त्रयोविंशतिकं २३ पञ्चविंशतिकं २५ षड्विंशतिकं २६ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ एककं १ इत्यष्टौ २३ ।२५।२६।२८|२६|३०|३१।१ । आद्यानि सप्त मिथ्यादृष्ट्याद्यपूर्वकरणपष्टभागान्तं यथासम्भवं बध्यन्ते । एकं यशः कीर्त्तिकं १ उभयश्रेण्योरपूर्वकरण सप्तमभागप्रथमसमयात्सूक्ष्म साम्परायचरमसमयपर्यन्तं बध्यते ॥५२॥ 1. सं०पञ्चसं० ५, ६० । २. ५, ६१ । १. सप्ततिका० २३ । २. सप्ततिका० २४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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