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कर्मस्तव
॥४॥
प्रमत्तविरतगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०२४] 'थीणतियं चेव तहा आहारदुअं पमत्तविरयम्हि ।
स्त्यानत्रिक (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला ) तथा आहारकद्विक ये पाँच प्रकृतियाँ प्रमत्तविरतमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं।
प्रमत्तविरतमें उदय-व्युच्छिन्न ५। अप्रमत्तविरतगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ
"सम्मत्तं संघयणं अंतिमतियमप्पमत्तम्हि ॥३५॥ सम्यक्त्वप्रकृति और अन्तिम तीन संहनन, ये चार प्रकृतियाँ अप्रमत्तविरतगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३॥
अप्रमत्तविरतमें उदय-व्युच्छिन्न ४ । अपूर्वकरणगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँमूलगा०२५] तह णोकसायछक्कं अपुव्वकरणे* य उदयवोच्छिण्णं ।
।६। नोकषायषट्क अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा; ये छह प्रकृतियाँ अपूर्वकरणगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं।
अपूर्वकरणमें उदय-व्युच्छिन्न ६। अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ
"वेयतियं कोह-माण-मायासंजलण अणियट्टिम्हि ॥३६।।
__तीनों वेद, तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया; ये छह प्रकृतियाँ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३६॥
___ अनिवृत्तिकरणमें उदय-व्युच्छिन्न ६।। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०२६] संजलणलोहमेयं सुहुमकसायम्हि उदयवोच्छिण्णा ।
सूक्ष्मकषायगुणस्थानमें एक संज्वलनलोभ प्रकृति ही उदयसे व्युच्छिन्न होती है।
सूक्ष्मसाम्परायमें उदय-व्युच्छिन्न १ । उपशान्तमोहगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ
तह वज्जयणारायं णारायं चेव उवसंते ॥३७॥
।२।
1. सं० पञ्चसं० ३, ४७ । 2. ३, ४८ पूर्वार्ध । ३. ३, ४८ उत्तरार्ध । 4. ३, ४६ पूर्वार्ध ।
5. ३, ४६ उत्तरार्ध । 6. ३, ५० पूर्वार्ध । १. कर्मस्त० गा० ३० । २. कर्मस्त. गा० ३१ । २. कर्मस्त० गा० ३२ । * प्रतिषु 'अपुव्वकरणाय' इति पाठः ।
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