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________________ २३८ पञ्चसंग्रह तित्थयरूणा ताओ मिच्छादिट्ठी दु बंधंति ॥३७२॥ 11१७॥ मिच्छे वोच्छिण्णूणा ताओ बंधंति आसाया । १०॥ आसायछिण्णपयडी सुराउ-मणुयाउगेहिं ऊणाओ॥३७३॥ सम्मामिच्छाइट्ठी ताओ बंधंति णियमेण । ७४ देव-मणुयाउ-तित्थयरजुया ताओ अजई दु णायव्वा ॥३७४॥ ७७॥ कृष्ण-नील-कापोतलेश्यासु तिसृषु आहारकद्वयोना अन्याः सर्वबन्धप्रकृतयः ११८ । एतास्तीर्थकरत्वोनास्ता एव मिथ्यादृष्टयो बन्नन्ति ११७ । मिथ्यात्वस्य च्युच्छिन्नो १६ नास्ता एव १०१ सासादना बध्नन्ति | सासादनम्युच्छिन्न २५ प्रकृतिदेवायु १ मनुष्यायुष्क १ रूनास्ता एव चतुःसप्ततिं प्रकृतीमिश्रगुणस्थानवर्तिनो बध्नन्ति ७४ । ता एव देवमनुष्यायुष्क-तीर्थकरत्वयुक्ता असंयता बन्नन्ति ७७ कृष्ण-नील कापोतेषु ॥३७२-३७४॥ मि. सा. मि० अ० १६ २५ ० १० कृष्णादिलेश्यात्रययन्त्रम्-- ११७ ७४ ७४ ७७ १ १७४४४१ कृष्ण, नील और कापोत; इन तीन लेश्याओंमें आहारकद्विकके विना शेष ११८ प्रकृतियाँ बन्ध-योग्य हैं। उनमेंसे उक्त तीनों अशुभ लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थङ्करके विना शेष ११७ प्रकृतियाँ बाँधते हैं। मिथ्यात्वमें व्युच्छिन्न होनेवाली १६ प्रकृतियोंके विना शेष १०१ को सासादनगुणस्थानवर्ती बाँधते हैं। उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सासादनमें व्युच्छिन्न होनेवाली २५ और देवायु तथा मनुष्यायु ये दो; इन २७ के विना शेष ७४ प्रकृतियोंको नियमसे बाँधते हैं। उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव देवायु, मनुष्यायु और तीर्थङ्करसहित उक्त ७४ को अर्थात् ७७ प्रकृतियोंको बाँधते हैं, ऐसा जानना चाहिए॥३७२-३७४॥ (देखो संरष्टि सं० २८) वियलिंदिय-णिरयाऊ णिरयदुगापुण्ण-सुहुम-साहरणा । रहियाउ ताउ बंधा तेजाए होंति णायव्वा ॥३७॥ ।१११॥ तित्थयराहारदुगूणाउ च बंधंति ताउ मिच्छा दु । । ०८। इगिजाइ थावरादवहुंडासंपत्तमिच्छसंदृणा ॥३७६॥ सासणसम्माइट्ठी ताओ बंधंति णियमेण । १०१॥ मिस्साइ ओघभंगो अपमत्तंतेसु णायन्वो ॥३७७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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