SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतक लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा कृष्णादि तीन लेश्यावालोंके, तथा असंयमी और अभव्य जीवोंके आहारकद्विकको छोड़कर शेष तेरह-तेरह योग होते हैं। तेजोलेश्यादि तीन लेश्यावालोंके, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और भव्यजीवोंमें सर्व ही योग पाये जाते हैं। चक्षुदर्शनी जीवोंमें अपर्याप्तकाल-सम्बन्धी तीनों मिश्रयोगोंको छोड़कर शेष बारह योग पाये जाते हैं । सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा उपशमसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आहारकद्विकको छोड़कर शेष तेरह तेरह योग जानना चाहिए। वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सभी योग पाये जाते हैं। मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अपर्याप्तककाल-सम्बन्धी मिश्रत्रिक आहारकद्विकको छोड़कर शेष दश योग पाये जाते हैं। संज्ञिमार्गणाको अपेक्षा संज्ञी जीवोंमें सभी योग जानना चाहिए, ऐसा जिन भगवान्ने उपदेश दिया है। असंज्ञी जीवोंमें कार्मणकाययोग, औदारिकद्विक और अन्तिम वचनयोग ये चार योग होते हैं। आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगको छोड़कर शेष चौदह योग पाये जाते हैं। अनाहारक जीवोंमें एकमात्र कामेणकाययोग ही पाया जाता है ।।५१-५४॥ मार्गणाओंमें योगोंका वर्णन समाप्त हुआ। [मूलगा० ८] उवओगा जोगविही मग्गण-जीवेसु वणिया एदे । ___एत्तो गुणेहिं सह परिणदाणि ठाणाणि मे सुणह ॥५॥ [मूलगा० ह] मिच्छा सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । __णव संजए य एवं चउदस गुणणाम ठाणाणि ॥५६॥ मार्गणासु जीवसमासेषु च उपयोगा वर्णिताः, योगविधयश्न वर्णिताः । इतः परं गुणैः सह परिणतानि गुणस्थानकैः सह परिणमितानि मिश्राणि युक्तानि मार्गणस्थानानि गतीन्द्रिय-काय-योगादीनि इमानि वक्ष्यमाणाणि भो भव्या यूयं शृणुत ॥५५॥ मिथ्यादृष्टिः १ सासादनः २ मिश्रः ३ अविरतसम्यग्दृष्टिः ४ देशविरतश्च ५ प्रमत्ता ६ प्रमत्ता ७ पूर्वकरणा ८ निवृत्तिकरण , सूचमसाम्परायो १० पशान्त ११ क्षीणकषाय १२ सयोगाऽ १३ योगसंयता इति नव । एवं चतुर्दश गुणस्थाननामधेयानि गुणस्थाननामानि ॥५६॥ चतुर्दशमार्गणास्थानेषु गुणस्थानरचनेयम्गतिमार्गणायां- इन्द्रियमार्गणायां- कायमार्गणायां- योगमार्गणायां- मनोयोगेन० ति० म० दे० ए० द्वी० श्री. च. पं० पृ० अ० ते० वा. व. प्र० स० मृ० स० अ० ४ ५ १४ ४ १ १ १ १ १४ १ १ १ १ १ १४ १३ १२ १२ १३ वचनयोगे काययोगे वेदमार्गणायांस० मृ० स० अ० भौ० भौ०मि० वै० वै०मि. आ० आ०मि० का० स्त्री० पु० न० १३ १२ १२ १३ कषायमार्गणायांज्ञानमार्गणायां संयममार्गणायांक्रो० मा० माया० लो० कुम० कुश्र० वि० म० श्रु० अ० म० के० सा छे० ५० सू० य० सं० अ० १. शतक. ८। परं तत्र मम्गण-जीवेसु' स्थाने 'जीवसमासेसु' इति पाठः । प्राकृतवृत्तावप्ययं पाठः। २. शतक० है । व च्छो। ब धेयाणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy