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________________ ५२६ पञ्चसंग्रह विशेषार्थ-छठे गुणस्थानमें ६३ प्रकृतियोंका बन्ध होता था, किन्तु सातवें गुणस्थानमें असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशस्कीर्ति, इन छह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है और आहारकद्विकका बन्ध होने लगता है, इसलिए ६३ मेंसे ६ घटानेपर ५७ प्रकृतियाँ रह जाती हैं किन्तु उनमें आहारकद्विक मिला देनेपर ५६ प्रकृतियाँ बन्ध योग्य हो जाती हैं । इन ५६ प्रकृतियोंमें यद्यपि देवायु सम्मिलित है, फिर भी गाथा सूत्रकारने 'अप्रमत्तसंयत देवायुको भी बाँधता है, ऐसा जो वाक्य-निर्देश किया है, उसका अभिप्राय चीकारने यह बतलाया है कि देवायुके बन्धका प्रारम्भ प्रमत्तसंयत ही करता है, किन्तु उसका बन्ध करते हुए यदि वह ऊपरके गुणस्थानमें चढ़े तो, अप्रमत्तसंयतके भी देवायुका बन्ध होता रहता है। इसका अर्थ यह निकला कि सातवें गुणस्थानमें देवायुके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता है, हाँ, यदि कोई प्रमत्तसंयत उसका बन्ध करता हुआ अप्रमत्तसंयत होवे, तो उसके बंध अवश्य संभव है। सातवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें देवायुके बन्धको व्युच्छित्ति हो जाती है, अतः आठवें गुणस्थानके पहले संख्यातवें भागमें अपूर्वकरणसंयत ५८ प्रकृतियोंका वन्ध करता है। तदनन्तर निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर संख्यातवें भागके शेष रहने तक वह ५६ प्रकृतियोंका बन्ध करता है । तदनन्तर देवगति, देवगत्यानुपूर्वी पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीरद्विक, आहारकद्विक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, स, बादर, पयोप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थकर, इन तीस प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने पर अन्तिम भागमें वह अपूर्वकरणसंयत २६ प्रकृतियोंका बन्ध करता है। अपूर्वकरणके सातो भागों में बन्ध, अबन्ध आदि प्रकृतियोंकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। [मूलगा०५४]'यावीसा एगूणं बंधइ अट्ठारसं च अणियट्टी । सतरस सुहुमसराओ सायममोहो सजोई दु ॥४८॥ • अणियट्टीए पंचसु भाएसु . सुहमादिसु य २२ २१ २० १६ १६ १८ ६ .०० १०१ १०२ १२६ १२७ १२८ १२६ १३० १७ १ १ १ . १०३ १५६ ११६ ११६ १२० १३१ १४७ १४७ १४७ १४८ अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमे भागे द्वाविंशति २२ द्वितीये भागे एकविंशतिं २१ तृतीये भागे विंशति २० चतुर्थे भागे एकोनविशति १६ पञ्चमे सागे अष्टादशप्रकृतीबंधनाति १८ । सूचमसाम्परायः सप्तदश प्रकृतीबंधनाति १७ । अमोह इति उपशान्त-क्षीणकषाय-सयोगिनां एकस्य साताकर्मणो बन्धो भवति । एते उपशान्त-क्षीण-सयोगिनः एक सातं बध्नन्तीत्यर्थः । अयोगी अबन्धको भवेत् ॥४८१॥ ___ व्यु० ५ १ १ १ १ अनिवृत्तिकर गस्य पञ्चसु भागेसु ब. २२ २१ २० ११ १८ ___ अ० १८ १६.०० १.१ १०२ १२६ १२७ १२८ १२६ १३० 1. सं. पञ्चसं० ५.४५२। 2. , 'अनिवृत्तौ पञ्चसु भागेसु' इत्यादि (पृ० २२१)। १. सप्ततिका० ५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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