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________________ जीवसमास कायबल, इन्द्रियाँ और आयु ये प्राण सभी पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके होते हैं। श्वासोच्वास पर्याप्त स्थावर और सजीवीके होता है । वचनबल पर्याप्त सजीवोंके, तथा मनोबल संज्ञी पर्याप्त जीवोंके होता है । पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रियोंके दश प्राण होते हैं। शेष पर्याप्त जीवोंके एक-एक प्राण कम होता है और एकेन्द्रियोंके दो प्राण कम होते हैं । अपर्याप्त संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके सात प्राण होते हैं, और शेष जीवोंके एक-एक प्राण कम होता जाता है। पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियों के पाँचों इन्द्रियाँ, तीनों बल, आयु और आनपान ये दशों प्राण होते हैं। पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रियके मन-रहित शेष नौ प्राण होते हैं । पर्याप्त चतुरिन्द्रियके उक्त नौ प्राणों में से श्रोत्र-रहित शेष आठ प्राण होते हैं। पर्याप्त त्रीन्द्रियके उक्त आठ प्राणोंमें से चक्षु-रहित शेष सात प्राण होते हैं। पर्याप्त द्वीन्द्रियके उक्त सात प्राणोंमेंसे घ्राण-रहित शेष छह प्राण होते हैं । पर्याप्त एकेन्द्रियके उक्त छह प्राणोंमेंसे रसनाइन्द्रिय और वचनबल इन दो प्राणोंसे रहित शेष चार प्राण होते हैं । अपर्याप्त पंचेन्द्रिय-द्विकमें मनोबल, वचनबल और श्वासोच्छ्वास इन तीनसे कम शेष सात प्राण होते हैं । अपर्याप्त चतुरिन्द्रियके उक्त सातमें कर्णेन्द्रिय कम करनेपर शेष छह प्राण होते हैं । अपर्याप्त त्रीन्द्रियके उक्त छह में से चक्षुरिन्द्रिय कम करने पर शेष पाँच प्राण होते हैं । अपर्याप्त द्वीन्द्रियके घ्राणेन्द्रिय कम करने पर शेष चार प्राण होते हैं। अपर्याप्त एकेन्द्रियके रसना-रहित शेष तीन प्राण होते हैं । इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है ||४७-५८ ॥ 1 इस प्रकार प्राणप्ररूपणा समाप्त हुई । संज्ञाप्ररूपणा 'इह जाहि बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं सेवंता विय भए ताओ चत्तारि सण्णाओ ॥ ५१ ॥ जिनसे बाधित होकर जीव इस लोकमें दारुण दुःखको पाते हैं और जिनको सेवन करनेसे जीव दोनों ही भवोंमें दारुण दुःखको प्राप्त करते हैं, उन्हें संज्ञा कहते हैं और वे चार होती हैं—आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा ॥५१॥ आहारसंज्ञाका स्वरूप 'आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण +ऊणकुण | सादिरुदीरणाए होदि हु आहारसण्णा दु ॥ ५२ ॥ बहिरंगमें आहारके देखनेसे, उसके उपयोगसे और उदररूप कोठाके खाली होने पर तथा अन्तरंग में असातावेदनीयकी उदीरणा होने पर आहारसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥५२॥ भयसंज्ञाका स्वरूप ११ अ + भीमदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणसत्तेण । भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे चउहिं ॥५३॥ Jain Education International बहिरङ्गमें अति भयानक रूपके देखनेसे, उसका उपयोग करनेसे और शक्तिकी हीनता होने पर, तथा अन्तरंग में भयकर्मकी उदीरणा होने पर, इस प्रकार इन चार कारणोंसे भयसंज्ञा उत्पन्न होती है ||५३॥ 1. सं० पञ्चसं० १, ३४४ । १.१, ३४८ । ३. १, ३४६ । १. गो०जी० १३३ । २. गो० जी० १३४ । ३. गो० जी० १३५ । ॐ द् -उभये । + ब -ओन, द भोमु । 1 ब - इय | X ब ऊन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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