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गुणस्थानेषु योगाःसू० उ०पो० स० अयो०
प्र० अ० अ० अ० ११ १३ ६ ह ६
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इति गुणस्थानेषु योगा निरूपिताः ।
मिथ्यात्व, सासादन और अविरतसम्यक्त्व इन तीन गुणस्थानों में तेरह-तेरह योग होते हैं । एक सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें दश योग होते हैं । छठे गुणस्थानको छोड़कर पाँचवें से बारहवें तक सात गुणस्थानोंमें नौ-नौ योग होते हैं । एक प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में ग्यारह योग होते हैं । एक सयोगिकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानमें सात योग होते हैं और अयोगिकेवली नामक एक चौदहवाँ गुणस्थान योग-रहित होता है ॥७४॥
मि० सा०मि० अ० दे० १३ १३ १०
पञ्चसंग्रह
अब उक्त मूलगाथाके अर्थका दो भाष्यगाथाओंसे स्पष्टीकरण करते हैं'आहारदुगुणा तिसु वेउव्वोराल मण वचि चउक्का | मिस्से देउव्वूणा सत्तसु आहारदुयजुया घट्ट ॥७५॥ भासा - मणजोआणं असच्चमोसा य सच्चजोगा य । 'ओरालजुयल - कम्मा सत्तेदे होंति जोगिम्मि ॥७६॥ इति गुणस्थानेषु चतुर्दशसु योगाः दर्शिताः ॥
मिथ्यात्व - सासादनाऽयमगुणस्थानेषु त्रिषु आहारकाऽऽहारक मिश्रद्विकोना अन्ये त्रयोदश योगाः १३ । मिश्र वैक्रियिकौदारिककाययोगौ २, सत्यासत्योभयानुभयमनो-वचनयोगाः अष्टौ एवं दश १० । अप्रमत्ताऽपूर्वकरणानिवृत्तिकरण सूचमसाम्परायोपशान्त क्षीणकषाय- देश विरतगुणस्थानेषु सप्तसु वैक्रिय[कद्वि] कोना औदारिककाययोगः १, मनो-वचनयोगाः अष्टौ म; एवं नव योगाः भवन्ति । षष्ठे प्रमत्ते पूर्वोक्ताः नव ६, आहारकद्विकयुक्ता एकादश ११ ॥७५॥
सयोगिनि गुणस्थाने भाषा-मनोयोगानां मध्ये असत्यमृषायोगौ मुक्त्वा अन्ये अनुभयमनो-वचनयोगाँ २, सत्यमनो-वचनयोगौ २, औदारिकौदारिक मिश्र - कार्मणकयोगास्त्रयः ३, इत्येते सप्त योगाः सयोगिकेवलिनि भवन्ति ॥ ७६ ॥
इति गुणस्थानेषु योगा दर्शिताः ।
पहले, दूसरे और चौथे इन तीन गुणस्थानों में आहारकद्विकके विना शेष तेरह योग होते हैं। तीसरे मिश्रगुणस्थानमें चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग होते हैं । इन दश योगों मेंसे वैक्रियिककाययोगको छोड़कर शेष नौ योग छठे गुणस्थानके सिवाय शेष सात गुणस्थानों में होते हैं । छठे गुणस्थान में आहारकद्विकयुक्त उपर्युक्त नौ योग अर्थात् ग्यारह योग होते हैं । सयोगिकेवली में भाषा और मनोयोगके असत्यमृषा और सत्ययोगरूप चार भेद, तथा औदारिकद्विक और कार्मणकाययोग ये तीन; इस प्रकार कुल सात योग होते हैं । ७५-७६ ।।
इस प्रकार चौदह गुणस्थानों में योगोंका निरूपण किया ।
1. सं० पञ्चसं० ४, 'मिथ्यादृक्सासनात्रतेषु' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० ८३) । 2. ४, १४ ।
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