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________________ २१६ पञ्चसंग्रह तीर्थकर और आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंका बन्धक मिथ्यादृष्टि जीव कहा गया है। इसलिए मिथ्यात्वगुणस्थानमें ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। सम्यक्त्वगुणके निमित्तसे तीर्थङ्कर प्रकृतिका और संयमगुणके निमित्तसे आहारकद्विकका बन्ध होता है । शेष एक सौ सत्तरह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व, अविरति आदि हेतुओंसे बँधती है।३०५-३०६॥ अब कितनी प्रकृतियाँ किस गुणस्थान तक बँधती हैं, इस बातका निरूपण करते हैं सोलस मिच्छत्तंता आसादंता य पंचवीसं तु । तित्थयराउवसेसा अविरय-अंता दु मिस्सस्स ॥३०७॥ षोडश प्रकृतीः मिथ्यादृष्टिगुणस्थानचरमसमयान्ता बन्ध-व्युच्छिन्ना बध्नन्ति १६ । पञ्चविंशतिप्रकृतीः सासादनान्ता बन्धव्युच्छेदं प्राप्ता बध्नन्ति २५ । तीर्थङ्करप्रकृति देव-नरायुयं च विना याः शेषाः प्रकृतीः अविरतान्ता बध्नन्ति ता मिश्रे च बध्नन्ति । तथाहि-मिश्रे मनुष्यायुर्देवायुर्बन्धो न । असंयतादौ तीर्थकरत्वबन्धोऽस्ति, नरायुषो व्युच्छेदः । अप्रमत्तान्तं देवायुषो बन्धः ॥३०७॥ मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्त तक वक्ष्यमाण सोलह प्रकृतियाँ बँधती हैं। पच्चीस प्रकृतियाँ सासादनगुणस्थानके अन्त तक बंधती है। अविरतगुणस्थानके अन्त तक जिनका बन्ध होता है, ऐसी तीर्थङ्कर और आयुद्विकके विना चौहत्तर प्रकृतियाँ मिश्रगुणस्थानके अन्त तक तक बँधती हैं ॥३०७॥ २५ १०१ इदि तित्थयराहार दुगूणा मिच्छादिठिम्मि: सासणे . मणुयदेवाच्यं विणा मिस्से cm4 इति गुणस्थानेषु प्रकृतीनां स्वामित्वं कथ्यते-तीर्थङ्करत्वाऽऽहारकद्वयोना मिथ्यादृष्टौ, सास्वादने, मनुष्य-देवायुा विना मिश्रे म. १६ ११७ वि० बं० सा. २५ १०५ मि. . ७४ " ० अ. ० 9 9 . इस प्रकार तीर्थङ्कर और आहारकद्विकके विना मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्तिके योग्य प्रकृतियाँ १६ है, बन्धके योग्य ११७ हैं, अबन्धप्रकृतियाँ ३ हैं और ३१ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। सासादनगुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्तिके योग्य प्रकृतियाँ २५ हैं, बन्धके योग्य ११७ हैं, अबन्धप्रकृतियाँ १६ हैं और ४७ प्रकृति पोंके बन्धका अभाव है। मिश्रगुणस्थानमें मनुष्यायु और देवायुके विना बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ ७४ हैं, अबन्धप्रकृतियां ४६ हैं और ७४ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। इस गुणस्थानमें किसी भी प्रकृतिको बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती है। 3. सं० पञ्चसं० ४, १६४-१६५ । १. शतक० ४६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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