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पञ्चसंग्रह
जिन धर्म-विशेपोंके द्वारा नाना जीव और उनकी नाना प्रकारकी जातियाँ जानी जाती हैं, पदार्थोका संग्रह करनेवाले उन धर्मविशेषोंको जीवसमास जानना चाहिये ।।३।। जीवसमासोके भेदोंका वर्णन
जीवद्वाणवियप्पा चोइस इगिवीस तीस बत्तीसा ।
छत्तीस अट्ठतीसाऽडयाल चउवण्ण सयवण्णा ॥३३।। जीवों के स्थानोंको जीवसमास कहते हैं। जीवस्थानोंके भेद क्रमशः चौदह, इक्कीस, तीस, बत्तीस, छत्तीस, अड़तीस, अड़तालीस, चौवन और सत्तावन होते हैं ।।३३।। चौदह भेदोका निरूपण
वायरसुहुमेगिंदिय-वि-ति-चउरिंदिय-असण्णि-सण्णी य ।
पज्जत्तापजत्ता एवं ते चोदसा होंति ॥३४॥ बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय और संज्ञिपंचेन्द्रिय, ये सातों ही पर्याप्तक और अपर्याप्तक रूप होते हैं। इस प्रकार जीवसमासके चौदह भेद होते हैं ॥३४॥ ( देखो संदृष्टि सं० १) इक्कीस भेदोंका निरूपण
चोद्दस पुव्वुदिहा अलद्धिपज्जत्तया य सत्तेव ।
इय एवं इगिवीसा णिदिवा जिणवरिंदेहि ॥३॥ पूर्वोद्दिष्ट चौदह भेद, तथा लब्ध्यपर्याप्तक-सम्बन्धी उपर्युक्त सातों ही भेद, इस प्रकार जीवसमासके ये इक्कीस भेद जिनवरेन्द्रोंने कहे हैं ॥३५।। ( देखो सं० सं० २) तीस भेदोंका निरूपण
'पंच वि थावरकाया दादर-सुहुमा पज्जत्त इयरा य ।
दस चेव तसेसु तहा एवं जाणे हु तीसा य ॥३६॥ पाँचों ही स्थावरकायिकजीव बादर-सूक्ष्म और पर्याप्तक-अपर्याप्तकके भेदसे बीस भेदरूप होते हैं। तथा त्रसजीवोंमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय और संज्ञिपंचेन्द्रिय इन पाँचोंके ही पर्याप्तक-अपर्याप्तकके भेदसे दश भेद होते हैं । इस प्रकार स्थावरोंके बीस,त्रसोंके दश ये दोनों मिलकर तीस भेद जानना चाहिये ॥३६।। ( देखो सं० सं० ३) बत्तीस भेदोंका निरूपण
पुव्वुत्ता वि य तीसा जीवसमासा य होंति णवरं तु ।
सुपरिट्ठिय दो सहिया जीवसमासेहिं बत्तीसा ॥३७॥ पूर्वोक्त जो तीस जीवसमास हैं, उनमें केवल वनस्पतिकायिक-सम्बन्धी सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित ये दो भेद और मिला देनेपर बत्तीस जीवसमास हो जाते हैं ॥३७॥( देखो सं० सं०४)
1. सं० पञ्चसं० १, ६८-६६ । '. १,६४-६५। ३. १, १००। 1. १, १०१-१०२ ।
5.१, १०३-१०४ । १. गो. जी. ७२ । * ब -अडतीसा ।
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