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________________ परिवर्त्तमान प्रकृतियाँ पनसंग्रह 'साइयरं वेदतियं हस्सादिचउक पंच जाईयो । संठाणं संघडणं छ छक्क चउक्क आणुपुन्वी य ॥११॥ गइचउ दो: य सरीरं गोयं च य दोण्णि अंगांगाय । दह जुवाणि 'ताई गयणगइदुगं विसट्ठि परिवत्ता ॥ १२ ॥ । ६२ । एवं पर्याडिसमुक्कित्तणं समत्तं । सातावेदनीय असातावेदनीय, तीनों वेद, हास्यादि चतुष्क, पाँचों जातियाँ, छहों संस्थान, छहों संहनन, चारों आनुपूर्वियाँ, चारों गतियाँ, औदारिक और वैक्रियिक ये दो शरीर, दोनों गोत्रकर्म, औदारिक और वैक्रियिक ये दो अंगोपांग, त्रसादि दश युगल और विहायोगति-युगल ये बासठ प्रकृतियाँ परिवर्तमान जानना चाहिए ॥११- १२ ॥ विशेषार्थ - जिन परस्पर विरोधी प्रकृतियों का उदय एक साथ संभव नहीं है, उन्हें परिवर्तमान कहते है । जैसे सातावेदनीयका उदद्य जिस समय किसी जीवके होगा, उस समय उसके असातावेदनीयका उदय संभव नहीं है । किसी एक वेदके उदय होने पर उस समय दूसरे वेदका उदय नहीं हो सकता । इसलिए इन्हें परिवर्तमान प्रकृति कहते हैं । ऐसी परिवर्तमान प्रकृतियाँ ६२ होती हैं जिन्हें ऊपर गिनाया गया है । उनमें जो त्रसादि दश युगल बतलाये हैं, वे इस प्रकार हैं—१ बस-स्थावर, २ बादर-सूक्ष्म, ३ पर्याप्त अपर्याप्त, ४ प्रत्येकशरीर-साधारणशरीर, ५ स्थिर-अस्थर, ६ शुभ-अशुभ, ७ सुभग-दुर्भग, ८ सुस्वर- दुःस्वर, ६ आदेय अनादेय और १० यशः कीर्त्ति - अयशः कीर्त्ति । इसप्रकार प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन नामक द्वितीय अधिकार समाप्त हुआ । 1. सं० पञ्चसं० २, ४५-४६ । १. तस थावरं च बादर-सुहुमं पज्जत तह अपज्जतं । पत्तेयसरीरं पुण साहारणसरीर थिरमथिरं ॥ १ ॥ Jain Education International सुह-असुह सुहग दुब्भग सुस्सर दुस्सर तहेव णायव्वा । आदिज्जमणादिज्जं जसकित्ति अजसकित्ती य ॥२॥ द ब टिप्पणी | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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