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________________ ४५४ पञ्चसंग्रह वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग इन दोनों योगोंको चौथे गुणस्थानमें संभव आठों उदयस्थानोंसे गुणाकर पुनः सोलह सङ्गोंसे गुणा करनेपर असंयतगुणस्थानके भङ्ग उत्पन्न होते हैं ।।३३।। 1एत्थ अविरदे कसाया ४ । पुवेद-णपुसगवेदा २। हस्सादिगुयलं २ अण्णोण्णगुणा भंगा १६ । एदे अट्ठोदयगुणा १२८ । वेउब्वियमिस्स- कम्मइयजोगेहिं गुणा २५६ । तथाहि-असंयते वैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगयोः स्त्रीवेदोदयो नास्तीति, असंयतस्य स्त्रीष्वनुत्पत्तेः । अत्राविरते कषायाः ४ पुवेद-नपुंसकवेदौ २ हास्यादियुगलं २ अन्योन्यगुणिताः भङ्गाः १६ । एते अष्टोदयगुणाः १२८ वैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगाभ्यां २ गुणिताः २५६ । वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगमें स्थित चतुर्थगुणस्थानवी जीवके स्त्रीवेदका उदय संभव नहीं है । इसलिए यहाँ असंयतगुणस्थानमें चार कषाय, पुरुष, नपुंसक ये दो वेद और हास्यादि युगलको परस्पर गुणा करनेपर १६ भङ्ग होते हैं। उन्हें इस गुणस्थानमें संभव आठ उदयस्थानोंसे गुणा करनेपर १२८ भङ्ग होते हैं और उन्हें वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोगसे गुणा करनेपर २५६ भङ्ग हो जाते हैं । इस प्रकार इन दोनों योगोंके २५६ भङ्ग जानना चाहिए। अब चौथे ही गुणस्थानमें औदारिकमिश्रयोग गत बिशेषताको बतलाते है तेणेव होंति णेया ओरालियमिस्सजोगभंगा हु। उदयद्रेण य गुणिए भंगवियप्पा य होंति सव्वेवि ॥३४०॥ तेनैव प्रकारेणौदारिकमिश्रयोगभगा भवन्तीति ज्ञेयाः। असंयतौदारिकमिश्रयोगे स्त्री-पण्ढवेदी न स्तः । कुतः ? तस्य तयोरनुत्पत्तेः । असंयते अष्टौ उदयस्थानविकल्पाः ८ कषायचतुष्क ४ पुवेद १ हास्यादियुग्म २ गुणिता अष्टौ। तैर्गुणकारैर्गुणिताश्चतुःषष्टिः ६४ सर्वे असंयतौदारिकमिश्रस्योदयस्थानभङ्गाः स्युः ॥३४०॥ उसी प्रकारसे औदारिकमिश्रकाययोगसम्बन्धी भङ्गोंको जानना चाहिए । अर्थात् चौथे गुणस्थानमें औदारिकमिश्रकाययोगके साथ स्त्री और नपुंसक इन दो वेदोंका उदय संभव नहीं है, इसलिए इस गुणस्थानमें संभव आठ उदयस्थानोंको प्रकृति-परिवर्तनसे उत्पन्न होनेवाले आठ ही भङ्गोंसे गुणा करनेपर सर्व भङ्ग-विकल्प आ जाते है ॥३४०॥ तह कसाया ४ पुवेदे १ हस्साइजुगं २ । अण्णोण्णगुणा भंगा ८ । एदे वि अट्ठोदयगुणा ६४ । ओरालियमिस्सगुणा वि ६४ । तद्यथा-कषायचतुष्कं ४ पुंवेदः १ हास्यादियुग्मं २ अन्योन्यगुणिताः अष्टौ ८। एते अष्टोदयगुणिताः ६४ । एते औदारिकमिश्रयोगेन १ गुणितास्तदेव ६४ । औदारिकमिश्रकाययोगमें चार कपाय, एक पुरुषवेद और हास्यादियुगलको परस्पर गुणा करनेपर ८ भङ्ग होते हैं। उन्हें इस गुणस्थानमें संभव आठ उदयस्थानोंसे गुणा करनेपर ६४ भङ्ग आते हैं। उन्हें औदारिकमिश्रकाययोगसे गुणा करनेपर भी ६४ हो भङ्ग इस योग-सम्बन्धी उत्पन्न होते हैं। 1. सं० पञ्चसं० ५, ''नपुंसक वेदद्वय' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २०७)। 3. ५, 'युग्मैकवेद' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २०७) । 2. ५, ३६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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