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________________ शुद्धि-पत्र पृ० पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ८ २९-३० और अप्रतिष्ठित ये के पर्याप्त और अपर्याप्त ये ४-५ में बादर चतुर्गति "सप्रतिष्ठितके चार में, इतरनिगोदके बादर सूक्ष्म पर्याप्त तथा अपर्याप्त अर्थात् बादर इतरनिगोद पर्याप्त, बादर इतरनिगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म इतरनिगोद पर्याप्त, और सूक्ष्म इतरनिगोद अपर्याप्त, ये चार १० २१ ये प्राण ये द्रव्य प्राण १० २३-२४ आदिकी "तथा वचन १० ३३ वीइंदियादि एइंदियादि १२ ५ वा तीव्र उदय १३ २७-२८ और युगके आदिमें मनुओंसे उत्पन्न हुए हैं ३२ गो० जी० २०७ गो० जी० २१५ ५ भी आच्छादित करे भी दोषसे आच्छादित करे ३२ पृ० २४१ पृ० ३४१ ३० पृ० ३५४ पृ० ३५१ १२ पहले और आठवें पहले और सातवें २७ द्रव्यसंयम संयम १ भावसंयमका स्वरूप ४ विरत होना, सो भावसंयम २७ कर, कोई ३५-३६ ध० १, ३,२ गो. २० ११॥ ३३ उच्छ्वास, उद्योत ५० १२-१३ उदय १४-१५ २८ जानेपर नाम और गोत्रको छोड़कर २४ तत्र सत्त्वम् १६। जो विरतिभाव है सो संयम कर, कोई शाखाको काटकर, कोई ध० भा० ४ पृ० २९ गो० १३॥ उच्छ्वास, आतप, उद्योत बन्ध MAM जानेपर मोहनीयको छोड़कर तत्र तासां व्युच्छेदः १६॥ ६९ २३,२४, उवसंते १०१ २५ १९ चौंतीसका सत्त्व है। चौंतीसका असत्त्व है ७० २८-३० उपशान्तमोह.....''व्युच्छित्ति नहीं होती २ पञ्चकं ५ पञ्चकं ५ [ औदारिकादिशरीरबन्धनपञ्चकं ५] ७४ १ स्वात्मलामं स्यात्मलाभं ७५ २७ अप्रत्याख्यानचतुष्टयस्य देशविरते अप्रत्याख्यानचतुष्टयस्याविरते युगपद् बन्धोदयौ विच्छेदी भवतः । प्रत्याख्यानचतुष्टयस्य देशविरते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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