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पञ्चसंग्रह
नारके भङ्गसंदृष्टि :--
MAA.
णि १ णि णि १.णि १ णि १
स० १ १२ १२ १३ १३ नवीन आयुके अबन्धकालमें नरकायुका उदय और नरकायुका सत्त्वरूप एक भंग होता है । तिर्यगायु या मनुष्यायुके बन्ध हो जाने पर नरकायुका उदय और नरकायुके सत्त्वके साथ तिर्यगायु और मनुष्यायु इन दोका सत्त्व पाया जाता है। इस प्रकार नरकायुके पाँच भंग हो जाते हैं ॥२६२॥
नरकायुसम्बन्धी पाँच भंगोंकी संदृष्टि मूलमें दी है और इन भंगोंका स्पष्टीकरण इसी प्रकरणके प्रारम्भमें गाथाङ्क २१ के विशेषार्थमें कर आये हैं, सो विशेष जिज्ञासु जन वहींसे जान लेवें। अब तिर्यगायुके भंगोंका निरूपण करते हैं
तिरियाउस्स य उदये चउण्हमाऊणऽबंध बंधे य । तिरियाउयं च संतं तिरियाई दोणि संताणि ॥२६३॥
1तिरियभंगा- २ २ २ २ २ २ २ २ २
२ २५१२।१२।२ २।२ २१३ २।३ २।४ २।४ तिर्यगायुष उदये उदयागतभुज्यमाने चतुर्णामायुषोऽबन्धे बन्धे च तिर्यगायुःसत्त्वं च तिर्यगाद्यायुद्वयं सत्त्वं उदयागतभुज्यमानसत्त्वं चापरं बध्यमानायुष्यचतुष्कस्य मध्ये एकतराऽऽयुषः सत्वमित्यर्थः। तिर्यगायुभङ्गाः नव १ ॥२६३॥
[तिर्यक्षु भङ्गसंदृष्टिः-] बं० ० १ ० २ ० ३ ० ४ ० उ० ति २ ति २ ति२ ति २ ति२ ति २ ति २ ति२ २
स० २ २११ २१ २२ २२२ २३ २१३ २।४ २४ तिर्यगायुके उदयमें और चारों आयुकर्मों के अनन्धकालमें, तथा बन्धकालमें क्रमशः तिर्यगायुका सत्त्व और तिर्यगायुके साथ चारों आयुकर्मों में से एक एक आयुका सत्त्व; इस प्रकार दो आयुकर्मोका सत्त्व पाया जाता है । इस प्रकार तिर्यगायुके नौ भंग हो जाते हैं ॥२६३॥
तिर्यगायुसम्बन्धी नौ भंगोंकी संदृष्टि मूलमें दी है । इन भंगोंका विशेष स्पष्टीकरण प्रारम्भमें गाथाङ्क २२ के विशेषार्थमें किया जा चुका है। अव मनुष्यायुके भंगोंका निरूपण करते हैं
मणुयाउस्स य उदए चउण्हमाऊणऽबंध बंधे य । मणुयाउयं च संतं मणुयाई दोणि संताणि ॥२४॥
मणुयभंगा-३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३
३ ३।१३।१ ३.२ ३२ ३३ ३३ ३३४ ३।४
2. ५, 'मनुष्येषु'
1. सं० पञ्चसं० ५, 'तियतु इत्यम्' इत्यादिगद्यभागः। (पृ० १६६)।
इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६६)।
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