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________________ १७ १३ भूत्वा नवकं बध्नाति । नवकबन्धकोऽपूर्वकरणोऽनिवृत्तिकरणप्रथमभागं प्राप्तः प्रकृतिपञ्चकं बध्नाति ह [ इति ] सप्तदशकबन्धे द्वौ २, प्रयोदशकन्धे एकः १, नयकयन्धे एकः । एवं अल्पतराश्रव्वारः १३ ६ । तत्पञ्चकं बध्नन् पञ्चकबन्धकः अनिवृत्तिकरणस्य द्वितीयभागे चत्वारि बध्नाति । चतुर्वन्धक ४ शतक ३ स्तृतीयभागे श्रीणि बध्नाति । त्रिवन्धकश्चतुर्थभागे द्वे बध्नाति | द्विवन्धकः पञ्चमभागे एकं बध्नाति ३ २ ० अवक्तव्यभुजाकारौ द्वौ २ । १ १७ २ १ । इति एकैकाल्पतरबन्धात्वारः इति द्वाविंशतिकम्पादि-द्विबन्धान्तेषु अल्पतरबन्धा एकादश ११ भवन्ति । बहुप्रकृतिकं बध्नन् अनन्तरसमयेऽल्पप्रकृतिकं बध्नाति तदाश्वतरबन्धः स्यात् । अवक्तव्यभुजाकारौ द्वौ । उपरतबन्धोऽबन्धः सन् उपशमण्याऽयोऽवतीर्य सूचमसाम्परायोऽस्तमोहबन्धोऽवतरणेऽनिवृत्तिकरणो भूखा एक संचलनलोभं बनातीत्येकः स एव यदि बदायुक्क आरोहणेऽवरोहणे वा म्रियते तदा देवासंयतो भूखा द्विधा सप्तदशकं बनातीति द्वौ ॥२५२२-२५५॥ । बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानका बाँधनेवाला जीव ऊपरके गुणस्थानों में चढ़कर सत्तरह, तेरह और नौ प्रकृतिक स्थानोंका बन्ध करता है । सत्तरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला जीव ऊपर के गुणस्थानों में चढ़कर तेरह और नौ प्रकृतिक स्थानोंका बन्ध करता है। तेरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला नौ प्रकृतिक स्थानको बाँधता है। नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला पाँच प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । पाँच प्रकृतिक स्थानका बन्धक चार प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । चार प्रकृतिक स्थानका बन्धक तीन प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । तीन प्रकृतिक स्थानका बन्धक दो प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है और दो प्रकृतिक स्थानका बन्धक एक प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है। इस प्रकार सर्व मिलकर ग्यारह अल्पतर बन्धस्थान हो जाते हैं। उपरत बन्धवाला नीचे उतरकर एकका और देवोंमें उत्पन्न होकर सत्तरहका बन्ध करता है । ये दो अवक्तव्य बन्ध हैं ॥ २५२३-२५५।। 1 वसंतकसाय हा मोदरिय अहवा सुहमुवसामओ हेद्वा ओदरिय अणियट्टी होऊण एवं बंधइ । अहवा सुमुवसामओ कालं काऊण देवेसुप्पण्णो सत्तरसं बंधइ । भवन्त्तव्वभुजयारा - १ | भुजयार- अप्प ० १७ यावत्तत्वसमासेण अवडिया हांति ३३ । उपशान्तकपायादयोऽवतीर्य सूक्ष्मसाम्परावाद्वाऽथोऽवतीर्य अनिवृत्तिकरणो भूत्वा एकं संलनलोभं बध्नाति । अथवा सूक्ष्मसाम्परायो मुनिः कालं कृत्वा मरणं प्राप्य देवासंयतो भूत्वा सप्तदशकं १७ बनातीति ३३५ ० १। Jain Education International १७ भुजाकारा विंशतिः २०, अल्पतरबन्धा एकादश ११, अवक्तव्यौ २ । एवं सर्वे एकीकृताः संक्षेपेणावस्थितबन्धात्रयस्त्रिंशत् ३३ भवन्ति ॥ २५५॥ मोहकर्मके बन्धसे रहित एकादशम गुणस्थानवर्ती उपशान्तकषाय संयत नीचे उतरकर अथवा सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक नीचे उतरकर अनिवृत्तिकरण संयत होकर एक प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । अथवा सूक्ष्मसाम्पराय-उपशामक मरण कर देवों में उत्पन्न होने पर सत्तरह 1. सं० पञ्चसं० ४, ११३-१३५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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