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________________ सप्ततिका उच्चगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनोंका सत्तारूप प्रथम भङ्ग है। नीचगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनोंका सत्तारूप द्वितीय भङ्ग है । तथा सर्वनीच अर्थात् नीचगोत्र का बन्ध, नीचगोत्रका उदय और नीचगोत्रका सत्त्वरूप तृतीय भङ्ग है। इस प्रकार गोत्रकर्मके पृथक्-पृथक् ये तीन भङ्ग होते हैं ॥२६१॥ स्पष्टीकरण-इन तीनों भङ्गोंकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। उसमें एकका अंक उच्चगोत्रका और शून्य नीचगोत्रका बोधक जानना चाहिए। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तको छोड़कर शेष तेरह जीवसमासोंमें उक्त तीन-तीन भङ्ग होते हैं। अतएव तेरहको तीनसे गुणित करनेपर तेरह जीवसमासोंके जनतालीस भङ्ग हो जाते हैं। संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके प्रारम्भके छह भङ्ग होते हैं। केवलीके अन्तिम दो भङ्ग होते हैं ।।२६२॥ स्पष्टीकरण-इसी प्रकरणके प्रारम्भमें गाथाङ्क १८ को व्याख्या करते हुए गोत्रकर्मके सात संदृष्टिके साथ बतला आये हैं। उनमेंसे प्रारम्भके छह भङ संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तके होते हैं। इनकी अङ्कसंदृष्टि मूलमें दी है। केवलोके उन सात भङ्गोंमेंसे अन्तिम दो भङ्ग होते हैं। इनकी भी अंकसंदृष्टि मूल में दी है। इस प्रकार सर्व मिलाकर (३६+६+२= ) ४७ भङ्ग गोत्रकर्मके होते हैं। अब भाष्यगाथाकार इसी अर्थका उपसंहार करते हुए आगे मोहकके भङ्गोंके कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं ऊपर जो तेरह जीवसमासके उनतालीस संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके छह और केवलीके दो भङ्ग बतलाये हैं, वे सब मिलकर गोत्रकर्मके तैंतालीस भङ्ग होते हैं। अब इससे आगे मोहकर्मके भङ्ग कहेंगे ॥२६३॥ __अब पूर्व प्रतिशाके अनुसार सप्तिकाकार जीवसमासोमें मोहकर्मके भङ्गोका निरूपण करते हैं[मूलगा०३०] अट्ठसु पंचसु एगे एय दुय दसय मोहबंधगए । तिउ चउ णव उदयगदे तिय तिय पण्णरस संतम्मि ॥२६४॥ जीवसमासेस बं० १ २ १० जविसमास उ०३ ४ ९ - सं०३ ३ १५ अथ मोहनीयस्य जीवसमासेषु बन्धादित्रिसंयोगभङ्गान् गाथाचतुष्केनाऽऽह-['अदृसु पञ्चसु एगे' इत्यादि ।] अष्टसु जीवसमासेषु ८ पञ्चसु जीवसमासेषु ५ एकस्मिन् जीवसमासे १ च क्रमेण मोहप्रकृतीनां बन्धस्थानमेकं १ द्विकं २ दशकं १०च, तथा मोहप्रकृत्युदयस्थानं त्रयं ३ चतुष्कं ४ नवकं , तथा मोहप्रकृतीनां सत्त्वस्थानं त्रिकं ३ च त्रिकं ३ च पञ्चदशकं च १५ भवन्ति ॥२६॥ ___ जीवस. ८ जीवस० ५ जीवस० १ बन्ध: उदयः सत्ता आठ, पाँच और एक जीवसमासमें मोहकर्मके क्रमशः एक, दो और दश बन्धस्थान; तीन, चार और नी उदयस्थान; एवं तीन-तीन और पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं ॥२६४॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। १० १. सप्ततिका० ३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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