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________________ पञ्चसंग्रह जो इन्द्रियोंके व्यापारसे युक्त नहीं हैं, अवग्रहादिके द्वारा भी पदार्थों के ग्राहक नहीं हैं और जिनके इन्द्रिय-सुख भी नहीं है, ऐसे अतीन्द्रिय अनन्त ज्ञान और सुखवाले जीवोंको इन्द्रियातीत सिद्ध जानना चाहिये ।।७४॥ ___इस प्रकार इन्द्रियमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। अब कायमार्गणाका वर्णन करते हुए पहले कायका स्वरूप कहते हैं 'अप्पप्पत्तिसंचियपुग्गलपिंडं वियाण काओ त्ति । सो जिणमयम्हि भणिओ पुढवीकायाइयो छद्धा ॥७॥ योगरूप आत्माकी प्रवृत्तिसे संचयको प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गलपिंडको काय जानना चाहिये । वह काय जिनमतमें पृथिवीकाय आदिके भेदसे छह प्रकारका कहा गया है ॥७५।। जह* भारवहो पुरिसो वहइ भरं गिहिऊण काउडियं । एमेव वहइ जीवो कम्मभरं कायकाउडियं ॥७६॥ जिस प्रकार कोई भारको ढोनेवाला पुरुष कावटिकाको लेकर भारको वहन करता है, इसी प्रकार यह जीव कायरूपी कावटिकाको ग्रहण करके कर्मरूपी भारको वहन करता है ॥७६|| पृथिवीकायिक जीवोंके भेद 'पुढवी य सक्करा वालुया य उवले सिलाइ छत्तीसा । पुढवीमया हु जीवा णिहिट्ठा जिणवरिंदेहिं ॥७७॥ पृथिवी, शर्करा, वालुका, उपल, शिला आदिके भेदसे छत्तीस प्रकार के पृथ्वीमय अर्थात् पृथिवीकायिक जीव जिनवरेन्द्रोंने निर्दिष्ट किये हैं॥७७।। जलकायिक जीवोंके भेद "ओसा य हिमिय महिया हरदणु सुद्धोदयं घणुदयं च । एदे दु आउकाया जीवा जिणसासणे दिट्ठा ॥७८॥ ओस, हिमिका (बर्फ), महिका (कुहरा), हरदणु, ( हरे तृण आदिके ऊपर अवस्थित जलबिन्दु) शुद्धोदक (चन्द्रकान्त, मणिसे उत्पन्न शुद्ध जल) घनोदक (स्थूल सघन जल) इत्यादि अप्कायिक (जलकायिक ) जीव जिनशासनमें कहे गये हैं ॥७॥ अग्निकायिक जीवोंके भेद इंगाल जाल अच्ची मुम्मुर सुद्धागणी य अगणी य । अण्णेवि एवमाई तिउक्काया समुद्दिट्टा ॥७॥ सं० पंचसं० 1. १, १५३ । १. १, १५२ । 3. १, १५५ । 4. १, १५६ । 5. १, १५७ । १. ध० भा० १ पृ० १३६ गा० ८६ । गो०जी० १८०, परं तनोत्तरार्धसाम्यमेव। २. ध० भा. १ पृ० १३६ गा० ८७ । गो० जी० २०१ । ३. मूला० गा० २०६ । आचा०नि० ७३ । ध० भा० १, पृ. २७२ गा० १४६ । ४. मूला० गा० २१० । आचा०नि० १०८ । ध०भा० १ पृ० २७३ गा० १५०। परं तत्र पूर्वार्ध पाठोऽयम्-ओसा य हिमो धूमरि हरदणु सुद्धोदवो घणोदो य। ५. मूलागा० २१२ । आचा०नि० १६६ । ध०भा० १ पृ० २७३ गा० १५२ । प्रतिषु 'जिह' पाठः ।। ब तेज०, द तेऊ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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