Book Title: Paschimi Bharat ki Yatra
Author(s): James Taud, Gopalnarayan Bahura
Publisher: Rajasthan Puratan Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य (सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) ग्रन्थाङ्क 80 ले. कर्नल जेम्स टॉड रचित 'ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया' का हिन्दी अनुवाद पश्चिमी भारत की यात्रा अनुवादक एवं सम्पादक गोपालनारायण बहुरा एम. ए. उपसञ्चालक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर प्रकाशक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur द्वितीय संस्करण 1996 मूल्य 182.00 रु. Jainducation international For Private & Personal use on Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य (सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) ग्रन्थाङ्क 80 ले. कर्नल जेम्स टॉड रचित 'ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया' का हिन्दी अनुवाद पश्चिमी भारत की यात्रा अनुवादक एवं सम्पादक गोपालनारायण बहुरा, एम. ए. उपसञ्चालक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर प्रकाशक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR द्वितीय संस्करण 1996 मूल्य : 182.00 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिलभारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध विविधवाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्टग्रन्थावली © प्रकाशक प्रधान सम्पादक पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, ऑनरेरि मेम्बर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी, निवृत्त सम्मान्य नियामक, (ऑनरेरि डायरेक्टर), भारतीय विद्याभवन, बम्बई : प्रधान सम्पादक, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, इत्यादि ग्रन्थाङ्क 80 ले. कर्नल जेम्स टॉड रचित 'ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया' का हिन्दी अनुवाद पश्चिमी भारत की यात्रा प्रकाशक संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राज.) द्वितीय संस्करण 1996 मूल्य : 182.00 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा (ले. कर्नल जेम्स टॉड रचित 'ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया' का हिन्दी अनुवाद) अनुवादक एवं सम्पादक श्री गोपालनारायण बहुरा, एम. ए. उपसञ्चालक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर प्रस्तावना लेखक डॉ. रघुवीरसिंह, एम. ए. डी. लिट् महाराजकुमार, सीतामऊ (म. प्र.) प्रकाशन कर्ता राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राजस्थान) प्रथमावृत्ति : 1000, 1965 ई. द्वितीया वृत्ति : 500, 1996 ई. © प्रकाशक मुद्रक : राजस्थानी ग्रन्थागार, सोजती गेट, जोधपुर मूल्य रु.182-00रु. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PASHCHIMI BHARAT KI YATRA A literal Hindi Translation of 'Travels in Western India' by Lt. Col. JAMES TOD (A great friend and lover of the people, history and culture of Rajasthan) Translated and edited with critical notes by SHRI GOPAL NARAYAN BAHURA M.A., Dy Director RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, Jodhpur Introduction by SHRI. RAGHUBIR SINGH, M.A. D.Lit. Maharajkumar, Sitamau (M.P.) Published under the orders of the Govt. of Rajasthan by THE RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE Jodhpur (Raj.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदेशकीय स्व. कर्नल जेम्स टॉड प्रणीत राजस्थान का बृहद् इतिहास (दो भागों में) जितना विश्रुत हुआ उसी परिमाण में उनकी पुस्तक Travels in Western India उपेक्षित रही । Annals and antiquities of Rajasthan नामक इतिहास ग्रन्थ उनके जीवनकाल में ही प्रकाशित हो गया था किन्तु आलोच्य पुस्तक का प्रकाशन सन् 1839 में उनके निधन के चार साल बाद ही हो सका था। 'पश्चिमी भारत की यात्रा' नामक यह पुस्तक भाषा एवं भाव की दृष्टि से एक प्रौढ़ रचना है और इसमें गुजरात, राजस्थान, सौराष्ट्र आदि राज्यों के विविध स्थलों के यात्रा विवरण के साथ-साथ उन स्थानों के मन्दिर, मठ, बावडियाँ, शिलालेख, सिक्के एवं विभिन्न राजा महाराजाओं के बारे में विस्तृत वर्णन है जिसके आधार पर तत् तत् स्थानों का इतिहास लेखन किया जा सकता है। प्रतिष्ठान के तत्कालीन निदेशक ने इस ग्रन्थ के वैशिष्ट्य को दृष्टिगत रखते हुये इसका हिन्दी अनुवाद कार्य तत्कालीन उपनिदेशक श्री गोपालनारायण बहुरा को सौंपा और बहुराजी के प्रयासों के फलस्वरूप ही यह ग्रन्थ सन् 1965 में राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो सका। शोधजगत् के सतत आग्रह का ही यह सुपरिणाम है कि प्रस्तुत पुस्तक पुनर्मुद्रित रूप में उनको समर्पित की जा रही है । मुझे पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत पुनर्मुद्रण शोधजगत् में कार्यरत पुरातत्वान्वेषियों, इतिहासकारों एवं सामान्य जन के लिये समान रूप से रोचक एवं उपादेय साबित होगा। आनन्दकुमार R.A.S. निदेशक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य नूतन भारत के मानचित्र में पश्चिमोत्तर विभाग वाले कोण में राजस्थान के नाम से जो विशाल भूखण्ड अङ्कित है और क्षेत्रफल की दृष्टि से नवीन भारत के १५ महा-जनपदों में जिसको द्वितीय स्थान प्राप्त है, उस विशाल एवं महान् राजस्थान के भव्य नाम का प्राद्यनिर्माता और उसके जानपदीय गौरव को संसार के सम्मुख प्रथमत: सुप्रसिद्ध करने वाला स्वर्गीय कर्नल जेम्स टॉड था। वह केवल राजस्थान की सन्तानों के लिए ही नहीं अपितु सारे भारत की प्राणवान संतानों के लिए सदा स्मरणीय और पुण्यश्लोक महान् ग्रन्थकार तथा परम हितैषी नर-पुङ्गव के रूप में ज्ञात एवं उल्लिखित होता रहेगा । स्वतन्त्र भारत को राजस्थान नामक नूतन महा-जनपद की कल्पना देने का श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को है। उसी ने विश्व के इतिहास-विषयक समग्र वाङमय के असंख्य ग्रन्थ रत्नों के पुंज में, सर्वप्रथम राजस्थान के नाम से अंकित और उसके अतीत के इतिवृत्त से अलंकृत, एक अपूर्व और अकल्पित ग्रन्थरत्न को समर्पित किया है । देश या प्रदेश को लक्ष्य कर राजस्थान नाम का प्रयोग हमारे भारतीय वाङमय में कहीं नहीं हा। राज्य का स्थान, (जो राजस्थानी भाषा में रायथान या रायठाण बोला जाता है) ऐसा अभिप्रेतार्थ वाला शब्द प्रयोग तो हमारे साहित्य में यत्र तत्र मिलता है, परन्तु किसी देश विशेष या राज्य विशेष का वैसा नाम कहीं नहीं है। राजस्थान नामक आधुनिक महा-जनपद के अन्तर्गत मेवाड़, मारवाड़, भिल्लमाल, सपादलक्ष, जांगल और मत्स्य आदि प्राचीन देशों तथा राज्यों का समावेश हो गया है । ये देश बहुत प्राचीनकाल से इतिहास में अपना महत्व का स्थान रखते आये हैं। ये सभी देश भिन्न-भिन्न राजवंशों, राजाओं और राज्यों के स्थान कहलाते थे। कर्नल टांड Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा जिस समय इस भूभाग में अंग्रेजों का एक अधिकारी बन कर आया और उसको इस प्रदेश के भिन्न-भिन्न राजवंशों का विशेष परिचय प्राप्त हुआ तो कुछ-कुछ प्रादेशिक विभिन्नताएं होते हुए भी इस प्रदेश के निवासियों में उसने अत्यधिक पारस्परिक समानता देखी। इस भूभाग में जिन भिन्न-भिन्न राजवंशों का राज्य-शासन चल रहा था वे सब एक ही जाति-समूह के अगभूत थे। उनके कुलों और वंशों का वैयक्तिक एवं कौटुम्बिक सम्बन्ध परस्पर सङ्कलित था। वे सब बहुत प्राचीनकाल से राजपूत कहलाते रहे हैं। इस प्रकार के राजपूतों का समान-जातिक विशाल और सत्ताशाली एकत्र समूह भारत में अन्यत्र कहीं नहीं रहा । इसलिए तत्कालीन अन्यान्य अंग्रेज अधिकारियों ने राजपूतों के इस प्रदेश को राजपूताना नाम देकर इसकी पहिचान दो। कर्नल टॉड इतिहास का अद्भुत प्रेमी था। अंग्रेजों का प्रभुत्व जब भारत पर धीर-धीरे फैलने लगा तो स्वभावत: ही इस महान् राष्ट्र के इतिहास और सब प्रकार के सांस्कृतिक एवं जानपदीय जनजीवन के विषय में जानकारी प्राप्त करने की उनकी इच्छा तथा आवश्यकता बढ़ी और उनमें से अनेक विद्वान् अपने-अपने अधिकारगत प्रदेशों और स्थानों को तत्-तद्विषयक जानकारी प्राप्त करने के प्रयत्न में लग गये । कर्नल टॉड इंग्लैंड से अंग्रेजों की सेना में भर्ती होकर सन् १८०० ई० में सर्वप्रथम बंगाल में आया। वहाँ से उसको दिल्लो भेजा गया, जहाँ वह ४-५ वर्ष तक रहा । तत्पश्चात् सिंधिया के दरबार में पोलिटिकल एजेन्ट के सहायक के रूप में उसकी नियुक्ति हुई। सिंधिया के दरबार के साथ मध्यभारत तथा राजस्थान एवं उसके समीपस्थ प्रदेशों में सैनिक कार्यवाही के निमित्त विभिन्न स्थानों और मार्गों का सर्वेक्षण करने-कराने का महत्वपूर्ण काम उसे करना पड़ा। इस सर्वेक्षण के समय अनेकानेक प्राचीन स्थानों और उनके निवासियों के विषय में विशिष्ट जानकारी प्राप्त करने की उसको जन्मजात इतिहासप्रिय अभिरुचि बढ़ने लगी और वह तत्तत् स्थानों और जनसमूहों के विषय की विविध प्रकार को ऐतिहासिक सामग्री का यथाशक्य और यथा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य साधन संग्रह करने लगा। सन् १८१७-१८ ई० में जब मेवाड़, मारवाड़, गोड़वाड़, हाडौतो और ढूंढाड़ जैसे राजपूत जातीय राज्यों का अंग्रेजों के साथ राजनैतिक सन्धिस्थापना का कार्य सम्पन्न हुआ तब अंग्रेजी शासन के तत्कालीन सर्वसत्तासम्पन्न गवर्नर-जनरल ने पश्चिमी भाग के इन राजपूत राज्यों के लिए कर्नल टॉड को अपना राजनीतिक प्रतिनिधि (पोलिटिकल एजेन्ट) बनाकर उदयपुर में नियुक्त किया । उदयपुर में रहते हुए उसको अपने प्रिय विषय इतिहास की बहुविध सामग्री का विशिष्ट संकलन करने का यथेष्ट अवसर मिला। इसके लिए उसने बहुत सा धन भी व्यय किया और अत्यधिक शारोरिक श्रम भी उठाया। उसने यहाँ की भाषामों को अच्छी तरह सोखा, संस्कृत, प्राकृत, फारसी, अरबी आदि भाषाओं के जानकारों को भी, अपने द्रव्य से, अपने पास रख कर, वह साहित्यिक सामग्री का अन्वेषण, अनुसन्धान और संकलन उनसे कराता रहा। प्राचीन शिलालेख ताम्रपत्र, पट्टों इत्यादि का भी उसने संग्रह किया । भाट, बारहठ, चारण, राव आदि के मुखजबानी जो कुछ पुरानी कथा-कहानियाँ वह सुनता रहता था, उनके भी उद्धरण, टिप्पण आदि लिखता लिखाता रहता था । इस प्रकार राजपूत राज्यों के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने वाली विशाल सामग्री उसने इकट्ठी करली। उस सामग्री के अध्ययन से और तत्कालीन राजस्थान के प्रमुख निवासियों के सहानुभूतिपूर्ण सम्पर्क से उसके मन पर इस प्रदेश की समग्र संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। तत्कालीन अन्यान्य सत्ताधारी अंग्रेज अधिकारियों की अपेक्षा वह यहाँ के लोगों का बहुत हितैषी बन गया और अपने अधिकार का प्रयोग सब लोगों के हित की दृष्टि से करने लगा । राजाओं तथा जागीरदारों को भी वह जनहितकारी और न्यायप्रिय बातें बताता रहा । अंग्रेजों की जो शासन करने को स्वार्थी और आतंकात्मक नीति विकसित होती जाती थी उसका भी वह कभी-कभी विरोध करता रहता था। उसके इस प्रकार के जनहितकारी व्यवहार Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ ] पश्चिमी भारत की यात्रा और उदार विचार की कुछ गन्ध कलकत्ता के उच्च सत्ताधारी अंग्रेज शासकों तक पहुँची तो वे कुछ संदेह की दृष्टि से उसकी प्रवृत्तियों का पर्यवेक्षण करने लगे । कर्नल टॉड बड़ा स्वाभिमानी, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, निःस्वार्थ और सच्चा साहित्योपासक था। उसको जब यह शंका होने लगी कि मेरे सन्निष्ठ कार्य के विषय में ऐसा कुत्सित संदेह सत्ताधीशों के मन में उत्पन्न हो रहा है तो उसने अपने अधिकार - पद से त्यागपत्र दे दिया और वह अपने देश इंग्लैंड चले जाने को तैयार हो गया तथा वहीं बैठ कर जिस देश के प्राचीन इतिहास की बहुमूल्य और पूर्व सामग्री उसने संगृहीत की थी उसको सुव्यवस्थित रूप में लिखकर संसार के सामने प्रकट कर देने का संकल्प किया । सन् १८०० ई० के प्रारम्भ में वह इंग्लैंड से भारत आया था । कुछ दिनों तक कलकत्ता प्रादि स्थानों पर रहकर वह दिल्ली पहुँचा । वहाँ ४-५ वर्ष रहने के पश्चात् सन् १८०६ में वह सिन्धिया के दरबार में नियुक्त हुआ । लगभग १२ वर्ष तक वह सिन्धिया के दरबार से संबद्ध रहा और सन् १८१८ ई० के प्रारम्भ में वह उदयपुर का पोलिटिकल एजेन्ट होकर रहने आया । प्रायः साढ़े चार वर्ष तक वह उदयपुर में इस पद पर रहा और जून, १८२२ ई० में अपने पद और प्रिय प्रदेश को छोड़कर अपनी जन्मभूमि को जाने के लिए निकल पड़ा । उदयपुर में रहते हुए उसने, उदयपुर के अतिरिक्त जोधपुर, जंगलमेर, कोटा, बूंदी, सिरोही आदि, राजस्थान के महत्त्व के राज्यों की भी यात्रायें की और उन-उन राज्यों से संबद्ध ऐतिहासिक सामग्री का भी अच्छी तरह संकलन किया । उदयपुर से आखिरी विदा लेते समय उसने यह सब अमूल्य एवं अपूर्व सामग्री अपने साथ ली । राजस्थान के इतिहास से संबद्ध प्राचीन गुजरात और सौराष्ट्र के स्थानों का उसे प्रत्यक्ष अवलोकन करना था इसलिए वह उदयपुर से Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य चलकर प्राबू, सिद्धपुर, अणहिलपुर-पाटण, बड़ौदा, भावनगर, पालीताना, जूनागढ़, द्वारका, सोमनाथ होता हुआ कच्छ गया और वहाँ से जहाज में बैठकर बम्बई पहुँचा । १८२३ ई० के फरवरी में वह भारत की भूमि के अन्तिम दर्शन करता हुआ बंबई से जहाज में सवार होकर इंग्लण्ड को रवाना हो गया। इस प्रकार वह कोई २२ वर्ष भारत में रहा । इन २२ वर्षों में, उस अंधकारमय युग में, उसने जो ऐतिह्य साधन-सामग्री एकत्रित करने का और उसका अध्ययन करने का अथक श्रम किया वह रोमांच पैदा करने वाला है। उसकी इस विषय की जिज्ञासा, पिपासा, उत्कंठा, उत्सुकता, अनन्यमनस्कता आदि सब अद्भुत प्रकार की लगन सूचित करते हैं । उदयपुर से बम्बई पहुंचने तक के रास्ते में उसने गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ देश के प्रायः सभी महत्व के एवं तीर्थभूत प्राचीन स्थानों की यात्रा की और उन-उन स्थानों के विषय में जो भो ऐतिहासिक तथ्य और प्रवाद उसके देखने, सुनने व पढ़ने में आये उन सब को वह लिखता गया। वह पहले-पहल इंग्लण्ड से कलकत्ता (बंगाल) में आया था। वहाँ से वह उत्तरप्रदेश में होता हुआ भारत के मध्यकेन्द्र दिल्ली में आया; वहां से फिर मध्य-भारत के सिन्धिया के दरबार में रहा । उस पद पर रहते हुए उसने प्राय: सारे मध्यप्रदेश के सभी महत्व के स्थानों और मार्गों का विशिष्ट सर्वेक्षण किया। इधर पश्चिम प्रदेश में सिन्ध तक का उसने विशिष्ट भौगोलिक ज्ञान प्राप्त किया । मध्यभारत से पा कर राजस्थान के हृदयभूत मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में रहते हुए उसने सारे राजस्थान की पुनः समग्र जानकारी सञ्चित को । उदयपुर से जब उसने स्वदेश के लिये प्रस्थान किया तो फिर उसने बम्बई का रास्ता पकड़ा और उस रास्ते में आने वाले उक्त प्रकार से सभी स्थानों का अपने लक्ष्य की दृष्टि से यथाशक्य ज्ञान प्राप्त किया । इस प्रकार भारत के अपने २२-२३ वर्षों के निवास में, पूर्व में कलकत्ता से लेकर पश्चिम में बम्बई तक के बहत ही महत्व के Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च] पश्चिमी भारत की यात्रा भूभाग का वह अपने समय में, एक अद्वितीय ज्ञाता बन गया था। वह बड़ा बुद्धिमान् सैनिक सरदार था और बहुत चतुर राजनीतिज्ञ श' और इससे भी अत्यधिक इतिहास का सूक्ष्म मर्मज्ञ और प्रत्युत्कट जिज्ञासु था। इन सब गुणों के कारण उसने अपने जीवन-लक्ष्य के सिद्धयर्थ जो विपुल साहित्य सामग्री संग्रहीत की थी उसको व्यवस्थित रूप में ग्रन्थस्थ कर प्रकट करना ही उसका सर्वोच्च ध्येय बन गया था। उसने तुरन्त इंग्लैण्ड पहुंच कर यह कार्य प्रारम्भ कर दिया। कोई ५-६ वर्ष तक कठिन परिश्रम करके उसने राजस्थान का विस्तृत इतिहास लिखकर पूरा किया। सन् १८२६ ई० में उसका पहला भाग प्रकाशित हुआ और उसके लगभग ढाई-तीन वर्ष पश्चात् सन् १८३२ ई० में दूसरा भाग प्रकट हुआ। 'राजस्थान का इतिहास' प्रकाशित हो जाने के बाद उसने पुनः अपनी उस अन्तिम यात्रा का विवरण लिखना शुरू किया जो उदयपुर से रवाना होकर बम्बई तक पहुंचने के मार्ग के रूप में की गई थी। इस यात्रा से सम्बन्धित स्थानों, तीर्थों, मन्दिरों, गढ़ों, शासकों आदि के विषय में जो कुछ उसने सुना, देखा व पढ़ा वह सब इस यात्राविवरण में संकलित किया। इस विवरण के लिखते समय उसका स्वास्थ्य भी खराब रहा और तदर्थ वह यूरोप के रोम आदि स्थानों में भ्रमरणार्थ गया। यात्रा-विवरण जैसे ही संपूर्ण हुआ वह लंदन पाया और वहां पर अपने प्रकाशक व्यापारी के साथ इस विवरण के प्रकाशन का प्रबन्ध कर ही रहा था कि अकस्मात उसको मगी रोग का सख्त दौरा हो आया और उसी से १८३५ ई० के नवम्बर मास में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार कुल ५३ वर्ष की भर-मध्य आयु में पश्चिमी भारत की यात्रा का वह अद्भुत मर्मज्ञ यात्री, जिसने संसार के सम्मुख सर्व प्रथम इस प्रदेश के भव्य अतीत और पवित्र देवस्थानों का भावनापूर्ण वर्णनों द्वारा रहस्योद्घाटन किया था, संसार के उस पार की महायात्रा पर चल निकला, जहां से कभी कोई वापिस नहीं लौटा। उसकी मृत्यु के कोई ४ वर्ष बाद सन् Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य १८३६ ई० में, उसका यह यात्रा-विवरण प्रकाशित हुआ। 'राजस्थान का इतिहास' का प्रकाशन वह अपने सम्मुख कर पाया था जिससे उसके अन्तर को बड़ा सन्तोष हो रहा था पर इस यात्रा-विवरण के प्रकाशन को, जिसके लिये उसने अत्यधिक कष्ट उठाये और अनेक मनोरथ बनाये थे, वह अपनी आंखों से देख नहीं पाया। राजस्थान के जनजीवन का परमहितैषी, राजस्थान को प्राचीन संस्कृति के परम प्रशंसक और राजस्थान के अतीत के इतिहास के परम शोधक और महान् लेखक महामना कर्नल टॉड के जीवन के मुख्य-मुख्य प्रसंगों की यह केवल सूचना मात्र है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारंभ में 'ग्रन्थकर्ता विषयक संस्मरण' नामक जो प्रबन्ध दिया गया है उसके पढ़ने से पाठकों को उसके जीवन के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त होगी ही। उसका लिखा हुआ महान् ग्रन्थ 'राजस्थान का इतिहास' संसार में सुप्रसिद्ध है । जब से वह ग्रन्थ प्रसिद्ध हुआ तभी से वह भारत के कोने-कोने में पढ़ा जाने लगा और भारत की अनेक प्रसिद्ध भाषाओं में उसके अनुवाद, सार, समुद्धार प्रादि प्रकाशित होते रहे हैं । बंगाल में तो वह इतना लोकप्रिय और प्रेरणादायी हुआ कि उसकी अनेक बहुत सस्ती प्रावृत्तियां निकल चुकी हैं। बंगाल के अनेक उपन्यासकार, नाटककार, और कथाकार लेखकों के लिये तो वह राष्ट्रप्रेम, धर्मप्रेम और वीर-शौर्य के भावों से भरा हुआ एक महान् निधिरूप ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में उल्लिखित तथा प्रतिपादित ऐतिह्य तथ्यों के विषय में, इसके प्रकाशन के प्रारम्भकाल से लेकर आज तक अनेकानेक विद्वानों, शोधकों, आलोचकों आदि ने भिन्न-भिन्न प्रकार के मत व्यक्त किये हैं, नाना प्रकार की टिप्पणियां लिखी हैं और आज भी वह क्रम चालू है । बस यही एक बात इस ग्रन्थ को विशिष्टता, लोकप्रियता और प्रेरणात्मकता सिद्ध करने में पर्याप्त है। इतिहास-लेखन में उपयुक्त जिस प्रकार की साधन-सामग्री और शास्त्रीय पद्धति का Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज] पश्चिमी भारत की यात्रा अवलम्बन आज लिया जाता है वह उस समय ज्ञात ही नहीं थी। चन्द के नाम से ज्ञात पृथ्वीराज रासो और मेवाड़ एवं मारवाड़ आदि के राजाओं की कुछ वंशावलियां तथा कोई छोटी-मोटी ख्यात आदि जैसी अत्यल्प लिखित सामग्री ही उसे उपलब्ध हुई थी। बाकी तो भाट, चारण, यति, ब्राह्मण आदि जनों के मुख से सुन-सुन कर हो उसने अपने इतिहास की सामग्रो इकट्ठी की थी। मुसलमानी तवारिखें उसने अवश्य पढी थीं, परन्तु हिन्दू ग्रन्थकार का लिखा कोई वैसा ग्रन्थ उसके देखने में नहीं पाया था। कश्मीर के इतिहास से संबंधित महान् संस्कृत ग्रन्थ 'राजतरंगिणी' का उसने नाम भी नहीं सुना था। गुजरात के इतिहास के मूलाधारभूत एवं सुप्रमाणित तथा सुग्रथित प्रबंधचिंतामणि नामक ग्रन्थ का उसे पता ही न लगा। यहां तक कि राजस्थान के सब से बड़े और अत्यन्त महत्त्व के राजस्थानी ऐतिहासिक ग्रन्थ 'मुंहता नैणसी की ख्यात' तक की उसे जानकारी नहीं मिली। उसको संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का परिचय नहीं था। प्राचीन लिपि के पढ़ने का वैसा कोई अभ्यास भी वह नहीं कर सका। प्राचीन ब्राह्मी लिपि, जिसमें अशोक के धर्मलेख अंकित हुए हैं, और जिस लिपि में लिखे गये सैकड़ों ही शिलालेख अब उपलब्ध हो गये हैं उसके अक्षरों का तब तक कोई ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका था। मौर्य उत्तरकालीन, कुषाण, क्षत्रप, गुप्त आदि राजाओं के समय के शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के आदि जो बाद में हजारों की संख्या में उपलब्ध हुए हैं, उनमें से किसी की भी कल्पना टॉड को नहीं हो पाई थी। उसकी नज़र में कहीं कोई ऐसा लेख या सिक्का पा जाता था तो उसका मर्म जानने के लिए वह बहत प्रयत्न करता रहता, पर तब तक उन प्राचीन लिपियों के अक्षरों को पहचानो नहीं गया था। संस्कृतादि प्राचीन भाषा साहित्य तथा पुराने लिखे गये ग्रन्थों को पढ़ने व समझने के लिए उसने मांडलगढ (मेवाड़) के रहने वाले एक जैन यति ज्ञानचन्दजी को अपने पास रख लिया था। यतिजी संस्कृत, प्राकृत, प्राचीन राजस्थानी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे और ५००-६०० वर्ष जितने पुराने लिखे ग्रन्थों को तथा उस समय तक के Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य [ झ शिलालेखों को वे ठीक-ठीक ही पढ़ लेते थे । उनको पास बिठा कर कर्नल टॉड उनसे ऐसी सब सामग्री को पढ़ने व समझने का सदैव प्रयत्न करता रहता था । पर उन यतिजो को भी एक हजार वर्ष से अधिक पुराने लेखों को लिपि का विशेष ज्ञान नहीं था, अत: वे भी इस प्रकार की विशेष प्राचीन सामग्री का परिस्फोट नहीं कर सकते थे । वह जब अणहिलवाड़ा-पाटण गया तब वहां के जैन- भण्डारों में से प्राचीन ऐतिहासिक साहित्य - सामग्री प्राप्त करने की उसे बहुत आशा थो और इसीलिए उसने अपने गुरु को वहां के जैन-भण्डार टटोल कर उनमें से वैसे साहित्य की खोज के लिए प्रेरित किया । यतिजी वहाँ के किसी एक प्रसिद्ध भण्डार को देखने के लिए गये भी, परन्तु उसमें उनको विशेष सफलता नहीं मिली । एक 'कुमारपाल - चरित्र' नाम की रचना के सिवाय और कोई रचना उनको उपलब्ध न हो सकी । यह जरा आश्चर्य लगने जैसी ही बात है, क्योंकि पाटण के भण्डार अपनी साहित्य-निधि के लिए सुप्रसिद्ध रहे हैं। प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामरिण, प्रबन्धकोष, कुमारपाल चरित्र वस्तुपाल - चरित्र, विमलप्रबंध आदि कई महत्त्व के गुजरात राजस्थान के इतिहास विषयक ग्रन्थ पाटण के भण्डारों में ही सुरक्षित थे । परन्तु उनमें से कोई एक भी ग्रन्थ की प्राप्ति उनको नहीं हो सकी । इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि इन ग्रन्थों के विषय में यति ज्ञानचन्द्रजी को ही कोई जानकारी नहीं होगी अथवा वहां के भण्डार वालों ने उनको कुछ भी सामग्री दिखाने से इन्कार कर दिया होगा । कुछ भी हो, टॉड को इस साहित्य का सर्वथा परिचय नहीं मिला, नहीं तो, इनमें उल्लिखित ऐतिह्य तथ्यों से वह वञ्चित नहीं रहता । " कर्नल टॉड के 'राजस्थान का इतिहास' तथा 'पश्चिमी भारत की यात्रा' ग्रन्थों के प्रसिद्ध होने के बाद कोई २५-३० वर्ष के भीतर ही अलेक्जेण्डर किन लॉक फार्बस ने, 'रासमाला' के नाम से अलंकृत राजस्थान के इतिहास के अनुकरण-स्वरूप और उसी प्रकार के साधनों का वैसा ही उपयोग कर, गुजरात का इतिहास लिखा, जिसमें उसने गुजरात - राजस्थान के इतिहास से संबद्ध उक्त प्रकार के कई प्राचीन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा ग्रन्थों का यथेष्ट उपयोग किया। कर्नल टॉड को किसी से सूचना मिली होगी कि पाटण के भण्डार में ऐसा एक प्राचीन ग्रन्थ है, जिसमें गुजरात के इतिहास का सविस्तर वर्णन है । टॉड इसका उल्लेख बारम्बार 'वंसराज चरित्र' के नाम से करता है । 'वंसराज', यह नाम 'वनराज' नाम का भ्रष्ट उच्चारण है, जो टॉड ने किसी भाट या चारण के मुख से सुनकर याद कर लिया होगा । वनराज चावड़ा था, जिसने गुजरात के प्रसिद्ध नगर अणहिल्लवाड़ अथवा ग्रणहिल्लपुर - पत्तन (पाटण) की स्थापना की थी । वनराज के जोवनवृत्त - विषयक मुख्य कथा, जो बहुत विश्रुत है, मेरुतुङ्गसूरि नामक जैन विद्वान् ने अपने 'प्रबन्ध - चिन्तामणि' नामक महत्त्व के ग्रन्थ में सब से पहले लिखी है । इस ग्रन्थ में अणहिल्लपुर के राजानों की राज्यस्थिति और कालक्रमसूचक प्रमित संवत्सरों आदि का उल्लेख किया है जो इतिहास के ग्रन्यान्य प्रमाणों द्वारा प्राय: पूर्णतः सम्मत है। कर्नल टॉड को यह ग्रन्थ नहीं मिला, नहीं तो वह इसके एक-एक कथन को अपनी रसभरी शैली से खूब सजाता । उसको इस विषय का जो ग्रन्थ मिला, वह कुमारपालप्रबन्ध या कुमारपाल चरित्र हो सकता है, जिसका आदि भाग प्रबन्धचिन्तामणि के आधार पर ही लिखा गया है । इसके अतिरिक्त 'वनराज - चरित्र' नाम का कोई ग्रन्थ नहीं है । इस प्रकार जो कुछ अस्त-व्यस्त साधन सामग्री उसे मिली, उसी के आधार पर उसने अपना वह महान् इतिहास - ग्रन्थ लिखा । इसलिए आज उपलब्ध सामग्री के आधार पर उसके तथ्यों का मूल्यांकन करना अथवा उसकी प्रामाणिकता की जाँच करना सर्वथा अर्थशून्य एवं प्रौचित्य - हीन होगा । अपने समय को दृष्टि से कर्नल टॉड महान् इतिहासज्ञ, और अत्युत्तम इतिहास लेखक था । उसने 'राजस्थान का इतिहास' लिख कर अपने को और राजस्थान को अमर कर दिया है। जब तक भारत में 'राजस्थान' का अस्तित्व रहेगा तब तक कर्नल टॉड का सुनाम और उसका 'राजस्थान का इतिहास' सदैव स्मरणीय और पठनीय रहेगा । राजस्थान का इतिहास लिखने की कर्नल टॉड को जो प्रेरणा हुई वह अवश्य ही कोई दिव्य प्रेरणा थी । इसी दिव्य प्रेरणा के ञ ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य कारण उसके मन में राजपूत जाति के मुख्य केन्द्रभूत इस विशाल भूभाग को, जो अति प्राचीन काल से मेवाड़, मारवाड़, वागड़, जांगल, सपादलक्ष, शाकंभरी, मत्स्य आदि प्रदेशों के नाम से विभक्त था और जिसके शासक राजवंश भिन्न-भिन्न प्राचीन राजकुलों की सन्तान और उत्तराधिकारी थे और ये सब परस्पर सदैव अपने राज्य की रक्षा और वृद्धि करने के लिए संघर्ष करते रहते थे, उन सब राज्यों और प्रदेशों का एक ही नाम में समावेश कर महान् ‘राजस्थान' के भव्य नाम के निर्माण की अद्भुत कल्पना उद्भूत हुई। इसके पहले 'राजस्थान' यह नाम किसी भी प्रदेश विशेष के लिए कभी किसी ने प्रयुक्त नहीं किया, और न कर्नल टॉड के सिवाय अन्य किसी ने भी उस समय इस नाम को महत्व ही दिया। अंग्रेजी शासन ने अपने शासन-तंत्र की व्यवस्था की दृष्टि से राजपूतों के राज्यों के समूह वाले इस प्रदेश का 'राजपूताना' नाम निर्धारित किया और फिर सब प्रकार का व्यवहार इसी नाम से प्रचलित और प्रसिद्ध होता रहा । यहाँ तक कि बाद के राजस्थान के इतिहास लेखकों में मुकुटमणि-समान स्वर्गीय म० म० पंडित गौरीशंकरजी अोझा ने भी अपनी महान् ऐतिहासिक रचना का नाम 'राजपूताने का इतिहास' ऐसा ही देना पसन्द किया। इस प्रदेश की जो प्रथम युनिवर्सिटी जयपुर में बनी वह भी प्रथम 'राजपूताना युनिवर्सिटी' के नाम से अलंकृत हुई। भारत में जब अंग्रेजी प्रभुसत्ता का अन्त हुआ और स्वतन्त्र भारत का नवनिर्माण हुआ तब अन्यान्य राज्यों के संगठन के साथ राजपूताना के राज्यों का विलीनीकरण होकर प्रजातंत्रात्मक नूतन राज्य की स्थापना के समय, भारत को सर्वोच्च सार्वभौम सत्तास्वरूप लोकसभा ने इस नूतन महा-जनपद का वही भव्य नाम स्वीकृत किया जो महामना कर्नल टॉड ने इसे प्रदान किया था। प्रस्तुत 'पश्चिमी भारत की यात्रा' नामक रचना भी कर्नल टॉड के उक्त इतिहास के समान ही मौलिक, रसप्रद और ज्ञातव्य वर्णनों से भरपूर है । इस यात्रा-विवरण के लिखने में उसने अपनी उस विशाल Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठ ] पश्चिमी भारत की यात्रा ऐतिह्य जानकारी को लिपिबद्ध किया है, जिसका उसने अपने इतिहास के लेखन में उपयोग नहीं किया था तथा इसमें उन स्थानों, तीर्थों, मन्दिरों आदि का वर्णन है, जिनको 'राजस्थान के इतिहास' में स्थान नहीं मिला तथापि जो राजस्थान के इतिहास से घनिष्ठ संबन्ध रखते हैं; उदाहरणार्थ -- प्राबू पहाड़, जो राजस्थान का सर्वोच्च और सुरम्य पर्वत है, गुजरात और राजस्थान के इतिहास का केन्द्र बिन्दु है, सारे भारत के हिन्दुओं का परमपावन तीर्थ है, भारत को मध्य कालीन स्थापत्य - समृद्धि के सर्वोत्कृष्ट प्रतीक स्वरूप दिव्य देवमन्दिरों के मुकुट को अपने मस्तक पर धारण करने के कारण समस्त मध्य पश्चिमी भारत का नगाधिराज है, उस की यात्रा करने वाला वह प्रथम अंग्रेज है और संसार में इसकी सर्वप्रथम प्रसिद्धि करने वाला वही महान् लेखक है। ऐसे ही, उसने शत्रुंजय, गिरनार, द्वारका, सोमनाथ, श्रादि पवित्र तीर्थ स्थानों के भी सुन्दर और भावपूर्ण वर्णन लिखे हैं । वह केवल शुष्क प्रवासी नहीं है परन्तु बहुत भावुक, प्रकृति-प्रिय, कलाप्रेमी, मर्म खोजी और अत्यन्त कल्पनाशील लेखक है। किसी भी प्राचीन सुरम्य स्थान, प्राचीन कलाकृति, प्राचीन भग्नावशेष को देख कर उसके मन में नाना प्रकार के भावों का आन्दोलन सा मच जाता था, जिनको बड़ी कठिनाई से समेट कर वह अपनी लेखनी द्वारा कागज पर प्रालेखित करता रहता था। वह युरोप के इतिहास का भी महान् ज्ञाता था । उसके समय तक प्रसिद्धि में प्राई हुई सैकड़ों ही इतिहास की पुस्तकों का उसने अवलोकन कर लिया था और जहाँ कहीं भी उसको अपने लेखोद्दिष्ट वर्णन में कोई सादृश्यसूचक उल्लेख का स्मरण हो आता, वहीं वह उसका उल्लेख करने के प्रसंग से नहीं चूकता था । इसलिये उसके प्रस्तुत यात्रा विवरण में ऐसे सैंकड़ों हो उल्लेख मिलते हैं, जिनका पता लगाना भी कठिन हो जाता है। उसकी बुद्धि सर्वग्राहिणी थी उसकी प्रतिभा सर्वतोमुखो थी, उसकी जिज्ञासा अपरिमित थी, उसका परिश्रम अथक था, इसलिये इस ग्रन्थ में उसके उक्त गुणों के निदर्शक सभी चित्र संचित हुए हैं । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकोय वक्तव्य कर्नल टॉड द्वारा लिखित 'राजस्थान का इतिहास' ग्रन्थ, उसमें उल्लिखित राजस्थान की अनेक रोमांचक कथाओं के कारण तथा उसकी रसभरी वर्णन शैली के कारण, बहुत लोकप्रिय हुआ । इसलिए उसको प्रसिद्धि भी बहुत हुई। परन्तु, प्रस्तुत यात्रा-विवरण एक अन्य प्रकार की सामग्री प्रस्तुत करता है और यह उसके जीवनकाल में प्रकट भी न हो सका, इसलिए इसकी कोई वैसी विशेष प्रसिद्धि नहीं हुई और न इसके प्रथम संस्करण के बाद कोई नई प्रावृत्ति ही प्रकट हुई। पिछले लेखकों ने इसका कोई विशेष उल्लेख भी नहीं किया। अतः एक प्रकार से यह रचना भारत के जिज्ञासुओं को अप्राप्य सी ही रही । * ____टॉड का 'इतिहास' तो हमने बहुत पहले पढ़ लिया था और हमारा वह एक बहुत प्रिय ग्रन्थ बन गया था । जैन-भण्डारों में संचित नाना प्रकार के ऐतिहासिक ग्रन्थों आदि का जब हमने अवलोकन और अन्वेषण करना शुरू किया तो टॉड के इतिहास को अनेक अपूर्णताओं और भ्रान्तियों पर भी हमारा लक्ष्य गया। हमने इस दृष्टि से उपलब्ध साधन-सामग्री का संकलन करना भी प्रारंभ कर दिया था। पर जब यह मालूम हुआ कि स्व० अोझाजी अपनो टिप्पणियों के साथ 'राजस्थान का इतिहास' का एक नूतन संस्करण निकाल रहे हैं तब हमने अपने कार्य को आगे नहीं बढ़ाया। इस विषय में म० म० अोझाजी के साथ हमारा कुछ पत्र-व्यवहार भी हुआ था। कुछ वर्षों बाद हमें टॉड कृत प्रस्तुत यात्रा-विवरण का पता लगा। बड़ी कठिनता से बडौदा में सन् १९१५ में, हमें इसकी एक छपी हुई पुस्तक मिली । हम, यथावकाश इसे पढते रहे और हमें यह राजस्थान के इतिहास की ही तरह बहुत प्रिय रचना लगी। गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद के 'पुरातत्त्व मन्दिर' के एक मुख्य संस्थापक एवं प्राद्यनियामक प्राचार्य पद पर रहते हुए हमने इसका गुजराती भाषा में अनुवाद करा कर प्रकट करने का विचार किया क्यों कि इसमें प्राबू, चन्द्रावती, अणहिलपुर-पाटण, शत्रुजय, गिरनार, सोमनाथ, द्वारका आदि national Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढ] पश्चिमी भारत की यात्रा गुजरात के अनेकानेक स्थानों का बहुत ही सुन्दर रूप में सविस्तार वर्णन लिखा हुआ है । इस दृष्टि से चन्द्रावती के खण्डहरों को देखने भी हम, गुजरात विद्यापीठ के हमारे एक साथी प्रोफेसर श्री एन. आर. मलकानी के साथ, गये । यद्यपि हमें उस समय टॉड का दिया हुआ कोई भी दृश्य वहाँ नहीं दिखाई दिया - केवल कुछ खंभे कहीं-कहीं खड़े दिखाई दिये, परंतु हमको चन्द्रावती के प्राचीन इतिहास की और वैभव की बहुत अधिक जानकारी थी जिसकी कर्नल टॉड को कल्पना भी नहीं थी । तब भी टॉड ने अपने इस ग्रन्थ में चन्द्रावती के जिन खण्डहरों के चित्र दिये हैं, उन्हीं को देख कर हम उस स्थान पर मुग्ध हो गये थे । इसलिए हमने एक साथी अभ्यासी को टॉड द्वारा लिखित सर्वप्रथम चन्द्रावती के वर्णन का अनुवाद करने का काम सौंपा। हमारा विचार, गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर के तत्त्वावधान में हम जो पुरातत्त्व' नामक संशोधनात्मक उच्चकोटि का त्रैमासिक पत्र प्रकट कर रहे थे, उसी में क्रमश: टॉड के इस महत्त्व के ग्रन्थ के प्रकरण प्रकाशित करने का था । सन् १९२८ ई० में हमारा विदेश में - युरोप में जाना हुआ । हमारे छोड़े बाद गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर का काम प्रायः स्थगित सा हो गया । गुजरात के इतिहास से सम्बन्धित जो बहुत विशाल सामग्री हमने एकत्रित की थी- वह हमें अपने बक्सों में बंद कर देनी पड़ी । बाद में, दो वर्ष बाद हम युरोप से लौटे और शान्ति निकेतन में जाकर 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का प्रकाशन कार्य प्रारम्भ किया- तब हमने फिर उस सामग्री में से चुन चुन कर, ग्रन्थमाला में प्रकाशित करने योग्य ग्रन्थों का प्रकाशन भी शनैः शनैः हाथ में लिया । सन् १९४०-४१ ई० में बम्बई के भारतीय विद्याभवन के नॉनरेरी डायरेक्टर का काम संभाला तब फिर हमारे मन में, टॉड की इस कृति का गुजराती या हिन्दी अनुवाद प्रसिद्ध करने की वह पुरानो लालसा जागृत हो गई। हमारे पास उस समय दो चार हिन्दी-भाषी अभ्यासी थे उनमें से हमने एक-दो को इसका हिन्दी अनुवाद करने को कहा । नमूने के तौर पर हमने कुछ पृष्ठों का अनुवाद भी कराया परन्तु ग्रन्थ की शैली और महत्त्व को देखते हुए हमको उनका ग्रनु Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्चालकीय वक्तव्य [ग वाद ठीक नहीं ऊँचा । हम किसी अच्छे विद्वान् अनुवादक की खोज करते रहे। सन् १९५० ई० में राजस्थान सरकार ने हमारे निर्देशन में इस प्रतिष्ठान की जयपुर में स्थापना की। राजस्थान के इतिहास और संस्कृति विषयक साहित्यिक सामग्री को प्रकाश में लाना यह भी एक मुख्य उद्देश्य इस प्रतिष्ठान का निश्चय किया गया है। इस प्रकार की सामग्री को अच्छे ढंग से प्रकाश में रखने का विचार हमारे मन में सदैव जागृत रहा है । इस प्रतिष्ठान का कार्यभार संभालने में एक अच्छे सहयोगी और सुयोग्य सहायक विद्वान् के रूप में सरकार ने, पहले ही दिन से, श्री गोपालनारायणजी बहुरा को नियुक्त किया। श्री बहुराजी संस्कृत के एम. ए. हैं और अच्छे मर्मज्ञ विद्वान् हैं तथा इतिहास और साहित्य में इनकी बहुत अभिरुचि है, यह, जानकर हमें बहुत सन्तोष तथा प्रसन्नता हुई । मैं अपने अन्यान्य ऐसे ही विविध स्थानों के कार्यों में संलग्न रहता रहा हूँ इसलिए अपना पूरा समय इस प्रतिष्ठान को नहीं दे पाता । अत: मेरी अनुपस्थिति में प्रतिष्ठान का कार्य श्री बहुराजी को हो संभालना होता है । ये उस समय गुजरात के इतिहास के प्रसिद्ध ग्रन्थ अलेक्जेण्डर किनलॉक फार्बस द्वारा लिखे हुए 'रासमाला' का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे । इन्होंने मुझे वह बताया और कुछ प्रकरण सुनाये। मैं इनकी अनुवाद करने की प्रसन्न शैली और मूल के भावों को उत्तम ढंग से भाषा में रखने को योग्यता को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। मेरे मन में अपना वह पुराना संकल्प फिर जागृत हो पाया और मैंने इनसे कहा कि आप टॉड के यात्रा-विवरण का हिन्दी अनुवाद करें, मैं इसे किसी भी ग्रन्थमाला में प्रकाशित कर देना चाहता हूँ। श्री बहुराजी ने मेरी चिर अभिलाषा को प्रस्तुत रूप में जो पूर्ण किया है वह मेरे लिए कितने संतोष का विषय है, यह तो वे ही विद्वज्जन समझ सकते हैं जो इस प्रकार की साहित्यिक लालसा या तृष्णा के तीव्र रोग के अनुभवी होते हैं । श्री बहुराजो ने यह अनुवाद कार्य अपने निजी अवकाश के समय Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा में घर पर बैठ कर किया। ग्रन्थ भी बहुत बड़ा और भाषा तथा भाव की दृष्टि से भी बड़ी प्रौढ शैली में लिखा गया है, अतः इसका अनुवाद कार्य सहज साध्य नहीं था। साथ में उनके संदर्भ ग्रन्थों का टटोलना, अज्ञात, अपरिचित स्थानों, व्यक्तियों आदि के बारे में यथाशक्य जानकारी प्रात करना आदि कारणों से अनुवाद के पूरे होने में काफी समय लगा। जब अनुवाद-कार्य पूरा होने आया तब मैंने इसको इस 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' द्वारा ही प्रकाशित करना अधिक उपयुक्त समझा, क्योंकि टॉड जैसे राजस्थान के परम हितैषी और परम सुहृद् विद्वान् की एक अद्वितीय कोटि की रचना का राष्ट्र-भाषा में किये गये अनुवाद को प्रकाश में रखने का पवित्र कर्तव्य 'प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान' से अधिक और किसका हो सकता है ? अतः मैंने इसे प्रस्तुत ग्रन्थमाला की मणियों में स्थान देना सर्वथा उचित और उपयुक्त समझा। मेरे इस विचार की सह-परामर्शदाता विद्वानों ने भी पुष्टि की। कोई १०-११ वर्ष के सतत परिश्रम बाद अब यह ग्रन्थ पाठकों के करकमलों में उपस्थित हो रहा है। श्री बहराजी ने जिस लगन और साधना के साथ इस सुन्दर अनुवाद का कार्य सम्पन्न किया है उसके लिये मैं इन्हें अपना हार्दिक अभिनन्दन देने के सिवाय और क्या कर सकता हूँ? ये मेरे इतने निकटस्थ और आत्मीय जन हैं कि इनके कार्य के विषय में कुछ भी विशेष कहना सही स्वारस्याभिव्यञ्जक नहीं होगा। बहुविद्या-व्यासंगी और मर्मज्ञ इतिहासविद् महाराजकुमार डॉ. श्री रघुवीरसिंहजी (सीतामऊ) ने इस पुस्तक की सारगर्भित प्रस्तावना लिखने की जो सौहार्दपूर्ण तत्परता दिखाई है, उसके लिये मैं इनके प्रति ग्रन्थमाला के सञ्चालक के रूप में भी अपना हार्दिक धन्यवाद प्रदान करता हूँ। १५, अगस्त १९६५ ई० राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, --मुनि जिनविजय जो ष पुर. ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक का आवेदन प्रस्तुत पुस्तक “राजस्थान के इतिहास"-लेखक कर्नल जेम्स टॉड कृत 'ट्रेवल्स् इन वेस्टर्न इण्डिया' का हिन्दी अनुवाद है । मूल-ग्रन्थ की रचना, उद्देश्य, रचनासमय, इसका वैशिष्टय, ग्रन्थकार की मान्यताओं, इसके एकमात्र संस्करण के प्रकाशन, इसके स्वल्प प्रचार और अधुना इसके अभिनव संस्करण तथा अनुवाद की आवश्यकता आदि विषयों पर अागामी पृष्ठों में मुद्रित 'ग्रन्थकर्ता-विषयक संस्मरण', विज्ञापन, और प्रस्तावना में विस्तार के साथ विवरण दिया गया है। अतः इन विषयों पर इस आवेदन में कुछ लिखना अनावश्यक आवृत्ति ही होगी। सन् १९५५ ई० में हमारे विभाग के सम्मान्य संचालक श्रीमान् मुनि जिनविजयजी पुरातत्त्वाचार्य ने मुझे इस ग्रन्थ की प्रति अपने निजी संग्रह में से लाकर दी और यह आदेश दिया कि "यह बहुत दुर्लभ्य पुस्तक है और राजस्थान तथा उससे सम्बद्ध गुजरात एवं सौराष्ट्र प्रदेशों के इतिहास, संस्कृति और तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों तथा भौगोलिक वर्णनों के कारण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । इसका यदि हिन्दी रूपान्तर हो जाय तो बहुत उत्तम होगा; इससे इतिहास और संस्कृति के शोधविद्वानों को बहुत सहायता मिल सकती है । इसका अंग्रेजी में पुनर्मुद्रण दुष्कर है; इस ओर किसी का ध्यान भी नहीं है और न इस पुस्तक की प्रतियाँ कहीं आसानी से मिल ही सकती हैं। कर्नल टॉड के समय से लेकर अब तक बहुत-सी खोज होकर कई नई बातें सामने आ चुकी हैं और उनके द्वारा उसकी मान्यताओं का संस्थापन या निराकरण भी किया जा सकता है। आपने अलेक्जेण्डर किन्लॉक फार्बस् कृत 'रासमाला' का अनुवाद किया है। उस पुस्तक का विषय बहुत कुछ इस पुस्तक में वर्णित स्थलों, पाख्यानों और ऐतिहासिक घटनाओं आदि से मेल खाता है। यदि इस कार्य को अवकाश के समय धीरे-धीरे कर डालो तो अच्छा है । हम इसे अपने तत्वावधान में काम करने वाली किसी संस्था से प्रकाशित करना चाहते हैं।" मुझे अपनी सीमित योग्यता, इतिहास, अंग्रेजी और हिन्दी भाषा पर अपेक्षित अधिकार की कमी तथा कार्यालयीय दायित्व के होते हुये अवकाश की स्वल्पोपलब्धि का ध्यान था, परन्तु कुछ तो पुस्तक की आकर्षकता और विशेषता और कुछ "प्राज्ञा गुरूणां परिपालनीया" Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा इस प्रादर्श वाक्य के प्रति निष्ठा-भावना के वश होकर मैंने इस कार्य को स्वीकार कर लिया; मुझसे 'ना' कहते न बना। ___जब कार्य प्रारंभ किया तो बाद में कई बार मेरा मन डांवाडोल होने लगा और कभी-कभी तो इस आशंका के अंधेरे बादलों ने मुझे आ घेरा कि शायद यह कार्य मुझ से पूरा न हो सकेगा और मैं श्री मुनिजी महाराज को क्या उत्तर दूंगा ? परन्तु, मुझ से अपने इस ऊहापोह का प्रकाश करते भी न बना, और जब-जब जैसे-जैसे भी मुझे अवकाशों के दिनों में और कार्यदिनों की रात्रियों में समय मिला, मैं किसी न किसी अंश में इस कार्य को करता ही रहा। कभीकभी तो केवल एक ही वाक्य का अनुवाद कर के रह गया, कभी-कभी दो-दो और तीन-तीन महीने का व्यवधान बीच में पड़ गया और सन् १९५८-५९ में तो हमारे कार्यालय के जयपुर से जोधपुर स्थानान्तरण के कारण पूरे वर्ष भर में इस कार्य से पराङ्मुख रहा। अस्तु, अन्ततोगत्वा १९६२ ई० के प्रारम्भ में परिशिष्ट के अतिरिक्त पुस्तक का अनुवाद किसी तरह पूरा हो गया और मैंने श्री मुनिजी महाराज को इस विषय में निवेदन कर दिया। उन्होंने अनुवाद अपने पास मंगवा कर कितने ही प्रकरणों को आद्योपान्त और कितने ही प्रकरणों के यत्र-तत्रीय स्थलों को मुझ से पढ़वा कर सुना, आवश्यक संशोधन करवाये और जहाँ जो कुछ बदलने जैसा था उसका निर्देश किया। जब यह कार्य पूर्ण होगया तो अगस्त सन् १९६२ में श्रीमुनिजी ने कहा कि "अब तो यह पुस्तक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान से ही प्रकाशित होने लायक बन गई है। इसके परिशिष्ट में जिन शिलालेखों का जेम्स टॉड ने अनुवाद दिया है उनके मूल पाठ को ढूंढो और मूल एवं अनुवाद में जो अन्तर या व्युत्क्रम देखने में आवे उनका उल्लेख करो। अनुवाद की पाण्डुलिपि कार्यालय में जमा करा दो कि जिससे इसके मुद्रण आदि की व्यवस्था चालू की जा सके।" मैंने इस आज्ञा को मान्य करते हुए अनुवाद की पाण्डुलिपि कार्यालय में जमा करवा दो। वहाँ इसके मुद्रणादि के विषय में अपेक्षित कार्यवाही चालू हुई और जनवरी सन् १९६३ में हुई विभाग की विशेषज्ञ समिति ने भी इस पुस्तक के प्रकाशन को स्वीकार कर लिया। कर्नल जेम्स टॉड जैसे बहज्ञ, सूक्ष्मदर्शी और कल्पनाशील लेखक की कृति का अनुवाद करने के लिये जो योग्यता और अध्ययन अपेक्षित है, मैं उसके प्रान्त को भी नहीं छू पा रहा हूँ। इस अनुवाद में मेरा प्रयत्न केवल इतना ही रहा है कि मैंने मूल को पढ़कर अपनी भाषा में जैसा कुछ समझ सका हूँ वैसा लिख दिया है । हो सकता है कि कहीं-कहीं में तत्त्व को न समझ पाया हूँ परन्तु, जैसा जो कुछ समझा है उसको व्यक्त करने में पूरी ईमानदारी बरती है। अत: इसमें Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ agaran का वेदन [ ३ कहीं भूलें भी रह गई हैं, तो वे खरी हैं। मैंने लिखा है कि अपनी भाषा में मूल को व्यक्त किया है, परन्तु मेरो अपनी कोई निजी शैली प्रधान भाषा नहीं है । अनुवाद का कार्य बहुत लम्बे समय तक चला है । मैं सामयिक पत्र-पत्रिकादि देखता पढ़ता रहता हूँ । इस बीच में कभी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का घोष तुमुल हुआ तो कभी सरल हिन्दी का नारा बुलन्द हुआ; ऐसी-ऐसी सूचनाओं का प्रभाव मुझ पर पड़े बिना न रहा । अतः इस पुस्तक में भाषा की प्राद्योपान्त एकरूपता के दर्शन न होना भी स्वाभाविक है। कितने ही शब्द और प्रयोग ऐसे भी प्रा गये हैं जो हमारे प्रान्त में बोले जाते हैं । यह प्रेरणा मुझे मूल लेखक से ही मिली है क्योंकि उन्होंने कहीं-कहीं एतत्प्रान्तीय श्रोर ग्रामीण शब्दों को यथावत् प्रयुक्त किया है । भारतीय स्थानों और व्यक्तियों के नामों की हिज्जे प्राचीन ग्रीक, अरब और पुर्तगाली लोगों के द्वारा उच्चारणभेद से अंग्रेजी तक पहुँचने में कुछ की कुछ बन गई और उनमें से कितनों ही के मूल नामों को तो अब तलाश कर लेना भी बहुत कठिन है। कर्नल टॉड ने यद्यपि इन स्थानों और व्यक्तियों के ठीक-ठीक नामों के संकेत देने का भरसक प्रयत्न किया है फिर भी कुछ उनके अंग्रेजी उच्चारण और कुछ उनके एतद्देशीय संसूचकों की असावधानी के कारण नामों की वर्तनी में संदिग्धता बनी ही रह गई है । इसी प्रकार जिन ग्रीक, अरब, पुर्तगाली, फ्रेंच श्रोर अन्य यूरोपीय स्थानों, लेखकों एवं अन्य व्यक्तियों के नाम इस पुस्तक में आये हैं उनको मैंने अपने उच्चारण के अनुसार नागरी लिपि में लिखा है । संभव है, इन नामों के लिखने में कोई विकृति हुई हो, इसलिये कर्नल टॉड द्वारा प्रयुक्त अंग्रेजी हिज्जे ज्यों की त्यों कोष्ठकों में लिख दी गई है । कर्नल टॉड का अध्ययन विस्तृत ज्ञान बहुमुखी और प्रतिभा चतुर्दिक्प्रसारिणी थी । भारतीय इतिहास, यहाँ के निवासियों के रहन-सहन और रीतिरिवाजों तथा यहाँ को पूर्वमध्यकालीन और ब्रिटिश शासन-प्रणाली, आर्थिक, सामाजिक एवं यहाँ तक कि नृवंशशास्त्रीय विषयों का विश्लेषण करते हुये उन्होंने पद-पद पर प्राचीन यात्रियों के विवरणों, अरब, ग्रीक और यूरोपीय लेखकों के उद्धरणों और एतद्देशीय प्राप्त ग्रंथों के सन्दर्भ इस ग्रंथ में दिये हैं । • इन संदर्भों को खोज कर मूल लेख को खोलने के लिए उतने ही अध्ययन, पर्यटन सर्वेक्षण और तत्त्वग्रहण सामर्थ्य की आवश्यकता है । बहुत से ग्रंथों, लेखों श्रोर लेखकों के नाम तो अब प्राप्त भी नहीं हैं; जो प्राप्त हैं उनमें से बहुत से सुलभ नहीं हैं । मैंने यथाशक्ति इस अनुवाद में टिप्पणियाँ देकर उन दुरूह स्थलों को खोलने का प्रयत्न किया है जो प्रायः किसी सुदूर सन्दर्भ से सम्बद्ध हैं और मूल Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा अथवा अनुवाद को पढ़कर भी जन-साधारण के लिये सुगम्य नहीं है। इन्हीं टिप्पणियों में मूल लेखक की कुछ ऐसी भ्रान्तियों को भी निराकृत करने का प्रयत्न किया गया है जो या तो उनको स्थानीय सूचकों ने गलत दी हैं या फिर उनके स्वयं के समझने में कोई भ्रम रह गया है। मूल पुस्तक में मूल लेखक द्वारा एवं प्रकाशक द्वारा भी कुछ टिप्पणियाँ दी गई हैं, उनका अनुवाद ब्लेक टाइप में है और अनुवादक की सभी टिप्पणियाँ व्हाइट में हैं। कर्नल जेम्स टॉड के प्रशंसकों और पालोचकों ने उनको सरस इतिहासलेखक, कुशल प्रशासक, स्पष्टवादी, प्रलोभनों से मुक्त और भारतीय-संस्कृति विशेषत: राजपूतों का प्रेमो कहा है। कुछ लोगों ने उनके द्वारा लिखे हुए तथ्यों की प्रामाणिकता को सन्देहास्पद व्यक्त किया है और यह बात किन्हीं अंशों में सही भी है । यह सब कुछ होते हुए भी टॉड ने जहाँ-जहाँ वह रहे, जहाँ-जहाँ घूमे और जहाँ-जहाँ उन्होंने शासन किया, उन स्थानों और वहाँ के निवासियों का गम्भीर अध्ययन किया और उनका वर्णन भी उसी गम्भीरता के साथ किया है। उन्होंने अपने लेखों में इतिहास की मूलभित्ति पर जो भवन खड़े किये हैं वे सुरुचिपूर्ण कला के प्रतीक हैं। उन्होंने इतिहासलेखन की एक ऐसी सरस प्रणाली का सूत्रपात किया जो केवल घटनाओं और तिथिक्रमों का कंकाल मात्र न रह कर पौराणिक उपाख्यानों, सरस लोककथानों, उत्साहवर्धक वीर गाथानों, मनोरंजक प्रवादों और रोमांचकारी लोकगीतों के विशुद्ध रसप्रवाह से सुपुष्ट और प्राणवान है । उनके सभी विश्लेषण सबल मानवीय अनुभूतियों पर आधारित हैं जो अन्य बड़े-बड़े. लेखको में दुर्लभ्य है। जेम्स टॉड का जिस रूप में परिचय दिया जाता है उसके अतिरिक्त वे कविहृदय भी थे। प्राकृतिक-वर्णन में उनके लिखे हुए विवरण बहुत उच्चकोटि के गद्यकाव्य की गणना में पा सकते हैं और जब-जब अपने यात्रा-प्रसंगों में ऐसे सुरम्य स्थल पाये हैं तो उनके कबिहृदय की अनुभूतियाँ अनुप्रवाहित हुए बिना नहीं रह सकीं । अरावली की महिमा का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है :"यहाँ सभी कुछ महान्, सुन्दर और प्राकृतिक था-मानो प्रकृति ने इसको अपनी प्रिय सन्तान के नित्यविहार के निमित्त ही बनाया हो, जहां दृश्य की . शान्ति एवं अनुरूपता में बाधा डालने वाले मानवीय विकारों के लिए कोई अवसर नहीं था। आकाश निर्मल था, घनी-पत्रावली में से एक दूसरी को प्रत्युतर देतो हुई कोयलों की कूकें सुनाई पड़ रहीं थी, सूर्य का प्रकाश पहुँचते ही बांस की कुंजों में छुपे हुए वन-कुक्कुट प्रातःकालीन बांग देने लगे थे। वृक्षों पर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवावक का प्रावेदन घोंसलों में बैठे हुए भूरे तीतरों के झुंड हर्ष प्रदर्शन में पेंडुकी से होड़ लगा रहे थे।" (पृ० २५) ___ चन्द्रावती के खण्डरों को सामग्री से निर्मित अहमदाबाद के नये निर्माण पर टॉड को बड़ा आक्रोश था। उन्होंने मुसलमानी और हिन्दू स्थापत्य का अन्तर बतलाते हुए लिखा है :__ "गहरे कटावदार हिन्दू-भवन-समूहों को देखने पर एक चित्र-सरीखी श्यामलछाया गम्भीरतम दृश्य उपस्थित करती है और वे मेघाच्छन्न आकाश से अधिक साम्य लिए हुए तथा अपने पिरामिड जैसे शुण्डाकार शिखरों के चारों ओर खेलते हुए तूफानों की शक्ति पर एक तिरस्कारपूर्ण हंसी हंसते हुए-से जान पड़ते हैं जब कि किसी गुम्बददार मस्जिद और इसकी परियों जैसी गगनचुम्बी मीनारें उसी समय सुन्दरतम दृश्य उपस्थित कर पाती हैं जब प्रकृति शान्त होती है अथवा जब निरभ्र आकाश से किसी खिड़की की रंगीन चौखट में होकर पाती हुई-सी सूर्य रश्मियाँ संगमर्मर की गुम्बद पर स्वछन्द खेल रही होती हैं। (पृ० २५१) कर्नल टॉड से पूर्व विदेशी लेखकों में एक ऐसी भावना घर कर गई थी कि भारतीयों में इतिहास-लेखन की प्रवृत्ति ही नहीं है और न भारतीय-साहित्य में कोई इतिहास जैसी वस्तु ही विद्यमान है। परन्तु, टॉड ने बड़ी लगन के साथ यहाँ के प्राचीन स्थापत्य, स्मारकों, अन्य पुरातन वस्तुओं और इतिहास-लेखन के स्रोत प्राचीन ग्रंथों का सूक्ष्म निरीक्षण करके उनका मूल्यांकन किया और इस पूर्वाग्रह को अमान्य करते हुए यह घोषणा की कि भारत में इतिहास-लेखन के लिये ऐसी प्रामाणिक और अत्यधिक मात्रा में सामग्री मौजूद है कि जितनी उन उन्नतिशील होने का दम भरने वाले देशों में भी उस काल के ऐतिहासिक साहित्य में उतनी मात्रा में नहीं पायी जाती है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि___ "कुछ लोग आँख मींचकर यह मान बैठे हैं कि हिन्दुओं के पास ऐतिहासिक ग्रंथों जैसी कोई वस्तु ही नहीं है । x x x मैं फिर कहूंगा कि इस प्रकार अर्थहीन अनुमान लगाने में प्रवृत्त होने से पहिले हमें जैसलमेर और अणहिलवाडा (पाटण) के जैन-ग्रंथ-भंडारों और राजपूताना के राजाओं तथा ठिकानेदारों के अनेक निजी संग्रहों का अवलोकन कर लेना चाहिये ।" (पृ० १५६) पुरातत्त्वान्वेषण में श्रम से मुह चुरा कर भारतीय इतिहास के प्रति हीनभावना बनाने वालों को भी टॉड ने खूब लताड़ा है Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा "ऐसी स्थिति में तो हम उस दम्भपूर्ण मिथ्याभिमान के प्रति दया भाव ही प्रदर्शित कर सकते हैं, जिसने इस विचार को प्रेरणा दी है कि हिन्दुनों के पास कोई ऐतिहासिक लेख सामग्री नहीं है और जिसके द्वारा इस प्रकार के अन्वेषणों को व्यर्थ का प्रयास घोषित करके जिज्ञासा की भावना को दबा देने का प्रयत्न मात्र किया गया है । ( पृ० २४८ ) इसी प्रकार के अन्यान्य तथ्यों का उद्घाटन और श्रमान्य पूर्वाग्रहों का निराकरण कर्नल ट्रॉड ने अपने इस यात्रा विवरण में किये हैं। उनकी भारतीय विषयों के अनुसंधान थोर उसके विवेचन में जो रुचि थी एवं जिस लगन से वे कार्य करते थे तथा करना चाहते थे उसके विषय में लिखा है ---- "यदि स्वास्थ्य और पर्याप्त अवकाश मुझे मिलता तो जो कुछ मैंने किया है उससे दसगुना काम और करता और यदि विशेष सुविधाएँ मिलीं होतीं तो उस दसगुने का भी दसगुना कर दिखाता - मेरे इस कथन पर विश्वास कर लेना चाहिये।" ( पृ० २५६ ) परिशिष्ट में कर्नल टॉड ने जिन शिलालेखों के अनुवाद दिये हैं उनमें से बहुत से तो इण्डियन एन्टिक्वेरी, एशियाटिक रिसर्चेज, हिस्टोरीकल इन्सक्रिप्सन्स् ऑफ गुजरात, वीरविनोद आदि ग्रन्थों में मुद्रित रूप में प्राप्त हो गये हैं । कुछ शिलालेख जो वे अपने साथ इंग्लेण्ड ले गये थे या उन्होंने रॉयल एशियाटिक सोसायटी में जमा करा दिये थे उनमें से कतिपय उपलब्ध नहीं हुए हैं, ऐसा मूल संस्करण के प्रकाशक ने भी लिखा है। जिन शिलालेखों के मूल पाठ प्राप्त हो सके हैं वे परिशिष्ट में कर्नल टॉड कृत अनुवाद के हिन्दी-रूपान्तर के नीचे पुनर्मुद्रित हुए हैं । जहाँ अग्रेजी अनुवाद और मूल पाठ में वास्तविक अन्तर दिखाई दिया वहाँ श्रावश्यक टिप्पणी दे दी गई है। इससे विज्ञ पाठकों को मूलपाठ देखकर तथ्य समझने में तत्काल सुविधा हो सकेगी । पुस्तक में राजस्थान, गुजरात, काठियावाड़, बम्बई के कितने ही गांवों कस्बों, नगरों और ऐतिहासिक पुरुषों अथवा लोककथा के पात्रों, तथा जेम्स टॉड के परिकर में काम करने वाले सैनिकों और मल्लाहों शादि के नाम सैकड़ों की तादाद में आये हैं । ऐसे स्थानों और व्यक्तियों के नाम, अन्य संदर्भित यूरोपीय स्थानों और व्यक्तियों की नामावली सहित अनुक्रमणिका ( १,२ ) में दे दिये गये हैं । इसी प्रकार भारतीय, मध्य एशियाई और यूरोपीय कितनी ही जातियों के नाम भी इस पुस्तक में आये हैं, जो अनुक्रमणिका (३) में संकलित हैं। पुस्तक में कुछ ऐसे शब्द हैं जो लोकप्रचलित एवं वास्तु श्रादि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक का प्रावेदन [ ७ कलाओं से सम्बन्धित अथवा उपाधि श्रादि के सूचक हैं। इनमें से कुछ देशी शब्द मूल लेखक ने भी उनके प्रति प्राकृष्ट होकर ज्यों के त्यों प्रयुक्त किये हैं. जो उनकी भाषा को अधिक आकर्षक बनाने में सफल हुए हैं । अनुवाद में भी कुछ प्रान्तीय एवं प्रसंगोपात्त पारिभाषिक शब्द आगये हैं, ऐसे ही कुछ शब्दों को अनुक्रमणिका ( ४ ) में एकत्रित किये हैं । अनुक्रमणिका ( ५ ) में उन ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के नाम दिये गये हैं जिनके कर्नल टॉड ने अपने ग्रन्थ में उद्धरण दिये हैं या उनकी ओर संकेत किये हैं । टिप्पणियों में जिन ग्रन्थों से सहायता ली गई है अथवा जिनका संकेत किया गया है उनकी तालिका अनुक्रमणिका (६) के रूप में दो गई है । कर्नल टॉड ने अपना यह ग्रन्थ श्रीमती कर्नल हन्टर ब्लेयर को यह कहते हुए समर्पित किया है कि वे आबू के रमणीय स्थलों के रेखाचित्र बनाकर प्राबू को इंग्लेण्ड ले गई । मूल - पुस्तक से उन रेखाचित्रों की फोटो प्रतिकृतियां तैयार करवाकर प्रस्तुत पुस्तक में पुनः प्रकाशित की गई हैं कि जिससे पाठक यह जान सकें कि श्रीमती हन्टर ब्लेयर श्राबू का कौनसा रूप इंग्लेंड में ले गई थीं । इनके अतिरिक्त कर्नल टॉड के एक सुप्रसिद्ध स्वाभाविक चित्र तथा राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के संग्रह में सुरक्षित 'फिरंगी टॉड' शीर्षक काल्पनिक चित्र की प्रतिकृतियां भी पुस्तक में लगाई गई हैं । अनुवाद कैसा हुआ है, इसमें कितनी और कैसी कमियां रह गई हैं तथा इसमें दी हुई टिप्पणियाँ कितनी उपयोगी हैं और वे कहाँ तक शोधविद्वानों के लिये सहायक हो सकेंगी, इत्यादि विषयों में कुछ भी कहने का मैं अपना अधिकार नहीं समझता हूँ । कर्त्तव्यरूपेण मैंने यह परिश्रम किया और इससे अध्येतानों, संशोधकों और सामान्य पाठकों को किंचित् भी सहायता मिल सकी या उनका अनुरंजन हो सका तो मैं अपने श्रम को सफल समगा । प्राचीन भारतीय वाङ्मय-समुद्भरणैकव्रती सुकृती मनीषी पद्मश्री मुनि जिनविजयजी महाराज को में श्रद्धा सहित धन्यवाद अर्पित करता हूँ कि जिनके दिग्दर्शन में यह कार्य मेरे द्वारा हो सका और जिनकी कृपा से यह मुद्रित होकर पाठकों के सामने आ सका । मेरे सम्माननीय मित्र मध्यप्रदेश और राजस्थान के इतिहास के विशेषज्ञ डॉ. रघुवीरसिंहजी, महाराजकुमार, सीतामऊ ( मालवा ) ने अन्यान्य अधिक महत्वपूर्ण कार्यों में व्याप्त रहते हुये भी अपने बहुमूल्य समय में से इस पुस्तक के लिये सारगर्भित प्रस्तावना लिखने के लिये अवकाश निकाला, इसके लिये मैं उनका हृदय से आभारी हूँ । समादरणीय डॉ० परमात्मा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा शरणजी (दिल्ली विश्वविद्यालय) ने भी समय-समय पर मुझे वांछित निर्देशादि देकर उपकृत किया है, तदर्थ वे सादर धन्यवादाह हैं । मेरे अन्यान्य सहयोगियों और विशेषतः श्री पद्मधर पाठक, एम.ए. और श्री लक्ष्मीनारायण जी गोस्वामी ने संदर्भ-संकलन एवं प्रूफ संशोधन आदि में पूर्ण रुचि लेकर सहयोग दिया है एतदर्थ मैं इन बन्धुओं के प्रति सस्नेह अकृत्रिम आभार प्रदर्शन करता हूँ। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ) हरियाली अमावस्या ३०; २०२२ वि. गोपाल नारायण Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना "ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया" अर्थात् 'पश्चिमी भारत की यात्रा' कर्नल जेम्स टॉड कृत दूसरा ग्रंथ है जो उसकी मृत्यु के कोई चार वर्ष बाद सन् १८३६ ई० में ही प्रकाशित हुना था । अपने संसार - प्रसिद्ध प्रथम ग्रंथ ' एनल्स् एण्ड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान' ( जो 'टॉड - राजस्थान' के नाम से अधिक सुज्ञात है ) के दूसरे खण्ड को सन् १८३२ ई० में प्रकाशित करने के बाद टॉड ने अपने इस दूसरे ग्रंथ को हाथ में लिया । स्वास्थ्य सुधार के लिये सन् १८३४ ई० में जब उसे यूरोप की यात्रा करनी पड़ी, तब सरदी के मौसम में कई माह तक वह रोम में रहा और वहाँ उसने इस यात्रा विवरण का अधिकतर भाग लिखा । सितम्बर ३, १८३५ ई० को वह वापस इंगलैंड लौट आया और कुछ समय बाद --- जब वह अपनी माता से भेंट करने हेमशायर गया तब वहाँ उसने इस ग्रंथ के अन्तिम प्रकरण लिखे । यों टॉड ने मूल ग्रंथ पूरा ही लिख कर तैयार कर दिया था । यत्र-तत्र कुछ पाद-टिप्पणियाँ जोड़ना, कुछ परिशिष्टों का चयन तथा ग्रंथ की भूमिका ही लिखनी बाकी रह गई थीं। इस ग्रंथ को छपवाने के लिये लन्दन - निवास अत्यावश्यक जान कर उसने रीजेण्ट पार्क में एक मकान खरीद लिया था, तथा वहाँ स्थायी तौर से रहने के लिये नवम्बर १४, १८३५ ई० को वह लन्दन चला आया । इस समय वह अधिक स्वस्थ देख पड़ रहा था और अपने इस दूसरे ग्रंथ को छपवाने का उसे पूर्ण उत्साह था जिससे यह श्राशा बंधने लगी थी कि अब टॉड अवश्य ही पूर्ण स्वास्थ्य लाभ कर लेगा । परन्तु तीसरे दिन ही यह श्राशा पूर्ण निराशा में परिणत हो गई। सोमवार, नवम्बर १६, १८३५ ई० के दिन वह लोम्बार्ड स्ट्रीट में अपने साहूकार मेसर्स राबर्ट्स एण्ड कम्पनी में कार्यवशात् गया था, तब वहीं उसे एकाएक मिरगी का दौरा हो गया और कोई पंद्रह मिनिट में ही उसकी जबान बन्द हो गयी । कोई सत्ताईस घण्टे तक बेहोश रहने के बाद नवम्बर १७, १८३५ ई० के दिन उसकी मृत्यु हो गई । तब उसकी अवस्था साढ़े तिरपन वर्ष की थी। कोई चार वर्ष बाद सन् १८३६ ई० में लन्दन की ७, लेडनहॉल स्ट्रीट में स्थित विलियम एच्० एलन एण्ड कम्पनी ने इस ग्रंथ को यथावत् प्रकाशित किया । प्रकाशक ने उसके साथ टॉड सम्बन्धी परिचय-वृत्त भी जोड़ दिया । इस Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] पश्चिमी भारत की यात्रा द्वितीय ग्रंथ की सामग्री भी उसके प्रथम ग्रंथ ( टॉड - राजस्थान ) की ही तरह की है और उसे एकत्र करने तथा सुव्यवस्थित कर पाठकों के सम्मुख पुस्तकाकार प्रस्तुत करने में उसने पूरी मेहनत और लगन से काम किया था । ' इस ग्रंथ के दृश्य अवश्य ही ( राजस्थान से ) भिन्न हैं । कुछ समय तक राजस्थान के सीमांत क्षेत्र में घूमते रहने के बाद सौराष्ट्र के वैसे ही कौतूहलोत्पादक प्रदेश तथा एकेश्वरवादी जैनियों के लिये प्रतीव पवित्र वहाँ के पर्वतों का परिचय अपने पाठकों को दिया है ।' अतः अपने इस यात्रा विवरण के बारे में टॉड का विश्वास था कि उसके प्रथम ग्रंथ की ही तरह इसका भी पूरा-पूरा स्वागत होगा। यही नहीं, इस ग्रंथ के प्रकाशन से कुछ ही पहिले जेम्स प्रिंसेप ने गिरनार के शिलालेख में सीरिया के यूनानी राजा एण्टियोकस और मिस्र के सम्राट् टालमी फिलाडेल्फस के नाम पढ़ लिये थे, तथा प्रशोक के उन शिलालेखों को पूरा-पूरा पढ़ लेने का भरसक प्रयत्न कर रहा था । इस प्रकार पश्चिमी भारत और मुख्यत: गिरनार के शिलालेख के प्राचीन इतिहास पर जो नया प्रकाश पड़ रहा था उससे प्रकाशकों को भी विश्वास था कि टॉड कृत इस ग्रंथ को इतिहास प्रेमी उत्सुकतापूर्वक बड़े चाव से पढ़ेंगे । परन्तु कुछ योगायोग ही ऐसा रहा कि तब भी इस ग्रंथ का विशेष प्रसार नहीं हुआ, और सन् १८५६ ई० में एलेग्जेण्डर किन्लाक फोर्ब्स कृत 'रास - माला' के प्रकाशन के बाद तो टॉड का यह यात्रा विवरण सर्वथा उपेक्षित ही रहा, जिससे तदनन्तर इसका दूसरा संस्करण भी नहीं प्रकाशित हो पाया और अब सन् १८३६ ई० के उस एकमात्र संस्करण की प्रतियाँ देखने को भी नहीं मिलती हैं । टॉड ने अपना यह ग्रंथ मिसेज़ कर्नल विलियम हण्टर ब्लेअर को समर्पण किया, जो उच्च कोटि की चित्रकार थीं। इस महिला का पति, कर्नल विलियम हण्टर ब्लेअर, तब बम्बई प्रांत के सेनापति, जनरल सर चार्ल्स कॉलविल, के आधीन सेनानायक वर्ग में नियुक्त था । अतः टॉड से प्रेरणा पाकर तथा टाँड द्वारा प्रस्तावित यात्रा क्रम के अनुसार जब जनरल कालविल ने पश्चिमी भारत के उसी क्षेत्र की यात्रा की तब श्रीमती ब्लेअर भी इस यात्रा में अपने पति के साथ थीं। तब उन्होंने श्राबू, चंद्रावती, अनहिलवाड़ा पाटन, और जूनागढ़ श्रादि के अनेकानेक प्रतीव सुन्दर रेखाचित्र बनाये और यों टॉड के शब्दों में वे 'श्राबू को इंगलैंड ले आई। श्रीमती ब्लेयर के ऐसे ही आठ रेखाचित्र टॉड के इस यात्रा विवरण में तब प्रकाशित किये गये थे । टॉड ने जून १, १८२२ ई० को उदयपुर से सर्वदा के लिये बिदा ली और बनास नदी के उद्गम स्थान के पास ही प्ररावली पर्वत श्रेणी को पार कर वह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ ११ जून ६ को सिरोही पहुंचा। जून १२ को आबू पहुंचा और २-३ दिन वहाँ के मन्दिर प्रादि देखता रहा । तब वहाँ से पालनपुर होता हुआ जून २० को वह सिद्धपुर पहुंचा। वहाँ अवश्य ही उसने कुछ दिन बिताये होंगे। परन्तु अब वहाँ वर्षा प्रारम्भ हो गई थी और उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया था। अतः अहमदाबाद और खेड़ा होता हुमा सम्भवतः जून के अन्तिम दिन वह बड़ोदा पहुँच गया। तदनन्तर वर्षा के ये चार माह उसने बड़ौदा में ही बिताये। .. टॉड जानता था कि जनवरी, १८२३ ई. के उत्तरार्द्ध में हो उसे इंगलैंड जाने वाला जहाज मिलेगा, अतः वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद के दो-ढाई माह में उसने सौराष्ट्र की यात्रा का आयोजन किया, और रास्ते चालू होते ही वह अक्तूबर २६, १८२२ ई० को बड़ौदा से चल पड़ा । नवम्बर ४ को वह खम्भात पहुँचा। वहाँ नाव द्वारा गोगो (घोघा) में उतरा । गोगो से भावनगर और वल्लभी (वला) होता हुआ नवम्बर १७ को वह पालिताना पाया। वहाँ से अमरेली होता हुआ, गढ़िया और सूत्रापाड़ा की राह नवम्बर २६ को वह सोमनाथ-पट्टन पहुँचा। सोमनाथ और वेरावल में चार-पाँच दिन बिता कर वह दिसम्बर ४ को जूनागढ़ के लिये चल पड़ा । दिसम्बर ७ को वहाँ पहुँच कर उसने पूरे दस दिन जूनागढ़ और गिरनार देखने में बिताये। तब वहाँ से चल कर वह दिसम्बर २० को भांवड़ पहुंचा और पूरे तीन दिन तक वह जेठवों की उस उजड़ी नगरी गुमली के भग्नावशेषों को देखता रहा। तदनन्तर दिसम्बर २७ को वह द्वारका, प्रारमड़ा और बेट टापू देख-भाल कर जनवरी १, १८२३ ई० को जहाज में बैठ कर माण्डवी के लिये रवाना हुआ। दूसरे दिन तीसरे पहर माण्डवी पहँचा। जनवरी ३ को रात्रि का भोजन कर वह घोड़े पर ही भुज के लिये रवाना हो गया। दूसरे दिन प्रात: काल में वह भुज पहुंचा और तीन दिन वहाँ बिताने के बाद जनवरी ६ की रात्रि में वह वापस माण्डवी को चल पड़ा। दूसरे दिन प्रातः काल में माण्डवी पहुंचते ही वह जहाज पर चढ़ गया जो कुछ ही समय बाद बम्बई के लिये रवाना हुआ। टॉड का यह जहाज जनवरी १४ को बम्बई पहुँचा। यों टॉड की पश्चिम भारत की यह यात्रा पूरे साढ़े सात माह में समाप्त हुई। तदनन्तर कोई तीन सप्ताह तक उसे बम्बई में रुकना पड़ा और फरवरी ५, १८२३ ई० के लगभग ही वह 'साराह' जहाज से इंगलैंड के लिये रवाना हुआ। अपनी इस यात्रा के उद्देश्य को टॉड ने इन शब्दों में व्यक्त किया था'मैंने पहिले भारत के देवपर्वत, प्रसिद्ध आबू पर जाने का विचार किया और मार्ग में अरावली की स्वच्छंद भील जातियों से मिलने की इच्छा मेरे मन में Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा जाग्रत हुई थी। इन टेढ़े-मेढ़े तंग रास्तों को पार कर बनास के उद्गम स्थान और सादड़ी दरें में से मैदान में निकल कर राइंपुर (राणपुर) के प्रसिद्ध जैन मंदिर को मैं देखना चाहता था । अरावली के मार्ग और पाबू की तलाश के बाद मेरा विचार प्राचीन नहरवाला' की अवशिष्ट खोज को पूरा करने का था। तदनन्तर वहीं से राणा वंश की परम्पराओं को निर्धारित और निश्चित करने के लिये वल्लभी की दिशा तलाश करने का भी था। इसके लिये खम्भात की खाड़ी में हो कर सौराष्ट्र प्रायद्वीप के किनारे पहुँचना था। अतएव मैंने यह निश्चय किया कि यदि हो सके तो जैन धर्म के केन्द्र-स्थल पालिताना और गिरनार के पर्वतों की यात्रा करूं और उसके पश्चात् द्वारिका में स्थित बल और कृष्ण के मंदिरों का दर्शन करके अपनी यात्रा समाप्त कर दू। वहाँ से बेट द्वीप होता हुआ कच्छ की खाड़ी पार करके जाड़ेचों की राजधानी भुज की यात्रा करूँ और माण्डवी की विशाल मण्डी को लौट आऊँ। फिर सिन्धु नदी के पूर्वीय किनारेकिनारे नाव में चल कर इसके समुद्र-संगम तक हिन्दुओं के देवालयों के अन्तिम दर्शन करू । अन्तिम कार्यक्रम के अतिरिक्त यह सब यात्रा मेंने पूरी कर ली। भारत में सिकन्दर के प्राक्रमणों के अन्तिम दृश्यों को देखे बिना ही मुझे अपनी समुद्री यात्रा में बम्बई की ओर अग्रसर होना पड़ा। टॉड ने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति अपनी इस यात्रा में ही नहीं की परन्तु उस यात्रा का यह विवरण लिखते समय भी उसने उपयुक्त इन्हीं सारी बातों की भोर पूरा-पूरा ध्यान दिया और उनके बारे में सविस्तार लिखा है। जिन-जिन क्षेत्रों में से टॉड तब गुजरा था उन सब ही स्थानों के जलवायु, प्राकृतिक परिस्थितियों और दृश्यों के साथ ही वहाँ के निवासियों का भी टॉड ने बड़ा सजीव सहानभूतिपूर्ण विवरण लिखा है । साथ ही उस क्षेत्र के निवासियों या वहाँ के इतिहास सम्बन्धी ऐतिहासिक प्रवादों या रोचक दन्तकथाओं को भी टॉड ने यत्र-तत्र जोड़ दिया है, जो कई बार प्रामाणिक नहीं होते हुए भी वहाँ के विगत इतिहास सम्बन्धी जनसाधारण की भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं पर बहुत उपयोगी प्रकाश डालती हैं । अरावली के भीलों के प्रति टॉड का विशेष आकर्षण था क्योंकि बहत ही कठिन समय पर उन्होंने राणा प्रताप और उसके वंशजों की भरसक सहायता की थी। अतएव इस यात्रा के प्रारम्भ में ही अरावली पहाड़ की श्रेणियों को पार करते समय टॉड ने वहाँ की स्वच्छंद भील जातियों के बारे में बहुत कुछ १-अपहिलवाड़ा २-पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ० ६-७ से संकलित। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ जानकारी प्राप्त की । उनके जातीय संगठन, उनके रहन-सहन, उनके श्राहारविहार, उनके अन्धविश्वासों, उनके भोलेपन तथा भील घातक के प्रति अक्षम्यता आदि पर टॉड ने जो कुछ लिखा है, वह उनका मानव-विज्ञान विषयक अध्ययन करने वालों के लिये ऐतिहासिक महत्त्व का है । प्रस्तावना ऐतिहासिक खोज और उसके द्वारा भूतकालीन इतिवृत्त की अज्ञात लुप्त तथा विशृंखलित कड़ियों को जोड़ने के लिये टॉड सदैव ही समुत्सुक रहा । वह जानता था कि "इन प्रदेशों में ऐसी सामग्री की कमी नहीं हैं जिसका उपयोग शोध ( विषयक प्रवृत्ति ) को समान रूप से सम्मानित और प्रोत्साहित करने में किया जा सकता है । शिलालेखों के आधार पर चरित्रों एवं ऐतिहासिक वृत्तों के तिथिक्रम के तथ्यों को निश्चित करना, भाटों के लेखों से ( अनेकानेक ) नामधारी विदेशी जातियों के उत्तरी एशिया से चल कर इन प्रदेशों में श्रा बसने के क्रम का पता लगाना, उन विभिन्न पूजा-प्रकारों पर विचार करना जो वे अपने 'पूर्वं पुरुषों की भूमि' से यहाँ पर लाए और यहाँ से जिन लोगों को हटा कर वे बस गए, उनके रहन-सहन आदि के तरीकों में घुलने मिलने से जो भी थोड़े-बहुत परिवर्तन हुए उनके विषय में अनुमान लगाना, तथा इस बात की भी शोध करना कि उनकी प्राचीन आदतों और संस्थानों में से कितनी श्रब भी बच रही हैं- ये ऐसे विषय हैं जो किसी भी विचारशील मस्तिष्क के लिये कदापि हीन या उपेक्षणीय नहीं हैं, और यहाँ शोध के लिये पूरी-पूरी सुविधाएं प्राप्त हैं ।" " यही कारण या कि जहाँ भी टॉड गया वह सदैव पुराने शिलालेखों, प्राचीन सिक्कों, हस्तलिखित ग्रंथों आदि की खोज में रहा । आबू, चंद्रावती, सिद्धपुर, अन हिलवाड़ा (पाटन), खम्भात, वल्लभी, पालितानाशत्रुंजय, सोमनाथ- पट्टन, जूनागढ़ - गिरतार, गूमली, द्वारका, आदि के महत्वपूर्ण मंदिरों, बावड़ियों और खण्डहरों में ही नहीं, राह में पड़ने वाले सारे नगण्य और उपेक्षित परंतु संभावित स्थानों में भी शिलालेखों की खोज की और जहाँ जो भी उपयोगी जान पड़ा उसकी तत्काल ही प्रतिलिपि करवा ली । यों ही उसने अपनी पहिले की भी यात्राओं में अनेकानेक शिलालेखों को एकत्र किया था तथा उनकी प्रतिलिपियाँ तैयार करवा कर उन्हें पढ़वाने तथा समझने का प्रयत्न किया था। टॉड द्वारा यों ढूंढ निकाले गये कई एक शिलालेख उन प्रतिलिपियों या उनके इन उल्लेखों द्वारा ही अब आधुनिक इतिहासकारों १. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ० २२५ से संकलित । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] पश्चिमी भारत की यात्रा को प्राप्य हैं, क्योंकि वे मूल शिलालेख या तो तब शासकीय अधिकारियों की असावधानी और उपेक्षा के कारण तब ही कहीं खो गये या इस पिछली डेढ़ शताब्दी में प्राकृतिक कारणों या वहाँ के अज्ञानी निवासियों की करतूतों के फलस्वरूप नष्ट हो गये हैं जिससे आज वे सर्वथा अप्राप्य हैं। अपने इस यात्रा विवरण में टॉड ने स्थान-स्थान पर उसे तब यों प्राप्त शिलालेखों तथा कहींकहीं उनसे प्राप्त महत्त्वपूर्ण जानकारी का भी यथास्थान उल्लेख किया है । कुछ महत्त्वपूर्ण शिलालेखों का अनुवाद भी उसने परिशिष्ट में दे दिया है । इन शिलालेखों में परिशिष्ट सं० ७ का शिलालेख विशेष महत्त्व का है जो मूलता सोमनाथ का होते हुए भी टॉड को वेरावल में मिला था । उसमें सिंह संवत् का उल्लेख है, जो तब तक अज्ञात ही था। उसको किसने चलाया इस बारे में अभी तक इतिहासकार एकमत नहीं हो पाये हैं। टॉड द्वारा खोज निकाले गये या एकत्र किये गये शिलालेखों की प्रतिलिपियाँ प्रायः उसके "अपने मित्र और गुरु 'ज्ञान के चन्द्रमा' यति ज्ञानचंद्र" ने की थीं और उनका अनुवाद करने में भी टॉड को इन्हीं से सहायता मिली थी। ईसा की सातवीं शताब्दी के बाद की भारतीय लिपियां, संस्कृत और प्राकृत के विद्वान्, जिन्हें प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों को पढ़ने का अभ्यास होता था, विशेष यत्न करने पर ही पढ़ सकते थे। अतः कई बार उन प्राचीन शिलालेखों की प्रतिलिपि करने में यत्र-तत्र भूल हो जाना अनहोनी बात नहीं थी। तब भारत में ऐतिहासिक शोध का प्रारम्भ ही था और भारत के प्राचीन तथा पूर्वमध्यकालीन इतिहास की जानकारी भारतीय विद्वानों को भी नहीं थी। अतः इस अत्यावश्यक ऐतिहासिक जानकारी के अभाव में इन शिलालेखों का अर्थ लगाने में टॉड का अनेकों भूलें करना सर्वथा स्वाभाविक ही था। अपने देश की प्राचीन ब्राह्मी लिपि तथा उससे निकली हुई ईसा की छठवीं शताब्दी तक की लिपियों को पढ़ना भारतीय विद्वान् बहुत पहिले ही भूल गये थे जिससे अशोक के अन्य धर्म-लेखों की तरह गिरनार की चट्टान का सुविख्यात शिलालेख भी कोई नहीं पढ़ पा रहा था। अशोक के इन लेखों की लिपि ऐसी है कि ऊपरी तौर से देखने वाले को अंग्रेजी गा ग्रीक लिपि का भ्रम हो जाता है । यही कारण था कि युरोपीय यात्री टॉम कोरियट ने दिल्ली में अशोक स्तम्भ के लेख को देख कर उसे 'पोरस पर सिकन्दर की विजय का लेख' घोषित किया था। टॉड ने भी गिरनार के इस लेख के अक्षरों, ग्रीक लिपि और प्राचीन चौकोर अक्षरों में समानता देखकर लिखा कि इस लेख के कितने ही अक्षर प्राचीन ग्रीक और केल्टो. एट्र स्कन अक्षरों से मिलते हैं। किन्तु साथ ही टॉड ने यह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ १५ भी स्पष्टतया देखा कि उस शिलालेख में बहुत से संयुक्ताक्षर भी हैं। टॉड की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद जब जेम्स प्रिनरोप आदि विद्वानों के प्रयत्नों से ब्राह्मी अक्षर पढे जाने लगे, तब पिछले समय के सब ही लेखों को पढ़ना सुगम हो गया और ब्राह्मी लिपि के अक्षरों के बारे में अन्य युरोपीय विद्वानों के साथ ही टॉड के तद्विषयक अनुमान गलत प्रमाणित हो गये। ऐतिहासिक शोध में प्राचीन सिक्कों के महत्त्व से टॉड पूर्णतया परिचित था, अतः उनका निरंतर संग्रह करता रहता था। पश्चिम भारत की इस यात्रा में भी वह बराबर उनकी टोह में लगा रहा । चन्द्रावती के खण्डहरों में उसे परमार-कालोन कुछ सिक्के मिले थे। परंतु उससे पहिले उसने मारवाड़ में बाली नामक जैन कसबे से 'बहुत से विचित्र सिक्के इकट्ठ कर लिये थे, जिनमें से कुछ तो इण्डो-सीथिक ठप्पे के थे और उन पर लेख गूढाक्षरों में था' । आगे माण्डवी (कच्छ) की श्मशान-भूमि के खण्डहरों में से भी उसे अच्छी दशा में सुरक्षित दो सिक्के प्राप्त हुए थे, जिनमें से एक पर 'उन्हीं दुष्पाठय अक्षरों में लेख था जो गिरनार के शिलालेख में मिले थे।' टॉड ने इस प्रकार बाक्ट्रिमन, ग्रीक, शक, पार्थिअन और कुशाण वंशी राजाओं के प्राचीन सिक्कों का एक बड़ा संग्रह कर लिया था, जिन की एक ओर प्राचीन ग्रीक और दूसरी पोर खरोष्ठी अक्षरों के लेख थे। परंतु तब खरोष्ठी लिपि के पढ़ने का कोई साधन नहीं था, अतः इन अक्षरों को लेकर भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ होने लगीं। टॉड ने स्वयं सन् १८२४ ई० में कफिसेस के सिक्के पर के इन अक्षरों को 'ससेनियन' बताया था। कई वर्षों के बाद जब मेसन ने खरोष्ठी के कुछ अक्षर-चिन्हों को पहिचान लिया और आगे चल कर जब यह ज्ञात हुआ कि खरोष्ठी लेखों की भाषा पाली-प्राकृत है, तब ही जेम्स प्रिन्सेप तद्विषयक शोध को आगे बढ़ा सका। यह सत्य है कि टॉड स्वयं इस दिशा में कोई विशेष सफल कार्य नहीं कर सका, परंतु इतनी अधिक संख्या में ऐसे दुर्लभ मूल्यवान् सिक्कों को बड़े परिश्रम से संग्रह कर उन्हें संशोधकों को उपलब्ध करवा कर उसने भारतीय ऐतिहासिक शोध में बहुत बड़ा योगदान दिया। पश्चिम भारत की अपनी इस यात्रा में टॉड हर प्रकार की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री एकत्र करने में निरंतर लगा रहा । जिस किसी महत्त्वपूर्ण नगर, कसबे या राजधानी में गया, वहाँ के ग्रंथ-भण्डारों, इतिहासज्ञ चारण-भाटों तथा ऐतिहासिक घरानों में प्राप्य हस्तलिखित ग्रंथों और महत्त्वपूर्ण कागज-पत्रों के संग्रहों की टोह लगाता रहा । बाली के जैन कसबे से 'मेवाड़ के राजाओं से संबंधित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नामावली का 'खरी प्राप्त किया। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा भावनगर के इतिहास लेखकों से मिलकर उसे बहुत निराशा ही हुई क्योंकि तब तक मिले हुए इतिहास-लेखकों में उसने उन्हें 'सब से अधिक अनपढ़' ही पाया । सोमनाथ-पट्टन में हस्तलिखित ग्रंथों की खोज करते-करते अंत में उसने वहाँ के पुराने काजी-घराने के अनभिज्ञ वंशज के पास से एक हिन्दी काव्य की खण्डित प्रति प्राप्त की जिसमें पाटन के पतन की कहानी थी। द्वारका में एक झाला-वंशीय सरदार से उनकी वंशोत्पत्ति की विचित्र कथाएँ और बाघेलों की उत्पत्ति संबंधी बहुत सी बातें उसने सुनीं। द्वारका के ही एक वंश-भाट की वंशबही तथा राजवंशावली में से उसने कुछ पत्रों की नकलें कर लीं। भुज नगर पहुंचते हो वहाँ के भाटों और उनकी बहियों को उपलब्ध किया। वहां को रीजेन्सी के प्रमुख सदस्य रतनजी से जाड़ेचा शासन का पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त किया और राजपूत शासन-पद्धति से वह किन बातों में भिन्न था इसको भी ठीक तरह से समझा । राजस्थान में रहते हुए टॉड ने जैसलमेर से कागज और ताड़पत्र की कितनी ही प्रतियाँ प्राप्त कर ली थीं। पश्चिम भारत की इस यात्रा में उसने पाटन और खम्भात के जैन ग्रंथ-भण्डारों में से कुछ ग्रंथों की प्रतियाँ प्राप्त करने का प्रयत्न किया। टॉड ने स्वयं देखा कि इन जैन ग्रंथ-भण्डारों में "अनुसंधान का सबसे अच्छा उपाय यही है कि किसी ऐसे जैन साधु को 'मुंशी' बना लिया जावे, जिसकी पट्टावली में हेमाचार्य अथवा अमर उसके धर्म-गुरु पाए जाते हों; बस, फिर उसके माध्यम से सब ही ताले खुल जावेंगे"। अतः उसने अपने जैन गुरु ज्ञानचंद्र को पाटन के ग्रंथ-भण्डार में से 'वंशराज-चरित्र' और 'शालिवाहनचरित्र' की प्रतियां खोज निकालने को भेजा। परंतु वहाँ चालीस संदूकों में रखे ग्रंथों के निरीक्षण के बाद भी उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। तदनंतर जिस तहखाने में यह ग्रंथ-भंडार स्थित था वहाँ के तंग और घुटनपूर्ण वातावरण के कारण वे इस अन्वेषण से विरत हो गये । 'कुमारपाल चरित्र' (वस्तुत: 'कुमारपाल रास') की कुछ प्रतियाँ टॉड ने प्राप्त कर लीं, परन्तु बहुत चाहने और प्रयत्न करने पर भी वह 'वंशराज-चरित्र' की प्रति नहीं प्राप्त कर सका। वर्षा ऋतु में जब टॉड को कई माह तक बड़ौदा ठहरना पड़ा था, तब उसने वह सारा समय बहुत से हस्तलिखित ग्रंथों और शिलालेखों की प्रतियां करने या करवाने में ही बिताया। इस प्रकार वह प्रति दिन अपने संग्रह में कुछ-न-कुछ वृद्धि ही करता रहा, जिसके फलस्वरूप भारत से रवाना होने तक उसके पास खंडित प्रतिमाओं, शिलालेखों, शस्त्रास्त्रों, हस्तलिखित ग्रंथों, कागज-पत्रों और प्राचीन सिक्कों प्रादि की कोई चालीस सन्दूकें हो गई थीं। टॉड द्वारा तब संगृहीत इस सामग्री की लगभग सारी ही मूल्यवान् वस्तुएं उसने इंडिया हाउस Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [१७ तथा लंदन की रायल एशियाटिक सोसाइटी में जमा करा दी, जो अब भी वहां सुव्यवस्थित रूप में सुरक्षित है। ____ टॉड कृत 'पश्चिमी भारत को यात्रा' ग्रंथ कोरा यात्रा-विवरण न रह कर उसके द्वारा संगृहीत ऐतिहासिक सामग्री से प्राप्त तथा उसको ज्ञात ऐतिहासिक जानकारी का एक विस्तृत संग्रह बन गया है। अपने ग्रंथ-लेखन के लिये इस शैली विशेष को अपनाने का कारण स्पष्ट करते हुये टॉड ने स्वयं लिखा है-'जब मैं यह कहता हूँ कि चरित्रों, ऐतिहासिक वृत्तान्तों, सिक्कों और शिलालेखों आदि से इतनी सामग्री प्राप्त होती है कि अणहिलवाड़ा और उसके अधीनस्थ राज्यों का एक क्रमबद्ध इतिहास लिखा जा सकता है, तो प्रश्न होता है कि मैंने ही ऐसा प्रयास क्यों नहीं किया ? उत्तर सीधा है, कि अपनी शक्ति पर भरोसा न होने के कारण मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर ऐतिहासिक और कालक्रमसंबंधो तथ्यों की संगति कर देना ही अधिक उपयुक्त समझा और जैसा कि मैंने अपनी पूर्व कृति (टॉड-राजस्थान) में किया है, इतनी ही सामग्री इतिहास-लेखकों के लिये प्रस्तुत करने में मुझे संतोष भी है । तथापि यहां पर हम उन टूटी हुई कड़ियों को जोड़ने का प्रयास कर सकते हैं जो पश्चिमी भारत के बल्हरा राजामों के इतिहास को ईसाई सन् के समकालीन युगों से संबद्ध करती हैं।" ___टॉड ने जिस काल में यह सारी सामग्री एकत्र की तथा उसको समझने. बूझने का प्रयत्न कर अपने ग्रंथों की रचना की, वह भारतीय पुरातत्त्व तथा ऐतिहासिक शोध का सर्वथा प्रारंभिक काल था। अतः टॉड के इन ग्रंथों में अनेकानेक भूलों, एकांगीयता और अपूर्णता का होना सर्वथा अनिवार्य था। वस्तुतः टॉड कृत 'पश्चिमी भारत की यात्रा' से गुजरात प्रदेश के पुरातत्त्व तथा पूर्व-मध्यकालीन इतिहास के अध्ययन का प्रारभ ही हुआ था। इसी कारण इतिहास संबंधी उसके भावपूर्ण विवरणों, खोजपूर्ण निर्णयों और चतुराईपूर्ण अनुमानों का कोई विस्तृत विवेचन या टॉड की भूलों का व्योरेवार निर्देशन यहाँ समीचीन नहीं होगा। क्योंकि इन त्रुटियों या ऐसी कोई न्युनताओं के कारण इस ग्रंथ की उपादेयता किसी प्रकार घटती नहीं है। उसमें संग्रहीत ऐतिहासिक सामग्री तथा उन क्षेत्रों के ऐतिहासिक स्थानों, मन्दिरों या विशिष्ट प्राचीन खंडहरों के तत्कालीन विवरणों के साथ ही कई एक अन्य विशेषताओं के कारण ही टॉड के इस यात्रा-विवरण का महत्त्व प्राज भी बना हुआ है। टॉड ने यह यात्रा तब की थी जब वहां अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हए १. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ० २२६-२२७ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] पश्चिमी भारत की यात्रा कुछ ही वर्ष हुए थे । वहाँ की राजनीति, समूचा समाज और संस्कृति तब भी मध्ययुगीन परंपराओं तथा गये-बीते युगों के वातावरण में डूबी हुई थीं । वहाँ का समूचा समाज तब अंग्रेजी सत्ता के आधिपत्य तथा प्रातंक के फलस्वरूप इन क्षेत्रों में सद्यः स्थापित शांति के सुखमय जीवन का आनंद लेता हुआ सहज श्रालस्य और अफीम की पीनक में निमग्न था । पाश्चात्य भावनाओं, आदर्शों, मान्यताओं तथा तौर-तरीकों के प्रथम प्राघात के फलस्वरूप गुजरात के सदियों से निश्चेष्ट अनुद्विग्न जीवन में जो प्रतिक्रियाएँ आगे चल कर होने वाली थीं, उनका तब कोई भी आभास नहीं देख पड़ रहा था। टॉड ने इन सबको देखा और समझा तथा अपने इस ग्रंथ में उनका यत्र-तत्र संकेत भी किया है। ये ही सब अब इतिहास की बातें हो गई हैं, जो बाद की घटनाओं के कारणों को समझने में सहायक होती हैं अतः उनका विशेष गहराई के साथ अध्ययन और विवेचन अत्यावश्यक है । अंग्रेजों की तब चल रही नीति टॉड को कदापि रुचिकर नहीं थी । वह उसकी समालोचना ही करता था । वह अच्छी तरह से जानता था कि देशी राज्यों के साथ तब की गई 'सहायक संधियों' का अंत कहीं जाकर होने वाला था । भाला जालिमसिंह के शब्दों में 'वह दिन दूर नहीं [ था ] जब समस्त भारत में एक ही सिक्का चलेगा'; और टॉड सदैव ही राजपूताना आदि क्षेत्रों की अनोखी संस्कृति के इन अवशेषों पर विदेशी संस्कृति तथा सत्ता के अत्यधिक प्रभाव का विरोधी रहा। उसने अनुभव किया था कि- "ब्रिटेन के संरक्षण में जो विभिन्न जातियाँ श्रा गई हैं उनको सजा देते समय दया का व्यवहार बहुत कम किया जाता है और न्याय का डण्डा अवश्य ही किसी न किसी को मार गिराता है, जिससे हमारा शासन तलवार का शासन कहा जाता है ।" यही नहीं "हमारी सरकार द्वारा राज्य- कर तथा ग्रथं संबंधी जो भी कानून बनाये जाते हैं वे इनकी (प्रजाजनों की ) दशा सुधारने के दृष्टिकोण से नहीं वरन् हमारे कोष को भरने के लिये बनाए जाते हैं ।... अपने भारतीय प्रजाजनों की गाढ़ी कमाई से लाखों स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त करके उसका कौनसा भाग उनकी भलाई के लिए खर्च किया जाता है ?" पुनः " अभी तक कोई भी ऐसा विधानशास्त्री सामने नहीं आया है कि जो 'रेग्यूलेशन्स' (नियम और पद्धति) कहलाने वाली इस विशाल एकत्रित अप्रोढ़ सामग्री को सरल संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कर सके ।" १ १. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ० ६४-६७ से संकलित Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ १६ कुछ योगायोग ही ऐसा रहा कि 'टॉड-राजस्थान' जितना अधिक लोकप्रिय हुआ, उससे कहीं अधिक टॉड का यह यात्रा-विवरण उपेक्षित रहा। पिछले सवा सौ वर्षों में जब मूल अंग्रेजी ग्रंथ का दूसरा संस्करण भी नहीं छापा गया, तब उसके हिन्दी अनुवाद की कौन सोचता ? किन्तु, आज जब भारत अपने नवनिर्माण के लिये अग्रसर हो रहा है और तदर्थ अपने विगत इतिहास को ठीक तरह से समझने तथा उसका सही मूल्यांकन कर भविष्य के लिये उससे शिक्षा लेने को विशेष रूप से व्यग्र तथा प्रयत्नशील है, तब टॉड के इस यात्राविवरण जैसे प्रेरणापूर्ण विचारोत्पादक ग्रंथ का गहराई के साथ अध्ययन और विस्तृत विवेचन अत्यावश्यक है। जनसाधारण के साथ ही अंग्रेजी भाषा से अनभिज्ञ भारतीय विचारकों के लिये इस ग्रंथ को सुलभ करने के लिये राष्ट्रभाषा हिन्दी में इसका अनुवाद करना सर्वथा अनिवार्य हो गया था। अतः 'राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान' धन्यवाद का पात्र है कि इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का यह हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कर रहा है । साथ हो हमें श्री गोपालनारायण बहुरा का भी विशेष कृतज्ञ होना चाहिये, जिन्होंने बड़ी लगन और पूरे परिश्रम के साथ यह हिन्दी अनुवाद तैयार किया है। किसी भी उच्चकोटि के अंग्रेजी ग्रंथ का मुहावरेदार सुपाठय सरस भाषा में ठीक अनुवाद करना यों भी एक कठिन कार्य है, और जब उसकी रचना टॉड जैसे भावपूर्ण प्रोजस्वी लेखक ने की हो तब तो वह और भी दुष्कर हो जाता है। टॉड का अध्ययन अतीव विस्तृत था और विभिन्न विषयों संबंधी उसे बहुत अधिक जानकारी थी। यही कारण है कि उसके ग्रंथों में सीधे या परोक्ष रूप से विभिन्न बातों संबंधी इतने अधिक उल्लेख या संकेत पाये जाते हैं कि उन सब हो के सही संदर्भो का पूरा पता लगा लेना किसी प्रकार सरल नहीं है, और वे अनुवादक के कार्य को विशेष कठिन बना देते हैं । परन्तु संतोष का विषय है कि यह सब होते हुए भी इस यात्रा-विवरण का हिन्दी अनुवाद करने में श्री बहुरा को पर्याप्त सफलता मिली है। श्री बहुरा स्वयं भी इतिहास के विद्वान् हैं और कई वर्षों से शोध और संपादन के कार्य में लगे हुए हैं, अतः पाठकों की आवश्यकताओं और कंठिनाइयों से वे पूरी तरह परिचित हैं। इधर उन्होंने एलेक्जेण्डर किन्लॉक फोर्स कृत 'रास-माला' का भी हिन्दी अनुवाद कर उसका सयत्न संपादन किया है, जिसके अब तक तीन खण्ड 'मंगल प्रकाशन, जयपुर', द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। गुजरात और सौराष्ट्र के इतिहास का उन्होंने गहरा अध्ययन किया है और तद्विषयक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश आदि भाषाओं के प्राचीन आधार-ग्रंथों की उन्हें बहुत अच्छी जानकारी है। अत: Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] पश्चिमी भारत की यात्रा उनका यथासाध्य उपयोग कर श्री बहुरा ने टॉड के यात्रा विवरण के इस हिन्दी अनुवाद में अपनी ओर से प्रावश्यकतानुसार यत्र-तत्र कई महत्त्वपूर्ण उपयोगी टिप्पणियाँ जोड़ दी हैं जिनसे टॉड के दुरूह संदर्भों का स्पष्टीकरण, उसकी भूलों का निराकरण तथा इधर पिछली शोधों के परिणामों का निर्देशन होता है । टॉड ने अपने अंग्रेजी ग्रंथ के परिशिष्ट में कई एक महत्त्वपूर्ण शिलालेखों के प्राद्योपांत अंग्रेजी अनुवाद दिये हैं, इस हिन्दी संस्करण में उन शिलालेखों के प्राप्य मूल पाठ को भी यथावत् दिया जा रहा है; साथ ही, जहाँ जहाँ मूल श्रीर अंग्रेजी अनुवाद में अन्तर है वहाँ श्रावश्यक टिप्पणियां दे दी गई हैं । इन्हीं सारी विशेषताओं के कारण 'पश्चिमी भारत की यात्रा' ग्रंथ वस्तुतः विशेष उपयोगी, महत्त्वपूर्ण और संग्रहणीय हो गया है । आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि टॉड के इस श्रद्यावधि पर्यन्त उपेक्षित ग्रंथ 'ट्र ेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया' का, हिन्दी अनुवाद द्वारा ही क्यों न हो, अब तो अवश्य ही अधिकाधिक प्रसार होगा और पश्चिम भारत के पुरातत्त्ववेत्ता और इतिहासकार ही नहीं अन्य विषयों के प्रेमी और विशेषज्ञ भी उसे पढ़ कर पूर्णतया लाभान्वित होते रहेंगे । रघुबीर निवास सीतामऊ ( मालवा ) दिसम्बर ५, १६६४ ई० - रघुबीरसिंह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRAVELS IN WESTERN INDIA Embracing A VISIT To The Sacred Mounts of the Jains And the most Celebrated Shrines of Hindu Faith Between Rajpootana and the Indus with an Account of the Ancient City of Nehrwalla. By The Late Lieutenant - Colonel James Tod, Author of "Annals of Rajasthan" LONDON Wm. H. Allen and Co., 7, Leadenhall Street 1839, ( मूलपुस्तक के मुखपृष्ठ की अनुकृति ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by J. L. Cox and Sons, 75, Great Queen Street, Lincoln's-Inn Fields. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ पश्चिमी भारत की यात्रा राजपूताना और सिन्धुनदी के बीच जैनों के पवित्र पर्वतों और सुप्रसिद्ध हिन्दू मन्दिरों तथा नहरवाला के प्राचीन नगर के वर्णन सहित लेखक स्वर्गीय लेफ्टिनेण्ट-कर्नल जेम्स टॉड लेखक, 'राजस्थान का इतिहास लन्दन विलियम एच. एलन एण्ड कम्पनी ७. लेउनहॉल स्ट्रीट १०३९ ई. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रक जे० एल० कॉक्स एण्ड सन्स, ७५, प्रेट क्वीन स्ट्रीट, लिकन्स-इन फोल्ड्स, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ To : Mrs. Colonel William Hunter Blair My dear Madam: Under whose name and auspices can I present this work to the Public with more advantage to it and to its Author than yours ? My motives in dedicating it to you are two-fold-gratitude and inclination. The Public, so greatly indebted to your exquisite pencil for its illustration, can appreciate the former; but the other could be understood only by one who, like me, has been followed, into the heart of the Hindoo Olympus by an adventurous Conuntry-woman, who has the taste to admire and the skill to delineate the beauties it contains. It would have been sufficient to command my homage that you had been at Aboo; but you have done more--you have brought aboo to England. I am, My Dear Madam, Faithfully and truly your's JAMES TOD. ( Taurapa arti anon) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमती कर्नल विलियम हण्टर ब्लेयर के प्रति प्रिय महोदया, ___मैं इस ग्रन्थ को आपके अतिरिक्त किसके नाम और निमित्त जनता को भेट करू. कि जिससे यह और इसका कर्ता अधिक उपकृत हो सकें ? आपको समर्पण करने में मेरा दोहरा आशय है-प्राभार और अभिरुचि । इस कृति में दिए हुए रेखा-चित्रों के कारण आपकी सूक्ष्म पेंसिल के प्रति आभारी जनता तो पूर्व भाव (आभार] का ही समर्थन करेगी; परन्तु. अपर प्राशय को तो कोई मेरे जैसा व्यक्ति ही समझ पाएगा कि किसी ऐसी स्वदेश-निवासिनी महिला ने हिन्दू देव-पर्वत की यात्रा करने में मेरा अनुगमन किया, जिसमें वहां बिखरी पड़ी सुन्दरता के प्रति आकृष्ट होकर उसका रूपालेखन करने का कौशल विद्यमान है । आप पाबू गईं, इतना ही आप के प्रति सम्मान प्रकट करने को मेरे लिए पर्याप्त था; परन्तु, आपने तो इससे भी अधिक कर डाला कि आप प्राबू को इंगलैण्ड ले पाई। प्रिय महोदया, प्रापका सच्चा विश्वासपात्र, जेम्स टॉड Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञापन यद्यपि ग्रन्थकर्ता ने इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि प्रायः सम्पूर्ण ही छोड़ी थी फिर भी इसके प्रकाशन में अत्यधिक अपरिहार्य विलम्ब हो गया है। परिशिष्ट में से कुछ ऐसा अनावश्यक भाग छोड़ दिया गया है जिसको देना सम्भव नहीं था। इस पुस्तक को उस लाभ से तो वञ्चित रहना ही पड़ा जो इसके प्रणेता द्वारा अन्तिम प्रावृत्ति से प्राप्त होता फिर भी यह प्रायः उसी सम्पूर्ण अवस्था में है जिसमें वह इसे संसार के सामने उपस्थित करता। विभिन्न प्रकरणों के कितने ही पत्रों में ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं जिनको वह इस पुस्तक के प्राक्कथन में प्रयुक्त करना चाहता था; परन्तु, यदि और कोई व्यक्ति ऐसी सामग्री का उपयोग करे तो यह धृष्टता ही होगी।' विलम्ब होने से पुस्तक के विषय के प्रति एक अतिरिक्त आकर्षण तो उत्पन्न हो गया है क्योंकि पश्चिमी भारत की पुरावस्तुओं पर आजकल एक प्रकाशपुञ्ज का उत्सृजन हो रहा है-मुख्यतः गिरनार के शिलालेखों का अर्थविश्लेषण बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी द्वारा गतिमान हो रहा है, जिसके विद्वान् मिस्टर प्रिंसेप ने उनमें उल्लिखित 'एण्टिोकस द ग्रीक' १. ग्रन्थकर्ता की भावनाओं और उद्देश्यों का एकमात्र परिचायक निम्न अंश यहाँ प्रस्तुत किया जाता है "जनता के समक्ष दुबारा उपस्थित होने की कठिन परीक्षा के प्रति रीतिरिवाजों ने हमारे मन में एक प्रकार का भय उत्पन्न कर दिया है, परन्तु, मुझे किसी प्रकार के भय का अनुभव नहीं होता, प्रत्युत, जो प्रोत्साहन मुझे प्राप्त हुआ है उसी से सुरक्षित होकर में इस ( कृति ) को अन्य महान ग्रन्थों का सहचर बनने के लिए भेज रहा हूँ, जिनका सृजन समान उद्देश्यों के लिए और विकास समान परिस्थितियों में हुआ है । यदि कल्पना पर आधारित यह कोई नवीन कृति होती तो मैं किसी प्रकार की आशंका से दबकर श्रम करता; परन्तु इसमें तो, सामग्री-संकलन और उसकी व्यवस्था वही है जिसके लिए में अपनी ईश्वर-प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग [जीवन भर करता रहा है। पूर्वकृति के लिए मैंने जी-जान लड़ा कर परिश्रम किया है और इसके लिए भी सभी प्रकार के आकर्षण को छोड़ कर उसी भक्तिभाव से विषय पर विचारों को केन्द्रित किया है - केवल इस प्राशा से कि राजपूत अपने [महान्] कार्यों से संसार के सामने आ जाए। दृश्य बदल गया है। परन्तु, मैं अब भी राजपूताना के सीमा-छोर पर अटका हूँ और अपने पाठकों को सौराष्ट्र प्रदेश में ले जाना चाहता हूँ, जो किसी भी प्रकार कम आकर्षक नहीं है तथा उन पर्वतों की सैर कराना चाहता हूँ जो एकेश्वरवादी जैनों के लिए उसी प्रकार पवित्र है जैसे गेराजिम (Gerazina) प्रथवा सिनाई (Sinai) इजरायालियों के लिए है।" Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] (Antiochus the Greek) और मिस्र के टॉलमियों (Ptolemies of Egypt) में से एक के नाम का पता लगा लिया है। पाठकों को नामों को वर्तनी में कुछ असंगतियाँ अवश्य मिलेंगी- जैसे, नेहरवाला, नेहरवलेह; परन्तु, यह अपरिहार्य था। देशी लेखकों में अप्रमाद नहीं है:-मि० कोलब्रक ने राजपूत हस्त-प्रतियों के विषय में मत प्रकट किया है कि "देशी भाषा में लिखित हस्त-प्रतियों में व्यक्तित्रों और स्थानों के नामोल्लेख में उच्चारणभेद के कारण वर्णविन्यास में एकरूपता नहीं है।" - - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा ग्रन्थ कर्ता लेफ्टि० कर्नल जेम्स टॉड जन्म-२० मार्च, १७८२ ई.] [ निधन-१७ नवम्बर, १८३५ ई. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ता-विषयक संस्मरण यदि गिबन' के कथनानुसार 'दुनियाँ उन लोगों का इतिहास जानने के लिए उत्सुक रहती है, जो अपने पीछे अपने मस्तिष्क की प्रतिकृति छोड़ जाते हैं तो वह उत्सुकता स्वभावतः उस दशा में और भी बलवती हो उठती है जब किसी लेखक की कृति उसकी मृत्यु के उपरान्त प्रकाश में आती है। लेफ्टिनेण्ट कर्नल जेम्स टॉड मिस्टर जेम्स टॉड का द्वितीय पुत्र था और उसका जन्म २० मार्च, १७८२ ई० के दिन इस्लिंग्टन में हुआ था। सहजरूप में उसका उद्देश्य व्यापारिक जीवन विताने का होता, परन्तु उसका रुझान (जो उसको जहाजी जीवन की ओर अग्रसर करता) रोकड़िया के गल्ले' से विद्रोह कर उठा इसलिए उसके चाचा मि० पंट्रिक होटली (Mr. Patric Heatly) ने १७६८ ई० में उसको ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में कैडटशिप (उम्मीदवारी) दिलवा दी और वह रॉयल मिलोटरी एकॅडमी, वूलविच में भेज दिया गया, जहाँ एडिस्कॉम्बे में कम्पनी का शिक्षा-संस्थान स्थापित होने से पहले केवल गिने-चुने शिक्षाथियों को ही शिक्षा दी जाती थी। १७६६ ई० में वह बंगाल के लिए रवाना हुआ। दूसरी यूरोपियन रेजीमेण्ट में उसको कमीशन (पद) दिए जाने की तारीख ६ जनवरी, १८०० ई० थी। फिर वह स्वेच्छा से मोलक्का द्वीप ' 'रोम साम्राज्य का पतन और नाश' (The Decline and Fall of the Roman Empire) पुस्तक का प्रसिद्ध लेखक । इस ग्रन्थ की गणना संसार के महान् ग्रन्थों में होती है । २ फर्नल टॉड का पिता स्काटलैण्ड का निवासी था। वह हेनरी टॉड और जेनेट मॉन्टीय (Jenet Montieth) की प्रथम संतान के रूप में २६ अक्टूबर, १७४५ ई० में पंदा हुआ था। वह उस प्राचीन वंश से संबद्ध था जिसके एक पूर्वज जान टॉड ने रावर्ट बेस के बच्चों की उस समय रक्षा की थी जब वे इंगलैण्ड में बन्दी थे । स्वयं बादशाह ने अपने हस्ताक्षरों से उसको 'नाइट बॅरोनेट' का पद और 'टॉर्ड' का शीर्षचिन्ह (स्कॉटलैण्ड में 'टॉड' लोमड़ी को कहते हैं) तथा 'Vigilantia' (सतर्क) का 'प्रादर्श-शब्द' (motto) प्रयुक्त करने की अनुमति प्रदान की थी, जिसका प्रयोग उस वंश में अब तक होता है। मिस्टर टॉड (क० टॉड के पिता) का विवाह न्यूयार्क में ४ नवम्बर, १७७९ ई० को मि० एण्ड्यू स होटली (Mr. Andrews Heatly) की पुत्री कुमारी Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा (Molucca Islands) • गया, तदुपरान्त तबादला होकर मॅराइन द्वीप चला गया और वहां मॉरिंगटन (Morington) नामक जहाज पर उसी स्थिति में काम मेरी होटली के साथ हुमा था। मिस्टर होटली लंकाशायर के रहने वाले थे और न्यू पोर्ट रोठ द्वीप, अमेरिका (New Port, Rhode Island, America) में जाकर बस गए थे। वहीं पर उनका विवाह बलवांडेन (Bellwadden) निवासी स्यूटानिप्रस प्राण्ट (Suetonius Grant) की पुत्री 'मेरी' के साथ हुमा, जो इन्टरनेस (Inverness) छोड़ कर न्यू पोर्ट रोढ द्वीप में व्यापारी के रूप में १७२५ ई० में जा कर बस गए थे; वहीं पर १७४४ ई० में बारूद के विस्फोट के कारण उनकी मत्य हो गई । मिस्टर होटली का (जो बंगाल सिविल सविस के प्रसिद्ध स्व० मि. पैट्रिक होटली के भी पिता थे) समाधि. स्थल न्यूपोर्ट में है। वहाँ एक पत्थर में उनका स्मति लेख इस प्रकार खुदा हुमा है-'इस राज्य के सबसे सच्चे और सम्माननीय व्यापारी सज्जन' । सूटॉनिअस प्राण्ट डॅल्बी (Dal. vey) faaral sa 9102 (Donald Grant) at Fatet retail (Marjorie Stewart) का पुत्र था । मेजोंरी बैन्फ (Banff) प्रदेश के किन्मीचली (Kinmeachley) के बेरन (Baron) वंश की थी। सूटॉनिमस के माता पिता उसे बचपन में ही छोड़ कर मर गए थे और अपने नाना की मृत्यु के उपरान्त वह बॅरन पद पर प्रतिष्ठित हुमा। परन्तु, उसने 'मई दुनियाँ', अमेरिका में व्यापारी के रूप में बसने का निश्चय कर लिया था इसलिये अपने भतीजे और लन्दन के प्रसिद्ध व्यापारी मि. अलेक्जॉण्डर ग्राण्ट को 'बरन' पर बेचकर वह लॉङ्ग द्वीप न्यूयॉर्क (Long Island, New York) के लिए रवाना हो गया। यहां उसकी जान-पहचान मिस्टर थामस टालमेक अथवा टालमेज (अमेरिका में टॉलमेक को टॉलमेन ही बोलते हैं) से हो गई, जो डाइसाट (Dysart) वंश के थे और उनकी जायदाद 'लाङ्ग दोप' में ही पूर्षीय हैम्पटन (East Hampton) में पो; वहीं नब्बे वर्ष की अवस्था में उनका देहान्त हो गया । इन सज्जन के पितामह प्यूरिटन ईसाई थे और मोलिवर क्रॉमवेल (Oliver Cromwell) को प्रोटॅक्टोरेट (Protectorate) के अंतिम दिनों में इंगलैण्ड छोड़ कर यहां मा गए थे । सूटॉनिमस प्राण्ट ने इन 'टालमेज' महाशय की पुत्री टेम्परेन्स (Temperance) से विवाह कर लिया थाजिसके एक पुत्र भी हमा। उसने बॅरन पद के लिए दावा किया परन्तु उसके कोई संतान नहीं थी। (उसकी पत्नी व इकलौता पुत्र न्यूपोर्ट में ही मर गए थे) इसलिए वह पद सर प्रलॅकजाण्डर ग्राण्ट के ही वंश में चला पा रहा है। न्यूयार्क के टालमेज बहुत बड़े प्रतिष्ठित वंश के हैं। इनमें से एक सज्जन यूनाइटेड स्टेट्स की सेना में जनरल हैं और दूसरे जज हैं। श्रीमती टॉड, जो सर सूटानिप्रस की दोहिती और क. टॉड की माता हैं अपनी सुझा बूझ और समझदारी के लिए प्रसिद्ध है और अभी तक [१८३६ ई. तक] बड़ी अवस्था में जीवित है। • इस अभियान की योजना लॉर्ड वेलेजली द्वारा बनाई गई प्रतीत होती है और ट्रिकोमली (Trincomallea) को संकेतस्थल बनाने के प्रावेश भी हुए थे, परन्तु बाद में इसे कार्य रूप में नहीं लाया गया। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थकर्त्ता विषयक संस्मरण [ करता रहा; इस प्रकार उसे सैनिक जीवन की सभी परिस्थितियों का अनुभव प्राप्त था । २६ मई, १८०० ई० को वह देशी पैदल फौज की १४ वीं रेजीमेण्ट का लेफ्टिनेण्ट नियुक्त हुआ और बाद में, उसी के शब्दों में, 'कलकत्ता से हरिद्वार तक' उसकी तलवार घूमती रही । एक अफसर ( लेफ्टिनेण्ट कर्नल विलियम निकॉल), जिसने उसी के साथ चौदहवीं रेज़ीमेण्ट में काम किया था, उस समय ( १८०० ई० ) के कर्नल टॉड के विषय में कहता है कि 'वह सरल प्रकृति का था और सभी सहकारी अफसर उसे प्यार करते थे तथा उसमें उस उदीयमानता के सभी लक्षण दृष्टिगत होते थे, जो बाद में उसने अपनी प्रतिभा के बल पर प्राप्त की थी ।' १८०१ ई० में, जब वह दिल्ली में तैनात था तो उसकी चतुराई और सफलताओं के कारण सरकार ने नगर के पास ही एक पुरानी नहर का सर्वेक्षण करने के लिए इञ्जीनियर के पद पर उसका चुनाव किया । १८०५ ई० में मिस्टर ग्रीम मर्सर ( Mr. Graeme Mercer), जो उसके चाचा का मित्र था, दौलतराव सिन्धिया के दरबार में राजदूत और रेजीडेण्ट नियुक्त होकर जा रहा था; लेफ्टिनेण्ट टॉड द्वारा इच्छा प्रकट करने पर, उसके सम्मान्य और स्वतंत्र चरित्र को ध्यान में रखते हुए उस नवयुवक अधिकारी को अपने साथ ले जाने की अनुमति उसने सरकार से प्राप्त कर ली; और, इस प्रकार एक सम्माननीय एवं उपयोगी चरित्र के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिससे उसके उत्साह और प्रतिभा को पूरा-पूरा लाभ प्राप्त हुआ । आगरा से चल कर जयपुर के दक्षिणी भाग में होते हुए उदयपुर के मार्ग में बहुत सा ऐसा भू-भाग था जिसका यूरोपवासियों ने बहुत कम या नहीं के बराबर सर्वेक्षण किया था । मिस्टर मर्सर का कहना है कि " लेफ्टिनेन्ट टॉड ने बड़ी ईमानदारी के साथ अपने आपको इस मार्ग के सर्वेक्षण में लगा दिया और अपूर्ण यन्त्रों के द्वारा ही अपनी सहनशीलता, लगन एवं सहज सरलता के बल पर, जो उसमें कूट-कूट कर भरी थी, स्वास्थ्य ठीक न रहने पर भी, इस कार्य को ऐसे अनोखे ढंग से पूरा किया कि बाद के अधिक परिष्कृत साधनों और सर्वेक्षण विषय के प्रायोगिक एवं सैद्धान्तिक उपचित ज्ञान के द्वारा भी, मेरे विचार से, उसमें सुधार की कोई गुञ्जाइश नहीं दिखाई दी ।" राजपूताना के भूगोल के बारे में तत्कालीन अल्प ज्ञान का यही प्रमाण पर्याप्त है कि दोनों राजधानियों, उदयपुर और चित्तौड़ की स्थिति अच्छे से अच्छे मानचित्रों में भी बिलकुल विपरीत दिखाई गई है; चित्तौड़ को उदयपुर से पूर्व उ० पू० के बजाय दक्षिण-पूर्व में दिखाया गया है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] पश्चिमी भारत को यात्रा ___ जब १८०६ ई० के वसन्त में राजदूत-परिकर सिन्धिया के दरबार में पहुंचा तो उसका डेरा मेवाड़ के खण्डहरों में लगाया गया क्योंकि मरहठा सरदार ने राणा की राजधानी के मार्गों पर बलात् अधिकार कर लिया था। ले० टॉड ने तभी से इस देश के विषय में हमारे भौगोलिक ज्ञान की कमियों को दूर करने का काम सम्हाल लिया और उसने जो स्पष्टोक्ति की है वह निर्विवाद सत्य है कि "उस समय के बाद जो भी मानचित्र छापे गए हैं उन में एक भी ऐसा नहीं है कि जिसमें बताई गई मध्य एवं पश्चिमी भारत की स्थिति मेरे परिश्रम पर आधारित न हो।" इस कठिन कार्य को पूरा करने के लिए अपनाए गए तरीके का विवरण उसने अपने राजस्थान का भूगोल' नामक शोध-पत्र में दिया है, जो उसके 'इतिहास' ग्रन्थ के आरंभ में लगाया गया है। नक्षत्रों के निरीक्षण के आधार पर इस मार्ग के एक भाग का सर्वेक्षण करके डॉक्टर विलियम हण्टर ने, बड़ी शुद्ध रीति से कुछ बिन्दु स्थापित किए थे, जब १७९१ ई० में वे कर्नल पामर के साथ थे; और यही मार्ग उस सर्वेक्षण का आधार बनाया गया, जो मध्य भारत' के सभी सरहदी बिन्दुओं को अपने में लिए हए था अर्थात् आगरा, नरवर, दतिया, झाँसी, भोपाल, सारंगपुर, उज्जैन और वापसी में कोटा, बूंदी, रामपुरा, बियाना होते हुए आगरा आदि । रामपुरा से, जहाँ हण्टर का मार्ग-दर्शन समाप्त हुआ, उदयपुर का नया सर्वेक्षण प्रारम्भ हुआ, जहाँ से मरहठों की सेना चित्तौड़ से गुजरती हुई और विन्ध्य की पहाड़ी से निकलने वाले झरनों को पूरी तरह पार करती हुई सात सौ मील दूर बुन्देलखण्ड की सरहद पर कमलाशा (Kemlassa) तक पहुँच गई थी। १८०७ ई० में मरहठों की सेना ने राहतगढ़ (Rahigurh) को घेर लिया; लेफ्टिनेण्ट टॉड जानता था कि ऐसी लड़ाइयों में कितना समय बरबाद होता है इसलिए उसने, इस देर का लाभ उठाते हुए, एक अज्ञात और अस्तव्यस्त प्रदेश में मार्ग निकालने का निश्चय किया। एक छोटी-सी रक्षिका-ट्रकड़ी को साथ लेकर वह बेतवा के किनारे-किनारे चन्देरी पहुंचा और फिर पश्चिम को ओर ' यह ध्यान रखना चाहिए कि 'मध्य भारत' (Central India) शब्द का प्रयोग इन भु-भागों के लिए सबसे पहले कर्नल टॉड ने १८१५ ई० में किया था जब उसने यहां का मानचित्र मारकुइस प्राफ हेस्टिग्स को पेश किया था। २ चन्देरी के विषय में उसने 'इतिहास' (१.१३८) में लिखा है कि "मैं ही पहला यूरोपियन था जिसने १८०७ ई० में इस जंगली प्रदेश को पार किया-और इस काम में कठिनाइयां भी बहुत प्राई । उस समय यह स्वतंत्र था परन्तु तीन वर्ष बाद सिन्धिया का शिकार बन गया।" Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्त्ता विषयक संस्मरण [ ५ कोटा गया तथा दक्षिण से बहने वाली सभी छोटी नदियों का मार्ग एवं मुख्यमुख्य नदियों के संगम स्थानों के बिन्दु निश्चित करते हुए उसने आगरा तक अपना अभियान जारी रक्खा । यह कार्य उसने ( उस समय पचीस वर्ष की अवस्था में ) अपने ही महान् साहस के बल पर पूरा किया; मार्ग में बहुत सी रोमाञ्चक घटनाएं हुईं और अनेक बार उसे लूट भी लिया गया । मरहठा छावनी में लौटने पर जब उसे लगा कि अभी भी बहुत-सा समय उसे मिल सकता था तो वह फिर अपनी यात्रा पर निकल पड़ा - अब की बार दक्षिण की ओर बढ़ता हुआ वह बहावलपुर से जयपुर, टोंक आदि स्थानों और फिर सागर तक चला गया । यह यात्रा एक हजार मील की हुई और जब वह वापस लौटा तो सेना का पड़ाव वहीं था जहाँ उसने छोड़ा था । सिन्धिया के चल दरबार के साथ वह इस प्रदेश के सर्वेक्षण में व्यस्त हो कर तब तक लगातार इधर-उधर घूमता रहा जब तक कि वह दरबार १८१२ ई० ग्वालियर में स्थायी न हो गया; और तब उसने उन भू-भागों के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की योजना बनाई, जिनमें वह स्वयं प्रवेश नहीं पा सका था । उसने भौगोलिक एवं स्थल - परिज्ञान- सम्बन्धी खोज के लिए श्रन्वेषकों की दो टुकड़ियां रवाना कीं। पहली, उदयपुर के पास होकर गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ, लखपत, हैदराबाद, ठट्टा, सीवन, खैरपुर और बखर तक गई और सिन्धु नदी को पार करके पुनः पार उतर कर ऊमरा-सुमरा के रेगिस्तान में होती हुई जैसलमेर, मारवाड़ और जयपुर पहुँच कर वापस उसके डेरे पर जा मिली, जो उस समय नरवर में था। दूसरी टुकड़ी सतलज के दक्षिणी रेगिस्तान में भेजी गई। इन दोनों ही अभियानों के परिचालक स्थानीय मनुष्य थे, जिनको उसने स्वयं चुन कर प्रशिक्षित किया था; वे सभी जानकार, निडर, उद्यमी और विज्ञान की जिज्ञासा में उसी के समान उत्साह से भरे हुए थे । वह कहता है 'इन दूर के प्रदेशों से अच्छे से अच्छे जानकार स्थानीय मनुष्य मेरे पास आग्रह करके अथवा इनाम का लोभ देकर भेजे जाते थे और मरहठों की छावनी में १८१२ से १८१७ ई० तक हमेशा ही सिन्धु घाटी, घाट और ऊमरा-समरा के रेगिस्तान अथवा राजस्थान की अन्य किसी रियासत से कोई न कोई देशी श्रादमी आता ही रहा ।' उसने अन्यत्र लिखा है 'यद्यपि मैं स्वयं भारतीय मरुस्थल के अन्तर में, मरुस्थली की प्राचीन राजधानी मण्डोर, इसकी उ० पू० सीमा पर हिसार के पुराने किले और पश्चिम में आबू, नहरवाला और भुज से आगे नहीं गया हूँ, परन्तु मेरी खोजी टुकड़ियों ने सभी दिशाओंों में इसके स्थलों को देखा-भाला है और मार्गों के विवरण की शुद्धता को जीवन्त प्रमाणों से सम्पुष्ट करने के Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा लिए मेरे पास भटनेर से उमरकोट और पाबू से आरोर (Arore) तक के प्रत्येक 'थळ'' से देशी आदमियों को ला-ला कर पेश किया है। मध्य भारत और पश्चिमो भारत से प्राप्त विवरण और इन सभी मार्गों का ब्यौरा मिल कर मध्यम माप के पृष्ठों की ग्यारह जिल्दों में हैं। इस सामग्री का संग्रह करने में खूब धन खर्च किया गया और स्वास्थ्य एवं श्रम की भी कोई परवाह नहीं की गई, इससे उसके उत्साह की तीव्रता एवं मान्यताओं की दृढ़ता का परिचय प्राप्त होता है। मिस्टर मर्सर कहते हैं 'जब तक में इस रेजीडेन्सी में रहा, वह इस प्रदेश के भूगोल-सम्बन्धी अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए प्रत्येक सुलभ और शक्य अवसर का लाभ उठाता रहा; और मेरा विश्वास है कि उसके वेतन का बहुत बड़ा भाग देश के विभिन्न भागों में कार्यकर्ता भेज कर उनके द्वारा स्थलीय सूचनाएं प्राप्त करने में व्यय होता था । वह स्वयं भी इस उद्देश्य के लिए अथक परिश्रम करता रहता था; और उसको थकान को कम करके उसे पुनः सुस्वस्थ बनाने हेतु कभी-कभी मुझे ऐसे प्रयत्न भी करने पड़ते थे कि उसकी प्रवत्तियों में रोक पैदा हो जाय क्योंकि गठिया-वात से प्रभावित उसका स्वास्थ्य बहुधा साधारण व्यायाम करने में भी अशक्य हो जाता था।' वह एक मण्डली की खोज के परिणामों से शायद ही कभी सन्तुष्ट होता था वरन अपर मण्डली को निर्देश देने में उनका उपयोग करता था और इस तरह वह दूसरी मण्डली अतिरिक्त सूचना लेकर उसी स्थल पर पहुंच जाती थी। इस प्रकार कुछ ही वर्षों में, मार्गों को मानचित्रों में रेखांकित कर के कितनी ही जिल्दें तैयार कर ली गई; और बहुत सी सीमावर्ती रेखाओं को निश्चित करके एक साधारण खाका तैयार किया गया जिसमें सभी प्रकार की सूचनाएं अंकित थीं। इसके बाद, उसने इस कार्य की शुद्धता को जाँचने के लिए त्रिकोणमिति के आधार पर पुनः सर्वेक्षण चालू करने का निश्चय किया और यह कार्य उसने फिर से नई मण्डलियां भेज कर पूरा कराया, जिन्होंने निश्चित बिन्दुओं और केन्द्रों से बीस मील अर्ध-व्यास की परिधि में स्थित सभी नगरों के मार्गो का ब्यौरा एकत्रित किया। वह कहता है 'ऐसे ही तरीकों से मैंने इन अपरिचित स्थलों में अपना कार्य किया ।' ये विवरण, जो स्वयं कर्नल टॉड के शब्दों में दिए गए हैं, साधारण रूप से अतीव संक्षिप्त लगते हैं, परन्तु इनसे उनके प्रसार और उसके उन सम्पर्कों की ' 'थळ' खुले और सूखे भू-भाग को कहते हैं, जो जंगल या रोही से भिन्न होता है। . 'इतिहास'. २. २८६ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थका-विषयक संस्मरण बहुमूल्यता ज्ञात हो जाती है जिनके द्वारा वह पिंडारी-अभियान में महत्त्वपूर्ण सेवाएं सम्पन्न कर सका था। मिस्टर मसर ने १८१० ई० में भारत छोड़ा और उनके स्थान पर सिन्धिया दरबार की नरवर में स्थित तत्कालीन रेजीडेन्सी पर मिस्टर रिचार्ड स्ट्रची नियुक्त हुए, जो दश वर्ष पहले ही देहली में लेफ्टिनेण्ट टॉड से परिचय प्राप्त कर चुके थे। अक्टूबर, १८१३ ई० में उसे कॅप्टेन के पद पर उन्नत किया गया और एस्कॉर्ट (escort) की कमान सम्हलाई गई। तदनन्तर अक्टूबर, १८१५ ई० में, मिस्टर स्ट्रची के दरबार छोड़ने से कुछ ही समय पूर्व कॅप्टेन टॉड को रेजीडेण्ट के द्वितीय सहायक के नागरिक पद के लिए नामांकित किया गया । मिस्टर स्ट्रची का कहना है कि इस पूरे समय में वह मुख्यतः सिन्धु और बुन्देलखण्ड तथा जमुना और नर्मदा के बीच के प्रदेशों से सम्बद्ध भौगोलिक सामग्री एकत्रित करने में व्यस्त रहा। वे सज्जन कहते हैं, 'मेरे पद से सम्बन्धित कर्तव्यों का इन प्रदेशों से निरन्तर सम्बन्ध बना रहता था और इस विस्तृत क्षेत्र के विषय में उसके भौगोलिक ज्ञान से मैंने बहुत लाभ उठाया। प्राप्त जानकारी को प्रस्तुत करने के लिए वह सदैव तत्पर रहता था, जो महत्व के अवसरों पर बहुत उपयोगी सिद्ध होती थी; सरकार ने भी उसके इस कार्य की बहुत प्रशंसा की है।' राजपूताना की तत्कालीन दशा का उसने अपने महान ग्रन्थ में प्रभावशाली वर्णन किया है । १७३५ ई० में पहले-पहल चम्बल को पार कर के मरहठों ने मालवा में अपने थाने कायम कर लिए थे, और जल्दी ही टिड्डी दल की तरह नर्मदा को पार कर के विभिन्न रियासतों में घुल-मिल कर, उनके आपसी झगड़ों को बढ़ावा देकर तथा कभी एक को सहायता दे कर तो कभी दूसरे का पक्ष ले कर, अन्त में उन्होंने राजस्थान में अच्छी तरह अपने पैर जमा लिए थे। दिल्ली के निर्बल मोहम्मद शाह ने अपने राजस्व की 'चौथ' अथवा चतुर्थाश उनके हवाले कर दी थी जिससे उनको यहाँ तथा अन्यत्र भी कर उगाहने के लिए अवसर मिल गया । उनका नेता बाजीराव मेवाड़ में पहुँच गया और राणा को उससे सन्धि करने के लिए बाध्य होना पड़ा जिसके अनुसार उसने तीनों बड़े मरहठा नेताओं को कर देना स्वीकार किया। यह क्रम दस वर्ष तक चलता रहा जब तक कि वे आक्रमणकारी अपनी मांग को बढ़ाते रहने की स्थिति में बने रहे । अवर रियासतों की दुर्नीति का अनुसरण करते हुए राणा ने भी हुल्कर को अपने एक झगड़े में शामिल किया (जिसमें उसको लगभग दस लाख सिक्के दिए) और उसी समय (१७५० ई०) से मरहठों ने राज Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा स्थान में अपनी पकड़ मजबूत बन ली, जो आपसी संघर्ष, लूटपाट और प्रान्तरिक झगड़ों के कारण तब तक बरबादी का रंगमंच बना रहा जब तक कि पिंडारीमरहठा युद्ध के बाद १८१७-१८ ई० में बृटिश सरकार के साथ रियासतों की सन्धियां सम्पन्न न हो गईं। प्राधी शताब्दी से कुछ अधिक समय तक इस टिड्डोदल द्वारा किए गए विनाश का वर्णन बड़ी ही भावपूर्ण एवं चमत्कारिक भाषा में 'राजस्थान का इतिहास में किया गया है। सहायता और सहयोग के बहाने भूमि-ग्रहण से १७७० से १७७५ ई० तक और नोंच-खसोट कर प्राप्त किए हुए धन से उनको लिप्सा की तप्ति १७६२ ई० तक होती रही। उस समय राजपूताना के प्रान्तरिक संघर्ष महादाजी सिन्धिया को चित्तौड़ में ले आए और, कहते हैं कि, उसके नायब अम्बाजी ने अकेले मेवाड़ से बीस लाख सिक्के वसूल किए और इस प्रदेश की स्थिति उसके सहायकों की कृपा पर निर्भर हो गई। हुल्कर और सिन्धिया की प्रतिस्पर्धी सेनाओं को इस अभिलषित भूमि में छापे मार कर पीन हीने की खुली छूट मिली हुई थी और कभी-कभी पराजय का सामना होने पर उनकी द्वेषाग्नि भभक उठती थी तथा निर्बाध छूट के कारण उनकी भूख और भी बढ़ जाती थी; ऐसी दशा में वे राजपूताना को एक के बादएक करके रौंदे डाल रहे थे और यह देश द्रुत गति से जंगल के रूप में बदल रहा था। कर्नल टॉड कहते हैं '(१८०५ ई० के) बाद के दश वर्षों तक जिस भय और आतङ्क का राज्य यहाँ पर रहा और ग्रन्थकर्ता जिसका प्रत्यक्षदर्शी रहा है उसका चित्रण करने के लिए साल्वेटर रोज़ा की पेंसिल के सदृश सुदृढ़ लेखनी की आवश्यकता होगी; और उस आतङ्क का परिणाम मरहठा छावनियों के पीछे-पीछे लूटमार के तांतों और उन मध्यभारतीय रियासतों की बरबादी एवं राजनीतिक नगण्यणा के रूप में निश्चित था, जिन्होंने अंग्रेजों को राज्य-संस्थापन के प्रारम्भिक संघर्षों में सहायता दो थी और उन्हीं को अब [ अंग्रेजों द्वारा] निस्सहाय अवस्था में नष्ट होने के लिए भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया था।___ "१८०६ ई० के वसंत में जब राजदूत-वर्ग ने एकदा उर्वर मेवाड़ में प्रवेश किया तो विनाश के अतिरिक्त कुछ भी देखने को न मिला-उजड़े कसबे, टूटी छतों के मकान और पड़त खेत । जहाँ कहीं भी मरहठों का डेरा लगता वहाँ की बरबादी निश्चित थी-यह एक आम रिवाज बन गया था; किसी भी खुशहाल और हरे-भरे स्थल को उजाड़ जंगल की शकल देने के लिए सिर्फ चौबीस घण्टे काफी होते थे। इस विध्वंसकारी दल के प्रस्थान के मार्ग का पता हमेशा कई दिनों तक जलते हुए घरों और बरबाद खेतों से लगाया जाता था।" Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्त्ता विषयक संस्मरण [ S "मेवाड़ बरबादी की ओर तेजी से बढ़ रहा था, सभ्यता का प्रत्येक चिह्न जल्दी से लुप्त होता जाता था, खेत पड़त पड़े थे, शहर बरबाद हो गए थे, प्रजा मारीमारो फिर रही थी, ठाकुरों और जागीरदारों की नीयतें बिगड़ गई थीं और महाराणा व उसके परिवार को जीवन की साधारण से साधारण सुविधा भी सुलभ नहीं थी ।" " एक रम्य प्रदेश के सामरिक वीर निवासियों को, जिनके स्वाभाविक सद्गुणों को प्रत्याचार भी विनष्ट नहीं कर पाए थे, इस प्रकार आक्रामकों के हाथों में पड़े देख कर उस युवा सैनिक की सोष्म और सूक्ष्मग्राही भावनाओं को गहरा आघात पहुंचा । वह १८०६ ई० के जून मास में हुई मेवाड़ के राणा भीमसिंह और दौलतराव सिंधिया की मुलाकात के समय स्वयं मौजूद था जब उदयपुर से छः मील की दूरी पर एकलिंगजी के मन्दिर में वह चिरस्मरणीय समझौता हुआ था कि जिसके परिणामस्वरूप राणा की पुत्री 'राजस्थान की पद्मिनी' कृष्णाकुमारी का अमानुषिक बलिदान हुआ; इस नाटक का वह भयावह दृश्य पूर्णरूप से उसकी आँखों के सामने ही सम्पन्न हुआ था । एक सामान्य कृषक पुत्र की दया पर निर्भर भारत के प्राचीन राजवंशी राणा की दयनीय उपस्थिति ने उसके मन पर एक अमिट छाप लगा दी। राणा की नज़रों में अपने महत्व को बढ़ाचढ़ा कर दिखाने के लिए सिन्धिया ने बृटिश राजदूत और उसके वर्ग को भी इस अवसर पर श्रामन्त्रित किया था। राजदूत मिस्टर मर्सर ( Mr. Mercer) कहते हैं "सम्मेलन में जब हम दौलतराव सिन्धिया के साथ गए और उसका (ले० टॉड का ) परिचय उदयपुर के राणा से कराया गया तब मैंने उस (ले० टॉड) का जो उत्साह देखा वह मुझे अच्छी तरह याद है । हिन्दुस्तान के प्राचीन उच्चकुलीन राणा और उसके साथियों का व्यक्तित्व वास्तव में बहुत प्रभावोत्पादक र, यद्यपि इससे पहले मैं भारत के प्रायः सभी दरबारों में उपस्थित रह चुका हूँ परन्तु जो वंश मुसलमानों की विजय से पूर्व 'हिन्दूपदपातशाह' की उपाधि का अधिकारी रह चुका है उसकी शान और सद्व्यवहार से अत्यधिक प्रभावित हुआ ।" स्वरचित 'मेवाड़ के इतिहास' में इस मुलाकात के विषय में कर्नल टॉड ने जो कुछ कहा है उससे स्पष्ट है कि यही वह क्षण था जब कि पहले पहल राजस्थान के पुनरुद्धार की उस उदार योजना के विचार का उसके मन में उदय हुआ जिसका बाद में वह मुख्य निमित्त बन गया। वह कहता है "इस अवसर पर 'सौ राजानों के वंशज' की मुसीबतों और उसके उदात्त व्यक्तित्व था; १ इतिहास १, पृ० ४५८; ४६६-७० | Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] पश्चिमी भारत की यात्रा को देख कर लेखक के मन पर जो प्रभाव पड़ा वह कभी क्षीण नहीं हुआ अपितु इसने उसकी गिरी हुई दशा को उठाने के लिए उस (लेखक) के मन में उत्साहपूर्ण प्रबल इच्छा को जागृत कर दिया और उस ज्ञान को प्राप्त करने की लगन में दृढ़ता पैदा कर दी कि जिसके बल पर ही वह उसको लाभ पहुंचा सकता था । यह एक लम्बा स्वप्न था; परन्तु, दस वर्ष की व्यग्र आशा के उपरान्त उसे सन्तोष मिला कि वही उस वंश को विनाश के चंगुल से छुटकारा दिलाने और परिणामत: देश के अपेक्षाकृत समृद्ध होने में कारणीभूत हुआ उस समय लार्ड मिण्टो की अध्यक्षता में अपनी शान्त अथवा यों कहें कि, डरपोक नीति के कारण प्राङग्ल-भारतीय सरकार ने यह निश्चय कर लिया था कि इन रियासतों के आन्तरिक मामलों में किसी भी तरह का दखल देने से दूर रहा जाय और इस कारण राज प्रतिनिधि ( Envoy ) को अपने चारों प्रोर चल रहे उपद्रवों का निष्क्रिय साक्षी मात्र होकर रहना पड़ता था । सन् १८१७ ई० में मार्क इस् हेस्टिंग्स के पिण्डारियों (समाज की रोगग्रस्त अवस्था से उत्पन्न हुई लुटेरों की एक संगठित जमात) को समाप्त करने के निश्चय ने, जिसके कारण उन (पिण्डारियों) के संरक्षणकर्ता मरहठों के साथ उसको व्यापक युद्ध में संलग्न होना पड़ा था, एक छोटी परन्तु सक्रिय सेना की सहायता से उस विशाल लुटेरा प्रणाली को निरस्त कर दिया जिससे कि राजस्थान बड़े लम्बे समय से त्रस्त हो रहा था । चारों ओर के प्रदेश और रियासतों में हमारी सैनिक प्रवृत्तियों के दृश्य उपस्थित हो गए और अब कप्तान टॉड का ज्ञान और अनुभव, जो उसने बहुत बड़ी जोखिम और व्यय उठा कर प्राप्त किए थे, अत्यन्त मूल्यवान् सिद्ध हुए । इन भू-भागों के मानचित्र नहीं थे; मध्य और पश्चिमी भारत का भूगोल, सांख्यिक आँकड़े, और सैनिक सर्वेक्षण के विवरण अज्ञात थे; और हमारे सैनिक अधिकारियों को, जिन्हें बिगड़ी हुई रैयत का सहयोग प्राप्त नहीं था और जिनको तेज़ भगोड़े पिण्डारियों को उनके अड्डों, छुपने के स्थानों और • भूलभुलैयाँ के मार्गों में होकर पीछा करके पकड़ना था, निरन्तर असफल होकर अन्त में नष्ट हो जाना पड़ता यदि एक नवयुवक अधीनस्थ अधिकारी की दूरदर्शिता, सूझबूझ, परिश्रम और जनहित भावना प्राप्त न होती । "भारत में वही एक ऐसा व्यक्ति था, जिसको युद्धस्थल का व्यक्तिगत रूप से समुपार्जित ज्ञान प्राप्त था ।" उस समय को नाजुक स्थिति में अपनी सेवाओंों का जो लघु विवरण कर्नल १ इतिहास १, पृ० ४६१ "" Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थकर्ता-विषयक संस्मरण टॉड ने अपने हाथ से लिखा है उसके संक्षेप अथवा सार का अवलोकन करने से विदित होगा कि उस ज्वलंत एवं निर्णायक अभियान की सफलताओं में उसका कितना बड़ा योग था। __ जब पिण्डारियों के विरुद्ध कार्यवाही प्रारंभ हुई ही थी तब वह दो पैदल व आधी घुड़सवार कम्पनियों का अधिकारी था। ये कम्पनियाँ सिन्धिया दरबार में रेजीडेन्सी की रक्षा के लिए नियुक्त थीं । सन् १८१४-१५ ई० में उसने पिण्डारियों के उद्भव, बढ़ाव और तत्कालीन स्थिति के विषय में एक स्मरण-पत्र भेजा । इसके बाद ही उसने इन क्षेत्रों का नक्शा, यहाँ का भौगोलिक, राजनीतिक और भौतिक इतिहास' तथा उन लुटेरों के दमन की एक सामान्य योजना भी भेजी जिसके तुरन्त बाद ही प्रत्यक्ष अभियान शुरू हो गया। जैसे ही परिस्थितियां बदलों उसने दूसरी परिशोधित योजना भेजो जिसके साथ नर्मदा के उत्तर में स्थित प्रदेशों का अध्ययनपूर्ण मानचित्र भी था; उसने इस बात पर बल दिया कि अभियान इस योजना का पूर्णत: अनुसरण करे। इन सूचनाओं के लिए उसे लार्ड हेस्टिग्स् के हार्दिक धन्यवाद प्राप्त हुए और उन मानचित्रों की नकलें मोर्चे पर प्रत्येक जनरल के मुख्यालय को भेज दी गई। इनमें से अन्तिम लेख जो गवर्नर जनरल के पास पहुँचा वह इतना महत्वपूर्ण समझा गया (जैसा कि उसने कप्तान टॉड को सूचित किया) कि उसकी नकलें दक्षिण के सेनाध्यक्ष सर थॉमस हिसलॉप (Sir Thomas Hisiop) के पास तुरन्त ही 'जरूरी डाक' द्वारा भेज दी गईं। सैन्य अभियान के लिए ऐसी मूल्यवान् सामग्री तैयार करने के उपरान्त उसने किसी भी सेना-विभाग में भेजे जाने के लिए निजी सेवाएं समर्पित की और उसकी इस प्रार्थना को लार्ड हेस्टिग्स् ने इन शब्दों के साथ स्वीकार कर लिया "इस महत्त्वपूर्ण अवसर के लिए आपकी सेवाओं पर बहुत समय से मेरी दृष्टि लगी हुई थी।" पहले तो यह सोचा गया कि उसे सर अॉक्टर लोनी के सेना-खण्ड में लगाया जाय परन्तु बाद में विचार हुआ कि हाडौती में रावता' नामक स्थान पर तैनात किए जाने से उसके विस्तृत ज्ञान का अधिक १ 'इतिहास राजस्थान' भा. २, पृ. ३४५ पर आमेर के पुरावत्त में ऐसे विवेचन का उदा. हरण देखा जा सकता है जो गव्हर्नमेंट को भेजे हुए विवरण से ज्यों का त्यों मिलता हुआ है। २ अपने प्रात्म-विवरण' (इतिहास, २, पृ० ७००) में कोटा यात्रा के अवसर पर १८२० ई० में इस स्थान पर डेरा लगाने का वर्णन करते हुए यह कहता है "रावता बहुत से उत्साहपूर्ण संस्मरणों से परिवत है; १८१७-१८ ई० के अभियान में लगातार मैं यहीं पर जमा रहा। यह स्थान सभी मित्र और शत्रु सेनाओं की हलचल के बीच में पड़ता था।" Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] पश्चिमी भारत की यात्रा उपयोगी रूप में प्रयोग किया जा सकेगा क्योंकि यह स्थान सभो सैनिक विभागों के मध्य में था और वहाँ से सूत्र-संचालन एवं जानकारी के लिए आवश्यक केन्द्र बन गया था; वह कहता है "वास्तव में, मैं नर्मदा के उत्तर में सभी सेनाविभागों के संचालन में मार्ग-दर्शन करता था, जैसे जनरल डान्किन, मार्शल एडम्स और ब्राउन के विभाग ।" लॉर्ड हेस्टिग्स् और मोर्चे पर तैनात प्रत्येक जनरल ने उसकी सेवाओं की मूल्यवत्ता के लिए बारम्बार धन्यवाद अर्पण किए हैं। __ जब उसे ज्ञात हया कि करीम खाँ के बेटे की अध्यक्षता में पिण्डारियों की एक टुकड़ी उसके डेरे से तीस मील की दूरी पर 'काली सिन्ध' में छुपी हुई है तो उसने (कोटा की सहायक सेना के) दो सौ पचास तोड़ादार बन्दूकों वाले सिपाही अपने बत्तीस 'फायर लॉक' (टोपीदार बंदूकों वाले) सिपाहियों के साथ लगा दिए (जो स्वेच्छा से २५वीं, उत्तरी पद-सेना से उसके साथ पाए थे) और उनको शत्रु के १५०० आदमियों के पड़ाव को मार भगाने के लिए यह कह कर रवाना कर दिया कि "कुछ किए बिना न लौटना।" सहायक सेना वाले तो पीछे रह गए परन्तु बत्तीस आदमियों की छोटी-सी जमात ने अपने कमाण्डर का आदेश पालन करते हुए शत्रु-सेना पर आक्रमण करने में हिचक नहीं की और उनके १०० या १५० आदमी मार कर उनको खदेड़ दिया। इस अाक्रमण का नैतिक प्रभाव बहुत आश्चर्यजनक रहा । हमारे मित्रों द्वारा भी किसी पिण्डारी को अब तक कभी पीड़ित नहीं किया गया था; परन्तु, इस पराजित शत्रु-संघ से लूट में प्राप्त पशु, हाथी, ऊँट और अन्य मूल्यवान वस्तुएं दूसरे ही दिन कोटा के (रीजेन्ट) राज-प्रतिनिधि के समक्ष डेरे पर लाई गईं और उसने वे सब कप्तान टॉड के पास भेज दी जिसके सुझाव पर उन्हें बेच कर जो आमदनी हुई उससे कोटा से पूर्व में मुख्य मार्ग के बीच में पड़ने वाली नदी पर एक पुल बनाया गया। कप्तान टॉड के सुझाव पर ही इस विजय-स्मारक का नाम 'हेस्टिग्स् पुल' रखा गया। लॉर्ड हेस्टिग्स् इस पराक्रम से (जो इस प्रकार का एक ही नहीं था) इतना प्रसन्न हया कि उसने इसे 'पदक-योग्य' घोषित किया और जिन लोगों ने इसमें काम किया था उनको अतिरिक्त वेतन देकर पुरस्कृत किया। करीम खाँ के महान् पिण्डारी-दल के विनाश के बाद, कप्तान टॉड ने एक 'गश्ती-पत्र' तैयार किया जिसमें चीतू के दूसरे विशाल दल को विनष्ट करने के लिए सम्मिलित प्रयत्न करने का प्रस्ताव था; उसने यह पत्र 'नरबदा' के उत्तर में प्रत्येक सेना-विभाग के अध्यक्ष के नाम सम्बोधित किया, जैसे, सर थॉमस हिसलॉप, सर विलियम ग्राण्ट केर, सर पार० डॉन्किन, और कर्नल Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थकर्ता-विषयक संस्मरण [१३ एडम्स । इस कार्य के लिए लॉर्ड हेस्टिग्स के द्वारा उसे विशेष धन्यवाद प्राप्त हुए। यद्यपि इस योजना पर कार्य नहीं हुमा परन्तु शत्रु की गतिविधि ठीक-ठीक वही थी जिसको इसमें आशङ्का व्यक्त की गई थी और जिसकी रोक-थाम के लिए उपाय बताए गए थे। कर्नल एडम्स के विभाग के असिस्टेण्ट एडज्यूटॅण्ट जनरल ने अपनी एवं अपने कमाण्डर की ओर से कप्तान टॉड को लिखा कि "वास्तव में, आपके अतिरिक्त इस परिपत्र को और कोई अधिकारी लेखबद्ध नहीं कर सकता था।"१ ___ अपने देश की सेवार्थ जो जानकारी और सूचनाएं वह सामयिक रूप से देने में समर्थ होता था वे प्रायः उस सुसंगठित प्रणाली के द्वारा प्राप्त होती थीं जो उसने अपने खर्चे से एतद्देशीय भौगोलिक, आंकिक और पुरातात्विक सूचनासंकलन के लिए आयोजित कर रखी थी और इस कार्य का उसके कार्यालयीय या पदीय कर्तव्यों से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस अभियान के अवसर पर प्रायः दस और बीस के बीच में लिखित रिपोर्ट प्रतिदिन उसके पास आया करती थीं और उनमें से संक्षिप्त समाचार निकाल कर वह प्रत्येक सेना-विभाग के मुख्यालय को भेजा करता था। जब युद्ध बन्द हो गया तो मारकुइस हेस्टिग्स् ने उसकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए महत्वपूर्ण शब्दों में व्यक्त किया कि 'इस सफलता में आपने मूलभूत योग दिया' और आगे कहा "अभियान को आगे बढ़ाने में मार्ग-दर्शन सम्बन्धी आपकी सेवाओं के विषय में प्रत्येक क्षेत्रीय जनरल से प्रशं. सात्मक प्रमाणपत्र प्राप्त हुए हैं ।' उसकी ये सेवाएं केवल कूटनीतिक और राजनीतिक प्रकार की ही नहीं थीं वरन् किसी अंश तक इनका आवश्यक सामरिक महत्व भी था । इस विषय में कर्नल टॉड के कागज-पत्रों में से प्राप्त उसीका लिखा एक स्मरण-पत्र पूर्णतया निर्णायक है "यदि कोटा के सम्पूर्ण विनियोज्य सैनिक साधनों को आमन्त्रित कर लेना राजनीतिक कदम था तो उनका प्रयोग करना एक विशुद्ध सामरिक कार्य था; और यदि, उस व्यक्ति (जालिमसिंह) के स्वभाव से परिचित होने के कारण मैं उसके अप • इस असाधारण परिपत्र ने दक्षिण को लूट से प्राप्त धन पर विवाद करते समय एक महत्वपूर्ण मालेख का रूप ले लिया था। कर्नल टॉड ने इसमें प्रस्ताव किया था कि 'चीतू को धिनष्ट करने के अभियान में उसे ही मुख्य प्राधार बनाया जाय मोर लॉर्ड हेस्टिग्स् के परामर्श-दाता ने इस पर पूर्ण विश्वास करते हुए यह व्यक्त किया था कि वह दोनों ही सेनाओं का सेनाध्यक्ष समझा जाता था। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ] पश्चिमी भारत की यात्रा रिमेय साधनोंको अपने हित में संयोजित करने में सफल हो सका तो यह मेरे एतद्देशीय सैनिक-ज्ञान का ही फल था कि जिससे यह कूटनीतिक सिद्धि पूर्णता को प्राप्त कर सकी। यही एक ऐसा राजा था जो मध्य-भारत में सब से अधिक बुद्धिमान् और शक्तिशाली था और जिसका प्रदेश हमारी प्रवृत्तियों के बीचों-बीच आया हुआ था तथा जहाँ पर सभी प्रकार के साधन उपलब्ध थे; परन्तु, लॉर्ड लेक के युद्धों में हमारी सहायता करने के कारण जो क्षति उसको पहुँचो थी तथा लार्ड कार्नवालिस के समय में हमारी नीति के अनुसार होल्कर के क्रोध का पात्र बनने के लिए हमारे द्वारा उसको अकेला छोड़ देने की घटनाएं भी उसे याद थों । यह मान लेना चाहिए कि ऐसी-ऐसी स्मतियों पर काबू पाने के लिए विशेष प्रकार की चातुरी आवश्यक थी; फिर भी, वहाँ पहुँचने के बाद पांच ही दिन में मैंने उन पर काबू ही नहीं पा लिया वरन् अपने सभी सैनिक साधनों को मेरे ही आधीन रख देने को भी उसको राजी कर लिया । "उनका पहला उपयोग मेंने सर जे० मालकम (जिसने उस समय नर्मदा को पार किया ही था और हमारे शत्रुओं के बीचों-बीच घिर गया था, जिनमें यदि थोड़ी सी भी उद्यमता होती तो उसकी कमजोर सेना को नष्ट कर देते) की सहायतार्थ 'खासा' (the Royals) रेजीमेण्ट भेज कर किया; इस रेजीमेण्ट में एक हजार जवान, चार तोपें और तीन सौ बढ़िया घोड़ों का एक दल था। ये लोग सर जॉन के साथ संघर्ष के अन्त तक रहे और शत्रु के एक दुर्ग को घेर कर अधिकृत कर लेने में उन्होंने परम प्रसिद्धि प्राप्त की। दूसरे, मैंने दलों को विभिन्न मार्गों पर विभाजित कर दिया जिनमें से कुछ का शत्रु से सीधा वास्ता भी पड़ा। तीसरे, जब होल्कर से दुश्मनी शुरु हुई तो बूंदो के पहाड़ों से लेकर महिदपुर के रणस्थल तक होल्कर के प्रत्येक जिले पर एक ही सप्ताह के अल्प समय में सैनिक अधिकार कर लिया। इस सेना के प्रत्येक उप-विभाग के साथ मैंने एक-एक अंग्रेज यूनियन (सैनिक टुकड़ी) भी लगा दी जो थोड़े ही समय में प्रत्येक प्राकार-युक्त नगर और थानों पर जम गए और उन्होंने वहाँ से (घोषणा द्वारा) बृटिश सरकार के प्रति वफादारी प्राप्त कर ली। एतद्देशीय सामरिक अवस्था के ज्ञान और उसके सम्यक् प्रयोग के बिना किसी भी दशा में ऐसे परिणामों को प्राप्त नहीं किया जा सकता था। "ये सभी कर्तव्य मुख्यतः सैनिक-कर्तव्य थे, साथ ही इनमें कूटनीतिक पूट भी मिला रहता था। मेरे बड़े से बड़े कूटनीतिक कार्य के लिए भी सैनिकीय निर्णय लेना आवश्यक होता था और उसकी शुद्धता भी सैनिक परिणामों के आधार पर ही जाँची जा सकती थी। उदाहरण के लिए-शत्रुता प्रारम्भ होने से पहले Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्यकर्ता-विषयक संस्मरण होल्कर सरकार से बातचीत का काम मुझे सौंपा गया। वह घड़ी बड़ी नाजुक थो। इस दरबार ने संरक्षण-सन्धि के लिए प्रार्थना-पत्र दिया था और मुझे अधिकृत किया गया था कि जनरल सर रफेन डॉनकिन (General Sir Rufane Donkin) के अधिकार में सेना का बड़ा दक्षिणी विभाग वाञ्छित संरक्षण प्रदान करने के लिए नियोजित करूं कि जिससे सन्धि का सुरक्षा-सम्बन्धी कदम पूरा हो सके। मुझ में यह विश्वास निहित हुआ ही था और मैंने केन्द्रीय स्थिति को मुश्किल से हाथ में लिया ही था कि कुछ दिन बाद ही पेशवा और भोंसला ने हमारे साथ सन्धि तोड़ दी और मुझे पता चला कि पेशवा के दूत होल्कर सरकार के नाम अपने स्वामी के हक में घोषणा करवाने के लिए विनिमय पत्र लिए धूम रहे थे । ऐसे क्षण में मैंने, यह सोच कर कि मित्रता का बहाना बनाने की अपेक्षा तो विरोध की घोषणा कर देना बेहतर रहेगा, तुरन्त ही एक पत्र अपने निजी दूत द्वारा तत्कालीन राजप्रतिनिधि रीजेन्ट बाई (Bae)' के नाम लिखा जिसमें मुझे प्राप्त हुई इस दोहरा चाल की सूचना से उसको अवगत कराया गया और आगे लिखा गया कि 'यदि अपनो सद्भावना के प्रमाणस्वरूप छत्तीस घण्टों की अवधि में आपने हमारी सरकार के साथ मित्रता-सन्धि की सार्वजनिक घोषणा न कर दी, आवश्यक सहायता न मैंगवाई, पेशवा के दूतों को दरबार से न निकाला और आपके शिविर के पास ही पड़े हुए पिण्डारियों के गिरोह पर आक्रमण न किया तो मैं आपकी सरकार को अपनी सरकार के विरुद्ध समझंगा'; साथ ही, मैंने अपने सन्देश-वाहक को आदेश दे दिया कि उक्त अवधि के समाप्त होते ही वह उसके दरबार को छोड़ दे। उसने ऐसा हो किया;-यह कदम बहुत बड़ी जिम्मेदारी का था और मैंने इसका भार भी अनुभव किया; परन्तु, मेरे इस. पाचरण पर सन्तोष व्यक्त करते हुए लार्ड हेस्टिग्स् के एक आवश्यक पत्र ने मुझे उस भारीपन से मुक्त कर दिया। मैं यहां पर यह भी बता दूं कि अपने दूत के वापस आते ही मैंने सर जॉन मालकम के पास अपने पत्रों की नकल भेजते हुए मत व्यक्त किया कि 'होल्कर की छावनी पर आक्रमण करने में यदि कोई विलम्ब किया गया तो वह हमारे हितोपाय का बाधक हो सकता है और आप स्वयं इसके निर्णायक होंगे।' दुर्भाग्य से उसने मेरे द्वारा ठुकराई हुई समझौता-वार्ता को दबी आवाज़ में पुन: चालू कर दिया जिसका पहला नतीजा तो यह हुआ कि लॉर्ड हेस्टिग्स् उससे सख्त नाराज हो गये और इसके थोड़े ही समय बाद छोटी-छोटी बातों में अपमान तथा उसकी छावनी के रसद. ' होल्कर राज्य की राजप्रतिनिधि रानी अहल्याबाई । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा भण्डारों पर शत्रु के आक्रमण का सामना करना पड़ा-यह हालत तब तक चली जब तक कि महिदपुर वाली सैनिक कार्यवाही न की गई। __ "इसी कार्यवाही में से एक और कूटनीतिक चाल निकली जिसमें भी सैनिक चातुरी का पुट मिला हुआ था। कोटा का राज-प्रतिनिधि हमारे और अपने पुराने मित्रों अर्थात् भारत के समस्त सैन्य-संघ के बीच में दोलायमान हो रहा था। उसको होल्कर के राज्य से अलग करके मैंने अपने वश में करने का निश्चय किया। मैं यह भी पहले से जानता था कि इसके तुरन्त बाद ही उस शक्ति से हमारा विरोध होना अनिवार्य हो जायगा-अतः मैंने लॉर्ड हैस्टिग्स् को सिफारिश की कि वे कोटा के राज-प्रतिनिधि को उन चार उपजाऊ परगनों का स्वतंत्र स्वामी मान लेने का वचन दे दें जो उसको होल्कर सरकार की ओर से लगान पर मिले हुए थे। मेरे इस सुझाव की बड़ी प्रशंसा हुई और मुझे इस बात की पूरी छूट मिल गई कि मैं जब चाह और जिस तरीके से चाहँ यह प्रस्ताव कर सकता हूँ; मुझे यह भी अधिकार मिल गया कि मैं इसकी मञ्जूरी अपनी मोहर लगा कर दे सकता हूँ जिसकी बाद में सम्पुष्टि कर दी जावेगी। मुझे जिन परिणामों को आशंका थी वही सब सामने आए; तात्कालिक लाभ ने भविष्य की सभी प्राशङ्कानों को निरस्त कर दिया; और, मैंने वह काम कर डाला जिससे, उसने कहा, उसके पुराने मित्रों में हमेशा के लिए उसका मुंह काला हो गया, वही कार्य राज-प्रतिनिधि के विश्वास की कसौटी था अर्थात् महान् पिण्डारी नेताओं की सभी स्त्रियों और बच्चों को गिरफ्तार करके उसने मेरे सुपूर्द कर दिया, ये सब उसकी गढ़ी गागरोन (Gograun) के पास छुपे हुए थे और मैंने इनका पता लगा लिया था। इसका असर जादू के समान हुआ; उसी घड़ी से उनकी नैतिक शक्ति बिखर गई और उनके सरदार ताबे हो कर समस्त षड्यन्त्रों से अलग हो गए। इस कार्यवाही के बाद वह राज-प्रतिनिधि हमेशा के लिए पिण्डारियों से पृथक् हो गया; साथ ही, उन चारों परगनों कीमंजूरी और होल्कर के दूसरे जिलों के साथ उन पर सैनिक अधिकार प्राप्त होते ही उस दरबार की राजनीति और समस्त मरहठा जाति से उसके सम्बन्ध सदा के लिए विच्छिन्न हो गए । "इन प्रयोगों में से प्रत्येक अवसर पर, जो संघर्ष के अन्तिम और महत्वपूर्ण क्षणों में किए जा रहे थे, कुटनीति के साथ सैनिक कार्यवाही का सम्मिश्रण होना इतना अनिवार्य था कि इन दोनों विषयों को पृथक्-पृथक् रखा ही नहीं जा सकता था; ऐसा स्पष्ट लगता था कि एक के बिना दूसरा ध्यान में नहीं आता था तो दूसरा पहले के बिना अच्छी तरह क्रियान्वित ही नहीं हो सकता था। ___"दूसरे प्रयोग और दायित्व जो मुझे निभाने पड़े वे निस्सन्देह सैनिक प्रकार के थे। पेशवा द्वारा सन्धि भंग करने पर जब सर टी. हिसलॉप का नर्मदा के Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थका-विषयक संस्मरण [ १७ उत्तर में बढ़ाव रुक गया तो बम्बई सरकार ने उसकी (पेशवा की सेना को जनरल सर डब्ल्यू ० ग्राण्ट केर के द्वारा आगे बढ़ने से रुकवा दिया, जिनके अधीन पिण्डारियों के विरुद्ध की जा रही कार्यवाही की श्रृंखला में एक विशेष मोर्चा दिया हुआ था। इस अवसर पर, जनरल सर जॉन मालकम ने दक्षिण की सेना के एक दुर्बल विभाग के साथ असहाय अवस्था में नदी पार कर ली थी, और जनरल सर टी. हिसलॉप की प्रवृत्ति से तो युद्ध का नकशा ही बदल गया था कि जिससे पिण्डारियों के साथ लड़ाई ढीली पड़ गई थी। यह निश्चय करके कि मुख्य सेनाध्यक्ष ( Commander-in-Chief ) पूर्व-निश्चित योजना में, पेशवा के विद्रोह के कारण, कोई हेर-फेर करना न चाहेंगे- इसलिए सहायता के प्रभाव में सर जॉन मालकम के सेना-विभाग के परिणाम की आशंका से डर कर मैंने अपनी मुख्तारी से जनरल सर डब्ल्यू० ग्राण्ट केर के पास सब बातें बताते हुए आवश्यक सूचना भेज दी और मैंने यह भी विश्वास प्रकट किया कि यदि वे तेजी के साथ मेवाड़ में प्रागे बढ़ कर उज्जैन के पास स्थिति ग्रहण कर लेंगे तो लॉर्ड हेस्टिग्स् को प्रसन्नता होगी। यह एक विशुद्ध सैनिक प्रश्न था । जनरल सर डब्ल्यू ग्राण्ट केर मुझ से तीन सौ पचास मील की दूरी पर थे; परन्तु, शत्रुओं की दाढ़ में होकर भी, मैंने उनके पड़ाव के साथ नियमित और शीघ्रगामी संवादपरिवहन की व्यवस्था की । उक्त सूचना की नकल मैंने जरूरी तरीके से माक्विस् हेस्टिग्म् के पास भी भेजी ; मैंने पुनः एक बार स्थिति की प्रतिकूलता के विषय में निवेदन किया और ऐसा करने के लिए मुझे उनसे एक बार फिर प्रशंसा एवं धन्यवाद का संवाद प्राप्त हुना। जनरल सर टी. ब्राउन ने भी मेरे निर्देशानुसार सैन्य-संचालन हो नहीं किया वरन् मेरे कुछ मुख्य मार्ग-दर्शकों को भी अभियान में साथ रखा जिसका परिणाम यह हुआ कि रोशनबेग का गिरोह नष्ट ही हो गया।" अब, राजपूताना विनाशकों के हाथ से मुक्त हो गया था; कोई लुटेराप्रणाली पुनः चालू न हो जाय तथा भारत के सुदृढ़ सीमान्त और हमारे प्रदेशों के बीच में एक व्यवधान-सा खड़ा न हो जाय इसलिए अब इस प्रान्त के एवं बृटिश-भारत के हित में यह आवश्यक हो गया था कि इन नवसंस्थापित रियासतों का एक महान् संघ बन जाय । तदनुसार इन सब को बुटिश के साथ संरक्षणसन्धि के लिए आमन्त्रित किया गया। एक मात्र जयपुर को छोड़ कर, जो कुछ महीनों तक इधर-उधर करता रहा, सभी ने उत्सुकता-पूर्वक इस आमन्त्रण को स्वीकार कर लिया और कुछ ही सप्ताहों में समस्त राजपूताना एक समानरूप सन्धि के अनुसार ब्रिटेन का मित्र बन गया। सन्धि के अन्तर्गत उनको बाहरी Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] पश्चिमी भारत को यात्रा संरक्षण और प्रान्तरिक स्वतंत्रता प्रदान की गई थी जिसके बदले में उन्होंने हमारा आधिपत्य एवं हमें वार्षिक राजस्व का एक अंश देना स्वीकार किया था। इन सन्धियों पर दिसम्बर, १८१७ व जनवरी, १८१८ में हस्ताक्षर हुए और फर्वरी मास में कप्तान टॉड को (जो उस समय ग्वालियर में रेजीडेण्ट के राजनीतिक सहायक थे) गवर्नर-जनरल ने पश्चिमी राजपूत रियासतों के लिए अपना राजनीतिक-प्रतिनिधि (Political Agent) नियुक्त किया। (जो उसकी सेवाओं को सम्मानित करने का बहुत अच्छा प्रकार था) इस विपल अधिकार से मण्डित हो कर टॉड ने अपने-आपको, इधर-उधर की पहाड़ियों में बचे-खुचे विदेशी आक्रामकों द्वारा की गई हानि को पूरा करने, अान्तरिक आपसी झगड़ों से उत्पन्न हुए गहरे घावों का उपशम करने और राजपूताना की रियासतों के बिगड़े हुए सामाजिक ढाँचे का पुननिर्माण करने के परिश्रमपूर्ण और कठिनतम कार्य में संलग्न कर दिया। यह महान् दायित्त्व किसी भी ऐसे मनुष्य को कुण्ठित कर सकता था, जो राजपूत-राजनीति की विषम उलझनों से परिचित न हो, जिसने यहां की संस्थाओं, मनुष्यों के आचरण और उनकी पसंद-नापसंद का अध्ययन न किया हो, जो उनके लोक-साहित्य' में पारंगत न हो, जो किसी भी जटिल समस्या को लेकर उन्हीं की बोली में उन्हीं की मान्यताओं और सिद्धान्तों को उपस्थित करता हुआ वाद-विवाद न कर सकता हो और, सब से बढ़ कर, जिसके स्वभाव में दृढ़ता, उत्साह में अदम्यता और विचारों में ऋजुता एवं निष्पक्षता न हो। ___ उसके नवीन कार्यक्षेत्र को ओर अग्रसर होते हुए जहाजपुर से उदयपुर तक १४० मील की यात्रा में उसे केवल दो ही थोड़ी-सी आबादी वाले ऐसे गांव मिले जो राणा का आधिपत्य स्वीकार करते थे; बाकी सब उजाड़ पड़ा था; ' राजपूत कवि चांद या चन्द के अनुवाद से सम्बद्ध एक ह. लि. टिप्पणी में क. टॉड कहते हैं "मैंने इन लोगों के साथ हिलमिल कर इनकी भावनाओं को ग्रहण किया; यद्यपि उत्तमता में ये हमारी श्रेणी तक नहीं पहुंच सकते, परन्तु यदि यह ज्ञात कर लिया जाय कि प्रत्याचार और दमन के कारण विकृत होने से पूर्व ये कैसे रहे होंगे तो ग्राह्य प्रतीत होंगे। जब में यह कहता हूँ कि छः वर्ष तक में इनके बीच में और इससे दोगुने समय तक इनके सानिध्य में रहा तो यह प्राश्चर्य होता है कि मैं बहुत कम जान पाया हूँ। में इन काव्यों के विषय में किसी गम्भीर ज्ञान का स्वामी होने का दावा नहीं करता; परन्तु, एक लाभ हुमा, जो गहन अध्ययन से भी प्राप्त न होता-वह है, इस भाषा में बातचीत करने की क्षमता, योग्यतापूर्वक तो नहीं, परन्तु धड़ाधड़ ( मैं बोल सकता हूँ); रूपक और अलंकार तो यहां के साधारण से साधारण संलाप में भरे पड़े हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ता विषयक संस्मरण [ १६ आदमियों के खोज तक ला-पता हो चुके थे। "बबूल और घने नरसल के पेड़, मुख्य रास्तों पर उग आए थे जिनमें चीते और बाघ घर किए हुए थे, और प्रत्येक ऊँची जमीन पर खण्डहरों के ढेर पाए जाते थे । राजपूताना के मुख्य व्यापारिक नगर भीलवाड़ा में, जहाँ दस वर्ष पहले छः हजार परिवारों की बस्ती थी, अब कोई जीवन का चिह्न शेष नहीं था; सड़कें सूनी पड़ी थीं; कोई जीवित प्राणी नहीं दिखाई दिया सिवाय एक कुत्ते के, जो हड़बड़ा कर अपने निभत स्थान, एक मन्दिर में से निकल कर भागा, जिस पवित्र स्थान के दर्शन करने के लिए मनुष्य की आँखें अनभ्यस्त हो चुकी थीं। " युद्ध, अकाल और जन-संहार के सम्मिलित परिणाम-स्वरूप विनाश का यह एक चित्र है कि जिसको किसी प्रतिभाशाली कवि की कल्पना भी शायद ही बराबर व्यक्त कर सके । ___ कर्नल टॉड ने स्वलिखित 'मेवाड़ का इतिहास' में सन् १८१८ में देश की शोचनीय अवस्था का चित्र खींचने के बाद लिखा है कि "ऐसी अस्त-व्यस्त अवस्था थी जिसमें से व्यवस्था उत्पन्न करनी थी । समृद्धि के तत्त्व यद्यपि बिखर चुके थे परन्तु निश्शेष नहीं हुए थे और राष्ट्रीय मानस में गहरी जमी हुई प्रतीत गौरव] की याद उनके अस्तित्व में नैतिक एवं भौतिक जीवन को प्रोत्साहित करने के लिए हमें] उपलब्ध हुई थी। इनको आगे लाने के लिए केवल नैतिक हस्तक्षेप की ही माँग हुई, बाकी सब बातें छोड़ दी गई। अराजक बाहरवटिया और जंगली भील भी अदृष्टपूर्व शक्ति के माध्यम से भयभीत हो गए।" इस नैतिक पुनरुद्धार के लिए प्रतिनिध को जो साधन अपनाने थे वही काम में लाए गए। सज्जन होते हुए भी राणाजी दुर्बल-चित्त, अस्थिरमति और स्त्रियों के प्रभाव से दबे हुए थे। मंत्रियों में 'तीन तो ऐसे थे जिनमें न समझ थी, न अधिकार था और न ईमानदारी ही थी' परन्तु, बृटिश प्रतिनिधि के दृढ़, सान्स्वनाप्रद एवं चातुर्यपूर्ण प्रयोगों ने थोड़े ही समय में परिस्थिति बदल दी। उसकी मध्यस्थता से प्रेरित होकर दुराग्रही सरदार अपना असंतोष भूल कर राजधानी में आने लगे थे; १८१८ ई० में राणाजी की सवारी में पचास घोड़े भी नहीं थे, और अब उनका प्राधिपत्य स्वीकार कर लेने पर अधीनस्थ जागीरदारों से रिसाला भरा पड़ा था; जो लोग गाँव छोड़ कर चले गए थे वे पुनः अपनी 'बपोत' अर्थात् बाप-दादों की भूमि में बसा दिए गये थे, और व्यापार भी पुनरुज्जीवित होकर बढ़ती करने लगा था। सन्धि सम्पन्न होने के बाद आठ मास के अन्दर-अन्दर तीन सौ से भी अधिक गाँव और कसबे फिर बस गए और जो भूमि बरसों से अछूती पड़ी थी वह अब हल चला कर 'तोड़ ली गई थी। बृटिश प्रतिनिधि को योजनानों से प्राश्वस्त होकर व्यापारी और साहूकार बाहर से प्रा-पाकर देश के प्रत्येक नगर Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] पश्चिमी भारत की यात्रा में अपना कारोबार जमाने लगे थे । बाहरी व्यापार पर से पाबन्दी हटा ली गई, एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल ले जाने का कर लेना बन्द कर दिया गया और सरहदी चुंगी कम कर दी गई-परिणाम यह हुआ कि चुंगी और कर में इतनी कमी कर देने पर भी कुछ ही वर्षों में इस मद में अब तक हुई आमदनी से इतनी अधिक रकम प्राप्त हुई कि कभी अन्दाज भी नहीं किया गया था। इससे मन्त्रियों को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि इस नतीजे से उनके संकुचित हिसाब-किताब की कोई अनुरूपता ही नहीं थी। भीलवाड़ा, जो पहले ऊजड़ हो गया था, १८२२ ई० में ३००० घरों का शहर हो गया, वहाँ एक नया बाजार बन गया जहाँ बनिए, साहूकार और अन्य नागरिक भी बस गए थे। उदयपुर के घरों की संख्या, जो १८१८ ई० में ३५०० थी, १८२२ ई० में बढ़ कर १०,००० हो गई; राज्यकोष में राजस्व की आय १८१८ ई० में ४०,००० रु. (लगभग ४,००० पौण्ड) थी, वही १८२१ ई० में दस लाख रुपयों (लगभग १ लाख पौण्ड) से ऊपर पहुँच चुकी थी। यदि कर्नल टॉड के अधिकार में दी गई इस रियासत और साथ ही दूसरी रियासतों में उनके द्वारा निष्पन्न सुधारों के परिणामभूत लाभों का सूक्ष्म विवेचन करने लगें तो इस संस्मरण का परिमाण अनुपयुक्त रूप से बढ़ जायगा। उन्होंने इन सब का उल्लेख अपने, महान् ग्रन्थ में किया है और आत्मश्लाघा (जिस दुर्बलता से, सामान्य रूप में, कोई भी मनुष्य उनसे अधिक निर्मुक्त नहीं है)' के आरोप की तनिक भी परवाह नहीं की है । ऐसे दोषारोपण प्रायः वे लोग करते हैं जिनको दिखावटी मनुष्यों की प्रात्म-संस्तुति और उदार एवं उच्चप्रकृति मनुष्यों के उस आत्म-सन्तोष में अन्तर जानने का तमोज नहीं है जो पवित्रतम प्रयोजनों और अनेक कष्टप्रद बलिदानों के फल-स्वरूप मानव-जाति के विपुल समुदायों को स्थायी लाभ पहुंचाने की आत्मचेतना से उद्भूत होता है। ___ स्वयं जनता की भावनाएं ही उसकी सेवाओं की बहुमूल्यता के प्रति असंदिग्ध रूप में साक्षीभूत हैं; और ये भावनाएं स्वर्गीय बिशॉप हैबर के माध्यम से सर्व-साधारण में उस समय मुखरित हो उठी थीं, जब कर्नल टॉड के राजपूताना छोड़ने के दो वर्ष पश्चात वे इधर आए थे। महान पादरी का कहना है "बृटिश सरकार से सम्बद्ध होने के पश्चात् मेवाड़ के सभी जिले बहुत समय तक कप्तान टॉड के शासन में रहे थे, जिसका नाम यहाँ के सम्पूर्ण उच्च एवं मध्यम . उनके अन्यतम मित्र का कहना है कि "अपनी मान्यताओं का निराकरण क० टॉड से बढ़कर किसी ने नहीं किया।" Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यकर्ता-विषयक संस्मरण [ २१ वर्ग में बहुत ही सौहार्द और पादर के साथ लिया जाता है; उनके लिए यह नाम बहुत ही सम्मान की वस्तु है और प्रायः इन गरीबों को अकृतज्ञता के दोष से मुक्ति दिलाने में पर्याप्त सिद्ध होता है । डाबला और आगे के मुकामों में वहाँ के 'कोटवाल' आदि हमें निरन्तर 'टॉड साहिब' के बारे में पूछते रहे कि इंगलैण्ड लौटने पर उनका स्वास्थ्य ठीक हुआ या नहीं और अब उनसे फिर मिलना हो सकेगा या नहीं, इत्यादि । जब उनको कहा जाता कि ऐसी सम्भावनाएं अब नहीं हैं तो वे बहुत अफसोस प्रकट करते और कहते कि उनके आने से पहले देश में शान्ति का नाम भी नहीं था और सभी मालदार व गरीब लोग, डाकुओं और पिंडारियों के सिवाय, उनसे समान रूप से प्रेम करते थे। डॉ. स्मिथ ने मुझसे कहा कि वह वास्तव में इस देश के लोगों से प्रेम करता था और इनकी भाषा व रीति-रिवाजों को स्वाभाविक रूप में जान गया था। भीलवाड़ा में भी प्रत्येक मनुष्य कप्तान टॉड की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा था । इस जगह को जमशेद खाँ ने तबाह कर दिया था और यहाँ के सभी निवासी गाँव छोड़-छोड़ कर चले गए थे, बाद में कप्तान टॉड ने राणा को इस बात के लिए प्रेरित किया कि उन लोगों को वापस बसने व विदेशी व्यापारियों को यहाँ कायम होने के लिए प्रोत्साहित किया जाय । उसने स्वयं उनके लिए नियम बना कर लेखबद्ध किए; कुछ वर्षों के लिए उनको करों से मुक्त कराया और विविध प्रकार के अंग्रेजी माल के नमूने उनके पास भेजे कि वे उसके मुकाबिले का माल पैदा करें। उनके नगर को सुन्दर बनाने के लिए उसने उदारतापूर्वक धन भी दिया । संक्षेप में, जैसा कि मुझ से मिलने आए एक महाजन ने कहा था, 'इसको टॉड-गंज कहना चाहिए, परन्तु इसकी अावश्यकता नहीं है क्योंकि हम उसे कभी नहीं भूलेंगे।' उस आदमी की ऐसी प्रशंसा, जिससे अब मिलने या भविष्य में लाभ प्राप्त होने की कोई प्राशा नहीं थी, वास्तव में, एक विशुद्ध मूल्यवान् वस्तु है ।' सच तो ' “भारत के उत्तरी प्रान्तों की यात्रा का विवरण, १७२४-२५ ई." वॉल्यूम २, पृ. ४२ । विशॉप ने प्रागे कहा है "यह उसका दुर्भाग्य था कि देशी राजाओं का अत्यधिक पक्ष लेने के कारण कलकत्ता की सरकार ने उस पर भ्रष्टाचार का सन्देह किया और परिणामतः उसके अधिकारों को सीमित करके उसके साथ दूसरे अधिकारी लगा दिये गये; अन्त में, वह तंग प्रा गया और उसने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया। मुझे विश्वास है कि अब उन्हें संतोष हो गया है कि उनके सभी सन्देह निराधार थे।" यदि यह सच है तो बंगाल सरकार पर एक महान् पारोप है कि उन्होंने सन्देह के लिए तनिक भी कारण न होते हुए ऐसी कार्यवाही की । यह स्पष्ट है कि कर्नल टॉड के देशी नौकरों तक की रिश्वत लेने की कोई शिकायत नहीं है जैसे कि विशॉप ने एक दूसरे अंग्रेज सर प्रॉक्टर लोनी के नौकरों के विषय में लिखा है कि उसके मुंशी ने उसका नाम दिल्ली के गरीब वृद्ध बावशाह के प्रमले Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा यह है कि भीलवाड़ा 'टॉड गंज' ही कहलाता था परन्तु बाद में स्वयं टॉड की प्रार्थना पर ही यह नाम दबा दिया गया क्योंकि वह चाहता था कि प्रत्येक लाभकारी कार्य का गौरव राणा को ही प्राप्त हो और वह स्वयं उसके हृदय से निकली हुई प्रशंसा से ही संतुष्ट रहे। फर्वरी, १८१६ ई० में, मेवाड़, जैसलमेर, कोटा, बूंदी और सिरोही के अतिरिक्त मारवाड़ की रियासत भी उसकी एजेन्सी में रखी गई; और उसी वर्ष के अक्टूबर मास में वह मारवाड़ की राजधानी जोधपुर के लिए रवाना हुआ। कर्नल टॉड ने वहां के राजा मान से बातचीत की, जो अपनी तरह का एक ही था और जिसके चरित्र का उसने अपने 'व्यक्तिगत विवरण' में बड़ी योग्यता के साथ चित्रण किया है। ऐसा लगता है कि प्रतिहिंसा के आसुरी भावों के वश होकर इस राजाने 'राज-प्रतिनिधि' की आशाओं और आकांक्षाओं को विफल कर दिया था। तदनन्तर वह अजमेर गया और दिसम्बर में वापस उदयपुर की उपत्यका में लौट आया। - जनवरी, १८२० में वह कोटा और बूंदी की हाडा रियासतों के दूसरे दौरे पर रवाना हा। इन दोनों में से पहली रियासत राज्याधिकारी (Regent) जालिमसिंह के वास्तविक अधिकार में थी, जिसका व्यक्तित्व असामान्य था और जिसको कर्नल टॉड ने सही रूप में 'राजस्थान का नेस्टर (Nestor)', की संज्ञा दी है। उसकी मार्मिक बुद्धिमत्ता दो बातों से स्पष्ट है-पहली यह कि ब्रटिश सरकार द्वारा 'सुरक्षा-सन्धि' के आमन्त्रण को स्वीकार करके कार्य-सम्पन्नता के महत्व को उसकी गारुड-चक्षु' ने तुरन्त पहचान लिया और उसे अविलम्ब अंगीकार करने का गौरव प्राप्त किया (हम से सम्बन्ध स्वीकार करने वाली पहली रियासत कोटा हो थी); दूसरे, उसने भविष्यवाणी की थी कि "वह दिन दूर नहीं है जब कि एक ही शक्ति (बृटिश) का झण्डा सारे भारतवर्ष में फहरायेगा।" इस असामान्य पुरुष के इतिहास, कर्तृत्व और राजनीतिक एवं नैतिक चरित्रों से इस रियासत के इतिहास के कतिपय अध्याय मनोरञ्जक रूप में विषय-गभित हुए हैं। में १२०० पाउण्ड प्रतिवर्ष के पेंशनर के रूप में लिख दिया, जिसका उसको पता भी नहीं था। ' इतिहास, भा. १, पृ. १३ २ ऐसा लगता है कि राजा मान ने यह आचरण भारत की कालातीत भावना के कारण बृटिश सरकार से झगड़ा मोल लेने के विचार से किया था। ३ ग्रीक लोक-कथाओं का सुप्रसिद्ध बुद्धिमान् राजा। उसने ट्रॉजन-युद्ध में भी भाग लिया था और अन्यान्य राजा भी उसका दूरदर्शितापूर्ण परामर्श ग्रहण करते थे। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा गजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, में सुरक्षित प्राचीन चित्र 'फिरंगी टाड' Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थकर्ता विषयक संस्मरण [ २३ बूंदी के रावराजा बिशनसिंह से कर्नल टॉड ने मित्रता करली थी और राजधानी में प्रवेश करते ही उसकी उपस्थिति से जो खुशी की लहर उमड़ पड़ी थी उसका सजीव वर्णन उसने इतिहास में किया है। ब्रिटेन के उदार हस्तक्षेप से बूंदी को पुनः स्वाधीनता मिल गई थी और इस बात को वहाँ का राजा, जागीरदार तथा प्रजाजन सभी अनुभव करते थे और स्वीकार करते थे। राजधानी छोड़ने के बाद वह दल यहाँ को प्रतिकूल जलवायु में डूबनेउतराने लगा। जब वे लोग २८ सितम्बर को जहाजपुर पहुंचे तो कर्नल टॉड को बुखार हो गया और शरीर में दर्द होने लगा। 'मक्की के पाटे' की एक रोटी से आकृष्ट हो कर उसने दो निवाले भी नहीं खाए थे कि उसको विचित्र और असाधारण लक्षण दिखाई देने लगे। वह कहता है, "मेरा सिर फैलता हुआ मालूम दिया और ऐसा लगा कि यह इतना बड़ा हो जायगा कि केवल इसी से पूरा तम्ब भर जायगा; मेरी जबान और प्रोठ सख्त हो गए और सूज गए; यद्यपि इससे मुझे कोई भय नहीं हुआ और न जरा-सी भी बेहोशी आई परन्तु मुझे यह उस प्रचण्ड दौरे का पूर्व लक्षण-सा लगा जिसने कुछ वर्षों पहले मुझे आक्रान्त करके मौत के किनारे पहुंचा दिया था। मैंने कप्तान वाघ' से प्रार्थना की कि मुझे अकेला छोड़ दें, परन्तु वे गए ही थे कि मेरे गले में एक खिचाव आया और मैंने सोचा कि मामला खतम है । तम्बू के खम्भे को पकड़ कर मैं जैसे-तैसे खड़ा हुआ और उसी समय मेरा सम्बन्धी सर्जन को ले कर अन्दर आया। मैंने इशारा किया कि वे मेरे विचारों में विघ्न न डालें परन्तु इसके बदले में उन्होंने कुछ चूर्ण और मिश्रण-सा मेरे मुंह में ठूस कर गले में उतार दिया जिसका जादू का-सा असर हुआ; मुझे ज़ोर की उल्टी हुई और में बिछौने पर लुढ़क गया; सबेरे के दो बजे के करीब मुझे चेत हुमा तब मैं पसीनों से नहाया हुआ था और बीमारी का नामो-निशान भी न था।" विश्वास का कारण भी था (और सर्जन की भी राय थी) कि यह जहर का असर था जो रोटी में मिलाया गया था। मेवाड़ में उद्वेगकारक कर्तव्य आरम्भ करने के बाद तीन चार बार पहले भी वह कब्र के किनारे तक पहुंचाया जा चुका था। ज्योंही वे आगे बढ़े तो आबोहवा ने दल-के-दल को नष्ट करने की धमकी दी। ध्वज-वाहक कैरी (Cary) मर गया; कोटा-ज्वर और स्नायुक (Guinea. worm) से कप्तान वाघ मरता-मरता बचा; और मॉडल पहुंच कर कर्नल टॉड बुखार और दर्द के अलावा प्लीहा रोग से ग्रसित हो गया; परन्तु, इन सब के ' कप्तान वाघ, जो उस लवाजमें का कमाण्डर पा, कर्नल टॉड का रिश्तेदार भी था। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] .. पश्चिमी भारत की यात्रा कारण भी उसका ध्यान काम से नहीं हटा। चारपाई पर बेहोश मुर्दे-सा लेटा हुअा, बाँई तरफ़ कोई तीन कौड़ी (६०) जोकें लटकाए हुए वह जिले के भोमियों और पटेलों की मौखिक रिपोर्ट लिखता रहता, जो उसके तम्बू में भरे रहते और उनकी टोलियों की टोलियाँ बाहर भी बैठी रहती थीं। वह अक्टूबर, १८२० ई.' में मेवाड़ लौटा; परन्तु, अब प्रकृति उसे ऐसी भाषा में चेतावनी देने लगी थी कि उसका और कोई अर्थ नहीं लगाया जा सकता था। उसका हृष्टपुष्ट शरीर सूख कर काँटा हो गया था और एजेन्सी के चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर डंकन ने स्पष्ट कह दिया था कि यदि वह छ: महीने तक देहात में और ठहरा रहेगा तो अवश्य मर जायगा । १८२१ ई० के वसंत में उसने देश जाने का विचार किया और वर्षा बन्द होते ही तैयारियां करने की सोची, परन्तु जुलाई में ही उसे बंदी से आवश्यक पत्र मिला जिसमें उसके सम्मान्य मित्र रावराजा को हैजा के कारण आकस्मिक मृत्यु के समाचार थे । रावराजा ने, जिससे वह कुछ ही मास पूर्व विदा होकर आया था, अपने अन्तिम क्षणों में कर्नल टॉड को अपने अल्पवयस्क पुत्र का संरक्षक नियुक्त किया था और उसकी तथा बूंदी की सुरक्षा का भार भी उसी के कंधों पर डाला था । मुसाहब के औपचारिक पत्र के साथ नाबालिग राजकुमार की माता राणी की ओर से भी एक पत्र था (या उसके नाम कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं) जिस में मरणासन्न राजा की इच्छा की सम्पुष्टि करते हुए उसे नाबालिगी की कठिनाइयों और उन शरारत-भरे तत्वों का स्मरण कराया गया था जिनसे वे लोग घिरे हुए थे। २४ जुलाई, १८२१ ई० को भर बरसात में ही वह हाड़ौती के लिए रवाना हुआ। मार्ग में भीलवाड़ा होकर जाते समय वहाँ पर उसका उत्साहपूर्ण स्वागत हुआ। प्रमुख पंच-महाजनों सहित सभी नगर निवासी कलश लिए हुए आग-बागे चलती हुई युवतियों के पीछे एक मील तक उसको अगवानी करने आए और । इसी वर्ष जब सिन्धिया से कलह हुना तो उसने लार्ड हेस्टिग्स के पास एक योजना लिख कर भेजी जिसमें मरुस्थल में होकर सेना भेजने का सुझाव था। उस समय उत्तरी सिन्ध के गवर्नर मीर सोहराब से भी उसका पत्र व्यवहार हुआ था। २ हजे की महामारी को इस क्षेत्र में मरी' या मत्यु कहते हैं। यह बीमारी यहां १८१७ ई० की लड़ाई के प्रारम्भ में चाल हुई थी और उन दिनों (१८२१ ई०) में उन क्षेत्रों को बरबाद कर रही थी। राजपूत राजाओं के पुराने कागज़ पत्रों के आधार पर क. टॉड ने शोध करके बताया है कि यह बीमारी इस देश के लिए कोई नई चीज़ नहीं है । कोई दो सौ वर्ष पहले भी इसने हिन्दुस्तान को तबाह कर दिया था। १६६१ ई० में इसने मेवाड का सफाया कर दिया था। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ (गांधीनगर) पि. ३८२००५ उसे उस स्थान पर ले गए जो अब जीवन और हलचल से भरा हुआ था, परन्तु कुछ ही वर्षो पहले जहाँ पर केवल एक भूखे कुत्ते के प्रतिरिक्त कोई नहीं रहता था । वह कहता है "मैं मुख्य बाजार में होकर निकला जहाँ के धनी निवासियों ने अपने खुले झरोखों पर मूल्यवान् रेशम, पार्चा और अन्य तरह-तरह के कपड़े लटका रखे थे; वे इनके द्वारा उस व्यक्ति का सत्कार और सम्मान कर रहे थे जिसको वे अपना हितैषी समझते थे । अन्दर मुझ से मिलने आए हुए लोगों में से दसवें हिस्से के लोग भी मेरे डेरे में नहीं समा रहे थे, इस लिए मैंने डेरे की बगलियाँ उठवा दीं । प्रत्येक क्षरण मुझे ऐसा लग रहा था कि यह डेरा हम लोगों के सिर पर गिर पड़ेगा क्योंकि प्रत्येक रस्से को सैकड़ों हाथ अपनी-अपनी दिशा में इस उत्सुकता से खींच रहे थे कि डेरे में 'साहब' और प्रोसवालों और माहेश्वरियों अथवा जैनों और वैष्णवों, इन दोनों सम्प्रदायों की पंचायत के बीच में जो कुछ बातचीत हो रही थी उसको वे देख व सुन सकें । हमने उस कस्बे के लिए बहुत-सी लाभप्रद भावी योजनाओं, करों में और कभी तथा व्यापारी माल के प्रयात-निर्यात में अधिक छूट देने के बारे में बातें कीं । मेरे उन भले मित्रों का मुझ से विदा होने को मन ही नहीं हो रहा था। मैंने उनके लिए भेंट व ' इत्र- पान' मँगवाए और वे हज़ारों शुभ-कामनाओं के साथ हमारे 'राज' की सदा कायमी के लिए प्रार्थनाएं करते हुए विदा हुए।" उसे इस अवसर पर जो आनन्द प्राप्त हुआ उसके बारे में उसने प्रायः चर्चाएं करते हुए कहा है कि उसके हृदय पर इसकी एक अमिट छाप अंकित हो गई थी । बूंदी पहुँचने पर उसकी पूरी खातिर की गई जैसी कि परम धनिष्ठता के नाते होनी चाहिए थी ( यहाँ तक कि उसके थाने के मार्ग पर एक ब्राह्मण ने पवित्र पानी छिड़का जिससे कुत्सित श्रात्मानों का उस पर कोई प्रभाव न पड़े)। बालक रावराजा रामसिंह का राजतिलक या राज्यारोहण समारोह सावण की तीज के दिन शुभ मुहूर्त में हुआ । 'इतिहास' के अन्त में 'निजी विवरण' के अन्तर्गत इस गौरवपूर्ण समारोह का बड़ा आकर्षक वर्णन किया गया है। बृटिश प्रतिनिधि ने हाड़ानों के नए राजा को गद्दी पर बैठाया, अपने दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली को पुरोहित द्वारा प्रस्तुत चन्दन और सुगन्धित तेल से तैयार किए हुए विलेप में डुबो कर राजा के ललाट पर तिलक किया, उसकी कमर में तलवार बाँधी और बृटिश सरकार की ओर से बूंदी के नए अधिपति का ग्रभिवादन किया । इसके अनन्तर बृटिश प्रतिनिधि ने स्वर्गीय राजा और वर्तमान राजमाता की इच्छानुसार मुख्य-मुख्य पदाधिकारियों के कार्य में पूर्ण सुधार की व्यवस्था की और राजस्व की प्राय तथा व्यय की जांच की प्रणाली चालू की, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा 9 परन्तु, उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया कि जिससे किसी को भी कार्य - पृथक् या अप्रसन्न करना पड़ा हो । दूसरे दरबार में उसने, रानी की प्रार्थनानुसार, राज्य के सरदारों को अपनी-अपनी जागीरों पर लौटने से पहले उनका कर्त्तव्य समझाया और रियासत के पुराने कायदे-कानूनों के पालन की आवश्यकता पर बल दिया । यद्यपि राखी का त्यौहार भी नहीं प्राया था परन्तु बालक राजा की माता ने अपने कुलपुरोहित के हाथ कप्तान टॉड के लिए राखी भेजी और उसको अपना भाई बनाया; इससे वह संरक्षित बालक उसका भानजा हुआ । राणा की कुमारी बहिन और अन्य जागीरदार सरदारों की महिलाओं के अतिरिक्त उसने दो और रानियों से भी राखी स्वीकार की थी और वह उनका 'राखी बंध भाई' बन गया था; वह कहता है कि यही वह सम्पूर्ण खजाना था जो वह साथ लाया था । इसके पश्चात् उसने राजमाता से प्रत्यक्ष बात करने का भी सम्मान प्राप्त किया ( उनके बीच में एक पर्दा लटका दिया गया था) और राजमाता ने रियासत के मामलों व अपने ' लालजी " की बहबूदी के बारे में बातें कहीं। बूंदी में एक पखवाड़ा बिताने के बाद वहाँ के शासन को ठीक तरह से जमा कर उसने विदा ली और वहाँ के बोहरा या मुख्यमन्त्री को एक ऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण रूपक के द्वारा समझाया जो किसी हिन्दू को तुरन्त ही बोधगम्य हो सकता है कि यदि राजकाज न्याय के सिद्धान्तों पर चलाया जायगा तो "झील के पानी पर एक दिन फिर कमल खिल जायगा ।" कप्तान टॉड कोटा के रास्ते होकर लौटा, जहाँ हाडोती की पड़ोसी रियासत बूंदी जैसी सुख शान्ति का नितान्त प्रभाव था । अतः यहाँ पर नये सिरे से श्रम और उलझनों का सामना करना पड़ा। वह कहता है कि अगस्त, सितम्बर और अक्टूबर, १८२१ ई० के तीन महीने बड़ी परेशानी में बीते, "गृह-युद्ध, मित्रों और पारिवारिक जनों की मृत्यु, हैजा और हम सभी लोगों का निरन्तर ज्वराक्रान्त होना तथा थकान और चिन्ताग्रस्त रहना ।" परन्तु ये छुट-पुट भौतिक अनिष्ट उन नैतिक बुराइयों के सामने कुछ भी नहीं थे जिनका प्रतोकार करना " राखी का त्योहार उन कतिपय सुअवसरों में सं है जब कि राजस्थान के वीरों शोर मणियों में एक बहुत ही कोमल सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। राखी भेज कर राजपूत महिला अपने हितेषी व्यक्ति को 'धर्म-भाई' होने का गौरव प्रदान करती है। कोई भी लोकापवाद उस महिला और उसके संरक्षक 'राखी बंध भाई' के बीच में किसी अन्य सम्बन्ध की कल्पना नहीं कर सकता । -- देखिए - 'इतिहास' भा. १; पृ. ३१२, ५८१ । * राजमाताएं अपने पुत्रों को प्यार से 'लालजी' (संभवत: 'लाड़लाजी' का संक्षिप्त रूप ) कहकर बोलती हैं । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थकर्ता विषयक संस्मरण [ २७ या उनको जड से उखाड़ फेंकना उसका कर्तव्य था। उस समय अपनी अवस्था के बयासीवें वर्ष में चल रहे अन्धे राज-प्रतिनिधि जालिमसिंह ने उसके सभी कार्यों की प्रशंसा की; कर्नल टॉड कहता है कि "जब उसके द्वारा मेरी ओर बढ़ाए हुए दुर्बल हाथों को मैंने दबाया तो उसकी ज्योतिहीन आँखों में आँसू भर आए और बोलने की शक्ति ने उसका साथ नहीं दिया।" रावता में (जो पिण्डारी-युद्ध के समय उसका कार्य-केन्द्र था) उसने निश्चय किया कि उत्तरी मालवा में हो कर सफर किया जाय । मुकन्दरा की घातक घाटी पार कर के वह बाडोली के वैभवशालो खण्डहरों में पहँचा (जो चम्बल और घाटी के बीच में पचेल नामक सपाट भूमि में स्थित हैं) । इन अवशेषों का उसने ऐसा स्पष्ट आलेखन और वर्णन किया है कि कितने ही दर्शक उन भग्न एवं क्षीयमाण स्मारकों को देखने के लिए लालायित हो उठते हैं, जो प्रागैतिहासिक हिन्दू स्थापत्य-कला को उत्कृष्टता की साक्षी दे रहे हैं। चम्बल के चूलों कूलों ?] (Choolis) अथवा जलावों, गंगभेव के अस्तव्यस्त महान् अवशेषों और धूमनर (Dhoomnar) की गुफाओं ने भी उस उत्साही यात्रो का ध्यान क्रमशः आकर्षित किया; और इन अवशेषों के (जिनमें से, कहते हैं, बहुत से तो शक्तिशाली विनाशकारी प्रकृति की अपेक्षा और भी भयङ्कर विनाशक मानवीय हाथों से विनष्ट हो चुके हैं) नक्शे तैयार किए गए जिनके उत्कीर्ण-आलेख्य 'इतिहास' की शोभा बढ़ा रहे हैं। स्थापत्य के इन नमूनों की प्रशंसा से जो प्रेरणा मिली वह प्राचीन नगरी चन्द्रावती के विशाल ध्वंसावशेषों की खोज से और भी प्रबल हो उठी, जिनकी मूल्यवान और शोभामयी कारीगरी को 'छीणी' (तक्षणी) को उत्कृष्टतम कृतियों में गिना जा सकता है । फूलपत्तियों की सुघर कुराई को कर्नल टॉड ने 'निर्दोष' माना है। एक मन्दिर के गवाक्षों की नक्काशी और अन्य सजावट के विषय में उसने कहा है कि 'योरप में कोई भी कलाकार उनकी समता नहीं कर सकता। इस बात से आशङ्कित हो कर कि कहीं अंग्रेज-जनता उन आलेखों की सत्यता पर सन्देह करे, उसने मूल खाकों को अपने पुस्तक-विक्रेता के पास रख दिए थे कि जिससे यह ज्ञात हो सके कि आलेखक द्वारा उन में सुधार करने की अपेक्षा उनके साथ न्याय करने में भी कोताही (न्यूनता) रह गई है। चन्द्रावती परमारवंशी क्षत्रियों की नगरी है, जो विशाल अरावली श्रेणी के पश्चिमी मुखभाग पर स्थित है। इसके खण्डहर बहुत समय से जंगली जानवरों के आवास बने हुए थे और सद्यः प्राप्त सामग्री से अहमदाबाद का नगर बन कर खड़ा हो गया है । कर्नल टॉड के पास एक छः सौ वर्ष पुराना शिलालेख था जिसमें चन्द्रावती का उल्लेख था, परन्तु Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा जब तक उसने नगरी की स्थिति और खण्डहरों का पता न लगा लिया तब तक वह उसके लिए कोई रुचि का विषय न बन सका । 'भोज चरित्र' में भी इसी नगरी का उल्लेख हुआ है । बीजोली [या ] और मेनाल में भी उसने अन्य ' स्थापत्य सम्बन्धी आश्चर्यों' की खोज की थी, जिनको उसने अपनी पेंसिल और कोरणी के द्वारा चिर स्थायी भी बना दिया है । उदयपुर को उपत्यका में वापस पहुंचने से पहले उसको एक दुर्घटना का सामना करना पड़ा जिसमें प्रायः उसकी मृत्यु ही हो गई होती । २४ फर्वरी, १८२२ ई० को वह बेगूं के मेघावत सरदार को उसकी जागीर लौटाने जा रहा था, जिसको इस वंश से छल और बल के द्वारा छीन कर मरहठों ने कोई प्राधी शताब्दी से आगे अपने अधिकार में कर रखी थी । 'कालमेघ की सन्तानें " सभी स्थानों से प्राकर इस शुभ अवसर के सम्मान में अपने उपकर्त्ता का स्वागत करने के लिए एकत्रित हुई थीं। बेगूं का प्राचीन किला एक बड़ी चौड़ी खाई से घिरा हुआ है जिस पर मेहराबदार दरवाजे तक पहुँचने के लिए, एक लकड़ी का पुल बना हुआ है। कर्नल टॉड के महावत ने उसको पहले ही चेतावनी दे दी थी कि दरवाज़े में से हौदे सहित हाथी नहीं निकल सकेगा; परन्तु श्रागे वाला हाथी निकल चुका था इस लिए उसको हाथी बढ़ाने के लिए कहा गया । इसी अवतर पर वह पशु किसी कारण से चमक गया और तेजी से सीधा प्रागे दौड़ा। कर्नल टॉड ने दरवाज़े पर पहुँचते ही देखा कि वह बहुत नीचा था इसलिए उसने मृत्यु को प्रसन्न जान कर अपने पैर मजबूती से हौदे में और हाथों को आगे दरवाजे पर इतने जोर से अड़ा दिए कि हौदे की पीठ टूट गई और वह हाथी पर से नीचे पुल पर गिर कर बेहोश हो गया। उसके खरौंच तो बहुत आए परन्तु कोई घातक चोट नहीं थाई । रावत और उसके सरदार अपनी सहानुभूति के कारण प्रायः उसकी चारपाई के पास बन्दो की भाँति डटे रहे और इतना ही उस दुर्घटना के बदले तसल्ली देने को पर्याप्त था, जो किसी हद तक उसी की समझ की कमी के कारण घटित हुई थी; परन्तु, दो दिन बाद, जब वह दस्तूर अदा करने गया तो उसके प्राश्चर्य की सीमा न रही जब उसने देखा कि कालमेघ का बनवाया हुआ दरवाज़ा ढेर हुआ पड़ा था और उसी पर हो कर उसको एक ऊँचे प्रालिंद पर स्थित महलों में ले जाया गया जिसके सामने ही बेगू की छोटी सी कचहरी थी । जब आवेग के वश हो कर दरवाजा तुड़वा देने के बारे में उसने रावत को प्रत्यादेश किया तो उसने कहा “मुझे यह बिलकुल • कालभोज के वंशज Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ता-विषयक संस्मरण [ २६ अच्छा नहीं लगा कि इसने करीब करोब उस उपकारी की जान ही ले ली थी जो हमको जीवन देने आया था।" ये हैं वे लोग, जिनके बारे में कहा जाता है कि इनमें 'कृतज्ञ-भाव नहीं है।' मेवाड़ की प्राचीन राजधानी चित्तौड़ को देख कर (जिसके स्थापत्य के नमूने भी उसने दिए हैं) वह १८२२ ई० के मार्च मास में उदयपुर लौट गया। ___ अब उसे भारत में रहते बाईस वर्ष हो गये थे जिनमें से अट्ठारह साल उसने पश्चिमी राजपूतों में बिताए थे; पिछले पाँच वर्ष वह गवर्नर-जनरल के एजेण्ट की हैसियत से रहा । उसके सार्वजनिक-हित-कार्य और विस्तृत भौगोलिक एवं प्रांकिक संशोधन ही-जो एक साधारण-से मस्तिष्क को व्यस्त रखने के लिए पर्याप्त थे- ऐसे विषय नहीं थे, जिनके अध्ययन में वह डूबा रहता था वरन् उसने अपने पद की सुविधाओं और देशी राजाओं के साथ सम्बन्धों का उपयोग राजपूतों के राजनीतिक-इतिहास, विज्ञान और साहित्य के मर्म तक पहुँचने में भी किया; और इसके परिणाम में हिन्दू-इतिहास की वह मौलिक सामग्री प्रभूत मात्रा में प्रकाश में आई, जो अति प्राचीन काल से सम्बद्ध है और उन कल्पनाधारित मान्यताओं को प्रामाणिक सिद्ध करती है जिनको अच्छे-अच्छे पूर्वीय विद्वानों ने भी सहज ही में ग्रहण कर लिया था। कर्नल टॉड के सफल संशोधनों से पूर्व इसके अतिरिक्त कोई सिद्धान्त प्रायः स्वीकार नहीं किया जाता था कि हिन्दुओं के पास उनका कोई स्थानीय इतिहास भी है; यद्यपि रवाभाविक और तर्कसम्मत प्रश्न खड़ा होता है कि "यदि हिन्दुओं के पास कोई इतिहास नहीं था तो , इतिहास, २, पृ० ५७४-- इंगलैण्ड में कर्नल टॉड ने अपने एक मित्र के नाम पत्र लिखा और उसमें इस घटना का उल्लेख किया। इससे पता चलता है कि वह इस कृतज्ञतापूर्ण सम्मान से कितना प्रभावित हुआ था। "....."मैं जीवन-सिद्धान्त पर दृढ़ विश्वास करता था। अब तो मुझे यह स्वप्न सा प्रतीत होता है। परन्तु, एक सप्ताह पूर्व, में अपने हाथी पर से टकरा कर उस समय गिर गया जब मैं मेघावतों के सरदार को उसके सत्ताईस गांवों पर अधिकार लौटाने जा रहा था--ये गांव पैतालीस वर्षों से उसके अधिकार से निकल गए थे और मैंने इनको मरहठों की दाढ़ में से निकाला था। वह पशु खाई पर बने हुए लकड़ी के पुल पर दौड़ा ओर एक दरवाजे की मेहराब, जो बहुत नीची थी उससे टकरा कर मैं दूर जा गिरा। यही एक पाश्चर्य समझो कि मैं चकनाचूर नहीं हुआ। उसी रात को मेधावतों का वह विजय-द्वार तोड़ कर समतल कर विया गया । ये वे लोग हैं, जिनको प्रकृतज्ञ कहा जाता है । मेरा कोई अंग भी भंग हो जाता तो कोई ताज्जुब नहीं था, परन्तु में कुछ खरौंच लग कर ही बच गया। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] पश्चिमी-भारत की यात्रा मुसलमानों ने वे तथ्य कहाँ से खोज निकाले जो अबुलफजल ने लेखबद्ध किए हैं ?" कर्नल टॉड ने राजपूतों को ऐतिहासिक कृतियों को खोज निकालने के लिए जो प्रयत्न किये थे उनका वर्णन 'राजस्थान का इतिहास' के प्रथम भाग की भूमिका में किया गया है । ऐसा लगता है कि राजारों के पुरालेख-संग्रहों में ही नहीं जैनमत (जिसका अनुयायी उसका विद्वान् गुरु भी था) के महान ग्रन्थ-भण्डारों' में भी उसका अबाध प्रवेश था, जो मुसलमानों के सूक्ष्म-निरीक्षण से बचे रह गए थे; वहाँ से बड़े-बड़े मूल्यवान् ग्रन्थ ले आने की उसे अनुमति प्राप्त थी; वे ग्रन्थ 'रॉयल एशियाटिक सोसाइटी' के पुस्तकालय में जमा हैं। मेंवाड़ के राणा ने अपने संग्रह में से उसे 'पुराणों' की पवित्र पाण्डुलिपियाँ उधार दिए जाने की इजाजत दे दी थी जिनमें से उसने राजपूत शाखाओं की वशावलियों का उद्धार किया। साहित्यिक अभिरुचि और असामान्य विद्वत्ता के धनी मारवाड़ के राजा मान ने अपने वंश की मुख्य-मुख्य ख्यातों की नकलें उसके लिए करवाईं जो अब भी 'सोसाइटी' के पुस्तकालय में जमा हैं । जैसलमेर के प्रधानमंत्री ने उसके लिए 'जोयों की ख्यात' भेजी, जो जीतों (Jits) की एक जाति है और बीकानेर के एक जिले पर अधिकार जमाए हुए है (इनमें सिकन्दर महान् की कुछ परम्पराएं सुरक्षित हैं)। उसने इस देश में जो अन्य मूल्यवान ऐतिहासिक कृतियाँ प्राप्त की उनमें राजपूत होमर (अथवा प्रोसियन) चन्द के काव्यों का उल्लेख किया जा सकता है जिसकी एक सम्पूर्ण विद्यमान प्रति कर्नल टॉड के पास थी और ये काव्य प्रामाणिक इतिहास माने जाते हैं; और भी बहुत से चरित्र उसको मिले, मुख्यत: 'कुमारपाल-चरित्र' अथवा अणहिलवाड़ा का इतिहास जिसमें से प्रभूत मात्रा में इस पुस्तक में उद्धरण दिये गये हैं। अन्य उपकारक सामग्री की भी किसी तरह उपेक्षा नहीं की गई; शिलालेखों, शासनपत्रों, सिक्कों और अन्य ऐसे ही अभिलेखों के संशोधन में वह अथक परिश्रम करता रहता था, जो इतिहास के अकाटय प्रमाण-स्वरूप माने जाते हैं। इन्हीं संशोधनों के प्रसंग में (अपने घर लौटते समय) उसने सौराष्ट्र के समुद्रतट पर सोमनाथ पट्टण में देवनागरी अक्षरों में लिखा एक शिलालेख खोज निकाला जिससे नहरवाला के बलहरा राजाओं का काल-निर्णय ही नहीं हो गया वरन् ' इसी पुस्तक में अन्यत्र जैनों के साहित्यिक ग्रन्थ-भण्डारों का वर्णन पढ़िए । • राठौड़ वंश के लेख 'इतिहास' भा० २ में दिए गए हैं। इनमें से एक 'रासा राव रतन' है जिसमें रतलाम के राव रतन के पीरतापूर्ण कार्यों का अमर काव्य के रूप में वर्णन किया गया है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थका-विषयक संस्मरण एक नये संवत् का भी पता चला जो बलभी संवत्' कहलाता था। कुतर्क एवं असंगतिपूर्ण अर्थाभास से बचाने के लिए गूढाक्षरों में दी हुई तिथियों का उद्घाटन करने में उसकी बुद्धि और व्युत्पत्ति उस समय बहुत लाभदायक सिद्ध हुई जब यह कला भारत के पण्डितों में भी सामान्य रूप से ज्ञात नहीं थी । उसने कहा है "बहुत से शिलालेखों में तिथियाँ अंकों में न लिखी होने के कारण मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया; और ऐसा तब तक चलता रहा जब तक कि मेरे अनुसंधान के पिछले वर्षों में मेरे 'यति' ने मुख्य उपाध्याय और अपने (जैन) धर्म के अन्य विद्वानों की सहायता के माध्यम से इस कठिनाई को हल न कर दिया और इन शिलालेखों में से कुछ के सांकेतिक अक्षरों का अर्थोद्घाटन न कर दिया।" सब से पहले कर्नल टॉड ने ही योरप में इस विशिष्ट प्रणाली का परिचय दिया था। बाद में एम. वॉन इलीगेल (M. Von Schlegel), एम. कॉस्मो डी कोरोस (M.Cosmo de Koros) और मिस्टर जेम्स प्रिंसेप (Mr. James Princep) ने इसमें पूर्ण प्रगति की । उसके पुरावशेषों सम्बन्धी अनुसन्धान भी विशुद्ध हिन्दू-पुरातत्व तक ही सीमित नहीं थे। उसने बॅक्ट्रिअन और इण्डो-ग्रीसियन सिक्कों की खोज की और बड़ी तादाद में उनको एकत्रित किया तथा उनका अध्ययनात्मक और सही-सही विवरण दिया जिससे मुद्रा-शास्त्र की एक शाखा के अध्ययन का श्री-गणेश हुआ और इसके बड़े महत्वपूर्ण परिणाम निकले। कर्नल टॉड का जीवन-वृत्तान्त अब उस स्थल पर आ पहुंचा है जो पाठकों के हाथों में विद्यमान ग्रन्थ में वर्णित है। इसमें बताया है कि उसने भारत क्यों छोड़ा, स्वास्थ्य की गिरी-पड़ी दशा में भी निकटतम बन्दरगाह पर सीधे न जाकर चक्कर खाते हुए खोज-पूर्ण यात्रा प्रारम्भ करने का क्या कारण था ? (ये उद्देश्य इस शास्त्र में उसके अनुपशाम्य उत्साह के महान् लक्षणों के परिचायक हैं) साथ ही, उसने मार्ग में देखे हए दृश्यों और पदार्थों का विवरण एवं घटनाओं का वर्णन भी किया है । यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि १ यह शिलालेख 'इतिहास, भाग २' के परिशिष्ट में दिया गया है। इसमें ये चार संवत् दिए गये है-हिजरी सन् ६६२ - विक्रम संवत् १३२० : बलभी संवत १४५ = शिवसिंह संवत् ५१ । हमारे सन का वर्ष १२६४ ई० । • गूढाक्षरों में कही गई तिथियों का उदाहरण पृ० ३८६ पर देखें : ३ एशियाटिक जर्नल, भा० २२, पृ० १४ ई० । ४ ये सिक्के उसने स्वेच्छा से रॉयल एशियाटिक सोसाइयो को दे दिये। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा उसने मेवाड़ की राजधानी को पहली जून, १८२२ ई० के दिन आखिरी सलाम किया; १४ जनवरी, १८२३ ई० को बम्बई पहुँचा और अगले मास में इंग्लैण्ड के लिए जहाज में सवार हो गया । प्रतिकूल जलवायू में रह कर कितने ही वर्षों तक कठिन उद्वेजक परिश्रम करने के कारण शरीर और मस्तिष्क में जो थकान आ गई थी उसको दूर करने के लिए एक लम्बे अरसे तक छेड़ और शान्तिपूर्ण पाराम की आवश्यकता थी; परन्तु, उसके उदार प्राशय की पूर्ति उस समय तक नहीं हो पाती जब तक कि यह संसार के सामने अपने अर्जित ज्ञान का प्रसार न कर देता और 'अपने राजपूतों का, जैसा कि वह स्नेह से कहा करता था, योरप के लोगों को परिचय न करा देता। सावधानी से अपने स्वास्थ्य-सुधार में लगने के बजाय वह अपने सुविचारित कार्य के लिए संग्रहीत विपुल सामग्री' को व्यवस्थित करने में व्यस्त हो गया, जिसके लिए अथक परिश्रम और अध्ययन आवश्यक थे। इस प्रकार शारीरिक शक्तियों पर अत्यधिक दबाव डालने के फलस्वरूप १८२५ ई० में, उसके प्रयासों में एक उसी प्रकार के (बीमारी के) दौरे के कारण व्यवधान आ पड़ा जैसा कि उसे दस वर्ष पहले हुआ था, और (आगे चल कर) इसी ने उसके बहुमूल्य जीवन का अन्त कर दिया। उसके इङ्गलैण्ड पहुँचने से कुछ ही पहले 'रायल एशियाटिक सोसायटी' की स्थापना हो चुकी थी (मार्च, १८२३ ई०); कर्नल टॉड ने तुरन्त ही अपना नाम इसके सदस्यों में लिखा लिया और तदनन्तर वह इसका पुस्तकालयाध्यक्ष नियुक्त हो गया; इस पद पर वह तब तक बना रहा जब तक उसके स्वास्थ्य ने साथ दिया। मई, १८२४ ई० में उसने एक शोध-पत्र पढ़ा जो एक संस्कृत शिलालेख के (जिसकी नकल शोध-पत्र के साथ संलग्न थी) अनुवाद और उस पर टिप्पणी के रूप में था; यह दिल्ली के अन्तिम हिन्दू सम्राट से सम्बद्ध था। यह लेख उसको हांसी-हिसार से (दिल्ली से उ. उ. प. में लगभग १२६ मील पर) प्राप्त हुधा था जब वह सिन्धिया दरबार में अपना पद छोड़ कर अपने मित्र स्वर्गीय जेम्स लम्सडेन (James Lumsdaine) से मिलने गया था। इस शिलालेख का । उसके हस्तलिखित ग्रन्थों, सिक्कों और अन्य प्राचीन पदार्थो पर, जिनमें से अत्यधिक मूल्यवान वस्तुएं इण्डिया हाउस अथवा रॉयल एशियाटिक सोसाइटी में जमा कराई गई थीं, इस देश (इंगलैण्ड) में भारी महसूल वसूल किया गया था। उसके कागज पत्रों में इन चीजों की एक लम्बी सूची है जिसके साथ चुंगी के ७२ पाउण्ड चुकाने की रसीद भी है; उस पर उसके स्वयं के हस्ताक्षरों में लिखा है 'प्राच्य साहित्य को प्रोत्साहन' Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यकर्ता-विषयक संस्मरण उद्देश्य हिन्दुस्तान के सुप्रसिद्ध चौहान सम्राट पिरथी राज अथवा पृथ्वीराज (जिसके महलों के खंडहर में यह प्राप्त हुआ था) की डोड जाति (११६८ ई०) पर विजय को चिरस्मरणीय बनाना या; यह विजय उसके प्रमुख सामन्त किल्हण (Kilhan) और हमीर के पराक्रम से प्राप्त हुई थी, जिनके नाम उस समय के युद्धों में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। यह शोध-पत्र पश्चिम भारत के इतिहास की विद्वत्तापूर्ण व्याख्या और एतद्देशीय लोगों के चरित्रोदाहरण के विषय में, जो तत्कालीन योरप-निवासी विद्वानों के लिए नई बात थी, एक प्रेरणादायक चक्र के रूप में सामने आया । वह शिला, जिस पर लेख उत्कीर्ण था, कर्नल टॉड ने १८१८ ई० में लॉर्ड हेस्टिग्स को भेज दी थी; परन्तु. इसके भाग्य का आज तक पता नहीं है । उसी वर्ष जून मास में, उसने सोसाइटी को तीन ताम्रपत्रोत्कीर्ण दान-पत्र समर्पित किए जो १८१२ ई० में उसे उज्जैन में मिले थे; इसके अतिरिक्त एक संगमरमर का शिलालेख भी भेंट किया, जो उसने १८२२ ई० में अपने मध्य भारत के अन्तिम दौरे के अवसर पर मधुकरघर (Madhucargihar) में खोज निकाला था। ये सब उसी परमार वंश से सम्बद्ध हैं, जिसका समय उसके द्वार निश्चित किया गया है और जो भारत के इतिहास एवं साहित्य का महत्वपूर्ण काल माना गया है । ये लेख भी, जिनका मिस्टर कोलबुक ने पुन: अनुवाद किया था, पूर्व लेख के समान ही विद्वत्ता की आभा से चमत्कृत हैं । ___ उसके द्वारा भारत में प्राप्त ग्रीक, पार्थिन और हिन्दू चन्द्रक जिनका विव. रण उसने जून, १८२५ ई० में सोसाइटी के सामने पढ़ा था, उसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण संगृहीत सामग्री माने जाते हैं । इस शोध-पत्र के साथ कुछ चन्द्रको की उत्कीर्ण प्रतिकृतियाँ भी थीं (जो उसने अपने खर्चे से बनवाई थीं); इनमें, से दो चन्द्रक तो विशेषतः मुद्राशास्त्र में बॅक्ट्रिया के ग्रीक राजानों की शृंखला की टूट को पूरा करने वाले थे-नामत: अपोलोडोटस और मीनान्डर, जिनमें से पूर्व नाम का उल्लेख तो बेयर (Bayer) ने भी अपनी बॅक्ट्रियन राजवंशावली में नहीं किया है; उसका पता तो केवल एरिअन (Artian) की सूचना के बाद ही जानकारो में आया है । इन मूल्यवान् सिक्कों की उपलब्धि के विषय में विवरण देते हुए कर्नल टॉड ने कहा है कि भारत में रहते हुए पिछले बारह वर्षों में, इतिहास-संशोधन का उपाङ्ग मानते हुए, सिक्कों का संग्रह भी उसकी एक प्रवृत्ति रही है; वर्षाऋतु में मथुरा एवं अन्य प्राचीन नगरों में कुछ लोगों को वह उन सब चीजों को इकट्ठा करने में लगा देता था, जो पानी के प्रताप से ढह कर भूमिसात् हुई दीवारों और फूट कर सामने आती हुई नीवों के कारण प्रकटता को प्राप्त हुआ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा करती थीं। वह कहता है "मैंने प्रायः सभी जात के बीस हजार सिक्के इकट्रे कर लिए थे; उनमें सौ से अधिक ऐसे नहीं थे कि जिन पर ध्यान देना पावश्यक हो और इस संख्या का एक-तिहाई ही ऐसा था जो मूल्यवान कहा जा सकता था; परन्तु, इन्हीं में एक अपोलोडोटस का और कुछ-एक मीनान्डर के सिक्के भी हैं जो उन थोड़े से पार्थिअन सिक्कों के अतिरिक्त हैं, जो अभी प्रायः इतिहास में अज्ञात हैं ।' इस शोध-पत्र ने योरप महाद्वीप के बहुत से विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया और इन्हीं सिक्कों के विषय में मिस्टर ए. डब्ल्यू. वॉन श्लोगल (Mr. A. W. Von Schlegal) ने पेरिस की सोसाइटी के सामने एक शोध-पत्र पढ़ा। तभी से और सम्भवतः इस खोज के पश्चात् पश्चिमी भारत और अफगानिस्तान में ऐसे सिक्कों के संग्रह के प्रति लोगों का उत्साह बढ़ा है, जो अब बड़ी तादाद में मिलते हैं; और, सौभाग्य से बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के सचिव मि० जेम्स प्रिंसेप द्वारा चतुराई से इनके अक्षरों की कुञ्जी ढूंढ़ निकालने पर ऐसा ज्ञात हुआ है कि पाख्यानों की रचना सर्वसाधारण की बोली में अथवा सरलीकृत संस्कृत में हुई है। इससे पूर्व और पश्चिम के सम्बद्ध इतिहास में खोज की नई दिशाएं भी उन्मुक्त हो गई हैं, जिससे, जैसा कि पहले कहा गया है, बहुत ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक परिणाम सामने आए हैं । ___ इनके अतिरिक्त जो शोध-पत्र उसने सोसाइटी को समर्पित किए वे इस प्रकार हैं-'मेवाड़ के धार्मिक संस्थानों का विवरण' (१८२८ ई० में पठित), जो बाद में राजस्थान का इतिहास' में समाविष्ट कर दिया गया; 'एलोरा के गुहामन्दिरों की कुछ मूर्तियों पर विचार' (१८२८ ई० में ही पठित); 'स्कॉटलैण्ड में मान्ट्रोस (Montrose) नामक स्थान पर प्राप्त स्वर्ण मुद्रिका की हिन्दू बनावट पर विचार;' और "एक हिन्दू पद्धति से उत्कीर्ण चित्र के आधार पर हिन्दू और थीबन (Thiban) हक्यूं लीज़ की तुलना" (दोनों ही १८३० ई० में पठित) । • 'इतिहास' (भा० १, पृ. ४०) में उसने लिखा है कि अपोलोडोटस का सिक्का उसको १८८४ ई० में मिला था जब उसने सिकन्दर के इतिहासकारों द्वारा नणित सूरसेनी [शौरसेनी की प्राचीन राजधानी सूरपुर नगर के अवशेषों को खोज निकाला था। वह कहता है, "भारत के मैदानों में बहुत से प्राचीन नगर दबे पड़े हैं, जिनके अवशेषों में कोई न कोई ऐसी वस्तु मिल हो जाती है जिससे हमारे ज्ञान की कुछ-न-कुछ वृद्धि अवश्य होती है।" कर्नल टॉड द्वारा उपलब्ध बॅन्मिन और इण्डो-सोयिक सिक्कों पर विचार'-जर्नल एशियाटिके, नवम्बर, १८२८ ई० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यकर्ता-विषयक संस्मरण [ ३५ अन्तिम से पूर्व शोध-पत्र में वर्णित स्वर्णमुद्रिका मान्ट्रोस के पास पहाड़ी दुर्ग की खुदाई में प्राप्त हुई थी; इसको दून (Dun) की कुमारी अस्किन (Erskih) ने खरीद ली थी क्योंकि उसमें प्रदर्शित शस्त्रधारी (दो ग्रिफिन) उसके वंश के माने गए थे; बाद में यह मुद्रिका उस वंश की प्राचीन निशानी के रूप में मानी जाने लगी थी। जब कॉसिलिस (Cassilis) की काउण्टेस (ठकुरानी)ने वह मुद्रिका कर्नल फिज़क्लारेन्स (Fitzclarence) को दिखाई जो अब मुन्सटर के अर्ल ( Earl of Munster ) हैं तो वे तुरन्त ही इसके हिन्दू लक्षणों को पहचान गए और उन्होंने लेडी कॉसिली की अनुमति से इसको कर्नल टॉड के पास भेज कर "ऐसे उपेक्षित क्षेत्र में उपलब्ध इस प्रकार के असाधारण पुरावशेष की उपलब्धि पर अपने भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व के विस्तृत ज्ञान के आधार पर" सोसाइटी को पालोचनात्मक विचार देने के लिए प्रार्थना की। कर्नल टॉड ने बताया है कि वह रहस्यमय मुद्रिका का यन्त्र (ताबीज) सूर्य वेथा बालनाथ का प्रतीक है जो दो वृषभों पर आधारित है और उसक चारों ओर एक सर्प रक्षा के लिए माला की तरह लिपटा हुआ है अथवा यह सृष्टिविधायिका प्रकृति का रूप है जो लिङ्गम् और योनि के एकत्र प्रतीक के द्वारा दिखाया गया है-"संक्षेप में, यह उस आदिकालीन आराधना का प्रतीक है जोः प्राचीनतम जातियों में प्रचलित थी।" उसके विचार से यह किसी पवित्र श्रद्धालु की अंगूठी थी जो अपनी इस पूजनीय वस्तु से कभी वियुक्त होना नहीं चाहता था और निरन्तर एक ताबीज की तरह अंगूठे में पहने रहता होगा। उस ने अपनी प्रेरणादायिनी उदार भावना एवं वदान्यता के कारण अपने अन्वेषणों और लेखों को स्वदेशीय वैज्ञानिक संस्थाओं में ही कोष्ठबद्ध नहीं होने दिया अपितु विश्व-सौहार्द की भावना से अपनी सम्पूर्ण जानकारी को सौरभ के समान विश्व भर में फैला दिया। सन् १८२७ ई० में अपने विवाह से छ: सप्ताह बाद जब वह मिलान (Milan) में था तो, छाती की सूजन के परिणाम से उत्पन्न हुए दुखदायी दमा रोग से पीड़ित अवस्था में भी, जब कि उसमें लिखने के लिए शक्ति और लेखापन के लिए वाणी प्रायः क्षीण हो चुकी थी, उसने पूर्ण परिश्रम कर के (पास में पुस्तकें और सन्दर्भ ग्रन्थों के उपलब्ध न होते हुए भी) एक · शोध-पत्र तैयार किया और पैरिस की 'एशियाटिक सोसाइटी' में भेजा, जो उनकी पत्रिका में "De L'Origine Asiatique de quelques, unes des Anciennes Tribus de l'Europe, establies sur les Rivages de la Mer Baltique, Surtout les Su, Suedi, Suiches, Asi, Yeuts, Jats, ou GetesGoths &c." शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ । १८२८ ई० में उसने उसी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा सोसाइटी को पश्चिमी भारत से प्राप्त छः खरे भेंट किए जिनका विवरण एम. बरनॉफ (M. Burnouf) ने दिया और यह अनुरोध किया कि उनका शिलामुद्रण (लीथो-छाप) करा कर फ्रांस और जर्मनी में प्रसार किया जाय । उसकी सैनिक पद-वृद्धि , जो अब तक रुकी पड़ी थी, अब द्रुतगति से आगे बढ़ने लगी। पहली मई, १८२४ ई० को उसने 'मेजर' का पद प्राप्त किया और उसे २ जून, १८२६ को लेफ्टिनेण्ट कर्नल बना कर दूसरी यूरोपियन रेजिमेण्ट में परिवर्तित कर दिया गया; यह वही सेना-विभाग था जिसमें उसने अपना जीवन प्रारम्भ किया था। उसके स्वास्थ्य की दशा ने उसके लिए भारत लौटना अनुपयुक्त बना दिया यद्यपि उसके राजपूताना के निवासी मित्र इसके लिए बहुत इच्छुक थे; अन्त में, २८ जून, १८२५ ई० को उसने सेवा से निवृत्ति प्राप्त कर ली। १८२६ ई० में 'राजस्थान का इतिहास' की पहली जिल्द प्रकाशित हुई जिससे स्थानीय एवं विदेशी प्राच्यविद्या-विद्वानों में बड़ी हलचल मच गई। साधारण पाठक-वर्ग में सर्वप्रियता प्राप्त करने में इस कृति को बड़ी-बड़ी अड़चनों का सामना करना पड़ा; क्योंकि यह साधारण इतिहास को ही पुस्तक नहीं थी अपितु ऐसे देश का इतिहास इसमें लिखा गया था, जो सर जॉन मालकम लिखित 'मध्यभारत के संस्मरण' (Memoirs of Central India, जिसमें उन्होंने राजपूताना को तो शायद ही स्पर्श किया हो) के प्रकाशित होने तक नितान्त अपरिचित रहा था। ग्रन्थकर्ता के नाम को, उस समय योरप की जनता में एवं भारत-स्थित बृटिश समाज में, उसके ढंग की रचनाओं को प्रचार देने के लिए वह प्रसिद्धि नहीं मिली थी कि जिससे बहुत-सी पुस्तकों को विक्रेय-सम्मान प्राप्त होता है । कर्नल टॉड के एक घनिष्ठ मित्र का कहना है कि 'उसका मार्ग भारत में यूरोपीय समाज को शायद ही गति देने वाला था और उसके लगाव आसपास के देशी वातावरण पर ही अधिक केन्द्रित थे। इस कृति के प्रति लन्दन के प्रकाशकों का आकर्षण इतना शिथिल रहा कि उसके प्रकाशन की पूरी जोखिम और खर्चा उसे अपने ऊपर ही लेना पड़ा, जो उसने बड़े उत्साह के साथ वहन किया; और छपाई (एक फलक तैयार कराने के इस अत्यन्त व्ययशील महान कार्य के परिणाम) में उसके मर्यादित धन-कोष का कोई साधारण भाग नहीं बहाया गया था। अर्थ-लाभ उसका उद्देश्य नहीं था और न सामान्य अर्थों में कीर्तिलाभ हो; उसका मूल प्रेरक उद्देश्य तो, जैसा कि उसने अपने 'सम्राट को समर्पण' में लिखा है, 'उसका परमकर्तव्य' मात्र था, ‘एक प्राचीन और आकर्षण-भरे मानव-समाज से विश्व को परिचित कराना।' कुछ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ता-विषयक संस्मरण [ ३७ भो हो, इतने व्यवधान और प्रकाशन का भारी व्यय होते हुए भी, इसने धीरेधोरे देश के स्थायी साहित्य में अपना स्थान प्राप्त कर लिया। हमारे नियतकालिक आलोचनात्मक पत्रों ने इस कृति के विषय में बहुत ही अनुकूल वाक्य लिखे, प्राच्य-अध्ययन के परम अनुभवी विद्वानों से भी योरपीय महाद्वीप में इसने भूरि-भूरि प्रशंसा प्राप्त की; और बुटिश भारत में, जहाँ इसका सब से अच्छा मूल्यांकन हो सकता है, यह एक प्राधार-ग्रन्थ माना जाता है । प्राचार्य मिल Miill) हमारे प्रथम संस्कृत-विद्वानों में से हैं और वे प्राचीन भारतीय इतिहास के बहुत ही सफल अनुसन्धानकर्ताओं में माने जाते हैं; उन्होंने 'इतिहास' के विषय में अपना मत-निरूपण करते हुए लिखा है कि 'यह प्राच्य और सामान्य साहित्य के लिए एक मूल्यवान और विशाल देन है।' वास्तव में, यह एक खान है जिसमें से पश्चिमी भारत के विषय में अब भी आधुनिक लेखक सूचनाएं प्राप्त करते हैं; इन क्षेत्रों के विषय में नित्य नया ज्ञान विवरण को यथार्थता और शुद्धता के प्रमाणों को उपस्थित कर रहा है। 'इतिहास' की दूसरी और अंतिम जिल्द १८३२ ई० के प्रारम्भ में सामने आई। ___जो लोग इस विशाल ग्रंथ का धैर्य से अवगाहन करने का साहस करेंगे उनको सत्य पर अाधारित और मौलिक इतिहास की अन्तनिहित विपुल सामग्री से सम्पन्न इस 'राजस्थान का इतिहास' में असाधारण आकर्षण के विषय उपलब्ध होंगे; इसके बहुत से अंश सुघटित कथात्मकता की मनोहारिता लिए हुए हैं, जिनमें पात्रों के वीरोचित गुणों और घटनाओं के विवरण निबद्ध हैं; इसमें हिन्दू समाज के परम अद्भुत और सही-सही चित्र उपस्थित किए गए हैं। स्थानीय दृश्यों, प्राचीन नगरों और भवनों का सूक्ष्म पालेखन हुआ है जिन पर से युगों के बाद विस्मति का प्रावरण अपसारित किया गया है, पुरातात्विक व्याख्यानों की मीमांसा की गई है, आत्म-विवरणों की सरलता और सजीवता प्रदर्शित हुई है और देशीय ख्यातों अथवा इतिवृत्तों के जो उद्धरण अनूदित किए गए हैं उनकी महाकाव्यात्मकता एवं ग्रन्थकर्ता की प्रोजपूर्ण निजी शैली, जो यद्यपि प्राच्य रचनाओं की हीनता से प्रभावित होकर कहीं-कहीं अपनी शुद्धता खो बैठी है, मिल कर कितने ही अनुच्छेदों में उत्कट और उच्चतम प्रवाह-पूर्णता को उद्भूत करते हैं । राजपूत इतिहास की कतिपय आँखों देखी महत्त्वपूर्ण घटनाओं के इतिहासकार ने, जो कितने ही मामलों में स्वयं मध्यस्थ रह चुका था, सोत्साह इस विवरण में निजी भावनाओं का भी एक अंश सन्निविष्ट कर दिया है जिसमें उसके जीवन के कितने ही साहसिक कार्यों का व्यौरा भी सम्मिलित है। यदि यह इतिहास लेखन के कड़े नियमों के विरुद्ध हो (यद्यपि Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा प्रथम भाग की भूमिका में ग्रन्थकार ने स्पष्ट लिख दिया है कि उसका प्राशय इस विषय को इतिहास की अलंकरण-हीन शैली में बाँधने का कभी नहीं रहा है क्योंकि ऐसा करने से बहुत-से ऐसे ब्यौरे छूट जाते जो राजनीतिज्ञ और जिज्ञासु अध्येता के लिए समानरूप से लाभकारी हैं) तो भी विवरण में जो यथार्थता और ताजगी आ गई है उससे पाठक लाभान्वित ही होता है और इसके द्वारा प्रस्तुत चित्रों में वर्णनकर्ता के चरित्र एवं गुणों का स्पष्ट पाभास मिलता है। ___ इस महान् ग्रन्थ के केवल वे ही अंश दोषरहित नहीं माने गए हैं जो मीमांसा-परक हैं-जैसे, राजपूतों की सामन्त-प्रणाली पर उसका अपूर्व निबन्ध और वे अनुच्छेद जिनमें ग्रन्थकर्ता ने पूर्व और पश्चिम के रीतिरिवाजों, विश्वासों और व्यक्तियों के ऐक्य एवं समानता की मान्यता का पूर्व-संस्थापन करने के प्रति शब्द-साम्य के ही दुर्बल आधार पर प्रत्यक्ष और अत्यधिक अभिरुचि प्रदशित की है । परन्तु, इनमें से बहुत से विचार आनुमानिक रूप में प्रस्तुत किए गए हैं यद्यपि वे सभी निर्व्याज और पापात-सत्य प्रतीत होते हैं, और वास्तव में कुछ सत्य हैं भी। मेजर विल्फोर्ड (Major Wilford) और यहां तक कि सर विलियम जोन्स (Sir William Jones) के अविमृश्यकारी निष्कर्ष भी, हमारे हिन्दू-साहित्य-विषयक ज्ञान के बाल्यकाल में, मानव-मस्तिष्क की रचना के उस स्वाभाविक और आवश्यक प्रभाव से अछूते न रह सके जिसके कारण वह पूर्वाग्रह के वश होकर विपरीत दिशा में घूमने लगता है; और, ऐसे प्रमाण, जो बँक्ट्रिया के सिक्कों, अफगानिस्तान के तोपे (Topes) और हिन्दुस्थान के शिलालेखों से निष्पन्न हुए हैं और योरपोय विद्वानों की कुशाग्रबुद्धि एवं लगन से जो उनके भेद खुल कर सामने आए हैं (जिनमें से बहुत से कर्नल टॉड' के साहसिक अनुमानों को सत्य प्रमाणित करने वाले प्रतीत होते हैं) वे सब भी पूर्वीय और पश्चिमीय जातियों के मूल-सम्बन्ध-विषयक हठधर्मी के रोग का शायद ही उपचार कर सके हों, यद्यपि इनकी बोलियों में व्याकरण-सम्बन्धी समानताएं और ' जब योरपीय संग्राहकों का मुद्रा-संकलन-उद्योग भारत में बढ़ने लगा और उसके मूल्यवान् परिणाम निकलने लगे तो कर्नल टॉड ने अपने एक मित्र को सूचना देते हुए लिखा है कि 'मुद्रा सम्बन्धी अनुसंधान बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रानन्दप्रद हुए हैं; परिमाण और मूल्य को देखते हुए उनसे मेरे सभी अनुभवों को सम्पुष्टि हुई है, जो मैं समय-समय पर प्रकट करता रहा हूं। क्या प्राप मेरे उस अनुमान को सत्यता का अनुभव करते हैं, जो मैंने रोम से लिखे हुए पत्र में व्यक्त किया था कि फारस की खाड़ी और मैसोपोटेमियां क्दिमन सिक्कों के घर हैं ? Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थका-विषयक संस्मरण [ ३६ अति प्राचीन काल से चले आ रहे पारस्परिक सम्बन्धों की मान्यताएं सम्यक् प्रतिष्ठापित हो चुकी हैं। योरप और राजपूताना की सामन्त-प्रणाली की एकरूपता का सिद्धान्त तो शाब्दिक समानता की अपेक्षा सुदृढ तथ्यों पर अधिक आधारित है । परन्तु, जैसा कि 'इतिहास' की एक समीक्षा' में कहा गया है, 'सनिक आधार पर भूमि का अधिकार-भोग प्रदान करने से, जो जन-सुरक्षा के हित में एक सरल और स्पष्ट आवश्यकता है, सभी जगह न्यूनाधिक रूप में समान सम्भावनाओं का ही जन्म होता है।' पूर्वीय देशों की सामन्त-प्रणाली-विषयक विचार कर्नल टॉड से पूर्व के विद्वान लेखकों के ध्यान में आ चुका था परन्तु उन विचारों को प्रत्यक्ष प्रमाणों के द्वारा सुदृढ़ता प्रदान करने का श्रेय उसी को प्राप्त है । अस्तु, इन दोनों प्रणालियों में दो महत्वपूर्ण भेद हैं। पूर्व में विशेषतः राजस्थान में, भूमि और उसकी मिट्टी पर उपज के आधार पर राजस्व के अतिरिक्त, राजा का कोई अधिकार नहीं है । हमारी सामन्त-प्रणाली में, मुख्य सिद्धान्त यह है कि राजा ही राज्य का सार्वभौम स्वामी और मूल स्वत्वाधिकारी होता था और समस्त अधिकार उसी में निहित होते थे तथा उसी से प्राप्त किए जा सकते थे। फिर, हमारी सामन्तप्रणाली में कृषक अथवा दास कोई सम्पत्ति प्राप्त नहीं कर सकता था और यदि वह कोई भूमि खरीद भी लेता था तो वह स्वामी उसमें घुस कर स्वेच्छा से उसका उपयोग कर सकता था, जब कि राजस्थान में 'रयत' अथवा किसान हो भूमि का असली मालिक होता है । १६ नवम्बर, १८२६ ई० को कर्नल टॉड ने. लन्दन के सुप्रसिद्ध भिषक् डॉक्टर क्लटरबक (Dr. Clutterbuck) की पुत्री से विवाह किया। उसके स्वयं ' एडिनबर्ग रिव्यू, अक्टूबर १८३० । • रिचार्डसन ने अपने 'अरबी फारसी कोश (Persian and Arabic Dictionary) को विद्वत्तापूर्ण भूमिका में सामन्त-प्रणाली का उद्गम विशुद्ध रीति से पूर्वीय देशों में हुमा माना है। वह कहता है कि फारस, तातार, भारत और अन्य पूर्वीय देशों में अत्यन्त प्राचीन काल से लेकर वर्तमान क्षण तक और किसी प्रकार की शासनप्रणाली का विवरण ही नहीं दिया जा सकता। हमारी सामन्त-प्रणाली के उद्गम और उत्थान में विशेषता है। यह एक विदेशी पौधे के समान है जिसके परिणामस्वरूप हमारे योग्य से योग्यतम पुरातत्वानुसन्धानकर्ता का ध्यान इसकी पोर प्राकर्षित हुआ है। जब कि पूर्व में यह प्रथा स्वदेशी, सार्वदेशिक और चिरकालागत रही है इसलिए किसी भी पूर्वीय इतिहासज्ञ ने राजप्रणाली के अतिरिक्त उसके उद्गम का तलाश करने का स्वप्न में भी विचार नहीं किया है। पृ० ६२-६३ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पश्चिमी भारत की यात्रा एवं उसकी श्रीमती के स्वास्थ्य को विशेष अवस्था के कारण उनको प्रायद्वीप के विभिन्न भागों की यात्रा करनी पड़ी। इन्हीं यात्राओं के प्रसंग में सेवॉय (Savoy) से गुजरते हुए वह काउण्ट डी बॉइने (Count de Boigne) से भेंट करने गया, जो सिन्धिया का सुप्रसिद्ध सेनापति था और जिसकी अनुशासित सेना के सामने अशिक्षित राजपूतों का शौर्य भी कुछ काम न कर सका था; नतीजा यह हुआ कि सन् १७६० ई० में मेड़ता के रणक्षेत्र में स्वतंत्रता की वेदी पर चार हजार राजपूतों का बलिदान हो गया। कर्नल टॉड ने उस परम अनुभवी जनरल के चम्बेरी (Chamberi) की सुरम्य घाटी में स्थित शाही निवासस्थान पर प्रानन्दपूर्वक दो दिन व्यतीत किए। अपनी इन यात्राओं में और जब-तब इङ्गलैण्ड में आकर ठहरने के समय में वह कभी निठल्ला नहीं बैठा अपितु अपने समय, धन और स्वास्थ्य का भरपूर उपयोग साहित्य-साधना में करता रहा । पौर्वात्य विषयों के अध्ययन, निजी ज्ञान और अनुभवों को संसार भर में फैला देने की योजनाएं उसके विकसित मस्तिष्क में उमड़ती रहती थी जिसके कितने ही प्रमाण उसके शोध-पत्रों से स्पष्ट व्यक्त होते हैं । उसने चन्द' के काव्य का अनुवाद करने की योजना बनाई , भविष्य-कथन की विशिष्ट शक्ति के कारण त्रिकाल' (दशी) कहलाने वाले 'चान्द' अथवा 'चन्द' के विषय में कर्नल टॉड ने अपने लेखों में यत्र-तत्र टिप्पणियां की हैं। उसका समय बारहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण था । वह दिल्ली के अन्तिम चौहान सम्राट पृथ्वीराज का साथी और राजकवि था। उसके काव्य में उनहत्तर अध्याय है, जिनमें १,००,००० पद्य हैं। इनमें यद्यपि पृथ्वीराज के ही पराक्रमपूर्ण कार्यों का वर्णन है, फिर भी यह रचना-समय का एक व्यापक इतिहास है। इस सेनानी सम्राट के युद्ध, उसकी मित्रताएं, उसके शक्तिशाली अनेक सामन्त, उनके गढ़ और वंशपरम्परा, जिनका विवरण चन्द ने इस काव्य में दिया है, सब मिल कर इसको ऐतिहासिक, भौगोलिक और पौराणिक चित्रों एवं रंग-ढंग-सम्बन्धी बहुमूल्य असाधारण संस्मरणों का प्राकर-ग्रन्थ बना देते हैं । कर्नल टॉड का कहना है "इस ग्रन्थ का अच्छी तरह पाठ करना प्रानन्द का निश्चित मार्ग है। और मेरे 'गुरु' इसमें परम प्रवीण थे। वे पढ़ते थे और मैंने साथ-केसाथ ३०,००० पद्यों का अनुवाद कर डाला था। जिन बोलियों में यह काध्य लिखा गया है उनसे परिचित होने के कारण मुझे कई बार ऐसा भान होता था कि मैंने कवि के भावों को पकड़ लिया है। परन्तु, यह कहना तो अनुमान मात्र होगा कि मैं अपने अनुवाद में भी उसका सम्पूर्ण चमत्कार ले पाता था अथवा उसके सन्दर्भो को पूरी गहराई को अच्छी तरह समझ लेता था । परन्तु, यह में अवश्य जान जाता था कि वह किसके विषय में लिख रहा है। उसके द्वारा प्रस्तारित प्रसिद्ध चित्रों [पात्रों और भावों को में नित्य-प्रति उन लोगों के मुख से सुनता था जो मेरे प्रासपास सदैव ही बने रहते थे और जो उन मनुष्यों के Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ग्रन्थकर्ता-विषयक संस्मरण [ ४१ और आंशिक रूप में उसे परी भी को-निस्सन्देह, इस महान कार्य के लिए किसी अन्य व्यक्ति में इतनी योग्यता भी नहीं थी; रासो के पांचवें 'समय' का जो प्रादर्श रूप में अनुवाद करके उसने छपवा कर स्वकीय मण्डल में प्रचा. रित किया था वह उसकी बहुमुखी ऐतिहासिक-ज्ञानयुक्त प्रभूत टिप्परिणयों से दीप्त है और उसमें मूललेखक की किसी भी अभिव्यक्ति को अस्पष्ट अथवा दुर्गम्य या दुर्बोध रूप में नहीं छोड़ा गया है-परम खेद का विषय है कि वह अपनी इस योजना को पूरी करने के लिए जीवित नहीं रहा । उसके अन्तिम प्रयास को कृति पाठकों के सामने है; १८३४ ई० की शोत ऋतु का मुख्य भाग उसने रोम नगर में इसी कार्य के लिए बिताया था; सम्भवतः इसी महान् परिश्रम को, जिसका फल उसे रोग से परम अशक्त हो जाने तक भी नहीं मिल पाया, उसकी असामयिक मृत्यु का कारण समझा जा सकता है। वह अपनी छाती में पीड़ा के रोग पर विजय प्राप्त करने की प्राशा में १८३४ और १५३५ ई० के कुछ महीनों तक इटली में रहा और अन्त में ३ सितम्बर को इंगलैण्ड लौट आया। जब वह अपनी माता से मिलने हैम्स्फायर (Hampsphire) गया तब उसने इस ग्रन्थ के अन्तिम प्रकरण लिखे और इस प्रकार यह पूरा हो गया; केवल कुछ टिप्पणियाँ और परिशिष्ट ही बाकी रह गया था। उसने रीजेण्ट-पार्क' में अपने नगर-निवास के लिए एक मकान खरीद लिया था इसलिए वहां पर राजधानी में स्थायी रूप से रहने तथा अपनी इस कृति को प्रेस में देने के लिए पूर्ण उत्साह लेकर वह १४ नवम्बर को लन्दन चला आया। उसके चेहरे पर सुधार और उत्साह में वृद्धि देख कर यह दृढ़ पाशा बँध गई थी कि उसे पूर्ण स्वास्थ्य पुनः प्राप्त हो गया है। सोमवार, १६ नवम्बर, १८३५ ई० को उसके, नौ वर्ष पहले हुए, विवाह की सालगिरह थो-उसी दिन अपने व्यौहरिया मैसर्स रोबर्ट स् एण्ड कम्पनी, लोम्बार्ड स्ट्रीट (Messrs Roberts. वंशज थे जिनका चित्रण उसने किया है। अतः मैं उन कठिनस्थलों का अर्थ भी तुरन्त समझ लेता था जहाँ अच्छे-अच्छे काव्य-पारखी भी असफल हो जाते थे।' जिस भाषा में यह काव्य रचा गया है उसके विषय में (एक हस्तलिखित टिप्पणी में) उसने कहा है 'प्रांतीय बोलियों में जो भिन्नता पाई जाती है उसको हम उस भिन्नता के समानान्तर मान सकते हैं जो Langnedoc और Provence नामक प्रान्तीय बोलियों और इनकी जननी रोमन में हैं और यही बात 'भाखानों अर्थात् मेवाड़ और ब्रज की बोलियों और संस्कृत पर लागू होती है।' क. टॉड द्वारा 'संयोगिता समय' नामक कथा का काव्यात्मक पद्यानुवाद एशियाटिक जर्नल सोसाइटी के, भा॰ २५ में प्रकाशित हो चुका है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा and Company, Lombard Street) से लेन-देन करते समय उसे परमार (मिरगी) का दोरा हो गया; पन्द्रह मिनट में हो उसकी जबान बन्द हो गई और सत्ताईस घण्टों तक बेहोश रहने के बाद १७ नवम्बर को तरेपन वर्ष की अवस्था में उसका देहान्त हो गया। कर्नल टॉड का शरीर औसत कद से कुछ लम्बा था, गठन देखने में सुदृढ़ थी और व्यक्तित्व प्रोजस्वी प्रतीत होता था। उसका चेहरा खुला हुआ और हँसमुख था, अङ्गप्रत्यङ्गों में अभिव्यक्ति थी और जब कभी साहित्यिक अथवा वैज्ञानिक, विशेषतः भारत और राजपूताना से सम्बद्ध विषयों पर बातचीत होती तो एक असाधारण उल्लास से वे प्रदीप्त हो उठते थे। उसका ज्ञान व्यापक और बहुमुखी था, उसके लेखों से एक विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है, विशेषतः इतिहास सम्बन्धी विषयों पर, जिनमें उसने पूर्वीय एवं पश्चिमी ग्रन्थकारों के समस्त ज्ञान को समेट लिया है। संस्कृत एवं अन्य पूर्वीय साहित्यिक भाषाओं से तो वह इतना सुपरिचित नहीं था परन्तु पश्चिमी भारत की बोलियों से उसका गहरा सम्बन्ध था जो उसके लिए मौखिक जानकारी प्राप्त करने एवं बातचीत का मुख्य साधन बनी हुई थी और जिनमें राजपूताना के ऐतिहासिक ज्ञान-विज्ञान का भण्डार भरा पड़ा है। उसके चारित्रिक गुणों में अदम्य उत्साह, परले दर्जे का साहस, निर्णयात्मक सूझ और अध्यवसाय तथा अपरिवर्तनीय दढ़संकल्प प्रमुख थे तथा अपनी स्वतंत्र प्रात्मशक्ति के कारण अन्याय एवं अपहरण के विरुद्ध वह चिढ़ कर विद्वेषी (विराधी) भी बन जाता था। स्वभाव में दयालुता, स्नेहभाव की ऊष्मा, व्यवहार को रम्यता, स्पष्टवादिता और निर्व्याज सरलता के कारण उक्त गुणों में चार चाँद लग गए थे; बिरले ही मनुष्यों में हृदय की ऐसी पारदर्शी स्वच्छता पाई जाती है जिसको इसकी आपात दुर्बलता छू न पाई हो। अमर्यादित अधिकारों का उपभोग करते हुए रियासतों पर शासन करने के उपरान्त भो-क्योंकि भारत में राजनैतिक प्रतिनिधि के अधिकार बहुत विस्तृत हैं-सत्ता का मद, उद्वेगकारक कर्तव्यों से उत्पन्न चिड़चिड़ाहट और रह-रह कर होने वाले रोग के आक्रमण भी उसके स्वभाव में संक्षोभ पैदा न कर सके और न उसके चारित्रिक सद्गुणों में ही कोई परिवर्तन ला सके; उसके सहयोगी अधिकारी बन्धुओं ने अन्त तक उसको वैसा ही मिलनसार और सौजन्यपूर्ण पाया जैसा कि वह अट्ठारह वर्ष को अवस्था में १४ वीं 'नेटिव इन्फेण्ट्री में अधीनस्थ कर्मचारी के रूप में था। राजपूताना जैसे प्रदेश में राजनोतिक पुननिर्माण के लिए कर्नल टॉड से अच्छा और कोई आदमो नहीं मिल सकता था, जिसकी भावनाएं और गुण, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ता-विषयमा संस्मरण [ ४३ बहुत सी बातों में यहां के निवासियों से पूर्ण मेल खाते थे; इस प्रकार इनमें ऐसा भावात्मक तालमेल बैठ गया था कि एक ओर विश्वास में वृद्धि होती जा रही थी तो दूसरा पक्ष महान् नैतिक प्रभावों से प्रेरित हो रहा था। हमारे योग्यतम आंग्ल-भारतीय राजनीतिज्ञों का कथन है (जिसके लिए स्थानीय अनुभव आवश्यक नहीं है, क्योंकि वह मूलभूत मानव-प्रकृति पर आधारित है) कि कोई भी योरपीयन हिन्दुओं में रह कर सुग्राह्य एवं उपयोगी कार्यकर्ता सिद्ध नहीं हो सकता जब तक कि वह उनकी भाषा, चलन और संस्थानों से परिचित न हो और साथ ही उसमें समान भाव से सामाजिक स्तर पर उन लोगों में घुलमिल जाने की क्षमता न हो । ऐसी दशा में, सुधार के प्रतिरोधक पूर्वाग्रह दोनों ही पक्षों में से तिरोहित हो जायेंगे; जब उन्हें यह ज्ञात हो जायगा कि उन्हें जो सुझाव दिये जा रहे हैं वे उनकी भलाई के लिए गम्भीर और दृढ़ भावनाओं पर आधारित हैं तो भारतीय-जन हमारे दृष्टिकोण को तुरन्त अपना लेंगे; और उधर, जैसा कि सर थामस मुनरो ने ठीक ही कहा है 'जो लोग अधिक से अधिक समय तक यहां के निवासियों के बीच में रह चुके हैं (जो उनके पक्ष में सुदृढ़ दलील है) वे प्रायः उनके विषय में ऊंचे-से-ऊँचे विचार रखते हैं।' अन्यतम गम्भीर विचारक कोलक का मत है कि 'जो योरोपियन यहां के निवासियों में कभी घुला-मिला नहीं है वह उनके मौलिक गुणों को नहीं जान सकता और इसीलिए उनको पसंद नहीं करता क्योंकि जब वे मिलते हैं तो एक ओर भय छ'या रहता है और दूसरी ओर अभिमान एवं सत्ता का मद ।' राजा से लेकर सामान्य कृषक तक से जो स्नेह और लगाव कर्नल टॉड ने प्राप्त किया था वही उसकी सफलता का महान् रहस्य था, जो बृटिश भारत के शासकों को क्रियात्मक पाठ पढ़ाने वाला था। __ स्थानीय गुणों को जानकारी और गम्भीर प्रापत्कालीन परिस्थितियों में उसके प्रयोग-विषयक नैतिक बल का जागत उदाहरण हमें निम्न उपाख्यान में मिलता है, जो उसने स्वयं लेखबद्ध किया है।' १८१७-१८ ई० में युद्ध विराम ' लीग (Glicg) लिखित सर थामस मुनरो का जीवन चरित्र; भा० २, पृ. १२; दक्षिण के कमिश्नर मिस्टर चैपलिन कोई बीस वर्ष से भी अधिक समय तक भारतीयों के सम्पर्क में रहे थे; उन्होंने १८३१ ई० में पूर्व भारतीय विषयों की लोक-समिति में प्रकट किया था कि जैसे-जैसे मैं देशी जनों के अधिक सम्पर्क में पाया वैसे-वैसे ही मेरा मत उनके विषय में अच्छा से अच्छा होता चला गया और वे संसार के किसी भी देश के निवासियों के मुकाबले में उत्कृष्ट प्रमाणित होंगे।' २ एशियाटिक जर्नल, वॉल्यूम १६; पृष्ठ २६४ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] पश्चिमी भारत की पात्रा के बाद जनरल डॉन्किन की (दक्षिणी) सेना को आज्ञा हुई कि वह मेवाड़ को शत्रुओं से शून्य कर दे और कुम्भलमेर के सदढ़ दुर्ग को अधिकृत करले, जिसका रक्षक-दल अति दुर्दम्य था। पोलिटिकल-एजेण्ट कर्नल टाँड को जब यह ज्ञात हुआ तो वह स्थिति-स्थल पर आया और उसने आपसी बातचीत से प्रभाव डालने का निश्चय किया। जनरल के मना करने पर भी बुटिश थाने और गढ़ के बीच प्राधे रास्ते आगे जाकर उसने अकेले ही सरदारों से मिलने की इच्छा प्रकट को । उन्होंने भी स्वीकार कर लिया; चार सरदार उसके साथ एक चट्टान पर बैठे और आधे घण्टे में ही सब कुछ ठीक हो गया अर्थात् सेना को चढ़ा हमा वेतन मिल जायगा और दूसरे ही दिन प्रातःकाल बृटिश दल को प्रथम द्वार पर अधिकार दे दिया जायगा । सूर्योदय होते ही कर्नल टॉड कर्नल केसमेण्ट की अध्यक्षता में सेना लेकर चल पड़ा। जो रुपया वसूल होना था वह ४०,००० (४,००० पौण्ड) था; कर्नल केसमैण्ट को जो मिला वह केवल ११,००० रु० था; परन्तु, पोलिटिकल एजेन्ट अपने साथ एक स्थानीय साहूकार को लाया था जिसने बाकी रकम की हण्डी लिख दी और वह स्वीकार कर ली गई; ज्योंही एक इञ्जीनियर मैदान से २५००० फीट की ऊंचाई पर स्थित इस स्थान के घेरे की सम्भावना की रिपोर्ट लेकर पहुंचा तो किला तुरन्त खाली कर दिया गया; यह तीन ओर से आक्रमण के लिए खुला था और पुलिया का रास्ता भी सरल था और कोई शरण-स्थान भी उपलब्ध नहीं था । इजीनियर (मेजर मॅक्लिप्रॉड Major Macleod) ने बताया कि उसने छः सप्ताह तक एक भी बन्दूक मोर्चे पर नहीं लगाई। 'यह बताने के लिए, कि उसने जो प्रकार अपनाया था वह कितना सरल और पूर्ण था तथा यदि इनको भावनाओं और पूर्वाग्रहों के माध्यम से व्यवहार किया जाय तो यहाँ के लोग कितने विनय है, उसने समझोते का विवरण लिखा है "विवाद का प्रारम्भ एक असम्बद्ध विषय से हुमा क्योंकि मतभेद और वैमनस्य होने पर भी इन लोगों के सौजन्य में किसी प्रकार की कमी नहीं पाती। मेरा पहला प्रश्न प्रत्येक सरदार के 'वतन' के बारे में था, जो प्रत्येक मानवीय प्राणी के लिए रुचि का विषय है। वे सब मुसलिम थे और उनमें से दो रुहेलखण्ड से पाए थे; इन लोगों से मैंने इनके 'वतन', वहां के शहरों, जिनको मैं देख चुका था और वीर हाफिज रहमत के बारे में बातचीत की। दूसरे लोग सिंधिया की सेवा में रह चुके थे और हम लोग छावनी में मिल चुके थे । कोई दस मिनट इन बातों में लगे होंगे कि सहानुभूतिपूर्ण नैतिक बन्धनों ने हमारे बीच से अपरिचितता को दूर हटा दिया। जब आपस में विश्वास पैदा हो गया तो मुख्य बात पर विचार प्रारम्भ हुमा और मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि कुम्भलमेर को समर्पित कर देने में उनका हित ही होगा, अपयश नहीं। मैंने उनको स्थिति को कठिनाई बताते हुए यह भी कहा कि एक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थका-विषयक संस्मरण कर्नल टॉड के कुछ मित्रों ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अफसरों को सम्राट की ओर से सम्मानित किया गया तो उसका नाम उपेक्षा में रह गया । ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसकी सेवाओं का अवमूल्यन किया गया हो प्रत्युत 'कोर्ट आफ डायरेक्टर्स' (संचालक मण्डल) ने सदा ही उसकी सुन्दर सराहना की थी; और महान भारतवर्ष को संस्थापना के प्रश्न से पूर्व हुई जाँच में पश्चिमी भारत को लेकर उसके अनुभव और निर्णयों को सरकार ने प्रसन्नता-पूर्वक ग्रहण भी किए थे। सन् १८३३ ई० में हुई 'पूर्वीय-भारत सम्बन्धी' विषयों पर लोक-सभा की समिति ने अपने अन्तिम साक्ष्य-विवरण (Minutes of Evidence) की रिपोर्ट के परिशिष्ट में वह प्रशंसनीय लेख-पत्र भी विशेष रूप से छपवाया है, जो उसने इस पर लेखबद्ध किया था। उसके लिए कुछ वैधानिक बाधाएं अवश्य थीं परन्तु यदि उसके स्वभाव में अपने प्राप्य के लिए याचना करने वालो बात होती तो वे सब टाली जा सकती थों और वह उन लोगों के मुकाबले में घाटे में न रहता जिन्होंने अपने आपको ‘राजमुकुट' की कृपा प्राप्त करने योग्य मनोवृत्ति का बना लिया था। कुछ ऐसे अवसरों पर उसका नाम शामिल न करने में बहाना बनाते हुए कर्नल टॉड को सूचित किया गया कि जो व्यक्ति सेना में सक्रिय सेवा से निवृत्त हो चुके थे अथवा जो सैनिक सेवाओं के लिए औपचारिक रूप से राजपत्रित नहीं थे उनको ऐसा सम्मान नहीं दिया गया था। ऐसे कारणों की निरर्थकता पर उसने समय-समय पर टिप्पणी को है जिससे ज्ञात होता है कि ऐसी टालमटोल से वह कुछ ग्राहत हो गया था। परन्तु, यदि कोई ऐसा चिह्न उसे प्राप्त भी होता तो उससे सार्वभौमसत्ता सप्ताह पहले जो परिस्थिति थी अब यह भी नहीं रही है कि उन्हें मारवाड़ से नित्र और रसन दोनों मिल सकें क्योंकि मैदान वाले सरदार को मेरे कथनानुसार सभी रास्ते बन्द कर देंगे; यह बात तो वे लोग अच्छी तरह जानते ही थे कि उन्होंने वहाँ और मारवाड़ में बहुत से शत्रु पैदा कर लिए थे; इसका फल यह होगा कि वे सही-सलामत लौर भी न सकेंगे--परन्तु, यदि वे प्रात्म-समर्पण कर देंगे तो इसका दायित्व लेने को में तैयार था" ' टॉड के एक मित्र ने लिखा है 'यह बड़ी विचित्र बात है कि जिसने कला और साहित्य के लिए तथा सैनिक और कूटनीतिक पदों पर रहते हुए इतना काम किया उतको सम्राट् की ओर से कोई सम्मान न मिले; परन्तु, वह ऐसा प्रादमी था कि जो कुछ उसका प्राप्य अधिकार था उसके लिए याचना करने के निम्नस्तर पर उतरना कभी पसन्द नहीं करता था।' Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ 3 पश्चिमी भारत की यात्रा के सम्मान-चिह्न का ही मूल्य बढता; फिर भी, ऐसी उदारचेता जाति से जो दृढ-मूल प्राभार का विशिष्ट सम्मान उसने प्राप्त कर लिया था और उन लोगों में उसकी स्मति चाव से मनाई जाती है अथवा आने वाली पीढियों तक कायम रहेगी, वह सम्मान ऐसे छुट-पुट सम्मानों से कहीं बढ़ कर उसके लिए प्रात्मसन्तोष देने वाला सिद्ध हुआ। राजस्थान का भविष्य कुछ भी हो-परन्तु, इसको विनाश से सम्पन्नता और अराजकता से शान्ति की स्थिति में पहुँचाने, इसका उदार-हृदय शासक और सुसंस्कृत इतिहासकार होने, डाकुओं और पिण्डारियों के अतिरिक्त यहां के सभी निवासियों का समानभाव से स्नेह प्राप्त करने तथा अपने शासन में असाधारण पक्षपात रहितता एवं मृदुता के कारण ईर्ष्यालु सरकार के निराधार सन्देहों का शिकार बनने का श्रेय और प्रशंसा तो टॉड ही को प्राप्त है जिसके कारण उसके नाम को डङ्कन, क्लीवलैण्ड और अन्य गिने-चुने 'भारत-मित्रों' की श्रेणी में रखने से कभी नहीं रोका जा सकता और इससे बढ़ कर दूसरा कोई वंशचिह्न उसके कुल को प्राप्त भी नहीं हो सकता था। कर्नल टॉड के दो पुत्र और एक कन्या थी। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय लेफ्टिनेण्ट कर्नल जेम्स टॉड लिखित पश्चिमी भारत की यात्रा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण -१ प्राक्कथन ; यात्रा का उद्देश्य; ग्रन्थकर्ता के भारत छोड़ने का कारण; ग्रन्थकर्ता के प्रति देशी राजानों की श्रादर-भावना; बम्बई के लिए प्रस्तावित मार्ग । १-७ प्रकरण - २ उदयपुर से प्रस्थान; गोगुंदा के दर्श में प्रवेश प्रान्त की छवि; घस्यार; कृष्ण का एकान्तवास; सेवकों की विदाई जलवायु में सुधार; बरूनी दर्रा का मन्दिर; पहाड़ियों का भूगर्भशास्त्र; गोगुंदा; राजस्व; कृषि; गोगुरौंदा का सरदार; उदयपुर और गोगुंदा के घरानों में वैवाहिक सम्बन्ध; राजपूताना में बेमेल सम्बन्धों का परिणाम; कोठारिया के राव; सैमूर; अरावली की छवि और जलवायु; वनस्पति; कृषि; पहाड़ी राजपूतों के चरित्र; गाँवों के मुखिया; उनकी परम्परागत कथाएं; पोशाक निवास बनास का उद्गम; नदी का भांख्यान; अरावली का पश्चिमी ढाल ; दर्श की महिमा ; वनस्पति; फल-फूल । प्रकरण -३ विषयानुक्रम प्रकरण -४ ग्रन्थकर्ता के प्रति सेवकों का कृतज्ञभाव; घाटी की संकड़ाई; समाधि का पत्थर; मीणों की चढ़ाई; भीलों की शक्ति व उनका स्वभाव रहन-सहन; उद्गम मोर भाषा; जंगली भील; दन्तकथा; भारत के प्रादिवासी भीलों के अन्धविश्वास; भीलों की धार्मिक आस्था एवं देश-भक्ति; उनके चरित्र में परिवर्तन के कारण; सरणा या देवस्थान; स्लूंबर का राव और उसका भील घातक मासामी; लुटेरे भीलों को फाँसी ; सरिया लोग, उनका स्वभाव और रहन-सहन । ८-२६ बीजीपुर [विजयपुर ]; अरावली का दृश्य; ऋतु की प्रतिकूलता, रायपुर [राणपुर ] जी का मन्दिर; सिक्के ; पुराने कस्बे; जैन साधुयों के प्रति राणाजी का सम्मान; बीजीपुर की भ्याद [भायात]; सीरिया प्रोर सौर प्रायद्वीप के बीच धार्मिक विचारों का २७-४६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा मीरणों के गाँव; प्रादान-प्रदान; वीर गांव; मीरणों के झगड़ों का उपाख्यान; चौखटे पर तेज गर्मी के विभिन्न प्रभाव; बही ग्राम; देवड़ा राजपूतों की राजधानी, सिरोही; शिव मन्दिर; चौहानों के इण्डो-गेटिक रीति-रिवाज; सिरोही राज्य की दशा; लेखक के प्रयत्नों से इसका मारवाड़ राज्य की अधीनता से उद्घार इस प्रयत्न के लाभप्रद परिणाम; भारतीय राजानों के प्रति बरतने योग्य नीति; बृटिश भारत में कानून के संग्रह-ग्रन्थ का प्रभाव; सिरोही का भूगोल; पूर्व यात्रियों द्वारा राजपूतों का विवरण; राव से मुलाकात ; राजधानी का वर्णन देवड़ों का पूर्व इतिहास | २] प्रकरण --५ मेरिया ; जैन मन्दिर; पालड़ी; प्राबू के किनारे चढ़ाई की तैयारियों; गणेशमन्दिर; राहती या पहाड़ी लोग; पहाड़ की तलहटी को भौगोलिक बनावट; सन्तशिखर पर चढ़ाई; चोटी पर से विहंगावलोकन दाता भृगु और रामानंद को पादुका यो चरण चिह्नन; वनवासिनी सीता; गुहा गृह; विशाल दृश्य; उतराई; प्रचलेश्वर; पाशविक प्रधोरी; अघोरी द्वारा समाधि-ग्रहण; हिन्दू-विश्वासों में असंगतियाँ; जैन स्थापत्य के नियम; अग्निकुण्ड; मन्दिर; अचलेश्वर प्रासाद का वर्णन; अहमदादाबाद के महमूद बेगड़ा द्वारा देवस्थानों की लूट; नारायण की मूर्ति; शिलालेख ; राव मान की छतरी; आदिपाल की मूर्ति; प्रचलगढ़ के खण्डहर; जैन मन्दिर; घण्टाघर से दृश्यावलोकन; मूर्तियाँ; राव से भेट ; देलवाड़ा की यात्रा । प्रकरण -- ६ प्रकरण ७ ५०-७३ देलवाड़ा ; वृषभदेव का मन्दिर; इसका प्राचीन इतिहास; मन्दिर के उत्सव ; शिलालेख ; पार्श्वनाथ का मन्दिर; वास्तुकला और विवरण; इन विशाल स्थलों के विषय में विचार; बाबू के कुटीर; फल भोर वनस्पति ; अर्बुदा माता का मन्दिर; गुफाएँ; तालाब; अन्तिम उतराई का खतरा; गोमुख; वसिष्ठ का मन्दिर; मुनिपूजन, शिलालेख ; धार परमार की छतरी; पातालेश्वर का मन्दिर; मूर्तियां; विचारविमर्श: प्राबू की ऊँचाई; लेखक के बॅरामीटर की खराबी; मिट्टी की किस्म; जंगल का रास्ता; बरौ का प्राक्रमण; श्राबू की परिधि प्राबू प्रोर सिमाई के प्राकृतिक दृश्यों में भिन्नता; लेखक के स्वास्थ्य पर चढ़ाई का प्रभाव । ७४-१०२ गिरवर; चन्द्रावती; स्मारकों की दुर्दशा, लेखक द्वारा खोज; शिलालेख, चन्द्रावती की युगध्वस्त नगरी का वर्णन; वापिकाएं; सिक्के; श्रीमती ब्लेयर का रोजनामचा ; यात्रा फिर चालू; पुरानी सड़कों का त्याग; में पूर्व यूरोपीय यात्रियों के समय घुमन्तू जातियों के चरित्र; पर्वतश्रेणी: सरोतरा; मैदान में पुनरागमन; चीरा १०३ - १२६ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम सनी [चित्रासणी], पाल्हनपुर जिले का दीवान; पाल्हनपुर की पुरातन वस्तुएं; मेजरमाइल्स; सिधपुर का शिवमन्दिर; रुद्रमाला के ध्वंसावशेष; शिलालेख । १२७-१४४ प्रकरण-८ पश्चिमी भारत की प्राचीन राजधानी, नहरवाला; लेखक द्वारा उसकी स्थिति की गवेषणा प्राचीन भारत के विषय में ग्रीक भूगोल-शास्त्रियों की अपेक्षा अरब-भूगोलवेत्तामों की लघुता; नहरवाला अथवा अपहिलवाड़ा की स्थितिविषयक भूलें; गॉसलिन की भूल और हेरोडोटस की संभावित शुद्धता; भारत के 'टायर', अणहिलवाड़ा का पूर्व इतिहास; बल्हरा पद की उत्पत्ति; सूर्य-पूजा; बलभी नगर के अवशेष, बलभी से अपहिलवाड़ा में राजधानी का परिवर्तन; कुमारपालचरित्र अथवा मणहिल. वाड़ा का इतिहास; इसके उद्धरण; समकालिक घटनाएं; इस बात के प्रमाण कि भारत में ऐतिहासिक कृतियाँ प्रज्ञात नहीं थीं; पणहिलपुर की स्थापनाविषयक अनुश्रुति ; भारत की तत्कालीन क्रान्ति ; नगर की प्राकस्मिक ऐश्वर्यवृद्धि; राजाओं की नामावली; बल्हरा सिक्के; नवीं शताब्दी में मुसलमान यात्रियों के सम्बन्ध । १४५-१७१ प्रकरण-६ प्रणहिलवाड़ा का इतिहास (चालू); कल्याण के सोलंकी राजा; अहिलपाड़ा के राजवंश में परिवर्तन; समकालिक घटनाएं; कल्याण का महत्त्व; मुसलमान लेखकों का भ्रम; अपहिलवाड़ा के राजामों का क्रम (चालू); सिद्धराज, चालुक्यों की गद्दी पर चौहान राजा का उत्तराधिकार; बल्हरों के राज्यान्तर्गत प्रदेश; कुमार. पाल के कार्य; अणहिलवाड़ा के विस्तार और वैभव के सम्बन्ध में 'चरित्र' . द्वारा सम्पुष्टि; लाट देश; बौद्ध धर्म का समर्थक कुमारपाल; उसके द्वारा स्वधर्म-त्याग और इसलाम-धर्म का ग्रहण; अजयपाल । १७२-२०४ प्रकरण-१० मणहिलवाड़ा को इतिहास (चालू); भीमदेव; उसका चरित्र; प्रणहिलवाड़ा और अजमेर के युद्ध का कारण; भीम और दिल्लीपति पृथ्वीराज का युद्ध; भीमदेव का बध; पृथ्वीराज द्वारा गुजरात विजय; शिलालेख; मूलदेव; वीसलदेव; भीमदेव पहिलवाड़ा का वैभव; अर्जुनदेव; सारङ्गदेव; कर्णदेव गैला (विक्षिप्त); मुसलमानों का प्राक्रमण; बल्हरा सत्ता का प्रस्त; टाक जाति द्वारा गुजरात प्राप्ति और राजधानी का परिवर्तन; अणहिलवाड़ा नाम का पाटण में पर्यवसान; ऐतिहासिक पभिलेखों का मूल्य; परिणामों का सिंहावलोकन । २०५-२३५ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा प्रकरण-११ अहिलवाड़ा के भग्नावशेष; उनका द्रुतगति से गायब होनाः; स्थापत्य के. केवल चार नमूने, सारसेनिक मेहराब के नमूने ; इनका प्राविष्कार; हिन्दू-अणहिल. वाड़ा के अवशेषों का अहमदाबाद और आधुनिक पाटण के निर्माण में उपयोग; नए नगर में प्राचीनताएं; शिलालेखों और प्रन्थभण्डार की मुसलमानों से रक्षा; जनों की खरतर-शाखा की सम्पत्ति, ग्रन्थभण्डार के ग्रन्थ और विस्तार; जैनों के अन्य ग्रन्थभण्डार; जिनकी अभी खोज नहीं हुई; वंशराज-चरित्र । २३६-२४६ प्रकरण-१२ ___ यात्रा चालू; अहमदाबाद; यहाँ का स्थापत्य ; पहिलवाड़ा के अवशेषों का उपयोग; हिन्दू-शिल्पियों की कला; हिन्दू और इसलामी शंलियों की तुलना; खेड़ा; वर्षा ऋतु में यात्रा की कठिनाइयो; मॉनरेबुल कल स्टेन होप; खेड़ा की प्राचीन वस्तुएं; मही नदी का संकटमय मार्ग; एक सईस डूब गया; बड़ौदा; रेजीडेन्ट मिस्टर विलि. यम्स के यहाँ डेरा; बड़ौदा का इतिहास । २५०-२६० प्रकरण--१३ बड़ोदा से प्रस्थान ; गजना; हूण लोग; खम्भात; इसके प्राचीन नाम; वर्तमान नाम की गाथा; जैन-शास्त्रों का केन्द्र खम्भात; ग्रन्थ-भण्डार; नगीनों प्रादि का निर्माण, खाड़ी को पार करना; गोगो, (घोघो); शिलालेख; सौराष्ट्र का प्राचीन एवं वर्तमान इतिहास; सौर जाति का उद्गम; सीरियनों पोरं सौरों के रीति-रिवाजों में समानता; सोरों का प्रायद्वीप में बसना, आधुनिक सौराष्ट्र: सोथिक जातियों के चिहन ; सौराष्ट्र की विभिन्न जातियों; बौद्धमत का केन्द्र; देश के कतिपय पाकर्षण; गोगो और सीरम का वृत्तान्त; पूर्व पुर्तगालियों का दुष्ट पाचरण; अलबुकर्क का उपाख्यान; गोहिलों की राजधानी, भावनगर; राजा द्वारा स्वागत; रंगबिरंगा दरबार; अंग्रेज राजाओं की तसवीरें; छुट-पुट चीजें किरकिरीखाना; गोहिलराजा की जलसेना; उसके प्रधिकृत स्थान; गोहिल वंश का विवरण; समुद्री लूट, मुख्य व्यवसाय; ब्राह्मण-बस्ती, सीहोर; मेवाड़ के राजानों की प्राचीन राजधानी, वलभी; भीमनाथ का प्राचीन मन्दिर और तालाब; उपाख्यान ; तीर्थ स्थल । २६१-२८८ प्रकरण-१४ पालीताना, जैनों का तीर्थस्थान ; शत्रुञ्जय पर्वत; जैन यात्री; जैन-मत की उदारता भौर बौद्धिकता; माहात्म्य ; जनों के पाँच तीर्थ; शत्र जय के शिखर पर्वत ur निर्मित भवनों के अधिष्ठाता महापुरुष, मक्का के मन्दिर की हिन्दू शैली; शजय Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम [ ५ पर भवन निर्माण की तिथियों; पालीताना से पर्यंत तक का मार्ग; चढ़ाई; उपाश्रय मोर मन्दिर; कुमारपाल का मन्दिर; प्रादिनाथ का मन्दिर; गच्छों के पारस्परिक मत भेदों का दुष्परिणाम; मन्दिरों में पुरावस्तुएं; प्रादिनाथ के मन्दिर में गहनों की कुप्रथा; मन्दिर के ऊपर से विहंगम दृश्यावलोकन ; भादिबुद्धनाथजी की मूर्ति; रतनघर का मन्दिर; आदिनाथ की प्रतिमा; जैन तीर्थंकरों और शिव की मूर्तियों में समानता और उनके लिङ्ग; हेंगा पीर की मज़ार; उतराई; देवकी के पुत्रों के मन्दिर; भाट पवित्र पर्वत की सम्पत्ति ; यात्रियों के सङ्घ; पालीताना नाम की व्युत्पत्ति; पुरावस्तुओं का अभाव; सदैवाह और सार्वालगा की प्रेमगाथा; पालीताना का प्राधुनिक इतिहास और वर्तमान दशा । प्रकरण --- १५ गौरियाधार; प्रान्त की रूपरेखा; दम्म नगर; कृषि; प्राकला; महामारी का प्रकोप ; अमरेली; काठीक्षेत्र काठियों की पुरुषाकृति; सौराष्ट्र-प्रान्त का अधिपति; सिचाई के यन्त्र; ग्रामों के क्षुद्र दृश्य; मृगमरीचिका देवला; एक काठी सरदार; पूर्वीय और पश्चिमी जातियों के रीति-रिवाजों में समानता; जेसाजी की कथा; एक डाकू का सन्त में परिवर्तन; गढ़िया; काठियों की प्रादतें; पाण्डवों का शरणस्थल ; कुन्ती की कथा; बलदेव की मूर्ति ; तुलसीश्याम; कृष्ण श्रौर दैत्य का युद्ध; मन्दिर; हमारे मानचित्रों में प्रदर्शित इस भाग का गलत भूगोल; दोहन; खनिज ;. सूचनाएं : कोरवार; चरवाहे; श्रेष्ठ पशुधन; मूल द्वारका का पवित्र पर्वत; शूद्रपाड़ा; कृषकबस्ती में सुधार; सूर्यमन्दिर; सरस्वती का उद्गम । २८६-३१४ प्रकरण - १६. 1 पट्टण सोमनाथ अथवा देवपत्तन; इसकी प्रसिद्धि; सूर्य-मन्दिर; सिद्धेश्वर का मन्दिर; कन्हैया की कथा; उनकी निर्वारण-स्थली; भीमनाथ का देवालय; कोटेश्वर महादेव के मन्दिर में पाषाण- निर्मित त्रिशूल; प्राचीन नगर का वर्णन मूल वास्तु; नुकीली मेहराब; सोमनाथ के मन्दिर का वर्णन; दृश्य की सुन्दरता; मूर्तिभञ्जक मह मूद का नाम नगर में प्रज्ञात; सोमनाथ के नगर के पतन की कथा से सम्बद्ध हस्तलिखित ग्रन्थ; महमूद से पूर्व विध्वंस के चिह्नन; दो नये संवत्सर; प्राधुनिक नगर । ३३६-३६६ ३१५-३३८ प्रकरण - १७ दूरी के ज्ञान में प्राचीन सभ्यता के सूचक सूत्र; मिट्टी की किस्म; मन्दिर और शिलालेख; निवासी; चोरवाड़; ग्रहीर; मालिया; ऊन्याला अथवा उणियारा; जूनागढ़; प्राचीन इतिहास एवं वर्तमान दशा; प्राचीन दुर्ग का विवरण यादवों का सरोवर ; बाहरबाट की गुफा; प्रस्पष्ट अक्षर; गिरनार का प्राचीन शिलालेख ; लिपि और Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा अक्षर; देवालय ; सांकेतिक लिपि के शिलालेख; भैरू उछाल; निर्जन चट्टान, खंगार के प्राचीन महल। ३६७-३०८ प्रकरण-१२ लेखक के विचार; गोरखनाथ के शिखर पर चढ़ाई; गिरनार के अन्य शिखर; मुसलमान सन्त, कालिका के मन्दिर की कथा; अघोरी; बनवासी योगी; मन्दिर; जैनों के विविध गच्छ; देवालयों का वर्णन; शिलालेख; नेमिनाथ का मन्दिर; नेमि और मॅमनॉन की प्रतिमाओं में समानता; खंगारवंश; महल के खण्डहरों में एक रात; पर्वत की ढाल; नेमिनाथ मन्दिर के यात्री; वृद्धा यात्रिणी; हाथी-चट्टान ; डेरे पर वापसी। ३८६-४१० प्रकरण-१६ दादूसर; जिजिरी; काठीवाना; भावर नदी का परिवर्तित मार्ग; तुरसी; कण्डोरना; प्राचीन नगर; भावल, प्रान्त का दयनीय दृश्य ; गूमली ; खण्डहर; जेठयों के मन्दिर; शिलालेख; जेठवों का ऐतिहासिक वृत्तान्त; नगड़ी; देवला; अहीरों की उत्पत्ति; मुकतासर; द्वारका; निर्जन प्रदेश; द्वारका का मन्दिर; देवालय; महात्मा; मन्दिर-विषयक लोककथा । ४११-४३६ प्रकरण-२० बीरावल [वेरावल]; प्रारमरा; जूनी द्वारका; गोरेजा [गुरेजा या गुरेचा) यवनों की मजारें; समुद्री लुटेरों के पालिए; बेट अथवा शंखोद्धार; कृष्ण की कथा; बेट के शंख, राजपूतों का रणवाद्य, शंख ; समुद्री लुटेरों का दुर्ग; हिन्दू पोलो, विष्णु के मन्दिर; राजपूत कवयित्री मीरा बाई; समुद्री राजाओं के ऐतिहासिक लेख; चलदस्युमों की सचाई; नाविक घावों की सीमा। ४३७-४५० प्रकरण-२१ ग्रन्थकर्ता का नौकारोहण; साथियों से विदाई; ग्रन्थकर्ता के गुरु; कच्छ की काठी या खाड़ी; टॉलमी और एरियन द्वारा कच्छ की खाड़ी का वर्णन; रण; माण्डवी की भूमि पर पदार्पण; वहाँ का वर्णन; यात्री; अरबों के जलपोतों में अफ्रीकी कार्यकर्ता; दासप्रथा के अन्त का प्रभाव ; माण्डवी के ऐतिहासिक प्रसंग; समाधियाँ, स्मारक; सिक्के । ४५१ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्रकरण-२२ काठियों की प्राचीन राजधानी, कंथकोट; कच्छ के रावों के श्मशान; भुजनगर; जाड़ेचा सरदारों से भेट; उनकी पोशाक; राव देसल से मुलाकात; काचमहल; दीवानखाना; जाड़ेचों के विषय में ऐतिहासिक टिप्पणियाँ; यदुवंश; राजपूतों का वंशानुक्रम ; हिन्दुओं में बेटो-व्यवहार का विस्तार; यदुवंश और बौद्धधर्म; जाड़ेचों के पूर्वज, यादव; उनकी शक्ति; पश्चिमी एशिया से माई हुई इण्डो-सीथिक यादव जाति; सिन्ध-सुम्मा जाड़ेचा; वंश-वृक्ष; वंशावली में से उद्धरण; सिन्धसुम्मा जाड़ेचों का इसलाम धर्म में परिवर्तन; लाखा गरूरी के क्रमानुयायी; बहुविवाह के दुष्परिगाम; कच्छ में सुम्मा जाति की पहली बस्ती; जाड़े चों में बालवध की कुप्रथा का मूल; मोहलत मोहब्बत कोट की दुर्घटना; बालवध की कुप्रथा अब भी चालू है; प्रथम जाड़ेचा लाखा; जाड़ेचा रियासत के संस्थापक रायधन द्वारा महान् रण में उपनिवेश का नेतृत्व, भुज रियासत का संस्थापक राव खंगार, जाड़े चों की ऐतिहासिक वंशावली के निष्कर्ष । .४६२-४५७ प्रकरण-२३ कच्छ के आँकड़े और भूगोल; राजनीतिक गठन ; भायाद; राव के अधिकार; जागीरों के पट्टे; उत्तराधिकार के झगड़े; 'भतना' या अन्तर्जागीरों की समाप्ति; पश्चिमी राजपूत रियासतों और कच्छ के राजनीतिक रिवाजों में अन्तर; ब्रिटिश सरकार से सम्बन्धों की स्थापना मोर परिणाम; राव और भायाद के विवादों में वृटिशमध्यस्थता; ब्रिटिश सहायक-सेना की स्थापना; ब्रिटिश का पूर्ण अधिकार; माण्डवी; पट्टामार के बोर्ड पर, खाड़ी के पार, व्हेल मछली के दर्शन; पट्टामार के नाविकों और नाखुदा के चरित्र; बम्बई भागमन; वहाँ रुक जाने के शुभ परिणाम; उपसंहार । ४८८-५०३ परिशिष्टपश्चात् टिप्पणी अनुक्रमणिका शुद्धि-पत्र . ५०५-५४१ ५४२ ५४३ For Private & i Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] पश्चिमी भारत की यात्रा चित्र- सूची चित्र परिचय १ ग्रन्थकर्ता लेफ्टि० कर्नल जेम्स टॉड पृष्ठ संख्या श्रद्य पृष्ठ (संस्मरण) २ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में सुरक्षित प्राचीन चित्र, 'फिरंगी' टाड ३ देलवाड़ा ( आबू) के एक मन्दिर का भीतरी दृश्य अचलगढ़ का प्राचीन दुर्ग, भाबू ૪ ५ नखी सरोवर, आबू ६ चन्द्रावती में एक ब्राह्मण मन्दिर के अवशेष ७ चन्द्रावती में संगमर्मर का स्तम्भ (तोरण) ८ चन्द्रावती का एक मन्दिर 8 अणहिलवाड़ा पत्तन १० महिलवाड़ा पाटण की एक वापिका ११ खंगार के महल और मन्दिर पू. सं. २२ (संस्मरण) पू. सं. श्राद्य पृष्ठ (मूल) पू. सं. ६७ पू. सं. ११६ पू. सं. १२८ पू. सं. १३२ पू. सं. १३४ पू. सं. २३२ पू. सं. २४० पू. सं. ३७६ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Thronum Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा प्रकरण १ प्राक्कथन प्रस्तुत यात्रा का उद्देश्य; ग्रंथकर्ता के भारत छोड़ने के कारण; ग्रंथकर्ता के प्रति देशी राजामों की प्रादरभावना; बम्बई के लिए प्रस्तावित मार्ग। जिन्होंने 'राजस्थान का इतिहास' (Annals of Rajasthan) का अवलोकन किया है वे, उसकी समाप्ति के उपरान्त किसी प्रकार के प्रारम्भिक वक्तव्य की आवश्यकता का अनुभव किए बिना, सहज ही इस पुस्तक को पढ़ना आरम्भ कर सकते हैं। परन्तु यह मान कर कि पाठक मेरी एक कृति से अपर की ओर आकृष्ट हुए हैं, मैं अपनी इस अन्तिम यात्रा के उद्देश्यों के विषय में कुछ भी न कहूँ तो यह उनके प्रति अत्यन्त अनौपचारिक व्यवहार होगा; और तब, प्रस्तुत ग्रंथ में प्रचुरता से प्रयुक्त 'मैं' सर्वनाम को, किसी प्रकार का प्रात्मनिवेदन किए बिना, पाठकों पर थोप देना भी अशोभनीय होगा। निजी यात्राओं के वर्णन में यदि ग्रन्थकार अपने लिए कुछ कहने में पद-पद पर संकोच करने लगे तो उसे बड़ी कठिनाई होगी। विवरणात्मक वर्णन में बातों को निरन्तर अप्रत्यक्ष और जटिल ढंग से कहना सरल और स्वाभाविक शैली की अपेक्षा अप्रिय प्रतीत होता है जो केवल उसी अवस्था में अच्छी नहीं लगतीं जब वह अनावश्यक और कृत्रिम रूप में प्रयुक्त होती हैं। फिर, व्यक्तिगत यात्राओं के पाठक वर्णन-कर्ता के वैयक्तिक जीवन से इतना अभिज्ञ होने के तो इच्छुक होते ही हैं कि वे उन परिस्थितियों से परिचित हो सकें जिनके कारण वह किन्हीं विशिष्ट दृश्यों का विवरण उपस्थित करता है-ऐसा सम्बन्ध, प्रस्तुत प्रसंग की भांति, वर्णन की यथार्थता का प्रमाण बन जाता है। अतः निःसंकोच भाव से, आत्मश्लाघा के उपालम्भ की आशंका न करते हुए मैं अपना और अपने से सम्बद्ध विषयों का उसी प्रकार खुल कर अप्रतिहत वर्णन करता चलंगा जैसा किसी अन्य पुरुष के विषय में करता। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा ___अपनी इस सर्वाधिक आनन्दप्रद यात्रा का प्रारम्भ करते समय, सर्वप्रथम इङ्गलैण्ड छोड़ने के बाद, मैं अपने प्रवास के बाईस वर्ष पूरे कर चुका था और अगला वर्ष भी प्रायः बीत ही रहा था; इनमें से अट्ठारह वर्ष पश्चिमी भारत की राजपूत जातियों में बीते और पिछले पांच वर्षों में सरकारी राजनैतिक मध्यस्थ (Political Agent to the Government) की हैसियत से मेवाड़, मारवाड़, जैसलमेर, कोटा और बूंदो की पाँच बड़ी तथा सिरोही की एक छोटी रियासत पर मेरा पूर्ण अधिकार रहा । इस भारी जिम्मेदारी के पद पर (जिसे सम्हालने के लिए बाद में चार अलग-अलग एजेण्टों की नियुक्ति हुई) रहते हुए निरन्तर कष्टसाध्य परिश्रमपूर्ण कर्तव्यों में संलग्न रहने के कारण मेरा स्वास्थ्य इतना गिर गया था कि आगामी कार्य-सत्र का निर्वाह भी अशक्य हो जाता। नित्य बारह से चौदह घण्टों तक टंटों झगड़ों में बराबर व्यस्त रहते हुए, प्रत्येक एकान्तर दिवस पर भारी शिरोवेदना को सहन करते हए और निरन्तर श्रम से निवृत्त होना आवश्यक होने पर भी उत्तरदायित्त्व और कार्य से छुटकारा न पाते हुए मैं इस दारुण यातना को भोग रहा था और जीवित था - यही रहस्य मेरे स्वास्थ्य-समीक्षक मित्रों के लिए विस्मय का कारण बना हुआ था। यदि मुझे यह विश्वास न होता कि मेरे इस कठिन परिश्रम से सहस्रों जन उपकृत हो रहे हैं तो निश्चय ही मैं इसे सहन करने में कदापि समर्थ न होता; परन्तु बिदाई के आदेश का भार आ पड़ा था और अतीव दुःख के साथ मुझे उस भूमि से मुख मोड़ना पड़ा जिसे मैंने [मातृभूमि के रूप में] ग्रहण कर लिया था और अंत में जहाँ मैंने सहर्ष अस्थिविसर्जन कर दिया होता। यदि कभी ऐसा समय आए कि 'दुःख में भी सुख' की प्रतीति हो तो ऐसा तभी होता है जब वह उत्पन्न अथवा अनुभूत होने वाला कष्ट सेवा-भाव का परिणाम हो। भाग्य से मैं ऐसी स्थिति में पहुँच गया था कि मेरे द्वारा कुछ व्यक्तियों का ही नहीं अपितु छोटे-छोटे कई राज्यों का हित-साधन सम्पन्न हो सकता था। गरीबी और आपसो झगड़ों से छुटकारा पाकर खुशहाली एवं राजनतिक शान्तिलाम करने वाले राजा रईसों द्वारा कृतज्ञतावश जो भाव प्रकट किए गए उनके विषय में तो कुछ कहना मेरे लिए शोभनीय न होगा परन्तु देहाती जनता ने जो मुझे 'बाबा' (पिता) उपनाम दिया वह अवश्य ही मेरी , सेवाओं की यथार्थता के लिए निर्दोष प्रमाण माना जा सकता है। तैयारी में एक पखवाड़ा बीत गया। मिलने जुलने वालों के कारण अधिक अड़चन न पड़े इसलिए मैं राजधानी से उत्तर की ओर कोई एक मील दूर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण. १3 प्राक्कथन 'हाडी रानी' की मनोरम सहेलियों की बाड़ी'' में जा कर रहने लगा था। इस बाड़ी की मनोहर कुंजों और वाटिकाओं का वर्णन अन्यत्र' कर चुका हूँ। जब राणाजी अपने दरबारियों सहित 'अन्तिम बिदाई' देने आए तो मुझे मूर्तियों, शिलालेखों, धातू-पात्रों और हस्तलिखित ग्रन्थों आदि के लिए सन्दूकें बनाने वाले कारीगरों से घिरा देख कर आश्चर्य करने लगे। इस सम्मेलन के अवसर पर सभी के दिल दुःख से भरे हुए थे । यहाँ अब तक ऐसी दशा थी कि कोई भी वर्तमान सरदार 'शत्रु द्वार पर खड़ा है' इस आमन्त्रण पर तुरन्त जाग उठने की तैयारी किए बिना तकिए पर सर रख कर चैन से नहीं सो सकता था; कभी कोई पुराना शत्र 'बैर का बदला लेने आ जाता तो कभी कोई पहाड़ी धाइती आ धमकता अथवा कोई वनवासी भील उसकी गुवाड़ (गोवाट) खाली कर जाता। चिन्ता के ये सभी कारण अब समाप्त हो चुके थे; लुटेरे मरहठा, कर पठान, घर के 'वैरी' और प्रान्तीय लुटेरे पर्वत-पुत्र (मेरोत) अथवा वन-पुत्र (भील)-ये सभी भयभीत हो गये थे और उनकी तलवारें हल की फालों में बदल चुकी थीं; अतः अब सरदार लोग अपने सहज पालस्य में निमग्न हो सकते थे अथवा दोपहर में अमल की पीनक लगा सकते थे; उनके आराम में बाधा डालने वाले किसी शत्रु का भय न था। परन्तु कुछ लोगों को ऐसे शान्ति के १ यह बाड़ी महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (१७११-१७३४ ई०) ने बनवाई थी। (देखिएवीरविनोद ; पृ० १५४ व ९८१) उदयपुर में ऐसी किंवदन्ती प्रचलित है कि यह बाड़ी महाराणा संग्रामसिंह ने उन्हें बादशाद फर्रुखशियर द्वारा भेंट-स्वरूप दी हुई सर्केशियन कुमारी दासियों के लिए बनवाई थी। वे कुमारियों आजीवन यहीं रहीं और दूधतलाई पर बनी हुई कब्र उन्हीं की बताई जाती हैं। इन कुमारियों को पोलो खेलने का बहुत अभ्यास था। कहते हैं, उदयपुर के चित्रसंग्रह 'जोतदान' में ऐसे कुछ चित्र हैं जिनमें इनके पोलो खेलने का चित्रण हुआ है। परन्तु इन सब बातों का कोई पुष्ट ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। . 'कुछ पण्डितों का मत है कि इस बाड़ी व आस-पास के स्थान पर 'शैल' नामक घास बहुतायत से होती है इसीलिए इसको 'शैल-वाटिका' कहते हैं । यह 'शैल' घास प्राजकल बरू कहलाती है और इसका करण्ड पहले कलम बना कर लिखने में काम आता था। किन्तु, यह मत भी विद्वानों का बुद्धिविलास मात्र प्रतीत होता है । ___साधारणतया यह माना जाता है कि महारानियों और उनकी प्रतिष्ठित सखियों (सहेलियों) के प्रामोद-प्रमोद के लिए ही इस रमणीय उपवन का निर्माण कराया गया था। • एनल्स एण्ड एण्टीक्विटीज़ आफ राजस्थान (१९२० ई०) • महाराणा भीमसिंह (१७७८-१८२८ ई०) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा दिन श्रा जाने से कोई सन्तोष न हुआ । हम लोगों में ऐसे भी मनुष्य थे जिनके लिए यह शान्ति 'नरक' थी । ऐसे लोगों में भदेसर ( Badeswer) का सरदार हमीर और 'पहाड़ी शेर' (बहार सिंह) थे जिनके बहुत से साथियों सहित असन्तुष्ट होने का कारण स्पष्ट था, क्योंकि उनकी वंशपरम्परागत भूमि का बहुत सा भाग उस समय मरहठों ने दबा रक्खा था और उसे पुनः प्राप्त किए बिना चैन से न बैठना उनका धर्म था । जहाँ ऐसे निजी सम्बन्ध बन जाएँ वहाँ वियोग की घड़ियों में दोनों पक्षों को दुःख का अनुभव होना स्वाभाविक है । यह हमारी प्रकृति पर एक प्रकार का लाञ्छन है. जैसा कि प्रायः ढिढोरा पीट कर कहा जाता है, कि हम लोग घमण्ड में भरकर यह मान बैठे हैं कि हम से कुछ पक्के वर्ण वाले लोगों में सद्गुणों का निवास ही नहीं होता । इस अवसर पर सहज हास्यप्रियता और अर्थपूर्ण वाचालता के धनी राणाजी भी विचारमग्न हुए चुपचाप बैठे थे 1 वे बार-बार केवल इसी वाक्य को दोहराते रहे " देखना, मैं आपको तीन वर्ष की छुट्टी देता हूँ; रामदोहाई, ज्यादा ठहरे तो ढूंढ़ कर पकड़ लाऊँगा ।" परन्तु उस समय एकत्र हुए सरदारों से जो ज़ोरदार बात उन्होंने कही वह मुझे सब से अच्छी लगी, " इन्होंने पाँच वर्ष मेरे यहाँ काम किया, देश ( रियासत) को बरबादी की हालत से ऊँचा उठाया, परन्तु एक चुटकी भी मेवाड़ की मिट्टी संग नहीं ले जाते ।" उनका कथन सत्य था ; मरहठा कार्यकर्त्ताओं के उदाहरण सामने होते हुए यह बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी कि किसी विदेशी के लिए राजस्व और वित्तमन्त्री का उत्तरदायित्त्वपूर्ण कार्य निष्पक्ष रहकर पूरा करना भी सम्भव हो सकता था । और इसी में यूरोपीय ( चरित्र की ) श्रेष्ठता का महान् रहस्य विद्यमान है जो उनके स्वभाव और सहृदयता के साथ मिलकर किसी भी देशीय और विशेषतः राजपूत दरबार में अप्रतिहत प्रभाव और आदर प्राप्त किए बिना नहीं रहता । नैतिकता के मूलभूत सौन्दर्य के प्रति कोई भी मानव राजपूत से बढ़कर सजग नहीं है; और कदाचित् वह स्वभाववश अपने आप इसका पालन नहीं कर पाता है तो कोई भी अनुभवी सूत्र उसको मार्गदर्शन कराता रहता है | दो घण्टे बैठने के बाद छुट्टी लेना आवश्यक हुआ और विदाई की भेंटें प्रस्तुत हुईं। अन्त में, जैसे-तैसे, मुझे स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए कहते हुए राणाजी ने विदा लेने का प्रयत्न किया और उनका घोड़ा द्वार पर आ लगा । मैंने भी अपने भतीजे कप्तान वाघ पर मेरी तरह कृपा बनाए रहने के लिए निवेदन किया और जल्दी-जल्दी, भरे हुए दिल से, हमने आपस में अभिवादन किया । कुछ सरदार लोग अन्तिम शब्द कहने के लिए रुक गए। इनमें प्रमुख Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १: प्राक्कथन भीडर के मोटे ठाकुर थे जो इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित कर रहे : थे कि एक सच्चे राजपूत पर निष्पक्ष एवं स्पष्ट व्यवहार का क्या प्रभाव पड़ सकता है ! जब मैंने जागीरदारों और उनके स्वामी (महाराणा) के बीच मध्यस्थता स्वीकार की तब इस ठाकुर के अधिकार में से लगभग तीस कस्बे व गाँव वापस लिए गए थे जिन पर अराजकता के समय में उसने अपने पट्टे की जायदाद के अतिरिक्त कब्जा कर लिया था; और उस समय यही सरदार' उन गाँवों को लौटाने के काम में हाथ बँटा रहा था जिनके कारण उत्पन्न हुए झगड़ेटण्टे पिछले पचास वर्षों से देश में प्रापसी वैमनस्य के मूल बने हुए थे। उसने मुझे कहा, "ज्यादा क्या कहूँ, यदि स्वयं भगवान् भी आकर कोशिश करता तो मेवाड़ में शान्ति स्थापित होना असम्भव था।" ___ मैं अपने इन आनन्ददायक संस्मरणों का और भी विस्तारपूर्वक वर्णन करूँ; परन्तु, मैं समझता हूँ कि अब तक जो मैंने कहा है वही काफी लम्बा हो चुका है। किन्तु, यह बता देना तो आवश्यक ही है कि मेरे स्वास्थ्य की ऐसी गिरीपड़ी दशा में भी यूरोप जाने के लिए किसी निकटतम बन्दरगाह पर सीधा पहँचने की अपेक्षा मैंने यह लम्बी और दुष्कर खोजपूर्ण यात्रा क्यों प्रारम्भ की? ये खोजबीन की बातें, जो किसी निरुद्योगी पुरुष को यकायक थका देने वाली और भयावह प्रतीत होंगी, मेरे लिए राजकाज से अवकाश के समय मन-बहलाव के सौदे बन जाती थीं। प्राय: जब-जब भी राजधानी और अन्य चिन्ताओं से बच कर स्वास्थ्यलाभ के लिए बाहर भागना पड़ता था तब मैं कभी तो अपना तम्बू किसी घाटी के बीच की कुञ्जों में लगवा लेता अथवा विशाल बन्ध... उदयसागर से निकलने वाली बेरियों के निर्गमस्थान पर डेरा डालता या पीछोला के किसी परीलोक के टापू पर एकान्तवास करता और अपने हस्तलिखित ग्रन्थों, वृद्धगुरु अथवा कवि चन्द तथा पृथ्वीराज और प्राचीन योद्धाओं के साथ अपना समय आनन्द से बिताता रहता । मेरा ऐसा स्वभाव और शौक होने के कारण, उन इष्ट पदार्थों के सुलभ होते हए, जो कई वर्षों से मेरे विचारों में चकाचौंध पैदा कर रहे थे, मझे यह निर्णय करने में एक क्षण भी न लगा कि मैं अब उन्हें प्राप्त करने में कुछ और विलम्ब करूँ अथवा सीधा बम्बई के लिए रवाना हो जाऊँ। मैंने गङ्गा और ब्रह्मपुत्र दोनों ही की बाढ़ों का माप किया था 'महाराणा भीमसिंह और सरदारों का पारस्परिक सम्बन्ध स्थिर करने के लिए वि० सं० १८७५ (१८१८ ई०) में कर्नल टॉड के द्वारा अंग्रेजी सरकार ने जो कौलनामा तैयार कराया था उस पर बेगू के रावत मेघसिंह के पुत्र महासिंह (दूसरे) ने सबसे पहले हस्ताक्षर किए थे । - गो. ही. अोझा कृत उदयपुर का इतिहास, जि. २, पृ. ८६५ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा ___"जिनके विस्तार पर उड़ान भरने के लिए कवित्व भी पर फड़फड़ाने की हिम्मत नहीं करता।", उन स्थानों का पर्यटन किया है, जहाँ चट्टानों से घिरे हुए अवरोधों में होकर गङ्गा और यमुना बहती हैं, बहुत समय तक नदियों के पिता 'प्राबे सिन' अथवा सिन्धु की यात्रा करने का भी विचार किया और भारत की अन्य महान् नदियों में प्रधान इस शास्त्रीय नदी के मुहाने पर घूमने की कामना भी की थी। परन्तु मेरा मुख्य उद्देश्य तो यही था; बीच-बीच में आने वाली गौण इच्छात्रों में भी मेरी असीम अभिरुचि थी। मैंने पहले, भारत के देवपर्वत प्रसिद्ध ग्रा पर जाने का विचार किया और मार्ग में ऊँचे अरावली की सबसे चौड़ी श्रेणी को, औगुणा पनरावा की स्वच्छन्द भील जातियों में होकर अथवा इस विशाल पर्वतश्रेणी के उच्चतम शिखर पर विद्यमान बनास नदी के उदगम स्थान जैसे कठिनतर प्रदेश में होकर, पार करने का निश्चय किया; फिर, इसकी उत्तरी ढाल उतर कर मारवाड़ के जङ्गल की सुन्दर 'संजाफ' बने हुए इस (अरावली) के किनारे-किनारे सिरोही को पार करके प्राबू पहँचने का विचार किया। बहुत लम्बे समय से भौगोलिक एवं राजनैतिक परि. स्थितियों के कारण समाज से विच्छिन्न आदिवासी भील जातियों को देखने की प्रबल इच्छा होते हुए भी कितने ही कारणों से मुझे दूसरा ही मार्ग ग्रहण करना पड़ा। सन् १८०८ ई० में मेरे एक दल ने इस भूभाग का पर्यटन करके इन जातियों की प्रादिम एवं स्वच्छन्द प्रवृत्तियों का मुझसे वर्णन किया था, तभी से इन लोगों से मिलने की इच्छा मेरे मन में जागृत हुई थी। इसी अगम्य प्रदेश में किसी वनपुत्र को विधवा द्वारा अपने स्वर्गीय पति के तरकश में से निकाल कर दिए हुए एक तीर ने मेरे सन्देशवाहक (दूत) के लिए यहाँ की अन्यथा दुर्गम घाटियों में अभयपत्र (Passport) का काम किया था। अस्तु-इसीलिए उन टेढ़ेमेढ़े तङ्ग रास्तों को, जिनमें राणागों ने मुगल आक्रामकों को चक्कर में डाल दिया था, पार कर बनास के उद्गम स्थान और सादड़ी दरें में से मैदान में निकल कर राईपूर (राणपुर?) के प्रसिद्ध जैन मन्दिर को मैं देखना चाहता था। साथ ही, मैंने ऐसे आदमियों के एक दल को, जिनकी सूचना और चतुराई पर मुझे विश्वास था, इसलिए आगे रवाना कर दिया था कि वे किसी दूसरे मार्ग का अन्वेषण करें और आबू पाकर मेरे साथ हो जावें । यही सब उद्देश्य, जिन्होंने मेरे नित्य के विचारों में घर कर लिया था, अब मेरी पहंच में आ चुके थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि सबसे पहले १८०६ ई० में मेरे नक्शे में आबू का 'रिक्तस्थान' बना था। उस समय में बनास नदी के निकास की तलाश में था। इस नदी को उस वर्ष हमने सिन्धिया की छावनी Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण-१, प्राक्कथन जाते हुए कई बार पार किया था। जब मैंने इसके निकास के बारे में पूछा तो मुझे बताया गया कि 'वह बहुत दूर आबू की तरफ़ पहाड़ियों में है।' 'और आबू कहां है ?' 'उदयपुर से पश्चिम में सिन्धिया की तरफ तीस कोस ।' पाबू बनास के साथ मेरे नक्शे पर उतर अ.या और इस श्रीगणेश के बाद धीरेधोरे मैंने बनास के निकास का और आबू की चोटी का पता लगा ही लिया तथा कुछ ही घण्टों की 'नावयात्रा' के बाद सिन्धु का भी । अपनी प्रस्तुत यात्रा के इन प्रारम्भिक एवं अन्तिम उद्देश्यों के अन्तर्गत मैंने कुछ अन्तरिम उद्देश्य भी स्थिर कर लिए थे, जो बहत हो रुचिकर थे। अरावलो के मार्ग और आबू की तलाश के बाद मेरा विचार पश्चिमी भारत के टायर' (Tyre) प्राचीन नहरवाला की अवशिष्ट खोज को पूरा करने का था; तदनन्तर, वहीं से राणावंश की परम्परात्रों को निर्धारित व निश्चित करने के लिए वलभी की दिशा तलाश करने का भी था। इसके लिए मुझे खम्भात की खाड़ी होकर सौराष्ट्र प्रायद्वीप के किनारे पहुँचना था अतएव मैंने यह निश्चय किया कि यदि हो सके तो जैन धर्म के केन्द्र-स्थल एवं गढ़समान पालीताना और गिरनार के पर्वतों की भी यात्रा करूं और इसके पश्चात् हिन्दुओं की दुनिया के किनारे 'जगतकंट' पहँच कर भारत के सीरिया, द्वारका में स्थित वल (Baal) और कृष्ण के मन्दिरों का दर्शन करके अपनी यात्रा समाप्त कर दू। वहां से जलदस्युओं के बेट द्वीप होता हुमा कच्छ की खाड़ी पार करके जाड़ेचों को राजधानी भुज की यात्रा करूं और माण्डवी की विशाल मंडी को लौट आऊँ। फिर, सिन्धु नदी के पूर्वीय किनारे-किनारे नाव में चलकर इसके समुद्र-संगम तक हिन्दुओं के देवालयों के अन्तिम दर्शन करूं । अन्तिम कार्यक्रम के अतिरिक्त यह सब यात्रा मैंने पूरी कर ली । सत्रह घण्टों तक अनुकूल वायु चलने की दशा में यह भी पूरा हो सकता था; परन्तु कितने ही कारणों से, जिनका वर्णन यथास्थान आगे किया जाएगा, मुझे भारत में अलक्षेन्द्र (Alexander) के आक्रमणों के अन्तिम दृश्यों को बिना देखे ही अपनी समुद्री यात्रा में बम्बई की ओर अग्रसर होना पड़ा। इस प्राक्कथन के साथ अब मैं, पाठकों से अपना डेरा उदयपुर से उठा कर मेरे साथ प्रस्थान करने की प्रार्थना करूंगा। ' फोनीशिया का प्रसिद्ध बन्दरगाह जो पन्द्रहवीं शताब्दी में स्थापित हुआ और जल्दी ही मेडीटरेनियन (मध्य) संसार को प्रसिद्ध मण्डी बन गया। (The New Standard Encyclopaedia, D. 1246) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ उदयपुर से प्रस्थान; गोगुंदा के दर्रा में प्रवेश; प्रान्त को छबि; घुस्यार, कृष्ण का एकान्तवास; सेवकों की विवाई; जलवायु में सुधार; बरूनी दर्रा का मन्दिर; पहाड़ियों का भूगर्भ (शास्त्र); गोगुंदा; राजस्व, कृषि, गोगुंवा का सरदार; उदयपुर और गोगुंदा घरानों में वैवाहिक सबंध; राजपूताना में बेमेल सम्बन्धों का परिणाम; कोठारिया के राव; सैमूर ; अरावली की छवि और जलवायु, वनस्पति ; कृषि; पहाड़ी राजपूतों के चरित्र; गांवों के मुखिया; उनकी परम्परागत कथाएँ; पोशाक; निवास, बनास का उद्गम ; नदी का पाख्यान ; अरावली का पश्चिमी ढाल ; दर्रा की महिमा ; वनस्पति, फल-फूल । १८२२ ई० की पहली जून को मैंने सोसोदियों की राजधानी से विदा ली। प्रभात का सुहावना समय था। सुबह के पांच बजे भी तापमापक ६६० बतला रहा था और पिछले कुछ दिनों से बँगले का औसत वातक्रम प्रातः सायं २७०६०' (बैरोमीटर) था । घस्यार पहंचाने वाली घाटी के द्वार की ओर बढ़ते हुए जब हम लोग बायीं तरफ़ पहाड़ी के किनारे-किनारे चल रहे थे तो मैंने प्रत्येक परिचित स्थान की ओर दष्टि दौड़ाई । सामने ही ठीक दाहिने हाथ की तरफ घने पेड़ पत्तों के बीच में होकर गांव के मन्दिर का शिखर झाँक रहा था । बँगले के पास ही झरने पर बना हुआ वक्राकार पुल था; इस झरने के किनारे में बहुत सुबह घूमा करता था और हजारों मछलियां मेरे साथ-साथ चलती रहती थीं जो मेरी खाना डालने की प्रादत से अच्छी तरह परिचित हो गई थीं।' थोड़ी ही दूर आगे बेदला के सरदार (राव) के किले की बुर्जे दिखाई देती थीं जो खजूर के पेड़ों की घनी कुजों से घिरी हुई थीं; इसके आगे चट्टान की वह प्रसिद्ध दरार (घाटी) थी जो देलवाड़ा होकर मैदान में निकलती थी। इस घाटी में मैंने अट्ठारह वर्ष पहले एक युवक अधीनस्थ कर्मचारी की हैसियत से राजदूत १ शायद कुछ लोगों को इस बात से पाश्चर्य हो परन्तु जो हिन्दुस्तान में रह चुके हैं वे जानते हैं कि धार्मिक तालाबों में मछलियों को हाथ से खाना दिया जाता है। मैंने अन्यत्र लिखा है कि महानदी में, जिसका पाट तीन मोल चौड़ा है, जरा से उबले हुए चावलों के लिए मछलियाँ मीलों तक साथ-साथ चलती रहती हैं। घाटी में रहने वालों का मैं गुरु रहा हैं। मैंने यह भी लिखा है कि बरसात में पानी में हानिकारक घास डाल कर पानी को जहरीला बना दिया जाता है और ऊपर तैरती हुई मछलियों को हाथ से पकड़ लेते हैं अथवा छड़ी से मार लेते हैं। यह तरीका अमरीकियों (Robertson, Vol. ii, p. 113) और प्रीसिनियनों (Bruce, Vol. i) में भी प्रचलित है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २; उदयपुर से प्रस्थान [ वर्ग में प्रवेश किया था और बारह वर्ष बाद राजनैतिक मध्यस्थ बन कर श्राया था । इन सब के पीछे की ओर राता माता की ऊंची चोटी दिखाई देती है। जिस पर बनी हुई अनेक बुर्जे इस घाटी को बाह्य सीमा को सुन्दरता से प्रकट कर रही हैं । अपने बँगले से डेढ़ मील चल कर हम घाटी के उस तंग रास्ते पर पहुँचे जो गोगुंदा को जाता है । इस रास्ते ने एकदम बायीं ओर घूम खाकर हमें घाटी में बन्द कर दिया और उस भूमि पर ले जा पहुँचाया जहाँ अभी तक कोई यूरोपियन नहीं गया था । थोड़ी दूर तक हम ऐसे रास्ते से चलते रहे जो ऊँची-नीची विषमोन्नत जमीन पर था, परन्तु चढ़ाई बहुत कम थी; दोनों ओर की पहाड़ियाँ चोटी तक कांटेदार थूहरों से ढँकी हुई थीं जो यत्र-तत्र उगे हुए बड़े पेड़ों के नीचे झाड़ियाँ जैसी मालूम होती थीं । लम्बी-लम्बी मंज़िलें चलने से प्रादमियों और जानवरों दोनों के ही पैर थक जाते हैं इसलिए यह ग़लत तरीका है कि एक ही बार में बहुत दूर चल कर विश्राम लिया जाय । राजधानी से केवल छः मील दूर घॅस्यार पहुँच कर हम ठहरे । घाटी के दरवाज़े से ही चढ़ाई क्रमश: ऊँची होती गई थी और अब हम उदयपुर से कुछ सौ फीट की ऊंचाई पर आ गए थे । यद्यपि घॅस्यार के प्रवेशद्वार को अरावली की पूर्वीय पहाड़ियों का नाम देने को मेरा मन हुआ परन्तु मेरा विश्वास है कि इस पर्वत के ऊँचे भाग को चारों ओर से वेर कर जा मिलने वाली चट्टानों की श्रेणियों के बीच में, उदयपुर की घाटी को हमें एक उपजाऊ नखलिस्तान ही मानना चाहिए। घॅस्यार एक नगण्य-सा गाँव है परन्तु प्रापत्तिकाल में जब भारत के भगवान् विष्णु का मरहठों और पठानों ने सम्मान नहीं किया तब यमुना तट पर बने हुए आदिमन्दिर से औरंगजेब द्वारा खदेड़े हुए नाथद्वारा के श्रीनाथजी ने 'समस्त राजपूतों के राजा' के यहाँ शरण ली ; और तभी से श्रीनाथजी की पुनः प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त माने जाने के कारण इस स्थान की इतनी प्रसिद्धि हुई । वर्तमान गोस्वामीजी के पिता ही कोटा के ज़ालिमसिंह के अनुरोध करने पर महाराणा की अनुमति से श्रीनाथजी को, (पूर्व) नाथद्वारा से यहाँ लाए थे । इस स्थान के चारों ओर एक सुदृढ़ परकोटे द्वारा किलेबन्दी की गई है और परकोटे पर घाटी के आर-पार बुर्जे भी बनी हुई हैं। राजप्रतिनिधि (दीवान) ने सुरक्षा के लिए दो पैदल- फ़ौज की टुकड़ियाँ भी यहाँ पर नियुक्त Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] पश्चिमी भारत की यात्रा कर दी हैं ।' किले की ये दीवारें इस जंगल में बहुत ही मनोहर दृश्य उपस्थित करती हैं। यहाँ पर कुछ सुन्दर वनस्पतियाँ भी हैं जिनमें से एक बहुत ही सुन्दर और आकर्षक झाड़ी मेरे देखने में आई । इस पर झड़बेरी की सी शकल १ पहले मथुरा के पास गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी का मन्दिर था। औरङ्गजेब ने गोस्वामीजी को कुछ चमत्कार दिखाने को कहलाया। बादशाह की दुर्भावना से प्राशंकित होकर गोस्वामी विट्ठलनाथजी के पौत्र गिरिधारीजी के पुत्र दामोदरजी श्रीनाथजी की मूर्ति को रथ में विराजमान कर अपने काका गोविन्दजी, बालकृष्णजी, वल्लभजी और गंगाबाई सहित आश्विन शुक्ला ५ संवत् १७२६ (ता० १० अक्टूबर, १६६६ ई.) को घड़ी भर दिन रहे निकले और आगरा पहुँचे । सोलह दिन वहां रह कर कार्तिक शुक्ला २ (२६ अक्टूबर, १६६६ ई०) को बूंदी के महाराजा राव अनिरुद्धसिंह के पास आए । बरसात का मौसम कोटा के कृष्ण-विलास में बिता कर पुष्कर होते हुए कृष्णगढ़ पाए। वहाँ के राजा मानसिंह ने प्रकट रूप से रखने में असमर्थता प्रकट की तो वसंत और ग्रीष्म वहीं बिता कर मारवाड़ में चौपासनी में आकर वर्षा ऋतु व्यतीत की। इस प्रकार पहली वर्षा संजेतीधार के पास कृष्णपुर में, दूसरी कोटा के कृष्ण-निवास में और तीसरी चौपासनी में बीती। जब राजपूताने की किसी रियासत में भी श्रीनाथजी की प्रतिष्ठा न हो सकी तो गोस्वामी दामोदरजी के काका गोविन्दजी महाराणा राजसिंह प्रथम के पास गए। महाराणा ने श्रीनाथजी का पधारना स्वीकार करते हुए कहा-'मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कट जाने के बाद ही आलमगीर मूर्ति को हाथ लगा सकेगा।' इस पर गोविन्दजी बहुत प्रसन्न हुए और कार्तिक शु० १५ संवत् १७२८ (१७ नवम्बर १६७१ ई०) को प्रस्थान कर के उदयपुर से १२ कोस उत्तर में बनास के तट पर सिहाड़ ग्राम के पास मन्दिर बनवा कर फाल्गुन कृष्णा ७ सं० १७२८ (२० फरवरी, १६७२ ई० ) शनिवार को श्रीनाथजी को पाट बैठाया गया। (वीरविनोद, ६-४५२-५३) नाथद्वारा में आने से पूर्व श्रीनाथजी की मूर्ति का पूजन केशवदेव के नाम से होता था। नाथद्वारा का पूर्व नाम सिहाड़ था। देखिए–'Mathura, a district memoir-- F. S. Growse; 1880-pp. 120-121' 'गोड़वाड़ा का परगना, जोधपुर आबाद होने से पहले मण्डोवर के राजपूतों से राणाई के खिताब सहित हासिल किया गया था। वह परगना राणा अरिसिंह ने राजा विजयसिंह (मारवाड़) को इस मतलब से दिया था कि कुम्भलमेर के झूठे दावेदार इस पर कब्ज़ा न करें और इस जागीर की एवज़ ३००० पैदल फौज़ राणां की नौकरी में रहेगी।' यह मारवाड़ी फौज़ नाथद्वारा में लालबाग के करीब रहती थी; वह जगह अब तक फौज के नाम से प्रसिद्ध है। (वीरविनोद, पृ० १५७३-१५७५; टॉडकृत राजस्थान, जि० १, प्रक० १६, पृ० ४६) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २; उदयपुर से प्रस्थान [ ११ और परिमारण के बहुत से लाल लाल फल लगे हुए हैं । इसको आकोलिया कहते हैं। ____ मुझे ऐसे दृश्यों के निरीक्षण के लिए बहुत ही कम समय मिल रहा था क्योंकि इस यात्रा में मुझे विदा करने के लिए आए हुए मुसाहब, कुछ सरदार और बहुत से दूसरे लोग भी साथ-साथ चल रहे थे। मेरे घुड़सवार और सामान वाले सुबह-सुबह इधर-उधर छितराते रहे और यह तो साफ ही था कि खण्डित मूर्तियों और शिलालेखों से लदे हुए ऊँटों को भी इस टूटे-फूटे रास्ते से चलने में कोई आनन्द नहीं आ रहा था । यद्यपि धूप बहुत तेज थी जब कि हमने अपनी इस नवीन परिस्थिति का आनन्द लेते हुए एक घेरधुमेर इमली के पेड़ की छाया में छोटी हाजरी' की मेज सजाई परन्तु हुसैन (Hyson) के प्रेमी मेरी उस समय की घबड़ाहट का अनुमान लगावें जब मैंने अपने समस्त रोगों की एकमात्र औषधि, क्वाथ का पहला चूंट लिया तो मुझे वह सब एक अत्यन्त तीव्रगंध से युक्त मालूम पड़ा। बात यह हुई कि सामान बांधते समय जल्दी-जल्दी में मेरे नौकर ने तारपीन के तेल की एक बोतल चाय के भण्डार के पास ही जमा दी और डाट निकल जाने के कारण यह बहुमूल्य द्रव, जिसकी एक बोतल की कीमत मुझे दो मोहरें देनी पड़ी थीं, इस और भी अधिक मूल्यवान् जड़ी में मिल गया। __वह परिश्रम का दिन था; और उस दिन दुःख एवं प्रानन्द का ऐसा सम्मिश्रण हो गया था कि यह कहना कठिन है कि किसका पलड़ा भारी रहा । पुराने और विश्वासपात्र निजी सेवकों को इनाम इकराम देकर विदा करना एक साथ ही दुःखपूर्ण एवं प्रानन्दप्रद कार्य था। इनमें से बहुतों ने तो जब मैंने अधीनस्थ अधिकारी के रूप में काम प्रारम्भ किया था तब से मेरे अवकाश प्राप्त करने के समय तक सेवा की थी और इसी में उनके बाल पक गए थे। जो लोग काले आदमियों में कृतज्ञता एवं स्वामि-भक्ति की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं उनके लिए यह मुंहतोड़ उत्तर है कि मुझे एक भी ऐसा आदमी नहीं मिला जो दीर्घ-काल तक भारत में सेवाएँ करके स्वदेश लौटा हो और जिसने अन्य महान् गुणों के साथ साथ अधीनता, ईमानदारी, गम्भीरता, स्वामि-भक्ति तथा आदरभावना के विषय में तुलना करते हुए एशियावासियों को उत्कृष्ट न बताया हो । ' प्रातराश, नाश्ता। । पैगम्बर मुहम्मद साहब की पुत्री फातिमा और अबु तालिब के पुत्र इमाम अली का लड़का इमाम हुसैन जब सब साथियों के मारे जाने पर अकेला अपने डेरे के बाहर बैठ कर घायल, थका मांदा पानी पीने लगा तो पहली घुट लेते ही शत्रु का तीर पाकर उसके मुंह पर लगा।-गिबन कृत रोम साम्राज्य का पतन, १९५७, भा०५, पृ० २८७। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा २री जून; गोगुंदा के पास-ऐसे भू-भाग में होकर एक छोटी-सी मंज़िल जहाँ कदम-कदम पर आकर्षक दृश्यावलियों एवं ऐश्वर्य के दर्शन हुए। सूर्यास्त के समय २७° २५' चिह्न बता रहा था कि हम ऊँचे चढ़ रहे थे और तापमापक यन्त्र ८२ अर्थात् अपने स्थान से ५३ अंश नीचे सूचित कर रहा था कि हम घाटी में बारह मील के घिराव में स्वस्थ जलवायु में आ पहुँचे थे। कल पछाँह से वर्षा हुई थी और आज हवा ने रुख दक्षिण-पश्चिम की ओर पलट लिया था। इस ऋतु में इन हवानों की गति प्रायः इन्हीं दिशाओं के बीच में रहती है । लगभग आधे रास्ते चल कर ज्यों ही हम बरूनी के दर्रा [घाटी] में घुसे वहाँ का एक मात्र छोटा-सा मन्दिर दिखाई पड़ा जो इस बात का सूचक था कि इन जङ्गलों में भी, जिनको मानो प्रकृति ने अपनी किसी सनक के क्षण में बहुत कुछ बदल दिया है, कभी मनुष्य रहते थे क्योंकि यहां की विषम ढालों पर घनी वनस्पति, गुच्छेदार खजूर और ताल के वृक्ष अपना सिर ऊँचा किए खड़े हैं और इस बात का प्रमाण दे रहे हैं कि इस पर्वतीय प्रदेश में पानी की कमी नहीं थी। जहां-जहां से ये पहाड़ अनावत रह गये हैं वहाँ वहाँ से इनका इमारती पत्थरों का बना शरीर स्पष्ट दिखाई देता है। घाटी के तल में विभिन्न आकार और रंग के गहरे नीले और ठोस भारी पत्थर से लेकर गहरे भूरे रंग की पतली पट्टियों का सलेटी पत्थर तक दिखाई देता है। गोगुंदा के आस पास यही (समुद्री हरा) सलेटी रंग खास तौर से पाया जाता है क्योंकि यहां के मकानों की छतें इसी पत्थर से पटी हुई हैं, जो सभी एक समान दिखाई देती हैं। यहां के बड़े मन्दिर में भी पूरी तरह इसी पत्थर की पट्टियों का उपयोग हमा है। इसी पर्वत की ऊँची चोटियाँ, जो हमारे रास्ते से सैकड़ों फीट ऊपर थीं, गुलाबी इमारती पत्थर की हैं और वे सूरज की रोशनी में काच के समान चमक रही थीं। मेवाड़ की सोलह' बड़ी जागीरों में से होने के कारण गोगुंदा इस प्रदेश का एक मुख्य कस्बा है। नाम मात्र के लिए यह जागीर ५०,०००) पचास हजार ' महाराणा अमरसिंह द्वितीय (१६९६-१७१० ई०) ने मेवाड़ के प्रथम श्रेणी के सरदारों की संख्या १६ नियत की थी, वे 'सोला' उमराव कहलाते हैं। उन ठिकानों के नाम ये हैं - सादड़ी, गोगुंदा, देलवाड़ा, कोठारिया, बेदला, पारसोली, सलूंबर, देवगढ़, बेगू, आमेट, भीडर, बानसी, घाणेराव, बदनोर, कानोड़ और बीजोल्यां। . (उदयपुर राज्य का इतिहास-गौ० ही० अोझा, पृ० ८७०-६६१) इन सोलह ठिकानों के नामों एवं इनके सरदारों के वंशों के विषय में निम्न पद्य Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • २; गोगुंदा का सरदार [ १३ रुपये वार्षिक राजस्व की कही जाती है परन्तु जैसा कि इस प्रदेश की कहावत है 'रुपये के पूरे सोलह आने करने में अथवा दूसरे शब्दों में, बुद्धि और पूंजी का पूरा उपयोग करने में, यहाँ के रईस बहुत कमजोर हैं इसलिए पिछले कई वर्षो से गोगंदा का जागीरदार उपर्युक्त रकम का दशमांश से अधिक वसूल नहीं कर पाया है । इस पहाड़ी भू-भाग में खेतीबाड़ी का चालू तरीका यह है कि तालाब या बन्धे बाँध लेते हैं और जमीन को चौरस कर लेते हैं; परन्तु कितनी ही शताब्दियों तक तो यह हिस्सा युद्धस्थल बना रहा और मरहठों के अधिकार में भी रहा । गोगुंदा का सरदार झाला राजपूत है; यह जाति सौर प्रायद्वीप में विशेष पाई जाती है। इन गए-बीते दिनों में भी, यहाँ के वर्तमान जागीरदार' को मेवाड़ के बड़े सरदारों के अनुरूप मानना ठीक न होगा क्योंकि निस्सन्देह वह एक निकृष्टतम हीन कोटि का प्राणी है-ठिंगना, काला और भद्दा, शरीर और बुद्धि दोनों में कमजोर; उसे तो हम एक ऐसा 'वनमानुष' कह सकते हैं जिसे [परमात्मा की अोर से] बोलने की शक्ति भी प्रदान कर दी गई हो क्योंकि उसका रंग-रूप मेरे देखने में आई हुई अन्य जातियों की अपेक्षा उसी लम्बी भुजाओं वाली जाति से अधिक मेल खाता है। धातुविष (शराब) के अतिप्रयोग से उसके दाँत जाते रहे हैं परन्तु जो कुछ बचे हुए हैं वे काले हैं और प्रसिद्ध हैं : त्रिह झाला त्रिहुँ पूरव्या, चौंडावत भड़ च्यार। दुय सगता, दुय राठवड़, सारंगदेव पंवार ॥१ सरणायत्तां सादड़ी, गोधूंदो घर गल्ल । दुरग देलवाड़ो दुरस, झाला खत्रवट झल्ल ॥२ कोठारयो पर बेदलो, पालसोळ भुज पाण। माझीधर मेवाड़ में, चितबंका चहुँवाण ॥ ३ दिपै सलूंबर देवगढ़, बेधूं थान विचार। अधपतियाँ आमेट ए, चौंडा सरणा च्यार ॥४ इक भींडर दुय बानसी, महि बिच सगतां मोड़। घाणेरो बदनोर घर, राणधरा राठौड़ ।। ५ कानोडह अपणां करां, सरणों सारंगद्योत । ज्यों पंवार बीझोलियां, वेहू सरणां जोत ।। ६ (मलसीसर ठा० भूरसिंह कृत महाराणायशप्रकाश; पृ० २०८) , मानसिंह Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा सोने के तार से बँधे हुए हैं; ये उसके भद्देपन की कमी को और भी पूरा कर देते हैं। इस वनपुत्र भील की बेमेल प्राकृति को ऐसी जहरभरी अपशब्दयुक्त बोली मिली है जो अरावली की गुफाओं (दरारों) में पार हो जाती है। परन्तु, यहाँ हम चन्द की इस उक्ति को स्वीकार नहीं करते कि 'कौए का पुत्र कौना ही होता है'' क्योंकि गोगुंदा का कुँअर रंग रूप में अपने पिता से बिलकुल भिन्न है; फिर, पिता भी 'कौए का पुत्र' नहीं है, उसके व्यक्तिगत भद्देपन को तो 'कुदरत की मरजी' ही कहा जा सकता है । मैं उन बातों का वर्णन अन्यत्र कर चुका हूँ जिनके कारण भगवान राम की गौरवान्वित सन्तान, मेवाड़ के राणाओं को, भारत के मुसलमान बादशाहों से वैवाहिक सम्बन्ध कर के हिन्दू-रक्त को कलङ्कित करने वाले, दूसरे राजपूत राजाओं के साथ बेटी-व्यवहार बन्द करने के लिए विवश होना पड़ा था । अब, नियमानुसार वे अपने सगोत्र राजपूत सरदारों में तो विवाह कर नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने कुछ अन्य-गोत्रीय चौहान, राठौड़ और झाला जाति के राजपूतों को बेटी-व्यवहार के लिए निश्चित किया कि जिनके द्वारा उनके मूल-पुरुष बापा रावल की शाखा चलती रहे। वे राजपूत भी राणाओं के घराने से विवाह-सम्बन्ध होने के कारण उस गौरव को प्राप्त कर सके, जो केवल धन के बल पर उन्हें नहीं मिल सकता था और फलत: वे भारत के दूसरे छोटे स्वतन्त्र राजाओं की समानता का दम भरने योग्य हो गए। वर्तमान महाराणा की माता गोगुंदा के ठिकाने की लड़की थी जो एक निर्भय और मर्दानी बुद्धि वाली वीर स्त्री थी। यदि उसके पुत्र को देख कर अनुमान लगाया जाय तो, कह सकते हैं कि उसका व्यक्तित्व भी शानदार होगा क्योंकि राजपूताना में राणा का वंश सुन्दरता में सब से बढ़कर माना जाता है। वर्तमान राजकुमार, अब राणा जवानसिंह, पर तो जैसे प्रकृति ने शारीरिक राज-लक्षणों की छाप ही लगा दी है। इसी राणी की भतीजी मेवाड़ के प्रमुख सरदार सलूम्बर के ठाकुर की माता है जिसका राजघराने से दोहरा सम्बन्ध है। इनसे उत्पन्न होने वाली लड़कियों की शादी बेदला के चौहान सरदारों अथवा घाणेराव के राठौड़ों के यहां हो सकती है। ये दोनों ही ठिकाने मेवाड़ के सोलह प्रमुख ठिकानों में हैं। फिर, इन ठिकानों की लड़कियां . फिरदौसी ने भी महमूद पर व्यङ्गय करते हुए कहा है कि 'कौए के अंडे से कौए के प्रति रिक्त और कुछ पैदा नहीं हो सकता।' । राजस्थान का इतिहास, जिल्ब १, पृ० ३३५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २; कोठारिया का राव [ १५ महाराणा को भी व्याहो जा सकती हैं। इस प्रकार इस जाति के महान मूलपुरुष का रक्त, दिल्ली, कन्नौज और अहिलवाड़ा के चौहान, राठौड़ और चावड़ा राजपूत शासकों के किंचित अवर रक्त में सम्मिलित होकर अप्रत्यक्ष स्रोतों द्वारा मूल प्रवाह में पुन: मिलता रहता है । इस तरह के बेमेल सम्बन्धों और बहविवाह के कारण उत्पन्न हुए भयङ्कर परिणाम और बुराइयाँ निम्नलिखित छोटी कहानी के उदाहरण से तुरन्त ही समझ में आ जाती हैं। राजघराने से अनमेल सम्बन्ध के बारे में राजस्थान के इतिहास' में सादड़ी के सरदार का महाराणा की पुत्री के साथ सगाई-विषयक उदाहरण दे चुका हूँ और बहुधा अधिकारलिप्सा के कारण बहुविवाह-जनित बुराइयों, झगड़ों आदि के उदाहरणों से तो सारा इतिहास ही भरा पड़ा है। और, जैसा कि निम्नलिखित कहानी से विदित होगा, उस स्थिति में तो परिणाम और भी शोचनीय हो जाता है जब कि शास्त्रविधि से पति स्वीकार करने के उपरान्त महाराणा को पुत्रियों के विषय में अनुग्रह करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता। दिल्ली के अन्तिम सम्राट के वंशज कोठारिया के चौहान राव ने, जो मेवाड़ के सोलह प्रमख सरदारों में था, दो विवाह किए थे। एक भींडर के शक्तावत घराने को लड़की थी और दूसरी राजपरिवार के एक राणावत सरदार की पूत्रियों में से थी, जिनको सम्मान के लिए 'बाबा' कहते हैं। परन्तु, प्रेम जन्म और घराने को नहीं देखता। फिर, भींडर ठाकुर की लड़की में राजपूत गृहिणी में होने वाले अन्य गुणों के साथ-साथ आज्ञाकारिता का ऐसा गुण भी वर्तमान था कि जिसके कारण वह उच्चतर घराने की लड़की की अपेक्षा पति की अधिक प्रीतिपात्र बन गई। दोनों ही ठकुरानियों के सन्तान उत्पन्न हुई; परन्तु, प्रथम पैदा होने के कारण कोठारिया की गही का अधिकारी भली शक्तावतनी का पुत्र था जिसे सभी प्रादर और प्रेम की दृष्टि से देखते थे। दुर्भाग्यवश, वह प्यारा बच्चा बीमार होकर मर गया और उसकी शोकग्रस्त माता ने इस घटना को, अपने पुत्र के लिए उत्तराधिकारप्राप्ति के निमित्त, अपनी सौत की करतूत मानने में जरा भी सन्देह नहीं किया । उसने स्पष्ट शब्दों में अपनी सौत पर दोष लगाया कि उसी ने डाकिनी को लालच देकर उसके पुत्र का कलेजा खिला दिया । जहाँ ऐसे अन्धविश्वासों का पूरा बोलबाला रहता है वहाँ यह स्वाभाविक ही है कि प्रेमी पति अपनी प्रियतमा के सन्देह को मान्यता दे । फल यह हुआ कि वह उसकी प्रतिस्पद्धिनी से और भी खिंच गया। उच्चकुल की ठकुरानी को यह सहन नहीं हुआ और उसने गार्हस्थ्य अधिकारों की पुनः प्राप्ति के लिए अपने पिता के द्वारा, दोनों ही ठिकानों के सार्वभौम अधिकारी, महाराणा के Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पास ऐसा प्रतिरंजित आरोप लगा कर शिकायत करवाई कि जिससे एक राजपूत द्वारा दूसरे के अपमान का भरपूर बदला लिया जा सके । महाराणा के दरबार में कोठारिया के राव ( यही उसकी पदवी थी) के पहले से ही बहुत से शत्रु थे जिनमें अनेक उसी के भाई-बन्धु थे क्योंकि, जैसा उसने स्वयं कहा था, राजपूतों में चौहान की जाति सब से खराब है । इसमें कोई भी अपने भाई की बढ़ती से ईर्ष्या किए बिना नहीं रहता । महाराणा को ऐसा विश्वास कराया गया कि वह भागा पिता, जिसका एक पुत्र मर चुका था, अपनी चहेती स्त्री के बहकावे में आ कर बदला लेने के लिए दुहागिन स्त्री से उत्पन्न हुए अपने दूसरे पुत्र को भी मरवा देने की सोच रहा है । दुर्भाग्य से राजपूतों में पति-पत्नी के आपसी मनोमालिन्य एवं तीव्र विरोध के कारण बाल-हत्या की घटना कोई आश्चर्य अथवा सन्देह का विषय नहीं होती इसलिए राव के तथाकथित अभिप्राय को उत्सुकता से सही मानकर महाराणा ने उस प्रति प्राचीन वीरवंश के अन्तिम वंशज के प्रति कार्यवाही करने का बहाना ढूंढ लिया । इस राज्य में विदेशी (ग़ैर- मेवाड़ी) सामन्तों को जो भूमि दी जाती है उसका पट्टा 'काला पट्टा' कहलाता है अर्थात् वह वापस लिया जा सकता है जब कि स्थानीय पुराने पटायतों के पट्टे वापस नहीं लिए जा सकते । ये पटायत कोठारिया के राव पर दबाव डालने के कारण विद्रोही भी हो सकते थे परन्तु उसकी जागीर राज्य के मध्य भाग में अकेली रह गई थी तथा बार-बार आक्रमण करने वाले मरहठों से लगातार लोहा लेते रहने के कारण उसकी सामना करने की शक्ति भो क्षीण हो चुकी थी । एक बार, जब मेवाड़ में स्वामि भक्ति देखने को भी नहीं मिलती थी, यही राव महाराणा के दरबार से नौकरी देकर लौट रहा था तो उसको और पचीस घुड़सवारों की एक छोटी टुकड़ी को मरहठों ने घेर कर आत्म समर्पण करने के लिए कहा । तब राव ने तुरन्त नीचें उतर कर एक ही बार में अपने घोड़े के घुटने की भीतरी नस को काट दिया और साथियों को भी अपना अनुकरण करने के लिए कहा। फिर उन लहूलुहान घोड़ों को चारों ओर खड़े कर के वे सब ढाल तलवार लेकर सामना करने के लिए खड़े हो गए। उन दिनों दक्षिणी लुटेरे विजय की अपेक्षा लूट को ही अपना प्रमुख उद्देश्य समझते थे और जहाँ सफलता के परिणाम में केवल ठण्डा लोहा ही प्राप्त होने की सम्भावना होती वहाँ वे वार नहीं करते थे । इसलिए उन्होंने चतुराई से राव को पैदल ही जा कर Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • २; कोठारिया का राव [१७ कोठारिया के किले पर पुनः अधिकार करने के लिए छोड़ दिया ।' कोठारिया-राव के पूर्वजों के अधिकार में पहले आगरा के पास चंडावर की जागीर थी जो सिकन्दर लोदी ने उनसे छीन ली थी क्योंकि उसने सरदार (चौहान) से कन्या माँगी थी और उसने इन्कार कर दिया था। तत्कालीन राव मानिकचन्द अपने परिवारसहित गुजरात चला गया और वहाँ मुजफ्फरशाह ने उसका अच्छा स्वागत किया तथा काठी सीमा पर सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। काठियों के साथ एक झगड़े में वह बुरी तरह घायल हुग्रा और स्वयं सुलतान उसको रणक्षेत्र से ले गया । डूंगरशी रावल को सहायता करते हुए उसका पुत्र दलपत पराजित हुआ और मारा गया इसलिए उसके बाद उसका (दलपत का) पुत्र संग्रामसिंह राव हुआ जो गुजरात के बहादुरशाह की चित्तौड़ पर चढ़ाई में साथ था जब कि हुमायूं राणा की सहायता करने आया था। उसी समय चौहान से २००० घोड़ों, १५०० पैदल व ३५ हाथियों के साथ मेवाड़ में रहने के लिए राणा (उदयसिंह) ने आग्रह किया था। इस सम्बन्ध में शर्ते ये थीं कि चौहान केवल राणा ही के साथ युद्ध में जाएगा, कभी अपने से नीचे दर्जे के सरदार के अधीन रह कर कार्य नहीं करेगा, सप्ताह में केवल एक बार हाजिरी देगा और उसका पद सीसोदिया वंश के सबसे बड़े सरदार के समकक्ष होगा। - जब मैं राणा के दरबार में गया था उन्हीं दिनों में उन्होंने राव के गुजारे मात्र के लिए बचे हुए कोठारिया के दोनों गाँवों पर भी जब्ती भेज दी थी। जागोर का शेष भाग तो पहले ही सामान्य शत्रुओं (दक्षिणियों) के आक्रमणों से नष्ट हो चुका था। राणा ने वे दोनों गाँव राव के जीवित पुत्र के नाम कर दिए थे क्योंकि 'बाबा' की सन्तति होने के कारण वह उनका भानजा था और पिता के तथाकथित दुर्व्यवहार के कारण अब उन्हीं (राणा) के संरक्षण में था। परन्तु राणा ने अपने सरदारों की मन्त्रणा से दक्षिणियों और सामन्तों के सभी मामलों में मुझे सर्वाधिकारसम्पन्न निर्णायक नियुक्त कर दिया था, इसलिए कोठारिया का मामला भी निर्णय के लिए मेरे पास आया । जिसने 'उत्तर के सुलतान' के विरुद्ध सैन्य-संचालन किया था और मुसलमान इतिहासकारों ने भी जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है ऐसे दिल्ली के अन्तिम चौहान सम्राट् के काका और सेनापति १ महाराणा भीमसिंह के समय में फतहसिंह का पुत्र विजयसिंह ऊनवास गांव से कोठारिया जाते समय होल्कर की सेना से घिर गया और मरहठों के मांगने पर अस्त्र शस्त्र व घोड़े नहीं दिए-वरन् घोड़ों को मार डाला और साथियों सहित स्वयं लड़ता हुआ मारा गया।-प्रोझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, जि० २, पृ० ८७६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा कान्हराय के सीधे वंशज' ( कोठारिया - राव ) के साथ मेरी सहानुभूति थी । कान्हराय ( जिसको फरिश्ता ने कण्डीराय लिखा है) ने ही अपने बख्तरबंद साथियों के साथ शहाबुद्दीन के सामने घोड़ा बढ़ाया था और यदि शाह का कवच इतना सुदृढ़ नहीं होता तो वह उस सरदार के भाले से अपने शरीर पर एक अमिट छाप लिए बिना दिल्ली के सिंहासन को प्राप्त करने का अभिमान कभी न कर पाता । 'क्या कान्हराय का वंशज महाराणा के कान भरने वाले चुगलखोरों की दया पर निर्भर रहे ? मेरा दारिद्र्य ही मेरा शत्रु है, क्योंकि अन्याय की चोटों से बचने के लिए मेरे पास इतना धन नहीं है कि मैं हुजूर के आसपास रहने वालों को रिश्वत देकर उनका मुँह बंद कर सकूँ ।' यह ज़ोरदार अपील, राव का व्यक्तिगत नम्र श्राचरण और सब से बढ़ कर उसके मामले का न्याय – ये सब बातें ऐसी थीं कि जिनका विरोध नहीं किया जा सकता था। मैंने राव को निश्चित रहने को कहा और महाराणा के पास उसकी वकालत करने का भी आश्वासन दिया । उस दिन में 'हिन्दू (कुल) सूर्य' के सामने उपस्थित हुआ। मुझे उनकी भावनाएं पक्षपातपूर्ण जान पड़ीं । परन्तु मैंने राणा को चौहान की उस समय की सेवाओं का स्मरण दिलाया जब कि उन दिनों पूर्ण कृपापात्र बने हुए लोग मुँह दिखाने तक की हिम्मत नहीं करते थे । फिर, मैंने उनको राव पर वैसी ही कृपा और बड़प्पन बरतने की भी प्रार्थना की जैसी कि परमात्मा की ओर से उन्हें प्राप्त थी । राणा के चरित्र में हठ जैसो कोई बात नहीं थी; उन्होंने मेरे मुवक्किल ( राव ) के विषय में जो भी अच्छाई बताई गई उसे तुरंत स्वीकार किया । हमारा उस दिन का सम्मेलन राणा की ओर से यह आश्वासन देने पर समाप्त हुआ कि राव भागाजी के प्रति असद्व्यवहार छोड़ दे और उसे दरबार में उपस्थित करे, इसके बदले में वे (राणा) उसके हित की प्रत्येक बात पर पूरा ' कर्नल वॉल्टर ने 'पृथ्वीराज रासो' के श्राधार पर कोठारिया के चौहानों को पृथ्वीराज के काका कन्हराय का वंशज माना है, यह भ्रम है । कन्ह नाम का पृथ्वीराज का कोई काका नहीं था । वास्तव में ये रणथम्भौर के सुप्रसिद्ध राव हम्मीर के वंशज हैं । बाबर और महाराणा सांगा की लड़ाई के समय संयुक्त प्रान्त ( अब उत्तर प्रदेश) के मैनपुरी जिले के राजौर नामक स्थान से माणिकचन्द चौहान ४००० सैनिक लेकर महाराणा की सहायता करने आया था और वीरता से लड़कर युद्ध मारा गया था । उसके सम्बन्धी और सैनिक महाराणाओं की सेवा में ही रहने लगे । - गौ० ही ० प्रोझा कृत उदयपुर राज्य का इतिहास, जि० २; पृ० ८७७ મ बहन का पुत्र । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९ ध्यान देंगे। मैंने राव को तुरंत कह दिया कि राणा की आज्ञा का पालन करना उसका कर्तव्य एवं कृपापात्र बनने का एक मात्र साधन था । इसमें संदेह नहीं कि यह झगड़ा बहुत कठिन था और स्पष्ट था कि राव अपनी मृतवत्सा प्रिय पत्नी के संदेहों में साझीदार था । यद्यपि उसने मेरे कहने के अनुसार कार्य करना धन्यवादपूर्वक स्वीकार कर लिया था परंतु इसमें विलम्ब और बहानों का अंत नहीं था । एक बार बच्चे को माता निकाल रही थी तो दूसरी बार उसने कहा कि गरीबी के कारण वह अपनी स्त्री और बच्चे को राजधानी में नहीं ला सका क्योंकि वहाँ सगे-सम्बन्धियों से मिलने पर गोठ और भेंट देनी पड़ती है और उसके पास न नक़दी थी न उधार मिलता था । यद्यपि उसका कहना ठीक ही था परंतु महाराणा की इच्छा के सामने उसकी दलीलों में कोई मानने योग्य बात नहीं थी और उनकी प्राज्ञा का पालन करने में ही उसका भला था । मेरी दलील के निरे तथ्य को मानते हुए उसने कर्तव्य पालन की बात तो स्वीकार कर ली परंतु राणा द्वारा उसके घरेलू मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार उसे मान्य नहीं था । उसने कहा, 'यदि मैं इस बात पर दब जाऊँ तो मुझे अपने ही घर में गुलाम बन कर रहना पड़ेगा । मेरे निजी शत्रु तो मुझ से पीछा छुड़ाना चाहते हैं और उनकी इच्छा है कि मैं अपने पुत्र के रास्ते से हट जाऊँ तथा खानगी लेकर नाथद्वारे में जा पड़ ।' मैंने उसे विश्वास दिलाया कि यदि वह अपने स्वामी की इच्छानुसार कार्य करेगा तो ऐसा कभी नहीं होगा । अंत में सभी बातें तय हो गईं और कुछ ही दिनों बाद मुझे यह देख कर संतोष हुआ कि राव को कोठारिया का नया पट्टा मिल गया जिसमें जब्त किए हुए दोनों कस्बे भी शामिल थे। वह लड़का भी मुझ से मिला; उस समय तक आलस्य और अफ़ीम का उस पर कोई असर नहीं हुआ था और वह मेवाड़ी राजपूत का एक अच्छा खासा नमूना था । यदि इन दुर्गुणों से बच जाय तो मुझे प्राशा है कि कान्हराय का यह वंशज कभी अपने वंश को अवश्य ऊँचा करेगा | प्रकरण २; संमूर · अब इन प्रसंगों से विदा । गोगुंदा के भाला और कोठारिया के चौहान की हम काफी चर्चा कर चुके हैं। परमात्मा करे, उनकी सन्तानें उन अनेक महान् कार्यों के योग्य ( सिद्ध) हों जिनसे कि सभी अच्छे और बड़े देशों द्वारा उनकी प्रशंसा की पात्रता पुष्ट होती है । ३ री जून; सैमूर - यद्यपि हमारे चारों श्रोर ऊँची-ऊँची चोटियाँ खड़ी हैं परंतु यह अरावली के बोये जोते भाग का सब से ऊँचा स्थान है । दिन के दो बजे बैरॉमीटर २७°३८' और थर्मामीटर ८२° बतला रहे थे । सूर्यास्त के समय Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] पश्चिमी भारत की यात्रा बेरॉमीटर २७°३२′ प्रोर थर्मामीटर ७६° पर थे - यह प्रयनवर्ती भारत के प्रत्युष्ण दिनों में इङ्गलैण्ड के साधारण गरमी के दिनों जैसा था । राजधानी की घाटी की अपेक्षा कैसा अच्छा मौसम था ! वहाँ तो, मेरे रवाना होने के दिनों, सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों ही समय यह थर्मामीटर ६५° पर ही टिका रहता था । इस खुशी के कारण, बिना सोचे समझे ही मैंने अपनी ( खश की) टट्टियाँ फिंकवा दीं । प्रागे चल कर मुझे अपने इस कार्य के लिए बहुत पछताना पड़ा । उस दिन शाम को दक्षिण-पश्चिम से प्राने वाली हवा से कुछ बूंदाबांदी हुई । इस पहाड़ी प्रदेश की यात्रा करने में मेरी रुचि पद-पद पर बढ़ती जा रही थी; प्रकृति की प्रत्येक वस्तु, हलचल, जानवर और वनस्पति में नवीनता थी । हमने सुन रखा था कि इन जंगलों में बादाम और श्राडू के पेड़ बहुत हैं और इतनी धनी तादाद में कि इस फल का गूदा, जिसको यहाँ के लोग श्राडू-बादाम कहते हैं, निर्यात की वस्तु गिनी जाती है । हमने इनको कुम्भलमेर की घाटी और देलवाड़ा के दर्रे में देखा था । हमने सोचा था कि लाडू बोया जाता है परंतु यह स्थान बहुत लम्बे समय तक मरहठा सरदारों का निवासस्थान रहा था अतः हमारा यह संदेह तब तक बना रहा जब तक कि हमने एक कुए के अग्रभाग के पत्थर की दरारों में स्वतः उगे हुए कुछ पेड़ देख न लिए । श्राज की मंज़िल में भी हमने ऐसी ही कुछ दरारें देखीं । प्राश्चर्य प्रकट करने पर मुझे बताया गया कि कुम्भलमेर की घाटी में ऐसी बहुत-सी दरारें हैं जिनमें कई विचित्र और उपयोगी स्वदेशी पौधे उगे हुए हैं । खट्टे सेव के अलावा सालू या सालू मिश्री होती है जो या तो हमारे औषधि कोष में जिसको आरारोट कहा गया है, वह है श्रथवा ऐसा ही कोई अन्य पौधा है जो वैसा ही माँडी जैसा द्रव्य उत्पन्न करता है । मुझे समझाया गया कि यह कोई जड़ नहीं है वरन् एक बेल होती है जिसमें हाथों की अंगुलियों के समान उभरे हुए गुच्छे निकलते हैं । प्रस्तु वे इसको उपयोग के लिए तैयार न कर सके या उन्होंने करना नहीं चाहा, मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है । शायद वे इसे सेम की फलियों के समान बताते थे, यदि ऐसा है तो यह वही चीज है जिसको डायोडोरस सीक्यूलस' ने कैलॅमस बताया है और जो १ ग्रीक इतिहासकार, जिसने ई० पू० ६०-५७ में मिस्र में भ्रमण किया था और ४० भागों में Diodorus of Sicily नामक इतिहास लिखा था । उसने लिखा है 'यहाँ पर ( Calamus ) बहुत अधिक मात्रा में पैदा किया जाता है जिसके फल शक्ल में सफेद चला जैसे होते हैं । इनको इकट्ठे करके गरम पानी में रख देते हैं और जब ये फूल कर कबूतर के अण्डे के बराबर हो जाते हैं तो हाथों से गूंद कर इसकी स्वादिष्ट रोटियाँ बनाते हैं । (Diad. Sis. Book II., C. 4) उक्त पुस्तक का C. H. Oldfather कृत अंग्रेजी अनुवाद १९३३ में प्रकाशित हुआ है । -Imp. Lib. Cat., Calcutta, 1939. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • २; पहाड़ी राजपूत [ २१ लंका में पाया जाता है । मैंने अपने सम्बन्धी कैप्टेन वाघ को, जिन्हें राजधानी में मैंने कार्यभार सौंपा है, लिखा है और गांव का नाम भी बतला दिया है कि कुम्भलमेर के पहाड़ी इलाके में 'कडियां' नामक. गाँव से, जहाँ जंगली दाख, सेव और सालू मिश्री पैदा होते हैं, ये सभी चीजें इकट्ठी कर के थोड़ी-सी मेरे लिए भेज दें। यदि पाल्प (Alp)की परिभाषा ऊँची जमीन अथवा पहाड़ी चरागाह हो तो इस सुन्दर इलाके के लिए यह पर्वतीय विशेषण बहुत ही उपयुक्त होगा क्योंकि इन ऊंचीऊँची चट्टानों और अनगिनती झरनों के बीच-बीच में बढ़िया चरागाहों की ही बहुतायत नहीं है वरन् जोतने योग्य भूमि भी है, जिसका बहुत बड़ा भाग मक्का, गेहूँ, जौ और गन्ने के लिए हल चला कर तैयार किया जा रहा था । यदि कृषिउद्योग के किसी प्रयोग को देखने में आनंद आता है तो वह विशेष रूप से इन्हीं पहाड़ी दरों में मिल सकता है जहाँ जङ्गल के जङ्गल समतल बना कर हल चलाने योग्य बना लिए गए हैं। परन्तु विचारशील मनुष्य के लिए यहाँ पर एक और भी आकर्षण का विषय है । वह है, यहाँ के प्राचीन भूस्वामियों के वंशज, पहाड़ी राजपूतों को अपनी पूरी देशी शान में देखना । उनका कद लम्बा, शरीर पुष्ट और आत्मा स्वच्छन्द है । यद्यपि ये लोग कड़ी मेहनत कर के गुजर करते हैं फिर भी अपने आभिजात्य को जरा-सा भी नहीं भूलते। मैदान में रहने वाले अपने अकर्मण्य बन्धुओं की तरह ये लोग भी ढाल तलवार सदा साथ में रखते हैं, परंतु इनका जीवन आसपास में बसने वाली मेर, मीरणा, और भीलों को जरायमपेशा जातियों के विरुद्ध सामरिक प्रतिरक्षा का दृश्य उपस्थित करता है । आज सभी ठाकुर और गाँवों के मुखिया अपनी सेवाएं अर्पित करने के लिए मेरे पास इकट्ठे हुए थे। उनमें से कई एक तो दिन भर मेरे डेरे में बने रहे और पुराने जमाने की बातें सुना कर मेरा मनोरंजन करते रहे कि किस प्रकार उनके पूर्वजों ने पास के एक-एक दर्रे पर जान दे देकर (देश की रक्षा की थी जब कि 'उत्तर की ओर से युद्ध के बादल उमड़ रहे थे' और तुर्क ने उनके सरदार, महाराणा को वश में करने का पक्का इरादा कर लिया था। कभी अपने पड़ौसी लुटेरों के हमलों का हाल सुनाते तो कभी उन प्राचीन बातों का बखान करते जिन्होंने पर्वत के प्रत्येक शृङ्ग और घाटी को अमर बना दिया था। १ यह टिप्पणी, मेरा विश्वास है कि बाद में विविध सूचना के लिए Illustrations of che Botany and other Branches of the Natural History of the Himalayan mountains' के उत्साही लेखक वनस्पतिशास्त्री Dr. Royle को प्राप्त हो जावेगी। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा उन्होंने एक अस्पष्ट-सा घना जंगलो स्थान बताया जो बनास के उद्गम के पीछे ही था; वहाँ पर वीर प्रताप अपने निर्दय शत्रुओं से दुखी होकर शरण लिया करता था। इस स्थान को तथा ऐसे ही दूसरे स्थानों को जहां वह शरण लिया करता था, वे 'राणा-पाज' अर्थात् राणा के पद-चिह्न कहते हैं। इन आनंददायक गाथाओं के सुनने में तथा कॅप्टा (बाँस के धनुष) और पूरे एक गज लम्बे तीर से अभ्यास करने में दिन झटपट बीत गया। इन पहाड़ी सरदारों की पोशाक मैदान के रहने वालों से भिन्न एवं प्रासपास के दृश्यों से मेल खाती हुई थी। ज्यों ही दशाणोह का सरदार आया तो उसे देख कर, उसकी पगड़ी के अलावा, हम एक प्राचीन ग्रीक की कल्पना कर सकते थे । छाती और बाहों को खुला छोड़ कर उसकी चद्दर वाँए कंधे पर एक गाँठ से बँधी हुई थी और लम्बाई तथा शकल में घाघरे से मिलता जुलता एक कपड़ा उसकी कमर से लिपटा हुआ था। वह हाथ में धनुष लिए हुए था और तरकश उसके कंधे से लटक रहा था । पहाड़ी लोगों की साधारणतया यही पोशाक है और सिरोही तक मुझे यही मिली । कुछ सुधरे हुए लोग यही कपड़े ढीले पाजामे पर पहनते हैं परंतु यह प्राचीन पोशाक में एक नवीनता का मिश्रण मात्र है। उनके गांवों की बनावट भी उनकी पोशाक की सादगी के अनुरूप ही है; गोलाकार घर, जिन पर नोकदार छप्पर की छतें-ऐसे ही घरों के कुछ गाँवड़ों के समह सुरक्षा के लिए चोटी के अधबीच में नीम के वृक्षों की छाया में बसे हुए बहत ही सुन्दर दिखाई पड़ते हैं। कहीं-कहीं, जैसे पजारो में, गांव का शिखरबंध देवालय इस दृश्य को और भी महानता एवं आकर्षण प्रदान करता है। जब मैं उधर से निकला तो वहाँ के अंधे सरदार को मुझ से मिलने लाया गया, और यहाँ पर मैंने सहनशील राजपूत और खूखार धर्मांध मुसलमान के बीच स्पष्ट अंतर लक्ष्य किया कि उसके द्वारा विजयचिह्न के रूप में बनाई हुई ईदगाह अब तक अछूती खड़ी हुई थी यद्यपि वह पजारो के अर्द्धभग्न मंदिर से साफ दिखाई पड़ रही थी। आज के दिन का मेरा दूसरा आनंदप्रद कार्य बनास के बहु-प्रतीक्षित उद्गम को तलाश कर लेने में था; यह नदी विशालता एवं उपयोग की दृष्टि से रजवाड़े में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । कई प्रदेशों में होकर चम्बल से इसके संगम की तलाश कर चुकने के बाद, यह अनुसंधान मेरे मन में वे आनंददायक बहुमुखी परंतु वर्णनातीत गुदगदियाँ पैदा किए बिना न रह सका जो किसी महानदी के उदगम पर उत्पन्न हुमा करती हैं। यह स्थान मेरे डेरे से दक्षिण-पश्चिम की तरफ लगभग पाँच मील की दूरी पर पठार के सब से ऊँचे भाग पर था। बहुत-से Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २; बनास [ २३ छोटे-छोटे झरने इसमें आकर मिल जाते हैं और उनका छिछला किन्तु स्वच्छ पानी इसके कंकरीले पेटे में आकर समा जाता है। इस 'पर्वत और झरने के स्वामी', राजपूत, पोशाक और बाहरी चाल ढाल में तो, 'गालों' (Gaul) से मिलते जुलते हैं ही. परंतु विचित्रतापूर्ण प्राचीन उपाख्यानों को लेकर तो यह समानता और भी आगे बढ़ जाती है जिनमें उनकी कल्पनाएं यहां को प्रत्येक दृश्य वस्तु को तद्रूपता को सिद्ध करती हैं । दुर्भाग्य से मैं एक ही प्राचीन सुन्दर उपाख्यान अपनी स्मृति में रख पाया हूँ जो इस अरावली की वनदेवो (नाइड-Naiad) के अधिक पौराणिक नाम वनासि से सम्बद्ध है । इसका सारांश यह है कि यह (नदी) एक पवित्र गडेरिन थी जो किसी समय इस प्राकृतिक झरने में आनंद कर रही थी। तभी किसी मनुष्य को अपनी ओर देखते हुए लक्ष्य कर के वह डर गई। वह मनुष्य अनजान म्यूसीडोरी के प्रेमी की भांति मदुता से कह सकता था 'स्नान करती रहो, प्रेम की दृष्टि के अतिरिक्त तुम्हें कोई नहीं देख सकर्ता।' परंतु वह अतिक्रांता लेखनकला से पूर्णतया अनभिज्ञ था अतः उसे तो | अपनी बात कहने के लिए] साक्षात् ही आगे आना पड़ा। अस्तु, कुछ भी हो, उस (गडेरिन) ने झरने को देवता से अपने को उस दर्शक की दृष्टि से छुपा लेने की प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना स्वीकार हुई और तुरंत ही पानी ने ऊँचे चढ कर भीलनी को ढक लिया जो वहीं स्वच्छ जल को नदी वनासि के रूप में बदल गई। वनासि-'वन की प्राशा', यह इस नदी के लिए बहुत ही उपयुक्त नाम है क्योंकि यह इस चट्टानों से घिरे जनस्थान के जीवन और आत्मा के समान है। इसके कुटिल प्रवाह के सहारे मेरे द्वारा अनुसन्धित उद्गम से चारुमती (चम्बल के पौराणिक नाम चर्मण्वती ?) के नरप्रपात संगम तक आगे का मार्ग भी कम चित्ताकर्षक नहीं है, और यदि यह स्थान मुगम्य होता तो मैं पाठकों को इसके किनारे-किनारे पूरे तीन सौ मील की सैर के लिए अवश्य आमंत्रित करता। उपाख्यान में कहा गया है कि घनी वनस्पति और चट्टानों से घिरे हए एक परम रमणीय एकांत स्थान में, इसके मैदान में पहुंचने से पहले ही, कभो-कभी एक १ प्राचीन फ्रांस निवासी जाति । २ प्राचीन ग्रीक गाथाओं में वर्णित नदी झरनों की देवी। यहाँ 'वनदेवी' शब्द में वन का अथ जल लेना चाहिए। 'पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं वनम्'-अमर० Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] पश्चिमी भारत की यात्रा हाथ' पानी के ऊपर दिखाई पड़ता है । फिर, यह (नदी) हमें नाथद्वारा में कन्हैया के मंदिर के आसपास इठलाती हुई परंतु 'राधा के प्रेमो' के पवित्र ध्वज तक पहुँचने के लिए विफल प्रयास करती हुई मिलतो है; उसकी (राधा की) आज्ञा से अथवा प्रतिस्पर्धिनी गोपियों की करतूत से एक चट्टान की रोक बीच में आ पड़ती है और 'अरावलो की प्राशा' अपने यमना-तट के प्रेमो विष्णु के प्रति किए हुए प्रयत्नों में विफल होकर पठार की वनदेवी अथवा जलदेवी की संगति प्राप्त करने के लिए मेवाड़ के मैदान में होकर आगे दौड़ पड़ती है। दूसरी इसी नाम की धारा इसी ऊँचे स्थान से निकल कर पहाड़ के पश्चिमी ढाल से रास्ता पकड़ कर आबू की पूर्वीय तलहटी में दौड़ जाती है और वहाँ से पूर्वप्रसिद्ध चन्द्रावती नगरी और कोलीवाड़ा के जङ्गलों को पार करती हुई अन्त में कच्छ की खाड़ी के सिरे पर खारो रन में जा मिलती है। जन ४ थी; नले में डेरा ; सुबह के १० बजे थर्मामीटर ८६° व बैरोमीटर २८°१२' पर था। दिन के १ बजे थर्मामीटर ६३° और बैरॉमीटर २८६' तथा शाम को ६ बजे थर्मामीटर ६२° और बैरोमीटर २८° पर था। आज सुबह हमने अपनी यात्रा अरावली की पश्चिमी ढाल पर शुरू की जो 'मृत्यु देश' अर्थात् मरु के रेतीले मैदानों में उतरती है । जहाँ उतार शुरू होता है वहाँ से, जब तक हम पहाड़ियों को पार न कर गए, नाळ', जिसमें मोड़ बहुत कम या नहीं के बराबर हैं, पूरी बाईस मील लम्बी है और कुम्भलमेर वाली उस नाळ से बीस गुनी कठिन है जिसके द्वारा गत वर्ष हमने मारवाड़ में प्रवेश किया था, परंतु • ' मैंने (राजस्थान) के 'इतिहास' में कुम्भलमेर की यात्रा के प्रसङ्ग में इस स्थान का वर्णन किया है, गाथा कहती है कि प्रायः झरने की देवी का हाथ पानी के ऊपर दिलाई दिया करता था, परन्तु अब एक असभ्य तुर्क ने उस हाथ पर पवित्र गाय के मांस का टुकड़ा फेंक दिया तब से वह नहीं दिखाई पड़ता। २ Drvad ग्रीक पौराणिक देवी जो वृक्षों की स्वामिनी मानी जाती थी। Naiad नदी और झरनों की देवता । (S. N. E., p. 915) 3 'नाळा' शब्द प्राय: पहाडी भरने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, यह नाळ (घाटी) से निकला है क्योंकि झरना पहाड़ी प्रदेश में होकर आगे बढ़ने के लिए कोई न कोई मार्ग निकालता रहता है । 'नाळ' शब्द का अर्थ नली भी है जिससे 'नाल गोला' बना जो पुराने तरीके को हाथ-बन्दूक 'तोड़ा' के अर्थ में शाता है अर्थात् किसी भी प्रकार से नली में से फैकी हुई गोली । यह शब्द भारत के सैनिक कवियों (चारण) द्वारा एक युद्धास्त्र के लिए बहुत पहले से ही प्रयुक्त किया जा रहा है जब कि यूरोप वाले बारूद छ। प्रयोग बाद में जानने लगे हैं। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २; प्ररावली की महिमा [ २५ उसी की तरह, परिश्रम का-यदि इसे परिश्रम कहें---फल भी अवश्य मिल जाता था क्योंकि प्रकृति की शानदार और विचित्र कारोगरियों के कारण दिमाग में एक उत्साहपूर्ण हलचल लगातार बनी रहती थी। __इस रास्ते को एक हो मंज़िल में तय करने से आदमियों और जानवरों दोनों ही को परेशानी हुए बिना न रहती, इसलिए हम नाळ के बीचोंबोच एक सुन्दर से हरे-भरे स्थान पर, जहाँ मेरे छोटे से डेरे के लिए पर्याप्त स्थान मिल गया था, एक स्वच्छ पानी के झरने के किनारे बनास के उद्गम के समीप ठहर गए; यह झरना बनास के निकास के पास से निकल कर पहाड़ के पश्चिमी ढाल पर टेढ़े-मेढ़ मार्ग से वह कर मारवाड़ प्रांत में होता हुआ जालोर के पास लनी या 'खारी' नदी में मिल जाता है । यद्यपि कहीं-कहीं ऐसे छोटे और प्राकर्षक स्थानों पर रास्ता चोड़ा हो गया है परंतु इस पूरी घाटी को एक नाळ ही कहना पड़ेगा क्योंकि इसकी चौड़ाई प्रायः बहुत कम है और एक स्थान पर तो डेढ़ मील की लम्बाई में यह इतनी तंग हो गई है कि केवल कुछ मुट्ठी भर अादमी ही शत्रुओं का सामना कर सकते हैं, जहां उनको यह अाशंका भी न होगी कि यहाँ चारों ओर घने जङ्गलों और घाटियों से घिर कर उनकी सेना को लौटना पड़ेगा । इस ऐश्वर्ययुक्त उत्तम स्थान को देखते ही हमें उस रहस्य का पता चल जाता है कि यहाँ के राणा मुसलमान अाक्रमणकारियों का सुदीर्घकाल तक कैसे सफलतापूर्वक सामना कर सके थे। इस स्थान पर सभी कुछ महान्, सुन्दर और प्राकृतिक था-मानो प्रकृति ने इसको अपनी प्रिय संतान के नित्य-विहार के निमित्त ही बनाया हो, जहाँ दृश्य को शांति एवं अनुरूपता में बाधा डालने वाले मानवीय विकारों के लिए कभी कोई अवसर नहीं था । आकाश निर्मल था, धनी पत्रावली में से एक दूसरी का प्रत्युत्तर देती हुई कोयलों की कूकें सुनाई पड़ रही थीं, सूर्य का प्रकाश पहुँचते ही बाँस की कुजों में छुपे हुए वनकुक्कुट प्रातःकालीन बाँग देने लगे थे, वृक्षों पर घोंसलों में बैठे हुए भूरे तीतरों के झुण्ड हर्ष-प्रदर्शन में पंडुको से होड़ लगा रहे थे और पहाड़ी चट्टानों पर तेजी से फैलती हई प्रखर रविरश्मियाँ उन्हें पालोकित कर रही थीं। अन्य गैर-मैदानी पक्षी भी इधर उधर उड़ रहे थे और कठफोड़े की आवाज उस कठिन धरातल से टकरा-टकरा कर प्रतिध्वनित हो रही थी जिस पर वह अपनी चोंच से चोटें मार रहा था। भाँति-भाँति के फल और रंग-बिरंगे फूल वन के सभी द्विपदों, चतुष्पदों, पक्षियों और परिश्रमशील मधुमक्खियों को, जो विशाल वृक्षों पर चढ़ी हुई सफेद एवं पीली चमेली के मधुरतम मधु का पान करने में सक्षम थीं, आमन्त्रित कर रहे थे। काम्बीर' और 'कानोमा' के लाल और सफेद फलों के Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा गच्छे के गच्छे वहां मौजूद थे जो बकाइन-सदृश दिखाई पड़ते थे । झरने का किनारा बादाम की सी सुगन्ध वाले कनेर के वृक्षों से ढंका हुअा था और उसी के तट पर एरण्ड और सरपत बहुतायत से लहलहा रहे थे। इसी प्रकार के और भी सुन्दर-सुन्दर पौधे थे जो चमेली और जम्बोलिया जैसे तो नहीं, परन्तु थे देखने योग्य; इन में से एक तो 'सुगन्धिकुसुमा' से बहुत मिलता-जुलता था। फलों में यत्रतत्र उगे हुए पाडू-बादाम के अतिरिक्त अंजीर (गूलर नहीं, जिसके फल टहनियों के न लग कर डंठल पर लगते हैं), शरीफा, खतूम, रायगुण्डा, जिसको ल्हेसवा भी कहते हैं और जिसका फल लसदार व सुपारी के बराबर होता है, और टैण्डू अथवा कोविदार के फल हैं, जो यहाँ पर प्रचुरता से मिलते हैं। ये तथा और भी बहुत से पदार्थ, जो वनस्पति-शास्त्रज्ञ एवं प्रारिण-विज्ञानवेत्ता के लिए आकर्षण के विषय हैं, हमारे देखने में आए। इस सुमधुर पुष्पसमूह से निकला हुआ शहद बरबान' अथवा नरबॉन' द्वीप के शहद से कहीं बढ़ कर है जिनमें से पूर्व-स्थान का मधु मैंने झरने के मुहाने पर चखा था और बाद वाला तो द्वीप से आया हुआ बिलकुल ताजा ही था। ___मेरी पूछताछ और स्थानीय चिर-पिपासु मित्रों की जिज्ञासा के लिए आज का दिन बहुत छोटा निकला; इन मित्रों के साथ होने से यहाँ को सुन्दर दृश्यावली की रोचकता बहुत बढ़ गई थी। ज्यों ही रात होने लगी मैंने उन सब को घर जाने के लिए विदा किया और यह आश्वासन दिया कि मैं उनके विषय में रारणा को लिखंगा क्योंकि उन्होंने यह शिकायत की थी कि (सम्बन्धित) मन्त्री उनकी सदा की स्वामिभक्ति और उत्साह को जानते हुए भी वसूली के लिए शहने भेज देता था यद्यपि नया साल लगते ही इसकी मनाही हो चुकी थी। ' Hyacinth-Eng. and Sanskrit Dictionary, 1851-M. Williams. २ बनस्पति-शास्त्री प्राडू को 'उगाया हुमा' बादाम खयाल करते हैं; यह धारणा इस संयुक्त-पद से बनी मालूम होती है। ३ फ्रांस के मध्य में विशी (Vishy) के समीप । इसी स्थान के एक परिवार में से फ्रांस __ की गद्दी पर राजा बैठा करते थे। [N.S.E.; p. 179] ४ फ्रांस के दक्षिण में एक द्वीप। ५ मेरे पास अब भी थोड़ा सा अरावली का शहद मौजूद है जिसमें प्रब १० वर्ष बाद भी इसकी मौलिक सुगन्ध ज्यों की त्यों बनी हुई है। इसका कारण शायद यह है कि इसमें कोई संस्कार नहीं किया गया है अथवा इसे प्रांच नहीं दिखाई गई है। यह छाते से केले के पत्ते बिछी हुई टोकरियों में टपकाया गया था और फिर बोतलों में भर कर मजबूत डाट लगा दी गई थी। मैं अपने साथ २० बोतलें इङ्गलण्ड लाया था और उन्हें अपने मित्रों में बांट दी थीं । सभी ने यह स्वीकार किया कि यह शहद यूरोप के शहद की सभी किस्मों से बढ़िया है। इस शहद में दो किस्में थी; पहाड़ी के ऊपर की धरातल पर लिये हुए शहद में रंग नहीं था परन्तु नीचे प्राकर ग्राम की कुंजों से लिया हुआ शहब कुछ भूरा-सा रंग लिए हुए था। लगान उगाहने वाला प्यादा। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ ग्रन्थकर्ता के प्रति सेवकों का कृतज्ञभाव; घाटी को सँकड़ाई; समाधि का पत्थर; मीणों की चढ़ाई; भीलों की शक्ति व उनका स्वभाव; रहन-सहन; उद्गम और भाषा; जंगली भील; वन्तकथा; भारत के प्रादिवासी भीलों के अंध-विश्वास; भीलों की धार्मिक श्रद्धा एवं देशभक्ति; उनके चरित्र में परिवर्तन के कारण; 'सरणा' या देवस्थान; सलम्बर का राव और उसका भील-घातक प्रासामी; लुटेरे भीलों को फांसी; सरिया लोग, उनका स्वभाव और रहन सहन । ___ जून ५वीं; वीजीपुर या वीजापुर : रात में किसी भी जंगली चौपाये या दो-पाए द्वारा कोई विघ्न नहीं हुआ । परन्तु जब कूच की आज्ञा देने के लिए डेरे से बाहर निकला तो अपने विश्वासपात्र सशस्त्र राजपूतों की टोलो को 'रात की आग' के पास खड़े देख कर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, वे रात भर भीलों और रीछों से मेरी रक्षा करते रहे और मैं सोता रहा। जब मैंने, कल शाम को विदा लेकर उनके अपने अपने गांव न जाने पर, दुःख प्रकट किया तो तुरन्त ही बहुत सी आवाज़ों ने एक साथ मिल कर यही भावना प्रकट की 'ऐ महाराजा, जो कुछ आपने हमारे लिए किया है उसके बदले यही आपकी आखिरी सेवा है जो हम कर सकते हैं-'मन का [की ] चाकरी'। क्या अब भी यही कहा जायगा कि इस प्रदेश में कृतज्ञता के लिए कोई शब्द नहीं है ? यदि यही खयाल है, जो ठीक नहीं है तो कार्यरूप में यह प्रत्यक्ष उदाहरण मौजूद है जिसमें बहाने की कोई गुञ्जाइश नहीं । कुछ ही घण्टों में सदा के लिए विदा होने वाले विदेशी मेहमान की इससे बढ़ कर आन्तरिक सेवा और क्या हो सकती है ? शहर के धनी लोगों ने तथा हलवाहे किसानों ने बराबर गम्भीर शब्दों में कृतज्ञता प्रकट की। अस्तु, अब हम बाकी बची घाटी की यात्रा चालू करें और मरु के तप्त मैदानों में चल कर पहुंचे। कल वाली घाटी के दरवाजे पर नायन माता नाम की देवी की भोंडी सी मति बनी हुई थी। थोड़ी ही देर बाद, जब हम उतरने लगे तो एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जो नाळ की गरदन सा बना हुआ है और यहाँ से ही दूसरी नाळ शुरू होती है अथवा इन जंगलो स्थानों को दिए हुए बहुत से नामों में से एक नया नाम चालू होता है। यह शेष भाग शीतला माता के नाम पर प्रसिद्ध है जो बच्चों की, विशेषत: शीतला या चेचक के रोग में, रखवाली करती है। हम इस स्थान Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पर सुबह के ६ बजे पहँचे थे जब थर्मामीटर ८२° पर और बेरॉमीटर २८° २५' पर था। थोड़ा ही आगे चलने पर, जहाँ घाटी की चौड़ाई बिलकुल सिकुड़ गई है और थोड़ी दूर तो यह क्षितिज से ४५° का ही कोण बनाती है, धरातल ऊँचा नीचा और टूटा फूटा है; यहाँ पर ऊँट वालों और हाथियों को पूरी होशियारी तथा समझ से काम लेने की आवश्यकता थी अन्यथा उनको एवं पेड़ों की नीची डालों से टकरा-टकरा कर कई बार अस्तव्यस्त हुए उन पर लदे सामान को हानि पहुँचने का डर था । यहाँ पर हमने खुले पत्थरों का एक चबूतरा देखा। यह पुजारो (Pudzaroh) ' के भतीजे का स्मारक था, जो 'ऊटवण के मीणों द्वारा अपहृत जानवरों को छुड़ाने के प्रयत्न में मारा गया था। वे पीछा करने वालों से बचने के लिए नाळ का रास्ता छोड़ कर बाईं तरफ़ जंगलों में घूम खाकर घाटी की मुड़ी हुई दूसरी शाखा के मुंह पर आ गये थे। उन्होंने सोचा था कि इस तरकीब से वे अनुधावकों से बच सकेंगे और इस साहसिक प्रयत्न, वीरता एवं चतुराई के कारण कुछ सफलता भी मिली। प्रधान घाटो से इस शाखा के मोड़ पर पूरे बीस फीट की एक खड़ी ढाल है जिस पर से एक बरसाती नाले ने रास्ता बना रखा है। इसी रास्ते से उन लोगों ने बचाव का प्रयत्न किया था। 'भेड़चाल' वाली पुरानी कहावत इन पहाड़ी हिस्सों के जानवरों पर पूरी तरह लागू होती है । ये घोड़े के बछेड़ों की तरह चंचल होते हैं और जिधर एक चला जाता है बाकी सब उसीके पीछे चल देते हैं । पशुओं की इस प्रवृत्ति को पहचान कर मीणा लोग चट्टान पर जा पहुंचे और उन्होंने सबसे आगे वाले पशू को छूरा मार कर फेंक दिया; कूदने वाले नेता का अनुकरण करते हुए दूसरे पशु भी कूद १ Pudzaroh यह शब्द 'पुजारा' या 'पुजारो' का अंग्रेजी रूपान्तर प्रतीत होता है जो भीलों आदि के गुरु ब्राह्मणों की जाति का सूचक है । इन लोगों में नियोग की प्रथा आदि मान्य होने के कारण ये निम्नकोटि के ब्राह्मण माने जाते हैं । मेवाड़ के कुंभलगढ़, सेवंत्री (रूपनारायण), सायरा एवं जरगा के पहाड़ी क्षेत्रों में इन लोगों की अच्छी बस्तियाँ बसी हुई हैं। इसी प्रकार Dussanoh भी किसी स्थान का नाम न होकर दसाणा या दस्साणा नामक निम्नकोटि के क्षत्रियों की एक खाँप है जो उपर्युक्त क्षेत्रों में पाई जाती है । इनको मेवाड़ में 'दहारणा' या 'दुसाना' कहते हैं । इनमें भी नियोग अथवा 'नाता' की प्रथा प्रचलित है । अब ये दोनों ही जातियाँ खेतिहर हैं। स्थानीय स्रोतों से प्राप्त उपर्युक्त सूचना भेजने के लिए मैं अपने मित्र श्री व्रजमोहन जावलिया, एम. ए. का आभारी हूं। ठा० बहादुरसिंह, पट्टेदार बीदासर ने अपनी 'क्षत्रिय जाति की सूची (श्री ज्ञानसागर प्रेस, बम्बई, १६७४ वि०) में भी पृ० १२२ पर 'दुसाना' जाति के जेनगढ़ से खुमाण के साथ चित्तौड़ में आने का उल्लेख किया है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ३, भीलों की शक्ति [ २६ पड़े । परन्तु इतनी हिम्मत और चतुराई के होते हुए भी मीणे परास्त हुए और दोनों ओर के कुछ प्रादमी मारे गए जिनमें पुजारो (Pudzaroh) का भतीजा भी था, जिसके कुछ रिश्तेदार मुझे घाटी पार करने तक पहुँचाने आए थे। जिन लोगों को ऐसे झगड़ों और पुराने जमाने की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों के उपाख्यान सुनने का शौक है उनके लिए यहाँ को प्रत्येक घाटी और नाळ पुरावृत्त से भरी पड़ी है; और यदि मुझे पाठकों के अत्यधिक धैर्य और समय को नष्ट करने का ध्यान न होता तो मैं ऊटवण के मीणों द्वारा अरावली की गोशालाओं पर हुए आक्रमणों के और भी रोचक वर्णन प्रस्तुत करता; अथवा प्रोगणा, पानरवा तथा मेरपुर के अधिक सभ्य भाई-बन्धुनों के साथ मिल कर कुछ दूर के छप्पन' के भोलों के हमलों का भी बयान करता। मैं समझता हूँ कि मीणों का संक्षिप्त इतिहास ही पर्याप्त स्थान ले लेगा और भीलों के इत्ति वृत्त पर तो पहले ही बहुत कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। फिर भी, इन स्थानों का भौगोलिक चित्रण करते हुए मैंने 'स्वतंत्र' भील जाति के विषय में थोड़ा-सा वर्णन किया है जो उनके रहन-सहन, रीति-रिवाजों और 'पृथक्' स्थिति के कारण बहुत ही मनोरञ्जक है। पहले कह चुका हूँ कि मेरा इरादा इन गाँवड़ों में हो कर सीधा प्राबू/जाने का था परन्तु मेरा विचार है कि जो रास्ता मैंने अब चुना है उससे दिलचस्पी और भी बढ़ जायगी । जब मैं 'पृथक्, या स्वतन्त्र' शब्द कहता हूँ तो मेरा तात्पर्य भौगोलिक एवं राजनीतिक स्थिति के दृष्टिकोण से है । ऊँचे-ऊँचे पर्वतों से पावत, अनेक घाटियों और वनों से सुरक्षित, सेना की टुकड़ियों के लिए दुर्भेद्य स्थानों में ये लोग पूर्ण स्वतन्त्रता का जीवन व्यतीत करते हैं; ये अपने सरदार ही के अधीन हैं, जो यदि अपनी घाटियों के रक्षार्थ इनको इकट्ठा करे तो निश्चय ही 'पन्द्रह हजार धनुष' एकत्रित हो सकते हैं। इस अर्द्ध-स्वदेशी भ्रात-संघ (बिरादरी) के मुख्य गाँवों के नाम पानरवा, प्रोगणा, जड़ा मेरपुर, जवास, सुमाइजा, मादड़ी, औजा, आदिवास, बँरोठी, नवागांव आदि हैं जिनके १ दक्षिणी मेवाड़ का भील प्रदेश । + में इसे Transactions of the Royal Asiatic Society के लिए एक निबन्ध का विषय बनाना चाहता हूँ। [ यह भी उन बहुत से बहुमूल्य संस्मरणों में से है, जिनसे लेखक कर्मल टॉड की दुखद मृत्यु के कारण, जनता वञ्चित रही।] 3 इस जाति के विस्तृत वृत्तान्त के लिए 'Transactions of the Royal Asiatic Society, Vol. (i), p. 65' में स्वर्गीय सर जॉन मालकम का लेख पढ़िए । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] पश्चिमी भारत की यात्रा मुखिया, वन-पुत्र अथवा वनराज नाम का उपहास करते हुए, अपनी उत्पत्ति, वंश और रक्त राजपूतों से सम्बद्ध बतलाते हैं। पानरवा का मुखिया इन सब का स्वामी है और दशहरे के सैनिक पर्व पर सब लोग इसके सामने उपस्थित होते हैं । वह 'राणा' की उच्च उपाधि धारण करता है और कम से कम बारह सौ 'पुरे' और 'पुरवे' उसके सीधे अधिकार में हैं। इनमें बहुत से तो बिलकुल छोटे-छोटे हैं और अधिकांश एक ही बड़ी घाटी में कुछ कोसों के गिरदाव में स्थित हैं, जिनमें गेहूँ, चना, मूंग-मोठ रतालू, हल्दी (Puldi) और खाने योग्य कन्द अरबी, जो जरूसलम (Jerusalem) के चुकन्दर या हाथीचक्के जैसा होता है, बहुतायत से बोये जाते हैं। ये अपनी आवश्यकता से अधिक पैदा होने वाली चीजों को पड़ौसी रियासतों में भी भेजते हैं। आडू और अनार, जो इन पहाड़ियों की अपनी चीजें हैं, प्रोगणा और पानरवा में दोनों ही जगह बहुत पैदा होती हैं। प्रोगणा का मुखिया, जिसका नाम लालसिंह है, पद में दूसरे स्थान पर है। उसकी पदवी रावल है और वह नापने आपको पानरवा के अधीन मानता है। उसकी जागीर में साठ पुरे और पुरवे हैं। ओगणा, जो पानरवा से बीस मील दूर है, छोटा नाथद्वारा कहलाता है और मेरपुर जितना ही समृद्ध है । गोगुन्दा-सरदार का निकाला हुआ प्रधान प्रोगणा के भोमियाँ भील के यहाँ उसी पद पर नियुक्त है । ये लोग इस विशेषण (भोमियां) के प्रयोग के विषय में बहुत ध्यान देते हैं क्योंकि इससे भूमि के साथ उनकी आत्मीयता सिद्ध होती है और वास्तव में यह उनको भूमि का प्रादि-स्वामी सिद्ध करता है । पानरवा के राणा का एक छोटा-सा दरबार है जो राणा के दरबार की नकल है। मुझे बताया गया कि इस दरबार में पूर्ण शिष्टाचार बरता जाता है और 'राणा' भी अपने अधीनस्थ अनेक धनुर्धारी दरबारियों से महाराणा की तरह सम्मान प्राप्त करता है। पानरवा, भोगणा और अन्य अधीन मुखिया अपने को परमाररक्त का बताते हैं और जूड़ा-मेरपुर, जवास तथा मादड़ी के भोमियों से बेटीव्यवहार करते हैं जो अपने को राजपूतों की चौहान शाखा से सम्बद्ध मानते हैं । जूड़ा और मेरपुर, जिनका नाम सदैव एक साथ लिया जाता है, एक दूसरे से पाँच मील की दूरी पर बसे हुए हैं और नायर नामक क्षेत्र में स्थित हैं जो ईडर की सीमा को स्पर्श करता हुआ कम से कम नौ सौ झोंपड़ियों को अपने अंक में लिए हए है। मेरे सैमूर के पड़ाव से जूड़ा केवल बारह मील था और प्रोगुणा उससे आगे आठ मील । परन्तु रास्ता एक ऐसे जंगल में हो कर जाता था जो दुर्गम्य था । गोगुंदा से भी प्रोगणा उतनी ही दूर था। बीच में राणाजी की सीमा पर सूरजगढ़ की चौकी थी, जहाँ पर इन स्वतन्त्र निवासियों को दबाने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ३; भीलों का रहन-सहन [ ३१ के लिए अथवा आवश्यकता पड़ने पर इनसे सहायता लेने के लिए सीमान्त फौजी दस्ता तैनात था। निस्संदेह, प्राचीन काल में ये सभी वनपुत्र हिन्दूपति (राणा) के परम आज्ञाकारी रहे हैं। जब राणा के घराने की प्रतिष्ठा पर मुगलों की ओर से प्रायः आघात होते रहते थे तब इन लोगों ने उसकी रक्षार्थ सर्वोत्कृष्ट सेवाएं अर्पित की थीं। कुछ तो उन सेवाओं के प्रति कृतज्ञभाव के कारण और कुछ इन लोगों के दुर्दमनीय होने के कारण इनकी स्वतन्त्रता अक्षण्ण बनी हई थी। फिर, इन पर आक्रमण करना भी खतरे से खाली नहीं था। एक बार उदयपुर और प्रोगणा के बीच की सीमान्त चौकी पर जीरोल के ठाकुर और प्रोगणा के भील में झगड़ा हो गया, जो अपने आदमियों को चौकी पर चढ़ा ले गया था, परन्तु उनमें से समाचार कहने के लिए भी कोई नहीं लौटा। बदले में, जोधराम अपने दोहरा कवचधारी घुड़सवारों को चढ़ा लाया और उधर हजारों धनुर्धारी इकट्ठे हो गये । परन्तु, केवल पच्चीस राजपूत घुड़सवारों ने उस भारी भीड़ पर आक्रमण किया और मार-काट मचा कर उनको हरा दिया तथा गाँव में घुसकर लूटपाट करके बारह हजार का माल ले गए। खर [5] क नामक क्षेत्र, जिसकी राजधानी जवास है, डूंगरपुर और सलूम्बर की सीमाओं को स्पर्श करता है; यहाँ के ठाकुरों का इस क्षेत्र के निवासियों से निरन्तर वैर बना रहता है । ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरे हुए और विशेषतः बांस तथा धोक के घने जंगलों से ढंके हुए इस क्षेत्र पर कितनी ही फौज लेकर भी सफल अाक्रमण करना सम्भव नहीं है और यदि इन लोगों को अचानक भी धर दबाया जाय तो भी आक्रामकों में से कुछ तो अवश्य ही काट डाले जाएंगे। घाटी के रास्ते पर यदि कोई पेड़ काटने की हिम्मत करता है तो उसके भाग्य में मृत्यु निश्चित ही समझनी चाहिए। प्राग के (दारू गोले के) हथियार केवल गाँव के ठाकुरों और मुखियाओं द्वारा ही प्रयुक्त किए जाते हैं। इनका राष्ट्रीय शस्त्र कुम्प्टा या एक बाँस का धनुष होता है जिसके पतली और लचकीली छाल की पट्टी से चुल्ल' बंधी रहती है। प्रत्येक भाथे में साठ नुकीले तीर होते हैं । यद्यपि ये लोग अपना निकास विभिन्न राजपूत शाखाओं से मानते हैं और अपनी जातियों के साथ वही अवटंक लगाते हैं, जैसे चौहानभील, गहलोत-भील, परमार-भील इत्यादि, परन्तु इनकी उत्पत्ति का ठीक-ठीक पता तो उन देवताओं से चलता है जिनकी ये पूजा करते हैं और उन भोजनविषयक मान्यताओं से भी, जो इनमें प्रचलित हैं। ये कोई भी सफेद रंग की चीज नहीं खाते, जैसे सफेद भेड़ या बकरी; और इनकी सब से बड़ी शपथ ' प्रत्यञ्चा, डोरी। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा 'सफेद मेंढे की सौगन्ध' है । ये मान्यताएँ केवल उन्हीं लोगों की हैं जो अपने आपको उजला या शुद्ध भील कहते हैं; और यदि इन मान्यताओं से मुक्त बड़ी संख्या में लोगों का हिसाब लगावें तो बहुत थोड़े से ही 'शुद्ध' कहलाने के अधिकारी मिलेंगे । वास्तव में, ये लोग अब भी अर्द्ध-सभ्य हैं और अन्धविश्वासों, आदतों और भाषा के विचार से निश्चय ही आदिवासी जातियों के हैं। यद्यपि इनकी भाषा के अधिकांश शब्द संस्कृत से निकले हुए हैं तथापि इनके उच्चारण स्पष्ट हैं । मेरा यह कथन मेरी निजी खोज की अपेक्षा इन लोगों के पड़ौसियों द्वारा किए हुए वर्णन पर अधिक आधारित है-क्योंकि भीलों की बोली एक ऐसा विषय है जिसका अध्ययन करने की मेरी साध पूरी न हो सकी और इस बात का मुझे खेद भी है । यदि में ऊपर वर्णन की हुई बस्तियों में जाकर अनुसंधान कर पाता तो अवश्य ही ऐसी कुछ बातों का पता लगाता तथा उनके घरों में जा जा कर (सजावट के प्रमुख चिन्ह) सफेद मेंढे और अश्वमुखी, उनके लॉरेस और पिनेटस्' के विषय में अपने ज्ञान को और भी अधिक विस्तृत कर पाता। इस अध्ययन से उन लोगों को बहुत कुछ प्राप्त हो सकेगा जो प्रकृति की पुस्तक को प्रत्येक दृष्टिकोण से पढ़ना चाहते हैं और जिज्ञासु को यह बात जान कर पाश्चर्य एवं प्रसन्नता होगी कि पुरानी कहावत 'छोर मिल जाते हैं'२ सिद्ध हो जाती है। प्रकृति के इन असभ्य और प्रशिक्षित घरों में उसको सत्य, अतिथिसत्कार और उस गौरवपूर्ण श्रेष्ठता के दर्शन होंगे जो यूरोपीय नियमों में से धीरेधीरे लुप्त होती जा रही है; और वह है, शरणार्थी को शरण देना । यदि कोई भील किसी को शरण दे देता है तो वचन की रक्षा के लिए वह अपनी जान तक दे देगा। जब कोई यात्री उसकी घाटी का निश्चित कर चुका देता है तो उसकी जान-माल सुरक्षित हो जाते हैं और दूसरे द्वारा किए हुए किसी भी प्रकार के अपमान का बदला लिया जाता है । 'मौला का सरना' या कोई और सांकेतिक शब्द जिसका वह रक्षक प्रयोग करता हो, बिरादरी के एक छोर से दूसरे छोर तक सुरक्षा-वाक्य का काम देता है । यदि कोई रक्षक यात्री के साथ कोई मार्गदर्शक न भेज सके तो उसके भाथे में से दिया हुअा एक तीर काफ़ी होगा और उसको उतना ही प्रामाणिक समझा जावेगा जितनी कि किसी ईसाई दरबार में दूत की मुद्रा समझी जाती है । और, पहाड़ी अफगान को तरह भी यहाँ व्यवहार नहीं किय जाता कि जब तक मेहमान घर की दीवार पर अङ्कित गृह-देवता की - १ प्राचीन रोमन जाति के गृह-देवता जिनकी तस्वीरें वे अपने घरों में दीवारों पर बनाया करते थे। R'Extremes meet' Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ३; भीलों का रहन-सहन [ ३३ आँखों के नीचे है तब तक तो अतिथि-सत्कार की रीति पूरी की जावे और घर की छत से अच्छी-खासी दूर चले जाने पर उसी अपने शिकार को लटने में किसी प्रकार का संकोच न किया जाय । अमेरिका के एक इतिहासकार का मत है कि "जो जातियां शिकार पर निर्भर रहती हैं वे प्रायः सम्पत्ति-संग्रह के विचार से अपरिचित होती हैं और ऐसे प्रदेश के निवासियों में कोई भी जंगल अथवा शिकारगाह समस्त जाति की सम्पत्ति माना जाता है।" सभ्यता के पथ पर भील एक क़दम आगे हैं और उनमें शिकार की जमीन व्यक्तिगत भागों में विभाजित होती है, जैसा कि आगे लिखे उपाख्यान से सिद्ध होगा। इस उपाख्यान को मैंने कई वर्षों पूर्व लेखबद्ध कर लिया था। मेवाड़ और नरबदा (Nerbudda) के उजाड़ और एकान्त जंगलों में रहने वाले भील अब भी प्राकृतिकों का सा ही जीवन बिताते हैं। अग्नि के आविष्कार के परिणामस्वरूप रंधे हुए माँस व शराब को छोड़ कर उनके जीवन में और कोई विलास की वस्तु नहीं आ पाई है और वे ध्रुवों के किनारे रहने वाले एस्कीमो जाति के उन लोगों से किसी प्रकार भी अधिक सभ्य नहीं हैं, जिनको सड़ी हई व्हेल मछली की चर्बी वैसी ही स्वादिष्ट लगती है जैसे किसी भील को रंधा हुआ गीदड़ या छिपकली। अपने आप बहुतायत से उगे हुए जंगली मेवों से वनपुत्र के दस्तरखान की पूर्ति होती है और ये वैसे हो स्वादिष्ट पदार्थ हैं जो मॅरॉथॉन' और थर्मापिली के वीर-पूर्वजों को तृप्त किया करते थे; परन्तु उनके शाहबलूत या जैतून के फल-युक्त रात्रि-भोजन की अपेक्षा हमारे भील के आहार में विभिन्न और अधिक स्वादिष्ट पदार्थ भी सम्मिलित हैं; जैसे, तेंदुप्रा, इमली, आम और बहुत से दूसरे फल तथा तरह-तरह के जंगली अंगर एवं लसदार जमीकन्द इत्यादि । हाँ, यह बात अवश्य है कि उसे इन वस्तुओं को केवल १ Marathon (मॅराथॉन)-यूनान की राजधानी एथेन्स के उत्तर-पूर्व में २४ मील की दूरी पर एक मैदान, जहाँ ई० पू० ४७० में फारस और यूनान के वीरों में घोर युद्ध हुआ था।-Webster's Geographical Dictionary, 1960. २ थर्मापिली-यूनान का प्रसिद्ध दर्रा जो पूर्वीय समुद्र और पर्वत श्रेणी के बीच उत्तर से दक्षिण में दौड़ गया है । यहाँ यूनान की कितनी ही प्रसिद्ध लडाइयाँ हुई जिनमें अनेक यूनानी वीरों ने प्राणोत्सर्ग किया था। ई० पू० ४८० में स्पार्टा के बादशाह ल्योनीडस की अध्यक्षता में ३०० ग्रीक वीरों ने फारस की सेना का डट कर सामना किया। वे सभी इस दर्रा में मारे गए। उनके स्मारक पर लिखा है'स्पार्टा ! तुम्हारे वचन के अधीन हम यहीं हैं।' -N. S. E., p. 1212, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा :: अपने ही प्रयोग में लाने की छूट नहीं है क्योंकि इन पर वन में रहने वाले अन्य प्राणी रींछों और बन्दरों आदि को भी वैसे ही समान एवं स्वतन्त्र अधिकार प्राप्त हैं । तो अब में अपनी कहानी पर आता हूँ। "जायो" एक भील पिता ने अपने जामाता से कहा, "ये सामने के पहाड़ मैं अपनी इस पुत्री के 'डायजे ' (दहेज) में देता हूँ, अब से मैं इसकी हद में खरगोश या लोमड़ी नहीं पकडूंगा, फल नहीं तोडूंगा, कन्द नहीं उखाडूंगा और न इंधन के लिए शाखाएँ या पत्ते ही लूंगा | ये सब तुम्हारे हैं ।" परन्तु, रींछ इतनी जल्दी से अपना हिस्सा छोड़ने के लिए तैयार न था; वह अपने प्यारे महुवा वृक्ष पर अधिकार बनाए रखने के लिए लड़ पड़ा। एक भील युवक उस वृक्ष के नीचे सो गया, उसकी बग़ल में एक टोकरा उसी वृक्ष के फलों से भरा पड़ा था, जो उसने या तो अपने कुटुम्ब में भोजन के बाद फलाहार के लिए तोड़े थे अथवा उनका 'अर्क' (पूर्वीय व्हिस्की) निकालने के लिए इकट्ठे किए थे। उसी समय चक्कर लगाता हुआ एक रींछ. उधर आया और उसने उस भील को गहरी नींद में से बड़ी बुरी तरह जगाया । भालू लगभग उसको खा ही जाने वाला था कि लहूलुहान होकर भी भील उसकी पकड़ से बच निकला। वन की राज्य-व्यवस्था में इस गड़बड़ी को भील पिता सहन न कर सका । वह अपना धनुष-बाण लेकर अपमान का बदला लेने दौड़ पड़ा। आक्रमण के स्थान पर ही उसने भोजन करते हुए रींछ को जा पकड़ा, मार डाला और उसका चमड़ा ले जा कर एक पड़ौसी सरदार को भेंट कर दिया, जिसका वह मातहत था । उसने अपनी कहानी का उपसंहार इन शब्दों में किया .. यह उसी ज़ालिम की खाल है; यह बड़ी मुश्किल है कि वन में रहने वाले भाई-भाई मित्रता के व्यवहार से नहीं रह सकते, लेकिन लड़ाई इसी ने शुरू की थी ।" " यदि, जैसा कि सुप्रसिद्ध गॉग्युएट ( Goguet) ने कहा है (Vol. i p. 78), 'मनुष्यों के साधारण भोजन और उनके द्वारा देवताओं को चढ़ाई हुई बलि में सदा से ही एकरूपता रहती आई है क्योंकि वे हमेशा उन्हीं वस्तुनों का एक अंश देव - ताओ को चढ़ाते हैं जिनका वे प्रधानतया अपनी जीवन-रक्षा के लिए उपयोग करते हैं; जैसे, पहले जमाने में झाड़ियाँ, फल और पौधे चढ़ाते थे, फिर जब जानवर उनका साधारण भोजन बन गए तो उनको चढ़ाने लगे, तो इसका सीधा अर्थ यही होगा कि मनुष्य-बलि और नरभक्षण भी साथ साथ चलते थे; परन्तु, यद्यपि ऐसे लेखबद्ध प्रमाण मौजूद हैं कि हिन्दू तथा प्राचीन ब्रिटेन जाति के लोग अनिष्टकारक देवताओं को नर बलि चढ़ाते थे फिर भी यह विश्वास करने के लिए प्रमाण Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ३, भीलों का रहन-सहन [ ३५ नहीं है कि वे भक्त भी, चाहे वे (Celtic Belenus) कॅलिटक बेलिनू' हों अथवा (Hindu Bal) हिन्दू बाल हों, अपने देवताओं के इस भोजन में स्वयं भी भाग लेते थे यह सत्य है कि हम पाशविक अघोरी को लेकर आज भी नरभक्षण का उदाहरण दे सकते हैं, परन्तु यह तो नियम का एक अपवाद मात्र होगा। फिर भी, यद्यपि मानव की इस निम्नतम अवस्था का चाहे प्रमाण न मिले, हम यह सन्देह किए विना नहीं रह सकते कि इन जंगलों में रहने वाले नीचतम लोग, जिनका पेट मल-भक्षी गीदड़, विषभरी छिपकलो और अधसड़े दुर्गन्धयुक्त गोमांस का विरोध नहीं करता, कभी इनके बदले में मानव-शरीर के किसी अंश का उपयोग करने में भी अधिक आपत्ति शील रहे होंगे। हिन्दू-परम्परा की विशद शृङ्खला में ऐसे किसी भी समय का अनुसंधान नहीं किया जा सका है जब भारतवासी अग्नितत्त्व और उसके घरेलू उपयोगों से अपरिचित रहे हों; फिर भी, उन्होंने कभी इसका आविष्कार किया ही होगा जैसा कि पृथ्वी पर बसने वाली अन्य जातियों ने किया। यह कौन कल्पना करेगा कि अग्नि भी, जिससे प्रकृति भरी पड़ी है, एक आविष्कार है। चाहे आकाश में चमकने वाली बिजली, ज्वालामुखी (जिसका शब्दार्थ ज्वाला का मुख है), जो पृथ्वी का कलेजा फाड़ देते हैं अथवा वे अनगिनती सीताकुण्ड (गरम पानी के कुए) जो धरातल पर फैले हुए हैं और चाहे कोलम्बस की अण्डे वाली कहानी हमारे दिमाग में आवे, परन्तु जब हम इस विषय पर विचार करते हैं तो ".........प्राप्त होने पर यह इतनी प्रासान है, ___ जब अप्राप्त थी तो बहुतों ने सोचा था कि यह असम्भव वस्तु है।" ऐसी अग्नि को प्राप्त करने का कृत्रिम तरीका भी एक आविष्कार ही था और वह बीजालु फलों का भोजन करने वालों के लिए तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण था, इसमें सन्देह नहीं है। प्रत्यक्ष रूप से इस अत्यावश्यक तत्त्व का उपयोग किए बिना रहने वाली जातियों का प्रमाण ढूंढ़ने के लिए हमें प्लिनी (Pliny) • (Celtic Belenus) कैल्टिक बेलिन-पाल्प पर्वत के उत्तर में बसने वाली जाति । प्राचीन लेखकों ने कैल्ट जाति के लोगों को लम्बे, नीली आँखों और सुन्दर बालों वाले चित्रित किया है। ताम्रयुग में ये लोग दक्षिण में गॉल, स्पेन, इटली, ग्रीस और एशिया माइनर की ओर बढ़े थे।-N. S. E. p. 250, २ (Pliny) प्लिनी, (२३-७६ ई०) यह इटली में कोमो (Conno) नामक स्थान में पैदा हुअा था। बहुत विद्वान् था। इसके लिखे अनेक ग्रंथों में से अब केवल एक (Historia Naturalis) 'हिस्टोरिया नैचुरैलिस' नामक पुस्तक ही प्राप्त है जो ३७ भागों में है। यह पुस्तक प्राकृतिक विज्ञान का विश्वकोश मानी जाती है। इस विद्वान् ने अग्नि के आविकार और आदिम जातियों द्वारा उसके विविध उपयोगों पर विस्तार से विवेचन किया है। -Webster's Biographical Dictionary, 1959, p. 1193 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] 'पश्चिमी भारत की यात्रा और प्लूटार्क (Plutarch)' के पृष्ठ उलटने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि विश्व के आधुनिकतम इतिहास में मी अतलान्त महासागर के कुछ द्वीपों में रहने वाली और ऐसी ही अफ्रीकी व अमरीकी जातियों के बहुत से उदाहरण मिलते हैं, यथा मॅगेलन' (Magellan) द्वारा १५२१ ई० में अन्वेषित मॅराइन (Marian) द्वीप, जहां के निवासी अग्नि को एक जानवर समझते थे, जो लकड़ी और जंगलों को खा जाता था और जिसे अपनी सुरक्षा के लिए वे भयप्रद मानते थे। यही नहीं, जिसकी सत्यता और प्रामाणिकता को आधुनिक यात्रियों में प्रथम साहसिक बहार्ड (Burck hardt) ने भी पक्षपातरहित सिद्ध किया १ (Plutarch) प्लूटार्क, (४६-१२० ई०) प्रसिद्ध नीक विद्वान् । इसने दूर देशों की यात्रा की थी। विविध विषयों पर इसके लिखे ६० लेखों का संग्रह मोरलिया (Moralia) नामक पुस्तक में संकलित है। E. B. Tylor ने 'Early History of Mankind London, 1817 में प्लूटार्क लिखित सूर्य-कुमारियों का वर्णन किया है जो अग्नि की रक्षिकाएं मानी गई हैं। (Moralia) के तीन संस्करण प्रसिद्ध हो चुके हैं (1) D. Wyttenbach-8 Vols., Oxford, 1795-1830; (2) by F. Dubner in the Didot Series, Paris, 1839-42; (3) by G. N. Bernardakis-7 Vols. in the Teubner Series, Leipzig, I888-96. इसी लेखक की एक और सुप्रसिद्ध पुस्तक है 'Parallel Lives' जिसमें ग्रीस और रोम के महान व्यक्तियों के जीवन चरित्रों का तुलनात्मक चित्रण किया गया है। Encyclopaedia of Religion & Ethics; Hastings, Vol. X; pp. 70-73. २ Magellan---पोर्चुगीज नाविक, जिसका नाम Ferna de Magalhacs था । अंग्रेजी में उसको Ferdinand Magellan कहने लगे । उस का जन्म १४७० ई० के लगभग हुआ था और १५०४ ई० में वह भारत आया था । फिर, मोरक्को में जहाजी सेवा करता रहा । १५१७ ई० में स्पेन के बादशाह के यहां जलमार्ग से संसार का भ्रमण करने के लिए नियुक्त हुआ । १५२० ई० में उसने अतलान्त और प्रशान्त महासागरों की संयोजक भू-पट्टी (Strait) का अन्वेषण किया जो उसी के नाम से प्रसिद्ध है। प्रशान्त महासागर में प्रवेश करने वाला वह प्रथम यूरोपियन था और इस महासागर को यह नाम भी उसीका दिया हुआ है । यह नाविक फिलीपाइन द्वीप समूह के सीबू (Cebu) नामक द्वीप में मारा गया था ।-N.S.E., p. 838-39 3 Goguet (गॉग्युएट) Vol. i, p. 73 * John Lewis Burckhardt ने सुप्रसिद्ध नील नदी का अनुसंधान किया और लालसमुद्र को पार किया था। यह स्विट्ज़रलैण्ड का निवासी था। इसकी Travels in Arabia, Nubia, Egypt etc'. नामक पुस्तक "Association for Promoting the Discovery of the Interior of Africa" नामक संस्था से १८२६ ई० में लन्दन से प्रकाशित हुई है।-Catalogue of the British Museum, p. 383. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ३; भारत के आदिवासी है उस ब्रूस' (Bruce) ने भी स्वीकार किया है कि नील (Nile) नदी के उद्गम के समीप रहने वाले लोग अग्नि के प्रयोगों से अनभिज्ञ थे अथवा बर्क (Burke) के शब्दों में यों कहें कि उन लोगों में बुद्धि का इतना विकास नहीं हना था कि वे रँधे मांस की विशेषता को पहचान सकें । किन्तु भारत के आदिवासी भीलों, कोलियों और गौंडों ने तो भोजन पकाने की कला बहुत पहले ही सीख ली थी; उनकी आग जलाने की पेटी और चकमक पत्थर प्रत्येक बाँस की कुञ्ज में मौजूद थे। उन्हें केवल इस बात से चौकस रहना पड़ता था कि कहीं तेज हवा में इन पहाड़ियों की मूल वनस्पति (बाँसों) की रगड़ से इस विनाशक तत्व की आवश्यकता से अधिक मात्रा में उत्पत्ति न हो जाय क्योंकि उनके जङ्गली घर कई बार उनके देखते-देखते जल कर भस्म हो चुके थे। मैंने एक जलते हुए, चटखते हुए और भभकते हुए बाँसों के जङ्गल का, जो अपने आप जल उठा था विकराल दृश्य देखा है, यद्यपि कोई भी कठिन काष्ठ रगड़ने पर आग पैदा कर सकता है परन्तु बाँस के ऊपर की सफेद पत्थर की सी परत' से तो तत्काल अग्नि उत्पन्न करने का एक यंत्र बन जाता है। अग्नि, जिसे हिन्दू मात्र, विद्वान् ब्राह्मण, योद्धा राजपूत एवं अर्द्ध-सभ्य वनपुत्र सभी देवता मान कर पूजते हैं । ' James Bruce स्कॉटलैण्ड का निवासी था। कुछ वर्षों तक अन्वेषण के लिए देशाटन करने के बाद वह प्राच्य भाषाओं के अध्ययन में लग गया । बर्बर जातियों के प्राचीन अवशेषों का अन्वेषण एवं अध्ययन करने हेतु नियुक्त ब्रिटिश कमीशन का सलाहकार हो कर वह अलजीयर्स (Algiers) गया। इसी प्रसंग में वह अलजोरिया, टयू निस, ट्रिपोली, क्रीट और सीरिया में घूमा । सन् १७६६ ई० में वह अलेक्जैण्डिया से नील नदी का निकास ढूंढने को निकला और Blue Nile को ही मुख्य नदी समझ कर उसके उद्गम तक जा पहुँचा । इंगलैण्ड लौटने पर उसके अनुभव अविश्वसनीय सिद्ध हुए अतः वह स्कॉटलैण्ड में अपनी जागीर को लौट गया और १७६० ई० तक अपनी पुस्तक "Travels to Discover the Sources of the Nile" नहीं छपवाई। बाद में यह पुस्तक पांच भागों में लन्दन से प्रकाशित हुई। पांचवें भाग में उसके भौतिक इतिहाससम्बन्धी अनुसंधानों का वर्णन है ।-N.S.E., p. 199. २ इंगलैण्ड का सुप्रसिद्ध विधान-सभायी Edmund Burke जिसने भारत के गवर्नर वारेन हेस्टिगा के अपराधों की पार्लियामेंट में खुल कर बालोचना की थी। 3 बांस के रस का द्रव जिसको तवाशिर [तवाशीर, वंशलोचन] कहते हैं और जिसे हिन्दू चिकित्सक औषधि के रूप में काम में लेते हैं-यह शुद्ध चकमक है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह रस बांस में से अपने प्राप निकल कर ऊपर जम जाता है और फिर कठिन होकर पत्थर जैसा दृढ़ बन जाता है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा भारत की पिछड़ी जातियों भील, कोली, गौंड, मीणा और मेर आदि के विषय में गहरी छान-बीन करने से मानव के भौतिक इतिहास को बहत सी महत्त्वपूर्ण कड़ियां मिल जाती हैं। परिगणित जातियों में भी चेहरे-मोहरे और अनुकरण एवं स्थान-भेद के कारण उत्पन्न हुई स्वभाव, विश्वास एवं रीतिरिवाजों की बड़ी-बड़ी भिन्नताएं देखने में आती हैं, यद्यपि मौलिकता की छाप सभी में समान रूप से मौजूद रहती है फिर भी गुण और स्वभाव इतने भिन्न हैं कि हमें एक ही महान् वंश से उनका निकास मानने का विचार छोड़ देना पड़ता है। नाटे, चपटी नाक वाले और तातारी मुखाकृतियुक्त एस्कीमो तथा प्राचीन एवं महान् मोहिकन' (Mohican) में और मेवाड़ के भील तथा सिरगूजर के कोली में कोई बड़ा अन्त नहीं है, और ध्रुवदेशीय समुद्र के किनारे रहने वाले लोगों तथा मसूरी की घुमन्तू जातियों में उतनी ही भिन्नता है जितनी कि हमारे वनों के आदिवासियों और पूरे घुमक्कड़ राजपूतों में । यदि कभी आदमी जमीन में से कुकुरमुत्ते के पौधे की तरह अपने आप निकल पड़ा होगा तो यह कहा जा सकता है कि भारत के ये छत्रक (कुकुरमुत्ते के पौधे) अपने पहाड़ी जंगलों की चट्टानों और पेड़ों की तरह अभी तक उन्हीं स्थानों पर जमे हुए हैं जहाँ वे सर्वप्रथम उत्पन्न हुए थे। संचरणशील अङ्गों का नितान्त प्रभाव और दुर्जेय स्वाभाविक लापरवाही ही ऐसे गुण हैं जिनमें उस श्रमशीलता के एक अंश के भी दर्शन नहीं होते कि जिसके द्वारा घुमन्तूपन की कठिनाइयों का वीरता से । सामना किया जाता है और इन्हीं अभावों के कारण हमारा यह विचार दूर चला जाता है कि ये लोग कहीं और देश में उत्पन्न हुए होंगे वरन् हम (Monboddo Theory) मोननोडो सिद्धान्त' की ओर आकर्षित होते हैं कि ये लोग दुमदार जाति के ही सुधरे. हुए रूप हैं । मैं इस बात को नहीं मानता कि लूट-पाट करने के लिए अपने जंगली घरों से निकल कर इधर-उधर हमले करते रहने मात्र को उनकी एकदेशिता के मूलभूत सिद्धान्त के विरुद्ध कोई ' उत्तर-अमरीकी इण्डियन । २ Lord James Burnett Monboddoस्कॉटलैण्ड का रहने वाला था। न्याय विभाग में जज होते हुए भी वह नृवंशशास्त्र और प्राचीन भौतिकशास्त्र का अध्येता था। उसका मत है कि मनुष्य अपने आप जानवर की दशा से एक स्वतंत्र प्राणी के रूप में क्रमशः विकसित हुआ है और उसका मस्तिष्क इतना क्रियाशील हो गया कि उसकी गति शरीर तक ही सीमित नहीं रही। 'Ancient Metaphysics' और 'the Origin and Progress of Language' उसके लिखे दो विशाल ग्रन्थ हैं। उसकी मृत्यु १७९३ ई० में हुई।-Encyclopaedia Britannica, I938, p. 690 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३; भीलों के अन्ध विश्वास [ ३६ प्रमाण मान लिया जाय । भील अपने स्थान ( घर ) पर उसी प्रकार लौट कर वापस श्रा जाता है जैसे कुतुबनुमा यंत्र की सूई उत्तर दिशा पर । उसके दिमाग में किसी अन्य प्रदेश में जा कर बसने का विचार ही नहीं श्राता है । इनके नामों से भी इस मत की पुष्टि होती है जैसे वनपुत्र, वन का पुत्र, मेरोत, पर्वत से पैदा हुआ ' ; गोविन्द, जो गोप और इन्द्र मिल कर बना है, का अर्थ है गुफा का स्वामी [ ? ]; पाल-इन्द्र, घाटी का स्वामी । इसी प्रकार 'को' (पर्वत) शब्द से बने हुए 'कोल' का अर्थ है - 'पहाड़ पर रहने वाला' यद्यपि यह 'को' शब्द संस्कृत के 'गिर' [ गिरि ? ] शब्द की अपेक्षा बहुत कम व्यवहृत होता है फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि यह शब्द इन्डोसीथिक जाति मूल धातु से बना है | भीलों में पुरोहिताई का कोई सिलसिला न होने के कारण वे बळाइयों के गुरु को ही अपना गुरु मानते हैं, जो शूद्रों में बहुत नीची जाति का होता है । किसी भी विवाह के अवसर पर वह गुरु अपने आप ब्राह्मण का जनेऊ पहन लेता है और इस चिह्न को लेकर ब्राह्मण बन जाता है । परन्तु इस अवसर पर बने हुए भोजन में और [शराब के] प्याले में, जिसका दौर बराबर चलता रहता है, वह अवश्य भाग लेता है । ऐसे प्रत्येक अवसर पर लूट का दृश्य उपस्थित होता है और पूर्ण कलह के साथ ही उसकी समाप्ति होती है । वधू के साथ कितना भी 'डायजा' (दहेज) मिले, परन्तु वर के लिए यह आवश्यक है. कि वह पिता को विवाह की दावत के निमित्त एक भैंस, बारह रुपए और दो शराब की बोतलें भेंट करे । जन्म के अवसर पर वही अपने आप बना हुआ ब्राह्मण उस ( नवजात ) बच्चे का नामकरण करता है । प्रायः उस बच्चे का नाम उस देवता पर रखा जाता है जो उसके जन्म दिन का स्वामी होता है, जैसे बुधवार को पैदा हुआ तो बुध, बच्ची हुई तो बुधिया । जन्म तथा मौत के अवसर पर रस्म में भाग लेने के लिए एक और महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बुलाया जाता है जो कामड़ा या गायक कहलाता है । ये लोग प्रत्येक बड़े गांव में एक-एक रहते हैं । वह जोगी या त्रैरागी के वेश में रहता है और कबरी [कबीर ?] पन्थ के गूढ सिद्धान्तों में दीक्षित होना उसके लिए आवश्यक है इसीलिए वह कामड़ा जोगी या कबीरपन्थी भी कहलाता है। जन्म के अवसर पर वह अपनी स्त्री के साथ आता है और पहली देहली के पास एक घोड़े की मूर्ति रख कर तम्बूरा लिए दरवाजे पर आसन ग्रहण करता १ मेरु-पुत्र | Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] पश्चिमी भारत की यात्रा है । फिर वह बच्चों की रक्षिका शीतला माता का, जिससे सभी वनवासी भयभीत रहते हैं, स्तुतिपरक भजन प्रारम्भ करता है और उसकी पत्नी उसके स्वर में स्वर मिलाती है तथा मञ्जीरे से ताल देती रहती है । प्रत्येक गांव में एक बड़ा ढोल रखा रहता है जिसको ऐसे अवसरों पर विशेष रीति से बजा कर पड़ोसियों को सूचना दी जाती है और वे नवागन्तुक के माता-पिता को यथाशक्ति उपहार भेंट करते हैं । मृत्यु के अवसर पर एक ही प्रकार के शोकसूचक मायूस आघातों से ढोल पीट कर पड़ोसियों को बुलाया जाता है और उनमें से हर एक अपने हाथ में एक-एक सेर अनाज लेकर आता है । मृतक के दरवाज़े के पास ही जोगी बैठता है, घोड़े की मूर्ति और पानी से भरा मिट्टी का घड़ा उसके पास रक्खे होते हैं । प्रत्येक सम्बन्धी अथवा श्रागन्तुक वहाँ पहुँच कर चुल्लू में थोड़ा सा पानी लेता है और मृतक का नाम लेकर उस मूर्ति पर छिड़क देता है और अनाज की मात्रा जोगी को भेंट कर देता है। घोड़े की उस मूर्ति का इतना आदर क्यों होता है, यह मेरे समझ में नहीं आया; शायद यह सूर्य का चिह्न है, जिसको सभी जातियाँ पूजती हैं - परन्तु इससे अधिक और कुछ नहीं माना जा सकता । 1 मैंने अन्यत्र वर्णन किया है कि राजपूत तो विजेता मात्र हैं और भारतवर्ष के गहन प्रदेशों पर जन्म सिद्ध अधिकार तो उन ग्रादिवासी जातियों का है जिनकी महानता के चिह्न उनकी प्राचीन परकोटों से घिरी हुई बस्तियों में प्रचुरता से पाये जाते हैं । अभी कोई एक शताब्दी पहले ही इन भोमियों ( भूमिपतियों) के एक स्वामी के पास धनुर्धारियों के अतिरिक्त आठ सौ घोड़ों की फौज़ थी । इनके प्रमुख योद्धा सावन्त या सामन्त कहलाते थे और विशेषतासूचक छोटी पीतल की कमरपेटी बांधते थे । वे कवच धारण किये बिना कभी युद्ध में नहीं जाते थे। पीछे फिर कर देखना इनमें महान् अपराध समझा जाता था जिसका परिणाम सामन्तपद की हानि होता था । फिर वह पद उसके किसी निकट सम्बन्धी को दिया जाता था और निकट सम्बन्धी के न होने पर किसी योग्य व्यक्ति को सामन्त चुन लिया जाता था । उस दीर्घकालीन अराजकता के समय में भी, जिसका इन प्रदेशों पर कुप्रभाव पड़ा और जिसने प्रभु भक्ति एवं प्रेम के उन बंधनों को छिन्न-भिन्न कर डाला कि जिनसे इन तितर-बितर बस्तियों का समाज बँधा हुआ था, भील अपने रक्त के प्रति वफ़ा १ नवजात शिशु | २ एनल्स आफ राजस्थान, भा. २, पृ. २ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ३; भीलों की स्वामिभक्ति [ ४१ दार रहा । राणानों और दिल्ली के बादशाहों के बीच हुए विनाशकारी युद्धों में इन वनपुत्रों का राणानों पर पूरा प्रभार रहा है क्योंकि इन्होंने उन (राणानों ) की तो रक्षा की ही परन्तु इससे भी बढ़ कर वह कार्य किया जो राजपूतों को आत्म-रक्षा से भी अधिक प्रिय है अर्थात् उनकी स्त्रियों और लड़कियों को उन शत्रुनों के हाथों से बचाया जिनका स्पर्श भी उनको भ्रष्ट कर देता । हमने इन लोगों का उस समय का वर्णन भी किया है जब अमर [वीर ] प्रताप अपने दुर्दमनीय शत्रु से लोहा ले रहा था तब ये उसका खजाना जावर की खानों में ले जा रहे थे और फिर जब वह स्थान भी सुरक्षित नहीं मालूम हुआ तो उसे घाटियों के उस मार्ग में होकर अन्यत्र ले गए जो केवल उन्हीं को ज्ञात था । अभी इससे भी बाद की बात वह है जब कि महान् सिंधिया' ने राजधानी को घेर लिया था तब इसकी सब प्रकार से रक्षा बहुत कुछ इसीलिए हो सकी थी कि भीलों ने झील में होकर घिरे हुए लोगों के लिए रसद पहुँचाई । परन्तु वे उत्साहपूर्ण दिन, जो भीलों और उनके स्वामियों के हृदय में उथल-पुथल मचा देते थे, अब एक गौरवहीन अकर्मण्यता में बदल गए हैं और उनमें गरीबी एवं दमन से उत्पन्न होने वाले सभी दुर्गुण पैदा हो गए हैं । यह देख कर आश्चर्य होता है कि इन वनपुत्रों और इनके श्रेष्ठ स्वामियों का इतना पतन हो गया है कि जिनसे वे सुरक्षित होते थे उन्हीं के द्वारा दबाए जाने पर उन्हीं के यहाँ चोरी करते हैं; जहाँ पहले चौकसी करते थे, जिनका सम्मान करते थे उन्हीं से घृणा करते हैं और जिनसे डरते थे उन्हीं को तुच्छ समझने लगे हैं । भावनाओं का ऐसा परिवर्तन उस समय पूरी तरह अपना कार्य कर रहा था जब कि सन् १८१७-१८ ई० में उनके और अपने स्वत्वों की पुनः प्राप्ति के लिए माँग करने वालों के बीच में मुझे मध्यस्थ बनना पड़ा था । मैं यह लिख चुका हूँ कि मेरे ब्राह्मण प्रतिनिधि ने किस प्रकार पश्चिमी पहाड़ों में बसे हुए ७५० गाँवों और गाँवड़ों से सन्धियां कीं और सूर्य की साक्षी देकर अथवा हल, कटार या धनुषबाण की निशानी बना कर पुष्ट की हुई ये सन्धियाँ, जो पश्चिम के घुड़सवार की 'मेरा रकाब मेरा साथ न दे' सौगन्ध के समान है, धर्म के साथ पूर्ण रूपेण पूरी की गई। शान्ति और व्यवस्था कायम हो गई तथा उद्योग के बीज बो दिए गए, परंतु मेरी अनुपस्थिति से लाभ उठा कर कहीं-कहीं श्रेष्ठ (?) राजपूतों अपनी अनुचित कार्यवाहियों को फिर दोहराया और कुछ पुराने झगड़ों के वैर का निर्दयतापूर्वक चुकारा कर दिया। काबों (Kaba) का भी एक ऐसा ही दुष्टता १ यह घटना माधवराव सिंधिया के समय सन् १७६६ ई० की है । उ. रा.इ.; पृ. ६५७ । 1 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पूर्ण मामला था। काबा राजधानी से पश्चिम की ओर दस मील की दूरी पर रहने वाली एक विशाल बिरादरी है। इनके दो आदमियों को सलूम्बर सरदार के एक सामन्त ने निर्दयता से मार डाला और उसने यह कार्य दिन-दहाड़े नगर के परकोटे के अन्दर सार्वजनिक कुए पर किया, मानों ऐसा कर के उसने सार्वभौम स्वामी (राणा) की सत्ता को चुनौती दी हो। इस प्रश्न पर 'सरना' या शरण का एक कठिन विषय उपस्थित हो गया था और वह भी मेवाड़ के प्रमुख सरदार के विरुद्ध । परन्तु अब दो में से एक ही रास्ता अपनाने को रह गया था; या तो राणाजी द्वारा की हुई सुरक्षा की प्रतिज्ञा और अपने प्रतिनिधि द्वारा ब्रिटिश सरकार को दिया हुआ भरोसा एक ओर रख दिया जाय या सलूम्बर सरदार के 'सरना' (शरण) के अधिकार की अवहेलना की जाय । अब संशय या दुविधा की कोई बात नहीं रह गई थी। तुरंत ही खोज शुरू हुई परंतु कोई फल न निकला। रात के अंधेरे में अपराधी शहर से बच निकला परंतु छुपने की लाख कोशिश करने पर भी मैंने सलूम्बर की सीमा में कितनी ही दौड़ें लगा कर उसे ढूंढ निकाला। मैंने सरदार सलूम्बर के राव को बुलाया और दोनों बातों में से एक को चुनने के लिए कहा कि या तो वह अपने मालिक (राणा) की अप्रसन्नता और हमारी मित्रता टूटने के परिणाम को भुगतने के लिए तैयार रहे अथवा हत्यारे की शरण तोड़ दे (Sirna toorna) और उसको कानून के हाथों में इस तरह सौंप दे कि जिससे उसकी भावनाओं को कम से कम ठेस लगे अथवा उन मान्यताओं को, जिन्हें वह अच्छी तरह जानता था कि मैं उनका कितना सम्मान करता था, कम से कम आघात पहुँचे। उसने कहा कि वह अपनी जागीर छोड़कर बनारस चला जायगा, जैसा कि पहले उसके किसी पूर्वज ने जमीन की अपेक्षा इज्जत को बड़ी समझ कर किया था और वहां पर घोड़ों के कोड़े बना कर जीवन का निर्वाह कर लेगा क्योंकि उस शरणागत को सौंपने से तो अपने भाई-बन्धुओं में ही उसका 'काला मुंह' हो जावेगा। इस तरह की बहत सी बातें, पौरुषपूर्ण प्रतिवाद एवं इस कृत्य के बारे में पहले से जानकारी अथवा इसमें साजिश होने से शपथपूर्ण इनकार करते हुए उसने स्वीकार किया कि वह अपने नौकर को वही सज़ा देगा जिसके लिए उसका स्वामी (राणा) आज्ञा देगा। बातचीत एक समझौते के साथ समाप्त हुई कि अपराधी को सलम्बर से निकाल दिया जायगा और अन्यत्र शरण लेने के लिए कह दिया जायगा; जब वह दूसरी जगह शरण लेने की तलाश में निकलेगा तब बीच ही में राणा के आदमी उसे धर पकड़ेंगे । उसकी मान-रक्षा की यह तरकीब तय हो जाने पर अपराधी को राजधानी में लाया गया। परन्तु. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ३, भोलघातक प्रासामी [ ४३ शरण-स्थान के विशेषाधिकारों के विषय में कोई ऐसा रिवाज पड़ गया है, जो कुछ जागीरों की स्वीकृति के नियमों का अंग भी है, उसीकी आड़ में अपराधी की पहुँच की घोषणा करने में राणा अथवा उनके सलाहकारों द्वारा इस सम्पूर्ण कृत्य की घृणा मेरे ही ऊपर थोपने का प्रयत्न किया गया। यद्यपि मैं उनकी परकार के पक्ष का समर्थन करता था परन्तु बटिश-प्रतिनिधि के चरित्र पर अनावश्यक रूप से ऐसा घणास्पद आरोप भी नहीं चाहता था इसलिए मैंने जवाब दे दिया कि जहां तक राणा को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के संरक्षण का प्रश्न है उसमें मुझसे पूछताछ करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। दूसरे दिन तक मुझे कुछ खबर नहीं मिली जब कि खून का बदला खून से लिया जा चुका था जिसमें जङ्गलीपन व अनावश्यक कठोरता बरती गई । अपराधी को एक गड्ढे में सीधा खड़ा रख कर मिट्टी से पाट दिया गया, केवल उसका सिर धूप में खुला रक्खा गया और जब वह दिन भर अाशंका से घुल घुल कर मर चुका तब अन्त में हथौड़े से उसकी खोपड़ी के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए। कुछ ही वर्षों पहले, यदि ऐसी घटना होतो तो राणा अपमान सह कर रह जाते और सलूम्बर के राव से बहुत कम शक्तिशाली सरदार का भी सरना तोड़ कर शेर को उसकी माँद में जाकर ललकारने का विचार तक न करते । अस्तु, इस प्रकार बदला लेने के बाद, राणा ने मृतक भीलों के प्रतिनिधियों को बुलाया और उनको पगड़ियाँ (शिरोपाव) तथा चाँदी के कड़े प्रदान करके काबा जाति को प्रसन्न किया। उनकी स्वामिभक्ति प्राप्त करने में इस घटना ने एक सेनासंगठन से भी अधिक लाभप्रद कार्य किया। परन्तु दुर्भाग्य से वनपुत्रों के मित्र बहुत कम हैं और (सभ्य) समाज से बहिष्कृत होने के कारण उन्हें 'ईसाउ' (Esau) के पुत्रों के समान समझा जाता १ बाइबिल की गाथा के अनुसार ईसाउ (Esau) आइज़क (Isac) और रैबैका (Rebecca) का पुत्र और जैकब (Jacob) का बड़ा जोड़ला भाई था । जन्म के समय से ही इसके शरीर पर बहुत से बाल थे इसलिए इसको Esau कहने लगे। इसे शिकार का बहुत शौक था। एक बार यह कहीं लम्बा निकल गया और लौटते समय भूख और प्यास से व्याकुल हो गया। उस समय उसका छोटा जोड़ला भाई जैकब दस्तरखान पर बैठा अच्छे-अच्छे माल और मांस उड़ा रहा था। ईसाउ ने भी उसमें शामिल होने की इच्छा प्रकट की तब जैकब ने उसे इस शर्त पर भोजन करने दिया कि वह अपने बड़ेपन का हक छोड़ दे। ईसाउ को उस समय पेट-पूजा के अतिरिक्त और कुछ न सूझा और उसने अपने समस्त अधिकार जैकब के हक में छोड़ दिए। बाद में उसने दो विदेशी एवं विजातीय कनाटिश Canaatish (जिसे अब सीरिया पैलस्टाइन कहते हैं) स्त्रियों से विवाह Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा है । एक और भी दुःखपूर्ण घटना का दायित्व हम पर आ पड़ा और वह भी दुर्भाग्य से उस समय जब कि उनके बीच में मेरा निवास-काल प्रायः समाप्त हो रहा था । राठौड़ों और हाडानों के देश में बार बार आते-जाते रहने से उदयपुर में मेरी अनुपस्थिति के कारण इन गरीब भीलों को शत्रुओं ने दबा दबा कर बहुत से हिंसक कार्य करने के लिए बाध्य कर दिया था; और मौके पर निरन्तर उपस्थित रह कर उन पर कड़ा निरीक्षण रखे बिना उनकी उत्साहपूर्ण आज्ञाकारिता के अपराध-वृत्ति में बदल जाने के भेद को जान लेना सम्भव नहीं था । उनके राजपूत सरदार छेड़ छाड़ अथवा शान्तिभङ्ग करने के लिए उनको कई तरह के छल-कपटपूर्ण तरीकों से प्रोत्साहित करते थे और वे बेचारे (ऐसे कार्यों में ) अपने प्राकृतिक रुझान के कारण आसानी से जाल में फँस जाते थे; कभी वे यात्रियों को लूट लेते या जंगलों में से लकड़ी या बाँस काटते समय नीमच की छावनी के अंग्रेज सिपाहियों को तंग करते । छावनी के तत्कालीन अध्यक्ष वीर कर्नल लडलो' (Ludlow) के पास से ऐमी गड़बड़ी की शिकायतें मेरे पास बराबर प्राती रहती थीं; अन्त में, एक फौजी टुकड़ी को लूटकर जंगल में अपने स्थानों में जा छुपने के एक और भी अधिक दुस्साहसपूर्ण कार्य ने राणा जी के पास शिकायत करने और अपनी ही सेना द्वारा उनको इस अपराध का दण्ड देने के आदेश प्राप्त करने के लिए मुझे बाध्य कर दिया गया । आज्ञा प्राप्त होते ही लॅफ्टिनॅण्ट हॅपबर्न ( Hepburn) की अध्यक्षता में एक टुकड़ी तैयार की गई और उसने इतनी होशियारी से कार्य किया कि अचानक ही गाँव को जा घेरा और लगभग तीस अपराधियों को, जिन्हें पीडित लोगों ने पहचान ही नहीं लिया था वरन् जिनके घरों में लूट के [पृ० ४३ की टिप्पणी का शेष ] करके अब्राहम के पवित्र वंश से विच्छेद कर लिया । केवल लाल दाल के शोरबे के लिए समस्त अधिकार छोड़ देने के कारण इसका नाम Edom (जिसका अर्थ 'लाल' है) पड़ा। इसीलिए इसके अनुयायी Edomites (इडोमाइट्स) कहलाने लगे । यही लोग Sons of Esau (ईसाऊ के पुत्र) नाम से प्रसिद्ध हैं जो तत्कालीन समाज में अवरकोटि के समझे जाते थे । -E. B. Vol. VIII, p. 533 १ लॅफ्टि० कर्नल जॉन लडलौ भारत में १६ फर्वरी, १७६५ ई० में आया था। उसने १८१४१५ ई० में हुए नेपाल युद्ध में प्रसिद्धि प्राप्त की और उसे १८१८ ई० में मेवाड़ स्थित सेनासन्निवेश का लॅ० कर्नल नियुक्त किया गया। बाद में नीमच की छावनी का कमाण्डैण्ट बना और २२ सितम्बर, १८२२ ई० में मृत्यु होने तक वह उसी पद पर रहा। List of Inscriptions on Tombs and Monuments in Rajputana and Central India; O.S. Crofton-1934; p. 77. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ३; सैरिया लोग [४५ प्रमाण भी प्राप्त हो गये थे, कैद कर लिया। दुर्भाग्य से, इस मामले को अपनी ही समझ से. न निपटाकर लॅ० हॅपबर्न उन कैदियों को छावनी में ले पाए और कर्नल लडलौ को व मुझे घपले में डाल दिया। मेरे द्वारा नतीजे की सूचना राणाजी के पास भेजी गई और ऐसे दुस्साहसपूर्ण कार्यों को रोकना आवश्यक होने के कारण कर्नल लडली को उनमें से पांच या छः अगुवा भोलों को चुनने का आदेश दिया गया। फिर वे लोग राणाजी के एक विश्वासपात्र अधिकारी को सौंप दिए गए जिसने उनको दी हुई फाँसी की सजा का भुगतान कर दिया और उनको सरहद के उन स्थानों पर लटका दिया जहां वे लूटमार किया करते थे। उनमें से पाँच को तो सज़ा दे दी गई परन्तु एक को उसकी युवावस्था व मेरी प्रार्थना के कारण राणाजी के अधिकारी ने छोड़ दिया। बाद में, उसे मेरे पास जीवनदान के लिए धन्यवाद देने को उपस्थित किया गया और उसने भविष्य में ऐसे हमलों में कभी भाग न लेने की प्रतिज्ञा की । वह उन्नीस वर्ष का था; मंझला कद, दुबला-पतला किन्तु गठीला शरीर; चेहरा चमकदार स्पष्ट ताम्र वर्ण, आँखें और बाल घने काले; और यद्यपि वह डरा हुआ और इस नवीन परिस्थिति से अभिभूत था फिर भी, जहां तक अनुमान किया जा सकता है, उसके चेहरे का सरलभाव उसमें दोषों का नितान्त अभाव ही व्यक्त कर रहा था। इस आवश्यक कठोरतापूर्ण घटना का दुःख मेरे हृदय से बहुत समय तक दूर न हुआ और विशेषकर तब जब कि मुझे प्रमाण में यह बताया गया कि फौजी टुकड़ियाँ बाँसों की अपेक्षा भीलनियों की तलाश में अधिक घूमा करती थीं। हत्या के अपराध के अतिरिक्त मुझे मृत्युदण्ड अच्छा नहीं लगता; योग्यतानुसार जुर्माने और सम्पत्ति से वञ्चित करने के दण्ड अधिक प्रभावशाली सजा का काम करते हैं । . भीलों के ही विशाल परिवार में सैरिया (Saireas) जाति के लोगों को मानने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। ये लोग मालवा और हाड़ोती को विलग करने वाले पहाड़ों और उन की ऊँची नीची सभी श्रेणियों में बसे हुए हैं जिनकी कुछ शाखाएं तो मालवा के पठार के किनारे से चन्देरी और नरवर में होती हुई गोहद (Gohud) में जाकर समाप्त हो गई हैं और कुछ बुन्देलखण्ड की पहाड़ियों में जाकर मिल गई हैं, जिनमें पहले सरजा (Sarja) जाति के लोग बसते थे, जो अब नहीं मिलते, परन्तु बहुत करके वे मध्य भारत के सैरिया ही थे। राजपूतों की राज करने वाली छत्तीस जातियों में एक सरी-अस्प (Sariaspa)' १ एनल्स, १९२०; पृ० ६८-६९ पर छत्तीस राजकुलों में 'सरवैया' नाम है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा भी है जिसका संक्षिप्त सैरिया (Saria) है। इन लोगों के बहुत पुरानी तिथि के शिलालेख मिले हैं जो इस बात के द्योतक हैं कि वे भारतवर्ष की बहुत पुरानी जातियों में से हैं । इस बात को छानबीन करना अनावश्यक है कि यह पतित जाति (सैरिया) उन्हीं लोगों की अवैध सन्तान हैं या वया ? अस्प अथवा अश्व जाति निश्चित रूप से इण्डो-सीथिक (Indo-Scythic) मूल की है; क्योंकि 'अस्प' शब्द फारसी में और 'अश्व' शब्द संस्कृत में घोड़े के लिए प्रयुक्त होता है और यदि सैरिया लोग उन्हीं की अवैध सन्तान हों तो उनके रीति-रिवाजों में घोड़े के प्रयोग का यही कारण हो सकता है । मैंने मध्य एशिया की प्राचीन जातियों में चौपायों के आधार पर नाम रखने के रिवाज पर अन्यत्र प्रकाश डाला है। इस प्रकार हमें अस्प या घोड़े के अतिरिवत ट्रांसोजाइना (Transoxiana)' के गेटी (Gatar) या जीतों (Jit) की विशाल शाखा (Noomris) या लोमड़ी तथा मुलतान और उत्तरी सिन्धु (Indus) के वराह या शूकर भी मिलते हैं। परन्तु पशुओं अथवा वनस्पतिसूचक उपसर्गों द्वारा परिवारों की भिन्नता का ज्ञान कराने की प्रणाली प्रायः सभी देशों में प्रचलित है और बहुत से नाम तो, जिनके प्रति उच्चारण की महत्ता एवं ऐतिहासिक संस्मरणों की दृष्टि से हम आदरभावना रखते हैं, बहुत ही साधारण एवं प्रायः किसी भद्दी सी तुच्छ घटना से जन्म लिए हुए हैं; जैसे शूरवीरता का द्योतक शब्द प्लाण्टाजेनेट 'Plantagenet' तुच्छ बुहारी से निकला हुआ है । इण्डस् (Indus) और प्रॉक्सस् (Oxus) की अश्व, लोमड़ी और शूकर जातियों के अतिरिक्त शशक (सीसोदिया अथवा अधिक सही रूप में सुस्सोदिया), कुश (घास) से कुछवाहा आदि नाम भी इसी प्रकार के हैं। मध्यभारत के पठार पर बसने वाले सैरियों का उद्गम कहीं से भी हो, परंतु उनमें वही नैतिक व भौतिक विशेष गुण मौजूद हैं जो भीलों में पाए जाते ' मध्य एरिया के आमू और सर दरिया के बीच का भूभाग। २ Anjou (एजू) के काउण्ट Geoffrey (ज्यॉफी) ने वीरता-सूचक Planta Genistae (बुहारी की तरह का तुर्रा) सर्व प्रथम अपने शिरस्त्राण में धारण करना प्रारम्भ किया था। वह जरूसलम के राजा Fulk (फुल्क) का पुत्र था। ज्यॉफी की सुन्दरता से आकर्षित होकर इंगलैण्ड के बादशाह हैनरी प्रथम ने अपनी विधवा पुत्री एम्प्रेस मॉड का विवाह उसके साथ कर दिया था। इन दोनों का पुत्र हेनरी द्वितीय था जो ११५४ ई० में गद्दी पर बैठा । वह अपने पिता के अलंकरण के कारण प्लाप्टाजैनट वंश का राजा कहलाया । यह पद ३०० वर्षों तक इंगलैण्ड के राजाओं की उपाधि बना रहा। -E. B. Vol. xix; p. I.75 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ३; सरियानों का स्वभाव और रहन-सहन हैं । हाँ, उनमें वे दुर्गुण नहीं हैं जिनके लिए इसी जाति के अत्यन्त पतित पश्चिमो लोग बदनाम हैं । संरियों में कोई परहेज नहीं है, वे कुत्ते और बिल्ली के अतिरिक्त सब चीजें खाते हैं; यह घृणा कहां से शुरू हुई अथवा यह उनके पश्चिम और दक्षिण में बसनेवाले भाईबन्धुओं में भी प्रचलित है या नहीं, यह मैं नहीं जानता। ये लोग प्रायः शिकार पर ही निर्भर रहते हैं और इस कला में अत्यंत निपुण हैं; वे इसका अभ्यास नीलगाय और जंगली सूअर जैसे बड़े पशुओं से लेकर गरीब खरगोश तक सभी वनपशुओं पर करते हैं । लोमड़ियाँ, गीदड़, साँप और छोटी बड़ी छिपकलियाँ उनके अधिक स्वादिष्ट पदार्थों में हैं जो जंगल में बहुतायत से मिल जाते हैं; सारांश यह है कि मनुष्य ने जिन जानवरों को पालतू बना लिया है उनके सिवाय वे कुछ भी नहीं छोड़ते । जंगली फलों में वे तेंदुना, चिरोंजी, आँवला, इमली और कोविदार आदि के फलों को इकट्ठा कर लेते हैं जिनको या तो स्वयं काम में ले लेते हैं अथवा अनाज के बदले में बेच देते हैं । दवा के लिए वे बहुत सी जड़ें जमीन खोदकर निकालते हैं, जैसे कोळीकाँटा (Coli-cunta) जिस से मांडी या कलफ बनती है और कुश-घास (दाम) की रेशेदार जड़ें, जिस से बश बनाते हैं। ये दोनों ही वस्त्रधारियों के लिए अत्यंत आवश्यक वस्तुएँ हैं । इसी तरह वे इन हिस्सों में लकड़ियां भी काटते हैं और इस व्यवसाय में कितनी ही तरह के गोंद इकट्ठे कर लेते हैं जो दवाओं तथा अन्य उद्योगों में काम आते हैं । एक और कला है जो विशेषकर इन्हीं लोगों की, है वह है विविध वृक्षों की छालों और जड़ों को भिगोकर मुलायम करना और फिर उनसे रस्से या सूतली बनाना; इन पेड़ों में केशूला मुख्य है जिसकी दोनों किस्मों को ये लोग पहचानते हैं । एक और जड़ जिसको बखोरा ( Bukhora) कहते हैं, उससे ये रस्सियां बनाते हैं। छालों के रेशेदार हिस्से को भी जड़ों में मिलाते हैं या नहीं, यह तो मैं निश्चय रूप से नहीं कह सकता, यद्यपि मेरी टिप्पणी से यही अर्थ निकलता है, परंतु वे उस सबको (कूट पीट कर) बहुत नरम और लसदार बना लेते हैं, फिर उसमें से लम्बे और बारीक तन्तु खींच कर निकालते हैं जिनको छाया में सूखा लेने के बाद कितने ही लंबे लंबे रस्से बँट लेते हैं। वे बहेड़ा और हर नामक छोटे छोटे फल भी इकट्ठे करते हैं जो शाहाबाद की पहाड़ियों में बहुत मिलते हैं और जिनको रंगरेज लोग पीला रंग बनाने के काम में लेते हैं; (इसी तरह) रीठा है जो कपड़ा सफेद करने में साबुन की एवज़ काम में आता है । हाडौती में-यह वर्णन मुख्य रूप से इसी प्रान्त की सैरिया जाति के लोगों का है-~ये लोग महा नामक फल एकत्रित करते हैं जिससे व्हिस्की से मिलती-जुलती शराब Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा तैयार कर लेते हैं तथा अपनी गर्दन को जोखिम में डालकर तड़की हुई चट्टानों पर चढ़ जाते हैं और मधुमक्खियों द्वारा उत्पादित सम्पत्ति (मधु) को लूट कर ले आते हैं। यदि लोहे के खुरपे से थोड़ी सी जमीन को खोदकर बीज डाल देने को ही खेती करने के अर्थ में लिया जाय तो ये लोग कभी कभी कुछ जमीन के टुकडों में खेती भी करते हैं। जब मुख्यतः 'भारतीय अनाज'' अथवा मक्का की छोटी सी फसल पकने पर आती है तब वे अपने परिवारों के साथ इसके पास पास इकट्ठे हो जाते हैं और अच्छी तरह पकने तक उसको हरी अवस्था में से ही खाने लग जाते हैं। इन लोगों की नैतिक आदतों के बारे में हम बहत प्रशंसा कर सकते हैं। यदि हम उस व्यक्ति' के वाक्यों का प्रयोग करें कि जिसके गहरे ज्ञान के द्वारा मुझे इनकी जानकारी प्राप्त हुई, तो कहेंगे कि कृतज्ञता के विषय में इन लोगों की बहुत ही कोमल भावनाएं हैं और इधर यह वाक्य तो कहावत बन गया है कि किसी सैरिया को एक बार भोजन करा दीजिए वह उम्र भर याद रखेगा।' नरवर, श्योपुर और चम्बल के बाएं तट की पहाड़ियों में ये प्रकृतिपुत्र बहुत बड़ी संख्या में पाए जाते हैं और इनकी पहली इच्छा यह होती है कि उनको महामाया के वरदानों का उपभोग करने के लिए खुला छोड़ मक्का, मूल भारतीय धान्य नहीं है । इसे कोलम्बस ने 'रेड इण्डियन्स' से प्राप्त किया और स्पेन व पुर्तगाल के व्यापारी १५४० ई० के लगभग इसे भारत में लाये थे। इससे पूर्व के भारतीय साहित्य में इसका उल्लेख प्रायः नहीं मिलता है। - देखिए; स्वर्गीय डॉ० पी० के० गौडे का म० म०, प्रो०, डी० वी० पोद्दार स्मारक ग्रंथ में प्रकाशित 'मक्का' का इतिहासविषयक लेख । पृ० १४-२५ २ फतह, मेरा एक डाक जमावार, जिसका नाम मैने 'इतिहास' (Annals) में लिखा है,ने इन लोगों को डाक-मार्ग पर डाक दौड़ाने वालों में बदल दिया था। इन्हीं जंगली जातियों के भरोसे पर में उस समय बम्बई और गङ्गातट के प्रान्त के बीच पत्रव्यवहार जारी रख सका था जब कि मैंने अपने अन्य कर्तव्यों के साथ साथ सिंधिया को छावनी के पोस्ट-मास्टर का कर्तव्य भी अपने ऊपर ले लिया था; भार १८१५ ई० में मार्कुइस हेस्टिगस के पास, जो उस समय गंगा किनारे फरुर्खाबाद में थे, विलायत से प्राई हुई एक महत्त्वपूर्ण डाक बम्बई से इतनी दूर केवल नौ दिनों में भेज सका था। यह स्मरण रखना चाहिए कि यह दूरी नो सौ मील से भी अधिक है और रास्ता उन देशों में होकर जाता था जिन पर बुटिश सरकार, उनके मित्रों या उनके शत्रुओं में से किसी का अधिकार नहीं था। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३; भीलों का प्राहार [ ४e दिया जाय ; परन्तु उन्हें इसको स्वतन्त्रता नहीं है । बेचारे वनवासी का मूल्य सृष्टि (के जीवों) की माप में शूकर अथवा लोमड़ी से बढ़कर नहीं समझा जाता जिनका कि वह (स्वयं) शिकार करता है; और न उसके समृद्ध ज्येष्ठ बन्धु उसे 'पाताल- पुत्र' (नर-पुत्र) अथवा ऐसे कहीं किसी हीन सम्बोधन के अतिरिक्त अन्य नाम से पुकारते हैं। मैं यहां यह भी बता दूं कि उत्तरी और पश्चिमी हिस्सों में रहने वाले भीलों के शरीर में वर्ण का कोई अन्तर नहीं है, हाँ ! गठन में अवश्य ही थोड़ी बहुत भिन्नता है; उत्तरी भीलों के प्रोठ भागे निकलते हुए, बदन तगड़े और मोटे तथा पेट बड़े बड़े होते हैं । इन लक्षणों में वे मेवाड़ के भीलों की अपेक्षा छोटा नागपुर और सरगुजा के निवासियों से अधिक मिलते हैं यद्यपि सरगुजा के कोली से कम जो नीग्रो और असली उजले भील के बीच की कड़ी को जोड़ता हुआ सा प्रतीत होता है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ ; बोजपुर (Beejipoor ) ( विजयपुर] प्रशबली का वृश्य ; ऋतु की प्रतिकूलता ; रायं ( Rayn ) पुरजी [ राणपुर ] का मन्दिर ; सिक्के पुराने कस्बे ; जैन साधुनों के प्रति राणाजी का सम्मान ; बीजीपुर की भ्याद [भायात] ; सीरिया और सौर प्रायद्वीप के बीच धार्मिक श्राचारों के विषय में श्रादान प्रदान : सूर्यपूजा ; बोरगांव; मोणों के गाँव; मीणों के झगड़े का उपाख्यान ; तेज गर्मी की मात्रा के चौखटे पर विभिन्न प्रभाव ; बही ( Buhee); देवड़ा राजपूतों की राजधानी ; सिरोही (Sarchi) ; शिवमन्दिर ; चौहाणों के इण्डोगेटिक (Indo-Getic) रीति-रिवाज ; सिरोही राज्य की दशा ; लेखक के प्रत्यनों से इसका मारवाड़ की अधीनता से छुटकारा ; इस प्रयत्न के लाभप्रद परिणाम ; भारतीय राजाश्रों के प्रति बरतने योग्य नीति; बृटिश भारत में कानूनी संग्रह-ग्रंथ का प्रभाव; सिरोही का भूगोल; पूर्व यात्रियों द्वारा राजपूतों का वर्णन ; शव से मुलाकात ; राजधानी का वर्णन ; देवड़ों का पूर्व इतिहास | जब मैं शीतलामाता की घाटी पार करके निकला तब प्रायः दोपहर हो चुका था और ज्यों ही मुझे आबू का ऊँचा शिखर दिखाई पड़ा त्यों ही मेरा हृदय खुशी के मारे उछलने लगा और मैं 'सायराक्यूस के सन्त' की तरह कह उठा 'यूरीका' अर्थात् 'मिल गया' ।' अगले श्राध घण्टे ने मुझे अपने डेरे में बीजीपुर पहुँचा दिया - थर्मामीटर ६८ और बॅरॉमीटर २८ ६०' द्वारा, मेवाड़ के मैदानों और अरावली के किनारे-किनारे दोनों ओर फैले हुए मारवाड़ के ऊँचे मैदानों में, ५०० फोट की ऊँचाई का अन्तर बतला रहे थे । तीन बजे (दिन) बॅरॉमीटर २८° ५० और थर्मामीटर १०२° पर थे और पश्चिम में बादल हो रहे थे तथा गरम हवाएं जंगल में सिराको ( Sirocco ) बवण्डर उड़ा रही थीं । जब मैंने गरम श्रीर सूखी रेत में खड़े होकर, जिस पर मेरा डेरा गड़ा हुआ था, उन ऊंचे और प्रसन्नता भरे स्थानों की ओर देखा जिनको मैं पीछे छोड़ १ श्रार्कमिदोस नामक ग्रीक वैज्ञानिक को पानी की उछाल के कारण विभिन्न धातुत्रों के तौल में भिन्नता आने का रहस्य उसके स्नानागार में, जब वह टब में उतरा तब, अचानक सूझ पड़ा तो इस खोज की खुशी में वह नंगा ही बादशाह के दरबार में 'यूरीका' 'यूरीका' ( मिल गया, मिल गया) चिल्लाता हुआ दौड़ पड़ा क्योंकि बादशाह ने अपने स्वर्ण मुकुट में मिलावट को जाँच करने के लिए उससे कह रखा था । सिरॉको (Sirocco ) इटली में अफ्रीका से समुद्र पार करके आने वाली धूल भरी सूखी हवाओं को कहते हैं । यह शब्द प्रायः दक्षिण से आने वाली गरम और नम हवाओं के प्र में भी प्रयुक्त होता है । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५१ प्राया था, तब मुझे अपने ठंडक पहुँचाने वाले उपकरणों को फैंक देने की मूर्खता पर पश्चाताप हुआ । दृश्य वास्तव में शानदार था और मेवाड़ के क्रमिक चढ़ाव वाले किसी भी भाग की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता था। यहाँ से मैंने महान् अरावली के सीधे और निकले हुए मुखभाग के दृश्य को नज़र भर कर देखा - विभिन्न प्रकार के प्रस्तर खंडों के कारण विविध दृश्यावलीयुक्त व गुम्बद-सरीखी इसकी चोटियाँ, जंगल और झाड़ियों से पटी हुई गहरी एवं अन्धेरी गुफाएं, जिनमें होकर स्फटिक के समान स्वच्छ जल वाले कितने ही पानी के झरने अपने पहाड़ी उद्गम से चुपचाप निकल कर मरुस्थली के निवासियों को ताजगी पहुँचाने के लिए इधर आ पहुँचते हैं। गरमी असाधारण रूप से तेज थी और इस साल वर्षा कम होने के कारण इन 'नाडों' में से कुछ ने तो अपने रेतीले पेटे को बिलकूल ही छोड़ दिया था। यदि जनसेवा से अवकाश मिल पाता तो मैं कोई एक पखवाड़ा पहले ही रवाना हो जाता क्योंकि 'छोटा बरसात' अर्थात् प्रारम्भिक मानसून के बादल इकट्ठे होने लग गए हैं और मुझे डर है कि कहीं मेरे मनसूबे धरे ही न रह जायें । पहले ही एक चीज रही जा रही है जिसकी खातिर मैंने भीलों के वन में होकर जाने की अपेक्षा इस मार्ग को अधिक पसन्द किया था-वह है सादड़ी की नाळ में रायपुरजी [राणपुर] का मन्दिर। यह नाळ अरावली के अङ्गों में से उन दरारों में है जहाँ केवल पैदल-यात्री ही जा सकते हैं । यद्यपि यह स्थान यहाँ से सामने ही दिखाई पड़ता है परन्तु, वहाँ पहुँचने की मेरी हिम्मत नहीं होती क्यों कि जिधर मेरी यात्रा के अन्य बहुत से उद्दिष्ट स्थान हैं उस मार्ग से यह बिलकुल विपरीत दिशा में पड़ता है । यह एक भ्रम ही था यदि इस विशाल ढेर को देखने सम्बन्धी अपनी योग्यता की कुछ भी परख कर पाता तो आज से दो वर्ष पहले उदयपुर से जोधपुर जाते समय ही मुझे इसको देख लेना चाहिए था । यह तथा बहुत से दूसरे स्थान किसी भावी यात्री के लिए छूटे जा रहे हैं, जिसको यहाँ पर, यद्यपि न तो अत्यन्त प्राचीन कुम्भलमेर व अजमेर के मन्दिरों की सो उत्कृष्ट अनुरूपता मिलेगी और न बाडोली और आबू की सी मूर्तियाँ ही दिखाई देंगी परन्तु एक सुदृढ़ गौरव के दर्शन अवश्य होंगे। ___मैंने अपने दूतों को बाली नामक जैन कस्बे के लिए आगे रवाना कर दिया था; यहाँ पर सौराष्ट्र की प्राचीन राजधानी वलभी के निवासी पाँचवीं शताब्दी में इण्डो-सोथिक जाति के आक्रमणकारियों से तंग आकर आ बसे थे । उन लोगों ने यहाँ बहुत से विचित्र सिक्के इकट्ठ कर लिए थे जो कुछ तो इण्डोसोथिक ठप्पे के थे जिनमें एक तरफ किसी राजा की मुण्डो और दूसरी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा . तरफ वेदी बनी हुई थी। लेख उन्हीं गूढ अक्षरों में था जिनका कुछ विवरण' में पहले दे चुका है। दूसरे सिक्के भी इसी तरह अपने ही ढंग के थे जिनमें सीधी तरफ गूढाक्षरों से ( यदि हम इस शब्द का प्रयोग कर सकें ) युक्त घोड़े पर सवार, हाथ में भाला लिए हुए किसी योद्धा की अथवा घुटने टेक कर बैठे हुए नन्दोश्वर की मूर्ति बनी हुई थी और दूसरी ओर संस्कृत अक्षरों में किसी राजपूत राजा का नाम ठपा हुआ था, परन्तु उसमें तिथि, जाति अथवा देश का कोई उल्लेख नहीं था। देखने में प्रायः उसी काल के सिक्कों की एक तीसरी किस्म भी थी जिनमें एक ओर देवनागरी अक्षरों में ही किसी हिन्दू सम्राट का नाम व पद अंकित था और दूसरी ओर महमूद महान् का। निस्सन्देह, बादशाह गजनवी द्वारा विजय के उपलक्ष में अपनी सफरी टकसाल में यह ठप्पा बाद में लगवाया गया होगा, ठीक उसी तरह जैसे कि फ्रांस के गणतन्त्रियों ने लुई १६वें के सिक्कों पर दूसरी तरफ स्वतन्त्रता की देवी (की मूर्ति) अङ्कित करा दी थी। मेरी इच्छा थी कि मुझे इस प्रदेश के प्राचीन शहरों में जाकर स्वयं अनुसन्धान करने का समय मिलता जहाँ अरावली की समीपता के कारण प्रणहिलवाड़ा और सौराष्ट्र राज्य के निवासियों ने ग्रीक, पाथियन और हूण जातियों से बार-बार आक्रान्त होकर शरण ग्रहण की थी। बाली में ही मुझे मेवाड़ के राजानों से सम्बन्धित एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नामावली , देखिए Transactions of the Royal Asiatic Society, Vol. i, p. 338. Plate 1, No. 1. ' वही p. 338, Nos. 2 and 3. ३ सुलतान महमूद गजनवी ने १०२१ ई० में पंजाब पर अधिकार कर लिया था। १०५१ ई. के बाद लाहौर उसके वंशजों की राजधानी हुई। यहां उन्होंने कुछ छोटे-छोटे गंगाजमनी सिक्कों पर एक तरफ अरबी-लिपि के प्रारम्भिक चौकोर अक्षरों में इबारत ठाप दी और सीधी तरफ राजपूती नन्दीश्वर की मूर्ति बनी रहने दी। स्वयं महमूद ने लाहौर में एक विशिष्ट टंक सिक्के पर उप्पा लगाया था। उसमें लाहौर को महमूदपुर लिखा है । इस सिक्के पर एक ओर उसका नाम और अरबी में लेख है तथा दूसरी ओर 'कलमा' का संस्कृत अनुवाद है। --The Coins of India-C.J. Brown, 1922; p. 69. ४ लुई १६ वां फ्रांस के बादशाह लुई १५ ३ का पौत्र था । वह अपने पितामह की मृत्यु के बाद १७७४ ई० में गद्दी पर बैठा । १७८६ ई० में क्रान्ति हुई और वह परिस से भाग गया परन्तु पकड़ लिया गया। १७९२ ई. तक वैधानिक राजा की भांति वह फिर राज्य करता रहा परन्तु इसके बाद राजसत्ता समाप्त कर दी गई और उसका सर उड़ा दिया गया ।-N.S.E; p. 818. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ४, विजयपुर की भायात [ ५३ का खर्रा प्राप्त हुआ और आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिस जती {यति] ने मुझे यह नामावली दी थी वह अब भी अर्थात् तेरह शताब्दियां बीत जाने पर भी 'गुरु' के सम्मान्य पद का उपभोग कर रहा था । धार्मिक मामलों में राजपूत लोग प्रायः सहनशील होते हैं और वर्तमान राणोजी तो ऐसे हैं ही। अस्तु, जैन-मतावलम्बियों के प्रति इन लोगों का व्यवहार विशेष सम्मानपूर्ण होता है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि उक्त भावना जैनों की धार्मिक अथवा सामाजिक विशेष स्थिति के कारण है परन्तु ( इतना अवश्य है कि ) यह उनके पूर्वजों के प्रति किन्हीं महत्त्वपूर्ण सेवानों के परम्परागत कृतज्ञभाव के कारण से उद्भूत है जो सम्भवतः उन्होंने वलभी के नाश के अवसर पर की होगी । मुझे अच्छी तरह याद है कि जब कभी किसी जैन के विषय में महत्त्व का मामला उठता और मन्त्री इस बात पर जोर देता कि उसके कब्जे में ऐसी जायदाद है जिस पर उसका कोई हक नहीं है और वह सार्वभौम शासक (राणा) द्वारा अधिग्राह्य है तब यह कह कर बात टाल दी जाती थी कि उसे तंग न किया जाय क्यों कि राणाजी के पूर्वजों पर इस सम्प्रदाय का इतना बड़ा आभार है कि जिससे वे तथा उनके पंशज कभी उऋण नहीं हो सकते । इस भावना से प्रेरित होकर तथा अपनी सर्वधर्मप्रियता की प्रवृत्ति के कारण ही जब कभी जैन साधु अपने अनुयायियों को दर्शन देने के लिए मरुभूमि को जाते समय उदयपुर हो कर निकलते तब राणाजी स्वागत के लिए उनकी अगवानी करते और राजधानी तक साथ साथ पाते । इन लोगों को जो रियायतें और अधिकार-पत्र मिले हुए हैं उनके बारे में मैं 'इतिहास' में विस्तारपूर्वक वर्णन कर चुका हूँ। ___ बीजीपुर [विजयपुर] चार भागों में बँटा हुआ है और राजपूतों के कब्जे में है जो नाणा बेड़ा (Nana Bera) को भायात (Bhya'd) या बिरादरी के कहलाते हैं और जिनका मुखिया नाणा (Nana) में रहता है। ये अमर (वीर) राणा प्रताप के वंशज हैं और व्यावहारिक उपाधि 'बाबा' अथवा 'बालक' का उपयोग करते थे तथा राणाजी के दरबार में सनवाड़ के सरदार' के बराबर सम्मान प्राप्त करते थे। किन्तु बाली तथा इस भूभाग से युक्त गोड़वाड़ प्रांत के मारवाड़ के राजाओं द्वारा विश्वासघातपूर्ण अपहरण होने के साथ हो ' सनवाड़ के सरदार महाराणा उदयसिंह के तीसरे पुत्र वीरमदेव के वंशज होने से वीरम देवोत राणावत कहलाते हैं और 'बाबा' उनका खिताब है । खेराबाद के बाबा संग्रामसिंह के छोटे पुत्र शम्भुसिंह को सनवाड़ की जागीर मिली थी। -उ०रा०६०, जि० २, पृ० ६६६ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पश्चिमी भारत की यात्रा ये संबंध विच्छिन्न हो गए और अब प्रताप के ये बालक जोधपुर के अधीन हैं। परन्तु इस नवीन शक्ति के प्रति अपना प्राभार प्रदर्शित करते हुए भी यदि इनसे यह पूछा जाय कि उनकी 'पान' किस पर है तो यह बात तुरंत ही विदित हो जायगी कि राजपूतों की निर्णय-बुद्धि किस प्रकार दो स्वामियों की सेवा में समन्वय कर सकती है । 'राजस्थान के वीर' का एकमात्र प्रतिनिधि मुझ से मिला था । वह यद्यपि ऊपर से मारवाड़ी पोशाक पहने हुए था, फिर भी हृदय और महान् व्यक्तित्व से उसके उज्ज्वल वंश-सम्बन्धी कोई भी चिह्न तिरोहित नहीं हुए थे। राजकुमार अर्थात् युवराज के अतिरिक्त मुझे बीजीपुर (विजय का नगर) के सरदार से अधिक सुन्दर राजवंशी कोई भी न मिला ; गौरव के लिए पर्याप्त लम्बाई, शरीर सुदृढ़ परन्तु भारी नहीं, गोरा भावपूर्व मुख-मण्डल तथा गौरवपूर्ण प्राचरण किसी भी दरबार में उसे उत्कृष्ट स्थान प्रदान कर सकते थे। हमने वर्तमान की अपेक्षा अतीत के विषय में अधिक बातें कीं और उसे इस बात से कोई अप्रसन्नता नहीं हुई कि मुझे उसकी अपेक्षा उसके (पूर्व) वंश के विषय में अधिक और अच्छी जानकारी थी। जून छठी; वीरगाँव : हमारा मार्ग अरावली के सामानान्तर चल रहा था परन्तु कभी-कभी वह इसकी निकली हुई पसलियों जैसी चट्टानों से छू जाता था जो सुबह-सुबह तब तक बहुत विकराल दिखाई पड़ती थीं जब तक कि सूर्य उनके ऊपर होकर यात्रा न कर लेता और उनके धूमिल परिधान पर सुनहरी रङ्ग बिखेर कर उनको रङ्गबिरङ्गा न बना देता। हमने एक छोटा सा नळा पार किया जो 'जनो नळा'' (Jooe Nullah) कहलाता है और सिरोही तथा गोड़वाड़ जिलों की सीमा पर होने के कारण जिसका राजनैतिक महत्त्व भी है। इसी प्रकार हमने सूकड़ी (Sukari) नदी भी पार की जो जालोर के किले के पास हो कर अपने रास्ते जाती हुई लूनी (या नमक की नदी) में गिर जाती है। जहाँ से मैंने इस नदी को पार किया उसके पास ही में एक छोटे से मन्दिर में गया जो बालपुर-शिव अर्थात् बालनगर के शिव का है। पौराणिक देव-प्रतिमा (लिंग) के सामने ही वाहन अथवा पीतल के बैल की प्रतिमा है, जो ऐसा प्रतीत होता है कि कभी इस सौर प्रायद्वीप में पूजन का प्रधान पात्र रहा था; निस्संदेह, इतिहास के प्रारम्भकाल में, जब हिरम (Hiram)२ और टायर १ जवाई नाला, जहाँ वर्तमान बंध बांधा गया है। २ Hiram I (हिरम, प्रथम) टायर का बादशाह और प्रबीबाल का पुत्र था। उसने इज़ राइल के बादशाह सुलेमान (Solomen) के पास बहुत से कारीगर, इमारती सामान Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ४; सूर्यपूजा [ ५५ (Tyre ) के मल्लाह जरूसलम के बादशाह के जलयान वाहक थे उससे भी बहुत पहले, इस देश का लाल समुद्र के तट, मिस्र और फिलस्तीन के देशों से यातायात संबंध रहा होगा। बाल ( Bal) और पीतल का बछड़ा, जिनका 'महीने की पन्द्रहवीं तारीख' को विशेष पूजन होता है वे भारत के बालेश्वर और नन्दी मिस्र के ऑसिरिस' Osiris और मुविस Muvis के अतिरिक्त और क्या हो सकते हैं, जिनकी पूजा-तिथि काली अमावस है जो महिने का पन्द्रहवाँ दिन भी है और उस दिन सूर्य की किरणें चन्द्रमा के मुख को प्रकाशित भी नहीं करती हैं । अतः बालपुर अथवा बाल का नगर वैसा ही है जैसे सीरिया का बॅलबॅक ( Balbec ) अथवा हॅलिप्रॉपोलिस' (Heliopolis ) । नाम, रीति-रिवाज़ और चिह्नों की समानता ये सब एक ही सार्वलौकिक समान धर्म को सूचित करते हैं अर्थात् सूर्य का पूजन और उसका आदर्श बैल ये सब उपजाऊपन और उपज के प्रतीक हैं । इस बात की खोज करना तो व्यर्थ होगा कि सब जगह फैली हुई मूर्ति-पूजा की उत्पत्ति कहाँ हुई— यूफाटिस (Euphrates ), ऑक्सस ( Oxus ) अथवा गङ्गा के मैदानों में सिनाइ ( Sinai ) पहाड़ वाले प्रायद्वीप' अथवा सौर श्रीर लाल-समुद्र पर एक जहाजी बेड़ा सहायता के लिए भेजे थे । सम्भवत: फोनिसियन लिपि का प्राचीनतम लेख हिरम के एक कांस्य पात्र पर मिलता है । इस लेख के अक्षर मिस्र की चित्र-लिपि और बॅबीलॉन की उच्चारण- प्रधान लिपि से भिन्न हैं । A Brief Survey of Human History-S.R. Sharma, 1938; p. 17. " मिस्र का प्राचीन सुख-समृद्धि का देवता । बाद में मृतकों के न्यायकर्ता के रूप में इसकी पूजा होने लगी थी। इसके विषय में अन्य भी कितनी ही पौराणिक गाथाएँ प्रचलित थीं। इसकी मूर्तियाँ तुर्रेदार मुकुट पहने हुए बनाई जाती थीं । — Enc. of R&E- Hastings, Vol. V; p. 244. २ Mnevis - मिस्र का वृषभाकृति देवता । — N.S.E ; p. 960. 3 मिस्र का प्राचीन नगर जो आजकल कैरो ( Cairo) का उपप्रान्त मतोरिया (Matariya) कहलाता है । यह बाज पक्षी के से सर वाले 'रा' ( Ra ) नामक सूर्यदेव के पूजा-स्थान के रूप में प्रसिद्ध था । यहाँ के विद्वान् पण्डों से आकृष्ट होकर प्लेटो एवं अन्य बड़े-बड़े दार्शनिकों ने भी यहाँ की यात्रा की थी। बारहवें राजवंश के सेन्युस्र ेट प्रथम ( Senusret 1 ) द्वारा स्थापित एक ६६ फीट ऊँचा स्तम्भ यहाँ अब तक खड़ा है । -N.S.E.; p. 627. ४ पश्चिमी एशिया की महानदी । " सिनाई - लाल समुद्र के ऊपर स्वेज श्रौर अकाबा की खाड़ियों के बीच का मिस्र का प्रायद्वीय | बाइबिल में सिनाई पर्वत ( Mount Sinai) को उक्त प्रायद्वीप के दक्षिण Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : ४; तेज गर्मी की मात्रा के विभिन्न प्रभाव [ ५७ पहाड़ी लोगों के प्राधी रात में होने वाले हमलों से सजग रहने वाले पिराई के राजपूतों ने अपने किसो उत्सव के दिन नित्य-प्रति की सावधानी नहीं बरती, यद्यपि उनकी तलवारें भी 'मीणों का खून पी चुकी थीं और कुछ ही समय पहले वे मेवास पर अचानक आक्रमण कर, उनके गाँवों को जला कर, अटवण के मुखिया को माता को बन्दी बना कर ले गए थे और उसे जोधपुर के सीमावर्ती फौजी पड़ाव में रख दिया था। इस बन्दिनी ने, या तो अपने सम्बन्धियों से कोई गुप्त सूचना पाकर अथवा अपनी बन्दी-दशा से दुखी होकर, यह निश्चय कर लिया कि वह मीणों द्वारा बदला लेने में अड़चन न बनेगी अतः राजपूतों को चौकसी से दूर कर उसने एक जहर की खुराक द्वारा अपने को मुक्त कर लिया । इसी बीच में, शत्रु के लौटते ही, उसके पुत्र ने अपने धनुषधारियों के साथ सब से पहले कोलूर की पहाड़ी पर जाकर अपने माचल और राधवा (Radhva) के भाई-बन्धुनों को एकत्रित किया। ऐसे हमलों के लिए एकत्र होने तथा शकुन लेने के लिए इन लोगों का यही संकेत-स्थल है । शकुन अनुकूल हुआ और 'तीर निशाने पर लगा।' काम पूरा करने के लिए अभी रात बहुत बाकी थी इसलिए पिराई का उत्सव समाप्त होने के पहले ही वे निकल पड़े । धावा सफल हुआ और ऊटवण की माता के नाम पर छियालीस राजपूतों का बलिदान कर दिया गया। आज सुबह १० बजे जब मैं अपने डेरे पर पहुँचा तब थर्मामीटर ६६ पर था; दो बजे ( डेरे में ही) यह १०८° पर पहुँच गया; शामको ५ बजे बादल घिर आये और तापमान ८८ हो गया तथा ७ बजे ८६' रह गया। उधर बॅरॉमोटर इन्हीं समयों पर क्रमशः २८°-७७, २८-०७३, २८°-६५ और २८०-७० बतला रहा था। छाया में १०८° पर ही थर्मामीटर की सबसे ऊँची माप यी जो मैंने किञ्चित् दैनिक परिवर्तन के साथ अब तक पढ़ पाई थी; यद्यपि तापमान की समानता के कारण मौसम में भी वैसी ही समानता रहो और जानवरों का नियमित घूमना फिरना बना रहा फिर भी गरमी की अधिकता का असर मुझ पर कम नहीं पड़ा । जब मैं सामने फैले हुए मैदान की तरफ देखता तो मुझे सूखी रेत में से आग की बदरंग लपटें निकलती हुई दिखाई देती, तिपाई पर लटकते हए बॅरॉमीटरों को जब मैं ठीक करता तब उनके पीतल लगे हए हिस्से को छूने में बड़ा कष्ट होता । यद्यपि इस दर्जे की गरमी 'ठंडी जलवायु के रहने वालों' और 'ठंडे खून वालों के लिए असह्य है, फिर भी डेरे से बाहर की हवा जो २५ अधिक गरम थी असहनीय नहीं थी। मैं भारतवर्ष में मरुस्थल के किनारे बिताए हुए अत्यधिक गरमी के दिनों की अपेक्षा इङ्गलिस्तान Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ४; तेज गर्मी की मात्रा के विभिन्न प्रभाव [ ५७ पहाड़ी लोगों के प्राधी रात में होने वाले हमलों से सजग रहने वाले पिराई के राजपूतों ने अपने किसो उत्सव के दिन नित्य प्रति की सावधानी नहीं बरती, यद्यपि उनकी तलवारें भी 'मीणों का खून पी चुकी थीं और कुछ ही समय पहले वे मेवास पर अचानक आक्रमण कर, उनके गाँवों को जला कर, ऊटवण के मुखिया की माता को बन्दी बना कर ले गए थे और उसे जोधपुर के सीमावर्ती फौजी पड़ाव में रख दिया था। इस बन्दिनी ने, या तो अपने सम्बन्धियों से कोई गुप्त सूचना पाकर अथवा अपनी बन्दी -दशा से दुखी होकर, यह निश्चय कर लिया कि वह मीणों द्वारा बदला लेने में अड़चन न बनेगी अतः राजपूतों को चौकसो से दूर कर उसने एक जहर की खुराक द्वारा अपने को मुक्त कर लिया । इसी बीच में, शत्रु के लौटते ही, उसके पुत्र ने अपने धनुषधारियों के साथ सब से पहले कोलूर की पहाड़ी पर जाकर अपने माचल और राधवा ( Radhva ) के भाई-बन्धुत्रों को एकत्रित किया । ऐसे हमलों के लिए एकत्र होने तथा शकुन लेने के लिए इन लोगों का यही संकेत स्थल है । शकुन अनुकूल हुआ और 'तीर निशाने पर लगा ।' काम पूरा करने के लिए अभी रात बहुत बाकी थी इसलिए पिराई का उत्सव समाप्त होने के पहले ही वे निकल पड़े । धावा सफल हुआ और ऊटवण की माता के नाम पर छियालीस राजपूतों का बलिदान कर दिया गया । आज सुबह १० बजे जब मैं अपने डेरे पर पहुँचा तब थर्मामीटर ९६° पर था; दो बजे ( डेरे में ही ) यह १०८ पर पहुँच गया; शामको ५ बजे बादल घिर आये और तापमान ८८ हो गया तथा ७ बजे ८६° रह गया । उधर बॅरॉमोटर इन्हीं समयों पर क्रमशः २८-७७, २८°७३, २८° ६५ और २८° ७० बतला रहा था । छाया में १०८° पर ही थर्मामीटर की सबसे ऊँची माप यी जो मैंने किञ्चित् दैनिक परिवर्तन के साथ अब तक पढ़ पाई थी; यद्यपि तापमान की समानता के कारण मौसम में भी वैसी ही समानता रही और जानवरों का नियमित घूमना फिरना बना रहा फिर भी गरमी की अधिकता का सर मुझ पर कम नहीं पड़ा । जब मैं सामने फैले हुए मैदान की तरफ देखता तो मुझे सूखी रेत में से आग की बदरंग लपटें निकलती हुई दिखाई देतीं, तिपाई पर लटकते हुए बॅरॉमीटरों को जब मैं ठीक करता तब उनके पीतल लगे हुए हिस्से को छूने में बड़ा कष्ट होता । यद्यपि इस दर्जे की गरमी 'ठंडी जलवायु के रहने वालों' और 'ठंडे खून वालों' के लिए असह्य है, फिर भी डेरे से बाहर की हवा जो २५° अधिक गरम थी असहनीय नहीं थी । भारतवर्ष में मरुस्थल के किनारे बिताए हुए अत्यधिक गरमी के दिनों की अपेक्षा इङ्गलिस्तान Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८]. पश्चिमी भारत की यात्रा में गरमी के दिनों में अधिक परेशान हग्रा था । यहाँ पर मैं नेपल्स्' (Naples) के शरत्कालीन दिनों की तुलना नहीं करूँगा क्योंकि यहां तो (गरमी का) इतना प्रभाव होते हुए भी मैं अपने निरीक्षण-परीक्षण को लेखनी-बद्ध कर सका था और वहाँ पर अक्तूबर के महीने में स्ट्राडा डी टोलेडो' ( Strada di toledo ) के छायादार किनारे पर मुश्किल से रेंग पाता था और वह भी दो वर्ष बाद, जब कि मेरा स्वास्थ्य काम-चलाऊ हो गया था। मैं यहाँ पर केवल तेज़ गरमी के प्रभाव का ही वर्णन करूँगा जो दूसरे बहुत से राजनैतिक एवं व्यक्तिगत दुःखों के समान विष और उसको शमन करने वाली औषधि को साथ ही उत्पन्न करता है और इस असङ्गतिपूर्ण अनुभव का कारण खोज निकालने का कार्य शरीर-शास्त्रियों के लिए छोड़ देता हूँ। जब तापमान १०८ या इससे भी बहुत नीचे होता है तभी शरीर के सभी रोमकूप खुल जाते हैं और निरन्तर पिघलने (पसीना निकलने) तथा विलय होने (सूखने) का क्रम जारी रहता है। यदि इस तरह निकली हुई भाप को सफ़ेद चद्दर पर ठंडी करके प्रतिक्रिया करने दी जावे तो ठंडक पहुँचाने वाले किसी दूसरे यन्त्र की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। परन्तु, जहाँ तड़के ही तो थर्मामीटर पाला जमानेवाले प्रङ्क पर रहे और दो ही घंटों बाद जब सूर्य सिर पर आ जाय तब खेमें में ६०० से १००° तक तथा बाहर खुली धूप में १३०° तक पहुँच जाय तो कौन सा ढाँचा' कायम रह सकता है ? मैंने इन परिवर्तनों को जैसे तैसे सहन किया है। परन्तु जब मैं उन बीते दिनों की याद करता है और अपने उन साथियों की भी जो मुझ पर गुर्राते थे या मेरे साथ हँसते खेलते थे तो मुझे विचार होता है कि वे कहाँ गए ? मेरे इस विवरण का प्रमाण देने में भी कई कठिनाइयां अनुभव होती हैं-बोस में से केवल दो जीवित हैं---और उनमें से भी एक में ही ऐसा हैं जो स्वदेश लौटने को बचा हैं। जिज्ञासा शान्त करने के लिए यहाँ एक सूची दे रहा हूँ परन्तु दुःख के साथ कहना पड़ता है कि भारत में जाने वालों के भाग्य में प्रायः यही लिखा होता है। १ Naples-इटली का प्रसिद्ध नगर । २ Toledo स्पेन का बहुत प्राचीन और आकर्षक नगर जो टॅगस (Tagus) नदी पर स्थित है।-N.S.E; p. 1223. 3 प्राणी का शरीर। । रामगढ-देशी बटालियन, कर्नल बॉटन, मेजर रफसेज, लेफ्टिनॅण्ट व एडज्यूटेन्ट हिगॉट, लें. बॉटन, डॉक्टर लेडलों और लिमाण्ड, सभी मृत । २० वीं या मेराइन रेजीमेण्ट. ले. कर्नल मेकलीन, मे र यूल, कैप्टेन मेनवाटिंग, वेस्टन, पोर्टयूस, सोली, ले० मेनली, सभी Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ४; भीलों का रहन-सहन [ ५६ जून ७ वीं; बही : हमारा आज का रास्ता सपाट और समतल जमीन पर साढे बारह मील का था । वीरगाँव से तीन मील पर हमने फिर सूकड़ी को पार किया और पवौरी या पावरी (Pawori) पर निकले जहाँ मीणों पर आतङ्क रखने के लिए जोधपुर का थाना या फौजी चौकी है। सात मील पर, पोसालिया से एक मील इस तरफ सिरोही की रियासत में, हमने एक और प्रसिद्ध बिरादरी देखी जिसके राजा ने बृटिश सरकार के संरक्षण में आने के बाद वहीं एक फौजी चौकी कायम कर रखी थी। वीरगांव की तरह बही का भी कोई अपना महत्त्व नहीं है परन्तु अब, रियासत की अनुचित वसलियों से और दूसरे लुटेरों के धावों से बहुत वर्षों तक बरबाद हो चुकने के बाद, दोनों ही गांव धीरे-धीरे समृद्धि की अोर बढ़ रहे हैं । बाबू यहां से द० १० पू० और द० २०° प० के बोच में १३ कोस या २५ मील पर था और मेवास के ऊटवण और माचल क्रमश: द० २०° पू० तथा उ० २०° प० में थे । ऊटवण, माचल और पोसालिया के लुटेरों के कुछ नेता मुझसे मिलने आए और उन्होंने वंशपरम्परागत आदतों को छोड़ देने की प्रतिज्ञा की। ये लोग पुष्ट और फुर्तीले होते हैं । बाँस का धनुष, तीरों का भाथा तथा कमरबन्धे में कटार खोंसे हुए मीणे की आकृति तूलिका के लिए एक रुचिकर विषय उपस्थित कर देती है । मीणों की तरह ही शस्त्र-सज्जित होकर कुछ देवड़ा राजपूत भी मुझसे मिलने आए । हमने तीरन्दाजी की होड़ की और सौभाग्य से मेरा एक तीर देवड़ा के तीर से कुछ गज आगे चला गया। मीणों ने एक खुशी की आवाज़ लगायी परन्तु मैंने दुबारा प्रयत्न करके अपनी इस कीति को जोखिम में न डालने की होशियारी बरतो । देवड़ों की पोशाक का अन्तर केवल उनकी पगड़ी के बंधेज में ही नहीं वरन् उनके बड़े-बड़े पाजामों तथा उनके घेरदार लपेटे हुए वस्त्रों में भी स्पष्ट दिखाई देता था; चमेली के तेल से तर जुल्फें उनके गालों पर आ रहीं थी। आज सुबह के ६ तथा तीसरे पहर के ३ व ५ बजे थर्मामीटर क्रमशः ८६०, ८६° और ६६° पर था और बॅरॉमीटर उन्हीं समयों पर २८०८०' २८°७७' और २८° ७५' बतला रहा था; दूसरा बॅरॉमीटर इनसे १४° नीचे था परन्तु में इस पर विश्वास नहीं करता था। जून ८वी--साढ़े बारह मील । आज के रास्ते का हर कदम एक हलके जंगल मत । ले० टॉड, मरे १८३८ में जीवित | प्रोसियों के अनुवादक का पुत्र मैकफर्सन, मत । मॉण्टेग्यू ने थोडे ही दिन की नौकरी के बाद भारत छोड़ा । मैकनॉटन मृत । पार्टिलरी, कैप्टेन ग्राहम् मृत। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] पश्चिमी भारत की यात्रा में होकर था जिसमें मुख्यतः उपयोगी और मजबूत धो[क] और सदा हरे पीलू के वृक्ष थे। सातवें मील पर हम ऊटवण की पहाड़ी-श्रेणी को पार करके उस घाटी में पहुँचे जिसमें देवड़ों की राजधानी स्थित है। एक मील आगे चलकर हमें एक पहाड़ी किले के खण्डहर मिले जिसे उदयपुर के राणा कुम्भा ने कुम्भलमेर से मालवा के गोरोवंशीय (Ghorian) सुलतान द्वारा निकाले जाने पर बनवाया था। इसी स्थान पर हम सारणेश्वर (Sarneswar) के मन्दिर पहुँचे जो सिरोही के राजाओं व सरदारों की बहुत सी छतरियों से घिरा हुआ है। यहां के आकर्षण का मुख्य विषय एक कुंड है जिसका पानी चर्मरोगों को दूर कर देता है; भारतवर्ष के अन्य गरम पानी के सोतों की तरह यह भी 'शिव' के नाम पर ही प्रसिद्ध है । मन्दिर की गोल और मेहराबदार छत खम्भों पर टिकी हुई है और गुम्बद की आकृति इस प्रदेश के रिवाज के अनुसार अण्डाकार है जिसका छोटा भाग एक लम्बे आधार पर सीधा रखा हुआ है। अन्दर शिवलिङ्ग विराजमान है और बाहर एक भारी त्रिशूल है जो पूरा बारह फीट ऊंचा है और सप्तधातु का बना हुआ बताया जाता है । पत्थर में उत्कीर्ण दो हाथी दरवाजे पर रक्षा के लिए खड़े हैं और पूरा मन्दिर एक पक्के परकोटे से घिरा हुआ है जो माँडू के मुसलिम सुलतान ने खिंचवाया था । कहते हैं कि इस कुण्ड में स्नान करके वह उस रोग से, जिसे कोस [कोढ ?] कहते हैं, मुक्त हो गया था। चमत्कार हुआ हो या हुआ हो परन्तु, पैग़म्बर की शरीअत के विरुद्ध मन्दिर की मरम्मत करवाना अथवा भेंट चढ़ाना इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि (इस कुण्ड का) पानी लाभदायक है । नन्दिकेश्वर की वर्तमान मूर्ति असली नहीं है। वह तो शिलालेख के साथ मेवाड़ ले जा कर नए मन्दिर में स्थापित कर दी गयी है । देवड़ों के समाधिस्थल भी स्थापत्य एवं विस्तार की दृष्टि से विशिष्ट हैं और खास बात यह है कि प्रत्येक के साथ एक अलग शिलालेख लगा हुआ है। वर्तमान महाराव के पिता की छतरी में एक छोटा सा मन्दिर है जिसके पास ही मृतक की घुडसवार मूर्ति है; परन्तु राव गज की छतरी बहुत विशिष्ट है जिसमें अन्तर्वेदी पर चार सतियों के अतिरिक्त उसके राजपूत सामन्तों की भी एक पंक्ति मध्यम आकार (basso-relievo) में बनी हुई है--सभी ढालें और तलवारें लिए हुए हैं। चौहाण जाति का इण्डो-गेटिक (Indo-Getic) वंशक्रम में होने का यह एक और प्रमाण है-ये लोग बाद में ब्राह्मण धर्म में परिवर्तित हो गए थे। देवड़ों की राजधानी सिरोही में मेरे आगमन का अभिनन्दन खुशी के गीतों हारा हुआ जिनको श्रेष्ठ सुन्दरियां, जैसी मैंने भारत में और कहीं नहीं देखीं, Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ४; भीलों का रहन-सहन [६१ पीतल के विशेष प्रकार के मँजीरों की ताल पर गा रही थीं । वे राव के आगेप्रागे चल रही थीं, जो अपने सभी सामन्तों के साथ मुझे नगर में लिवा ले जाने के लिए आगे आये थे । मैं शहर में होकर निकला और दक्षिण की ओर प्राधा मील की दूरी पर डेरे में ठहरा । ज्यों ज्यों हम आगे बढ़ते जाते थे बाबू को शालीनता भी बढ़ती जाती थी। अब वह यहां से द० १० पू० से द० २५° प० में था; प्रातः ६ बजे तीसरे पहर ३ बजे और शामको ६ बजे थर्मामीटर ८६°, ६८° और ६२° पर तथा बँरॉमीटर २८०७५', २८°७०' व २८°७५ पर था। जून ६ वीं-सिरोही-प्राज सुबह ८ बजे दोपहर में, ३ बजे और शामको ५ बजे बॅरॉमीटर क्रमश: २८°७५', २८°७७', २८°७५' व २८°७०' पर था और थर्मामीटर ८४°, ६५°, ६२° और ६२. बतला रहा था। दोपहर बाद कुछ नई टाटियां प्राप्त हो गई जिनसे किसी अंश में मुझे ठंडक मिल सकी । मैं यहां पर एक दिन इस रियासत के बारे में व्यक्तिगत रूप से जानकारी प्राप्त करने के लिए ठहरा । यह यद्यपि बहुत छोटी रियासतों में है परन्तु प्रसिद्धि में राज. पूताना की अन्य किसी भी रियासत से घट कर नहीं है । मेरे ख्याल से इस रियासत के विशेष अधिकार हैं क्योंकि १८१७-१८ ई० की पूर्ण शांति के बाद से ही इसके सम्पूर्ण राजनैतिक सम्बन्ध मेरे अधीन रहे हैं और मेरे ही प्रयत्नों से इसकी राजनैतिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता की रक्षा इसके शक्तिशाली पड़ोसी मारवाड़ राज्य से हो सकी थी जो बड़े-बड़े बहानों के आधार पर इसे अपने अधीन होने का दावा करता था। उन अधिकारियों का विश्वास प्राप्त कर के जो उस समय मारवाड़ और ब्रिटिश सरकार के बीच मध्यस्थता कर रहे थे, इन दावों की पुष्टि, दलीलों और लेखबद्ध प्रमाणों द्वारा इतनी अच्छी तरह की गई थी कि उन्होंने करीब-करीब गवर्नर-जनरल मार्कुइस हेस्टिग्स की स्वीकृति प्राप्त कर ही ली थी। परन्तु, अन्य कितने ही अवसरों की तरह, इस अवसर पर भी इन प्रदेशों की उलझी हुई अन्तरप्रदेशीय राजनीति के ज्ञान के आधार पर इस मामले की गुत्थियों को सुलझाने में मुझे सफलता मिली और मैं देवड़ों की भूमि को उनके शक्तिशाली विरोधियों के निर्दय कर-संग्राहकों के चंगुल से बचा सका। हां, तो हम अपनी राजनीति पर वापस आते हैं । जोधपुर के वकील राजा अभयसिंह के समय से (सिरोही के रावों से) कर और नौकरी लेने का हक जाहिर करते हैं। मुझे उन्हीं के इतिहास से इसके प्रतिकूल प्रमाण मिले जो बताते हैं कि यद्यपि सिरोही के हिस्सेदारों ने जोधपुर के राजाओं की Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अधीनता में नौकरी दी है परंतु वह मारवाड़ के राजा के पद से नहीं वरन् साम्राज्य के प्रतिनिधि के पद से संबंधित है। और गुजरात के युद्धों में, जहाँ देवड़ों की तलवार लोहा लेने में किसी से पीछे नहीं थी, वे अभयसिंह के सेनापतित्व में लड़े थे । ये थे वे राजनैतिक प्रमाण जिसके लिए वे तैयार नहीं थे, फिर इसके उप-प्रमाण में वे कहते थे कि सिरोही के प्रमुख सरदार नीमाज के ठाकुर ने उनकी वास्तव में नौकरी की थी। यह दलील इस उत्तर से कट जाती थी कि सभी रियासतों में कुछ देश-द्रोही और अवसरवादी लोग होते हैं और यह बात जोधपुर के राजा को भी अच्छी तरह मालूम थी कि अपने सामंतों की रक्षा करने तथा उनको दण्ड देने के लिए सिरोही की शक्ति बिलकुल क्षीण हो चुकी थी इसलिए यह रियासत भी इस नियम का अपवाद न रह सकी। फिर, नीमाज मारवाड़ की सीमा पर होने के कारण उसकी स्थिति शत्रुओं की कृपा पर ही अधिक निर्भर थी; और सब से बढ़ कर बात तो यह थी कि यहाँ का ठाकुर, जिसका पद पहले ही अपनी स्थिति में बहुत ऊँचा था, एक और कदम बढ़ाने पर सब से ऊँचा हो सकता था। अपनी इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए वह सदैव जोधपुर की सहायता की अपेक्षा करता रहता था। जब उन्होंने देखा कि कर वसूल करने के अधिकार उनके लेखों से सिद्ध नहीं हो सकेंगे तो उन्होंने आर्थिक पहलू से कोशिश की और जब कभी समय और अवसर मिला तभी हमले और लूट-खसोट कर के वसूल किए हुए करों की एक अनियमित तालिका पेश की। परन्तु न तो लगातार नियत रूप से प्रतिज्ञाबद्ध अदायगी के लेख और न प्रान्तीय हाकिमों द्वारा स्वार्थवश किए हुए नियम-विरुद्ध हमलों को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए कोई लिखित पत्रादि सामने आए कि जिनसे यह प्रश्न हल होता। अलबत्तः यह सच है कि, उन्होंने एक लेख प्रस्तुत किया जिस पर वर्तमान राव के बड़े भाई के हस्ताक्षर थे और जिसमें उसने किन्हीं शर्तों पर जोधपुर की अधीनता स्वीकार कर ली थी; परन्तु वे होशियारी से उस परिस्थिति को छुपा गए कि जिसमें पड़ कर राव ने यह लिखावट लिखी थी अर्थात् उस समय वह अपने भावी स्वामी की शक्ति के आधीन हिरासत में था और अपने पिता की भस्म गङ्गाजी ले जाते समय बीच ही में पकड़ लिया गया था। इसीलिए देवड़ा सरदारों का इस अनौचित्यपूर्ण ढंग से लिखाए हुए लेख को एक रद्दी कागज के समान समझना बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण एवं न्यायपूर्ण था; और न उन्होंने इस सम्बन्ध में स्वेच्छा से जोधपुर के खजाने में कभी एक रुपया भी जमा कराया था। जब और सब दलीलें असफल हुई तो वे एक और तर्क सामने लाए जिसमें Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ४, भारत के प्रादिवासी [६३ कुछ दम था अर्थात् सिरोही में तो इतनी शक्ति नहीं थी कि वह लुटेरों को वश में रख सके या दण्ड दे सके और उनके हमलों से जोधपुर वालों को नुकसान उठाना पड़ता था इसलिए यह अधिकार व शक्ति जोधपुर को प्राप्त होनी चाहिये। उन्होंने अपनी मांग की पुष्टि में एक ताजा मामले का उदाहरण भी दिया जिसमें ऊटवण और माचल की टुकड़ियों ने मारवाड़ की सीमा में धावे किए और जान व माल का बहुत नुकसान हुआ । इस मामले को बहुत अच्छी तरह से प्रमाणित किया गया और इससे 'व्यवस्था के रक्षकों पर' कुछ प्रभाव भी पड़ा, परन्तु जब 'दूसरे पक्ष की भी बात सुनो' (audi alteram partem) इस तथ्य भरे सूत्र का प्रयोग किया गया तो मालूम हुआ कि इस हमले में जोधपुर के मीणे न केवल शामिल ही थे वरन उत्तेजना भी मारवाड़ ही की तरफ से शुरू हुई थी, फिर सिरोही के वकील ने ठीक अवसर पर यह सवाल किया 'यदि हमारे मीणों के हमलों से, जिनको हम एकदम नहीं रोक सकते, यह कारण उत्पन्न होता है कि जोधपुर को सेना हमारी सरहद में प्रवेश करे और वहाँ पर अपनी चौकियाँ कायम करे (जैसा कि वास्तव में किया भी गया है) तो उनकी रियासत की पहाड़ी जातियों द्वारा पड़ोसियों को जो भारी नुकसान पहुँचाया जाता है उसके बारे में मारवाड़ के राजा के पास ब्रिटिश सरकार को देने के लिए क्या उत्तर है ?' ये सभी प्रमाण यद्यपि बहुत ही चतुराई और बारीकी से प्रस्तुत किए गए थे परन्तु जब सचाई के सामने रक्खे गए तो ठहर न सके और अन्त में मैंने सिरोही की स्वाधीनता को मारवाड़ के भाग्य की पहुंच के बाहर रख दिया जिसके बदले में मुझे जोधपुर के राजा व उसके खुशामदी मुसाहबों और वकीलों की घृणा प्राप्त हुई तथा देवड़ों से शंका भरा आभार, क्योंकि उनकी भूमि में अभी भी विभाजन और असन्तोष के दश्य वर्तमान थे। मारकुइस हेस्टिग्स की इच्छा थी कि सभी आपस के झगड़े शान्त कर दिए जावें इसलिए देवड़ों पर आधिपत्य स्थापित करने के प्रयत्नों में असफल हुए राजा मान के पाहत अभिमान को सान्त्वना देने के लिए उनका झुकाव हुआ था। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने बातचीत के प्रारम्भिक समय में यह सुझाव दिया कि राजा से पिछले दस वर्षों की वसूली का नकशा मांगा जाय और उस की औसत रकम अब से उसको ब्रिटिश सरकार के द्वारा मिलती रहे। उनके अधिकारों की मांग को न्याय की कसौटी में रखने के लिए जब मैंने यह सुझाव अपनी सरकार के सामने रखा था तो मेरा विचार था कि इससे न तो सिरोही पर आर्थिक बोझा बढ़ेगा और न उसकी स्वन्त्रता में कोई बाधा पड़ेगी। इससे पूरा मतलब भी हल हो जाता था। राजा मान क्रमबद्ध वसूली के प्रमाण न दे Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा सके, वे लोग जो अन्य सभी बातों में देवदूतों के समान थे. कभी कभी बहुत लम्बी अवधि के बाद रकम वसूल कर लेते थे परन्तु हमेशा ही टंटे-झगड़े के साथ (au bout du fusil) | ब्रिटिश सरकार को जो इसके अन्तिम फैसले में साझी होने का विरोध कर रही थी कि आगे चल कर इसकी स्ततन्त्रता कहीं फिर न उलझ जाय, कुछ हजार रुपये वार्षिक दे कर सिरोही मारवाड़ के पंजे से हमेशा के लिये निकल गई और अब वह (सब मामलों में) केवल ब्रिटिश सरकार के ही अधीन है। अपनी सामर्थ्य के अनुसार यूवक राव ने भी अपने कर्तव्य का पालन करने में पूरी-पूरी चेष्टा की है। मीणा जाति को रोक दिया गया है; मजबूत चौकियां कायम कर दी गई हैं और व्यापारियों, कारीगरों व किसानों को लूट के विरुद्ध सुरक्षा एवं प्रोत्साहन देने के अभयपत्र (Passport) दिए जाते हैं। शहर, जो पहले बिलकुल उजाड़ हो गया था, अब फिर बसने लग गया है; जो व्यापारी, तीन या चार साल पहले यह समझते थे कि सिरोही में घुसना चोरों की माँद में घुसना है और यह बात अक्षरश: सत्य भी थी, वे अब फिर दुकानें खोलने लगे हैं और यहां के निवासियों व दर्शकों को यह देख कर आश्चर्य होता है कि जो मीणें गली-कूचों में ही अपना मुँह दिखा सकते थे और जो चीते व भालू की तरह घास व झाड़ी से ढंके रास्तों में ही छुप-छुपे चलने के अभ्यस्त थे वे ही अब बाजार में व्यापार की चीजों के व धन के ढेर के ढेर देख कर भी किसी अशक्य एवं अतयं कारणवश उन्हें झपट लेने से रुके रहते हैं । मैं, ऐसा ही एक विस्तृत चित्र 'इतिहास' में भीलवाड़ा के वृत्तान्त में दे चुका हूँ; परन्तु पहाड़ी मीणों और उनके स्वामी देवड़ा राजपूतों के, जिनकी संयुक्त प्रवृत्तियां युगों से पहाड़ी व जंगली चीतों के समान रही हैं, घरों में शांतिस्थापन का यह वैसा ही छोटा-सा चित्र उन लोगों का मनोरंजन किये बिना न रहेगा जो मानवीय प्रवृत्तियों के इतिहास व व्यापार की ऐसी विचित्र घटनाओं पर विचार करने में रस लेते हैं। मैं यहाँ पर अपना यह मत प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जो जातियां सर्वशक्तिमान् परमात्मा द्वारा हमारे संरक्षण में रख दी गई हैं उनके सुधार कार्य में हमको बहुत ही सहनशीलता से काम लेना चाहिए; यदि कभी कोई हुल्लड़ (विद्रोह) हो भी जाय तो यह न भूलना चाहिए कि हम इतने शक्तिशाली हैं कि हमें निर्दयता का व्यवहार करने की आवश्यकता नहीं है और हमारे द्वारा दिए हुए दण्ड भी, सुधार के उद्देश्य को दृष्टि में रख कर ही दिये जाने चाहिएं। दुःख का विषय है कि ब्रिटेन के संरक्षण में जो विभिन्न जातियां आ गई हैं उनको सजा देते समय दया का Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४; बृटिश-नीति [ ६५ व्यवहार बहुत कम किया जाता है और न्याय का डंडा उठ कर जहां भी गिर पड़ता है वहां अवश्य ही वह किसी न किसी को मार गिराता है । हमारे पूर्वदेशीय कानून निर्माता यह भूल जाते हैं कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियां उसके राजनैतिक एवं सामाजिक कर्त्तव्यों पर अपना अधिकार जमा लेती हैं और पूर्ण प्रज्ञाकारिता के पथ से विचलित होने के अपराध के लिए भारी से भारी दण्ड को भी कड़ा एवं गम्भीर नहीं समझते । सम्भवतः यह भावना हमारे शासन का, जिसको तलवार का शासन कहा जाता है, एक अविभाज्य अङ्ग बन गई है और तन्त्र के प्रत्येक अंग में गवर्नर-जनरल से ले कर छोटे से छोटे मध्यस्थ तक में कुछ न कुछ मात्रा में अवश्य पाई जाती है; यद्यपि स्वदेश ( इंग्लैण्ड) की नियन्त्रण करने वाली शक्ति इतनी मात्रा में अनिष्टकारिणी नहीं है परन्तु वह नए-नए मनुष्यों के साथ नए-नए व्यवहारों का प्रयोग करती है । कार्यकारिणी के कार्यों का प्रयोग इतना अनिश्चित और अस्थायी होता है कि उनमें से प्रत्येक अथवा किसी भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन के क्रमिक व्यापारों को समझना व उनका ध्यान रखना असंभव होता है। हर एक सदस्य अपने परिमित कार्यक्षेत्र में और तंत्र के उस भाग के संचालन में, जो उसके भरोसे छोडा गया है, अधिक से अधिक प्रशंसा प्राप्त करने के लिए बेचैन रहता है और जो कोई भी आन्तरिक शक्ति उसके समान रूप से चलने में बाधा उपस्थित करती है उसका तुरन्त उन्मूलन कर दिया जाना श्रावश्यक समझता है । सम्भवतः बुद्धिमत्तापूर्ण उद्देश्यों को ध्यान में रख कर ही ( नीति का ) ऐसा निर्देशन किया गया है, और विजेताओं की योजना में क्रमबद्धता की कमी तथा इसके साथ ही वह सभ्यता, जिसका हम लोग विजितों में धीरे-धीरे प्रसार कर रहे हैं, अंत में उनको मानसिक एवं राजनैतिक दासत्व से मुक्त कराने की ओर ले जायगी। कुछ लोगों ने तो इसी को अपने प्रयत्नों का चरम लक्ष्य स्वीकार किया है, परन्तु जहां ऐसा जनहित का विशाल दृष्टिकोण अपनाया जाता है वहां साधनों का लेखा बहुत ही अयोग्यता के साथ लगाया जाता है । जब हमारे प्रजाजनों पर कर कष्टदायक हैं और चुङ्गियां भारी एवं उनको गरीब बना देने वाली हैं तो हम यह कहने का साहस नहीं कर सकते कि हमारा 'आ' भारी नहीं है । कोई कुछ भी क्यों न कहे, हमारी सरकार द्वारा राजकर एवं अर्थसम्बन्धी जो भी कानून बनाए जाते हैं वे इनकी दशा सुधारने के दृष्टिकोण से नहीं वरन् हमारे खजाने भरने के लिए बनाए जाते हैं । ऐसे लोग बड़े विलक्षण हैं जो समाज के सदस्य होते हुए अपनी व्यक्तिगत स्थिति में शासन से भारत को हो रहे लाभों पर विचार-विमर्श करते समय इन सब बातों को परे रख Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा कर ईमानदारी और सचाई को सुन्दरता को पहचानते हैं। उनके मुंह से यहाँ के लोगों के प्रति बरते हुए दयाभाव और सरलता की प्रशंसा सुनसुन कर कोई भी सहज में ही यह अनुमान कर लेगा कि हमारे द्वारा संरक्षित ये प्रदेश सामाजिक विकास को चरम सीमा पर पहुंच चुके हैं । जब रोम ने, जिसे राष्ट्रों की जननी कहते हैं, यूरोप के सुदूर प्रदेशों को जीत कर बस्तियाँ बसाईं तब वहां पर अपनी कला का प्रसार किया, विजित लोगों को अपनी सरकार का अंग बनाया और वैभवशाली एवं उपयोगी कार्यों के रूप में ऐसे-ऐसे स्मारक छोड़े कि उनमें से बहुत से तो आज भी उसकी शक्ति व शासन का प्रमाण देने के लिए वर्तमान हैं । परन्तु, क्या ब्रिटेन ने ऐसा किया है ? अपने भारतीय प्रजाजनों की गाढी कमाई से लाखों स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त करके उसका कौन सा भाग उनकी भलाई के लिए खर्च किया जाता है ? जैसे पुल, सार्वजनिक सड़कें व मनोरंजन के स्थान ट्राजन (Trajan)' या हानिन (Hadrian)" द्वारा बनवाए गए थे वैसे यहाँ पर कहाँ हैं ? छायादार आम रास्ते, काफ़िलों के लिए ठहरने की सरायें, कूए और तालाब कहाँ हैं, जैसे कि हमारे पूर्ववर्ती असहिष्णु और अत्याचारी मुसलमानों ने हमसे पहले हिन्दुस्तान पर अपने शासनकाल में बनवाए थे ? लन्दन में भारतीय खजाने (India Stock) के मालिक इन प्रश्नों का उत्तर दें। हमारे तलवार के शासन की असलियत का एक और स्पष्ट उदाहरण दे कर मैं अपने इन विचारों को यहीं पर समाप्त करता हूं । यद्यपि हम अपने शासन की दूसरी शताब्दी में बहुत आगे बढ़ चुके हैं परन्तु अभी तक कोई भी ऐसा १ Trajan ट्राजन रोम का बादशाह (६८-११७ ई०) था। इसके समय में रोम साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ । डेसिया, मेसोपोटेमिया, प्रारमेनिया और असीरिया इसी के समय में रोम साम्राज्य के अंग बना लिए गए थे। सर्वाङ्गीण सुशासन के सभी अङ्गों का इसके राज्यकाल में विकास हुआ। नए पुलों, सड़कों, नहरों, और इमारतों का निर्माण हुमा । इसने बहुत से पुस्तकालय भी स्थापित किए थे। -N. S. E., p. 1230. २ Hadrian हाड्रियन ट्राजन का उत्तराधिकारी था। ११७ ई० से १३८ ई. तक सुशासक के रूप में इसने राज्य किया। कृषि-कर बन्द करने एवं अन्यान्य अनेक कल्याणकारी सुधार करने का श्रेय भी इसको प्राप्त है । ब्रिटेन की यात्रा करके इसने सुप्रसिद्ध हाड्रियन वॉल (दीवार) बनाई जो टाइन नदी पर सॉलवे फर्थ (Solway Firth) से इंगलैण्ड के आर पार वॉल्स-एण्ड (wall's end) तक फैली हुई है । १३८ ई० में एक आत्म-विषयक काव्य लिखने के उपरान्त उसकी मृत्यु हो गई। -N. S. E., p. 596. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ ; कानूनी संग्रह - ग्रन्थ का प्रभाव [ ६७ विधान - शास्त्री ( Justinian ) सामने नहीं आया है कि जो 'रेग्यूलेशन्स्' (नियम एवं पद्धति) कहलाने वाली इस विशाल, एकत्रित प्रौढ़ सामग्री को संक्षिप्त कर के सरल रूप में सामने ला सका हो । बात यह है कि हमारे एक या दो गवर्नरों के लिए निश्चित एक झपके का सा कार्यकाल इस काम को पूरा करने के लिए बहुत परिमित होता है अथवा इसको रोकने के लिए 'नीम हकीम खतर- ए जान' वाली क्षुद्र कहावत चरितार्थ हो जाती है । प्रस्तु, हम आशा करते हैं कि हमारे शासन की इस प्रसंगति को दूर करने के लिए किसी भावी राज प्रतिनिधि को सद्भावना से नहीं तो अपने को अमर बनाने की मिथ्या भावना से ही एक कानूनी संहिता (Code) बनाने की प्रेरणा मिलेगी जो जनता की समझ और मार्ग-दर्शन के निमित्त एक बार अपना लेने पर हमारी श्रेष्ठता का तब तक एक उपयुक्त प्रमाण बना रहेगा जब तक हमारे प्रोर शासित वर्ग के बीच अतलान्त महासागर लहरें मारता रहेगा । हमारे शासन के आधीन जो गहन जन-समूह है उस पर सभी परिस्थितियों में लागू हो सके ऐसे समान कानून का सङ्कलन बनाने में कठिनाई उपस्थित होने की बात कह कर इस प्रयत्न के शैथिल्य को सावा जा सकता है; परन्तु राजधानी से सटे हुए विस्तृत प्रान्तों में बिलकुल परीक्षण न करने की दशा में यह दलील ठीक नहीं जँचती, क्योंकि इन प्रान्तों के लिए बनाए हुए नियमों में राज्य विस्तार के साथ-साथ परिवर्तन व परिवर्द्धन किया जा सकता है । हमारे करद एवं प्राधीन राज्यों के विषय में हमारी राजनैतिक सन्धियाँ ही उनके साथ हमारे सम्बन्धों व व्यवहारों का आधार बन सकती हैं, फिर, इनमें भी किसी तरह एकरूपता लाई जा सकती है और इनको व्यक्तियों की इच्छा पर केन्द्रित करने के बजाय एक सामान्य रूप से अनुकूल बनाया जा सकता है । " १ मेरे इन्हीं विचारों से सम्बन्धित प्रश्नों का (जिनको मैंने बहुत वर्षों पूर्व लेखबन्द कर लिया था) मिस्टर मॅकॉले के स्पष्ट एवं अधिकारपूर्ण 'भारत की समस्या' विषयक भाषण में निरूपण किया गया है जो मेरे देखने में उस समय प्राए जब मैंने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि प्रेस में भेजने के लिए तैयार कर ली थी; वे इस प्रकार हैं- 'मेरे विचार से किसी और देश को कानून की इतनी आवश्यकता नहीं है जितनी कि भारत को । यही समय है। जब कि न्यायकर्त्ता (Magistrate ) यह समझ ले कि उसे किस नियम को लागू करना है और प्रजा को यह मालूम हो जाय कि उसे किस कानून के प्राधीन रहना है। मुझे लगता है कि विविध नियमों का एकीकरण करने की दिशा में, किसी भी जाति व धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाए बिना, बहुत कुछ किया जा सकता है। हम उन नियमों का एकीकरण करें या न करें परन्तु उनके बारे में अपना मत तो निश्चित कर लें, उन्हें Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] पश्चिमी भारत की यात्रा ___अब हम देवड़ा रियासत के चित्रण में आगे चलते हैं । यह रियासत हमारे किसी भी मध्यवर्गीय अंग्रेजी सूबे से बड़ी नहीं है और केवल सत्तर मील की लम्बाई व पचास मील की चौड़ाई में इसका विस्तार है। यद्यपि इसके धरातल का अधिकांश भाग पहाड़ी है और समतल भाग रेगिस्तान का किनारा है। जो थोड़ा बहुत रेतीला है, फिर भी पहाड़ी हिस्से में बहुत सी उपजाऊ घाटियाँ हैं और रेतीले समतल भाग में मक्का, गेहूँ और जो बहुतायत से पैदा होते हैं । अरावली और विशाल आबू से निकल कर प्रत्येक दिशा में बहने वाले झरने इसको कई भागों में बाँट कर बहते चले जाते हैं। इसकी सीमा मानचित्र की सहायता से अच्छी तरह समझ में आ सकती है-पूर्व में अरावली की दीवार खड़ी है, उत्तर और पश्चिम में मारवाड़ के पश्चिमी जिले गोडवाड़ और जालोर हैं और पश्चिम में पालनपुर को रियासत है जो अब ब्रिटिश सरकार के संरक्षण में है। बादशाहत के जमाने में जब गुजरात सबसे अधिक धनी सूबों में गिना जाता था तो सिरोही का अपना स्थानीय महत्त्व था क्यों कि समुद्री तट के इलाके से राजधानी व भारत के अन्य बड़े नगरों में जाने वाले व्यापारी काफ़िले यहां पर ठहरा करते थे। इसीलिए पहले के सभी यात्रियों हर्बर्ट, प्रॉलिरियस', डेलावेले (DellaValle)४, बनियर' और समझ तो लें। हम जबरदस्ती कोई नई बात लादना नहीं चाहते; हमारी प्रजा के किसी भी अंश को मान्यतामों को ठेस पहुंचाने की हमारी इच्छा नहीं है । हमारा सरल सिद्धांत यह है-"जहाँ तक सम्भव हो एकरूपता बरती जाय, जहाँ प्रावश्यक हो विभिन्नता का व्यवहार किया जाय-परन्तु निश्चितता का होना सभी प्रवस्थानों में प्रावश्यक है"। १ क्या यह सम्भव नहीं है कि इस प्रदेश का नाम इसकी (भौगोलिक स्थिति के ही प्राधार पर रखा गया हो ? सिर (किनारे या ऊपरी भाग) पर है 'रोही' (जंगल) जिसके, वह सिरोहो। • यॉर्क निवासी सर थामस हर्बर्ट ने १६२६ से १६२६ ई. तक पूर्वीय देशों की यात्रा की, जिसका विवरण "Some years' travels into Asia and Africa" नामक पुस्तक में १६३४ ई० में प्रकाशित हुमा । बाद में भी १६३८, १६६४ और १६७७ ई० में इसके संस्करण प्रकाशित हुए 1 यह पुस्तक पूर्वीय देशों से संबद्ध यात्रा-साहित्य में उच्चकोटि की मानी जाती है।-E. B. vol. xi, pp, 721-22 3 Adam Olearius एडम पॉलीरियस जर्मनी में Duke of Holstein का पुस्तका लयाध्यक्ष था। बाद में उसने सरकारी गणक आदि बड़े पदों पर भी कार्य किया। ड्य क ने मास्को और फारस में अपना प्रतिनिधि रेशम के व्यापार की स्थिति का अध्ययन करने के लिए भेजा था। पॉलीरियस को उस दूत का सचिव नियुक्त किया गया। इस प्रतिनिधिमंडल ने ई० सन् १६३३ से ३६ तक दो यात्राएं कीं। मैन्डेल्स्लो भी इस प्रति Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ४; पूर्व यात्रियों द्वारा वर्णन [ ६६ थीवनॉट' आदि ने इसका जिक्र किया है और साथ ही उनके वृत्तांतों में 'राजपूतों' के बारे में कोई अच्छी राय व्यक्त नहीं की गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके आगमन के समय उन लोगों ने बिना सोचे समझे ही, जो भी रास्ते में आवे, निधिमंडल के साथ था । वह भारत में भी आया था (ई० सन् १६३८-३६)। ऑली. रियस ने मैन्डल्स्लो से ही उसकी भारतयात्रा का विवरण प्राप्त किया था और उसे अपने यात्राविवरण के साथ “Beschreibung der Moskowitischen and Persischen Reise" नाम से प्रकाशित कराया था। उक्त पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद जॉन डेविस ने किया जो लंदन से १६६६ ई० में प्रकाशित हुप्रा । पॉलीरियस ने Holstein होल्स्टीन का इतिहास लिखा था तथा शेख सादी कृत गुलिस्तो का भी जर्मन में अनुवाद किया था।-E. B. Vol. XVII, p. 760. ४ Pietro Della Valle (पीटर डेला वेले) इटालियन यात्री, जो जहांगीर के समय हिन्दुस्तान में घूम रहा था (१६२३-२४ ई.) । इसका पश्चिमी भारत का वर्णन बड़ा उपयोगी है । इसके यात्रा संबंधी विवरणों का प्रकाशन, इसके जीवन-चरित्र के साथ एडवर्ड ने ने दो भागों में "हकलूयात सोसायटी" (Hakluyiat Society) लंदन से सन् १८६२ ई० में प्रकाशित किया था ।--Br. Mu. Cat., p. 480. ५ Francis Bernier फ्रांसिस बनियर, अंग्रेज यात्री, जो (१६५६-१६६८ ई. सन्) में मुगल दरबार में चिकित्सक के पद पर शाही बीमारों का इलाज करता था। इसके भारत संबधी संस्मरण इस प्रकार प्रकाशित हुए:-- I Travels in the Mogul Empire (1656-1668) Tr. from the French ___ by Irving Brock. 2 vols. London, 1826. 2 Bernier's Travels. Constable Oriental Miscellany, Westminister., 1891. दूसरा संस्करण अधिक प्रसिद्ध है। १ जीन डी थीवनॉट का जन्म पैरिस में १६३३ ई० में हुआ था । भूगोल और भौतिक विज्ञान के अध्ययन में उसकी गहरी अभिरुचि थी । सन् १६६५ ई० में वह 'होपवैल', नामक जहाज से अत्यधिक किराया देकर बसरा से सूरत आया। वहां से अहमदाबाद और खम्भात गया। फिर बुरहानपुर, औरंगाबाद और गोलकुण्डा होता हुआ मसलीपट्टम पहुँचा। मार्ग में इलोरा की गुफाओं को भी देखा। उसने इन नगरों के व्यापार और उद्योग के विषय में खूब प्रकाश डाला है और इलोरा की विचित्र गुफाओं का वर्णन करने त्राला तो वह पहला यूरोपियन था। १६६७ ई० में फांस लौटते हुए पर्शिया में मियाना नामक स्थान पर केवल ३४ वर्ष की अवस्था में ही वह विद्वान यात्री दिवंगत हो गया। थीवनॉट की मृत्यु २८ नवम्बर को हुई और १६ नवम्बर तक वह अपना यात्रा-विवरण लिखता रहा । उसके लेखों को व्यवस्थित कर के उसके दो मित्रों ने प्रकाशित कराए जिनके अंग्रेजी, डच और जर्मन भाषाओं में अनुवाद हो कर अनेक संस्करण निकले। थीवनॉट का यात्रा-विवरण भारतीय इतिहास के अध्येताओं के लिए बहुत काम का है। ---Indian Travels of Thevenot and Careri-S.N. Sen, 1949. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पश्चिमी भारत की यात्रा उसे लूट लेने की सभी लुटेरेपन की आदतें अपने मातहत मीणों से अपना ली थीं। इन लोगों को जो उकसाहट मिलती थी उसके बारे में इन यात्रियों को कोई पता नहीं था इसलिए वे अपने वृत्तान्तों में कोई अन्तर या कमी नहीं कर सकते थे। उन्हें यह मालूम नहीं था कि उनके किए का फल विदेशियों को भुगतना पड़ता था और इसीलिए उनमें और भुगल प्रतिनिधियों के छोटे नौकरों में झगड़ा होता रहता था, जिनका उद्देश्य जहाँ भी और जैसे भी मिले पैसा प्राप्त करने भर का था। इन कारणों से तथा बादशाहों की नौकरी करके बड़े बने हुए मारवाड़ के राजाओं द्वारा किए गए लगातार हमलों से यह रियासत अर्द्धसभ्य किन्तु उच्च-स्वाधीनता की अवस्था में पनप सको। इसके स्थानीय महत्त्व की वृद्धि का एक कारण यह भी था कि यहां के राजा पवित्र अाबू के संरक्षक थे जहां के मन्दिरों में भारतवर्ष के सभी भागों से जैन-धर्मावलम्बो श्रद्धालु यात्री पाया करते थे। आश्चर्य की बात है कि विदेशी यात्रियों में से किसी के द्वारा भी इन मन्दिरों तक पहुंचने के लिये किया गया प्रयत्न ज्ञात नहीं होता, यद्यपि यह बात नहीं हो सकती कि उनकी प्रसिद्धि के विषय में उनको कुछ भी मालूम न हुआ हो । दूसरे दिन ठहर कर मैंने राव से भेंट और नज़रों का आदान-प्रदान किया । इस अवसर पर उन्होंने अपने सभी सरदारों को एकत्रित कर लिया था। अपने राजा के सम्मान में पहले कभी देवड़ों का ऐसा शानदार , समारोह होना किसी को याद नहीं था। माणिकराय के वंशज के तोशाखाने में अधिक सामग्री नहीं थी इसलिए मैंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी सरकार की ओर से प्रदान करने योग्य भेंट उनको नज़र की । ऐसा करने में अधिक खर्चा भी नहीं हुआ क्योंकि जवाहरात और पोशाक का सामान तो मुझे मेवाड़ के राणाजी के यहाँ से विदा की भेंट में मिले ही थे, इसके अतिरिक्त बहुमूल्य साखत से सजा हुआ एक हाथी, एक घोड़ा, जवाहिरात से जड़ी हुई धुगधुगीदार मोतियों की माला, एक मूल्यवान सिरपेच और उचित संख्या में ढालें (राजपूतों के थाल) जिनमें दुसाले, पारचे, मलमलें, पगड़ियां, साफ़ और कुछ यूरोप के बने हुए कपड़े, जो उनके लिए अप्राप्य थे, भेंट किए गये। दोपहर में मैं उनसे वापसी मुलाकात करने गया तब वे मेरे डेरे के आधे रास्ते तक अपने दरबार के साथ मुझे लेने आए और महलों तक अपने साथ ले गए। वहाँ पर, शान्ति और व्यवस्था की आवश्यकता, उनको शत्रुओं की दाढ़ से मुक्त कराने और संरक्षण प्रदान करने के बदले में मेरी सरकार की ओर से मुख्य मांग आदि के विषय में लम्बी बातचीत के बाद, नज़रें पेश की गईं । मैंने उनको Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ४, सिरोही के राव से भेंट [१ स्वीकृति-सूचक हाथ से स्पर्श किया और यह कह दिया कि ये सब बाद में ले लिए जायेंगे जब उनकी आर्थिक दशा सुधर कर वे इनको देने की स्थिति में आ जायेंगे, इसलिए वह सब सामान उनके सामान्य-से तोशाखाने में वापस भेज दिया गया। यह तरीका पूर्व के रिवाज से पूरी तरह मेल खाता है; ऐसी परिस्थिति में भेंट का न लेना कभी अपमान-सूचक नहीं माना जाता। राव श्योसिंह सत्ताईस वर्ष का सुपुष्ट युवक था परन्तु कद में कुछ छोटा था; यद्यपि उसके चेहरे से बहुत ज्यादा समझदारी व्यक्त नहीं होती थी परन्तु उसका वर्ण गोरा था और वह देखने में भद्दा नहीं था। उसमें वह वीरता थी जो प्रत्येक चौहान की पैतृक संपत्ति मानी जाती है । परन्तु, शासन संबंधी अनुभव की कुछ कमी थी क्योंकि उसकी अब तक की ज़िन्दगी मीणों, कोलियों और अत्यन्त भयङ्कर पड़ोसी जोधपुर वालों के हमलों तथा अपने प्रमुख सामन्त नीमाज के ठाकुर की छल-कपटपूर्ण चालों का मुकाबला करने में बीती थी। इस नीमाज के सरदार की शत्रुता का नमूना अब तक भी उस महल में मौजूद था, जहाँ वह तूफान की तरह घुस आया था और उसने विशाल दर्पणों तथा दीवानखाने की अन्य सजावट की चीजों की अपने भाले से किचे किर्चे कर डाली थी। एक दूसरे अवसर पर यही निर्लज्ज विद्रोही जोधपुर की सहायता से अपने स्वामी के विरुद्ध सेना चढ़ा लाया, जब कि वह तो राव को अपदस्थ कराना चाहता था और राठौड़ उन दोनों ही को आधीन करने की ताक में था । यदि पहले ही से सब काम योजनाबद्ध होते तो सम्पूर्ण नगर पर अधिकार हो जाता, परन्तु सौभाग्य से १८०७ ई० की सन्धि ने (उनको) योजना का त्याग करने को बाध्य कर दिया था। सिरोही विस्तृत है; मकान अच्छे और ईंटो के बने हुए हैं परन्तु इनमें से अब भी प्राधे खाली पड़े हुए हैं ; पानी बीस से तीस हाथ तक नीचा है। महल या राज-प्रासाद एक हल्की सी ऊँचाई (पहाड़ी) की ढाल पर बना हुआ है, परन्तु इसमें स्थापत्य-कला के सौन्दर्य-सम्बन्धी कोई ऐसी बात नहीं है जिस पर गर्व किया जा सके । आबू देवड़ों का प्राकृतिक किला है, परन्तु राव मान की मृत्यु के बाद, जिसको यहाँ पर विष दिया गया था, इस स्थान के निवास को चित्तौड़ की तरह तलाक दे दी गई है। ___ सिरोही उन बहुत से उदाहरणों में से है, जो यह प्रमाणित करते हैं कि राजपूताने में, कर्तव्य पूरा करने या न करने की दशा में भी बना रहने वाला राजाओं का 'देवी अधिकार,' मनु की आज्ञा होने पर भी और स्थानों की अपेक्षा, अधिक अमान्य है। उनके वंश एवं आधीनता के अधिकार से सम्बन्धित शक्ति, जो उनके नियम एवं परम्परा को धारण करने तक अक्षण्ण रहती है, इनमें से Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा एक का भी दुष्टतापूर्ण भंग करने पर, कई बार उलट दी जाती है । देवड़ों के वर्तमान शासक राव के बड़े भाई को सरदारों और प्रमुख नागरिकों की एक सभा द्वारा बाकायदा गद्दी से उतार दिया गया, क्योंकि वह उन पर बहुत ही कुत्सित अत्याचार करने लगा था, जो उनकी स्त्रियों की पवित्रता को लाञ्छित करने की सीमा तक भी पहुंच चुका था। यही नहीं, जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है, जब उसे उड़ा कर जोधपुर ले जाया गया तब देवड़ों की स्वतन्त्रता के अपहरण पर हस्ताक्षर कर देने का अपराध भी उसको कभी क्षमा नहीं किया गया। राज्य के लिए अयोग्य घोषित होने पर उसे हमेशा के लिए कैद कर दिया गया और वर्तमान शासक श्योसिंह को उसकी एवज़ गद्दी पर बैठा दिया गया। इस युवक की नैतिकता एवं दया-भावना का इससे बढ़ कर और क्या उदाहरण हो सकता है कि वह अपने बन्दी भाई पर पूर्ण अनुग्रह रखता है और प्रतिक्रिया को रोकने के लिए एशिया में प्रचलित उस तरीके को बरतने की कायरतापूर्ण सलाह से घृणा करता है, जिसमें राज्यच्युति का परिणाम मृत्यु होता है। सिरोही की लागानी आय शान्ति की दशा में, तीन से चार लाख रुपया वार्षिक तक पहुंच जाती है और करीब करीब इससे आधी आमदनी जागीरदारों से सेना-कर की हो जाती है। इनमें पाँच बड़े जागीरदार ये हैं, नीमाज, जावाला पारिया, कालिन्द्री और बोप्राड़िया; ये सभी राजधानी से १४ से २० मील की दूरी के अन्दर अन्दर हैं। उत्पत्ति के लिहाज से सिरोही आबू के संगमर्मर व तलवारों पर गर्व कर सकती है, जो राजपूतों में उसी तरह प्रसिद्ध हैं जैसे फारसियों (Persians) और तुर्कों में दमिश्क (Damascus) की तलवारें। सुन्दर काठियावाड़ी घोड़े पर सवार, हाथ में भाला और बग़ल में सिरोही (तलवार) -बस यही निर्भीक देवड़ा की छवि है। मेरा विचार था कि यहाँ देवड़ों की वंशावली प्रारम्भ से दूं, परंतु यह सोचकर कि मैं इस जटिल विषय को सुलझाने में कितना भी परिश्रम करू, इससे अंग्रेज पाठकों की रुचि में कोई जागृति नहीं आएगी, इसे छोडे दे रहा हूँ। फिर, हारूं' हारू-अल-रशीद बगदाद का प्रसिद्ध पांचवां खलीफा (७८६-८०६ ई.) था। यह मोहम्मद साहब की अब्बासी शाखा से सम्बद्ध था। अब्बासियों ने ७५० ई. के लगभग पूर्व-शाखा के उम्मियादों को अपदस्थ कर के अधिकार ग्रहण किया और तभी अरब की राजधानी दमिश्क से ईराक में बगदाद को स्थानान्तरित हो गई । अब्बासी साम्राज्य हारू के समय में उन्नति के शिखर पर था। उसके दरबार में चीन और रोम के बादशाह शॉर्ल मॅन के दरबार में से राजदूत पाया करते थे। वह वेश बदल कर अपनी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ४; देधड़ों का पूर्व इतिहास और शार्ल मॅन (Charlemagne)' के समकालीन अजमेर के राजा माणिकराय के समसामयिक उनके पूर्वजों के विषय में जो कुछ ज्ञातव्य बातें हैं, वे सब तो मैं 'इतिहास' में विस्तारपूर्वक दे चुका हूँ; और इससे पहले की तो वही काल्पनिक सामग्री प्राप्त होती है जो प्रत्येक इतिहास के मूलस्रोत का गला घोंट देती है, चाहे वह ग्रीक, रोमन, फारसी अथवा राजपूती कोई भी हो। पौराणिक पष्ठों से जो प्रस्तावना मिलती है और जिसका भाट लोग समर्थन करते हैं वह इस प्रकार है: "देवड़ों की वंशावली सतयुग से प्रारम्भ होती है जब मनुष्य की प्रायु एक लाख वर्ष की और लम्बाई (क़द) बीस हाथ की होती थी तथा जब हंसों को वाणी का वरदान मिला हुआ था।" इसके बाद के युगों का भी कोई ऐसा वर्णन नहीं मिलता जिसको ऐतिहासिक कहा जा सके । युद्ध, घरेलू झगड़े, वीर-कार्य, निर्दयतापूर्ण व्यवहार, और गुप्त हत्याएं-ये सब किसी रोमाञ्चकारी कथा के लेखक का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं, परन्तु किसी विचारक के मस्तिष्क के लिए उन 'अटपटे और अशुद्ध नामों' से, जो मेरे कुछ कथा-नायकों के लिए प्रयुक्त होंगे, वे पाठक ऊब जायंगे, जो केवल मनोरञ्जन के लिए पढ़ते हैं । अस्तु - ऐसे ही स्रोतों से प्राप्त पराक्रमपूर्ण उदाहरणों को भाटों ने कुछ अन्योक्तिपूर्ण परिचित उपाख्यानों में मिला कर उनके वंशजों के अनुकरण एवं आमोद के लिए इतिहास का रूप दे दिया है, जिनमें से कुछ ने तो प्रसिद्ध लोक-कथाओं के आधार का रूप ले लिया है । मेरे पास लगभग ऐसी चार सौ कथाओं का संग्रह है ; यदि इनका [अंग्रेजी में अनुवाद हो जाय तो संभवतः वे राजपूत संस्कृति का सबसे अच्छा चित्र उपस्थित कर सकेंगे। का प्रजा की दशा जानने के लिए रात को घूमा करता था। सुप्रसिद्ध Arabian Nights (सहस्ररजनो-चरित्र) में हारू और बगदाद की प्रभूत समृद्धि की विचित्र कथाएँ संकलित हैं।-E.B. Vol. XI, pp. 487-88 • शार्लमेन (Charlemagne)-रोम का बादशाह-किश राजा पेपिन का पुत्र ; जन्म ७४२ ई० के लगभग ; बड़े भाई कार्लोमॅन की मृत्यु पर ७७१ ई० में सम्पूर्ण फ्रेंक राज्य का स्वामी हुमा । सैक्सनों और सँरासनों के विरुद्ध युद्ध किया और ८०० ई. मैं रोम का बादशाह हुआ। यह विद्वन्-मण्डली में रहने का शौकीन था। इसने बहुत से विद्यालय भी स्थापित किए थे, संगीत और वेदान्त का भी प्रेमी था। बहुत से गिर्जाघर और महल बनवाए। उसके सचिव और मित्र आइनहार्ड (Einhard) ने उसका जीवन चरित्र लिखा है।-N.S.E., p. 262 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ मेरिया (Maireoh); जैन-मन्दिर; पालड़ी; पाबू के किनारे चढ़ाई की तैयारियों; गणेश का मन्दिर; राहतो (Rahtis) या पहाड़ो लोग; पहाड़ के निचले हिस्से की भौगर्भिक बनावट; सन्त को चोटी [सन्त-शिखर] पर चढ़ाई; चोटी पर से विहंगावलोकन ; दाता ब्रिग (भृगु ?) और रामानन्द को पादुका या चरण-चिह्नः बनवासिनी सीता; गुहा-गृह; विशाल दृश्य; चोटी पर से उतराई; अचलेश्वर; पाशविक अघोरी; एक (अघोरी) द्वारा समाधिग्रहण; हिन्दू विश्वासों में प्रसंगति; जैन स्थापत्य के नियम; अग्निकुण्ड; मन्दिर; अचलेश्वरप्रासाद वर्णन; अहमदाबाद के मोहमद बेयरा [महमूव बेगड़ा] द्वारा देवस्थानों को लूट; नारायण की मूर्ति; शिलालेख; राव मान की छतरी; प्राधियाल की मूर्ति; अचलगढ़ के खण्डहर; जन-मन्दिर; घण्टाघर से वृश्यावलोकन; मूर्तियाँ; राव से भेंट; वेलवाड़ा की यात्रा। जून १० वीं-मेरिया (Maireoh)-साढ़े ग्यारह मील; फिर दस मोल से कुछ अधिक सीधे फासले पर श्रेणी को पार कर के चलना पड़ा। पहले पांच मील का रास्ता एक सुन्दर घाटी में हो कर गया है जहां पर बहुत लम्बे समय से हल नहीं चला है और अब वहाँ जंगल ही जंगल खड़ा है। पहला मील खतम होतेहोते हमने पालड़ी ग्राम के पास एक छोटे नामरहित नाले को पार किया और चौथे मील पर एक झाँप [प्रपात ] को पार करना पड़ा, जो आबू की चोटी से गिर कर कालिन्द्री के सरदार के निवास-स्थान में हो कर सूकड़ी तक बहता हुआ उसी के साथ लूनी में जा मिलता है। पांचवें मील पर हम घाटी में दाहिने हाथ की श्रेणी की ओर मुड़े, जिसके दक्षिणी छोर पर सिंदुढ़ (Sindurh) नाम का गाँव है । यहाँ से आबू की पूर्वी ढाल द० ३५० पू० और दो प्रसिद्ध गाँव दाँता (Dantah) तथा नेटोरा (Nettorab) द० पू० और पू० में थे जो एक दूसरे से पाँच मील के फासले पर हैं । यहाँ तक हमारे रास्ते की दिशा द० ५०° प० थी; अगले तीन मील तक द० १५° ५० की ओर रुख बदलनी पड़ी जहाँ पर हमने सिरोही श्रेणी को हमीरपुर गांव के पास पार को जिसके नीचे एक चट्टान अलग ही खड़ी थी; इसके एक किनारे पर एक खम्भे की सी शकल का बहत ऊँचा ढेर भी था जो छतरी या मीनार जैसा दिखाई पड़ता था। यह 'पहाड़' कहलाता है और यहाँ से हमारे डेरे [ठहरने का स्थान, मेरिया तीन मील की दूरी पर था। पहाड़ियों के गुच्छे के बीच में बसा हुआ यह गाँव पुराना मालूम होता है। इसमें पांच से कम जैन मन्दिर नहीं हैं । यह तीन भागों में बंटा हुआ है, एक खालसा (जिसका लगान राज्य में वसूल होता है), दूसरा किसी देवड़ा आगीरदार का है और Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५; मेरिया [ ७५ तीसरा एक चारण को मिला हुआ है । आबू का विशाल भाग अब द० ७०० पू० से द० १५° प० को था । ८ बजे प्रातः बॅरॉमीटर २८७१' थर्मामीटर ८६° दोपहर २८ ७१' ୧୪° १३ बजे शाम २८ ६५' ६८ जून ११ वीं - पालड़ी - सात मील छः फर्लाङ्ग; पहले चार ( मील) ५० ५५° प० दिशा में जा कर हम सुबेरा ( Sunwaira) ग्राम में पहुँचे जहाँ से आबू का सब से ऊँचा भाग द० ८५० पू० से द० में है और उसकी सब से ऊँची चोटी गुरुशिखर द०पू० में है । दो मील और चल कर नीचे वाली श्रेणी के तले सीसेरिया ( Seeroria ) गाँव पहुँचे जहाँ पर हमने दूसरा भरना पार किया । वहाँ से ठीक दक्षिण में दो मील चल कर हम अपने ठहरने के स्थान पालड़ी पहुँचे, जिसके उत्तर में उसी नाम की एक छोटी सी नदी बहती है जो पहले वाली नदी के समान ही प्राबू की दरारों से निकलती है, जिसकी सीमाएं उ० ७०० पू० और द० ५° के बीच में हैं । गुरुशिखर यहाँ से द० ७०° पू० में दो कोस या पाँच मील की दूरी पर होगा । प्रातः ८ बजे, दोपहर में एक बजे व तीन बजे और शाम को ६ बजे बॅरॉमीटर क्रमश: २८°७५, २८°७०, २८°६५ र २८०६५' पर था और थर्मामीटर ८६, ९६९, ६८° और ६२° पर । मेरा दूसरा बॅरॉमीटर, जिस पर मेरा विश्वास कम था, शाम को ६ बजे २८०४३' बतला रहा था और इस प्रकार उससे २२' का अन्तर व्यक्त होता था; परन्तु बाद के निरीक्षण से ज्ञात हुआ कि मैंने जिस बॅरॉमीटर पर विश्वास कर रखा था वही बिल्कुल विश्व - सनीय था । ६ बजे शाम २८° ६२' ९४० अन्त में, हम विशाल आबू के किनारे आ ही पहुँचे और उसी के अंचल में जा कर डेरा डाला । ऐसी स्थिति में चौबीस घण्टे तक ठहरे रहना और उन चट्टानों के विषय में सोच-विचार करते रहना, जिन पर हमें चढ़ना था, सचमुच हमारे धैर्य का परीक्षा - काल था । सारा दिन हिन्दू - ऑलिम्पस [ देव- पर्वत ] पर चढ़ाई की तैयारियों में बीता । वास्तव में यह एक ऐसा प्रयास था जिसमें बुद्धि ( Boodh) की सहायता प्राप्त किए बिना कदम नहीं बढ़ाया जा सकता था । राव ने चालीस मजबूत पहाड़ी सेवक मुझे और मेरे साथियों को चोटी तक उठा ले जाने के लिए भेज दिए थे। उनके पास दो सवारियाँ थीं, जो 'इन्द्रवाहन' कहलाती थीं। इसमें दो लम्बे बाँस थे और इनके बीच में एक फुट लम्बी व चौड़ी बैठक लगी हुई थी और इसी वाहन की सहायता से कोई निरुद्योगी Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अथवा कमज़ोर यात्री 'बोध पहाड़' (Mount of Wisdom) पर पहुँच सकता था। पूर्ण स्वस्थ न होने की दशा में ऐसी सहायता प्राप्त करके मैं दुखी नहीं हुआ, दूसरा वाहन मेरे गुरु के काम आ गया, जो मेरे साथ यात्रा में अपने धर्म के सभी मन्दिरों के दर्शन करने के लिए कृत-संकल्प थे। इस प्रकार हमारा दिन अर्बुद के बालकों से वार्तालाप करते हुए अथवा अपने महान् लक्ष्य की ओर देखते हुए बीत गया और अन्त में रात्रि की छाया ने इसके चारों ओर रहस्यपूर्ण अन्धकार फैला दिया। गीदड़ों की गुर्राहट और लोमड़ियों की तेज़ आवाज़ यह सूचित कर रही थी कि जंगल के किसी निराश्रय निवासी के शिकार करने का समय आ पहँचा था; इसी संगीत के साथ प्रायः इसको निरन्तरता पर ध्यान न देते हुए मैं भी अपनी चटाई पर जा लेटा कि जिससे कल के लिए ताज़गी की तैयारी हो जाय। जून १२वीं-"मैंने क्रेमलिन' (Kremlin) में जो कुछ देखा है और अलहम्बा' (Alhambra) के विषय में जो कुछ सुना है उस सबसे बढ़ कर दो महल हैं-एक अमीर आम्बेर का और दूसरा जयपुर का, तीसरा जोधपुर है जो इनमें से किसी एक के समान हो सकता है; परन्तु, पश्चिमी रेगिस्तान के किनारे आबू के जैन मन्दिर हैं जिनके लिए कहा जाता है कि वे इन सभी से बहुत ऊँचे दर्जे के हैं।" यह विवरणी बिशप हंबर की है, जिसे बृटिश जनता को पहले-पहल ' रूसी भाषा में Kremlin का अर्थ 'राज-दुर्ग' होता है। सबसे प्रसिद्ध दुर्ग क्रेमलिन मास्को में है। यह एक पहाड़ी पर मॉस्क्वा नदी के अभिमुख स्थित है और एक ऊँची दीवार से घिरा हुआ १०० एकड़ में फैला हुआ है ।-N.S.E., p. 753. । स्पेन का राजमहल । एक पहाड़ी पर ग्रानाड़ा नदी के अभिमुख स्थित है। इसके कक्षों में मूर्तिकला, कोरणी और स्तम्भों के उत्कृष्ट नमूने हैं । -N.S.E., p. 35. ३ आमेर के प्राचीन महलों को महाराजा पृथ्वीराज (१५०३-१५२७ ई०) ने बनवाया था। बिशप हॅबर ने जो आमेर के राजमहल देखे थे उनको महाराजा सवाई जयसिंह (१६६६-१७४३ ई०) ने पूर्णता प्रदान की थी। जयपुर के राज-प्रासाद भी महाराजा सवाई जयसिंह के बनवाए हुए हैं । जोधपुर का राजदुर्ग भूतपूर्व जोधपुर राज्य के संस्थापक राव जोधा ने सन् १४५६ में बनवाया । उत्तरवर्ती राजाओं ने भी इसमें समय समय पर परिवर्तन आदि करवाए । ४ रेनाल्ड हेंबर (Reginald Heber) का जन्म Chesire में Malpass (मॉलपास) नामक स्थान पर १७८३ ई० में हुआ था। उसने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त की। वह बहुत विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि था। 'पैलेस्टाइन' शीर्षक कविता पर उसे ऑक्सफॉर्ड यूनिवर्सिटी में सर्वप्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था और Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५, गणेश-मन्दिर [७७ भारतीय विषयों का प्रास्वादन कराने का श्रेय प्राप्त है। आइए, उसके कथन की जाँच करने के लिए हम भी आगे चलें। सूबह चार बजे से ही मेरे डेरे में चहल-पहल शुरू हो गई। आध घण्टे में तैयार हो कर में घोड़े पर सवार हो गया; मेरे गुरु और बॅरामीटर अगल-बगल में थे तथा हमारा पहाड़ी संघ पीछे-पीछे चल रहा था जिसके पास स्वर्गीय [इन्द्र ] वाहन और पार्थिव सफ़री टोकरे थे, जिनमें ऐसे खाद्य पदार्थ थे कि जो किसी ब्राह्मण अथवा जैन को बुरे न लगें। मेरे सिपाहियों में कुछ हिन्दू, ब्राह्मण और राजपूत भी थे, जो कुछ मेरी सुरक्षा के लिए और मुख्यतः इसलिए साथ आए थे कि वे 'बुद्धि' (Wisdom) की पूजा उसके पवित्र मन्दिर में ही कर सकें। हम पूरे एक घण्टे तक उस जंगल की भूल-भुलैया में चक्कर काटते रहे जो इस पहाड़ को चारों ओर से घेरे हुए है। अंत में, जहाँ से चढ़ाई शुरू होती है उस स्थान पर आकर मैंने बॅरॉमीटर तिपाई पर लटकाए और देखा कि वह २८०.५५' बतला रहे थे अर्थात् सपाट स्थान पर के अल्पतम ऊँचाव से दस सैकिण्ड कम थे। सुबह के ठीक छ: बजे हमने चढ़ाई की ओर पहला कदम उठाया और सात बज कर बीस मिनट पर चढ़ाई के देवता गणेश के मन्दिर पर पहुँच गए जो गणेशघाट कहलाता है; ठहरने के इस स्थान तक पहुँचने में हम लोगों को बहुत मेहनत पड़ी। यहाँ पर कुछ दम लेने व अपने प्रयत्न के बारे में आगे सोचविचार करने के लिए हम पाव घण्टा ठहरे। राहतियों (आबू के जंगली-निवासियों का यही नाम है। और मेरे सिपाहियों ने मन्दिर के पास ही छोटे-से गणेश-कुण्ड या बुद्धि के झरने के पानी से अपने कण्ठ गीले किए, यद्यपि इसका पानी एस्फाल्टाइटीज़' (Asphaltites) के पानी की तरह गंधक मिश्रित और यही उसकी सर्वोत्तम रचना मानी जाती है। १८२३ ई० में वह कलकत्ता का बिशप होकर भारत आया। अपनी सहज जिज्ञासु-वृत्ति और धार्मिक भावना से प्रेरित होकर उसने भारत के विभिन्न भागों की यात्रा की, गिर्जाघरों में सुधार किये और स्कूल खोले । अत्यधिक परिश्रम के कारण उसका स्वास्थ्य गिर गया और अन्त में १८२६ ई० के जनवरी मास में त्रिचनापल्ली में उसका देहान्त हो गया । 'Narrative of a Journey through...India' नामक पुस्तक का सम्पादन उसकी विधवा पत्नी एमीला ने किया जो John Murray द्वारा १८२८ ई० में प्रकाशित की गई। -E. B., Vol. XI, p. 594. १ स्विट्ज़रलैण्ड का एक झरना जिसका पानी खारी, गंधक-मिश्रित और चूना मिला हुमा सा होता है। Asphalt [बालू-बजरी] मिली होने के कारण ही इसे Asphaltites कहते हैं। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा खारी था। इन मजबूत पहाड़ी लोगों को एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर और कई गज गहरे गड्ढों को लांघ कर लपक के साथ चलते हुए देखने में बड़ा आनन्द प्राता था; ये उस 'इन्द्र-वाहन' को ठीक साधे रहते थे जो प्रत्येक ऊँचेनीचे कदम के साथ लचक जाता था; परन्तु मेरा बुड्ढा गुरु इन साबित कदम प्राणियों की उछल-कूद के बारे में बराबर जोर-जोर से शिकायत करता रहा क्योंकि वे उसकी आधी उखड़ी हुई हड्डियों पर दया करने की प्रार्थना पर ध्यान नहीं देते थे और ऊपर से हंसी करते हुए कहते थे कि 'यह तो स्वर्ग के मार्ग के समान है, जो सरल नहीं होता।' ये राहती अपने को राजपूत बतलाते हैं और जो मेरे साथ थे उनमें से अधिकांश परमार व बाकी के चौहान व परिहार जाति के थे, परन्तु इनमें सोलकी एक भी नहीं था अन्यथा हमारे पास अग्निकुल की चारों शाखाओं के प्रतिनिधि हो जाते, जो पौराणिक आधार पर अपनी उत्पत्ति प्राबू के अग्निकुण्ड से उस समय हुई बतलाते हैं जब दैत्यों अथवा प्रादिमानवों (Titans)' ने शिव-पूजकों को इस देवगिरि (Olympus) से निकाल बाहर करने के लिए शिव के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था। ये लोग प्रतिष्ठित राजपूतों की अपेक्षा वनपुत्रों से अधिक मेल खाते हैं; सम्भवतः इसका कारण कोहरे, धुन्ध आदि में रहना, क्षुद्र आय और वर्षा में हानिकर पानी पीना आदि हो सकता है। परन्तु, जहाँ तक सम्भव है, ये लोग भी, अन्य बहुत-सी जंगली जातियों की तरह, मिश्रित रक्त के ही हैं, जो अपने को शुद्ध शूद्र-वंश का मानने की अपेक्षा अपनी उत्पत्ति राजपूतों से हुई बतला कर दूषित सिद्ध करना ही अधिक पसन्द करते हैं। इस चढ़ाई में बाँसों के झुण्ड और काँटेदार थूहर के पेड़ ही अधिक हैं, कोई ऊँचा पेड़ तो देखने को भी न मिला; थूहर तो अरावली की एक विशेषता ही है। एक झरने की प्रबल धारा ने पहाड़ के अंतर को काट कर अपना रास्ता बना लिया था; इससे यह बात प्रकट होती है कि इस पर्वत की बनावट में गुलाबी पत्थर, बिल्लौर और भोडल आदि भी खूब हैं; इसके पेटे में भोडल और बिल्लौर का अनुपात भिन्न-भिन्न स्थानों में विभिन्नता लिए हुए था; कहीं-कहीं दोनों की मात्रा बराबर थी तो कहीं पर बिल्लौर की अधिकता थी और उनमें कहीं-कहीं गुलाबी रंग के एक-एक इंच लम्बे भोंडे खुरदरे पत्थर के टुकड़े भी मिले हुए थे। कहीं-कहीं पर भारी, घने और नीले स्लेटों के पत्थर थे जो नीली नसों (नाड़ियों) जैसे मालूम पड़ते थे; • १ ग्रीक पौराणिक गाथाओं में 'टीटन' (आदि-मानव) कला एवं जादू के आविष्कारक माने गए हैं।--Larousse Enc. of Mythology-Robert Graves; p. 92 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ५; तेज गर्मी की मात्रा के विभिन्न प्रभाव [७६ और उस समय तेज गर्मी के कारण सूखे पड़े कचलानाळ (Kuchala Nal) में स्लेटी पत्थरों के टुकड़े झरने के पेटे में जड़े हुए-से लगते थे । जहाँ-जहाँ पर हम ठहरते वहीं 'ज्ञान के चन्द्रमा' [ज्ञानचन्द्र ], यही मेरे गुरु का नाम था, और मुझ में इस मार्ग-विहीन चढ़ाई की चट्टानों में विराजे हुए गणेश के विषय में कई तरह की हास-परिहास की बातें होती रहीं। मेरे ध्यान से, इस देवता की स्थिति चढ़ाई के प्रारम्भ में ही अधिक ठीक रहती, जहाँ इस प्रयत्न के लिए प्रेरणा सुलभ होती; परन्तु, यहाँ पहुँचने के बाद चढ़ाई के कठिनतर भाग को पूरा कर लेने पर तो भक्त शायद पाशापूर्णा देवी की ही प्रार्थना करेगा कि उसे आगे की चढ़ाई आनन्दप्रद हो। यह कल्पना हिन्दुओं के उस पुराण-पन्थ पर आधारित है जिसमें प्रत्येक दैवी गुण के लिए एक-एक देवता की सृष्टि हुई है और उनके लिए पृथक्-पृथक् मन्दिर, सूक्त, पुजारी और भेंट का विधान है। इस प्रकार इन लोगों ने देश को एक विशाल देव-मन्दिर का रूप दे दिया है और उसी के साथ पूजारियों की एक जाति भी बन गई है जो भक्तों की थैलियां खाली कराते हुए उनके मानस में वश्यता उत्पन्न करते रहते हैं। गणेश की उत्पत्ति, भगवान् के द्वार-देवता के रूप में कर्तव्य और उनके नाम गण-ईश की व्युत्पत्ति (लघु देवों के ईश, पारसी पुराण के Jins अथवा Genii) आदि के विषय में मैं 'इतिहास' में विवेचन कर चूका हैं । बुद्धि के प्रतीक इस देवता के लिए हाथी का मस्तक चुना गया है, इस बात की व्याख्या करने की तो आवश्यकता नहीं है परन्तु इसके साथी [वाहन] के रूप में चहे को ग्रहण करने की बात समझ में नहीं पाती जब तक कि यह किसी विपरीतता का द्योतक न हो । ग्रीक लोगों ने सरस्वती (Minerva) को उल्लू का साथ दिया है जो सब प्रकार से बुद्धि को धारण किए रहता है; परन्तु चूहे की समझदारी राजनीतिज्ञ के अतिरिक्त और किसी को ज्ञात नहीं है। ___ अपने थके हुए अंगों को फिर से ताज़ा कर के हम आगे बढ़े और बीच-बीच में ठहरते हुए ठीक १० बजे पठार के सब से नीचे वाले स्थल पर पहुँचे। मेरे बॅरॉमीटर में आज सुबह से ही वृद्धि के लक्षण दिखाई पड़ रहे थे और विशेषतः उसमें, जिस पर मैंने अपना पूर्ण विश्वास जमा रक्खा था; गणेश-मन्दिर पर यह २७°६५' बतला रहा था अर्थात् मरु के मैदानों से केवल एक अंश अथवा ६०० फीट ऊँचे, परन्तु मुझे अपनी आँखों से यह दिखाई दे रहा था कि हम अरावली के पठार से भी ऊँचे पा चुके थे। पहाड़ की चोटी पर पहुँचने के बाद यह और भी स्पष्ट हो गया जब कि दो घण्टों की चढ़ाई के बाद भी पारा केवल ३०' ही का अन्तर बतला रहा था अर्थात् बॅरॉमीटर २७°३५' पर था। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] पश्चिमी भारत की यात्रा थर्मामीटर ७७° पर था अर्थात् उसी समय के मैदान के तापमान से पूरे १५० कम था और इस प्रकार चढ़ाई का ठीक-ठीक सूचन कर रहा था। दो वर्ष पहले अरावली से मारवाड़ में उतरते समय मुझे पारा धोखा दे गया था और उस समय इस श्रेणो को घेरे हुए भू-भागों की तुलनात्मक ऊँचाई के बारे में मेरा सन्देह ज्यों का त्यों बना रह गया था, परन्तु बाद में मैंने यह सिद्ध कर दिया कि मारवाड़ के मैदान मेवाड़ के मैदानों से पूरे पाँच सौ फीट ऊँचे हैं । इसीलिए इस अवसर पर मैंने दोनों नलियों को फिर से भरने की सावधानी बरती; पहले इसको साफ कर लिया था और चाल में अन्तर न आने पावे इसलिए पारे को चढ़ाई के ठीक स्थान पर ला कर इसकी सचाई की जाँच कर ली थी। परन्तु, अब हम 'सन्त शिखर' (Saint's Pinnacle) की ओर आगे बढ़े जो सभी नीची चोटियों से ऊपर उठ कर अर्बुद के मस्तक पर मुकुट के समान जगमगा रहा है। रास्ता एक छोटे से जंगल में हो कर था, जो करौंदे, काँटी और एक प्रकार की ऐसी झाड़ियों से भरा हुआ था जिन पर फल और फूल साथ-साथ बहुतायत से लदे हुए थे। करौंदे, जो हिन्दुस्तान में बोए जाते हैं, बहुत ज्यादा और बड़ेबड़े थे और इस समय पके-पके दिखाई देते थे। हम इन स्वादिष्ट फलों के आहार का आनन्द लेने के लिए जगह-जगह ठहर जाते थे और परिश्रम के कारण उत्पन्न हुई थकान व प्यास में इनका मज़ा दुगुना हो जाता था। काँटी का सुन्दर छोटा फल भी मज़ेदार था परन्तु यह मेरे लिये नया था और इसमें करौंदे जैसी ताजगी लाने वाली खटाई की कमी थी। आधे रास्ते पर हम उरिया (oraeh) में हो कर निकले जो पाबू की चढ़ाई की शोभा बढ़ाने वाली बारह ढाणियों में से एक है-आबू, जिसकी विचित्रताएं प्रतिक्षण बढ़ती जा रहीं थी और जिसकी विविध आकृति वाली चोटियों के बीच-बीच में घनी पत्रावली की गुम्बदें खड़ी हुई थीं। सुनहरी चम्पा 'गहरी, सुगन्धभरी, सुनहरी' , सर विलियम जोन्स कृत 'कामदेव का गीत'। इन्होंने अपनी भारतीय वनस्पति (Indian Botany) नामक पुस्तक में लिखा है कि सुनहरी रंग की चम्पा या चम्पक की तेज गन्ध भौंरे के लिए हानिकर समझी जाती है और वह इसके फूलों पर कभी नहीं बैठता। भारतीय रमरिणयों के सुन्दर काले केशपाशों में चम्पा के सुन्दर फूलों की शोभा का वर्णन रम्फ़ि प्रस (Rumphius) ने किया है और इन दोनों ही विषयों ने संस्कृत-कवियों की सुन्दर कल्पनाओं को प्रेरणा दी है। भषण ने भी शिवाजी को औरङ्गजेब के लिए भय का कारण बताते हुए कहा है : “अलि नवरङ्गजेब चम्पा शिवराज है।" Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५ ; रामानन्द की पादुकाएं [८१ और बहुत सी दूसरी अनोखी वनस्पतियों से भी मार्ग सजा हुआ था; परन्तु पर्वत के अन्य भागों में इनकी बहुतायत होने के कारण आबू की उपज का सामान्य वर्णन करते हुए इन पर अन्यत्र विचार किया जायगा। जब हम अाबू की सब से ऊंची चोटी की ऊँचाई पर, जहाँ अब तक किसी यूरोपनिवासी ने कदम नहीं रखा था, पहुँचे तो सूर्य आकाश के मध्य में प्रा चूका था। यद्यपि पहाड़ की चोटी पर देखने में कोई ऐसी चढ़ाई नहीं मालूम पड़ती थी परन्तु जैसे ही हम मारवाड़ के मैदान में हो कर पहुँचे तो यहाँ पर पठार की सतह से पूरे सात सौ फीट की ऊँचाई थी; फिर भी मेरा सुस्त बॅरामीटर केवल १५' की ही ऊँचाई बता रहा था और अभी २७°१०' पर ही बना हुना था; उधर थर्मामीटर, जिसे हिन्दुस्तान के उष्णतम दिनों में और अयनवृत्तीय प्रदेश में खुली धूप में देखा गया था, ७२° पर आ गया था और बॅरामीटर की अपेक्षा अच्छा मार्ग-प्रदर्शन कर रहा था। दक्षिण की ओर से बहत ठण्डी हवा तेजी से चल रही थी जिसके प्रभाव से बचने के लिए होशियार पहाड़ी लोग अपनो काली कम्बलियों में लिपट कर एक ऊँची निकली हुई चट्टान के सहारे जमीन पर सीधे लेट गए थे। उस समय का दृश्य वास्तव में गम्भीर और विचित्र था। बादलों के समूह हमारे पैरों तले तैर रहे थे और उनमें हो कर कभी-कभी सूर्य की एक किरण फूट पड़ती थी मानो इसलिए कि अत्यधिक प्रकाश के कारण हम चौंधिया न जायें। इस धुंधली ऊँचाई पर एक छोटा सा गोल चबतरा है जिसके चारों ओर छोटी-छोटी चारदीवारी बनी हुई है। इसके एक तरफ एक गुफा है जिसमें ग्र्यानिट पत्थर के बड़े टुकड़े पर दाता भृगु (विष्णु के अवतार) के चरणचिह्न अंकित हैं, जो यात्रियों के लिए यहाँ की यात्रा का परम उद्देश्य हैं; दूसरे कोने में सीता [श्री ?] सम्प्रदाय के महान् प्रवर्तक रामानन्द' , 'वैष्णवमताब्जभास्कर' के अनुसार रामानन्द स्वामी के सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत - सम्मत हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार चित् (चेतन-Mind) और अचित् (अचेतन-Matter) दोनों का अस्तित्व ईश्वर से भिन्न नहीं है । चिद्विशिष्ट और अचिद्विशिष्ट ईश्वर एक ही है। वह जगत् का कारण भी है और कार्य भी । वह स्थूल और सूक्ष्म दोनों अवस्थानों से विशिष्ट रहता है इसी लिए विशिष्टाद्वैत कहलाता है। श्रीरामानन्दजी ने सीता और लक्ष्मणसहित श्रीराम की उपासना का विधान निर्दिष्ट किया है । सीता सृष्टि की उदभव. स्थिति-संहाररूपिणी प्रकृतिस्थानीयाँ हैं, लक्ष्मण जीव-स्थानीय हैं और श्रीराम ईश्वरतत्व के प्रतीक हैं। इस सम्प्रदाय की प्रवतिका श्रीसीताजी मानी जाती हैं जिन्होंने सर्वप्रथम हनुमानजी को मंत्रोपदेश दिया। इसीलिए यह सीता-सम्प्रदाय अथवा श्री-सम्प्रदाय कहलाता है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा की पादुकाएँ हैं। इस अँधेरे स्थान पर इसी सम्प्रदाय का एक चेला रहता है जो किसी विदेशी के आगमन पर घण्टा बजाने लगता है और उस नाद को तब तक बन्द नहीं करता जब तक भेंट नहीं चढ़ाई जाती। महात्मा के चरणों के चारों ओर यात्रियों के डण्डों का ढेर लगा हुआ था जो इस बात का सूचक था कि उन्होंने यात्रा निर्विघ्नतापूर्वक समाप्त कर ली थी। पर्वत पर कई जगह बहुत सी गुफाएं देखने को मिली जो प्रागैतिहासिक काल की आबादी का सूचन कर रही थीं और कई जगह बहुत से गोल-गोल छेद थे जिनकी तोप के गोले से टूट कर बने हुए छिद्रों से तुलना की जा सकती है। रोशनी. और अँधेरे के उस संघर्ष के अन्त की मैं धीरज के साथ बाट देखता रहा और उस सन्यासी से बातें करता रहा। उसने मुझे बताया कि बरसात में जब वातावरण का धुंधलापन पूरी तरह से दूर हो जाता है तो यहाँ से जोधपुर का राज-दुर्ग और लूनी पर स्थित बालोतरा तक का रेतीला मैदान साफ दिखाई पड़ता है। इस कथन की जाँच करने में कुछ समय लगा, यद्यपि बीच-बीच में जब कभी सूर्य निकलता तो हम सिरोही तक फैली हुई भीतरिल (Bheetril) नाम की घाटी और पूर्व में लगभग २० मील की दूरी पर बादलों से ढकी हुई अरावली की चोटियों में सुप्रसिद्ध अम्बा भवानी के मन्दिर को देख कर पहचान सकते थे। अन्त में, सूर्य अपने पूर्ण प्रकाश के साथ निकल आया और हमारी दृष्टि काले बादलों का पीछा करती हुई वहाँ तक दौड़ी चली गई जहाँ नीले आकाश और धुंधली सूखी बालू के मिलन में वह खो गयी। दृश्य में प्रौढ़ता लाने के लिए जो कुछ आवश्यक था वह सब मौजूद था और निस्तब्धता उसके आकर्षण को और भी बढ़ा रही थी। यदि इस विस्तृत और अथाह गड्ढे से दृष्टि को थोड़ी-सी दाहिनी ओर घुमायी जाय तो वह परमारों के किले के अवशेषों पर जा टिकेगी जिसको धुंधली दीवारें अब सूर्य की किरणों को प्रतिबिम्बित करने में अशक्य हो गई हैं; एक हल्का-सा खजूर का पेड़, मानो उनके पतन का उपहास करता हुमा अपने ध्वज जैसे पत्तों को उस जाति के दरबार-चौक में खड़ा हुआ खड़खड़ा रहा था जो कभी अपने वैभव को चिरस्थायी समझे हुए थी। इससे थोड़ी हो दाहिनी ओर घने जंगल को पीछे लिए हुए देलवाड़ा की गुम्बदों का समूह खड़ा हुआ है जिसके पीछे की ओर जहाँ-तहां सभी तरफ छतरियों के कलश दिखाई पड़ते हैं, जो पठार की चोटी पर निकली हुई सुइयों जैसे मालूम होते हैं । इस पठार के धरातल पर बहुत से पतले झरने भी वहते हुए दृष्टिगोचर होते हैं जो सामने ही पहाड़ की ऊबड़-खाबड़ धरती पर अपने टेढ़े-मेढ़े मार्ग का अवलम्बन करते हैं। सभी में विपरीतता थी - नीला प्राकाश और रेतीला मैदान, संगमर Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५; अघोरी मर के प्रासाद और सामान्य झोंपड़ियाँ, गहन गम्भीर वन और टूटी-फूटी चट्टानें। ठंडी तेज हवा चल रही थी परन्तु ऐसे दृश्यों को देख कर जो विचार-मग्नता दर्शक पर छा जाती है उससे मन हटाए नहीं हटता था; ऐसा प्रतीत होता था मानो हम इस विशाल दृश्यावलि के स्रष्टा के बहुत समीप आ गए थे और मस्तिष्क इस सब को समझने में अपनी तुच्छता का अनुभव कर के दबा-सा जा रहा था। मेरे परिजनों पर भी यही मोहक प्रभाव छा गया था और वे स्थिति की नवीनता के विषय में एक भी शब्द बोले बिना दृश्य को तल्लीन हो कर देखते रहे । अन्त में, मुझे ध्यान पाया कि अब हमारे लौटने का समय हो गया था; सामने ही दिखते हुए कुछ गांवों का निरीक्षण करने के अतिरिक्त सुबह के चार बजे से दोपहर के एक बजे तक की पूरी मेहनत के बाद, कुछ ऐसे भी चिह्न दिखाई दिए थे जिनसे सुरक्षा करना, करौंदों की झाड़ियों की अपेक्षा उनके भीतर रहने वालों से, मनुष्यों के लिए अधिक पावश्यक था। फिर, हमारे ठहरने और आराम करने का स्थान अब भी यहां से दो मील की दूरी पर था। यद्यपि उतराई आसान थी फिर भी हम अपराह्न में ३ बजे से पहले अचलेश्वर नहीं पहुंच सके; खुली हवा में बॅरामीटर २७°२५. और थर्मामीटर ७८० बतला रहा था। चार बजे पारा ८२° पर चढ़ गया जिससे दिन के इस भाग में तापमान का असाधारण बदल प्रतीत हुआ। बॅरामीटर में भी उसी समय उसी गति से ५' का परिवर्तन मालूम हुआ; यह अब २७°२०' पर था। साढ़े पांच बजे यह २७°१७ पर और थर्मामीटर ७८° पर आ गया। हमारा मार्ग उन्हीं सुगन्धित कुञ्जों में हो कर था जहां प्रकृति खुले हाथों अपनी शोभा लुटा रही थी; फिर भी मनुष्य के अन्ध-विश्वासों ने बीच में पा कर सहज निर्दोष मानव जाति के पूर्वजों के निवासयोग्य स्थलों को दानवों के निवासस्थान में बदल दिया था, जहां स्वयं मानव पशुता के धरातल पर उतर आया था। ____ मैंने पाखण्डपूर्ण पण्डागीरी के दास बने हुए भारतवर्ष के असंख्य निवासियों में प्रचलित बहुत से विपरीत रीति-रिवाजों को स्वयं देखा था और उनके बारे में बहुत कुछ पढ़ा भी था, परन्तु आज का दिन मेरे लिए यह खोज निकालने को बच रहा था कि मनुष्य अपने पाप, पण्डे-पुजारियों की मध्यस्थता के बिना भी, राजी-खुशी किस सीमा तक नीचे गिर सकता है और यह पतन मानवीय प्राकृ. तिक गणों से इतना नीचा है कि उसे रिवाज का रूप तो कभी दिया ही नहीं जा सकता । मेरा तात्पर्य अघोरी से है जिसे हिन्दुओं के साम्प्रदायिक वर्गीकरण की अन्तहीन नामावली में स्थान मिला हुआ है । में इस पतित मानव को उसकी जाति का शृगाल कह सकता हूँ, परन्तु अर्द्धरात्रि में कब्रों और अन्य गन्दे स्थानों Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] पश्चिमी भारत की यात्रा में घूमने वाला शृगाल भी, उसकी प्रकृति को देखते हुए, अघोरी की अपेक्षा अधिक स्वच्छ होता है । यह पशु दुर्गन्धि एवं सडान्द से दूर भागता है और अपनी जाति के मृत पशु का शिकार नहीं करता; परन्तु अघोरी ऐसा नहीं करता, उसकी समदृष्टि में, अथवा यों कहें कि भूख में मरा हुआ मनुष्य और मरा हुआ कुत्ता समान है और यह कितना घणित है कि वह मल-भक्षण करने में भी हिचक नहीं करता । मैंने सुन रखा था कि ये अभागे आबू में ही नहीं वरन् सौर प्रायद्वीप के अन्य पहाड़ों की कन्दरामों में भी, जो जैन धर्म को अर्पित हैं, वर्तमान हैं । प्रतिभाशाली द' अॉनविले' (D' Anville) ने उनको 'राक्षसों की एक जाति' (Une espece de monstre) बताया है जिनके अस्तित्व में उसने अपने देशवासी यथार्थलेखक थोवेनॉट (Thevenot) के लेखों के उद्धरण देते हुए. सन्देह प्रगट किया है । वह कहता है कि "थीवनॉट ने उस स्थान के निवासियों में ऐसी असाधारण पोरता और दुर्दम्य साहसिक प्रकृति का अनुभव किया कि उनके बीच में होकर जाने वाले के लिए शस्त्र-सज्जित होना आवश्यक था; साथ ही वे उन लोगों से कुछ आगे बढ़े हुए भी थे जिनको “मदि कोर" [मुर्दाखोर] या नर-भक्षी कहते हैं । यह बात पहले किसी यात्री को साधारण रूप में ज्ञात नहीं थी, यह इससे सिद्ध होता है कि इस वर्णन-कर्ता को 'मदि कोर' शब्द का परि १ Jean Baptiste Bourguingnon D' Anville का जन्म १६९७ ई० में पैरिस में हुआ था। उसने प्राचीन भूगोल-शास्त्र का गम्भीर अध्ययन करके बहुत से तथ्यों की खोज, पुरानी मान्यताओं में संशोधन और कितने ही स्थानों की भौगोलिक स्थिति का मानचित्रों में शुद्ध अंकन किया था। जिन स्थानों व नामों के विषय में पूरे प्रमाण उपलब्ध नहीं हुए उनको उसने अपने बनाए हुए मानचित्रों में स्थान नहीं दिया। अपने अनुसन्धानों और संशोधनों को अधिकाधिक उपयोगी बनाने के लिए उसने १७६८ ई० में Geographie Ancienne Abregee नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसका अंग्रेजी अनुवाद Compendium of Ancient Geography शीर्षक से १७६१ ई० में प्रकाश में आया। १७७५ ई. में भूगोलवेत्ता के रूप में उसे Academy of Sciences का सदस्य बनायां गया और बड़े सम्मान के साथ First Geographer to the King (राजकीय प्रथम भूगोलशास्त्री) भी नियुक्त किया गया। द'पानविले की मृत्यु जनवरी, १७८२ में हुई थी। उसके अन्य संस्मरणों और शोधपत्रों की कुल संख्या ७८ और मानचित्रों की २११ थीं । De Manne नामक प्रकाशक ने उसकी सम्पूर्ण कृतियों को प्रकाशित करने की घोषणा १८०६ ई. में की थी परन्तु सन १८३२ ई० में उसकी मृत्यु के समय तक केवल उनमें से दो ही प्रकाशित हो सकी थीं। -E. B. Vol. VI, pp. 820-21 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५, मेरिया [ ८५ चय नहीं था' यद्यपि ऐसा पाया गया है कि यह बहुत प्राचीन काल से प्रचं. लित था । यह एक विचित्र तथ्य है, जैसा कि द' प्रामविले ने आगे चल कर कहा है कि पशुओं की यह मदिकोर' अथवा शुद्ध रूप में 'मुर्दाखोर' नामक विशेष जाति प्लिनी, अरिस्टॉटल और टिसियस', (CTesias) के लक्ष्य में भी इसी 'मार्टि चोरा' (marti-chora) नाम से आई होगी; उन्होंने अपनी भाषा में इसका पर्याय ____A)9POROparos दिया है क्योंकि 'मुर्दाखोर' फारसी शब्द है जो, 'मुर्दा' [अर्थात मरा आदमी ] और खोर खुरदन, खाना] शब्दों के योग से बना है। ग्रीक लेखकों की इस शब्द-व्युत्पत्ति से तीनं निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं ; पहला यह कि यह पाशविक सम्प्रदाय बहुत पुराना है ; दूसरा यह कि पारसी लोगों का इन प्रदेशों से बहुत प्राचीन काल से घनिष्ठ सम्पर्क रहा होगा; और तीसरे यह कि पाश्चात्य इति १ इस व्यापारिक नगर के पूर्व निवासी वे लोग थे जिनको 'मविकोर' (Merdi-Coura) या नरभक्षी या मतमांस-भक्षी कहा जाता है और अभी तक अधिक समय नहीं हुमा है कि यहां बाजार में नरमांस बैंचा जाता था। -Travels of M. de Thevenot, Paris, 1684 á Antiq., Geograph. de l'Inde, p. 90 ३ प्लिनी के विषय में McCrindle ने अपनी Ancient India नामक पुस्तक (p. Io) में लिखा है कि 'विचित्रताओं से उसको इतना अधिक प्रेम था कि उसने कितनी ही असम्भव कल्पनाओं को भी सत्य मान लिया है । अतः उसके विवरणों में कहीं कहीं प्रमाद पाए जाते हैं।" Cunningham's Ancient Geography of India. -1924; p. xxiv । सुप्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक अरिस्तू का जन्म मेसीडोनिया के स्टॉगिरा (Stagira) नामक स्थान में ई० पू० ३८४ में हुआ था। वह प्लेटो (अफलातून) का शिष्य और फिलिप के पुत्र अलॅक्जेण्डर का गुरु था। वह संसार का सब से बड़ा विचारक और दिमागदार माना जाता है । उसकी कृतियों का संग्रह Qrganon नामक पुस्तक में संकलित है। उसकी मृत्यु ई० पू० ३२२ में हुई। --N. S. E. p 68 ५ Ctesias ग्रीक चिकित्सक और इतिहासलेखक था जो ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी में हुआ था। उसने फारस और भारत के इतिहास भी लिखे हैं जिनमें हरॉडोटस की मान्यताओं की आलोचना की है । बाद में अरिस्तू ने अपने लेखों में टीसियस द्वारा लिखित तथ्यों को भी अप्रमाणित सिद्ध किया है ।-E. B. Vol. VI, p. 677 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा हास-लेखकों की फ़ारसी के अधिकारी-लेखकों तक बहुत पहुँच रही होगी' जिसका कि हम आधुनिकों को पूरा-पूरा पता भी नहीं है । मैं इस युग के सब से नामी दानव की गुफा के पास हो कर निकला जो प्राबू और इसके आसपास के प्रदेशों में घणा एवं भय का कारण बना हुआ था। उसका नाम फतहपुरी था और बुड्ढा होने पर भी वह जो कोई सामने आता उसी की आँतें निकाल कर खा जाता था; इसके बाद उसने अपने आपको गुफा में ही समाधिस्थ कर लेने का विचित्र निश्चय प्रकट किया। सनकी लोगों के आदेशों का पालन प्रायः तुरन्त ही हो जाता है और क्योंकि उसे भी लोग ऐसा समझते थे इसलिए उसकी इच्छा की पूर्ति तुरन्त ही कर दी गई। उसकी गुफा का द्वार बन्द कर दिया गया और वह उस समय तक बन्द ही रहेगा जब तक कि मृत-शरीर की तलाश करने वाला कोई फिरंगी (Frank) उसे न खोले अथवा जब तक कि मस्तिष्क (खोपड़ी) का अध्ययन (Phrenology) हिन्दू शिक्षा का एक अंग न बन जाय । उस समय विनाश के चिह्न फत. हपूरी की खोपड़ी पर विकास की बहुत ऊँची अवस्था का सूचन करेंगे। मुझे बताया गया कि अब भी ऐसे बहुत से अभागे लोग पहाड़ की कन्दराओं में रहते हैं और कभी-कभी दिन में बाहर निकलते हैं, परन्तु वे फलों अथवा उन खाद्य वस्तुओं की तलाश में घूमते रहते हैं जिनको लेकर राहती लोग उनके लगे-बँधे रास्तों से निकलते हैं। मुझे एक देवड़ा सरदार ने बताया कि कुछ ही दिनों पहले जब वे उसके मत भाई के शव को जलाने के लिए ले जा रहे थे तो ऐसा ही एक दानव (अघोरी) अर्थी के सामने आया और यह कहते हुए मृत शरीर को माँगा कि 'इसकी बड़ी बढ़िया चटनी बनेगी।' उस [देवड़ा सरदार ने यह भी बताया कि इन लोगों पर मनुष्यों को मार देने का अपराध भी नहीं लगाया जाता। , इनमें चौथा यह जोड़ा जा सकता है कि नामों के प्रथ-साम्य हे प्राचीन एवं प्राधुनिक फारसी बोलियों को घनिष्ठता सिद्ध होती है। इस जाति का मुख्य निवासस्थान बरपुत्र (Burputra-बड़ोवा) में है जहां पर अब भी इस मत की संरक्षिका अघोरेश्वरी माता का मन्दिर प्राचीन स्थान पर बना हुमा है जो (माता) Lean Famine दुबली पतली स्त्री के रूप में नर का भक्षण करती हई बताई गई है। इस (माता) के भक्त विशाल सन्त-समाज के अन्तर्गत गिने जाते हैं जिनमें वे निस्सन्देह सब से अधम हैं; वे जो कुछ सामने पड़ जाय उसे खा लेते हैं, कच्चा हो या पक्का, मांस हो या शाकभाजी और जो कुछ हाय पड़े उसे ही पी जाते हैं, शराब हो या उनका खुद का पेशाब। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५; जैन यात्री को सद्भावना [८७ एक नर-भक्षक की गुफा का जैन-मन्दिर के अहाते में नहीं, तो उसके बिलकुल पास ही मिलना बड़ी विचित्र बात थी-उन जैनों के मन्दिर के पास जिनका पहला सिद्धान्त यह है कि मनुष्य की ही नहीं छोटे से छोटे प्राणी की भी 'हिंसा मत करो'; यह हिन्दू-मान्यताओं के इतिहास में विरोधाभास का एक और उदाहरण है जिसमें बड़ी से बड़ी विपरीतताओं का समावेश पाया जाता है। कट्टरपंथी लोग, चाहे वे शव हों या वैष्णव, अपने-अपने मतों को इतना दृढ़ समझे हुए प्रतीत होते हैं कि अन्य पन्थों के सम्पर्क से उन्हें कोई भय नहीं होता; यहाँ तक कि अद्वैतवादी जन लोग भी, जो अपने को प्रकृति के उपासक मानते हैं, बुद्ध, अन्नपूर्णा अथवा सृष्टि के संहारकर्ता [शिव ? ] को मूर्तियों को आदरपूर्वक नमस्कार करने से इनकार नहीं करते । मतों और पन्थों में शहीद नहीं होते; भक्तों को, जिन विश्वासों (सिद्धान्तों) में उनका जन्म हया है उनसे चिपके रखने के लिए सन्तों के शवों की आवश्यकता नहीं पड़ती; और अज्ञानी अन्धविश्वासी तथा कायर एवं दयालु लोग नीचतम और घृणित अघोरी को भी भोजन देने में संकोच नहीं करते। इस भयङ्कर विश्वदेवतावाद में समाजविरोधी कार्यों के लिए कोई भी उत्तरदायी नहीं होता। अोरिया (Oreab) और अचलेश्वर के देवालय के बीच में हमें छोटे छोटे मन्दिरों का एक समूह मिला जिनमें सबसे प्रमुख नन्दीश्वर का मन्दिर था। इससे एक तथ्य की पुष्टि हुई, जो अभी तक सिद्ध नहीं हुआ था अर्थात् इन लोगों के स्थापत्य सम्बन्धी नियम अपरिवर्तनीय होते हैं और साधारणतया आकार-प्रकार के विषय में प्रत्येक देवता के मन्दिर की शैली पृथक् होती है। यह मन्दिर चम्बल के प्रपातों पर बने हुए गङ्गा-भ्यो (Ganga Bheo) और मार्को पोलो ने ऐसे ही जादूगरों के विषय में कहा है जो हमारे इन अघोरियों से बहुत मिलते हैं। "ज्योतिषी, जो जादू को पैशाची कला का अभ्यास करते हैं, काश्मीर और तिब्बत के निवासी हैं। वे गन्दे और भद्दे रूप में सामने प्राते हैं, उनके चेहरे बिना धुले और बाल बिना कंघी किए हुए तथा मैले रहते हैं। इसके अतिरिक्त वे इस भयंकर और पाशविक प्रथा का पालन करते है-जब कभी किसी अपराधी को मृत्यु-दण्ड दिया जाता है तो वे उसके शरीर को ले जाते हैं और प्राग में भून कर खा जाते हैं।" -Marsden's 'Marco Polo,' p. 252. हैरोडॉटस् के ईथोपिअन ट्राग्लोडाइटीज (Troglodytes) भी इससे बहुत मिलते-जुलते हैं "छिपकलियां, सांप और अन्य जंगली जानवर उनका भोजन हैं; चमगादड़ों की सी चोख ही उनकी भाषा है।"--Melp; p. 341. देखो 'राजस्थान का इतिहास' जिल्द २, पृ. ७१६. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40]. पश्चिमी भारत की यात्रा उदयपुर के पास बाड़ियों पर बने हुए मन्दिरों की बिलकुल अनुकृति है । इसकी सरल और ठोस बनावट, बाहरी चौकोर खम्भे, जिनका ऊपरी भाग ठेठ देहाती ढंग से बना हुआ है, बिलकुल उसी ढांचे में ढले हुए हैं और उन्हें देख कर यही कल्पना होती है कि यह उसी काल में और उसी कारीगर के द्वारा बनाया हुआ है। यहाँ पर एक ही शिलालेख है जिससे प्रकट होता है कि अणहिलवाड़ा के स्वामी भीमदेव सोलंकी ने इसका जीर्णोद्धार कराया था। साढे दस घण्टों की मेहनत के बाद तीसरे पहर के तीन बजे हम राव मान की छतरी और अग्निकुण्ड के बीच में एक कुञ्ज में ठहरे। मैं एक जैन धर्मावलम्बी वणिक यात्री के सत्कार से बहुत अनुगृहीत हुआ जिसने मुझे यह कह कर एक छोलदारी का उपयोग करने के लिए विवश कर दिया कि 'मुझे तो खूली हवा ही अच्छी लगती है, यदि आप इसे काम में न लेंगे तो यह अनुपयुक्त ही पड़ी रहेगी।' 'जीवन की छोटी छोटी मीठी सद्भावनाओं ! तुम धन्य हो' । मेरे विविधतापूर्ण जीवन-क्रम के इन उज्ज्वल चिह्नों को जिस दिन मैं भूल जाऊँगा उस दिन अपने आप को भी खो बैठेगा। मैंने उसकी इस मनुहार का बहत स्वागत किया क्योंकि मैं रात की अोस से बहत डरता हूँ और मेरे शरीर के ढांचे को भूतों का सा बल देने वाले उत्साह के भरोसे ही मैं दिन भर की मेहनत को पार कर पाता है। जब तक डेरे का सामान खुल रहा था तब तक मैं अग्निकुण्ड और हिन्दुनों के पौराणिक इतिहास में सुप्रसिद्ध अचलेश्वर की झाँकी लेने के लोभ को न रोक सका । 'मान-अग्निकुण्ड' लगभग नौ सौ फीट लम्बा और दो सौ चालीस फीट चौड़ा है और ठोस चट्टान में खोद कर बनाया गया है, अन्दर की तरफ़ बड़ी-बड़ी ईंटें जड़ कर पक्का इमारती काम किया गया है । कुण्ड के बीच में एक चट्टान का ढेर अलग ही छोड़ा हुआ है जिस पर जगज्जननी (The Universal Mother) माता के मन्दिर के खण्डहर वर्तमान हैं। कुण्ड के उत्तरी मुख के सिरे पर छोटे-छोटे मन्दिरों का एक समूह है जो पाण्डव बन्धुनों के नाम पर बने हुए हैं, परन्तु ये भी माता के मन्दिर के समान खण्डहर मात्र ही रह गये हैं । पश्चिम की भोर अचलेश्वर का मन्दिर है जो आबू के रक्षक देवता माने जाते हैं। परिमाण एवं आकार के लिहाज से इसमें कोई खास बात नहीं है और सजधज तो उससे भी कम है, परन्तु इसमें एक गम्भीर सादगी है जो इसकी प्राचीनता को सिद्ध करती है। यह एक चतुष्कोण के बीच में बना हुआ है और नीले स्लेट के पत्थरों से निर्मित छोटी-छोटी गुमटियों से घिरा हुआ है जो माकार-प्रकार में समान और आदिकालीन हैं। परन्तु, मुख्य तो वह पूजा Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५; नारायण की मूर्ति [ ** का पात्र है जिससे इसकी प्रसिद्धि है, वह है - राक्षसराज ( Devil) का 'अँगूठा, क्योंकि हम 'पातालेश्वर' का यही अनुवाद करेंगे । अन्दर घुसते ही आँखें पर्वत की देवी' मीरा' की ओर आकृष्ट होती हैं, जो इस अनेकरूप देवता की पत्नी है । पहली दृष्टि में यही मूर्ति पूज्य - प्रतिमा दिखाई पड़ती है और फिर नीचे झुक कर चट्टान में बने हुए एक गहरे छिद्र में, जो 'ब्रह्मखाळ' कहलाता है, देखने पर शिव का उज्ज्वल नख दिखाई पड़ता है, जो अतीतकाल से लाखों भक्तजनों को अर्घ्य प्रदान करने के लिए आकृष्ट करता रहा है। मन्दिर के सामने ही एक बृहदाकार पीतल का बैल बना हुआ है, जिसकी बगलों पर बलात्कार ( Violence ) के चिह्न मौजूद थे, धन की खोज में बर्बर [अत्याचारी ] के हथौड़े उनमें पार हो गए थे । इस विध्वंस का काला टीका अहमदाबाद के पादशाह या सुलतान मोहम्मद [गड़ा] के माथे लगा था; परन्तु इससे उसे किसी छुपे हुए खजाने की प्राप्ति हुई या नहीं, इसका पता नहीं है; यद्यपि गाथा में अपने प्रीतिपात्र वाहन के साथ दुर्व्यवहार के कारण म्लेच्छ राजा पर शिव के प्रकोप का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । अचलगढ़ का ध्वंस करके 'विजय के लाल पङ्खों' से अपने झण्डे लहराते हुए जब वे प्राबू से उतर रहे थे तो एक अप्रत्याशित स्रोत से आने वाली विपत्ति उनकी बाट देख रही थी। जिन बुर्जों को वे पीछे छोड़ कर आए थे उनमें से निकल कर मधु मक्खियों के एक दल ने उन पर आक्रमण किया और जालोर तक आततायियों को नहीं छोड़ा। विध्वंसकों पर प्राप्त इस विजय को चिरस्मरणीय बनाने के लिए इस स्थान का नाम 'भँवरथाल'. (Bhomar thal) रक्खा गया । एक मन्दिर भी खड़ा किया गया तथा भगोड़ों द्वारा छोड़े हुए शस्त्रों पर अधिकार करके एक विशाल त्रिशूल बना कर देवता के सामने स्थापित किया गया और नन्दी के अपमान का इस प्रकार बदला लिया गया । मुख्य मन्दिर के चारों ओर बने हुए छोटे-छोटे मन्दिरों में से एक के बाहर प्रलय कालीन जल में हज़ार फनवाले शेषनाग पर भगवान् नारायण की मूर्ति तैर रही है, जो अपनी [योग] निद्रा से जागने पर अपने श्राप को 'ऊपर और सूखा' पा कर अवश्य ही आश्चर्य करेंगे। जब मैंने महन्त को कहा कि विष्णु के लिए स्थान उपयुक्त नहीं है तो उसने धीरे से उत्तर दिया 'मुझे तो चूने (Chunam) के लिए जगह चाहिये थी और जब मैंने उस अपवित्र हुए मन्दिर के अन्दर देखा 9 'ग्रन्थकार ने यहां Me'ra शब्द लिखा है । 'पार्वती' के पर्यायों में तो ऐसा कोई शब्द मिलता नहीं है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] पश्चिमी भारत की यात्रा तो उसे उसी पहाड़ से निकले हुए पत्थर से बने चूने से भरा पाया; मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि वह पुजारी, यदि उसका मतलब बनता नजर आता तो, भगवान् के शङ्ख का भी चूना बनाने से न चूकता । यहाँ पर पातालेश्वर का ही सबसे अधिक सम्मान है, स्वर्ग के अन्य देवता इस अन्धकार की शक्ति के अधीन माने जाते हैं । इस तथ्य से पूजा-पद्धति की प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि सभी असभ्य जातियों में प्रेम के ऊपर भय का प्राधान्य रहता पाया है। मन्दिर से बाहर निकलते ही दरवाजे पर बने हुए कुछ भद्दे से उन खम्भों पर दृष्टि अटक जाती है जिन पर तिलक लगे हुए हैं और प्रत्येक पर गधे की मति खुदी हुई है। मन्दिर के चारों ओर बड़े-बड़े पेड़ खड़े हए हैं जिनमें प्राम के वृक्ष मुख्य हैं; इनके बीच-बीच में अंगूर की बेलें लिपटी हुई हैं जिन पर कलम के चाकू का प्रयोग कभी नहीं किया गया, परन्तु फिर भी मोटे-मोटे अंगूर लदे हुए थे जो अभी पके नहीं थे। लोगों ने मुझे बताया कि ये सब इस पहाड़ की प्राकृतिक उपज है । इनके अतिरिक्त चम्पा, चमेली, सेवती और मोगरा प्रादि के पौधे भी थे जो चारों ओर बहुतायत से उगे हुए थे। अचलेश्वर के मन्दिर में कोई शिलालेख नहीं था परन्तु मैंने उसके पास ही तालाब के एक शिलालेख की नकल कर ली थी। जिधर यह मन्दिर है उसी तरफ ठेठ अग्निकुण्ड के किनारे पर सिरोही के राव 'मान' की छतरी है, जो एक जैन मन्दिर में जहर का शिकार हुआ था'; वहीं संगमरमर के पत्थर पर उस जहर का एक निशान भी बताया जाता है जिससे उसकी मृत्यु हुई थी। उसके इष्ट देवता के मन्दिर के पास ही उसके शरीर की दाह-क्रिया हुई और पांच रानियाँ उसके साथ यमलोक (भारतीय प्लूटो के लोक) को गईं। स्मारक के मध्य भाग में स्थित एक वेदी पर उनकी मूर्तियाँ खुदी हुई हैं; यह स्मारक एक अकेली छतरी है जो खम्भों पर टिकी हुई है। रानियों को हाथ जोड़े हुए और नीची आँखें किए हुए दिखाया गया है मानो वे याचना कर रही है कि उनके स्वामी की पापों से मुक्ति के लिए उनकी आहति स्वीकार की जाये और उसे यमपाश से जुड़ा कर (हिन्दुओं के स्वर्ग) वैकुण्ठ में भेजा जावे जो एक दण्डनीय, निर्दय और सुरामत्त राजपूत की अन्तिम यात्रा के लिए सब १ महाराव मान को कल्ला परमार ने कटार वार करके मारा था। राव की माता में १६३४ वि० सं० में मानेश्वर का मंदिर बनवाया जिस में सती होने वाली पांच रानियों की मूर्तियां भी बनी हुई हैं। -सिरोही राज्य का इतिहास; गो० ही० पी०; पृ० २१५-१६ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ५; प्रादिपाल की मूर्ति [१ से अधिक सुखदायक साधन (माना गया) है । अग्निकुण्ड के पूर्व की ओर परमार जाति के संस्थापक आदिपरमार के पवित्र मन्दिर के अवशेष धराशायी हो चुके हैं। परन्तु प्रादिपाल की मति अपनी आधार-शिला पर सही-सलामत खड़ी है जो मेरी अब तक रखी हुई वस्तुओं में सबसे अधिक रुचि का विषय थी। यह मति पुरातन प्रकार,प्राचीन वेशभूषा और आदिकालीन वास्तविकतामों का नमूना है। सफेद संगमरमर की बनी हुई यह मूर्ति लगभग पांच फीट ऊँची है और मूर्तिकला में बाडोली के स्तम्भों पर बनी हुई मूर्तियों के अतिरिक्त भारत में मेरे द्वारा देखी हुई सभी मतियों से बढ़कर है। परमार एक तीर से भैंसे के सिरवाले 'भैसासुर' को मार रहा है जो रात के समय अग्निकुण्ड का पवित्र पानी पी जाया करता था; इसी की रक्षा के लिए परमार की सृष्टि हुई थी। तीर मभी घुसा ही है जिससे उसके अचूक लक्ष्य एवं मांसल भुजामों का प्रभाव तीन घावों के रूप में स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है, जिनमें हो कर तीर ऊपर की खाल. व बीच में आने वाले सभी अवरोधों को पार करता हुमा ठेठ तक पहुंच गया है.। दैत्यों के मल प्रतिनिधियों की मूर्तियाँ नष्ट हो चुकी हैं क्योंकि वे नीले स्लेटी पत्थर पर भद्देपन से बनी हुई थीं और उनमें उनके कोई भी पौराणिक चिह्न अंकित नहीं किए गए थे । परमार का दाहिना हाथ अभी भी कान तक खिंचा हुमा है जो उसकी लक्ष्यसिद्धि के प्रति दृढप्रतिज्ञता का द्योतक है; उसकी भुजा उन्मुक्त, लचकीली और सुगठित है; कलाई का मोड़ प्रशंसनीय है परन्तु अंगुलियां शायद बहुत ज्यादा मुड़ गई हैं; सभी अङ्ग सुगठित हैं तथा सम्पूर्ण प्राकार गौरवपूर्ण है। किसी धर्मान्ध ने धनुष के एक भाग को तोड़ दिया है, जो 'धनुष' या बाँस का बना हुआ नहीं है वरन् अधिक शास्त्रीय (Classic) विधि से भैंसे के सींग से निर्मित है। इसकी खिची हुई चूल अर्थात् प्रत्यञ्चा कार्य के प्रति विशेष तत्परता का सूचन कर रही है । मस्तक विशाल और सुगठित है जो केवल प्राकतिक आवरण से ढका हुआ है। शरीर पर एक घेरदार (घाघरे जैसा) अंगरखा है जो जाँघों के बीच तक लम्बा है और उसी तरह का है जैसा कि अरावली के निवासी आज तक पहनते आ रहे हैं। इस पर एक कमरबन्धा है जिसमें कटार खोंस रक्खी है । हाथों और पैरों के गहनों के साथ एक मोतियों की तिलड़ी इस प्रथम परमार (के प्रतीक) की प्रतिष्ठा का सूचन कर रही है। चरणचौकी के अधोभाग में एक लेख था परन्तु किसी धर्मान्ध ने इसके महत्वपूर्ण अंश, संवत् या साल को मिटा दिया है, यह इस प्रकार है- “सम्बत्...[मास] • Hindu Bucentaur. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा फाल्गुन (वसन्त) वृहस्पतिवार, तिथि १३ कृष्णपक्षे, श्री.........."रास सार्वभौम राजा अचलगढ़ की राजगद्दी पर बैठा, परमार श्री धारावर्ष' ने अचलेश्वर के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया।' कङ्कालेश्वर मन्दिर के शिलालेखों (परिशिष्ट १) से धारावर्ष का समय संवत् १२६५ अथवा १२०९ ई० विदित होता है परन्तु मुझे उस सार्वभौम शासक के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है जिसका नाम 'रास' शब्दांश से पूरा होता है । इस समय के. परमार, जिनके छोटे से राज्य में चन्द्रावती, आबू और सिरोही ये तीन प्रसिद्ध नगर थे, अणहिलवाड़ा के राजाओं के आधीन थे परन्तु उस राज्य के तत्कालीन इतिहास में भी इस 'रास' उत्तरपद से युक्त कोई नाम नहीं मिलता है । मूर्ति की बनावट से यह ध्यान में नहीं पाता कि यह लेख के समय में ही बनो होगी अथवा हम यह कल्पना कर सकते हैं कि आबू में स्वतन्त्रता का उपभोग करने वाले अन्तिम (राजा) स्वयं धारावर्ष ने ही अपने वंश के मूल पुरुष के स्मारक रूप में इस मूर्ति को स्थापित किया था। परन्तु उसके समय में कला का बहुत कुछ ह्रास हो चुका था' इसलिए यह सम्भव है कि उसने इस स्मारक का लाभ मन्दिर के जीर्णोद्धार-कार्य को चिरस्मरणीय बनाने के लिए ही उठाया हो । हिन्दू भाट [कवि] .ने, जो कभी कभी अपने प्राशय के अनुसार सहो परिणाम भी निकाल लेता है, उसके साम्राज्य-नाश के कारणों को राजनैतिक न बता कर नैतिक कारणों का ही उल्लेख किया है अर्थात् पूर्ववणित अचलेश्वर के रहस्यों को खोज निकालने का अधर्म-पूर्ण कार्य । मूर्तिकला के इस प्राचीन नमूने में और परमार ' यह नाम (धारावर्ष) सम्भवतः राजपूत कवियों (चारणों) के रूपक से लिया गया है जो तलवार के तेज वार को 'भारा' के समान बतलाते हैं और इसकी पुनरावृत्ति को वर्षा कहा गया है-शत्रु के शिर पर (तलवार के) वारों (प्राघातों) की वर्षा हिन्दू कषियों में प्रचलित वाक्यांश है। प्रथया इस नाम में उसके मध्य-भारत की प्राचीन राजधानी धार के परमारों की शाखा से सम्बद्ध होने का सन्दर्भ हो सकता है। पाराव ने अपने लामणिक नाम को यथार्थता उस समय सिद्ध को जब भारत-विजय के समय सिरोही (तलवार ?) वास्तव में बर्बरों के शिर पर 'बरस' पड़ी थी। फरिश्ता ने प्राबू के इस राजा की शक्ति एवं शूरता का बखान दारापरेस (Daraparais) नाम से किया है जिसने हिन्दू-मुसलिम-इतिहास के सभी पाठकों को झमेले में डाल दिया है, परन्तु हम देखते हैं कि यह नाम मूल नाम (धारावर्ष) से अधिक दूर नहीं है। २ इस कपन से एक प्रत्यक्ष विपरीतता प्रकट होती है परन्तु इसी काल के जैन मन्दिरों में, चाहे वे कितने ही भव्य मोर विस्तृत हों, एक भी मूर्ति इसके समान स्पष्ट अवयवों वाली Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५; अचलेश्वर को हिन्दू ऑलिम्पस (देवपर्वत) के साथ सम्बद्ध करने वाले पाख्यान में कल्पना का एक ऐसा आकर्षण प्रतीत हुआ कि मूर्ति को उसके आशंकापूर्ण स्थान से हटा कर अग्निकुण्ड के शिखर पर स्थापित करने की मेरी इच्छा प्रबल हो उठी। परन्तु सद्विचारों ने इसमें बाधा डाल दी। यह उसकी जाति का उद्गम-स्थान था और यहीं पर उन लोगों को कठिन तपस्या के द्वारा पुनर्जीवन प्राप्त हुआ था। मुझे यहाँ पर लॉर्ड बॉयरन रचित पार्थिनॉन' के लुटेरे के विषय में 'ईश्व. रोय शाप' नामक कविता भी याद आई : "क्या कभी बृटिश-वारणी कहेगी कि एल्बिमॉन एथना के अश्रुनों से सुखी था ? यद्यपि तेरे नाम पर दास उसकी छाती रौंदते हैं परन्तु लज्जित यूरोप के कानों में यह बात न डालो ! समुद्र की रानी बरतानियाँ रक्त रंजित भूमि से अपहृत अंतिम अकिञ्चन वसु को लिए हुए है। हाँ वहा, जिसकी उदार सहायता उसके नाम में आकर्षण पैदा करती है, उसी ने उन अवशेषों को दानवीय करों से छिन्न भिन्न कर डाला जिनको ईर्ष्यालु एल्ड ने सहन किया और अत्याचारियों ने भी छोड़ दिया था। ' एथेन्स स्थित Athene अर्थात् सरस्वती का मन्दिर। इसका नक्शा इक्टिनस (Ictenus) ने बनाया था और ई० पू० ४३८ में यह बनकर तैयार हुअा था। यह सम्पूर्ण मन्दिर सफेद संगमर्मर का बना हुआ था और इसमें फीडियास ( Phidias ) द्वारा बनाई हुई एथना की स्वर्ण प्रतिमा विराजमान थी। इसके पश्चिमी कक्षों में असंख्य चांदी के प्याले और अन्य बहुमूल्य सामग्री एकत्रित थी। यह राष्ट्रीय कोषागार कहलाता था। यह सामान विविध पर्वो पर उपयोग में आता था। इस मन्दिर को फारसियों ने विध्वस्त करके लूट लिया था परन्तु पॅरिक्लीज़ (ई० पू० ४६०-४२६) ने और भी शान-शौकत के साथ इसका पुनरुद्धार कराया। सम्भवतः कुस्तुन्तुनिया के सम्राट् जस्टीनियन प्रथम (५२७-५६५ ई०) के राज्य में इसको गिर्जाघर में परिवर्तित कर दिया गया था। १४५३ ई० के कुछ समय बाद इसको मस्जिद का रूप दे दिया गया और अन्त में १६८७ ई० में वेनिशियनों द्वारा एथेन्स के घेरे के समय बारूद के विस्फोट से यह बिलकुल नष्ट हो गया। -The Oxford Companion of English Literature; Paul Harvey; p. 594. • Albion (एलबिॉन)- प्राचीन कवियों द्वारा प्रयुक्त ब्रिटेन का नाम । सम्भवतः गॉल (Gaul) के समुद्रीय तट से दिखाई देने वाली सफेद चट्टानों के कारण ही यह नाम दिया गया था । ३ लन्दन नगर का मुख्य पूर्वीय दरवाज़ा जो पहले Algate या Alegate कहलाता था। इस दरवाजे पर बने मकान में कुछ समय तक सुप्रसिद्ध कवि चॉसर भी रहा था, जब वह राहदारी विभाग का अध्यक्ष था। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] पश्चिमी भारत की यात्रा परमात्मा करे किसी का अपवित्र हाथ प्रादिपाल को भविष्य में यहाँ से न हटाए ! अचलेश्वर का उपाख्यान आबू और अग्निवंश के इतिहास के साथ अविच्छेद्य रूप से सम्बद्ध है, जिसको शिव ने दैत्यों से युद्ध करने के लिए उस समय उत्पन्न किया था जब उन्होंने इस प्रिय पर्वत पर से शिवार्चन को बहिष्कृत कर दिया था। यह टीटनों (Titans) द्वारा ज्युपीटर (Jupiter) के विरुद्ध युद्ध-संचालन के ग्रीक उपाख्यान' की अपेक्षा कम परिष्कृत अवश्य है परन्तु रूपरेखा वही है । 'इतिहास' में इसका वर्णन किया जा चुका है। अतः यहाँ पर अर्बुद की उत्पत्ति से सम्बद्ध केवल चमत्कारिक पौराणिक अंश को ही पूरक के रूप में प्रस्तुत करता हूँ। 'मानव की निष्पाप और सात्विक अवस्था के स्वर्णयुग में यह स्थल शिव और उसके लक्षाधिक गणों का प्रिय स्थान था और वे सभी इस हिन्दू विश्वदेवालय पर साक्षात् एकत्रित होते थे। यहां पर ऋषि, मुनि, शिव के प्रतिनिधि वसिष्ठ मुनि की अध्यक्षता में, पृथ्वी पर स्वत: उत्पन्न होने वाले कन्द, मूल, फल खाकर एवं दूध पीकर अपना समय तपस्या और प्रार्थना में व्यतीत करते थे। उस समय यहाँ पर्वत नहीं था और सम्पूर्ण अरावली का भूभाग समतल था। वस्तुतः इस स्थान पर एक विशाल गर्त अथवा कुण्ड था जिसकी गहराई नापी नहीं जा सकती थी। इसमें मुनि की कामदुघा गौ गिर कर पानी के चढ़ाव के साथ चमत्कारपूर्ण ढंग से निकल पाई थी। ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए मुनि ने बर्फीले कैलास-पर्वत पर निवास करने वाले शिव का स्तवन किया। उन्होंने यह प्रार्थना सुन ली और हिमाचल को बुला कर पूछा कि उनके हिमाच्छादित निवासस्थान से निकल कर प्रात्म-त्याग का परिचय देने वाला कौन है ? इस पर हिमाचल का कनिष्ठ पुत्र प्रादेश का पालन करने के लिए तैयार हुआ परन्तु वह पंगु था इसलिए यात्रा करने में असमर्थ था। अतः सर्पराज तक्षक उसे अपनी पीठ पर ले जाने को प्रस्तुत हुए। इस प्रकार उन्होंने उस स्थान की यात्रा को जहाँ पर मुनि वसिष्ठ निवास करते थे। अपने प्रागमन का उद्देश्य सुना कर 'ग्रीक पौराणिक गाथाओं के अनुसार 'टीटन्' स्वर्ग और पृथ्वी की प्रादिसन्तान माने गये हैं । इनकी संख्या दस थी जिनमें पांच पुरुष और पांच स्त्रियां थीं। जुपिटर के अवैध पुत्र डायोनिसस की नृशंस हत्या के षड्यन्त्र में ये जुपिटर की वैध पत्नी जूनो के साथ मिल गये थे अतः जुपिटर ने इनके साथ युद्ध किया और यातना देकर उनका अन्त कर दिया। -The Golden Bough, James Frazer, vol. II; 1957, p. SIL . भा. १, पृ १०८; Ed. W. Crooke. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · प्रकरण - ५, अचलगढ़ [ ६५ हिमाचल का पुत्र मुनि की आज्ञानुसार गर्त में कूद पड़ा, परन्तु उसका मित्र तक्षक उसे छोड़ने को तैयार नहीं था इसलिए अपने दांतेदार लपेटों में घेरे डाल कर उसे अपने आलिङ्गन - पाश में जकड़े रहा । अपने इस बलिदान के लिए उन्होंने प्रतिज्ञा की कि उनके नाम उस चट्टान (पर्वत) के नाम के साथ संयुक्त कर दिए जायें। तभी से इसका नाम अर्बुध पड़ा अर् अर्थात् पहाड़ और बुध् अर्थात् बुद्धि, सर्प जिसका द्योतक है। परन्तु, या तो पर्वतों के पिता (हिमालय) का यह अंश गर्त को भरने के लिए पर्याप्त नहीं हुअा अथवा स्थान-परिवर्तन से दुखी होकर सर्प ने इतने मरोड़े लिए कि वसिष्ठ को इस भूकम्प को हलचल बन्द करने के लिए महादेव (Divinity) का पुनः स्मरण करना पड़ा । तब शिव ने पाताल लोक से अपना पैर पृथ्वी के केन्द्र तक फैलाया यहाँ तक कि उनका अंगूठा पर्वत की चोटी पर स्पष्ट दिखाई देने लगा। भूचाल बन्द हो कर पर्वत अचल हो गया और ईश्वर के अंगूठे पर मन्दिर का निर्माण हुआ। इस लिए यह अचलेश्वर कहलाया। यदि इस पाख्यान का तात्पर्य समझा जाय तो मैं कहूँगा कि पृथ्वी-रूपिणी गाय का गर्त में पड़ जाना मानवीय अन्याय एवं पक्षपात का द्योतक है और शिव-पूजकों के पूजा-विधान में बाधा देने वाले दैत्य नास्तिक (विधर्मी) सम्प्रदाय वाले लोग थे । गर्त को भर देने वाले हिमाचल के पुत्र से किसी उत्तरदेशीय उपनिवेश अथवा जाति से तात्पर्य हो सकता है जिसकी वसिष्ठ द्वारा परिशुद्धि (Conversion) ने शायद अग्निकुण्ड से उत्पन्न अग्निवंश के उपाख्यान को जन्म दिया हो-जहाँ अचलेश्वर के मन्दिर का निर्माण हुआ है। ___ इस चट्टान की दरार को देवड़ा सरदारों ने शक्ति की प्रतिमा जैसी एक चांदी की चद्दर से मढ़वा दिया था। कहते हैं कि प्रत्यक्ष ही पाताल (नरक) से न डरने वाले किसी भील ने इस मूल्यवान् धातु को चुरा लिया था। वह कोई एक मील भी न जाने पाया था कि बिलकुल अन्धा हो गया। इस दण्ड के कारण पश्चात्ताप से पीड़ित हो कर उसने अपने उस लोभ के पात्र [चाँदी की चद्दर को एक पेड़ से लटका दिया। जब वह ढूंढने वालों को मिल गया तो उसके पश्चात्ताप के कारण उसकी दृष्टि लोट पाई। मूर्ति को अग्नि में शुद्ध कर के फिर से ढाल कर दरार पर पुनः संस्थापित कर दिया गया। इस से भी बढ़कर साहसपूर्ण अधामिक कृत्य का प्रमाण तो उस व्यक्ति के विषय में मिलता है, जिसका इस मन्दिर की रक्षा करना मुख्य कर्तव्य था। प्राबू और चन्द्रावती के परमार राजा ने ब्रह्मखाळ के अनवगाहनीय (Athar) (अथाह) उपाख्यान की सचाई का पता लगाने का निश्चय कर के, मन्दिर के पास वाले झरने में से एक नहर निकाल ली, जिसमें छः Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा महीनों तक कोई प्रत्यक्ष परिणाम लाए बिना लगातार पानी बहता रहा। अचलेश्वर के रहस्य का अवगाहन करने के इस प्रयत्न के फलस्वरूप वह परमार राजा चन्द्रावती के सिंहासन से च्युत कर दिया गया और वही अपने वंश का अन्तिम राजा हुआ।' ___ जुन १३ वी-प्रातः ६ बजे में अग्निकुण्ड से अचलगढ़ के लिए रवाना हुआ जिसकी टूटी-फूटी छतरियाँ हमारे चारों ओर घिरे हुए घने बादलों में डूबी हुई थीं। चढ़ाई के इस स्थान पर थर्मामीटर ६६° और बॅरॉमीटर २७° १२' अंशों पर थे तथा ८ बजे (प्रातः) शिखर पर बरॉमीटर २६° ६७' और थर्मामीटर ६४° बतला रहे थे। किसी जमाने के इस राजकीय आवास में मैंने हनुमान दरवाजे से प्रवेश किया। यह दरवाजा यानिट के बड़े-बड़े पत्थरों से निर्मित दो विशाल छतरियों से बना हुआ है जो हजारों शरत्कालीन हवा के निर्मम झोंके खा-खा कर काली पड़ गई हैं। दोनों छतरियाँ ऊपर की ओर एक कमरे से जुड़ी हई हैं, जो रक्षकों के ठहरने के लिए बना हुआ था और दरवाज़ा नीचे के किले का प्रवेश द्वार है जिसकी टूटी-फूटी दीवारें इस विषम चढ़ाई में कहीं-कहीं दिखाई पड़ जाती हैं। दूसरे दरवाजे के पास ही सुन्दर चम्पा का पेड़ उगा होने के कारण वह चम्पापोल कहलाता है, परन्तु पहले से उसका नाम गणेश-द्वार (Gate of Wisdom) पड़ा हुआ है; यह दरवाज़ा किले के भीतरी हिस्से में जाने का है। इस पिछले दरवाज़े से अन्दर घुसते ही सबसे पहले जो चीज सामने पड़ती है वह पार्श्वनाथ का जन-मन्दिर है, जिसको मांडू के श्रेष्ठो ने अपने खर्चे से बनवाया था और जिसकी आजकल मरम्मत हो रही है। इसके खम्भे उसी भाँति के हैं जैसे अजमेर के प्राचीन मन्दिर के। ऊपर के किले के विषय में , मुंता नेणसी की ख्यात तथा बड़वों की पुस्तकों में 'हूण परमार' नाम लिखा है, परन्तु शिलालेखों में कोई नाम नहीं मिलता। सि. रा० इ०, पृ. १८८ । रा० प्रा० वि०प्र० से प्रकाशित मुंहता नैणसीरी ख्यात (मूल) में भी 'हूण' का उल्लेख नहीं है। . मालवा के सुलतान गयासुद्दीन के प्रधान अमात्य संघवी सहसा सालिग के पुत्र ने महाराव जगमाल (१५४०-१५८० वि०) के समय में यह मन्दिर बनवाया था, जिसकी प्रतिष्ठा श्री जयकल्याण सूरि ने सं० १५९६ वि० में कराई। -Holy Abu-Jayantavijai p. 145 3 किंवदन्ती है कि अजमेर का 'ढाई दिन का झोंपड़ा' मूलतः एक जैन मन्दिर था जिसको शाहबुद्दीन गोरी ने मसजिद में परिवर्तित करा दिया था। तब वहाँ की देव-प्रतिमा अजमेर की गोदा गली में नया मन्दिर बनवा कर प्रतिष्ठित की गई। वही यहाँ का प्राचीनतम मन्दिर माना जाता है। Ajmer; Harbilas Sarda; p. 447 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mitali परिश्मी भारत की यात्रा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण-५, कुम्भा राणा का महल [१७ कहते हैं कि उसे राणा कुम्भा ने बनवाया था', जब उसको मेवाड़ के "चौरासी किलों' से निकाल दिया गया था; परन्तु वास्तव में उसने अचलगढ़ के इस मध्यगृह का, जो एकाध छोटे-मोटे भागों को छोड़ कर बहुत प्राचीन है, जीर्णोद्धार मात्र कराया था। यहीं अनाज के वे भी कोठे हैं जो कुम्भा राणा के भण्डार कहलाते हैं, इनके भीतर की तरफ बहुत मजबूत सीमेण्ट पुता हुआ है परन्तु छत गिर गई है। पास ही, बायीं तरफ उसकी रानी का महल है, जो हिन्दुओं के जगतकंट 'अोक मण्डल' [ोखा मण्डल] की होने के कारण 'पोका राणी' कहलाती थी। दुर्ग में एक छोटी सी झील भी है जिसको 'सावन-भादों' कहते हैं; जुन मास के मध्य में भी पानी से भरी रहने के कारण यह पावस के इन दोनों प्रमुख महीनों के नाम को सार्थक करती है। पूर्व की ओर सब से ऊंची टेकरी पर परमारों की भय-सूचिका बुर्ज (Alarm Tower) के खण्डहर हैं, जो अब तक कुम्भा राणा के नाम से प्रसिद्ध हैं; यहाँ से तेज़ दौड़ने वाले बादलों को यदा-कदा चीरती हुई दृष्टि उस वीर जाति की बलिवेदी और महलों पर पड़ती है जिसने उस स्थल पर, जहाँ से मैंने निरीक्षण किया था, यात्मरक्षा के लिए अपना खून बहाया था। मुझे अन्तिम चौहान की सुन्दरी स्त्री इच्छिनी (Echinie) के वीर और बुद्धिमान् भाई लक्षण [लक्ष्मण ? ] २ की याद आई जिसका नाम उसके स्वामी के साथ दिल्ली के स्तूप पर अंकित है। लक्षण का नाम अमर हो ! सभी खाँपों के राजपूत अाज सात शताब्दियों बाद भी उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हैं और पश्चिम से प्राया हुआ वीरतापूर्ण कार्यों का प्रशंसक परदेशी भी देश एवं जलवायु के भेद-भाव को भूल कर उस वीर के यशोगान को अमर करने का प्रयत्न करता है, जिसकी गाथा को चन्द (बरदाई) ने गीतबद्ध कर दिया है तथा जिसकी याद इन काई से ढंके हुए खण्डहरों को देख कर हरी हो जाती है । ऐसे स्थल पर कोई भी [यात्री] हमारे प्रथम पुरातत्त्वज्ञ' के शब्दों में कह उठेगा, "इन भग्नावशेषों के ढेरों के बीच में खड़े हो कर किसका मन भारी (दखी) १ महाराणा कुम्भा ने १४५२ ई० (वि० सं० १५०६) में माघ सुदि १५ को अचलगढ़ के __किले का निर्माण कराया था।-Maharana Kumbha; Harbilas Sarda, p. 121 २ सम्भवतः ग्रन्थकार का तात्पर्य परमार सलख जैत्र के पुत्र लक्ष्मण से है। सलख जैत्र इच्छिनी का पिता था। -पृथ्वीराज रासो भा० १; साहित्य संस्थान, राजस्थान विश्वविद्यापीठ, उदयपुर; पृ० १२ टि०; पृ० ३०१ 3 यहां ग्रन्थकार का प्राशय किस पुरातत्त्वज्ञ से है, यह ज्ञात नहीं हो सका। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा न हो जायगा ? इन गहरे हरे पत्थरों में, जिन पर तुम चल रहे हो, उन टूटीफूटी चट्टानों के टुकड़ों में, जिन पर घनी जंगली बेलें फैल गई हैं और जहाँ कभी झण्डा फहराया करता था, कितने गौरवपूर्ण इतिहास छुपे पड़े हैं ? ये अनावृत छतविहीन प्रासाद, जिनमें से आज हम विनीत किन्तु आशापूर्ण हो कर निकलते हैं और मतकों एवं जीवित व्यक्तियों के प्रति उदार भाव धारण करते हैं, (हमारी) विचारशील दृष्टि के लिए कितने उत्कृष्ट विषय एवं विचारों के लिए कितने पवित्र अाधार उपस्थित कर देते हैं ?" जैसे ही सूर्य-देवता ने हमारे चारों ओर फैले हए बादलों के अन्धकार को छिन्न-भिन्न कर दिया वैसे ही इस मोहक (जादू भरे) प्रदेश का भू-भाग अपनी चरम सीमा तक प्रभावोत्पादक नज़र आने लगा, स्थान के प्रत्येक परिवर्तन के साथ नई-नई वस्तुएं सामने आईं। सबसे पहले, देलवाड़ा के जैन-मन्दिर (द० ८०° प० छः मील दूर) जिनके पीछे ही अर्बुदा माता का शिखर है; फिर, गुरुशिखर (उ० १५° पू० चार मील पर) तथा इस अप्सरा-देश की दूसरी बहुत सी चोटियाँ भी दृष्टिगोचर हुईं जिनमें से प्रत्येक के नाम के साथ कोई न कोई जनश्रुति सम्बद्ध है । तीन घण्टे की यात्रा के बाद अत्यधिक शीत से (जब कि थर्मामीटर ६४° पर बैठ गया था) मुझे वह उन्नत निवासस्थान छोड़ देना पड़ा; उसी समय मेरे मार्गदर्शक ने व्यङ्ग्यपूर्वक कहा, 'इन्द्र और पर्वत का झगड़ा बहुत पुराना है ।' उतराई में मैंने मेवाड़ के सुयोग्य वीरों के प्रतिनिधि राणा कुम्भा को अश्वाधिष्ठित पीतल की प्रतिमा को नमस्कार किया-इस राणा ने इन्हीं दीवारों में बहुत सी लड़ाइयों में लोहा लिया था। इसके पास ही उसके पुत्र राणा मोकल और पौत्र उदय राणा की भी मूर्तियाँ थीं-'जिस (राणा उदय) ने सैकडों राजाओं की कीर्ति पर कालिख पोत दी थी।' मैं उस कायर पथभ्रष्ट की मूर्ति के पास से हट गया जिसके विषय में बाबर के प्रतिद्वन्द्वी, उसी के वीर पौत्र साँगा ने कहा है कि 'यदि उदयसिंह पैदा न होता तो राजस्थान पर तुर्कों का आधिपत्य कभी न हो पाता।' वहीं पर एक चौथी मूर्ति राणा कुम्भा के पुरोहित की भी थी जो आकार-प्रकार में सब से विशिष्ट थी। इस विशेषता का ठीक-ठीक कारण तो मुझे ज्ञात न हो सका परन्तु सम्भवतः यह किसी वीर-कार्य के उपलक्ष में ही बनी होगी, क्योंकि समय-समय पर ब्राह्मण भी राजपूतों के साथ रह कर बराबर की तलवार बजाते रहे हैं । इन भग्न दीवारों के बीच में अतीत के शुभ कार्यों के निमित्त [इन प्रतिमाओं की] आज भी जो पूजा होती है वह देखने लायक है; अचलगढ़ के त्राता की प्रार्थनाएं होती हैं तथा नित्य केशर-चन्दन चढ़ाया जाता है; और, यह सब उसके वंशजों Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५; राव से पुन: भेंट [६९ द्वारा नहीं होता, जिन्हें उसके महान कार्यों का ज्ञान भी नहीं है, अपितु उसकी महानता एवं गौरव-गाथाओं से प्रेरित हो कर वे लोग पूजन करते हैं, जिनका उस से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । इन प्रतिमाओं पर छाया हुआ साधारण फूस का छप्पर हम को और भी उत्तम पाठ पढ़ाता है, जो शायद हम उस क्षण में न पढ़ पाते यदि वे किसी संगमरमर के मन्दिर में प्रतिष्ठित होतीं।। यहाँ की प्रत्येक वस्तु जैन है और वषभदेव' का मन्दिर दर्शनीय है क्योंकि इसमें चौबीस तीर्थंकरों में से पहले बारह तीर्थंकरों की मूर्तियां विराजमान हैं, जिन्हें 'देवत्व' (निर्वाण) प्राप्त हुआ था। इनका वज़न कई हजार मन बताया जाता है और ये सर्वधातुविनिर्मित हैं।' भीतर के किले के पास ही, नीचे की ओर बाँए हाथ चल कर पार्श्वनाथ का मन्दिर है जहाँ उनको प्रतिमा प्रतिष्ठित है । इस मन्दिर का निर्माण अथवा जीर्णोद्धार अणहिलवाड़ा के सुप्रसिद्ध राजा कुमारपाल ने करवाया था, जो इस धर्म का संरक्षक एवं जैनों के प्रभावशाली प्राचार्य हेमचन्द्र का शिष्य था । बाह्य रूप से मूर्ति-कला में विचित्रता है परन्तु इसकी बनावट में सौन्दर्य-भावना का ध्यान नहीं रखा गया है। दिन के एक बजे अचलगढ़ की तलहटी में बॅरॉमीटर २७° ४' और थर्मामीटर ७८° और तीन बजे बॅरॉमीटर २६० ६५' तथा थर्मामीटर ७८० बतला रहे थे; दिन के ग्यारह बजे एक विश्वासपात्र एवं समझदार नौकर को भेज कर गुरुशिखर पर पारे की स्थिति दिखाई गई तो नतीजा इस प्रकार था- बॅरामीटर २६०८६' और थर्मामीटर ६८०; पूर्व परीक्षणों की अपेक्षा परिणाम की इस भिन्नता के विषय में हम आगे लिखेंगे। दिन में कुछ ठंडक होने पर जब में शिकार के लिए इधर-उधर घूम रहा था तो राजपूती सैनिक वाद्यों की ध्वनि मेरे कानों में पड़ी और थोड़ी ही देर बाद देवड़ा राजा का लवाजमा [परिकर] पूरी रियासती शान-शौकत के साथ दष्टिगोचर हुआ--झण्डे लहरा रहे थे, ढोल और बाजे बज रहे थे--वे सब आमों की कुञ्जों से घिरे हुए अपने इष्टदेव अचलेश के मन्दिर की ओर आगे बढ़ रहे थे । इस दृश्य का उत्साहपूर्ण वातावरण वहाँ की स्वाभाविक स्तब्धता से सर्वथा भिन्न था, परमारों का भग्न दुर्ग उस दिन की याद कर रहा था--- • वृषभदेव अथवा, अपभ्रंश में, बृषभदेव का यही अर्थ है जो शंवों के नन्दीश्वर का, क्योंकि दोनों की प्रतिमा बल ही की है । यह जानने के लिए कि कोई जैन-मन्दिर किस तीर्थकरविशेष का है यह देख लेना पर्याप्त होगा कि उसकी चौकी पर कौनसा चिह्न बना हमा है, जैसे बैल, सर्प, शेर इत्यादि, क्योंकि प्रत्येक तीर्थकर का विशेष चिह्न होता है। २ इन मन्दिरों में कुल चौदह मूर्तियां हैं, जिनका वज़न १४४४ मन कहा जाता है । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] पश्चिमी भारत की यात्रा - "जब वह यौवन से भरपूर और गर्वोन्नत था, ऊपर झण्डे लहरा रहे थे और नोचे युद्ध चल रहा था; परन्तु जिन्होंने युद्ध किया था बे रक्त से सने कफन में दबे पड़े हैं और लहराने वाले (झण्डे ) चिथड़े चिथड़े हो कर मिट्टी में मिल गए हैं. a, टूटे फूटे किले की दीवारों पर भविष्य में कोई चोट न होगी” राव श्योसिंह ने, जो आबू और सिरोही का स्वामी था, मुझ से फिर मिलने की इच्छा प्रकट की परन्तु मैं उसको तथा उसके साथियों को इस थका देने वाली यात्रा का कष्ट देना नहीं चाहता था और साथ ही स्वयं भी (ग्रपने काम में ) बाधा से बचना चाहता था । परन्तु इसका कोई असर न हुआ और तुरन्त ही मेरी विचारधारा को भङ्ग करते हुए एक दूत ने आ कर सूचना दी कि राव मुझसे मिलने की इच्छा कर रहे हैं । कुञ्ज में पहुँचने पर मैंने देखा कि उसके जागीरदार दोनों तरफ़ श्रेणीबद्ध खड़े हैं- मैं उनके बीच में हो कर आगे बढ़ा तो महाराव मेरा स्वागत करने के लिए सामने या रहे थे । उन्होंने और उनके सरदारों ने मुझसे इस प्रकार श्रालिङ्गन किया जैसे पुत्र पिता से मिलकर करता है । यह सब हो चुकने के बाद उन्होंने मुझे अपने साथ गद्दी पर बैठाने के लिए आग्रह किया परन्तु मैंने इस सम्मान को विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया । इस पर उन्होंने कहा कि वे वाणी एवं शरीर से उस व्यक्ति के प्रति अपना आभार किस प्रकार प्रकट करें कि जिसने उनको एवं उनके देश को कष्टों से मुक्त किया था ? उन्होंने फिर कहा कि एक सच्चे चौहान की भाँति वे अपने देश के जंगलों में भीलों के साथ रह कर दिन काट लेते परन्तु जोधपुर की मातहती सहन कर के अपने को पतित न बनाते । मुझे इस अवसर पर वे और भी भले मालूम दिए— उनकी घबड़ाहट कम हो गई थी और अपने ही आबू के पवित्र वातावरण में वे स्वस्थता एवं वाणी की स्वतन्त्रता का अनुभव करते जान पड़ रहे थे। उनकी निजी एवं देश की भलाई के अतिरिक्त हमने और भी कितने ही विषयों पर बातें कीं जैसे, उनकी प्रजा का उत्थान, बेगार प्रथा को बन्द करना, व्यापारियों को सुविधा प्रदान करना, जंगली जातियों को दबा कर उन्हें शान्तिपूर्ण और नियमानुसार जीवन बिताने योग्य बनाना, आदि । फिर उनके पूर्वजों के इतिहास के विषय में बातचीत करते हुए हमने सुप्रसिद्ध सुरतान' के पराक्रमों का वर्णन किया जो उद्दण्डता में हमारे कैन्यूट से भी बढ़कर था और जिसने - ' सिरोही का राव ( १५७२ - १६१० ई० ) । • डेनमार्क का निवासी कॅन्यूट ( Canute or Knut the Great ) जो १०१६-१०३५ई० तक इंगलैण्ड का बादशाह रहा । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण -५; देलवाड़ा की यात्रा [१०१ "सूर्य को दण्ड देने के लिए उसकी ओर बाण चलाए थे ।" अन्त में, दोनों ही भोर से बहुत कुछ अाग्रह के साथ हम विदा हुए-उनकी ओर से यह प्राग्रह था कि मैं उन्हें कभी न भूलूं और अपने स्वास्थ्य के विषय में, जिसका उनको बहुत खयाल था, उपेक्षा न करूं'; मेरा कहना यही था कि वे अपने निज के प्रति सच्चे रहें। इसके पश्चात् सभी उपस्थित लोगों ने एक साथ गंभीर स्वर से मेरा अभिवादन किया। उनका यह परम हार्दिक स्वर झांक एवं ढोलक के वाद्य से प्रबल हो उठा था। जब राव और उनके सामन्तगण आबू के ढाल पर उतर गए तो में भी अचलेश के मन्दिर पर अन्तिम बार दृष्टिनिक्षेप करने एवं अपने मित्र महन्तजी से मिलने के लिए लौट पड़ा क्योंकि उनके चेलों में अब मेरी भी गिनती हो चुकी थी। मैंने प्रौपचारिक द्रव्य गोसाईंजी को भेंट किया। अग्निकुण्ड और आस-पास के मनोरञ्जक पदार्थों को देखते-देखते देलवाड़ा के लिए रवाना होने में तीसरे पहर बहुत देर हो गई थी और वहाँ तक मैं शाम होने पर भी न पहुँच सका। रास्ते में नीचे की ओर लगातार ऊँचे-नीचे स्थल थे और अचलगढ़ के बादलों में जुकाम लग जाने के कारण मेरी तबीयत बहुत नरम थी इसलिए मुझे सहायता के लिए 'स्वर्ग-वाहन' का सहारा लेना पड़ा। यात्रा समाप्त होते-होते हमें एक झील का चक्कर काटना पड़ा जिसके किनारों पर कनेर और सफेद गुलाब के फूलों को बहुतायत थी। उधर, एक सघन पीपल के पेड़ पर बैठी हई कमेडी' के एकाकी परन्तु मोहक स्वर से उस सुन्दर दृश्यावली की स्तब्धता मुखरित हो उठी थी जब कि अस्तोन्मुख सूर्य की रक्तिम रश्मियाँ आसपास की सघन वनावली को रञ्जित कर रही थीं। रात एक मन्दिर के पास खण्डहर में कटी, और जब मैं अपने घास के बिछौने पर से उठा तो मुझे बहुत तेज़ बुखार था- इतना तेज कि मैं बोल भी नहीं सकता था; मेरे मस्तिष्क की थकान ने शरीर को बहुत ज्यादा थका दिया था; परन्तु, काम अभी बहुत बाकी था क्योंकि यह पवित्र स्थान कितने ही पाश्चर्यों का केन्द्र था। मुझे उन मन्दिरों को देखना ही था जिनका उल्लेख पादरी [बिशप हंबर ने किया था और जिनके विषय में उसने कलकत्ते में रहने वाले मेरे एक मित्र के साथ हुए पत्र-व्यवहार के आधार पर सुन-सुना रखा थाउस मित्र ने उन बातों को दश वर्ष पूर्व एक पत्रिका में छपवा भी दिया था। यह खोज मेरी अपनी थी; आबू के सही स्थान और नाम का पता सबसे पहले मैंने 'कमेडी का नाम प्रेम के देवता 'काम' से निकला है, जिसके सभी चिह्न सार्थक है-धनुष, चमेली. गलाब और अन्य फलों के बाण, जिनमें हिन्द्र कवि कण्टक को स्थान नहीं देता है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा ही लगाया था, जब कि मेरे अन्यान्य देशवासियों के लिए तो ये सब स्थान ( अनिर्णीत श्रौर) अज्ञात प्रदेश मात्र थे - यदि इस विषय में मैं अपने स्वत्व के लिए कुछ ईर्ष्या भी करूं तो वही मेरे द्वारा किए हुए परिश्रम और मेरे स्वास्थ्य एवं धन की हानि का एक मात्र प्रतिफल होगा । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकररण ६ deerड़ा; वृषभदेव का मन्दिर; इसका इतिहास वर्णन; मन्दिर के उत्सव; शिलालेख; पार्श्वनाथ का मन्दिर; इसकी वास्तुकला और विवरण; इन विशाल स्थलों के विषय में विचार; श्राबू के कुटीर; फल और वनस्पति; अर्बुदा माता का मन्दिर; गुफाएँ; तलाब; अन्तिम उतराई का खतरा; गोमुख; वसिष्ठ का मन्दिर; मुनिपूजन; शिलालेख; धारपरमार की छतरी; पातालेश्वर का मन्दिर; मूर्तियाँ; विचारविमर्श; श्राबू को ऊँचाई; लेखक के बॅरामीटर की खराबी ; मिट्टी की किस्म; जंगल का रास्ता; बर्रो का श्राक्रमण; श्राबू की परिधि; घाबू और सिनाइ (Sinai) के प्राकृतिक दृश्यों में भिन्नता; लेखक के स्वास्थ्य पर चढ़ाई का प्रभाव | जून १४वीं - देलवाड़ा - सुबह सात बजे, दोपहर में और शाम को ४ बजे बॅरॉमीटर २७° २७°५' और २७°५' पर था और इन्हीं समयों पर थर्मामीटर क्रमशः ७२९, ८६° और ६०° बतला रहा था। दोनों के अंशों के उतार-चढ़ाव में जो भिन्नता है उससे स्पष्ट ही है कि जिस बॅरॉमीटर पर मैं विश्वास कर रहा था वह कितना गलत था और थर्मामीटर की स्थिति से उसका कोई मेल नहीं बैठ रहा था । परन्तु इन पारिभाषिक बातों को अभी रहने दीजिए और मेरे साथ जूते उतार कर देलवाड़ा के पवित्र मन्दिरों में घुसने के लिए तैयार हो जाइये । देलवाड़ा, यह 'देवलवाड़ा' का संक्षिप्त रूप है, जिसका अर्थ है ' देवालयों का स्थान' और इसीलिए यहाँ के अनेक मन्दिरों के इस समूह को यह नाम दिया गया है। अभी मैं इनमें से सर्वाधिक सुप्रसिद्ध मन्दिरों को ही चुनता हूँ । यदि पाठक सर्वप्रथम जैन तीर्थंकर वृषभदेव के मन्दिर के प्रवेश द्वार पर उपस्थित होने की कल्पना करें तो उन्हें बड़ा आनन्द आएगा । निस्सन्देह, यह भारतवर्ष के सभी मन्दिरों से उत्कृष्ट है और ताज़महल को छोड़ कर कोई भी ऐसी इमारत नहीं है जो इसकी समानता कर सके । जैनों के इस गौरवयुक्त स्मारक की समृद्धिपूर्ण सुन्दरताओं का वर्णन करने में लेखनी समर्थ नहीं है । इसको एक प्रतीव समृद्धिशाली भक्त ने बनवाया था और उसी के नाम से-न कि अन्तः प्रतिष्ठित देवता के नाम से - यह श्राज तक प्रसिद्ध है । भारतवर्ष के कोनेकोने से आकर्षित होकर यात्री यहाँ पर आते रहते हैं । विमलशाह, जो अपने इस कार्य से अमर हो गया है, अणहिलवाड़ा का व्यापारी था, जो किसी समय भारत का मुकुटमणि और जैन-धर्म का सुदृढ़ केन्द्र माना जाता था । अस्तु, यह इस नगर के सुदीर्घ कालीन प्रसिद्धियुग के अन्तिम दिनों की बात है कि जब ये दोनों इमा Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पश्चिमी भारत की यात्रा रतें खड़ी हुई और इन जैन-भक्तों के लिए तो, जिन्होंने भाट के शब्दों में 'अपने नश्वर धन से अमर कीति प्राप्त कर ली थी', यह और भी प्रसन्नता की बात थी क्योंकि इन मन्दिरों का ढाँचा मात्र ही खड़ा हो पाया था कि पश्चिमी भारत की राजधानी नष्ट कर दी गई, यहाँ के व्यापारियों को बाहर निकाल दिया गया और उनकी सम्पत्ति उत्तरदेशीय आक्रमणकारी के हस्तगत हो गई। निर्माण से पूर्व यह स्थान कट्टर शवों और वैष्णवों के अधिकार में था और तत्तद् धर्मावलम्बो अपने किसी भी विरोधी मतानुयायी जनों का हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकते थे; परन्तु 'नहरवाला' के साहुओं ने आबू के धरातल पर किसी अन्य स्थल की अपेक्षा इसी स्थान को अधिक उपयुक्त समझा और सार्वभौम राजा पर सुवर्ण का प्रभाव डालने का निश्चय किया अथवा, जैसा कि वे लाक्षणिक रूप में कहा करते हैं , 'उनके धर्म की विजय के लिए स्वयं लक्ष्मी ने योजना में योगदान किया।' उत्कोच की रकम बहुत भारी थी। उन्होंने अपनी आवश्यक भूमि को चाँदी के सिक्कों से पाट देना स्वीकार किया और यह ऐसा प्रलोभन था कि, बालशिव और विष्णु के आराधकों के अभिशाप को अनसुना करके परमार राजा का मन विचलित हुए बिना न रह सका और उसने जैन साहकारों से लाखों रुपये ले लिए । (तत्कालीन) राजा का नाम तो प्रकट नहीं किया गया है परन्तु मन्दिरों की निर्माण-तिथि से यही पता चलता है कि यह वही देवद्रोही धारावर्ष था जिसने शक्ति के 'खार' को जलाप्लावित करने का प्रयत्न किया था।' साहूकार भी लक्ष्मी के प्रति अकृतज्ञ नहीं हुए और उन्होंने दरवाजे में दाहिने हाथ की ओर ताक में उसकी मूर्ति प्रतिष्ठित कर दी। वृषभदेव का मन्दिर एक चौकोर चौक के बीच में अकेला स्थित है; चौक की लम्बाई पूर्व से पश्चिम एक सौ अस्सी फीट और चौड़ाई एक सौ फीट है। अन्दर की तरफ किनारे-किनारे कोठरियां बनी हुई हैं; लम्बाई की ओर उन्नीसउन्नीस और चौड़ाई की तरफ दस-दस कोठरियां हैं। प्रत्येक कोठरी को लम्बाईचौड़ाई बराबर-बराबर है । कोठरियों के सामने चारों तरफ एक चबूतरे पर दोहरा खम्भों वाली रविश बनो हुई है जो चौक की सतह से चार सीढ़ी जितनी ऊँची है; इनके बीच के खांचे भो इतने ही चौड़े हैं। इनके चार खम्भों के अतिरिक्त इनके व कोठरियों की बीच की दीवारों के अनुरूप ही दो-दो खम्भे और १ विमलशाह गुजरात के राजा भीमदेव सोलंकी का मंत्री था। उसीने यह मन्दिर वि० सं० १०८८ (१०३१ ई०) में बनवाया था। उसने यह भूमि तत्कालीन प्राबू के परर राजा घंधुक से ली थी। -सिरोही राज्य का इतिहास, पृ० ६१। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५, वृषभदेव का मन्दिर बने हुए हैं जिनकी छतें चपटी हैं । प्रत्येक कोठरी में प्रवेश द्वार के सामने ही एक ऊँची वेदी बनी हुई है जिस पर चौबीस जिनेश्वरों में से किसी एक की प्रतिमा विराजमान है। दो-दो खम्भों के बीच में अनुरूप स्तम्भों पर टिकी हुई मेहराबों से प्रत्येक कोठरी के लिए अलग-अलग ड्योढी सी बन जाती है और चार-चार खम्भों के बीच प्रत्येक विभाग पर मेहराबदार अथवा चपटी छतों के कारण ये और भी स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं । सम्पूर्ण मन्दिर स्वच्छ सफेद संगमर्मर का बना हमा है। प्रत्येक खम्भे, छतरी और वेदी की बनावट व सजावट अलग-अलग तरह की है और निर्माण-कला की बारीकी एवं समृद्धि वर्णनातीत है। प्रदावन कक्षों में से प्रत्येक का अध्ययन करने के लिए एक-एक पूरा दिन लगाने की प्रावश्यकता है और इसका खाका तैयार करने के लिए तो बहुत ही बारीक पेंसिल की अपेक्षा होगी। कहते हैं कि भिन्न-भिन्न कोष्ठों का निर्माण भिन्न-भिन्न नगरों के जैन-मतावलम्बी धनी व्यक्तियों ने कराया था, इसी कारण इनमें प्रत्येक की शैली और सजावट में भिन्नता पाई जाती है परन्तु सम्पूर्ण मन्दिर की अनुरूपता एवं सुडौल बनावट यह प्रमाणित करती है कि इसकी योजना एवं निर्माण किसी एक ही विशेषज्ञ के मस्तिष्क की उपज है; केवल दक्षिण-पश्चिमी कोने पर कुछ भिन्नता स्पष्ट रूप से लक्षित होती है, (सम्भवतः वह भाग किसी दूसरे ने निर्माण कराया हो।) वेदियाँ शुद्ध और सादे ढंग से बनी हुई हैं परन्तु खम्भों के काम पर धन, श्रम, कौशल और रुचि का खुलकर प्रयोग किया गया है। इनमें से प्रत्येक पर जैन वास्तुकलागत स्तम्भ-सम्बन्धी नियमों के उदाहरण मौजूद हैं। प्रत्येक कोष्ठ में उस व्यक्ति के इष्टदेव की मूर्ति विराजमान है, जिसके व्यय से उसका निर्माण हुआ है और निर्माणकाल • सम्बन्धी लेख प्रत्येक दरवाजे की देहली के अन्दर की ओर खुदा हुमा है। अब हम चौकोर पत्थर जड़े हुए चौक में उतरते हैं और इसको पार करके वृषभदेव के मन्दिर के सामने सभा-मण्डप में पहुंचते हैं। सब से पहले हिन्दूस्थापत्य (शास्त्र) में मण्डप शब्द का विवरण दे देना ठीक रहेगा । यह शब्द जैन-शैली की अपेक्षा शैव-पद्धति से अधिक सम्बद्ध है और सम्भवतः अपर शैली से ही जैनों ने इसको अपनाया है । मण्डप चाहे गोल हो या चौकोर और इसकी छत गुम्बदाकार हो अथवा पिरामिड की शकल की परन्तु वह खुले स्तम्भों पर टिकी रहती है। शव-मन्दिरों में यहां पर पार्षद बैल [नन्दी] रहता है और प्रधान देवता [शिवलिङ्ग अन्दर के कोष्ठ में विराजते हैं। जिस किसी ने पुखोली (Puzronli) के ज्यूपिटर सॅरापिस (Jupiter Serapis) के मन्दिर की ग्रीक लोगों ने मिस्र के एपिस (Apis) और मासिरिस (Ostis) के गुणों को Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा मूर्तिकला की आयोजना को ध्यान से देखा है वह शैव मन्दिरों से भलीभांति परिचित हो सकता है । जैन मन्दिरों के मण्डप में सजावट की कोई चीज नहीं होती; केवल भक्त लोग पूजा के लिए तैयार होने में ही उसका उपयोग करते हैं । प्रस्तुत मण्डप पर चौबीस फोट व्यास की एक अर्द्धवृत्ताकार छतरी है जो इसके अनुरूप ऊँचाई वाले स्तम्भों पर टिकी हुई है। ये स्तम्भ चतुष्कोण आकृति में अवस्थित होने के कारण, कोने के खम्भों को छोड़कर इन पर दोनों तरफ भारी-भारी भार-पट्ट रखे हुए हैं और इस प्रकार यह गुम्बद एक अष्टकोण प्राधार पर खड़ी हुई है। परन्तु, यह सब अन्दर से ही ऐसा दिखाई पड़ता है, बाहर से तो यह एक अण्डाकार गोला मात्र प्रतीत होता है, जिसका भार किसी आड़े आधार पर टिका है न कि केन्द्र पर । खम्भों का प्रत्येक युग्म एक तोरण द्वारा सम्बद्ध है जिसकी आकृति एक विशेष प्रकार की सुन्दरता लिए हुए है और जिस पर बहुत बारीक कुराई का काम हो रहा है। पूर्व, उत्तर और दक्षिण की तरफ के बीच-बीच के खम्भे मण्डप को रविश के खम्भों से मिला देते हैं और इस तरह मिलकर वे सब उस क्षेत्र की एक बगल को पूरा कर लेते हैं । खम्भों के बीच की जगह पर छाई हुई गुम्बददार अथवा चपटी छतें, जो बड़ी छत के चारों ओर घूम गई हैं, ध्यान आकर्षित किए बिना नहीं रहतीं। इनकी भीतरी सतह पर रामायण-महाभारत आदि महाकाव्यों में से अनेक कथाएं उत्कोणं हो रही हैं। इस प्रकार एक विचित्र ढंग से वे अद्वैतवाद और बहुदेवतावाद के मतों का समन्वय कर देती हैं; उधर, रासमण्डल में गोपियों से घिरा हुआ कन्हैया भी फूलों, फलों व पत्तियों की कारीगरी में उभार कर बताया गया है। पशुओं के चित्रों में यद्यपि आंखों को एक प्रकार की बेचैनी सी अनुभव होती है परन्तु निर्जीव पदार्थों के चित्रण में कट्टर से कट्टर आलोचक के ध्यान में भी कोई दोष नहीं आता। प्रवाहपूर्ण रेखाओं और गौरवपूर्ण झूमते हुए फूलों के सौन्दर्य को यूरोप के किसी भी ऊंचे दर्जे के कुराईकार का काम नहीं पा सकता। एक छोटी सी सोपान-पंक्ति द्वारा मण्डप से वृषभदेव के मन्दिर में जाना होता है । इसके तीन विभाग हैं-खम्भोंवाली रविश, अन्दर का दालान और तीर्थङ्कर का निज-मन्दिर । यहाँ, पूजा के विविध उपकरणों के कारण थोड़ी देर - मिला कर इस देवता का आविष्कार किया, जो उर्वरता का अधिष्ठाता या प्रतीक माना जाता है । इसकी मूर्ति दाढ़ीदार और सिर पर टोकरा लिए हुए है। इस देवता की पूजा का केन्द्र प्रलॅक्जेंण्ड्रिया में था।-N.S.E. p. III 8. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ६; वृषभदेव का मन्दिर [१०७ के लिए कला-निरीक्षण से ध्यान हट जाता है। पहली चीज जो मैंने अन्दर जाते ही देखी वह दो संगमर्मर को शिलाएं थीं- जिनमें से एक पर एक भक्त केसरियानाथ के चढाने के लिए केसर का उबटन तैयार कर रहा था। केसरियानाथ का नाम केसर के कारण प्रसिद्ध है; प्रार्थना, स्नान और धूप के बाद भक्त लोग उनको केसर अर्पण करते हैं। जैसे ही मैं इस विशाल कक्ष में प्रविष्ट हुआ, मैंने घृतप्रदीपों-युक्त झाड़ के शबलीकृत प्रकाश में, जो दिन के उजाले के साथ होड़ सी कर रहा था, अपने समार्ती' (Samartian) जैसे मित्र को देखा जिसने मुझे अपना तम्बू उधार दिया था। वह उस समय देव-प्रतिमा के सामने ध्यानमग्न था; कमर पर एक धोती के अतिरिक्त उसके शरीर पर और कोई कपड़ा न था; वह एक हाथ से धूपदान घुमा रहा था जिसमें गोंद, राल व अन्य प्रकार के धूमोत्पादक पदार्थ जल रहे थे । मुख के चारों ओर लिपटी हुई एक पट्टी से उसका मुंह ढंका हुना था जिससे कि वह अपने अपवित्र श्वास द्वारा देवता को अप्रसन्न न कर सके अथवा पूजा के समय किसी कीटाणु को नष्ट कर के शाप का भाजन न बन जाय । उसने मुझे देख लिया था और पहचान भी लिया था परन्तु वह अपना ध्यान छोड़ कर पूजा में व्यवधान डालना नहीं चाहता था; उसके मुखमण्डल पर दया और धार्मिक शान्ति विराजती थी जो बता रही थी कि उसका मानस पूर्णतया शान्त था। अन्दर के दालान में कुछ और मूर्तियां और बड़े-बड़े पीतल के घण्टे लगे हुए थे जो पूजा के समय बजते थे; एक तरफ लोहे की विशाल पेटी पड़ी हुई थी जिसमें रखी हुई चीजों से इस निम्नाण्ड अर्थात् मृत्युलोक की गन्ध पा रही थी। निज-मन्दिर में एक ऊंची वेदी पर वृषभदेव की सप्तधातुनिर्मित स्फटिकाक्ष विशाल मूर्ति विराजमान थी जिसके ललाट में बीचोंबीच बहुमूल्य हीरे का टीका सुशोभित था। ऊपर एक बहमूल्य सुनहरी जरी का चॅदोवा लगा हुआ था तथा सामने धूपदानों में धूप खेयी जा रही थी; परन्तु, कलाप्रेमी तो इस विशाल भवन में देवता के ध्यान से तुरन्त ही विरत हो जायगा, क्योंकि यद्यपि इसकी बनावट साधारण है फिर भी इसकी विशालता को देखते हुए आस-पास के अन्य नमूनों की तुलना में यह बहुत तुच्छ प्रतीत होता है । दालान में प्रतिष्ठित अन्य मूर्तियों के विषय में भी यही निर्णय दिया जायगा, क्योंकि अन्य सजावट के विषय में जो रुचि की विशुद्धता बरती गई है उसके अनुरूप ये मूर्तियाँ कदापि नहीं हैं। प्रकोष्ठों तक पहुंचने से पहले जो मेरी प्रशंसाएं अतिरञ्जना को प्राप्त हो चुकी थीं वे यहां आते ही सब ठप • पैलेस्टाइन में समारिया (Samaria) का निवासी। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] पश्चिमी भारत की यात्रा हो गईं; और क्या कहूँ, अगर-धूप का धुआँ, बुरी तरह घृत से भरे हुए दीपकों की रोशनी, दूषित वातावरण और जैनों के केसर [रियानाथ ] की भयावनी प्राकर्षणहीन प्राकृति - इन सब की उपस्थिति में मुझे लगा मानों में निर्दयी न्यायाधीश [ यमराज ] के समक्ष यमलोक में ही खड़ा हूँ। जब मेरा कुतूहल शान्त हुआ तो मैं शुद्ध वायु और विशुद्ध कला के क्षेत्र में निकल आया जहाँ पर मेरे मन की स्वस्थता फिर लौट आई; परन्तु संगमर्मर की फर्श में प्रतिबिम्बित होकर चकाचौंध पैदा करने वाली सूर्य की सीधी किरणों की दुखद अनुभूति के कारण मुझे रविश में जा कर शरण लेनी पड़ी। __ वृषभदेव की दाहिनी ओर चौक के दक्षिण-पश्चिमी कोने में एक बड़े और ऊंचे कक्ष में भवानी को प्रतिष्ठित कर के अणहिलवाड़ा के साहूकार ने अपना नाम अमर करने के साथ-साथ देवी के प्रति अपनी श्रद्धा भी प्रकट की है; पास ही के कक्ष में परम प्रसिद्ध बाईसवें जिनेश्वर नेमिनाथ, जो अरिष्टनेमि अथवा श्याम भी कहलाते हैं, विराजमान हैं । यह मूर्ति, जो बहुत विशाल और तीर्थकर के नाम के अनुरूप वर्ण वाली है, एक ही संगमर्मर के पत्थर की बनी हुई है। जो डूंगरपुर की खान से प्राप्त किया गया था। चौक से चल कर हम एक चौकोर कक्ष में जाते हैं जिसको नीची छत कितने ही खम्भों पर टिकी हुई है। इस कक्ष के द्वार पर ही वृषभदेव की ओर मुह किए हुए मन्दिर के निर्माता की प्रश्वारोही मूर्ति खड़ी है जो पुरुषाकृति से बड़ी है । उसके पीछे उसका भतीजा बैठा हुआ है और उस पर एक छत्र लगा हुआ है, जो उसके वैभव का प्रतीक है । वृद्ध साहूकार की वेशभूषा कुछ भद्दी सी है, उसके शिर पर पश्चिम-भारतीय अथवा अमरीकी भारतीय सरदार के मुकुट जैसी कोई चीज है; उसका भतीजा सेनापति के डण्डे जैसी कोई चीज उसको सौंप रहा है। सम्भवतः वह इस विशाल भवन की लागत के हिसाब का (गुलियाया हुआ) खर्रा हो। वणिकाज के चारों ओर दस गजारोही मूर्तियां और हैं जिनमें से प्रत्येक (सवार और हाथी की) मूर्ति को उँचाई छ: फीट है; ये सब मूर्तियां संगमर्मर की हैं और साधारणं बनी हुई है। यहाँ के लोगों का कहना है कि ये उन बारह यूरोपीय जातियों के बड़े राजाओं की मूर्तियाँ हैं जिनको विमलशाह ने स्वर्ण के बल पर यह शपथ दिलाई थी कि उसके हाथों हुए इस कार्य [मन्दिर] और यहाँ के देवता का वे सदा सम्मान करते रहेंगे । यह कहानी, जो खास कर यूरोपियों के झूठे गर्व की प्रशंसा में नहीं गढ़ी गई है, कितनी ही शताब्दियों से चली आ रही है और स्थानीय अन्य जनश्रुतियों को भांति सच्चे श्रद्धालुओं का पूर्ण विश्वास प्राप्त किए हुए है, जिनकी (अन्ध) श्रद्धा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६ ; विमलशाह की मूर्ति [ १०६ की मात्रा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कभी उन राजाओं की मूर्तियों को गिना तक नहीं जो विमलशाह की आज्ञा का पालन करने के लिए अपना राज्य छोड़ कर यहाँ चले पाए थे । जब मैंने उनको बताया कि जब तक वे साहु और उसके भतीजे को 'बर्बर राजाओं में सम्मिलित न कर लें तब तक उनकी संख्या दस हो रहती है तो उन्हें बहुत आश्चर्य हा। और जब मैंने फिर बताया कि उनमें से प्रत्येक नास्तिक के चार-चार हाथ थे तब तो उनसे कुछ भी कहते न बना; परन्तु यह स्वीकार करते हुए उन्होंने साहकारों को बर्बर-संगति से बचा लिया कि जिनके दो ही हाथ हैं वे राजा नहीं हो सकते । सुबह होते-होते एक नई कथा सामने आई और वे 'बारह राजा' साहूकार के 'कुटुम' [कुटुम्ब अर्थात् भाई-भतीजों और जामाता आदि में बदल गए। मैंने एक और ही सुझाव दिया, वह यह था कि यह शायद साह की वंशपरम्परा का कोई पौराणिक सन्दर्भ हो सकता है, जिसकी उत्पत्ति राजपूतों की चौहाण शाखा से है, जिनके देवता चतुर्भुज हैं और साहू को मण्डली के बीच में इसलिए रखा है कि उसने उनके वंश में एक महान धार्मिक कार्य सम्पन्न किया है। उन्होंने मेरे सुझाव के उत्तर में धीरे से केवल यही कहा 'भगवान जानें ।' अस्तु, कोई भी कारण हो, मूर्तिभञ्जक तुर्क को तो उसमें कोई रुचि थी नहीं, अत: उसने उपेक्षाभाव से उन राजाओं के चारों हाथ तोड़ दिए तथा केवल ठंठ छोड़ दिए जिनसे इतना सा ज्ञात हो सकता है कि ऐसी चीजें भी कभी थीं । निर्माता की अश्वारोही मूर्ति के पीछे ही कुछ फीट ऊँचा एक स्तम्भ है, जो तीन संगमर्मर की सीढ़ियों से युक्त वर्तुल पीठ पर खड़ा है। इसके तीन खण्ड हैं जिनमें प्रत्येक ऊपर का खण्ड नीचे वाले की अपेक्षा ऊपर की ओर उत्तरोत्तर पतला होता चला गया है। इस स्तम्भ पर अन-गिनत छोटे-छोटे ताक उत्कीर्ण हो रहे हैं जिनमें से प्रत्येक में कोई न कोई जिनेश्वर अपनी सहज ध्यानावस्थित मुद्रा में विराजमान है । इस प्रकार का स्तम्भ प्रायः सभी जैनमन्दिरों के साथ बना होता है; मेरी इच्छा होती है कि दिल्ली की कुतुबमीनार को में इसी की श्रेणी में रखू - यह कल्पना करते हुए कि इस्लामी कारीगरों ने अपर मीनार से अवाञ्छनीय मूर्तियों को हटाने के लिए ही उसे केवल कुराई के काम से सजा भर दिया है । चित्तौड़ के पहाड़ पर भी एक इसी तरह का स्तम्भ है जिसकी ऊंचाई ८० फीट है और उस पर मूर्तियाँ भी इसी तरह बनी हुई हैं। सब से ऊपर एक खुली गुम्बद है जो खम्भों पर स्थित है। मैंने वहाँ से कुछ शिलालेखों की नकलें ली हैं तथा उनके अनुवाद भी किए हैं। उनमें से एक में राणा कुम्भा के तिलक-व्यवधान का वर्णन है । जब उसको मेवाड़ से निकाल Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] पश्चिमी भारत की यात्रा दिया गया था तब उसने परमारों के बहुत दिनों से उजड़े हुए किलों पर सूर्य (वंश) का झण्डा फहराया था । यहाँ के प्रत्येक पत्थर में इतिहास भरा पड़ा है परन्तु उनका उपयोग करने के लिए भूत काल के विषय में पूरी जानकारी का होना आवश्यक है । वाणिकराज के कार्यों का अध्ययन करने में मुझे प्रायः एक महीना लग जाता परन्तु समय बहुत कम था और ऐसे ही श्रीर भी महत्त्वपूर्ण अन्य स्थान मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे । चौक पार कर के कुछ सीढ़ियों द्वारा हम सर्वाधिक प्रसिद्ध तेवीसवें जिनेश्वर पार्श्वनाथ के मन्दिर में पहुँचे जो पूर्वोक्त मन्दिर से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। इस मंदिर का निर्माण भी जैन- मतावलम्बी तेजपाल और बसन्त वस्तु ? ]पाल नामक वैश्यबन्धुत्रों ने करवाया था जो धारावर्ष के राज्य में चन्द्रावती नगरी के निवासी थे जब कि भीमदेव पश्चिमी भारत का सार्वभौम शासक था । इस मन्दिर का नक्शा और बनावट भी अन्य सभी उपकरणों सहित पूर्ववर्णित ( वृषभदेव के ) मन्दिर के नमूने पर निर्मित हुए हैं, परन्तु सब मिला कर यह उससे बढ़कर है । इसके वैभव में सादगी अधिक है, मण्डप के कामदार खम्भे अधिक ऊँचे हैं और अन्दर की ओर छत पर यद्यपि कुराई का काम उसी मात्रा में हो रहा है परन्तु कारीगरी, विशदता और परिष्कृत रुचि के विचार से यह उससे उत्कृष्ट है । गुम्बद का व्यास भी माप में दो फीट अधिक अर्थात् २६ फीट है; संगमर्मर भारी-भारी भारपट्ट भी पन्द्रह-पन्द्रह फीट लम्बे तथा ऊपर रखे हुए भार के अनुपात से ही ठोस एवं वजनदार हैं। खम्भों की पंक्ति भी पूर्व वर्णित प्रकार के अनुसार ही है और उसी तरह बीच-बीच के स्तम्भों द्वारा चौक से सम्बद्ध हो जाती है। बीच की गुम्बद तथा इसके आस-पास की छतरियों पर जो कुराई का काम हो रहा है उसकी महर्षता एवं विचित्रता का ठीक-ठीक वर्णन करना सम्भव है । विशाल छत से लटकते हुए एक भी लटकन की उपेक्षा करना हमारे लिए उचित न होगा, जिसका चित्रण करने में लेखनी चीं खा जाती है और गम्भीर से गम्भीर कलाकार की पेंसिल [ तूलिका ? ] को भी पूरा जोर पड़ता है । यद्यपि गॉथिक गिरजाघरों की दीवारों में उभरी हुई घोड़ियों से इनका कुछ कुछ साम्य है, परन्तु गॉथिक वास्तुकला की फूलपत्तीदार शैली में कोई भी ऐसी बात नहीं है जो इनकी महता के साथ तुलना में ठहर सके । श्राकार में ये तीन-तीन फीट लम्बे बेलन के समान हैं और जहाँ से ये छत से लटकते हैं वहाँ अर्द्धविकसित कमल के समान दिखाई देते हैं जिनके पल्लवों की गहराई इतनी बारीक, उज्ज्वल तथा शुद्ध रूप में दिखाई गई है कि देखते-देखते Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; पार्श्वनाथ का मन्दिर [ १११ माँखें वहीं अटक जाती हैं । भर्द्धगोलाकार गुम्बद एक ही केन्द्र से चली हुई घनोत्कीर्ण विभाजक रेखाओं द्वारा सम-विभागों में बंटा हुआ है जिनके बीच-बीच की जगह में भी सुन्दर एवं विशद कुराई का काम हो रहा है। एक विभाग में एक मद्यगोष्ठी का चित्रण है जिसमें सभी लोग मतवाले होकर वर्ष के प्रारम्भ में प्रानन्द मना रहे हैं, समस्त प्रकृति उत्सव-मग्न है, धनवान व्यक्तियों ने नव-वसन्त के उल्लास में लक्ष्मी का ध्यान भुला दिया है (अर्थात् खुले हाथों धन खर्च कर रहे हैं); सम्भवत: इससे निर्माता के नाम का सन्दर्भ समझाया गया है-वसन्तपाल अर्थात् वसन्त द्वारा पालित । एक अन्य विभाग में फलों, फूलों और पक्षियों से युक्त मालाएँ बनी हुई हैं, इनका काम ऊपर से नीचे तक बहुत ही स्पष्ट है और इसी में कुछ योद्धाओं की आकृतियाँ भी मौजूद हैं जिनमें से प्रत्येक एक ऊँचे पीठ पर अपने ढंग से खड़ा हुआ है-हाय में तलवार अथवा राजदण्ड है-ये सम्भवतः, अणहिलवाड़ा के राजा हैं। तुरन्त ही, तोरण हमारा ध्यान छत से अपनी ओर खींच लेता है । ऐसा प्रतीत होता है मानों यह दो समुद्री-परियों के मुखों से निकल पड़ा है, जिनके मुख उन स्तम्भों की ऊपरी चौकी पर उद्गत हुए हैं, जो मेहराब (तोरण) को अपने ऊपर साधे हुए हैं। इसका शाब्दिक वर्णन करना व्यर्थ है-अब, हमें मण्डप से मन्दिर की ओर चलना चाहिए। सीढ़ियाँ चढ़ कर हम जगमोहन (दालान) में आते हैं, जिसके दोनों बाजू एक-एक ताक बना हुआ है-वह प्राधा दीवार के अन्दर है और प्राधा बाहर निकला हुआ है। धरातल एक वेदी के रूप में है और छोटे-छोटे पवित्र स्तम्भ एक बहुत ही सुन्दर कामदार चँदोवे को साधे हुए हैं । बनावट अत्यन्त सादी है परन्तु इसे कोई भी चीज पा नहीं सकती; किसी भी रेखा अथवा तल में असमानता ढूंढने पर भी नहीं मिलती। छीनी का काम इतनी सफाई का है कि यह सब मोम में ढला हुआ सा प्रतीत होता है; अर्द्ध-पारदर्शक किनारे मोटाई में एक रेखा के चतुर्थांश भी नहीं हैं। इन ताकों पर सवा लाख रुपया अर्थात् लगभग बारह हजार पौण्ड व्यय हा बताया जाता है । अकेला एक व्यक्ति ही उस ज़माने में इतना धनवान था। आजकल तो अणहिलवाड़ा राज्य की पूरे वर्ष की आय में भी ऐसा एक मन्दिर न बन सकेगा। वेदी पर पार्श्व [ नाथ विराजमान हैं जिनका चिह्न सर्प है । यहां भी पूजा के उपकरण वही हैं; केशरार्पण-विधि, घृत-दीपों के झाड़, धूप, स्फटिक नेत्र, हीरे का टीका और प्रधान मूर्ति के चारों ओर अवर देवताओं की पीतल की मूर्तियाँ । ___ अब हम मन्दिर के चारों तरफ वाले चौक में चलें। इस चौक का क्षेत्रफल प्रायः पहले वाले चौक जितना ही है-शायद कुछ अधिक हो । दोहरे खम्भों वाली Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा रविश भी उतनी ही आकर्षक है परन्तु खम्भों में सादगी अधिक है । रविश की छत के विभागों में भी काम उतना ही मूल्यवान है परन्तु इनमें स्पष्टता अधिक है । छतों में (जिनकी संख्या ६० से कम नहीं हैं) जो कुराई का घना काम हो रहा है उसमें वन- देवों, देवताओं, किन्नरों और योद्धाओं के साथ-साथ जहाजें भी उत्कीर्ण हैं, जो इस बात की द्योतक हैं कि निर्माताओं ने समुद्री व्यापार के द्वारा ही वह अतुल धन राशि एकत्रित की थी; और उस समय, जब कि गौरवपूर्ण प्रणहिलवाड़ा नगर और उससे भी अधिक गौरवान्वित वहाँ के 'बाल्हाराय ' राजाओं की समृद्धि का सूर्य चरम सीमा पर चमक रहा था, उनके जहाज सभी पड़ोसी राज्यों में जाते थे और वहाँ का माल ला कर समस्त हिन्दू-भूमि (हिन्दुस्तान) में वितरित करते थे । जब मेरी दृष्टि प्रसन्नता के साथ इन हिन्दू महापोतों पर अटक रही थी तो इनके विवरण में वह कुछ ऐसी वस्तु पर जा अटकी जिसमें से एक शास्त्रीय बहु-देवतात्मक मन्दिर की गन्ध आ रही थी और यह बात किसी पाश्चात्य बुद्धि के समझ लेने के लिए बहुत ही रहस्यमयी थी । यहाँ, उस मिले-जुले जहाजी बेड़े में ग्रीक वन-देवता पॅन' की शकल दिखाई दी, जिसके शरीर का अधोभाग बकरे जैसा था और उसके मुँह में बांसुरी मौजूद थी । पूर्व की ओर रविश के खम्भों के मध्य भाग में सजावट है; वहाँ हाथियों का एक . जलूस बनाया गया है- -उन पर सवार, ढोल और पूरा साज-सामान मौजूद है; प्रत्येक हाथी एक ही संगमर्मर के पत्थर में कुराया गया है, जिसकी बनावट साधारण है और ऊँचाई चार फीट । सामने ही गोलाकार पीठिका पर स्थित एक वैसा ही स्तम्भ है जैसा कि पहले वाले मन्दिर में देखा था । विभिन्न प्रकोष्ठों में वेदियों पर विराजमान जिनेश्वरों की मूर्तियाँ ( जो प्रत्येक चार फीट के लगभग ऊँची है) सर्वथा दर्शनीय हैं। परन्तु इन मन्दिरों की विभिन्न विशेषताओं और समृद्धि का पृथक् पृथक् वर्णन करना बहुत कठिन है; और आबू का गौरव बने हुए, इन देवालयों के आस-पास निर्मित अन्य मन्दिरों की निर्माण कला का विवरण देना भी यहाँ पर असंगत-सा ही प्रतीत होता है, यद्यपि परिमाण में वे इन उपरिणित मन्दिरों से भी बड़े हैं । जैसे, उदाहरण के लिए, भीने-शाह (Bheenia Sah) (भीमा या भीना) का मन्दिर, जो निर्माता के नाम से ही आज तक प्रसिद्ध है, प्रकृति और शैली में अन्य मन्दिरों से सर्वथा भिन्न है; यह चार खण्ड ऊँचा और सादड़ी की घाटी वाले मन्दिर से मिलता हुआ है । कहते हैं कि इसमें प्रतिष्ठित जिनेश्वर की पीतल की मूर्ति १४४० ४ मन भारी है, जो १ ग्रीक चरागाहों और भेडों के गल्लों का देवता जो Arcadia (आर्केडिया ) में पूजा जाता है । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; देलवाड़ा के मन्दिरों पर विचार [ ११३ १०८,००० पाउण्ड के बराबर है। यह एक विशाल पीतल की पृष्ठभूमि पर ऊँची उभरी हुई है और प्राकृति में धर्मोपदेशक के समान लगती है। पृष्ठ-भूमि कितने ही विभागों में बँटो हुई है जिनमें अन्य तीर्थंकरों, मनुष्यों और पशुओं की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। यह सब समुदाय एक ही ढाँचे में ढला हुआ-सा प्रतीत होता है। कुछ और भी सप्तधातुनिर्मित मूर्तियाँ इस प्रधान मूर्ति के अगल-बगल में रक्खी हमने बिशॉप हैबर के वक्तव्य से प्रारम्भ किया था और उसी के साथ उपसंहार करेंगे। उनका कहना है कि उन्होंने जो कुछ जयपुर के महलों में देखा था वह, क्रेमलिन (Kremlin) और अलहम्ब्रा (Alhambra) दोनों से बढ़कर था; पश्चिमी मरु के किनारे पर पाबू के जैन-मन्दिर, जो उन्होंने नहीं देखे थे, सम्भवतः इन सब से बढ़कर हैं - यही मेरा भी मत है और मैं इसे दोहरा देता है कि सब मिला कर जो धन इन पर व्यय हुआ है तथा जिस कारीगरी एवं श्रम का इनमें उपयोग हुआ है उन सबको ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि केवल आगरे का ताजमहल ही एक ऐसी इमारत है जिसको इनसे बढ़कर बताई जा सकती है। फिर, यह अपनी-अपनी रुचि का विषय है, भले ही वे पॉथिनॉन' (Parthenon) और सेण्ट पीटर्स* (St. Peter's) के समान एक दूसरे से सर्वथा भिन्न ही क्यों न हों। विशालता और सुदृढ़ता ही कोई मुख्य मापदण्ड नहीं है। इनकी विशेषता तो सुडौल आकार और निर्माण की विचित्रता एवं महर्षता में है। खम्भों वाली बहिर्गत रविशं और गुम्बजदार छतें केवल निर्माताओं की अतुल सम्पत्ति का ही सूचन नहीं करतीं वरन् कला के उच्चस्तरीय परिपाक में भी प्रेरणा प्रदान करती हैं। पवित्र कला के पारखी को यह आशङ्का करने की आवश्यकता नहीं है कि विवरण की विविधता के कारण उसकी रुचि को ठेस पहुँचेगी अथवा कारीगरी की बारीकी के कारण यहाँ के गम्भीर-गौरव में कमी आ जायगी प्रत्युत इसके विपरीत यहाँ तो ऐसे-ऐसे उदाहरण मौजूद हैं कि विषयानुकूल कक्ष-विभाजन से भी सामञ्जस्य में कोई अन्तर या बाधा नहीं आ पाई है । जब हम विचार करते हैं कि यह समस्त गौरव मरु के किनारे एकाकी पहाड़ की चोटी पर बिखरा पड़ा है, जहाँ अाजकल थोड़े से सीधेसादे अर्द्धसभ्य लोग निवास करते हैं, तो इस साहचर्य से हमको आश्चर्य हुए बिना ' एथेन्स का देवालय। २ रोमस्थित संसार का सब से बड़ा कैथोलिक गिर्जाघर । यह १६६७ ई० में बन कर तैयार हुना था। इसकी विशाल और ठोस गुम्बद संसार-प्रसिद्ध है। -N. S. E.; p. 1030 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा नहीं रहता । असहिष्णु इस्लामी लोगों ने इन मन्दिरों के प्रति सहनशीलता क्यों बरती, इसका कारण इसके अतिरिक्त और कुछ समझ में नहीं आता कि वे एकेश्वरवादी हैं। इनके बचाव को एक चमत्कार कहा जा सकता है और सौभाग्य से अशिक्षित मरहठा एवं उसके असभ्य अनुयायी पठानों की तो ये पहुँच के बाहर रहे ही थे। ___मैं देलवाड़ा के आधे ही सौन्दर्य को देख पाया था कि दिन बहुत चढ़ गया; संध्या के हल्के प्रकाश से वह भू-भाग प्रावृत होने लगा था और पक्षियों के सान्ध्य-गान ने मुझे सचेत कर दिया था कि वसिष्ठ-मन्दिर की यात्रा के लिए प्रस्थान करने का समय आ गया था, जो अब भी पांच मील दूर था। इस यात्रा में मुझे प्राब्-क्षेत्र का सबसे अधिक मनोमोहक भाग देखने को मिला। इस भाग में खेती अधिक होती है, निवासियों की संख्या भी अधिक है और झरनों तथा वनस्पति की भी बहुतायत है; कहीं कहीं पर भूमि हरे-हरे गलीचों से सुसज्जित है और पग-पग पर, स्वाभाविक अथवा कृत्रिम, कोई न कोई आश्चर्यजनक वस्तु देखने को मिल ही जाती है। सदा की भाँति अदृश्य कमेड़ी अपना सहज स्वागत-गान सुनाती थी तो कभी कभी किसी घनी झाड़ी में से किसी श्यामा की स्पष्ट और पैनी चहक भी सुन पड़ती थी। वहीं से कोई निर्मल जल का सोता मन्द गति से बहता होता था - ये सब मिल कर मुझे उस विस्मृत प्रदेश की याद दिला रहे थे, जहाँ अब मैं लौट कर जा रहा था । भूमि का प्रत्येक खेतीयोग्य टुकड़ा मेहनत के साथ जोता गया था। इसी छोटे-से भू-भाग में मैं आबू की बारह ढाणियों में से चार में होकर गुजरा था। ये सब उस दृश्य के अनुरूप ही थीं; घर साफ-सुथरे और सुखप्रद, प्राकृति में झोंपड़ियों की तरह गोल, मिट्टी से लिपे और हल्के-हल्के रामरज से पुते हुए थे। प्रत्येक बहते हुए झरने के किनारे पर सिंचाई के लिए अरठ अथवा मिस्री - चक्र लगा हुआ था। पानी नजदीक होने के कारण बेरे (छोटे कच्चे कुए) अधिक गहरे नहीं खोदने पड़ते। इन कृषि-योग्य खेतों की बाड़ों पर, जो बहत कर के थूहर की होती हैं, जंगली गुलाब के गुच्छे के गुच्छे लगे हुए थे, जिनको यहाँ पर 'खूजा' (khooja) कहते हैं । इनके बीच-बीच में सेवती (शिवप्रिया) भी है जो भारत के बागों में बहुत मात्रा में लगाई जाती है । दाडिम के वृक्ष ग्रयानिट की पहाड़ी पर, जहाँ टूटी हुई चट्टान के अतिरिक्त मिट्टी देखने को भी नहीं थी, उगे हए थे और अपने नाम को सार्थक कर रहे थे।' कहीं-कहीं खूबानी १ अंग्रेजी में अनार या दाडिम के लिए Pomegranate शब्द है जो लैटिन के Pomum granatum से बना है । इसका अर्थ 'दानों या गुळों से भरा फल' होता है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; देलवाड़ा का दृश्य [ ११५ के पेड़ भी दिखाई पड़ते थे, जो फलों से लदे हुए थे परन्तु वे इतने कच्चे और हरे थे कि उन्हें देख कर यह प्रतीत होता था मानों वे कभी पकेंगे ही नहीं। लोग मेरे पास अंगर भी लाए, जिनकी आकृति से मुझे लगा कि वे · यहाँ पर बोए जाते हैं । ये (अंगूर या दाख) और चकोतरा, जिसे मैंने देखा तो नहीं परन्तु उन लोगों ने एक गहरी घाटी में बताया था, आबू के प्रधान फल माने जाते हैं। आम भी बहुत थे और लोबेलिया (Lobclia) जैसे नीले और सफेद सुन्दर फूलों के गुच्छों वाली एक घनी और सुन्दर बेल ने इनकी सेवार से ढकी हुई शाखाओं पर जड़ पकड़ ली थी। पहाड़ी लोग इस उप-पादप को [प्राम का उपजीवी होने के कारण] अम्बात्री कहते हैं, जो उनको बहुत प्रिय है क्योंकि मैंने देखा कि जहाँ कहीं यह उनके हाथ आता वे इसे तोड़ कर अपने पड़ों (काले बालों) में गूंथ लेते अथवा अपनी पगड़ी में खोंस लेते। नमी [आर्द्रता की अधिकता के कारण प्राय: पेड़ों पर घास अथवा काई का प्रावरण छाया रहता है और अचलगढ़ में तो ऊँचे-ऊँचे खजूर के पेड़ों की सबसे ऊपरवाली टहनियाँ तक इससे मँढी हुई थीं। काई अथवा घास के इसी जमाव में से ये उप-पादप फूट निकलते हैं। फूलों की तो यहाँ पर पूरी भरमार थी, जिनमें चमेली की और गुलाब की प्रायः सभी किस्में साधारण भाड़ियों की तरह उगी हुई थीं। सुनहरी चम्पा, जिसका पौधा फूल वाले पौधों में सबसे बड़ा होता है, जो मैदानों में शायद ही मिलता है और जिसके विषय में कहा जाता है कि वह अलोय की तरह एक शताब्दी में एक ही बार फल देता है, उसी चम्पा के पौधे यहाँ पर सौ-सौ गज की दूरी पर फूलों से लदे हुए लहलहाते थे और वायु को सुगन्ध से परिपूरित कर रहे थे। संक्षेप में यहाँ "सभी प्रकार की सुन्दरताओं का समूह, झरने और घाटियां, फल, वनस्पति [पत्रावली] चट्टानें, वन, अनाज के खेत, पर्वत, अंगूर की बेलें, और उजड़े हुए (स्वामिविहीन) किले थे, जो अपनी भूरी और पत्तं उगी हुई दीवारों में से गम्भीर बिदाई दे रहे थे और उनमें हरा विनाश निवास कर रहा था।" देलवाड़ा से कोई एक मील की दूरी पर आधे से भी अधिक रास्ते तक ऊँची चोटी पर चढ़ कर एक चट्टान थी; वहीं गहरी दरार के किनारे आबू की रक्षिका देवी का मन्दिर है (जिसे सभ्य लोग अर्बुदा माता अथवा बुद्धि के पर्वत की माता कहते हैं) जिसका आधा भाग पत्रावली से ढका हुआ है । एक छोटा-सा नाला उस दरार से निकल कर कितने ही चक्कर काटता हुआ पहाड़ी के पूर्वीय ढाल पर कैरली (Karilie) की घाटी में बहता हुआ कुछ दूसरी नालियों के साथ बनास में जा मिलता है, जो यहाँ पर पहाड़ी के छोर के बिलकुल पास ही बहती Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा है। हमने कुछ प्राचीन मन्दिरों और घरों के खण्डहर तथा गुफाएँ भी देखों जिनमें रह कर प्राचीन स्वर्णयुग के ऋषियों ने परब्रह्म' के चिन्तन में अपने जीवन व्यतीत किए थे । एक छायादार कुञ्ज में ऐसी सुन्दर कुटिया मिली जो मन को लुभाने वाली थी; कोई भी मनुष्य वहाँ के फल-फूलों पर जीवित रह कर पूरी गर्मी के दिन आनन्द से बिता सकता है ; हाँ, केवल पानी को, जो तीखापन लिए हुए है, कुछ शुद्ध करना पड़ेगा। थोड़ी ही दूर पर हमने नखो-तालाब देखा; यह लगभग चार सौ गज लम्बो बड़ी सुन्दर झील है, जिसका आनन्द लेने के लिए पूरे एक दिन की आवश्यकता थी परन्तु समय की तंगी के कारण मुझे इसकी झाँकी मात्र लेकर ही सन्तोष करना पड़ा। जिन्होंने राइन (Rhine) नदी पर एण्डरनॉच ( Andernach) से तीन मील ऊपर वाली झील को देखा है, मान लीजिए, उन्होंने इसकी प्रतिमूर्ति देख ली है । इसके चारों ओर चट्टानें हैं, जिनके किनारे तक जंगल आ गया है; जलमुर्गाब इसमें स्वच्छन्द विचरते हैं और दर्शकों का ध्यान भी इनको प्रोर कम ही जाता है क्योंकि इस पवित्र पहाड़ी पर शिकारी की बन्दूक और मछियारे के जाल को स्थान नहीं है; 'अहिंसा परमो धर्मः' यहाँ का सर्वोपरि आदेश है और इसकी अवहेलना का दण्ड मृत्यु है । इस झील का पानी अगाध बताया जाता है, परन्तु मुझे यहाँ ज्वालामुखी के लावा के चिह्न कहीं भी दिखाई नहीं दिए। दो तीन सीधे से ढाल उतर कर मैं उस चोटी पर पहुंचा जहाँ से वसिष्ठ के मन्दिर को रास्ता जाता है। मैं उस दृश्य के लिए बिलकुल तैयार नहीं था अथवा इसे देखने के लिए दिन के खुले प्रकाश की आवश्यकता थी। यहाँ पर मैंने गाड़ी छोड़ दी थी क्योंकि मैं उसमें बैठा-बैठा थक गया था इसीलिए मैंने यह उपाय किया। एक गहरी खोह हमारे सामने थी और चट्टान के टूटे हुए अस्त-व्यस्त पड़े पत्थरों के अतिरिक्त उतरने का और कोई सहारा नहीं था; हमारे और गम्भीर गर्त के बीच में एक पतली-सी चट्टान मात्र थी। मेरे वृद्ध गुरु, जो मुझसे थोड़े आगे चल रहे थे, बिलकुल थक कर बैठ गए थे। अपनी विचित्र स्थिति में वे पहाड़ी पथ-प्रदर्शकों को पकड़ कर बैठे हुए थे। परन्तु स्थानीय सभी बोलियों के जानकार होते हुए भी उन्हें अपनी बात न समझा सके । अन्त में, उन पथ-प्रदर्शकों ने गुरुजी की बात का सारांश निकाल लिया। वे पूछ रहे थे, “यदि संयोग से मेरा पैर फिसल जाय तो में कहाँ जा पड़गा?" इसका सीधा-सा उत्तर उन्होंने यह दिया "बाप जी ! आप तो लम्बे रास्ते चले जाओगे।" प्राबू के धरातल पर यही सबसे अधिक भयानक दृश्य है। आधा रास्ता उतर चुकने पर ऊपर से भयावनी चट्टानें लटकती दिखाई पड़ती हैं तो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा नखी सरोवर, आबू Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११७ नीचे देखने पर गहरी खाई सामने बनी रहती है, जिसमें बड़े-बड़े जामुन और इमली आदि के सघन पेड़ अन्धेरे में लिपटे हुए से खड़े हैं। घाटी से ऊपर की थोर पहाड़ी का मुख वादलों से ढका हुआ था इसलिए हम प्राय: दिन के अंतिम प्रकाश में टटोल-टटोल कर मठ के नगाड़े की आवाज के सहारे रास्ता ढूंढ रहे थे, जो गोमुख से प्रवाहित होकर नीचे के भरने में पड़ने वाले पानी के स्वर से प्रतिस्पर्धा कर रही थी । इसका प्रभाव वास्तव में बहुत अच्छा पड़ा। एक भो कदम यदि गलत पड़ जाय तो मनुष्य का पता कहाँ लगे ? फिर तो उसकी सभी शक्तियाँ व्यर्थ हो जायें । अन्त में, लोगों ने हमारा 'हल्ला' सुन लिया और उस अन्धकार में चिरागें दिखाई दीं, जिनके प्रकाश में वह पवित्र मन्दिर दृष्टिगोचर हुया । यात्रियों को उतरने में सहायता देने के लिए साधु चेले इधर-उधर फिरने लगे । सॅल्वॅटर रोजा' ( Salvator Rosa ) इस दृश्य को अपनी पैन्सिल की सर्वोत्कृष्ट चित्र रचना के लिए चुन लेता । गोमुख के पास पहुँच कर हम कुछ क्षण साँस लेने के लिए ठहरे और फिर थोड़ी देर में केलों की कुञ्ज में जा पहुँचे, जहाँ मेरे स्वागत के लिए पाल [ खुला तम्बू ] तना हुआ था । यद्यपि मैं बुरी तरह थक चुका था परन्तु उत्सुकतावश उस समय तक चैन न ले सका जब तक कि वसिष्ठ के मन्दिर को देख न लिया । मन्दिर की इमारत छोटी और साधारण है; बहुत पुरानी होने पर भी इसका जीर्णोद्धार इतनी बार हो चुका है कि मूल श्राकृति का तो कोई अंश मात्र प्रवशिष्ट रहा है । निज मन्दिर में अन्तिम छोर पर अंगरखे [लबादे ] से ढँके हुए व्यथित मुनि के शिरोभाग मात्र के दर्शन हुए। मूर्ति काले पाषाण की बनी हुई है और एक नीची सी वेदी पर विराजमान है | समस्त मन्दिर जगमगा उठा और वसिष्ठ की प्रसन्नता के लिए आश्रम - वासी स्तोत्र पाठ करने लगे । जूते [ बूट ] पहने हुए होने के कारण मैं द्वार के बाहर ही खड़ा रहा और रुचि के साथ उनके सुललित स्तोत्र को प्राद्योपान्त सुनता रहा । वृद्ध गुरु अथवा महन्त, जो प्राकृति में लम्बा और दुर्बल था, बरामदे में कृष्ण मृगचर्म पर बैठा था; ऐसा मालूम होता था मानों उसने अपने शरीर के मांस को वास्तव में निश्शेष कर दिया था, उसके सुपुष्ट और सुचिक्कण चिकने-चुपड़े चेलों के और उसके शरीर का यह अन्तर स्पष्ट था । उसकी जटाएँ उलझी हुई थीं, शरोर भस्म से प्रालिप्त था और वह इतना ध्यानमग्न था कि बाहरी वस्तु की ओर दृष्टि निक्षेप भी नहीं कर रहा था । आरती का दृश्य प्रकरण . ६; वसिष्ठ का मन्दिर १ कार्ड बोर्ड के डिब्बों और इत्रदानों आदि पर चित्रों और विविध डिज़ाइनों को बनाने वाला एक प्रतिभाशाली कलाकार । पेरिस के Louvre Museum में इस कलाकार के बहुत से चित्र संगृहीत हैं । — A Guide to the Louvre - L. D. Luard, 1923 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बहुत ही प्रभावपूर्ण था और जब यह समाप्त हुई तो सभी शिष्यों ने बारी-बारी से गुरु के चरणों में दण्डवत् (dandhote) की। इससे निवृत्त होकर वे दो-दो चार-चार की टुकड़ियों में अग्नि (धूनी) के चारों ओर इकट्ठे हो गए (जो ठंडी और नम हवा के कारण आवश्यक थी) और विशाल धर्मशाला के फर्श पर समय काटने लगे। मैंने अपनी भेट मेरे गुरु के द्वारा वृद्ध योगी के चरणों में चढ़वाई और अन्य सन्तुष्ट साधुओं को वहीं फर्श पर कलोल करते हुए छोड़ कर बाहर आ गया क्योंकि यद्यपि उनके शरीरों पर भस्म पुती हुई थी परन्तु उनके मोटेताजे शरीरों से यह स्पष्ट था कि उनकी तपस्या सच्ची नहीं थी। यदि नीचे के मैदान में, जहाँ थर्मामीटर १३५० पर था, वे आग जला कर उसके चारों ओर बैठते तो उसका कुछ मूल्य भी होता परन्तु यहाँ तो तापक्रम ७० ही था और बादल घिरे हुए थे, ऐसे स्थान पर यह अग्नि एक विलास का साधन मात्र थी।' मन्दिर के प्रवेश-द्वार की दोनों बाज़ काले संगमर्मर के पत्थरों पर दो परे शिलालेख थे (जिनकी प्रतिलिपि परिशिष्ट में दी गई है) उनकी नकल करने के कामों में गुरुजी को लगा कर में टॉर्च की रोशनी से चारों ओर के हिस्से को देखने लगा। पहली ही वस्तु जो बहुत रुचि की थी - वह अन्तिम परमार की छतरी थी, जो एक पतले से मार्ग द्वारा मन्दिर से पृथक बनो हुई थी। इस पर एक अण्डाकार गुम्बद खम्भों पर टिका हुआ है, नीचे एक वेदी पर परमार की मूर्ति खड़ी है, जो मुनि के प्रति विनयावनत है । पीतल की बनी हुई लगभग साढ़े तीन फीट ऊँची इस मूर्ति की ओर भी मुसलमान का ध्यान गए बिना न रहा और उसने धन की खोज में इसकी जांघ पर कुल्हाड़ी का वार कर ही दिया । शिलालेख से विदित होता है कि मुनि ने आबू के प्रति किए हुए पूर्ववणित दोहरे अपराध के कारण धारावर्ष की विनती पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस पवित्र पर्वत पर राज्य करने वाला वह अपनी शाखा का अन्तिम राजा था, परन्तु इतिहास में धार परमार के नाम का अब भी सम्मान है और पहाड़ों के निवासी उसे इसी नाम से पुकारते हैं; उसके शत्रुओं के इतिहास में भी बादशाह कुतुबुद्दीन के विजेता के रूप में उसका उल्लेख प्राप्त है जो उसके देश-प्रेम और पराक्रम का साक्षीभूत है। वह अल्तमश के समय तक पूर्णरूपेण सल्तनत की शक्ति के आधीन भी उस समय तक नहीं हुआ था जब तक कि नाडोल के चौहान विरोधी शक्ति से न जा मिले और उन्हीं की एक शाखा देवड़ा आगे , योगियों की तपस्या का एक यह भी प्रकार है कि वे वर्ष के उष्णतम महीनों में अपने चारों ओर भाग जला लेते हैं और बीच में बैठ कर एक बड़े चिमटे से उसमें लगातार इंधन डालते रहते हैं। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; वसिष्ठ का श्राश्रम [ ११e चलकर परमारों की वंश-परम्परा में आरूढ हुई । इन शिलालेखों में प्रथम देवड़ा के किए हुए पट्टे उद्धृत हैं, जिनमें उसने अपने पूर्ववत्तियों द्वारा प्रदत्त भूमि एवं अधिकारों को स्वदत्त विशेष दान के साथ चालू ( बहाल ) रखा है। चौक के दाहिने सिरे पर हिन्दुओं के प्लूटो ( Pluto) देवता, पातालेश्वर का छोटा-सा मन्दिर है जो धरातल से कुछ सीढ़ियां नीचा है; इस देवता के निवास की पैशाचिक गम्भीरता से युक्त कोई भी प्राकर्षण की वस्तु मन्दिर में नहीं थी, केवल कुछ उपदेवों की छोटी मूर्तियों के साथ पातालेश्वर की मूर्ति एकाकी दीपक के मन्द प्रकाश में दिखाई पड़ रही थी । एक वेदी पर जिस पर आसमान की ही छत है, कितनी ही देवमूर्तियां विराजमान हैं जिनका ऐहिक निवास स्थान नष्ट हो चुका है। इनमें से यमुना के नाथ श्याम की मूर्ति बहुत सुन्दर बनी हुई है; इसी प्रकार के दो खम्भे भी हैं; इनकी ऊँचाई दो-दो फीट है और ये कितने ही विभागों में बँटे हुए हैं, जिनमें देवताओं की उभरी हुई मूर्तियां बनी हुई हैं । यदि ये सिलेनी Sileni ' की भांति के होते तो इन्हें सर्वोत्कृष्ट कहा जा सकता था। चौक के मध्य में दो पौराणिक मूर्तियां और हैं, जो हिमाचल के पुत्र, नन्दिवर्द्धन एवं उसके मित्र सर्प की बनाई जाती हैं । यह वही सर्प है जिस पर वह बैठा हुआ है और जिसने, आपको याद होगा, इन्द्र के वज्र की चोट से बने हुए गड्ढे को भरने के लिए हिमालय के वंशज को प्रेरित किया था । इसके पास ही कुछ सतियों के स्मारक स्तम्भ हैं जिन पर बढ़िया कुराई का काम हो रहा है और जो चन्द्रावती के ध्वंसावशेषों से लाए गए हैं । प्राचीन मुनि वसिष्ठ के श्राश्रम में जो कुछ देखने योग्य था वह सब देखभाल कर मैं अपने डेरे में लौटा। उस समय शारीरिक एवं मानसिक उत्साह के साथ में पूरे सोलह घंटे व्यतीत कर चुका था और अब ज्वर, सर्दी एवं थकान के कारण पस्त था । यद्यपि हरी चाय का एक प्याला उस समय अमृत के समान लगा था परन्तु वह मेरी चेतना को विस्मृति में न धकेल सका । श्राबू की सम्पूर्ण प्रकृति में कोई बदल दिखाई नहीं देता था; तेज़ हवा प्रत्येक घाटी से ऊँचे-ऊँचे वृक्षों अथवा हज़ारों झण्डों के समान लहराते हुए केले के पत्तों को स्पर्श करती हुई आ रही थी, जिसमें निरन्तर बदले हुए जलप्रपातों का एकान्त " ग्रीक पौराणिक गाथा के अनुसार पर्वतों और वनों का देवता जो डायोनीसस ( ई०पू० ४३० - ३६७) का मित्र और अध्यापक था । -The Oxford Companion to English Literature, p. 724. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] पश्चिमी भारत की यात्रा स्वर भी सर्वोपरि (Super-added) योग दे रहा था। परन्तु, अावाज के इस झमेले में भी परमपिता की स्तुति करते हुए साधु-बन्धुओं का समवेत स्वर सुनाई दे रहा था जो इस दृश्य में (Inharnionious) बेमेल प्रतीत नहीं होता था। पर्वतीय एकान्त में इस साधना के वातावरण से शान्त-भावनाएँ उदबुद्ध हो रही थी और मुझे मेवाड़ के राणा राजसिंह के ये शब्द याद पाए 'मस्जिद में मूल्ला की बांग सूनो अथवा मन्दिर से घण्टों को आवाज, दोनों का लक्ष्य एक ही परमात्मा है।' ऐसी ही स्थितियों में हमें अलौकिक देवी सुरक्षा के मधुर प्रभावों की अनुभूतियाँ होती हैं-जिनको छाप भावी जीवन से दूर नहीं होती और यह शिक्षा मिलती है कि नित्य-प्रति की मानवीय [भौतिक] वाञ्छाओं से परावृत्त होकर उस पथ से विलग होना चाहिए जो समस्त सांसारिक भोगों के लिए कितना ही महान् क्यों न हो परन्तु वही जीवन का चरम लक्ष्य नहीं है । यहाँ एकान्त नहीं है वरन् ऐसा प्रतीत होता है मानों प्रकृति अपनी सुन्दरतम कृतियों को लेकर सम्भाषण कर रही है। इसी मनोदशा में मेरा ध्यान रामायण के रात्रि वर्णन की ओर गया-रामायण, जो संसार में प्राचीनतम काव्य है, जिसकी रचना राम के आध्यात्मिक गुरु वाल्मीकि ने की है। प्राचीनकाल में ऐसी प्रथा थी (जो अभी विलुप्त नहीं हई है) कि राजा एवं सामन्त लोग निज के तथा अपने परिवार के लिए ऋषियों की कुटियों में जा कर नैतिक आदेश ग्रहण किया करते थे; यह उस समय का सुन्दर वर्णन है जब कि दोनों रघु-पुत्र राम और लक्ष्मण वाल्मीकि के आश्रम में गए थे और उन्होंने उनके पूर्वजों के पराक्रम का गान किया था। 'हे राघव ! आपका कल्याण हो, आप शयन करें, आपको निद्रा में कोई विघ्न न हो; सभी तरुवर निष्पन्द हैं, पशु-पक्षी निद्रामग्न हैं और प्रकृति का मुख रात्रि के अन्धकार से अवगुण्ठित है। संध्या धीरे-धीरे रात्रि में परिणत हो गई है और गगनाङ्गण में ज्योतिर्मय आकाश-गंगा एवं तारा-समूह चमक रहा है, मानों आकाश आँखों से भरा हुआ है । संसार से अन्धकार को भगाने वाले [चन्द्रमा] का उदय हो गया है और प्रफुल्ल रात्रि प्रानन्द से परिपूर्ण है ।" । ___ इन्हीं विचारों में डूबता-उतराता हुआ मैं सो गया और जब जागा तो वही समवेत-गान (Chrous) चल रहा था, परन्तु वह मुनि की स्तुति में था या कुबेर (पातालेश्वर) की प्रार्थना में अथवा अन्य किसी महान देवता के स्तवन में-इसकी मैंने पूछताछ नहीं की। प्रातःकाल सात बजे धुन्ध छाई हुई थी * Book 1. Sec. 30, Carcy and Marshman's Translation, 1808. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण -६; उतराई [ १२१ जिससे सदैव हरियाली से ढंका रहने वाला वह मठ भी सूखा और ऊजड़-सा दिखाई देने लगा। मैं पहाड़ के किनारे-किनारे मोड़ खाते हुए बाग में टहलने लगा जिसमें केवल कुछ साधारण से कन्द और शाक ही लगे हुए थे। मेरा विश्वास था कि सूर्य देवता के उदित होते ही धुन्ध तिरोहित हो जायगी और मुझे कुछ और और दृश्य देखने को मिलेंगे, परन्तु मेरी यह आशा व्यर्थ गई। ___यह मन्दिर सुसम्पन्न है और यात्रियों के उत्साह से यहां के निवासियों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती है। अभी हाल ही में सिरोही के राव श्योसिंह ने इसके जीर्णोद्धार में दस हजार रुपये खर्च किए हैं और आबू की (Cybele) अधिष्ठात्री दुर्गादेवी के एक स्वर्णच्छत्र चढ़ाया है; परन्तु, बेरूर (Berrur) के राणा ने देवी के सम्पूर्ण चढ़ावे में से बंटवारे का बहाना करके देवड़ा राजा की भेंट को वहां से हटा दिया और. प्रत्यक्ष में, देवता के माल को चोरी होने से बचाने की युक्ति अपने लाभ के पक्ष में प्रस्तुत की। जून १५वीं; जिस बॅरॉमीटर पर मुझे पूरा भरोसा था वह अचलेश्वर से चलते ही टूट गया। वहां इसमें और बचे हुए बॅरॉमीटर में १°४०' से कम का अन्तर नहीं था क्योंकि टूटने वाले में २६.६५' और दूसरे में २५०५५' के अंक थे । वसिष्ठ के मन्दिर पर इसमें २६°२०' तथा थर्मामीटर में ७२. पढ़े गए थे अतः आबू की ठीक-ठीक ऊंचाई ज्ञात करना अभी बाकी ही रह गया था; इसका शोधन या तो समुद्र के तट पर पहुँचने पर हो सकता था अथवा इसकी सचाई जाँचने के लिए और कोई दूसरा उपाय करने पर । अस्तु, इसके द्वारा व्यक्त की गई ऊंचाई का मेल मेरे उस मोटे अनुमान से बैठ जाता है जो मैंने समय-समय पर चढाई करते समय, दृष्टि के अनुमान से अथवा आसपास की भूमि पर दृग्विस्तार करके लगाया था । सुबह आठ बजे हल्के-हल्के बादलों में हमारी उतराई शुरू हुई। हमारा रास्ता क्रमशः ढालू था जिसमें कई सौ गजों तक राहतियों द्वारा खेती के लिए जमीन निकालने को काट-काट कर गिराये हुए पेड़ों के कारण जगह-जगह रुकावट पाती रही। लोहे का खुरपा, जिससे जमीन में बीज (विशेषतः मक्का) के लिए गड्ढा करते हैं, यहां पर हल का स्थान लिए हुए है। उतराई के लगभग एक तिहाई रास्ते तक उन फलों को बहुतायत रही जिनको हिन्दुस्तान में फालसा ओर करौंदा कहते हैं । आगे चलकर सहसा इनके दर्शन दुर्लभ हो गए। अतः इस स्थान को उसी धरातल पर समझना चाहिए जहां पहले मैंने इन (फलों) को चढ़ाई में देखा था और जहां पर रोगी बॅरॉमीटर ने २७°३५' Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अंश बताए थे। बहुत सी कुब्बेदार जड़ें बाहर निकल आई थीं और मुझे लोगों ने बताया कि एक पखवाड़े में अच्छी तरह वर्षा हो जाने पर तो भूमि फूलों से सजड़ हो जावेगी । 1 ग्यारह बजे ( दिन); हम लोग पर्वत की तलहटी में तालाब पर जा पहुँचे जहाँ मिलने के लिए मैंने अपने आदमियों को प्राज्ञा दी थी; परन्तु वहां न आदमी दिखाई दिए न घोड़े और मुझे गिरवर के सरदार का आभार उठाना पड़ा जिसने सौजन्यवश अपने दो घोड़े मेरे साथ कर दिए थे । एक पर मैंने अपने वृद्ध गुरु को चढ़ा दिया और दूसरे पर एक लंगड़े नौकर को बैठा दिया । मैं गिरवर के जंगल को छान कर चार मील दूर हमारे पड़ाव के स्थान को ढूंढने के लिए अपनी 'स्वर्गीय गाड़ी' पर बना रहा। मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ कि यह घना जंगल आबू की तलहटी के किनारे-किनारे चला गया है; इसको पार करते समय मेरे साथियों की इस छोटी सी टुकड़ी को उसी दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा जिसका शिकार गुजरात का बर्बर सुलतान' हो चुका था । एक ऊंचे पेड़ से, जो अपनी कोढिया छाल के कारण 'कोढ' कहलाता है, तीव्र क्रोध में भरा हुआ बर्रों का दल निकला और प्रत्येक व्यक्ति पर टूट पड़ा। सबको अपने-अपने प्राणों की पड़ी थी । वृद्ध गुरु ने जॉन गिल्पिन ( John Gilpin) की तरह हिम्मत करके अपने घोड़े के एड़ लगाई और हवा में उड़ते हुए उनके सफेद वस्त्रों में वे टूटे तारे के समान दिखाई दिए; सिपाही ने अपनी बन्दूक भी फेंक दी कि उसे दौड़ निकलने में सुभीता मिले; 'स्वर्गीय गाड़ी' और उस पर १ महमूद बेगड़ा । विलियम कूपर (William Cowper) की प्रसिद्ध व्यंग्य - हास्य- प्रधान कविता का पात्र । गिल्पिन लन्दन का रहने वाला था और श्रोलनी (Olney) के निकट उसकी जायदाद थी जहाँ विलियम कूपर १७८५ ई० में निवास करता था । कवि ने वर्णन किया है कि अपने विवाह की २० वीं वर्षगांठ मनाने के लिए जॉन गिल्पिन और उसकी पत्नी ने एडमन्टन नामक स्थान पर जाने का विचार किया । मार्ग में गिल्पिन का घोड़ा बिगड़ गया और एडमन्टन से भी आगे दस मील तक दौड़ता चला गया जहाँ से उसे वापस लौटना पड़ा । रास्ते में गिल्पिन की दशा बड़ी विचित्र हो गई थी जिसका वर्णन परम हास्यप्रद है । कूपर को गिल्पिन की कहानी लेडी ऑस्टिन (Lady Austen ) ने सुनाई थी जब वह परम उदास था। इस कहानी को सुन कर वह रात भर हँसता रहा और प्रातः उसने इसको कविताबद्ध कर दिया। The Oxford Companion to English Literature, Paul Harvey, P. 41IS. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ५; श्राबू की परिधि [ १२३ करके सवार मुझको भी छोड़ कर वे लोग भाग गए और यदि एक नौकर दया मेरे ऊपर अपनी चट्टर न डाल देता तो में तो दोनों तरफ से मारा जाता- एक तो इतना बीमार था कि भाग कर बच नहीं सकता था, फिर ऊपर से बरें खा जातीं । कुछ तो इस चद्दर के कवच के कारण और कुछ, जैसा कि राहतियों ने कहा, अचलेश्वर के भेंट चढ़ाने के कारण मेरे एक भी डंक नहीं लगा । जिधर से हमला हुआ था उधर से शत्रुओं की भिनभिनाहट कम होने तक प्रतीक्षा करके वह लंगड़ा नौकर ठाकुर की घोड़ी पर यद्यपि वह पेट में बच्चे के कारण मोटी हो रही थी, पूरी तेजी के साथ 'अली मदद, अली मदद' चिल्लाता हुआ भागा। वह भटियारा बिना पगड़ी या साफे के ही भागता चला गया और बाद में मुझे एक सिपाही को डोली लिवा लाने के लिए भेजना पड़ा क्योंकि बर्रों ने उसे इस बुरी तरह काट लिया था कि वह हिल-डुल भी नहीं सकता था । ० दोपहर में हम गिरवर पहुँचे जहाँ मुझे मालूम हुआ कि मेरा लश्कर पालड़ी से उसी समय वहाँ पहुँचा था । यहाँ बॅरामीटर २८ ६०' पर था जब कि पालड़ी में (जहाँ से चढ़ाई प्रारम्भ होती है) यही यन्त्र २८०४० बतला रहा था; इन परिणामों से इसका मूल्य तुरन्त आँका जा सकता था । मैं अन्यत्र बता चुका हूँ कि यहाँ के लोग आबू की बाहरी परिधि का अनुमान बीस से पचीस कोस अर्थात् चालीस से पचास मील का लगाते हैं । इस अनुमान की सचाई का पता लगाने के लिए मैंने एक मोटा सा खाका नीचे दिया है जो गुरुशिखर से वसिष्ठ के मन्दिर अथवा उतार की तलहटी में तालाब तक पहुँचने के मार्ग के आधार पर बनाया गया है; यह बिलकुल सही है, यह तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु इससे एक ख़्याल बनाया जा सकता हैं । इस रेखा की सामान्य दिशा दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम है और इसके सभी मोड़, उतार-चढ़ाव व ऊँचाई को ध्यान में रखते हुए ग्यारह कोस अथवा बाईस मील का अनुमान बैठता है; परन्तु हम गुरु-शिखर से मैदान तक के सीधे उतार के लिए, यदि यह संभव हो, दो कोस और जोड़ देते हैं, इस तरह इस पर्वत का विस्तार तेरह कोस या छब्बीस मील आता है। अब, यदि इसमें से एक तिहाई भाग कम कर दें तो तलहटो पर का सीधा विस्तार ज्ञात हो जायगा जो इसकी अनुमानित बड़ी से बड़ी परिधि हो सकता है, परन्तु मेरी समझ से यह बहुत ज्यादा है । सम्भवतः यदि हम उत्तर में गुरु शिखर से दक्षिण में वसिष्ठ के मन्दिर तक की सीधी रेखा को आबू का सीधा समतल भाग मान कर अनुमान लगाएं तो अधिक सही परिणाम निकल सकेगा । यह रेखा श्राठ कोस या सोलह मील की है - उतार-चढ़ाव व ऊबड़-खाबड़ भूमि का सीधा फासला और जोड़ें Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा तो यह बारह मील से अधिक नहीं आता। इन सत्रह और बारह कोस के अधिकाधिक व्यासों का मध्य-परिणाम लगभग पंद्रह कोस अथवा पैंतालीस तीस ?] मील की परिधि का पाता है जो स्थानीय अनुमान के बराबर ही है। Chach SHREINSTENS हिन्दुओं के इस पवित्र पर्वत और ईसाई धर्म से सम्बन्धित माउण्ट सिनाइ (Mount Sinai) के प्राकृतिक दृश्यों में एक विलक्षण समानता है, जो यद्यपि इस स्थान से चार अंश अधिक उत्तर में होते हुए भी तापक्रम में वैसे ही परिवर्तनों के साथ वनस्पति-संसार में इसी प्रकार के परिणाम उपस्थित करता है। आधुनिक यात्रियों में से सर्व-प्रथम स्थानीय निर्भीक यात्री बर्कहाई (Burkhardt) भी माउण्ट सिनाइ के शिखर पर वर्ष के उसी भाग में पहुंचा था जब कि में आबू पर था अर्थात् जून के मध्य में । उसका कहना है कि तलहटी में थर्मामीटर १००° से ११०° तक चला गया था और उसने शिखर पर इंगलैण्ड की गर्मियों का आनन्द ७६° पर लूटा। इधर मेरे पास थर्मामीटर तलहटी में ९५° से १०८° तक था और शिखर पर ६४० से ७६° पर । उसने बताया कि 'खूबानी, जो काहिरा (Cairo) में अप्रेल के अन्त तक पक जाती है वह सिनाइ पर्वत पर जून के मध्य तक. खाने योग्य नहीं थी।' प्राबू के उसी देशीय फल को भी यही दशा थी जो विभिन्नता में मूसा के पर्वत (Mosaic Mount) पर उत्पन्न होने वाले फल से कहीं बढ़कर था। बक़हार्ड (Burk hardt) ने सिनाइ' (Sinai) की ऊँचाई का उल्लेख नहीं किया है परन्तु तापक्रम और जाड़ों में इसकी चोटी को + Mount Sinai की ऊँचाई ७,६५२ पर फीट है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२५ का (गाधानगर) पि con ढकने वाली बर्फ के आधार पर हम इसका हिसाब लगा सकते हैं; ऐसा दृश्य हिन्दुस्तान में हिमालय के दक्षिण में कभी देखने को नहीं मिलता है । अब, पाबू' की यात्रा समाप्त हुई, मुझे सन्तोष है; परन्तु अभी चन्द्रावती बाकी है। मुझे भय है कि उसे छोड़ ही देनी पड़ेगी और अपने आप को इसी का अन्वेषक मान कर सन्तोष कर लेना पड़ेगा। आबू ने मेरा कचूमर निकाल दिया; बुखार बढ़ रहा है, चेहरे और हाथों पर खूब सूजन आ गई है, जो सूर्य को सोधी किरणों के कारण बढ़ भी गई है । सूर्य की तेजी का प्रभाव उस समय के वातावरण में और भी अधिक मालूम होता है जब वह अपनी किरणें समेट लेता है। इस मायामय पर्वत की यात्रा करते समय किसी भी योरप-निवासी यात्री को अपनी शक्ति के विषय में भ्रम हो सकता है क्योंकि ठण्डी और उत्साहप्रद हवा उसे परिश्रम के लिए प्रेरित करती है और वही उसे नुकसान भी पहुँचाती है । फिर, मैं यह भी कहूँगा कि जिनके पास इस यात्रा में बिताने के लिए मुझसे अधिक समय नहीं है उन्हें यह प्रयास करना भी नहीं चाहिए क्योंकि यहां के बहुमूल्य और विचित्र भण्डारों को देखने के लिए ही कम से कम एक महीना चाहिए । सविवरण मानचित्र, विभिन्न दृश्यों की चित्रावली, रेखाचित्र, पहाड़ियों और यहां के मन्दिरों के चित्रों के साथ-साथ, यदि सम्भव हो तो, उनका कुछ वर्णन भी, तथा यहां के शासकों का कुछ हाल, यहां की पुराण-परम्परा, विविध मान्यताएं और पशु-पक्षियों, खनिज पदार्थों एवं वनस्पति-विज्ञानको सामग्री भी साथ हो तो यह सब मिलकर यहां का विवरण एक असाधारण मनोरंजन की वस्तु होगी । यह महान् कार्य हम किसी भावी प्रकृति-पुजारी कलाप्रेमी यात्री के लिए छोड़ रहे हैं और उसे इन प्रान्तों में खूब प्रसार करने वाले कवि के शब्दों में यही सूचित करते हैं कि ' मैं प्राबू-माहात्म्य नामक पुस्तक खरीद लाया हूँ (प्रत्येक तीर्थ-स्थान सम्बन्धी पुस्तक को माहात्म्य कहते हैं) जिसमें यहां के सभी धर्मिक कार्यों का विवरण है और बीच-बीच में उन राजानों का भी उल्लेख है, जिन्होंने इन मन्दिरों को समृद्ध किया है अथवा इनका जीर्णोद्धार कराया है। साथ ही, उन प्राठ हजार प्रकार के पौधों का वर्णन है जो यहां के धरातल पर पाए जाते है। यह ग्रन्थ बहुत ही सुन्दर और सुलिखित है तथा जहाँ तक मुझे याद है, प्राकृत में है। प्रत्योक पंक्ति के नीचे संस्कृत व्याख्या या रूपान्तर भी किया गया है। परन्तु जब मेरे गुरु यतिजी मेरे साथ थे उस समय मुझे इसको पढ़ने का अवसर नहीं मिला । यह प्रति रायल एशियाटिक सोसायटी के संग्रहालय में सुरक्षित है । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] इस पवित्र भूमि पर ऐसे यात्री आवें, और इन जादू भरे खण्डहरों में वे शान्ति के साथ घूम जावें, परन्तु इन अवशेषों को छेड़ें नहीं, किसी भी मनचले के हाथ दृश्यों को बिगाड़े नहीं; हाय, वे पहले ही कितने बिगड़ चुके हैं ! ये वेदियां ऐसे कार्यों के लिए नहीं बनी थीं, राष्ट्रों (जातियों) ने कभी जिन पर श्रद्धा प्रकट की थी, उन पर श्रद्धा प्रदर्शित करो, जिससे कि हमारे देश का नाम कलंकित न हो । पश्चिमी भारत की यात्रा AL Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ गिरवर; चन्द्रावती; स्मारकों की दुर्दशा; लेखक द्वारा खोज; शिलालेख, चन्द्रावती को युगध्वस्त नगरी का वर्णन; वापिकाएं; सिक्के; श्रीमती ब्लेयर का जर्नल [रोजनामचा); यात्रा फिर चालू; पुरानी सड़कों का त्याग; पूर्व यूरोपीय यात्रियों के समय में घुमन्तू जातियों के चरित्र; पर्वतश्रेणी; सरोतरा; मैदान में पुनरागमन; चीरासनी [चित्रासणी]; पाल्हनपुर जिले का दीवान; पाल्हनपुर की पुरातन वस्तुएं; मेजर माइल्स; सिद्धपुर-शिवमन्दिर; रुद्रमाला के ध्वंसावशेष; शिलालेख । गिरवर-जून १६वीं-बरसाती क्षेत्रों से भारी बादल उमड़े चले पा रहे हैं और यह सूचित कर रहे हैं कि मानसून आने ही वाला है इसलिए मुझे जल्दी ही आगे बढ़ना चाहिए अन्यथा झरनों में बाढ़ आ जायगी और मेरा बड़ौदा पहुँचने का मार्ग रुक जायगा । चन्द्रावती रही जा रही है, इसका मुझे दुःख है । पाठकों को एतद्-विषयक थोड़े से साधारण विवरण से ही सन्तोष कर लेना पड़ेगा। चन्द्रावती अथवा, जैसा कि इसको बोलते हैं, चन्द्रौतो परकोटे से घिरी होने के कारण नगरी कहलाती है। यह दक्षिण-पूर्व में गिरवर से १० मील के अन्तर पर इसी नाम की जागीर में सिरोही राज्य के अन्तर्गत है। यद्यपि गिरवर के सरदार के सौजन्य और ज्ञापकता के लिए मैं उसका आभार मानता हूँ परन्तु एक पुरातत्त्वान्वेषक के नाते समय और बर्बर तुर्क द्वारा विध्वस्त स्मारकों के विक्रेता एवं नाश करने वाले को मैं क्षमा नहीं कर सकता। यह भावना कदापि सही नहीं है, क्योंकि यह स्थान पहले ही मनुष्य को पहुँच के बाहर है और फिर यहाँ के स्वामी के महान् लोभ के कारण, जिसे प्रतिवर्ष यहाँ की टूट-फूट को बिचौती से अच्छी आमदनी हो जाती है, वे सभी शृङ्खलाएं नष्ट हो जायेंगी जो इसे अतीत से सम्बद्ध किए हुए हैं। प्रकृति की उदारता भी परमारों के गौरव को द्रुतगति से दुर्भेद्य आवरण द्वारा ढंके जा रही है । इन विशाल मन्दिरों में नीरवता का साम्राज्य छाया हुआ है । किसी समय जिन सड़कों पर धर्म और व्यापार से प्रेरित धनाढ्य श्रद्धालुओं की भीड़-भाड़ लगी रहती थी वहां आज शेरों और रीछों ने अधिकार कर लिया है अथवा कभी-कभी इनसे कुछ ही. अधिक सभ्य कोई भील भी आ निकलता है । चन्द्रावती के विध्वंस के साथसाथ व्यापार का मार्ग भी बदल गया और यदि उन घुमावदार रास्तों का प्राचीन ग्रन्थों एवं शिलालेखों में वर्णन न मिलता होता तो उनके बारे में कुछ भी Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पता न चलता । मुझे सबसे पहले इसका हाल "भोज-चरित्र" से ज्ञात हा जिसमें लिखा है कि जब किसी उत्तर-देशीय आक्रमणकारी ने राजा भोज को धार की गद्दी से उतार दिया तो वह भाग कर चन्द्रावती आ गया था। इससे पता चलता है कि यह नगरी उस समय धार के राज्य में थी। फिर भी, इसकी स्थिति का ठीक-ठीक पता लगाने के लिए मेरा प्रयत्न बहुत दिनों तक असफल रहा, विशेषत: जब मुझे मालूम हुआ कि इसका नाम बिगड़ कर चन्दौती हो गया है। अन्त में, मेरे दल के एक सदस्य को, जो शिलालेखों को देखने के लिए घुमता था, इसका पता चांपी नामक ग्राम के एक तालाब पर लगा जो अरावली के दक्षिण की ओर कोरावर की जागीर में है। इस शिलालेख में चित्तौड़ के गहलोत राजाओं के और अणहिलवाड़ा के सोलंकियों, चन्द्रावती के परमारों तथा नांदोल के चौहानों के अन्तर्जातीय युद्धों का वर्णन है जिसमें अपर जाति की वंश-परम्परा पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-"अरिसिंह के दो पुत्र कन्हैया और बीत्थुक (Beethuc) बड़े योद्धा थे, जो दोनों ही चन्द्रावती की लड़ाई में श्री भवान गुप्त के साथ युद्ध करते हुए मारे गए। श्री भवान गुप्त के दो पुत्र थे, भीमसिंह और लोकसिंह । वीसलदेव, हाराद्रि कर्ण और मूलराज के आनन्दमय हृदय में निवास करने वाले बली योद्धाओं को घायल करता हुआ भोमसिंह मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसका भाई श्री लोकसिंह सहस्रार्जुन (आधुनिक चूलि माहेश्वर (Chooli Maheshwar) जो नर्मदा पर है) के नगर को विजय करने के प्रयत्न में अपने शत्रु मालवराज सोमवर्मा के द्वारा वामनस्थली के युद्ध में मारा गया।" बाँध के निर्माता तक पहुँचने से पहले कितनी ही और बातों का उल्लेख भी शिलालेख में है जिसके अन्त में तिथि १३२ दी हुई है जिसका अन्तिम अंक मिट गया है । इस तरह इसे संवत् १३२५ वि० अथवा १२६६ ई० समझना चाहिए । चन्द्रावती के युद्ध का संकेत इससे कोई एक शताब्दी पूर्व का है, जैसा कि इस युद्ध के नायकों के शिलालेखों से ध्वनित हुआ है अर्थात् अरिसिंह चौहान और सोमेश्वर परमार के लेखों से; इनमें से पहला मुझे नांदोल में और दूसरा हारावती में प्राप्त हुआ था। इस प्रकार राजा भोज के इतिहास से हमें चन्द्रावती के दो युगों का पता चलता है ; पहला, सातवीं शताब्दो में और दूसरा बारहवीं में। प्रथम युग से भी कितने समय पूर्व से इसकी स्थिति है, इसका निर्णय तो हम अनुश्रुतियों और लोक-गाथाओं के ही आधार पर कर सकते ' इसका उल्लेख मैंने भोजराज का काल-निर्णय करने के सम्बन्ध में Transactions of the Royal Asiatic Society, Vol. I, p. 223 में किया है। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ETEEMALS SHRESTAllustralia चन्द्रावती में एक ब्राह्मण-मन्दिर के अवशेष पश्चिमा भारत की यात्रा Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ७; चन्द्रावती [ १२६ हैं । एक तीसरा युग भी हमारे सामने आता है अर्थात् पन्द्रहवीं शताब्दी जब कि पश्चिमी भारत की नवीन राजधानी, अहमद के नगर, को जीवन प्रदान करने के निमित्त इस नगरी का बलिदान हो चुका था। मैंने 'इतिहास' में उस वंश का वर्णन किया है जिसने चन्द्रावती के ध्वंसावशेषों से इस नगरी को ही नहीं वरन् गुजरात की प्राचीन राजधानी अरणहिलवाड़ा को भी मात करने वाले अहमदाबाद को बसाया था। परन्तु, अहमद का नगर, जिसके स्थापत्य की सुन्दरता हिन्दूकला की योजना एवं बारीक कारीगरी की दोहाई दे रही है, द्रुतगति से विनाश की ओर अग्रसर हो रहा है । जब स्वधर्म-त्यागी जक' (जो इतिहास में अपने मुसलमानी नाम वजीर-उल-मुल्क के नाम से अधिक प्रसिद्ध है) के पौत्र अहमद ने नई राजधानी स्थापित करके अपना नाम अमर करने का निश्चय किया और वह स्थान चुना जहां भीलों की एक जाति बसी हुई थी, जिनकी लूट-पाट और आक्रमण देश के लिए भय का कारण बने हुए थे। तब उन लोगों को वहां से उखाड़ कर कीर्तिलाभ की धुन में उसने उस भूमि की स्थानीय खामियों की ओर ध्यान नहीं दिया और वह नगर साबरमती के भहे, अस्वास्थ्यप्रद, नीचे और सपाट किनारे पर बन कर खड़ा हो गया। चन्द्रावती की सामग्री को ही प्रहमदाबाद पहुँचा कर वह सन्तुष्ट नहीं हुआ वरन उसने निश्चय किया कि शरीर के साथ-साथ आत्मा को भी वहीं ले जाया जाय प्रर्थात् घरों और मन्दिरों के मसाले के साथ जनता भी वहीं पहुँच जाय ।' परन्तु, अपने दोनों तीर्थों, आबू पर्वत और आरासण, के बीच में साबरमती के किनारे पर चन्द्रावती की आत्मा को क्षीण होते हुए जब कोई जैन उपासक देखता तो वह अपने प्राचीन निवास के मन्दिरों पर विशाल मसजिदों के निर्माण का ध्यान आते ही उस नदी के किनारे प्राचीन काल के किसी निष्कासित यहूदी की भांति सौ-सौ आँसू रो पड़ता था। प्रस्तु, चन्द्रावती और इसकी स्थिति पर फिर आइए । गिरवर से यहां तक के मार्ग के अधबीच में दक्षिण-पूर्व दिशा में माहोल [मावल] नाम का ग्राम है, जो इस नगरी का उपनगर कहा जाता है। इसी ग्राम में इसका एक दरवाजा खड़ा है। बनास नदी माहोल और विध्वस्त नगर के पास होकर बहती है जो सम्भवतः इसके किनारे पर ही बसा हुआ था। गांव में पहुंचने से पहले एक १ जफर, जो बाद में मुजफ्फर खान के नाम से प्रसिद्ध हुआ, मूलत: टाक जातीय क्षत्रिय था। -राजविनोद महा-काव्या (रा.प्रा.वि.प्र.) भूमिका, पृ. ११ २ इसी प्रकार के महान् स्थानान्तरण का प्रयत्न एक बार अहमद से भी बड़े सनकी महमूद खिलजी ने किया था जो दिल्ली को विन्ध्याचल पर ले जाना चाहता था; परन्तु मांड और अहमदाबाद के भाग्य में समानता हो लिखी थी। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. ] पश्चिमी भारत की यात्रा नोचो पर्वत-श्रेगो को पार करना पड़ता है जो प्राबू की तलहटो से हो दक्षिण की ओर शुरू हो जाती है; रास्ता एक घने जंगल में होकर जाता है जिसमें से मेरा सामान भी पार न हो सका । मुख्य नगर में भी अब जंगल ही जंगल उग पाया है, कुएँ और बावड़ियाँ पुर गई हैं, मन्दिर ध्वस्त हो गए हैं और बचीखुची सामग्री को गिरवर का सरदार नित्य बरबाद किए जा रहा है। जिसके पास रुचि और पैसा है उसी को वह यह सामान बेच देता है। एक तरफ अम्बाभवानी और तरंगी या तारिंगा के मन्दिर और दूसरी ओर आब, इन दोनों के बीचों-बीच चन्द्रावती है । अम्बा भवानी और तारिंगा के मन्दिर यहां से पूर्व में पन्द्रह मील की दूरी पर हैं तो पाबू भी पश्चिम में इतने ही अन्तर पर है। आबू के समान ये मन्दिर भी उतने ही आकर्षक हैं और जैनों तथा शैवों दोनों ही के तीर्थस्थान है । यदि हम अनुश्रुति पर विश्वास करें तो ज्ञात होता है कि यह नगरी धार से भी पुरानी थी और पश्चिमी भारत की उस समय राजधानी थी जब कि परमार यहाँ के स्वामी थे और नौ-कोटि मारवाड़ के नवों किले भी उन्हीं के अधीन बड़े करद राज्यों में थे। इनका विवरण एक पद्य में अन्यत्र दिया जा चुका है जिसमें बताया गया है कि इस जाति का अधिकार सतलज से नर्मदा तक फैला हुआ था और धार भी उन्हीं के अधीनस्थ एक राज्य था। यद्यपि, जैसा कि ऊपर कहा गया है, नगरी शब्द से चन्द्रावती का दृढ़-प्राकार-युक्त होना पाया जाता है परन्तु, फिर भी आपत्ति काल में आबू का किला ही इसका शरण्य दुर्ग रहा होगा और व्यापारिक मण्डी के दृष्टिकोण से आज इसकी स्थिति कितनी ही दुर्गम्य प्रतीत क्यों न हो परन्तु यह याद रखना चाहिये कि पूर्वीय देशों में धार्मिक और व्यापारिक यात्रा दोनों जोड़ली बहिनें रही हैं। प्रत्येक यात्रा का स्थान व्यापार का केन्द्र भी रहा है। अतः भारत में दोनों प्राय-द्वीपों से समुद्रतटीय व्यापारिक याता - - ' 'इतिहास' भा० १; पृ० ७६० राजा धरणीवराह ने अपने भाइयों को नव कोट दिए जिसका एक पद्य इस प्रकार है : "मंडोवर सावंत हुवो अजमेर अजैसू । गढ पूंगल गजवंत हुवो मुद्रवे भाणभू ॥ भोजराज धर धाट हुवो हांसू पारक्कर । अल्ल पल्ल अरबुद्द भोजराजा जालंधर ।। नव कोड़ किराडू संजुगत, थिर पंवार हर थप्पिया । धरणीवराह धर भाइयां, कोट वांट जू जू कियो।" दयालदास कृत पंवार-वंश-दर्पण, पृ० ४-दशरथ शर्मा, सादुल राजस्थानी रिसर्च इंस्टी ट्यूट, बीकानेर । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ७, चन्द्रावती [१३१ यात के प्रमुख मार्ग से कुछ हटती हुई होने पर भी कतिपय अन्य मार्गों के मध्य में स्थित होने के कारण इस नगरी के अभ्युत्थान के साधन यथावत् बने रहे होंगे। यदि प्रमाण की आवश्यकता हो तो आबू पर निर्मित वैश्य-बन्धुओं के मन्दिर को देख लीजिए। इस मन्दिर का निर्माण-काल विक्रम संवत् १२८७ (१२३१ ई०), जो उत्तरी भारत पर इस्लामी आधिपत्य के चालीस वर्ष बाद का है, यहाँ के वैभव की विशालता, शासकों की प्रबल शक्ति, और कलाओं की उस अवस्था को स्पष्टतया व्यक्त करता है जो उस समय तक अक्षुण्ण बनी हुई थी। यद्यपि शिलालेख में लिखा है कि 'चन्द्रावती पर देवतुल्य धारावर्ष का एकछत्र राज्य था' परन्तु, यह स्पष्ट है कि उसने अणहिलवाड़ा की सार्वभौम सत्ता को स्वीकार कर लिया था, जिसकी प्राधीनता से मुक्त होकर उसके पूर्वज जैत ने अपनी राजभक्ति अपनी पुत्री 'बुद्धिमती ऐच्छिनी' सहित दिल्ली के अन्तिम राजपूत सम्राट पृथ्वीराज को समर्पित कर दी थी।' धारावर्ष के बाद परमार अधिक समय तक स्वतन्त्रता की रक्षा न कर सके, इसका प्रमाण वसिष्ठ-मन्दिर के एक शिलालेख से प्राप्त होता है, जिसमें आबू पर जालोर के राजा कान्हड़देव चौहान की विजय का उल्लेख है; इसी लेख में एक शपथ भी उल्लिखित है कि यदि परमार अपना स्वत्त्व पुनः प्राप्त कर ले तो वह इस मन्दिर की धार्मिक जागीर को चालू रखे अन्यथा उसे साठ हजार वर्षों तक नरक में वास करना होगा। इस लेख में कोई तिथि तो नहीं दी हुई है परन्तु क्योंकि उसके पुत्र वीरमदेव को अलाउद्दीन ने संवत् १३४७ अथवा १२६१ ई० में जालोर से निकाला था इसलिए यही सम्भव है कि धारावर्ष के पुत्र प्रेलदम (Preladum) प्रिल्हादन] से ही कान्हड़देव ने पाबू का अधिकार छीना था। कुछ भी हो, यह एक अस्थायी विजय थी क्योंकि देवड़ों के इतिहास में लिखा है कि राव लुम्बा ने ही प्राबू पर सं० १३५२ अथवा १२६६ ई० में और चन्द्रावती पर सं० १३५६ अथवा १३०३ ई० में स्थायी रूप से विजय प्राप्त की थी। जिन युद्ध में देवड़ों ने परमारों से सत्ता हस्तगत की थी वह बाड़ेली नामक गांव में १ अन्तिम भाट कवि चन्द को ३६ पुस्तकों में से एक में उस युद्ध का वर्णन है जिसमें प्रण:हिलपुर के राजा भीमदेव द्वारा धष्ट पाबू को मुक्ति के लिए प्रयत्न किया गया था और जिसका अन्त भीम की पराजय एवं मृत्यु के साथ हुआ था। जैत्र, जिसने अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया था, एक सौ आठ सामन्तों में परम प्रसिद्ध हुमा, और उसका पुत्र लक्षण (लक्षमण) चौहान का महामात्य बना। • स्व० गो० ही० प्रोभा ने यह घटना वि० सं० १३६८ (ई. स. १३११) में होना लिखा है।-सिरोही राज्य का इतिहास पृ० १८७ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा हुआ था जहाँ अगनसेन का पुत्र मेरुतुग अपने सात सो सम्बन्धियों के साथ काम आया था। इन समयों के बीच-बीच में परमारों के छोटे-छोटे मातहत सामन्तों की संख्या को चौहान कम करते रहे ; प्रत्येक विजय के अवसर पर एक नई शाखा उत्पन्न होती रही और इनमें से बहुत सी शाखाओं के बनने में तो उनके प्रमुख की सहायता भी आवश्यक न हुई; उनके वंशजों को प्रमुख को साधारण सी आज्ञा का पालन मात्र करना पड़ता था; मदार और गिरवर आदि के ऐसे ही सरदार हैं । हिन्दू पुरातत्त्वान्वेषक के लिए ये विवरण कितने ही मनोरंजक क्यों न हों साधारण पाठक को इन भावनाओं में कोई रस नहीं प्रावेगा इसलिए मैं अब चन्द्रावती से विदा लेता है-उसी चन्द्रावती से जो संवत् १४६१ अथवा १४०५ ई० में राव सुब्बू' द्वारा सिरोही को स्थापना होने पर तथा साथ ही अहमदाबाद बसाए जाने पर पूर्णतः नष्ट हो गई थी। मैंने अपने साथियों की एक टुकड़ी खण्डहरों को देखने के लिए भेज दी थी क्योंकि इन अवशेषों में किसी प्रकार की रूचि न रखने वाले मेरे देवड़ा मित्रों की गपशप की अपेक्षा मैं उन लोगों के विवरण से अधिक ठीक निर्णय पर पहुँच सकता था। उन लोगों द्वारा प्रस्तुत विवरण ने अपनी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण खोज को देखने के लिए मेरी इच्छा को जागत कर दिया-जिस खोज को मैं सिन्धु पर आरोर, जमना [यमुना पर सूरपुर', चम्बल पर बरौली, हाडौती में चन्द्रभागा और ऐसे ही बहुत से विस्मृत नामों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं समझता। उन्होंने मुझे प्रानन्दपूर्वक उन बचे-खुचे मन्दिरों और बावड़ियों का विवरण सुनाया जिनके खम्भे मिट्टी में लिपटे पड़े थे, मूर्तियां भग्न हुई पड़ी थीं, ये सब ढेरों में इस प्रकार पड़ी थी मानों युद्ध में फेंकी गई हों, ये सब किसी भावी यात्री की लेखनी को अमर बनाने के लिए रही जा रही है। यह एक विचित्र तथ्य है कि भारत में केवल धार्मिक स्थापत्य ही इस कला की प्राचीन अवस्था का सूचन करने के लिए बचा रह गया है। चित्तौड़ के अति ' राव शिवभारण या शोभा ने वि० सं० १४६२ (ई० स० १४०५) में सिरणवा नामक पहाड़ी के नीचे एक शहर बसाया था और पहाड़ी के ऊपर किला बनवाया था जो वर्तमाद गिरोही से प्रायः दो मील की दूरी पर अब भी खण्डहर के रूप में मौजूद है। वह नगर अपने संस्थापक के नाम पर शिवपुरी या पुरानी सिरोही कहलाता है । वर्तमान सिरोही नगर राव शोभा के पुत्र सहस्रमल्ल या सँसमल ने वैशाख सुद २ संवत् १४८२ (१४२५ ई०) के दिन बसाया था।-सिरोही राज्य का इतिहास, पृ. १९३-१६४ सूरपुर मथुरा का नाम है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा चन्द्रावती में संगमर्मर का स्तम्भ [ तोरण ] Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ७, बावड़ियों 1 १३३ रिक्त कदाचित् हो कोई नागरिक स्थापत्य का नमूना कहीं देखने को मिलेगा; परन्तु, कहीं भी क्यों नहों, वे मिस्री स्थापत्य की भांति बाहर की ओर 'ढालू' होने के कारण स्पष्ट रूप से पहचान में आ जाते हैं । घरेलू अथवा पारिवारिक इमारतों में हम उन उपयोगी एवं कलात्मक गड्डों की गणना कर सकते हैं जो बावड़ियाँ कहलाते हैं; जलाशयों एवं ग्रीष्म ऋतु में रहने के स्थानों की भांति इनका दोहरा उपयोग किया जाता है। इनमें से कोई-कोई तो बहुत बड़ी होती हैं। ये प्रायः २० से २५ फीट तक व्यास की गोल गड्ढों जैसी होती हैं और इनकी गहराई पानी की प्राव के अनुपात से होती है। पानी के किनारे से धरातल तक एक पर एक बने हुए खण्डों में चारों तरफ कमरों के वर्ग होते हैं, जो गर्मी के दिनों में सरदारों और उनके परिजनों के लिए आराम करने की जगह बन जाते हैं । एक खण्ड से दूसरे खण्ड तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां बनी होती हैं। यदि अन्दर की तरफ ढाल खूब न रखा जाय अथवा दीवारें खूब मोटी-मोटी दानवाकार न बनाई जाएँ तो बाहर के दबाव और भारत की बड़ी-बड़ी इमारतों को प्रायः खराब करने वाली वनस्पति के कारण ये बावड़ियां कुछ ही शताब्दियों में नष्ट हो जाएं । आजकल के राजाओं के खजानों में तो ऐसी विलास की सामग्रियां बनवाने के लिए शायद ही धन प्राप्त हो सके । मेरी जानकारी में तो दतिया का राजा ही एक मात्र अपवाद है, जिसने एक बड़ी, ठोस और विशाल वापिका बनवाई है। मेरे अन्वेषक दल ने इन्हीं खण्डहरों में परमारों के समय के तीन सिक्के भी प्राप्त किए जिनमें से एक पर तो छाप स्पष्ट है । अब, यहां पर थोड़ी देर के लिए मैं अपना नीरस ऐतिहासिक वृत्त रोक देता हूँ और अपनी एक मित्र के विवरण का अंश उद्धत करके पृष्ठ को सजीव बना देने की चेष्टा करता हूँ। इन मित्र की पैंसिल का मेरी कृति को मुख्य आकर्षण देने के लिए, मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ । संसार को जब यह ज्ञात हो जायगा कि इन अतीत के स्मारकों का अब कोई चिन्ह भी अवशिष्ट नहीं है तो वह इनके वर्णन के प्रति दोहरा रुचि के साथ प्राकृष्ट होगा।' गिरवर के उस विनाशक ने, जिसको मैं पहले ही कोस चुका हूँ, बहुत बुरा काम किया है; और अब वह शिव का शिखरबन्ध देवालय तथा अद्वैतवादी जनों के भव्य तोरण और मेहराबें आदि सब नष्ट कर दिए गए हैं, लूट लिए गए हैं और बेच दिए गए हैं अथवा ऐसी इमारतों को दृढ १ यहां लेखक का अभिप्राय श्रीमती हण्टर ब्लेयर से है, जो अपने रेखा-चित्रों द्वारा 'पाबू को इंगलेण्ड ले गई थी। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बनाने के लिए तोड़-फोड़ कर काम में ले लिए गए हैं जो उक्त विनाशकों के समान ही अपवित्र और गह्यं हैं । "परमार राजाओं की प्राचीन राजधानी चन्द्रावती के खण्डहर प्राबू पर्वत की तलहटी से बारह मील दूर बनास नदी के किनारे घने जङ्गलों वाले प्रदेश में स्थित है । प्राचीन परम्परागत कहानियों और काव्यों में इसका विवरण पाया जाता बताते हैं परन्तु, १८२४ ई० के प्रारम्भ तक, अर्थात् जब यह निरीक्षण किया गया तब तक, यूरोपवासियों ने इसे कभी नहीं देखा था, जिनको अनुश्रुतियों के आधार पर भी इसका कोई ज्ञान नहीं था और इसका प्राचीन इतिहास भी विलुप्त हो चुका था, केवल थोड़ा सा विवरण कर्नल टॉड के पास बच रहा था । विशाल मैदान पर बिखरे हुए संगमरमर एवं अन्य पत्थर के टुकड़ों के आधार पर यदि निर्णय लिया जाय तो ज्ञात होता है कि यह नगरी बहुत बड़ी रही होगी और यहां की सुन्दरता एवं वैभव का अनुमान अब तक बची हुई विशाल संगमरमर की उन इमारतों से लगाया जा सकता है जिनमें से विभिन्न श्राकार-प्रकार वाली बीस इमारतों का पता उस समय लगा था जब हिज एक्सलेंसी सर चार्ल्स कॉलविल ( Colville) ने अपने दल सहित सन् १८२४ ई० में इस स्थान का निरीक्षण किया था। एक का प्रतिनिधि रूप से यहां पर वर्णन किया जाता है । यह कोई ब्राह्मण समाज का मन्दिर है जिसमें श्राकृतियां और अन्य आलंकारिक वस्तुओं की सजावट बहुत बारीक कुराई एवं उभड़ी हुई रीति से की गई है । मानव-प्राकृतियां प्रायः मूर्तियों के समान हैं और आधारमात्र के लिए प्रभूत मात्रा में भवन में लगाई गई प्रतीत होती हैं । भारतीय मूर्तिकला में कदाचित् ही कोई अन्य कृति इनकी समानता कर सकती है, और कितनी ही मूर्तियां तो ऐसी हैं जो किसी बहु- परिष्कृत रुचि वाले कलाकार के लिए अपमान का कारण नहीं बनेंगी । यहाँ पर ऐसी एक सौ प्रड़तीस मूर्तियां हैं। छोटी से छोटी दो फीट ऊँची मूर्तियां हैं जो श्रेष्ठ कारीगरी से बनाये गए ताकों [आालों ] में रखी हुई हैं । प्रधान मूर्तियां ये हैं - त्र्यम्बक ( अथवा तीन मुँह वाली आकृति ) घुटने पर स्त्री बैठी हुई, दोनों एक गाड़ी में बैठे हुए, बीस भुजाओं वाले शिव, वही शिव, जिनके बाई ओर एक महिष है और दाहिना पैर उठा कर गरुड़ जैसी श्राकृति पर रखा हुआ, महाकाल की एक प्रतिमा जिसके बीस भुजाएं हैं, एक हाथ मे बालों से नरमुण्ड पकड़े हुए, अपराधी नीचे पड़ा हुआ और दोनों ओर दो यक्षिणियां खड़ी हुई हैं, जिनमें से एक तो नरमुण्ड से प्रत्रवित रक्त का पान कर रही हैं और दूसरी किसी मनुष्य के विलग हाथ को निगल रही है। ऐसी ही और भी बहुत सी प्राकृतियां हैं जो विविध मुद्राओं में विविध उपकरणों के Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रावती का एक मन्दिर पश्चिमी भारत की यात्रा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३५ साथ बनी हुई हैं। परन्तु यहां सर्वाधिक प्रशंसनीय तो नाचती हुई अप्सराम्रों की मूर्तियां हैं जो हाथों में मालाएं और बाद्य यन्त्र लिए हुए हैं; इनमें से अधिकांश आकृतियां बहुत ही गौरवपूर्ण और सुन्दर बनी हुई हैं । यह सम्पूर्ण भवन सफेद संगमरमर पाषाण से निर्मित है, जिसके प्रमुख भागों की प्रभा अभी तक नष्ट नहीं हुई है; जो भाग खुले हुए हैं अथवा खराब हो गए हैं वे ऋतु और वातावरण के प्रभाव से काले अवश्य पड़ गए हैं परन्तु इससे बारीक कुराई के काम की स्पष्टता घटने की अपेक्षा अधिक बढ़ गई है । प्रकरण 9 - " मन्दिर के भीतरी भाग और मध्य की गुम्बद में काम बहुत बारीक और उच्चकोटि का है परन्तु बाहरी भाग और छत पर से संगमरमर का प्रावरण जाता रहा है । मण्डप के श्रागे की भूमि में खड़े हुए खम्भे रविश के ही अङ्ग मालूम होते हैं जो कभी मन्दिर के चारों ओर घूम गई थी; ये खम्भे संगमरमर के हैं और ऐसे ही पत्थर की सामग्री, जिसमें मूर्तियां, कोरनिस, खम्भे और शिलाएं हैं, पास वाले चौक में ढेर की ढेर बिखरी पड़ी है । ७; सरोतरा "और, कितने ही गर्न भरे तत्कालीन ढेर जंगल की एकाकी शान्ति में उसे घेरे हुए पड़े हैं, जहां मनुष्य बहुत कम जाते हैं— सिवाय इसके कि कभी-कभी कोई पूर्वीय लुटेरा इस घने जंगल में वन्य पशु का पीछा करता हुआ श्रा निकलता है ।" जून १६वीं, सरोतरा ( Sarotra ) बहुत कुछ थकान दूर होने पर और सिरोही के इतिहास व कवियों ' से जो कुछ प्राप्त हुआ उससे सज्ज हो कर मैंने अपना डेरा उठा दिया । सुबह १० बजे थर्मामीटर ८६° पर था, बॅरॉमीटर २८°३०' पर और फ़ासला सामान्य दिशा में द द० प० में १० मील । रास्ता एक घने जंगल में हो कर था जिसमें अधिकतर धोक के पेड़ थे; यद्यपि पैदल यात्री और बैल इस रास्ते से अच्छी तरह गुज़र सकते थे परन्तु बड़े जानवरों के लिए रास्ता साफ़ करने को मुझे कुल्हाड़ी सहित प्रदमियों को आगे भेजना पड़ा । उत्तरी भारत और समुद्री बन्दरगाहों के बीच में किसी समय व्यापार के मुख्य मार्ग बने हुए इस प्रदेश के चीरान हो जाने का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण होगा कि यहां की सभ्यता का पतन हो कर यह भाग पुनः मादिम अवस्था को प्राप्त हो गया है ? यहां बाबू, तारंगी और चन्द्रावती के वंभवों को, जिनमें से कोई नष्ट हो चुका है तो कोई द्रुतगति से नाशोन्मुख है, देख कर तथा यह मूललेखक ने Scaldo शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ 'स्केण्डेनेविया के विशिष्ट कवि ' है । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा उनके शाही निर्माताओं के अरमानों का अनुमान लगा कर हम, हिन्दुओं के 'जगत नश्वर है, इस सिद्धान्त पर विचार कर सकते हैं। ये सड़कें जो कभी व्यापारिक संघों [कारवानों] और यात्रियों की भीड़ से भरी रहती थीं अथवा रणतुरगों की टापों से गूंजा करती थीं, प्राज सूनी पड़ी हैं और उन पर किसी वनवासी कोली के अतिरिक्त कोई चलने वाला भी नहीं है, जो प्रायः जंगलों और चट्टानों में जाकर शरण लिया करता है। यूरोपीय यात्रियों के प्रारम्भिक काल में यह रास्ता राजपूतों (Razbouts) भोर कोलियों की आवारा और घुमन्तू जातियों की हरकतों के लिए प्रसिद्ध था जिनके रहन-सहन के बारे में थीवनॉट (Thevenot) और ओलीरिअस । (Olearius) ने जो कुछ विवरण दिया है उससे सिद्ध होता है कि मेरे देवड़ा मित्रों की नैतिकता में शाहजहां के जमाने से अब तक कोई अन्तर नहीं पड़ा है।' गिरवर से चार मील दूर हमने एक झरना पार किया जो कालेड़ी (Kalaire) कहलाता है और जो पूर्ववर्मित (गिरवर) ग्राम से चार मील पश्चिम में मूंगथाल या मूंगथल नामक छोटी सी झील से निकलता है । हमारे दाहिनी ओर ठीक पश्चिम में चार मील पर एक तीन शिखरों वाला ऊँचा डूंगर खड़ा है जिस पर कोलियों की कुल-देवी प्राया-माता (Aya-Mata) अथवा ईशानी का मन्दिर है । यह माता और घोड़े की मूर्ति-बस, यही दोनों इस आदिम जाति में पूजनीय माने जाते हैं । इस त्रिकूट से एक पहाड़ी श्रेणो पश्चिम में हीसा (Deesa) और दांतीवाड़ा की ओर प्रारम्भ होती है; यद्यपि ऊपर से देखने में यह इससे असम्बद्ध दिखाई पड़ती है परन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि १ हमें एक बनजारे व्यापारियों का काफिला' या कारवां मिला जिन्होंने कहा कि उन पर दो सौ लुटेरे राजपूतों ने हमला किया और बचाव के लिए सौ रुपये देने को बाध्य किया। इससे हमें अपनी रक्षा के लिए चौकस होना पड़ा क्योंकि पहले दिन ही उन्होंने दूसरे सौ आदमियों को देखा था, जिन्होंने जो कुछ उनके साथियों को मिला था उसीसे सब कुछ समझ लिया और कुछ नहीं कहा; केवल उनका एक बैल ले जा कर सन्तुष्ट हो गए। परन्तु वे पहले वाले एक सौ से जा मिले और हम पर हमला करने से न चूके। -Olearius, Vol. I, Liv. I, II 3. १ यहीं पर सबसे पहले मैंने पृथ्वी माता का मूर्तीकरण (personification) देखा है। ईशानी ईशा-देवी, अवनी-पृथ्वी; सर्वधात्री (माया माता) । मुझे यह मालूम नहीं कि सष्टि में सबसे अधिक वेगवान होने के कारण ही सबसे प्रषिक तेजोमय प्रसृष्ट के प्रतीक के रूप में घोड़े की पूजा हो सूर्य की पूजा है अथवा क्या ? परन्तु, यह अवश्य है कि इस बात में थे (कोली) लोग दूसरी जंगली भील और सेरिया जातियों के समान हैं। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण -७; मित्रासको भूमिगर्भ में यह इससे मिली हुई है और साथ ही उस अधिक स्पष्ट श्रेणी से भी, जिसको हमने गिरवर और चन्द्रावती के बीच में पार की थी। आगे चल कर यद्यपि इसका क्रम टूट गया है परन्तु कहीं-कहीं पर इसकी सहज सुन्दर चोटियाँ खड़ी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानों पागे फैले हुए दुर्भेद्य जंगल में से अकस्मात् निकल पड़ी हों; उधर, पूर्वीय क्षितिज में अपना सिर उठाए हुये दानवाकार अरावली इस क्रम-भंग को पन्द्रह मील चौड़ी एक सुन्दर घाटी द्वारा, जिसमें बनास का जल बहता रहता है, पूरा कर देता है। इसी बिन्दु से प्रारासण और तारिंगी के मन्दिरों का मुकुट धारण करने वाला अरावली दक्षिण की ओर चल पड़ा है और थोड़ी बहुत क्रमबद्धता एवं उठान के साथ पोलो और ईडर को घेरता हुआ नरबदा [नर्मदा] तक चला गया है, जो इसे राम-सेतु पर समाप्त होने वाले भारतीय एपिनाइन, कोंकण श्रेणी से पृथक् करती है। मैं यह कहना भूल गया था कि यह क्रमहीन श्रेणी बाई भोर बीस मील की दूरी पर दाँतल में जाकर समाप्त हो जाती है जो राणा पदवीधारी बरड़ (Burrur ) नामक राजपूत जाति के सरदार का निवासस्थान है। कहते हैं कि मूल में यह जाति सिन्ध की घाटी से आई थी। पाख्यानों में कहा गया है कि स्वयं भवानी इन लोगों को वहाँ से लाई है और इसी कारण से इन्होंने माता के मन्दिरों में से सोने-चांदी के चढ़ावे का प्राधा बाँटा लेने का अधिकार प्राप्त किया है। इसी सरदार ने अर्बुदा देवी के मन्दिर से सोने का प्याला हथिया लिया था और साथ ही उस पर दूसरा अभियोग यह भी था कि उसने दारू (Daroo) सरदार द्वारा चढ़ाए हुए आरासण की देवी के पात्र पर अपना अपवित्र हाथ डाला था। यदि इस सरदार का निकास सिन्ध से ही है तो इसके पूर्वज कितनी ही शताब्दियों पहले उठकर यहाँ आ गए होंगे, यद्यपि इस भयाविनी भवानी का एक मन्दिर और उसके उपासक सिन्धु के पश्चिम में मकरान के किनारे अब भी मौजूद हैं। गिरवर और सरोत्रा के बीच में कुरैतर (Kuraitur) ग्राम में हमने बनास को पार किया, जो थोड़ी देर के लिए जंगल के प्रच्छन्न भागों से प्रकट होकर सरोत्रा को चली जाती है; वहाँ उसी के किनारे पर हमने अपना डेरा लगाया। वन में चारों ओर जंगली मुर्गों का शब्द सुनाई दे रहा था और कोयल तो सुदूर दक्षिण में चित्रासणी (Cheerasani) तक हमारे साथ रहो; कोली लोग , सरोत्रा पालनपूर राज्य की उत्तर-पूर्वीय सीमा पर बनास नदी के किनारे पर एक छोटा सा भीलों का गांव है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा इस पक्षी को 'सुक्खी' अथवा 'सुख देने वाली' कहते हैं। इसका भी ऐसा ही अर्थ है, जैसे कमेडी का अर्थ 'कामदेव का पक्षी' होता है। उदयपुर की घाटी और कोटा के पठार पर भी लोगों ने इस पक्षी को ऐसे ही कुछ नाम दे रक्खे हैं जिनका अर्थ यह होता है कि यह 'कामदेव का प्रिय पक्षी' है। जंगलों और पहाड़ों की गुफाओं के निवासी तथा भद्दे-भहे व्यवसाय करने वाले लोगों में ऐसी लाक्षणिक भाषा एवं सांकेतिक अर्थपूर्ण शब्दों का प्रयोग देख कर कोई भी मनोर वैज्ञानिक भाषाशास्त्री चकित हुए बिना न रहेगा। सरोत्रा कोलीवाड़ा में है और एक तालुके अथवा दशमांश का थाना है। यहां पर भाषा एकदम बदल गई है। सिरोही में तो लोग इमारी बात समझ . लेते थे परन्तु यहाँ पर साधारण से साधारण बात समझाना भी बहुत कठिन पड़ता था। ये लोग बनियर के मित्र कोलियों के वंशज हैं जो तब तक वही जिन्दगी बिताते रहेंगे जब तक कि यहाँ का यह पुराना जंगल साफ न हो जायगा। यह जंगल उतना ही पुराना है जितनी कि स्वयं ईशानी देवी हैं। यहाँ से चन्द्रावती पाठ कोस और दांता तेरह कोस गिना जाता है और वसिष्ठ का मन्दिर उ० २५° पू० तथा त्रिकूट वाली पहाड़ी उ० २५° से ३५° पू० पर है। ___जून १७वीं - चित्रासणी - दिशा द०८०प०; दूरी साढ़े ग्यारह मील। यहाँ हमारी आँखों को फिर मैदान के दर्शन हुए। पहले सात मोल तक रास्ता उसी घने जंगल में होकर है । जहाँ यह समाप्त हुआ है वहाँ हाल ही में पालनपुर के शासक ने एक गाँव बसाया है। दो मील आगे चलकर हमको एक और झरना पार करना पड़ा जो बलराम-नाला (Balaram-Nalla) कहलाता है। यह अरावली से निकल कर चार मील नीचे बने हुए बलराम के छोटे-से मन्दिर के पास बनास में मिल जाता है और इसी से इसका यह नाम पड़ा है। यहाँ आकर वह जंगल समाप्त हो जाता है जिसमें होकर हमें प्राबू के किनारे से पचीस मील चलना पड़ा था। पहाड़ की वह त्रुटित श्रेणी, जिसका वर्णन मैं कल के मार्ग-विवरण में कर चुका हूँ, कहीं-कहीं ऊंची चोटी के रूप में अपने उसी क्रम से प्रकट हो जाती थी और हमारे मार्ग से चार पाँच मील की दूरी पर समानान्तर चली आ रही थी। इसी प्रकार दक्षिण-पश्चिम में ईशानी श्रेणी भी दांतीवाड़ा की ओर मुड़ गई थी। अाज के दिन की मंजिल खतम होते-होते मिट्टी में बालू की प्रकृति बढ़ चली थी और तदनुसार वनस्पति में भी बदल दिखाई देने लगा था। धो और रंग-बिरंगा पलास, जिसके पत्तों से घास के तिनकों की सहायता द्वारा लोग Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ७; पालनपुर [ १३६ प्याले और तश्तरी [पत्तल-दोने] बना लेते हैं, अब दिखाई नहीं देते थे और उनके स्थान पर बबूल, सदा हरे रहने वाले पीलू और करील के (मारवी) पेड़ सामने आ रहे थे। कदम-कदम पर बाल बढ़ रही थी । इस यात्रा में जमीन का ढाल स्पष्ट ही आँखों के सामने था और बॅरामीटर उसकी पुष्टि कर रहा था. जो दोपहर में २८०८०' पर था और थर्मामीटर ६६° बतला रहा था। चीरासणी के पास एक टीबड़ी पर से मैंने प्राबू की मोर उ. उ. पू. में अन्तिम बार दृष्टि-निक्षेप किया। जून १८ वी-पालनपुर, दिशा द. प., दूरी नी मील । यह कस्बा एक छोटे से स्वतन्त्र जिले का थाना है जो कि आजकल बम्बई प्रेसीडेंसी में बृटिश सरकार को संरक्षकता में है। आधे रास्ते पर ही यहां का प्रधान, जो कि दीवान कहलाता है, मेरी अगवानी करने के लिए आया और बड़ी आवभगत के साथ मुझको शहर में ले गया । वहां पर उसने मुझे मेजर माइल्स की सहृदयतापूर्ण संरक्षता में उन्हीं के निवासस्थान पर ठहराया जो उन दिनों वहां के रेजीडेण्ट एजेण्ट (स्थानीय प्रतिनिधि ) थे और उनकी बुद्धिमत्तापूर्ण देख-रेख में वह नगर पूर्ण प्रगति कर रहा था। दीवान मुसलमान है और जालोर व उससे सम्बद्ध भूमि गुजरात के राजाओं द्वारा प्रदत्त जागीर के रूप में कुछ दिनों के लिए उसके पूर्वजों के अधिकार में रहे थे, परन्तु बाद में राठौड़ ने उन्हें वहां से निकाल दिया था। दीवान एक उदीयमान युवक है, उसका व्यवहार भद्रतापूर्ण एवं व्यक्तित्व सन्तोषप्रद और सम्माननीय प्रतीत हुआ। उसके सेवक अधिकतर सिन्धी हैं, जिनको सेवाओं के निमित्त जमीनें मिली हुई हैं। परन्तु, पालनपुर के एक पक्का परकोटा खिंचा हुआ है और इसमें छः हजार घरों की बस्ती बताई जाती है। प्राचीनकाल में यह चन्द्रावती (राज्य) की एक मुख्य जागीर में था और पाल परमार द्वारा, जिसकी मूर्ति यहां पर अब भी वर्तमान है, बसाया जाने के कारण इसका नाम पालनपुर पड़ा' तथा इसी से इसका ' पालनपुर-प्राचीन काल में यह प्रल्हादन पत्तन कहलाता था क्योंकि चन्द्रावती के धारावर्ष परमार के छोटे भाई प्रल्हादन देव ने इसको बसाया था। कहते हैं कि विक्रम संवत् से दो शताब्दी पहले यह नगर ऊजड़ हो गया था। बाद में पालनसी चौहान ने इसको फिर से आबाद किया इसी से इसका नाम पालनपुर पड़ा । कुछ लोगों का कहना है कि जगान (Jagan) के जगदेव परमार के भाई पाल परमार ने इसे बसाया था। ऐसा लगता है कि देवड़ा चौहानों द्वारा प्राबू और चन्द्रावती विजय (१३०३ ई०) के पश्चात् पालनसी ने इसकी पुनः स्थापना की होगी । चौदहवीं शताब्दी के मध्य में चौहानों को दक्षिण की ओर बढ़ते हुए जालोरी मुसलमानों ने अपदस्थ कर दिया, जिनका नेता मलिक यूसुफ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] पश्चिमी भारत की यात्रा महत्त्व भी है। इस मूर्ति का जो सम्मान प्रदर्शित किया गया है उसका प्रकार प्रायः समझ में नहीं पाता क्योंकि यह उस चूने के ढेर में गड़ी हुई है जो इसके मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिए इकट्ठा किया गया है। मुझे यह तो ज्ञात नहीं है कि यह मूर्ति पालनपुर में ही थी अथवा चन्द्रावती से लाई गई थी परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि साधारण वेश-भूषा में समानता होते हुए भी आबू पर जो दैत्य-हन्ता को मूर्ति है उससे यह घटिया बनी हुई है। यह बहुत ही प्राचीन है अथवा अर्वाचीन, इस विषय में मुखाकृति देख कर यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि यह अर्वाचीन नहीं है । पालनपुर को बलहरा राजाओं में परम प्रकाशमान सिद्धराय महान् की जन्म-भूमि होने का भी गोरव प्राप्त है । यदि यह सच है तो, जैसा कि कुमारपाल के इतिहास में लिखा है, अवश्य हो उसकी माता, राजा कर्ण की स्त्री, हिन्दू कुलदेवी के मन्दिर की यात्रा न करके अपने मूल्यवान गर्भ को लिए हुए मनौती पूरी करने के लिए सिन्धु के पश्चिम में किसी अन्य स्थान की यात्रा के लिए जा रही होगी; इस विषय में विस्तार से फिर कभी लिखा जायगा। आज और कल के दिन में मेजर माइल्स के साथ रहा। ऐसे आनन्द के साथ अड़तालीस घण्टे मैंने बहत थोड़े अवसरों पर ही बिताए थे क्योंकि मैंने उनमें एक सहृदय मित्र व सह-अधिकारी के ही दर्शन नहीं किए वरन् उनके मस्तिष्क में भी वही रुचि और धुन बसी हुई थी जो मेरे दिमाग में घर किए हुए थी। हमारे पास बातें करने और तुलना करने के लिए बहुत कुछ था और पूर्वकालीन जातियों के चरित्र व रहन-सहन के विषय में हमारे निष्कर्ष प्रायः एक समान ही थे। ऐसे जंगलों में अपनी सी ही धुन वाला साथी पाकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने मेजर के प्रति सम्मान का सर्वोत्तम प्रमाण उन्हें था। इसके अनुवतियों ने औरंगजेब के अन्तिम समय में हुई गड़बड़ियों के अवसर पर अपने आप दीवान पद ग्रहण कर लिया। किसी फारसी अथवा गुजराती इतिहास के आधार पर इस वंश को दीवान पद दिया जाना प्रमाणित नहीं होता। स्थानीय जनश्रुतियों में कहा जाता है कि इसका पुनः संस्थापन बहुत पहले पांचवीं शताब्दी में हो चुका था। --Gazetteer of Bombay Presidency, Vol. V James M. Campbell 1880, p. 318 पालनपुर सम्बन्धी विशेष सूचना के लिए सय्यद गुलाब मियां मोर मुन्शी कृत 'पालनपुर की तवारीख' (उर्दू व गुजराती दोनों में) देखनी चाहिए। यह तवारीख पालनपुर रियासत की ओर से १९१२ ई० में प्रकाशित हुई थी। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ७; सियपुर [ १४१ अपोलोडोटस' (Apollodotus) के बैक्टीरियन तग़ में की एक प्रति (Duplicate) भेंट करके दिया जो मुझे अवन्ती के खण्डहरों में अथवा अजमेर की पवित्र झील पर प्राप्त हुआ था। सिद्धपुर; जून २०वीं; हमारे भारतवर्ष के भूगोल के बाल्यकाल में प्रतिभाशाली द' पानविले (D' Anville)ने इस नगर के विषय में लिखा है कि "इस नगर का 'शिस्टे' [श्रीस्थल] नाम यहाँ पर तैयार होने वाले रंगीन चित्रों के कारण पड़ा है" परन्तु इसकी व्युत्पत्ति इसके संरक्षक बल्हरा राजा सिद्धराय के नाम से प्रसिद्ध होने के कारण और भी गौरवपूर्ण है। कुछ लोग सिद्धराज को इसका मूल निर्माता मानते हैं परन्तु इस बात के प्रमाण और भी प्रबल मिलते हैं कि उसने इस नगर का केवल कायाकल्प ही कराया था, जिसकी स्थिति अम्बा भवानी के मन्दिर से प्रवाहित होने वाली सरस्वती नदी के किनारे बहुत सोच समझ कर रक्खी गई है। पूर्वकालीन हिन्दू स्थापत्य-कला के बड़े से बड़े नमूने यहाँ पर ' सिकन्दर के बाद उसके राज्य का सीरिया नामक प्रदेश सिल्यूकस के हिस्से में आया। सिल्यूकस के वंशज यूक्रेटाइडेंस (Eukratides) के अधिकार में भी बैक्ट्रिया काबुल की घाटी, गान्धार तथा पश्चिमी पंजाब थे ! उसके वंशज ई०पू० ४८ के लगभग तक इन भागों पर राज्य करते रहे। इनके अतिरिक्त कुछ और भी ग्रीक वंश के लोग छोटे-मोटे भारतीय प्रदेशों पर अधिकार कर बैठे थे जिनका पता अब खुदाई में प्राप्त सिक्कों में मिलता है । इन्हीं सिक्कों में अपोलोडोटस प्रथम व द्वितीय के भी सिक्के मिले हैं जिनकी लिपि खरोष्ठी है, इनमें अपोलोडोटस को "माहारजस अपलदत्तस" लिखा है। पेरीप्लुस (Periplus) के लेखक मे भी अपोलोडोटस और मिनान्डर के सिक्कों का भड़ोंच (Broach) में पाया जाना दर्ज किया है। - Early History of India ---V. Smith p. 242. * ville qui tire son nom des Shites, ou toiles peintes, que s'y fabriquent. ३ सिद्धपुर सरस्वती के उत्तरी ढालू किनारे पर बसा है । कहते हैं कि मूलराज ने उत्तर भारत से विद्वान् ब्राह्मणों को यहां लाकर बसाया था। सिद्धपुरुषों का निवासस्थान होने के कारण यह सिद्धपुर कहलाया। इसका प्राचीन नाम श्रीस्थल अथवा श्रीस्थलक था और यह स्थान बहुत पवित्र माना जाता था। जिस प्रकार पितरों का श्राद्ध और तर्पण प्रयाग और गया में किया जाता है, मातृवर्ग के पूर्वजों का श्राद्ध व तर्पण सिद्धपुर में होता है । कहा गया है "गयाया योजनं स्वर्गः प्रयागाच्चायोजनम् । श्रीस्थलाद्धस्तमात्रं स्यात्र प्राची सरस्वती ॥" गया से स्वर्ग एक योजन दूर है, प्रयाग से प्राधा योजन और श्रीस्थल से तो, जहां पूर्व दिशा में सरस्वती बहती है, स्वर्ग केवल हाथ भर दूर रहता है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा एक शिव मन्दिर के अवशेषों के रूप में प्राप्त होते हैं; यह मन्दिर रुद्रमाला अर्थात् 'युद्ध के देवता रुद्र की माला' कहलाता है; परन्तु इसके भग्नावशेष इतने अस्तव्यस्त हो गए हैं कि इसके सम्पूर्ण रूप की कल्पना करना भी कठिन हो गया । ये अवशेष मुख्यतः बरामदों अथवा रविशों के हैं; इनमें से एक के विषय में जनश्रुति है कि वह मण्डप के आगे बने हुए नन्दीगृह अथवा छतरी के अवशेष हैं, जिसमें रुद्र का वाहन नन्दी विराजमान था और निज मन्दिर तो मसजिद में परिवर्तित हो ही चुका है। कहते हैं कि यह इमारत श्रायताकार थी और पाँच खण्ड की थी; यदि अब तक बचे हुए एक भाग से हम अनुमान लगाएं तो यह एक सौ फीट से कम ऊँची न होगी । यह बचा हुआ भाग दो खण्डों का खण्डहर मात्र है जो चार-चार खम्भों पर टिका हुआ है और तीसरे खण्ड के खम्भे बिना छत के अपनी सीध में - अपने ही आधार पर खड़े हैं; छत की पट्टियाँ टूट गई मालूम होती हैं, परन्तु, कितने ही युगों से यह हँसी उडाते रहे हैं सर्दी के तूफानों की और भूचाल के धक्कों की, जिन्होंने इसके आधुनिक पड़ौसी ग्रहमद के नगर [ अहमदाबाद ] की शान को धराशायी कर दिया है ।" मेरे मित्र और सहाध्यायी सम्माननीय लिंकन स्टॅनहोप ( Honorable Lincoln Stanhope ) की लेखनी से मुझे इस [ रुद्रमाला ] के एक मात्र अवशेष का वृत्त ज्ञात हुआ है जिसे मैं जनता के सामने प्रस्तुत करने में समर्थ हुआ । यह खुरदरे बलुआ पत्थर ( Sand-stone ) का बना हुआ है और कहीं-कहीं दानेदार बिल्लौर के टुकड़े भी इसमें लगे हुए हैं; भवन और सामग्री के अनुरूप स्थापत्य भी मोटा और सामान्य ही है । मुझे यहाँ दो प्राजकल प्रचलित जनश्रुतियों के अनुसार बारहवीं शताब्दी में सिद्धराज जयसिंह द्वारा यहां पर रुद्रमहालय (रुद्रमाल) का निर्माण कराने के बाद इस स्थान का नाम सिद्धपुर हुआ । --The Archeological Antiquities of Northern Gujrat - J. Burges, 1903 pp. 58-59. १ यहाँ ( अहमदाबाद ) की सर्वोत्कृष्ट मस्जिद, जिसमें ऐसी मीनारें थीं कि जिन पर चढ़ कर कोई भी व्यक्ति भूल सकता था और जो भूलती हुए मीनारें' कहलाती थीं, तथा अन्य बहुत सी सुन्दर इमारतों को भूचाल ने नष्ट कर दिया था और यदि कॅप्टेन ग्राइण्डले ( Captain Grindlay ) की लेखनी उन्हें अपनी मनोरञ्जक पुस्तक 'The Scenery and costumes of Western India' में सुरक्षित न रखती तो उनका पता भी न चलता । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ७; रुद्रमहालय के अवशेष [ १४३ शिलालेख मिले जिनमें से एक से विदित होता है कि राजा मूलराज (अणहिलवाड़ा के सोलंकी वंश के प्रवर्तक) ने इसको संवत् ६६८ (६४२ ई० ) में बनवाना आरम्भ किया था और दूसरे से ज्ञात होता है कि सिद्धराज ने इसे पूरा करवाया । इस लेख का अनुवाद इस प्रकार है- 'संवत् १२०२ ( ११४६ ई०) में माघ मास की चतुर्थी कृष्णपक्ष को सोलंकी सिद्ध ने रुद्रमाला को पूर्ण कराया और शुद्ध मन से शिव का पूजन कराया, इससे संसार में उसका यश फैला ।' एक पद्य में अलाउद्दीन द्वारा इस (मन्दिर) के विध्वंस का विवरण है'संवत् १३५३ (१२६७ ई० ) में म्लेच्छ अला आया, नरेशों का नाश करते हुए उसने रुद्रमाला का विध्वंस किया ।' फरिश्ता के मतानुपार इसी संवत् में गुजरात विजय हुआ और यहां के राजा कर्ण का वध हुआ था जिसको इन इतिहासकारों ने भूल से गोहिल लिख दिया है । परन्तु उस निर्दय अत्याचारी अलाउद्दीन के मन में भी, जिसका नाम ही 'खूनी' प्रसिद्ध हो गया था, कोई न कोई मनोव्यथा अथवा पश्चात्ताप का भाव आ गया प्रतीत होता है; तभी तो उसने मूर्तिपूजकों के विशाल मन्दिर का इतना मात्र अंश बाको छोड़ दिया। इसके अतिरिक्त मेरे साथियों ने सांखला भाट ( Chronologist) से भी मेरी जान पहिचान कराई जिसे बहुत सी पुरानी बातें याद थीं और वह बहुत से ऐतिहासिक गीत दोहराता था; एक नमूना यह है - 'रुद्र के मन्दिर में १६०० स्तम्भ थे, १२१ रुद्र की प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न कक्षों में विराजमान थीं, १२१ स्वर्ण काश, १८०० अ देवो देवताओं की मूर्तियाँ ७,२१३ विश्रामजो मन्दिर के भीतर और बाहर बने हुए थे, १,२५००० कुराईदार जालियां व पर्दे और निशान तथा ध्वज लिए हुए चोबदारों, योद्धागणों, यक्षों, मानवों तथा पशु-पक्षियों को हजारों लाखों पुतलियां बनीं हुई थीं ।' सभी पुरावृत्तों में उल्लेख है कि सिद्धराज ने इस मन्दिर के निमित्त एक करोड़ चालीस लाख स्वर्ण मुद्राएँ व्यय की थीं; परन्तु, प्रत्येक मुद्रा का मूल्य स्पष्ट निर्धारित नहीं है। किसी समय के इस उत्कृष्ट स्मारक के मुख्य प्रवशेष और प्राधा भाग अब प्राय: कोली सूत्रकारों के घरों से घिरा हुआ एवं प्रच्छन्न है; भय यह है कि कभी उनके घर व उनके मस्तक उन पर टूट कर पड़ते हुए द्र के मुण्डों ' से चकनाचूर न हो जायें क्योंकि यद्यपि उनकी नींव चट्टानों में लगी हुई है फिर भी, मुझे बताया गया है कि १८१६ ई० के भूचाल में, जो पूरे कक्ष, १ युद्ध के देवता रुद्र की माला नरमुण्डों की बनी हुई होती है-ये मुण्ड (खोपड़ियां ) प्राचीनकाल में राजपूत वीरों द्वारा पान-पान के रूप में व्यवहृत होते थे । M Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पश्चिमी भारत में प्रभावशील हुआ था, दो बड़े-बड़े खम्भे टूट कर इधर आ पड़े थे । इन अवशेषों का सबसे अच्छा दृश्य इन झोंपड़ियों के अन्दर से ही देखा जा सकता है जो कि सम्पूर्ण चित्र की अग्रभूमि का अविच्छिन्न अंग बनी हुई हैं। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की प्राचीन राजधानी नहरवाळा; लेखक द्वारा उसकी स्थिति को गषणा ; प्राचीन भारत के विषय में ग्रीक भूगोल-शास्त्रियों की अपेक्षा अरब भूगोल- वेत्ताओं की लघुता; नहरवाळा अथवा अणहिलवाड़ा की स्थिति विषयक भूलें; गॉसलिन ( Gasse - lin) को भूल और हॅरॉडोटस की संभावित शुद्धता; भारत के टायर (Tyre ), श्रणहिलवाड़ा का पूर्व इतिहास; बल्हारा पद की उत्पत्ति; सूर्य-पूजा ; बलभी नगर के अवशेष; बलभी से प्रणहिलवाड़ा में राजधानी का परिवर्तन; कुमारपालचरित्र अथवा प्रणहिलवाड़ा का इतिहास; इसके उद्धरण; समकालिक घटनाएं; इस बात के प्रमाण कि भारत में ऐतिहासिक कृतियाँ अज्ञात नहीं थीं; प्रणहिलपुर की स्थापना विषयक अनुश्रुति; भारत की तत्कालीन क्रान्ति; नगर की श्राकस्मिक ऐश्वर्यवृद्धि; राजाओं की सूची; बल्हरा सिक्के; नवीं शताब्दी मुसलमान यात्रियों के सम्बन्ध । में प्रकरण ८ यद्यपि सुप्रसिद्ध द' प्रॉनविले और वैसे ही प्रतिभाशाली मेरे देशवासी रेनेल (Rennell)' के समय से भूगोल शास्त्र में बहुत कुछ प्रगति हो चुकी है परन्तु " सुप्रसिद्ध भूगोल शास्त्री । १७५६ ई० में १४ वर्ष की अवस्था में नाविक सेवा में भर्ती हुना ! १७६० ई० में भारत प्राया । १७६७ ई० में सर्वेयर - जनरल के पद पर उन्नत्त हुन । ग्यारह वर्ष के बाद १७७८ ई० में वह रायल एशियाटिक सोसाइटी का मेम्बर चुना गया श्रीर १७६१ ई० में ताम्रपदक भी प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त वह 'अफ्रीकन प्रसोसियेशन' और 'रायल ज्योग्राफिकल सोसाइटी' का संस्थापक सदस्य भी था। अपर सोसाइटी ने उसकी मृत्यु के बाद कार्य प्रारम्भ किया था । उसकी मुख्य कृतियां ये हैं- V (i) A chart of Banks in South Africa ( 1778 ) (ii) A description of the roads in Bengal and Behar ( 1778 ) (ili) Bengal Atlas ( 1781 ) (iv) An account of the Ganges and Burrampootur Rivers पर शोधपत्र, जो रायल एशियाटिक सोसाइटी में १७८१ ई० में पढ़ा गया । (v) Camel's rate as applied to Geographical purposes (1791 ) रा० ए० सो० में पढ़ा गया शोध-पत्र | (vi) Marches of the British Army in the Peninsula of India (1792) (vii) War with France, the only security of Britain (1794) (viil) Geographical System of Herodotus ( 1800 ) उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति । लेखक का यहाँ पर इसी पुस्तक से अभिप्राय है । (ix) A Treatise on the Comparative Geography of Western Asia. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पश्चिमी भारत की राजधानी नहरवाळा की सही स्थिति तो उस समय तक एक अन्वेषण का विषय ही बनी रही जब तक कि १८२२ ई० में मैंने अाधुनिक पट्टण के उपप्रान्त में बलहरा राजाओं के इस ध्वस्त एक्रॉपोलिस' (Acropolis) का ठीक-ठीक पता न लगा लिया, जिसका नाम आधुनिक एवं पूर्ववर्ती सभी भूगोल-शास्त्रियों के लिए एक पहेली बना हुआ था। इस उपनगर का नाम अनुरवाड़ा (Annurwara) अथवा अन्हलवाड़ा है, जो यहाँ के राजवंशों के इतिहास के अनुसार अधिक शुद्ध है; इसी का कुछ बिगड़ा हुआ रूप नेहलवड़े (Nehelvare) या नेहरवळे है अथवा जैसा इदरिसी (Edrisi) में है, नहरौरा (Naharaora) (x) Illustrations of the expeditions of Cyrus and the Retreat of the Ten Thousand. यह पुस्तक अन्य बहुत सी सामग्री के साथ लेखक की मृत्यु के उपरान्त उसकी पुत्री ने १८३१ ६० में प्रकाशित की। (xi) An Investigation of the Currents of the Atlantic Ocean... Indian ocean. Ed. John Purdy (1832) यह पुस्तक भी उसके मरणोपरान्त प्रकाशित हुई थी। मेजर जॉन रेनेल की मृत्यु २६ मार्च, १८३० को हुई थी। वह प्रायः १३ वर्ष तक भारत में रहा । उसके जीवन-काल तक इंगलिस्तान में उससे बड़ा भूगोल-वेत्ता पैदा नहीं हुआ था। E. B., Vol. XX pp. 398-401 'ग्रीक की राजधानी एथेन्स का गढ़। . El Edrisi प्रल इदरसी-का मूल नाम अबू अब्दुल्ला मुहम्मद था। यह शरीफ़-अल इदरिसी-अल-सिकली नाम से भी प्रसिद्ध था। इसका जन्म सियूटा अथवा सिबता (adseptem) में ई० सन् १०६० में हुआ, जो मोरोक्को में है । इसके पूर्वज मलागा नगर पर ६ वीं पोर १० वीं श० में राज्य करते थे। इसी कारण यह अल इदरिसी नाम से प्रसिद्ध हुा । युरोप का भ्रमण करने के उपरान्त वह सिसली के बादशाह रॉजर द्वितीय के दरबार में सम्मानित हुअा, जिसकी इच्छा से इसने अपनी प्रसिद्ध भूगोल की पुस्तक नुजहतुल. मुश्ताक-अफाक-फी-इख्तिराकुल (अर्थात्, उन लोगों की पसन्द, जो दुनिया में फिर कर सब नजारे देखते हैं) की रचना की। इस पुस्तक का पूरा अनुवाद फ्रेंच में १८३६ोर १८४० सन् में एम. जोर्बट ने किया था। मूल का एक संक्षिप्त संस्करण रोम से १५६२ ई० सन् में तथा लैटिन भाषा में पेरिस से १६१९ ई० सन् में प्रकाशित हुमा था। हॉटेमैन ने १७९६ में एक संक्षिप्त संस्करण और निकाला था जिसका शीर्षक 'Edrisii descriptio Africac' रक्खा । स्पेन से सम्बन्धित यात्रा के अंशों का स्पेनिश अनुवाद कोन्डो ने १७९६ ई० सन् में निकाला था। इस पुस्तक की दो हस्तलिखित प्रतियां बोलियन संग्रहालय में तथा एक प्राक्सफोर्ड में विद्यमान हैं। गुजरात के नहरवारा स्थान के सम्बन्ध में इदरिसी का कहना है-'नहरवारा का शासक Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६ नहरचाळा [ १४७ है । इस नाम के पीछे कितने ही सुयोग्य ग्रीक, अरब, फ्रांसिसी, अंग्रेज और जर्मन विद्वान् लगे रहे है और इस कहावत को चरितार्थ करते रहे हैं कि 'विद्वानों की भूल भी बुद्धिमत्तापूर्ण होती है ।' प्रायः सभी ने अपनी बिखरी हुई ज्ञान की किरणें उन प्रतापी वंशों पर केन्द्रित की हैं जो इस प्रावृत राजधानी में राज्य करते रहे थे और जो पूर्व में बल्हरा अथवा शुद्धतया बल्ह - राय ( Balharaes ) 'महान् शासक' के नाम से प्रसिद्ध हैं । जब हम जस्टिन ' ( Justin ), स्ट्राबो ( Strabo ) और एरियन ( Arrian) जैसे लेखकों की लेखनी को प्राच्य विषयों पर लिखने 9 'बलहरा' पद से प्रसिद्ध है । उसके पास फौज है, हाथी है, वह बुद्ध की मूर्ति का उपासक है, सोने का मुकुट पहनता है और रईसाना लिबास पहनता है...... नहरवारा नगर में अक्सर मुसलमान सौदागर प्राते रहते हैं, जिनके लिए तिजारत की गुंजाइश है । — The History of India told by its own Historians - Elliot.' Vol. ( 1 ), 1867. PP. 74-75 - An Oriental Geographical Dictionary - Beale, 1894, p. 175. Justin - लॅटिन इतिहास लेखक था । उसके व्यक्तिगत जीवन के विषय में स्पष्टतया कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका है । परन्तु सेन्ट जेरोम (St. Jerome ) ने उसका उल्लेख किया है, इससे उसका समय पाँचवीं शताब्दी से पूर्व का निश्चित होता है । वह अपने Historarium Philippicarum Libri नामक महान् इतिहास ग्रंथ के कारण प्रसिद्ध है जिसमें ऐसी बहुमूल्य सूचनाएँ मिलती हैं जो अन्यथा प्रप्राप्य होतीं । E. B., Vol. XIlI, p. 719. Strabo -- सुप्रसिद्ध इतिहास-लेखक मोर भूगोलवेत्ता, जो ईसा से लगभग ५४-५५ वर्ष पूर्व हुआ था। उसकी पहली दो कृतियाँ Historical Memoirs और Continuation of Polybius थीं जो अब उपलब्ध नहीं हैं । उसने स्वयं और उत्तरवर्ती लेखकों ने इनका उल्लेख किया हैं । Geography उसका अन्यतम सुप्रसिद्ध महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जो सत्रह भागों में है । पन्द्रहवीं पुस्तक में भारत और पसिया का वृत्तान्त है जिसमें अन्य प्राचीन लेखकों के अतिरिक्त सिकन्दर और सिल्युकस के दल के इतिहास-लेखकों के भी श्राधार ग्रहण किए गए हैं। इनमें से सातवीं पुस्तक अपूर्ण है । इस विद्वान् ने होमर (Homer) के भूगोल - ज्ञान का समर्थन और हॅराडोटस के लेखों का खण्डन किया है । E. B., Vol. XXII, pp. 581-583 पॅरिस का कर्ता, जो भडौंच या उसी के शब्दों में, बरुणाजा ( Barugaza ) नगर में व्यापारिक प्रतिनिधि के रूप में रहता था; यह बात हमारे सन् की दूसरी शताब्दी की है। उस समय भडच बहहरा साम्राज्य के अन्तर्गत था । एरियन का समय १४६ ई० के लगभग माना जाता है । वह Periplus of the Erythracan Sea नामक पुस्तक का कर्ता था। भारत के विषय में उसने अपनी इण्डिका ( INDIKA) नामक पुस्तक में विवरण दिया है, जिसको उसकी पूर्व कृति एनाबासिस Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा के लिए प्रेरणा देने वाली अपूर्ण किन्तु स्पष्ट बुद्धि की तुलना कितनी ही शताब्दियों पूर्व के अरव-यात्रियों द्वारा लिखित अस्पष्ट और समझ में न आने योग्य वृत्तान्तों से करते हैं तो इन अपर लेखकों की भूलों का कोई आधार ही समझ में नहीं पाता; यद्यपि सभी यूरोपीय लेखकों द्वारा निर्दिष्ट स्थिति भी संदेह से शून्य नहीं है परन्तु अरब लेखकों द्वारा वणित स्थिति तो इतनी अस्पष्ट है कि वह इस राज्य के किसी भी भाग पर घटाई जा सकती है; और मेरे मन में तो इनसे ऐसा भी संशय उत्पन्न होता है कि ऐसे यात्री कभी पैदा भी हुए थे या नहीं ? विशेषतः उन भागों के वर्णन से, जिनसे मैं अच्छी तरह परिचित हो गया हूँ। मैं तो कहता है कि यदि ये वृत्तान्त प्रकाश में न भी पाते तो संसार की कोई हानि नहीं होती। 'नवीं शताब्दी के अरब यात्री' नामक पुस्तक के अनुवादक अब्बे रेनॅडो (Abble Renaudot) ने एक लम्बी भूमिका में अबुलफ़िदा' (Abulfida) (Anabasis) का ही उत्तराद्ध माना जा सकता है । इण्डिका के तीन भाग हैं। पहले में मेगस्थिनीज और इरतोस्थिनीज़ (Eratosthenes) के प्राधार पर इस देश का विवरण दिया गया है। दूसरे में क्रीट निवासी नीअरकॉस (Nearchos) की सिन्धू से पॉसितिनिस (PASITIGRIS) तक यात्रा का वर्णन स्वयं यात्री के विवरण के प्राधार पर किया गया है; और तीसरे में कुछ ऐसे प्रमाण इकट्ठे किए गए हैं कि दुनियां के दक्षिणी भाग अत्य. धिक उष्ण होने के कारण बसने योग्य नहीं हैं। 'Ancient India, Magethenes and Arrian' by Mc Crindle, p. 182 १ Arabian Travellers of the Ninth Century. • Renaudot का जन्म पेरिस में १६४६ ई० में हुआ था। वह प्रसिद्ध धर्मशास्त्री और पुरातत्ववेत्ता था | abée (पूज्य, धर्माचार्य) उसकी उपाधि थी । उसकी प्रसिद्ध पुस्तकें (1) Historia Patriarcharum Alexandrinorum (Paris, I713) और (2) Collection of Eastern Litergic (2 vols. 1715-16) हैं। उसकी मृत्यु १७२० ई० में हुई। -F. B., Vol. XX, p. 394 अरब के सुप्रसिद्ध इतिहासलेखक और भूगोलवेत्ता अबुल फिदा का जन्म दमिश्क में ६७२ हिज़री (१२७३ ई०) में हुमा था। बादशाह सलादीन के पिता अय्यूब का सीधा वंशज होने के कारण वह राजवंश का निकट सम्बन्धी था । उसने १३१०६० से १३३१ ई० तक हमा नामक जागीर पर शान्तिपूर्वक राज्य किया। अबुलफिदा के मुख्य ऐतिहासिक ग्रन्थ का विषय 'मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास' है जिसमें संसार की सुष्टि से १३२८ ई. तक का इतिहास वर्णित है। लेखक ने यद्यपि अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के मतों का ही संकलन किया है और यह कहना कठिन है कि Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ८; नहरवाळा और यूरोपीय लेखक [१४६ के अनुवादक ग्रीव्स्' (Greaves) से लेकर सत्पुरुष सर जॉन चार्डिन' (sir John Chardin) तक अरबी साहित्य के प्रत्येक अनुशीलनकर्ता यात्री की आलोचना की है, यहाँ तक कि विद्वान् हाइडे (Hyde) तक को भी नहीं छोड़ा है इसमें कितना अंश मौलिक है तथा कितना संकलित, फिर भी सराँसन साम्राज्य के विषय में कितने ही तथ्यों की जानकारी का तो यह ग्रंथ ही एक मात्र स्रोत है। इस पुस्तक के बहुत से अनुवादों के संस्करण प्राप्य हैं। सब से पहला अनुवाद १६१० ई० में लंटिन भाषा हुआ था। अबुल फिदा कृत भूगोल मुसलिम साम्राज्य के विस्तार और विवरण की जानकारी के लिए महत्वपूर्ण है, परन्तु लेखक को ज्योतिष का ठीक ठीक ज्ञान न होने के कारण उसके दिए हुए अक्षांश और देशांश अशुद्ध एवं अविश्वसनीय हैं । इसका सम्पूर्ण संस्करण १८४० ई० में पेरिस से प्रकाशित हुना था। उक्त दोनों ही ग्रन्थों को पाण्डुलिपियां 'बोडलिपन लाइब्ररी' और फ्रांस की 'नेशनल लाइ. बेरी' में सुरक्षित हैं। -E. B. Vol. I, pp. 60-65 John Greaves का जन्म १६०२ ई० में हुमा था। उसने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई और १६३० ई० में वह Gresham College में रेखागणित का अध्यापक नियुक्त हुा । यूरोप भ्रमण के उपरान्त १६३७ ई० में वह पूर्वीय देशों में भी गया और वहाँ उसने ग्रोक, अरबी व फारसी के बहुत से हस्तलिखित ग्रंथ एकत्रित किये। उनके प्राधार पर उसने सम्बद्ध विषयों का व्यापक अध्ययन किया। मिश्र के पिरामिडों के विषय में उसका कार्य सर्वाधिक प्रसिद्ध है । उसकी मृत्यु १६५२ ई० में हुई। -E. B., Vol. X, p. 79 ' Sir John Chardin का जन्म पेरिस में १६४३ ई. में हुमा था। वह दो बार फारस व भारत भ्रमण के लिए प्राया था। १६८६ ई० में उसने अपनी यात्रा के विस्तृत विवरण का प्रथम भाग 'The Travels of Sir John Chardin into Persia and the East Indies etc.' (London) प्रकाशित कराया। बाद में, १७११ में 'Journal du Voyage du Chevalier Chardin नाम से उसका सम्पूर्ण विवरण निकला। वह इंगलैण्ड के बादशाह Charles II का दरबारी जोहरी था। उसका देहांत १७१३ ई० में हुआ। -E B. Vol, V, p. 400 3 Thomas Hyde सुप्रसिद्ध प्राच्यविद्याविद् था। उसका जन्म Shropshire (श्रॉप शायर) में १६३६ ईस्वी में हुआ था। उसके पिता भी पूर्वीय भाषायें जानते थे और उन्हीं से उसने पूर्वीय भाषा का पहला पाठ पढ़ा था। हाइडे अरबी, फारसी, सीरियाई, तुर्की, मलाई और हिब्रू भाषामों का बहुत अच्छा जानकार था । १६६५ ईस्वी में कुछ दिन सहायक के पद पर काम करने के बाद वह सुप्रसिद्ध बोडलियन लाइब्रेरी का प्रमुख पुस्तकालयाध्यक्ष नियुक्त हुमा प्रोर १७०१ ईस्वी तक उस पद पर कार्य करता रहा। १७०३ ईस्वी में उसकी मृत्यु हुई। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] पश्चिमी भारत की यात्रा . परन्तु, शहरों के नामों में कुछ उच्चारण की समानता और कुछ चाँदी के सिक्कों के उल्लेख के अतिरिक्त यह सभी विवरण सन्देहात्मक और अस्पष्ट सा प्रतीत होता है; और, उक्त दोनों बातों का पता तो वे अपने 'आनन्दप्रद' समुद्रतट को छोड़े बिना किसी साधारण नाविक से पूछ कर भी चला सकते थे। कुछ भी हो, जहाँ तक 'मोहरमी-अल-अदर (कान छिदाने वालों) के बलहरा राजाओं का सम्बन्ध है, यह कृति इतनी भ्रामक है कि यदि एम० रेनॅडो की 'प्राचीन सम्बन्ध' (Rclations anciennes) नामक पुस्तक न भी प्रकाशित होती तो साहित्यिक जगत् की किंचित् मात्र भी हानि न होती। अरबी और यूरोपीय आलोचक अपने बौद्धिक अनुमानों में पर्याप्त समय नष्ट करने के बाद भी इस अन्धेरे विषय पर पूरा-पूरा प्रकाश नहीं डाल सके । समरकन्द के राजवंशीय ज्योतिषी उलुगबेग' का अनुसरण करते हुए उन्होंने अणहिलवाड़ा को स्थिति प्राच्य पुरातात्विक विशाल निधि की अोर पश्चिमी विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करने वाले अग्रगण्य विद्वानों में हाइडे की गणना की जाती है । उसकी प्रमुख कृतियों में निम्न लिखित उल्लेखनीय हैं १. उलुगवेगी सारणी के प्राधार पर देशांश और अक्षांश पर विचार सम्बन्धी ग्रन्थ२. मलाई भाषा सम्बन्धी ग्रंथ--१६७७ ई० ३. Historia Religionis--१७०० ई० ४. हाईडे के कुछ अप्रकाशित ग्रंथ और लेखादि को डा० ग्रीगोरी शॉप (Gregory ___Sharpe) ने १६६७ ईस्वी में प्रकाशित किया था। ५. हाइडे ने बोडलियन लाइब्रेरी का सूचीपत्र भी १६७४ ईस्वी में प्रकट किया था। -E. B., Vol. XII, p. 426-27 ' मिर्जा मुहम्मद बिन शाह रुख उलुग बैग समरकंद के बादशाह तैमूर महान् का पोत्र था। वह ज्योतिष शास्त्र का महान् विद्वान था । उसने समरकंद में एक वेधशाला भी बनवाई थी जहाँ से सूर्य, चन्द्र और अन्य ग्रहों का वेध करके सारणियां प्रसारित की जाती थीं। इन सारणियों के साथ बड़े रोचक वक्तव्य भी निकलते थे जिन से त्रिकोणमिति और ज्योतिर्गणित पर प्रकाश पड़ता था। Sedillot (सीडीलोट) ने पेरिस से १८४७ ईस्वी में इनको प्रकट किया और बाद में १८५३ ई० में इनका अनुवाद भी प्रकाशित किया। (Prolegomenes des Tables Astronomiques d'Ouloug Beg) उसने परब सारणियों का भी शोधन किया था। उलुग बेग का जन्म १३६४ ईस्वी में हुअा था; वह १४४७ ई० में समरकंद के तख्त पर बैठा और १४४६ ई० में उसके सब से बड़े पुत्र ने उसकी हत्या कर दी। . -E. B., Vol. XXIII, p. 722 जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंहकारित 'जीच उलुग बेगी' का संस्कृत अनु. वाद महाराजा जयपुर के नगर-प्रासाद-स्थित पोथीखाने में उपलब्ध है । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ८; नहरवाळा की स्थिति [ १५१ २२० अक्षांश उत्तर में निश्चित की है, और इस प्रकार इसे खम्भात की खाड़ी में खींच कर बन्दरगाह बना दिया है जब कि इस प्राचीन राजधानी की सही स्थिति २३°४८' उत्तर और २७°१०' देशान्तर पूर्व में है। बारहवीं शताब्दी में अल इदरिसी (El Edrisi) ने इससे नितान्त भिन्न विवरण दिया है। यह तो ठीक है कि उसने बहुत थोड़ा लिखा है परन्तु बलहरा राज्य के विस्तार, वैभव, व्यापार और धर्म के विषय में जो कुछ लिखा है वह सही और तथ्यपूर्ण है, और वह सब मेरे एतद्विषयक सभी पूर्वनिष्कर्षों की पुष्टि करता है। ____सौभाग्य से, और बहुतों के लिए दुर्भाग्य से, वह समय लद चुका जब कि साहित्यिक छल चल जाता था, अथवा जब हॅरॉडोटस' (Herodotus) जैसे अविश्वसनीय विद्वानों की सारहीन और अशुद्ध कृतियाँ गॉसलिन (Gosselin) जैसे लोगों के पष्ठों पर तथ्य-रहित चाकचक्य-युक्त प्रकाश डाला करती थीं। इस. सुप्रसिद्ध भूगोल-शास्त्री ने भारतीय भूगोल के पिता, हमारे रैनेल (Rennell) पर अपना सारा क्रोध इसलिए उँलेल दिया है कि उसने यह कल्पना करने का साहस किया कि सिन्धु (इण्डस) के मत्स्याहारी अथवा नरभक्षी पदीनों को सुन्दरं गङ्गा के किनारे बसाया जा सकता था; और इस भूल के लिए परम उदारता दिखाते हुए यह अनुमान लगा बैठा कि उसने यह भूल 'पद्धर' (गंगा का संस्कृत नाम) शब्द के कारण की है-और, इसके प्रमाणस्वरूप वह आनन्दपूर्वक पॉम्पोनियस मेला (Pomponius Mela) का प्रमाण भी देता है । एक प्राचीन भौगोलिक भूल के आधार पर कि पद्दर (Paddar) नाम की एक नदी अजमेर की पहाड़ियों से निकल कर कच्छ की खाड़ी में गिरती है, वह यह मान बैठा है कि हॅरॉडोटस के पदीन वहीं होने चाहिएँ, और हमारे देशवासी के "पदीनों को गंगा के तट पर रहने वालों में मिला देना, एक विचित्र ही कल्पना है" वाक्य . हॅरॉडोटस का जन्म ई० पू० ४८४ में हुमा माना जाता है। उसने महान् विश्व-इतिहास-ग्रंथ लिखा था जिसमें प्रायः तत्कालीन सभी ग्रीक ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। हॅरॉडोटस ने अपनी २० से ३७ वर्ष की अवस्था तक संसार के अधिकांश भाग में भ्रमण कियामुख्यतः एशिया माइनर, यूरोपीय ग्रीस और बहुत से प्रायद्वीपों में। बाद में वह एन्थेस से इटली में जाकर बस गया था। उसने अपने ग्रंथ की विस्तृत भूमिका भी लिखी है । यद्यपि उसका लेख परिमाण में बहुत अधिक है परन्तु उत्तरवर्ती अनुसंधानकर्ता उसको प्रामाणिक नहीं मानते हैं । वह पृथ्वी के चपटी होने के सिद्धान्त को नहीं मानता था। भारतवर्ष के विषय में उसका ज्ञान अधूरा था। -- Ancient India, Mc Crindle, p. Intro. xv : 'Idée bizarre de chercher à confondre les Padeens avec les Ganga---'Recherches sur la Geographie des Anciens' par Gasselin. (टिप्पणी पृ० १५२ पर चालू) rides'. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पर क्रोध कर बैठा है । अमूर्त की छाया पर झगड़ते हुए विद्वानों का विवाद भी एक मनोरंजन की वस्तु बन जाता है; अजमेर से निकल कर पद्दर नाम की कोई नदी कच्छ की खाड़ी में नहीं गिरती है और लूनी नदी पर, जो वहीं से निकल कर सिन्धु से प्राप्लावित वृहद् रण में जा मिलती है, कोई पदीन नहीं रहते । हॅरॉडोटस ने पदीनों को शिकारी और कच्चा माँस खाने वाले बताया है, अतः सम्भव है कि उसने भारत में अब तक 'पारधी' कहलाने वाली शिकारी अथवा बहेलिया जाति के बारे में सुन लिया होगा; परन्तु इन लोगों के व्यवसाय के समान इनका निवास स्थान भी स्थायी नहीं है । " अब हम अणहिलवाड़ा राज्य के विषय में इसी के इतिहास से उद्धरण देते हुए इसकी वर्तमान स्थिति एवं निजी पर्यवेक्षण के आधार पर कुछ बातें प्रस्तुत करेंगे | जिस प्राचीन नहरवाला के अन्वेषण में द' ऑनविले तत्पर था उसके विषय में तो हमें वृद्ध यहूदी पैगम्बर के समान यही कहना पड़ेगा कि वे भग्न- हृदय होकर तुम्हारे लिए यह कहते हुए विलाप करेंगे और पश्चात्ताप करेंगे कि टायर ( Tyre ) नगर कैसा 'क था ?' अणहिलवाड़ा बन्दरगाह न होते हुए भी भारत का Gangarides शब्द का संस्कृत रूप 'गाङ्गराष्ट्रिय' बताया गया है, परन्तु Lassen ने इसे विशुद्ध ग्रीक शब्द माना है । सामान्यतः गंगा के तट पर बसे हुए अथवा घूमने-फिरने वाले जन-समुदायों के लिए ही यह शब्द प्रयुक्त हुआ है । Periplus के अनुसार गङ्ग (Gangé) इनकी राजधानी थी। Pliny का कहना है कि Parthalis इनकी राजधानी थी, जो 'वर्धन', आधुनिक बर्दवान, के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती । सम्भवत: दक्षिण बिहार के 'गोङ घी', उत्तर-पश्चिम के 'गाङ्गयी' मोर पूर्वीय बंगाल के 'गङ्गरार' इसी Gangaride शब्द के परिवर्तित रूप हैं जो मूलतः उस समय एतद्देशीय समस्त जन-समुदाय के लिए व्यवहृत हुआ हो । वैसे, संस्कृत में 'गङ्गाय' अथवा 'गाङ्गतेय' शब्द हैं, जिनका अर्थ 'गङ्गातट पर घूमने-फिरने वाले लोग' और 'मत्स्य विशेष' दिया गया है। स्वाभाविक है कि तटवासी मत्स्याहारी तो थे ही । - वाचस्पतयम् और त्रिकाण्डशेष कोष । इसी लेखक द्वारा हमें ( पृ० २२२) यह भी गम्भीर सूचना प्राप्त होती है कि Syrastrene (साइरास्ट्रीनी) नाम की उत्पत्ति Syrastra - साइराष्ट्र [ सौराष्ट्र ( ? ) ] |- नामक एक छोटेसे गाँव से है (Vers le fond du Golfe de Cutch) जो कच्छ की खाड़ी के पास है; फिर, भाग ३ के पु० २२४ पर स्वर उच्चारण के साम्य के प्राधार पर ही यह तथ्य निर्धारित किया गया कि "Dunga se reconnoit avec une simple transposition de deux letters daus le petit village de Gundar." Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ८; बलहरा पद की उत्पत्ति [ १५३ टायर (Tyre) था क्योंकि भारतीय बन्दरगाह तो खम्भात में था; परन्तु, यह भी असम्भव नहीं है कि प्राचीन टायर नगर ने यहाँ के बहुमुखी व्यापार में योग दिया हो जिसके कारण अफ्रीका और अरब का माल अति प्राचीनकाल से विभिन्न शाखाओं में बँट गया था, और यह भी नहीं कहा जा सकता कि सॉलोमन के साथी और वाहक हिरम के नाविकों ने भारत के सीरिया, सौर भूमि, का मार्ग उस समय तक तलाश नहीं कर लिया था। ऐतिहासिक काव्य 'कुमारपाल-चरित्र' में अणहिलवाड़ा के राजवंशों का चित्रण हुआ है। इस काव्य में से उद्धरण देने के पूर्व यहाँ के क्रमानुगत राजाओं द्वारा प्रयुक्त 'बलहरा' पद का उद्गम अवगत करने के निमित्त इससे भी पहले के युग का अनुशीलन करना अधिक संगत होगा। भारतवर्ष के सुन्दरतम प्रदेश सौराष्ट्र में बहुत पहले आकर बसने वाली जातियों में बल्ल या वल्ल (Balla) नामक जाति थी जिसको कुछ विद्वानों ने महान् इन्दुवंश की शाखा बतायी है-इसी लिए इसका नाम 'बलि का पुत्र' (Bali ca putra) पड़ा है, जिसका मूल (बालिकदेश), (Balica des) २, Balk (बल्क) अथवा ग्रीकों का बेक्ट्रियिा (Bactria) है। इस अनुश्रुति के मूल में कुछ भी तथ्य छुपा हो, परन्तु इस जाति के राजाओं को भाटों द्वारा दिये हुए 'ठट्ट मुलतान का राय' (Tatta Mooltan ca Rae) विशेषण से इसका प्रबल समर्थन अवश्य हो जाता है। एक दूसरे अधिकारी विद्वान् का मत है कि राम के ज्येष्ठ पुत्र लव (जिसको लौ Lao बोलते हैं) के पुत्र का नाम बल्ल था। उसने धऊक (Dhauk) नामक प्राचीन नगर को विजय किया था जो मंगीपट्टन कहलाता है और वही वळा-खेत्र (Bala-Khetra) नाम से प्रसिद्ध इस क्षेत्र की राजधानी है । कालान्तर में, इस वंश के लोगों ने वलभी की स्थापना की और 'बाल-राय'' का पद ग्रहण किया। इस प्रकार ये लोग सूर्यवंशी थे, न कि इन्दु , इसी कारण यह प्रदेश 'वल्ल-मण्डल' कहलाया। --एपिग्राफिया इण्डिका, भा० १८, पृ० ६५ • मिस्टर एल्फिन्स्टन ने बताया है कि इसका पूर्व-गौरव इसके विशेषण 'अम-अल-बेलाद' -Um-ul-Belad (नगरों की माता) से प्रतीत होता है। 3 सौराष्ट्र में 'ढांक' या 'ढंक' नामक स्थान से तात्पर्य है । Dhank के स्थान पर Dhauk मुद्रित होने से शायद यह गड़बड़ी हुई है। ४ 'बालराय' अथवा 'बलहरा' पद का सम्बन्ध 'बल्ल-प्रदेश के राय अथवा राजा होने से है, केवल सोलंकी-वंश के राजामों से ही नहीं। वलभी का राज्य ७६६ ई. के लगभग नम्र हो चुका था और चौलुक्य राजा मंगलीश की मृत्यु के बाद उसका राज्य दो भागों में बँट गया था। उनमें से पुलकेशिन के वंशज वल्लभ कीर्तिवर्मा को पराजित करके मान्यखेट के राष्टकूट-वंशीय दन्ति दुर्ग ने ७५३ ई० के लगभग उसका राज्य हस्तगत कर लिया था और 'वल्लभराज' अथवा 'बाल गय', जिसका अपभ्रंश 'बलहरा' है, उपाधि ग्रहण की थी। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा वंशी । मेवाड़ के राणा भी इसी वंश के हैं। ढाँक का वर्तमान शासक भी, जो मेरे उधर से निकलने के समय बन्दी था, बल्ल-वंशी ही है। बल्ल लोग केवल सूर्य की ही उपासना करते हैं और सौराष्ट्र में ही इस देवता के मन्दिर अधिक मिलते हैं।' इस प्रकार धर्म, उद्गम-सम्बन्धी जनश्रुति और प्राकृति आदि सभी बातों से यह विदित होता है कि इस जाति का उद्गम इण्डोसीथिक शाखा से हना है, और सम्भवतः म्लेच्छवंशीय होने की बात छुपाने के लिए राम के वंशज होने की कथा गढ़ ली गई है । वलभी, जिसको मानचित्र में वळे ह' (Walleh लिखा है और जिस [मूल] ग्राम का अब पता भी नहीं लगता है, की परिधि बारह अथवा पन्द्रह कोस बताई जाती है। यहाँ की नीवों में से अब भी बड़ीबड़ी ईंटें खोद कर निकाली जाती हैं जो डेढ़ से दो फीट तक लम्बी होती हैं; परन्तु, इस विषय में फिर लिखेंगे। अरब-यात्रियों के बलहरों अर्थात् टोलेमी उसके वंशज भी इस पद का उपभोग ६७३ ई. तक करते रहे । तदनन्तर चौलुक्य-वंशीय तैलिप द्वितीय ने राष्ट्रकूट कक्कर'ज द्वितीय से पुनः यहाँ का राज्य छीन लिया। इण्डियन एण्टोक्वेरी, भा० ११, पृ० १११ पर एक दानपत्र उद्धृत है, जिससे उक्त बातों की पुष्टि होती है। १ बड़ौदा में भी एक सूर्यनारायण का मंदिर है; गायकवाड़ के प्रधान मन्त्री इसके उपासक हैं । यह प्रधान मन्त्री पुरवई (Purvoe) जाति के हैं, जो, में समझता हूँ, प्राचीन गुबे (Gucbre) जाति से निकले हैं। गदि में भूलता नहीं हूं तो बनारस में भी एक सूर्य मन्दिर है। ३ वल्ल-मण्डल। 3 Ptolemy (टॉलमी) मिस्र का निवासी सुप्रसिद्ध ज्योतिषी, गणितज्ञ एवं भुगोलवत्ता था। उसके जन्म-स्थान, समय एवं अन्य जीवनवृत्तान्त के विषय में स्पष्टतया कुछ भी ज्ञात नहीं है। विद्वानों का अनुमान है कि वह अलेक्जण्ड्रिया में ईसा की दूसरी शताब्दी में पैदा हुआ था। यह भी कहा जाता है कि वह टॉलमी राजवंश का था और "प्रलॅक्जण्डिया का राजा" कहलाता था। परन्तु, इन बातों के लिए कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। टॉलमी ही पहला विद्वान था जिसने ग्रीक ज्योतिष का क्रमबद्ध विषय-विवेचन किया था। उसका सब से बड़ा ज्योतिष ग्रन्थ 'Megale Syntaxis les Astronomais' बताया जाता है जो अरबी नाम 'अल मॅनॅस्त' (Almagest से अधिक प्रसिद्ध है । इस ग्रंथ में नक्षत्रों की गति, उनके प्रभाव एवं ग्रीकों द्वारा प्रयुक्त ज्योतिष-यन्त्रों का विस्तृत विवरण दिया गया है। कापरनिकस द्वारा निरस्त होने तक उसके सिद्धान्त सर्वमान्य रहे । उस के भूगोल-ग्रन्थ Geographika Syntaxis का भी बहुत ऐतिहासिक महत्त्व है । इसमें वर्णनात्मक सूचनाएँ तो बहुत कम हैं परन्तु विभिन्न देशों की अक्षांश और देशांशस्थिति बताते हुए एक विशाल मूची दी हुई है। (चालू) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ८; कुमारपाल चरित्र [ १५५ (Ptolemy) के बालेकूरों (Balekouras) के उद्गम के विषय में पर्याप्त कहा जा चुका है क्योंकि दूसरी शताब्दी में मिस्र के इस शाही भूगोल-शास्त्री को इस ओर भी ध्यान देना पड़ा था। अब हम कुमारपालचरित्र में से वे उद्धरण प्रस्तुत करते हैं जिनमें वंश और राजधानी के परिवर्तन का वृत्तान्त उस समय से प्रारम्भ होता है जब चावड़ों (Chaura) अथवा सौरों (Sauras) ने बल्लों से राज्य ग्रहण किया और राजगद्दी को वलभी से अणहिलवाड़ा ले पाए । यह ग्रन्थ' अड़तीस हजार श्लोकों में है और इसका मूल संस्कृत में है। इसके रचयिता जैनों के प्रसिद्ध गुरु सैलग सूर प्राचार्य ने जिस राजा के नाम पर, मुख्यतः उसीका चरित्र वर्णन करने के निमित्त, इसकी रचना की है उसने ११४३ [११३३] ई० से ११६६ ई० तक राज्य किया था। उसके कुल अथवा सोलंकी वंश के इतिहास को पूर्ववर्ती चावड़ा वंश से सम्बद्ध करने के लिए ग्रंथकार ने संवत् ८०२ (७४६ ई०) भारत विषयक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसने अपने पूर्ववर्ती भूगोल-शास्त्री हॅक्टोइस, (Hectoeus), ई० पू० ५००, हॅरॉडोटस-ई० पू० ४८४-४३१--टीसिग्रस (Ktesias), ई०पू० ३९८, डायोडोरस (ई०पू० १००-१०० ई०), प्लूटार्क, स्ट्राबो (ई०पू०६०-१६ ई०), कर्टिनस (Curtius) १०० ई०, एरिमन-२०० ई०, जस्टिनस (५०० ई० से पूर्व), मेगस्थनीज़ (ई० पू० ३०५), इरॉटोस्थिनीज (ई० पू० १४०), प्लिनी (२३-७६ ई.) और मॅरिनोस (१२० ई०) प्रादि के लेखों से पर्याप्त सहायता ली थी। --Ancient India as described by Ptolemy-Mc Crindle pp. 1927, Intro., xiii-xviii. विशेष-क्लॉडियस टॉलेमी कृत 'अल मजस्त' का अरबी से संस्कृत भाषामें अनुवाद करके उसी के अधार पर जयपुर-नगर-संस्थापक सवाई जयसिंह के गुरु सम्राट जगन्नाथ ने 'सिद्धान्त कौस्तुभ' नामक ग्रंथ की रचना की जिसकी एक हस्तलिखित प्रति महाराजा जयपुर के पोथी खाना में उपलब्ध है। १ इस ग्रन्थ का एक संस्करण गुजराती भाषा में है और इसी की संवत् १४६२ (१४३६ ई०). में लिखित प्रतिलिपि उदयपुर में महाराणा के पुस्तकालय से प्राप्त कर के सर्वप्रथम मैंने अनुवाद किया था। यह स्पष्ट है कि इसी संस्करण के आधार पर अबुल फजल ने अपने गुजरात के पूर्व इतिहास का ढांचा तैयार किया था और उसमें राजवंशों की तालिका दी थी। बाद में, प्रणाहलवाड़ा के पुस्तकालय से मुझे संस्कृत मूल को भी एक प्रतिलिपि मिल गई जिसका भी मैंने जैन यति की सहायता से अनुवाद कर डाला, जो गुजराती संस्करण से पूर्णतः मिल गया । ये दोनों ही अनुवाद मैंने रायल एशियाटिक सोसाइटी को भेंट कर दिए। २ शीलगुण मरि, जिनको क० टॉड सैलग सूरि लिखते हैं, कुमारपालचरित के कर्ता नहीं, जैन आचार्य थे, जिन्होंने वनराज को अपने संरक्षण में रखा था। वास्तव में, क. टॉड को जो कुमारपालचरित्र की प्रति मिली थी वह सैलग सूरि की कृति नहीं थी। जिन-मण्डन गणि कृत कुमारपालप्रबन्ध (सं०) का रचना-संवत् १४६२ है। जिसके आधार पर ऋषभदास कवि ने सं० १६७० में गुजराती भाषा में 'कुमारपालरास' की रचना की है। जिन-मण्डन गणि ने 'अड़तीस शास्त्रों' की रचना की थी जिसको भूल से क० टॉड 'अडतीस सहस्र' समझ गए, ऐसा लगता है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] पश्चिमी भारत को यात्रा में सोलंकी वंश की स्थापना के समय से, जब कि श्रणहिलवाड़ा की नींव पड़ी थी, वर्णन आरम्भ किया है और अपने वर्णनीय (कुमारपाल ) के पूर्ववर्ती राजानों का भी बहुत थोड़ा-थोड़ा वृत्तान्त लिखा है । इनके वर्णन में उसने वंशराज | वनराज ] चरित्र अथवा अणहिलवाड़ा के संस्थापक के इतिहास का आश्रय ग्रहण किया है। उक्त ग्रन्थ का मैंने पता तो लगा लिया था परन्तु एक तनिक सो भूल के कारण मैं उसकी प्रतिलिपि प्राप्त न कर सका । मैं यहाँ पर न तो उस क्रम का अनुसरण करूंगा जिसमें यह ग्रन्थ लिखा गया है और न शब्दशः इसकी प्रवृत्ति ही करूंगा वरन् केवल उन्हीं अंशों को लूंगा जो इस राज्य के अतीत गौरव के विकास का समर्थन करने के निमित्त श्रावश्यक हैं और जो विभिन्न राजवंशों के समयानुक्रम की तालिका से प्रारम्भ होते हैं । जिन राजाओं के कार्य उल्लेखनीय हैं उनके विषय में कुछ टिप्पणियां दे दी गई हैं । मैं यह भली भांति जानता हूँ कि ऐसे विवरण सर्वसाधारण की रुचि के विषय नहीं होते; अतः ये विशेषतः उन्हीं लोगों के लिए हैं जो प्राँख मींच कर यह मान बैठे हैं कि हिन्दुओं के पास ऐतिहासिक ग्रन्थों जैसी कोई वस्तु ही नही है । राजा का नाम बंसराज जू [ जो ] ग राज खीमराज व्यो | बी / रजी बीरसिंह [वैरिसिंह) रत्नादित्य सामन्त अणहिलवाड़ा के राजवंश प्रथम- चाउड़ा, चावड़ा अथवा सौर वंश राज्यारोहण का संवत् ८०२ ८५२ ८८७ १२ ६४१ ६६६ ६८१ सन् ७४६ ७६६ ८३१ ८५६ ८८५ १६ ६२५ राज्यकाल ५०/ ३५ २५ २६ २५ १५ ७ १८६ विशेष Chronicle इतिहास कहता है 'उसने ५० वर्ष राज्य किया और वह ६० वर्ष जीवित रहा । प्रथम अरब यात्री [२३७ अल हिजरी, ८५१ ई०] द्वितीय [ल हिजरी २५४, ८६८ ई०] संवत् ६८८ अथवा सन् ६३२ ई० तक राज्य किया । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ८; सोलंकी राज वंश [ १५७ द्वितीय - सोलंकी वंश मूलराज सिद्धपुर के स्मारक का प्रारंभ किया चाउण्ड अथवा चामुंड १०४४ ९८८ । | अबुल फजल के मतानुसार हिजरी ४१६ अथवा सं० १०६४ में महमूद से पराजित हुआ १००१ बल्लिराव अथवा बलभी सेन महमूद ने एक पुराने राजा को गद्दी पर बिठाया था; संभवतः वह यही बलभी' [वल्लभ] था। दुर्लभ अथवा नाहर राव १०५७ | १००१ | ११३ । धार के राजा भोज के पिता मुञ्ज का समकालीन जिससे वह भीमदेव को राज्य सौंपने के बाद मिला था कर्ण भीमदेव १०६६ / १०१३ | ४२ । मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दू राजा प्रों का १०४४ई. में संघटन किया ११११ / १०५५ कोलियों और भीलों को वश में किया सिद्धराज जयसिंह ११४० १०८४ कुमारपाल ११८६ । ११३३ छोनीपाल, अजयपाल १२२२ कन्नौज के जयसिंह का समकालीन अथवा जयपाल भोला भीमदेव १२२५ ११६६। ३ । | दिल्ली के पृथ्वीराज का विरोधी बाल्लो 'बाल' मूलदेव । १२२८ | २१ । सं. १२४६ अथवा सन् १९९३ ई० तक राज्य किया ११७२ २६१ , क. टॉड द्वारा दिये हुए सभी सन् संवतों में दस या अधिक वर्षों का अन्तर है, ये विश्व सनीय नहीं हैं। विशेष विवरण के लिए देखें-रासमाला 'रॉलिंसन' भाग १. अध्याय ४ । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा तृतीय- बाघेला वंश जो, शिलालेखों में अब भी चालुक्य कहलाते हैं। बीसलदेव भीमदेव अर्जुनदेव सारङ्गदेव गेला देव १२४६ ११६३ १५. १२६४ १२०८ ४२ २ १३०६ १३२६ १२५० १२७३ १३५० १२६४ २३ २१ ३ १०४ पहले दोनों वंशों की तालिकाएँ केवल कुमारपालचरित्र के आधार पर दी गई हैं, जिसमें कुमारपाल तक ही विवरण प्राप्त है । इस वंश के शेष नाम एवं तीसरी तालिका अन्य दो स्रोतों से प्राप्त की गई है । पहला, उसी शाखा के, अब मेवाड़ में बसे हुए, सोलंकी सरदारों के भाट से प्राप्त वंशावली है; और दूसरा, भौगोलिक और ऐतिहासिक विषयों आदि के एक फुटकर संग्रह में दी हुई वंशावली है, जो पश्चिम की बोली में है और एक जैन यति से प्राप्त हुना है।' इसके प्रति - रिक्त इन राजवंशों के तिथिक्रम की जाँच मैंने बीस वर्षों के शोधकाल में एकत्रित शिलालेखों से भी कर ली हैं, जिनको अन्य वंशों के इतिवृत्तों की प्रतिलिपि से टकराने पर एक ऐसे समतिथिक्रमात्मक प्रमाण की रचना हो जाती है जो कि बिरले ही पौर्वात्य इतिहासों में देखने को मिल सकती है । संक्षेप में ये सभी बातें आगे चल कर हमारी जानकारी में आवेंगी । प्रसंगवश हम यहाँ पर यह भी कहेंगे कि सन्त अबुल फजल ने हमारे देशवासी आलोचकों की तरह प्राँख मींच कर यह फ़तवा नहीं दे दिया था कि हिन्दुओं के पास इतिहास जैसी कोई वस्तु है ही नहीं । उसने अपना 'गुजरात के राजानों का संक्षिप्त इतिहास' इस प्रकार आरम्भ किया है "हिन्दुओंों की पुस्तकों में लिखा है कि विक्रमाजीत के संवत् ८०२ तदनुसार अल हिजरी सन् १५४* में बंसराज पहला राजा हुआ श्राबू के शिलालेख सोमनाथ के लेख संवत् १३५४ अथवा सन् १२६८ ई. में समाप्त; फरिश्ता के मतानुसार एक वर्ष पहले समाप्त | 9 इस संग्रह में अणहिलवाड़ा के सभी राजवंशों की तिथिक्रमानुसार तालिका, पश्चिमी बनास के उद्गम एवं मार्ग तथा पुरातत्त्व विषयक अन्य कितनी ही मनोरञ्जक बातों का विवरण दिया हुआ है । इन तालिकाओं में दिया हुआ तिथिक्रम 'रासमाला' से भिन्न है । यहाँ पर अबुल फजल ( अथवा उसके अनुवादक) की कालगणना गलत है । सं० ८०२-५६ = ७४६ ई० श्राता है, परन्तु, हिजरी सन् १५४ के अनुसार ७७१ ई० होता है; प्रतः २५ वर्षका अन्तर श्राता है। अणहिलवाड़ा की स्थापना एवं राजवंशों के विषय में हम हिन्दू तिथियों का ही अनुसरण करेंगे जिसके अनुसार अणहिलवाड़ा की नींव संवत् ८०२ अर्थात ७४६ ई० में रखी गई 1 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५६ जिसने गुजरात का स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया ।" उसने कुछ ऐसे विवरण भी दिए हैं जो किसी श्रंश में 'चरित्र' से भिन्न हैं परन्तु यह स्पष्ट है कि उसके लेख का आधार वही है । प्रकररण ८ हिन्दुओं की ऐतिहासिक पुस्तकें अब, यदि संवत् ८०२ (७४६ ई०) में अणहिलवाड़ा की स्थापना से लेकर संवत् १३५४ (१२६८ ई०) में अलाउद्दीन द्वारा इसके विध्वंस तक हुए राजाओं की एक विशृंखल श्रेणी प्राप्त हो सकती है, जो शार्लमन, खलीफा हारूं' और और सैक्सन हैप्ट्राक्स् ( Saxon Heptrarchs ) से लेकर प्लाण्टा जेनेट जॉन (Plantagenet John) तक पूर्वीय राजाओं के समकालीन हुए हैं, तो क्या फिर भी हमें यही कहा जायगा कि हिन्दुओं के पास इतिहास जैसी कोई वस्तु नहीं है ? यदि इसका अर्थ यह हो कि इतिहास - शास्त्र केवल समयानुक्रमगत घटनावर्णन से ही सम्बद्ध नहीं है तो क्या संवत् १२२० में एक जैन साधु ने कुमारपाल द्वारा बलहरों का राज्य हस्तगत करने के कारणों का विवेचन करना उचित नहीं समझा केवल इसी लिए हम यह कहने के अधिकारी हैं कि उसके द्वारा वर्णित तथ्य इतिहास से सम्बन्धित नहीं हैं ? सैक्सन ( Saxon ) *, अल्स्टर और फ्रांस के ५ १ - बगदाद का खलीफा ( ७८६ ८०६ ई० ) २ सात एंग्लो-सेक्सन राजा, जिनके अधिकार में इंगलैण्ड सात राज्यों में विभषत था । राज्यों के नाम ये थे ——- Kent, Essex, Wessex, Sussex, Merica, East Anglia और Northumbria. यह समय ४४६ ई० से नवीं शताब्दी तक का माना जाता है । N. S. E., p.632 अ देखिए टिप्पणी पृ० ४६ * Saxons प्राचीन टयू टॉनिक जाति के लोगों का नाम है । टॉलमी ने ही सब से पहले इनका उल्लेख किया है और उत्तर जर्मनी में इनका निवास बताया है । ये लोग बड़े वीर गिने जाते हैं । "Sahs" एक छोटे चाकू को कहते हैं । ऐसे ही शस्त्र रखने के कारण ये सैक्सन कहलाए । कुछ लोगों का मत है कि सैक्सन एक जगह घर बना कर बसने वाले लोगों को कहते हैं । ये साधारणतया मूर्तिपूजक धर्म को मानने वाले थे । शार्लमॅन से इनकी लम्बी लड़ाई चली परन्तु अन्त में इनकी हार हुई और इन्होंने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया । इंगलैण्ड के विकास में इनका बड़ा योग रहा है । N.S.E., p. 1104 ५ Ulster - अल्स्टर आयरलैण्ड के एक परगने का नाम है । आयरलैण्ड के इतिहास और विकास में इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] पश्चिमी भारत की यात्रा तत्कालोन इतिहासों को उठा कर देखिए; ह्य म' (Hume), हैलॅम (Hallam) और वरनॅट (Vernet) आदि को बड़ी-बड़ी वर्णनात्मक इमारतों के आधार विवरणात्मक हैं अथवा शास्त्रीय ? इसलिए, इस धारणा को हम उन्हीं लोगों को अनुभवशून्यता का उपशमन करने के लिए छोड़ देते हैं कि जिनको शोध एक संकुचित क्षेत्र में ही सीमित है और (उनके मत को) अस्वीकार न करने की दशा में ही उनकी खोज-पिपासा शान्त होती रहती है । मैं फिर कहूँगा कि इस प्रकार के अर्थहीन अनुमान लगाने में प्रवृत्त होने से पहले हमें जैसलमेर और अणहिलवाड़ा के जैन-ग्रन्थ-भण्डारों और राजपूताना के राजाओं तथा ठिकानेदारों के अनेक निजी संग्रहों का अवलोकन कर लेना चाहिए । अस्तु, अब हम अणहिलवाड़ा के तिहास में आगे चलते हैं। ___"गुजरात में एक बद्यार (Budyar बढ़ियार) नामक स्थल है जिसकी राजधानी पञ्चासर है। वहीं एक दिन शकुनों की तलाश में जंगल में घूमते हए सालिग सूरि [शीलगुण : आचार्य ने कपड़े में लिपटे हुए एक शिशु को पेड़ पर लटकते हुए पाया; पास ही एक स्त्री बैठी थी जो उसकी माँ थी। पूछने पर उस स्त्री ने बताया कि वह गुजरात के राजा की विधवा थी और किसी आक्रमणकारी ने उसके स्वामी को मार कर राजधानी को नष्ट कर दिया था। उसने यह भी बताया कि उस जनसंहार से वह किसी तरह बच निकली ' David Hume (१७११-१७७६ ई०) ग्रेट ब्रिटेन के महान् दार्शनिक, इतिहासकार और राजनैतिक अर्थशास्त्री के रूप में प्रसिद्ध है । उसकी कृतियों में (1) A Treatise on Human nature, (2) Essays Moral, Social and Political, (3) Inquiry into the Principles of Morals; (4) Political Discourses और (5) History of England मुख्य हैं। __N.S.E., p. 662 २ Henry Hallam (१७७७-१८५६ ई०) इंगलैण्ड का प्रसिद्ध इतिहासलेखक और साहित्यकार था। उसे प्रायः दार्शनिक इतिहासकार कहते हैं। उसकी प्रसिद्ध कृतियाँ(1) The View of the State of Europe during the Middle Ages, (2) Constitutional History of England att (3) Introduction to the Literature of Europe in the I sth, 16th and 17th Centuries हैं। N.S.E., p. 601 • Vernet वरनैट-नाम के तीन विख्यात चित्रकार फ्रांस में १८वीं शताब्दी में हुए हैं। N.S.E., p.1262 ४ संस्कृत-'वृद्धिपथिका। ५ 'रत्नमाला' के अनुसार कल्याण का राजा भूवद, भूयड़ अथवा भूयगड़ देव । परन्तु, कल्याण के भूवड़ का पंचासरके जयशेखर चावड़ा का समकालीन होना इतिहासमान्य नहीं है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : वनराज [ १६१ और वन में आने पर उस बालक का जन्म हुआ । यह सुन कर प्राचार्य ने उस बालक को बंसराज अथवा अधिक शुद्ध रूप में, वनराज का पद दिया जिसका अर्थ 'वन का राजा' हुआ ।' जब वह बालक बड़ा हुआ तो उसने मावला के प्रसिद्ध डाकू सूरपाल के साथ राज्यकर के खजाने को लूट लिया जो कल्याण ले जाया जा रहा था । उसी की सहायता से उसने सेना इकट्ठी की और राज्य स्थापित किया तथा एक नगर बसाया । इस नगर का स्थान उसने एक ग्वाले की सहायता से चुना था जिसका नाम अणहिल था और उसी के नाम पर यह हिलपुर अथवा अणहिल नम्रर कहलाया” । प्रागे चलने से पूर्व यह बता देना उचित होगा कि 'प्रकीर्ण संग्रह' और भाटों की परम्परा दोनों ही में उक्त काल का विवरण 'गुजरात के इतिहास' शीर्षक के अन्तर्गत दिया गया है। 'प्रकीर्ण संग्रह' में लिखा है कि 'वंशराज सौराष्ट्र के राजा जसराज चावडा' का पुत्र था और उसकी मृत्यु के पश्चात् पैदा हुआ था । प्रायद्वीप के पश्चिमी किनारे पर देव बन्दर, पट्टण और सोमनाथ, ये जसराज के मुख्य नगर थे; चावड़ा राजा के समुद्री आक्रमणों और विशेषतः बंगाल के जहाजों की लूट के कारण समुद्र में ज्वार आया और देव बंदर उसमें निमग्न हो गया। इस दुर्घटना में वंशराज की माता ( Soonderoopa) सुन्दीरूपा [ रूपसुन्दरी ] को छोड़ कर अन्य सभी लोगों का अन्त हो गया । रूपसुन्दरी को जलदेवता वरुण ने इस विपत्ति के विषय में पहले ही सचेत कर दिया था ।" भाट - परम्परा में वंशराज के जन्म और वंश की पुष्टि करते हुए यह बताया गया है कि उसके पिता जसराज और उसकी सम्पूर्ण जाति का नाश किसी विदेशी आक्रमणकारी द्वारा हुआ और उस बालक ने अपने जीवन-रक्षक जैन साधु के प्रति कृतज्ञ होकर जैनमत को प्रश्रय दिया एवं स्वयं उसे ग्रहण किया। सम्भव है, देव बन्दर के विषय में ऐसी कोई दुर्घटना हुई हो परन्तु मैं भाटों की पोथियों द्वारा समर्थित इस जनश्रुति को अधिक सही मानता हूँ कि इसका १ कुमारपाल - प्रबन्ध ( जिन मण्डन कृत) में लिखा है कि कपड़े की झोली में जिस वृक्ष की शाखा पर शिशु वनराज को माता ने लटका रखा था वह 'वरण' का पेड़ था इसी लिए आचार्य ने उस का नाम 'वरणराज' या वनराज रखा । ३ सूरपाल वनराज का मामा था, ऐसा प्रबन्धचिन्तामरिण एवं अन्य प्रबन्धों में लिखा है । 'नर' नगर का प्राकृत रूप है जिसका प्रर्थ परकोटे वाला शहर होता है । ४ जयशेखर चावड़ा, फार्बस रासमाला ( रॉलिन्सन, १६२४ ) - भा० १; अ० २ । ५ बन्दरगाह देव अथवा दिव (द्वीप) जिसको पुर्तगालियों ने Diu (बिउ ) लिखा है । कुछ इतिहास संशोधकों का मत है कि वनराज माता का नाम अक्षता या छता देवी था और उसको मोढेरा ब्राह्मणों ने संरक्षण दिया था । रासमाला, गुजराती अनुवाद भा. १, अध्याय २, दी० रणछोड़ भाई उदयराम । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा विनाश किसी विदेशी आक्रमणकारी के हाथों हुआ ।" मैं अन्यत्र कह चुका हूँ कि यह एक ऐसा समय था जब कि सभी हिन्दू साम्राज्यों में एक तूफान सा आया हुआ था । क्रान्ति, राज्यापहरण और नए नए वंशों एवं जातियों के जन्म सम्पूर्ण भारतवर्ष में हो रहे थे । ' चौहानों का इतिहास उठा कर देखिए, ठीक इसी समय सिन्ध से किसी शत्रु ने अजमेर पर आक्रमण कर के वहाँ के राजा माणिकपाल [ राय] का वध किया । इसी काल में, बप्पा रावल ने, जिसको 'बल्ला' भी कहते हैं, और जिसके पूर्वज वलभी से भाग निकले थे, चित्तौड़ प्राप्त किया तथा अपने काका मोरी (Mori ) के निमित्त किसी विदेशी शत्रु से इसकी रक्षा की। ठीक इसी संवत् में, तँवरवंशी राजानों द्वारा प्राचीन इन्द्रप्रस्थ अथवा दिल्ली की पुन: संस्थापना हुई; भोजचरित्र में लिखा है कि परमार राजा भोज को किसी उत्तरदेशीय शत्रु ने धार से निकाल दिया था और उसे चन्द्रावती में जाकर शरण लेनी पड़ी; चालुक्य अथवा सोलंकी राजाओं को भी गङ्गातट पर स्थित सोरों भद्र (Sooroh Bhadra) से निष्कासित कर दिया गया था अतः वे मलाबार में कल्याण में जा बसे थे; यदु भाटियों को पाञ्चालिका में सतलज के किनारे सुल्तानपुर ( Sulthanpur) से निकाला गया और उन्हें भारतीय रेगिस्तान, मरुस्थली में जाकर बसना पड़ा; और यहाँ तक कि ग्वालकुण्ड (गोल- कुण्डा ) तक भी उसी विनाशकारी शत्रु के प्रबल आतंक का प्रभाव फैल गया जिसको इन पुस्तकों में 'उत्तर का जादूगर' अथवा 'गजलीबन्ध ( Gujulibund ) का दानव, आदि कह कर वर्णन किया गया है । ये सब तिथियाँ और घटनाएं उस काल से मेल खाती हैं जब कि इसलाम ने भारत में पहले-पहल पदार्पण किया था और वे अपने साथ हज़ारों की संख्या में इण्डो-सीथिक जाति के उन लोगों को लाए थे, जो केवल सूर्य, अश्व और अपनी तलवार को पूजते थे तथा किसी भी धर्म अथवा मत को मानने या अपनाने के लिए तैयार थे; इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मुलतान से आते हुए काठियों ने इसी समय ( कच्छ के ) रण को पार किया था और वे सौरों के देश में बस गए थे । यहाँ पर उनका प्रभाव ' Forbes' Rāsamālā, Rawlinson, Vol. I, p. 36 २ इन घटनाओं का विस्तृत विवरण 'इतिहास' क्रुक्स संस्करण, १६२०; भा. १ पृ. २८८२६० र पढ़िए । 3 कजलीवन । ४ संभव है, अणहिलवाड़ा के प्रथम राजवंश का द्योतक 'चावड़ा' शब्द 'सोर' शब्द का ही पभ्रंश हो (क्योंकि) 'च' और 'श' निरंतर अन्तःपरिवर्तनीय हैं। मराठा लोग 'च' नहीं बोल पाते; वे 'चीतो' को 'सीतो' कहते हैं, इत्यादि । संभव है, देव शोर सोमनाथ के सौर राजानों ने ही गुजरात के प्रायद्वीप को 'अपना राष्ट्र' (सौराष्ट्र) नाम दिया हो । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ८; तत्कालीन भारत में क्रांति [ १६३ इतना अधिक फैला कि इस प्रदेश का नाम काठी-वाड़ [ काठियावाड़ ] प्रसिद्ध होकर पुराना नाम सौराष्ट्र गौण पड़ गया। प्राचीन हिन्दुनों की भ्रमणशील वृत्ति को स्वीकार करने वाले चाहे न मानें परन्तु सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व एवं पश्चात् होने वाले इन विस्फोटों के कारण घटित हुए परिवर्तनों के विषय में वे कोई विवाद उपस्थित नहीं कर सकते । इस प्रदेश के अन्तर्निवासियों के लिए सिन्धु नदी 'अटक '' भले ही रही हो परन्तु बाहरी 'ईमाँ ( Iman) लुटेरों' के rust के लिए इससे कोई ऐसी अटक नहीं थी । इसीलिए इस छोटे से प्रायद्वीप में उत्तर की बहुत सी जातियों के नमूने अब तक भी पाए जाते हैं । अस्तु, अब प्रौर श्रागे चलिए । । वंशराज द्वारा अणहिलवाड़ा की स्थापना के श्रागे नगर-वर्णन आता है जो बहुत ही शोभा-समृद्धि के साथ आरम्भ होता है धार्मिक लेखक ने इस नगर खों देखा चित्र खींचा है अथवा निर्माता के समय में यह जैसा था उसका वर्णन किया है, इस बात का तो हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं। इन क्रान्तिकारी प्रदेशों में नया नगर बसाने के लिए लोगों को जो सुविधाएँ दी जाती हैं वे आश्चर्यजनक होती हैं; फिर भी, ग्रन्थकर्त्ता ने जिस शोभा और समृद्धि का वर्णन किया है वह एक ही राजा के राज्यकाल में प्राप्त हो गई हो, यह , सम्भव है । परन्तु यदि आचार्य का कथन ही सत्य मान लिया जाय तो हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि पराजित चावड़ा राजा ने तो केवल अपनी राजधानी देवपट्टण से अणहिलपुर में बदल दी थी; और इतना हम साधिकार अधिक कह सकते हैं कि विनष्ट वलभी के विस्थापित निवासियों के दल के दल बालरायों की नयी राजधानी बसाने के लिए वहाँ पर चले आए थे । यह भी असम्भव नहीं है कि जिस नगर की वंशराज ने वृद्धि की वह पहले ही से विद्यमान हो। इस अनुमान की पुष्टि किसी अंश में मेवाड़ के इतिहास से होती है, जिसमें यह वर्णित है कि गुहिलोत वंश का संस्थापक बप्पा ( जिसके पूर्वज बहुत पहले बलभी के शासक रह चुके थे ) चित्तौड़ में अच्छी तरह जम जाने के बाद एक सेना लेकर अपने भतीजे चावड़ा राजा को अपने पूर्वजों के राज्य में पुनः संस्थापित करने के लिये गया था । इससे हम यह भी अनुमान लगा सकते हैं कि देव-पट्टण के चावड़ा वलभी ''घटक' का अर्थ है - प्रडचन या रुकावट अथवा रोधक । सिन्धु को यह नाम आधुनिक समय में दिया गया है जब कि हिन्दू लोग अपनी मतविभिन्नता के कारण (शेष संसार मे ) पृथक् रह गए । परन्तु, इतना होने पर भी मनु ने लिखा है कि मध्य एशिया में हिन्दू-धर्म स्थापित हुआ था; भारतीय इतिहास के Savans ने सिन्धु को अपनी शोध में उतना ही 'uce' बना दिया जितना कि हिन्दुओंों ने अपने धर्म को । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] पश्चिमी भारत का यात्रा के आधीन थे। मेवाड़ के इतिहास' में इस घटना का समय संवत् ७६६ (७४० ई०) बताया गया है। इतिवृत्त [प्रकीर्ण संग्रह) में आगे लिखा है कि "अणहिलपुर बारह कोस' (१५ मील) के घेरे में बसा हुआ था, जिसमें अनेक मन्दिर और पाठशालाएं थीं; चौरासी चौक और चौरासी बाजार थे, जिनमें सोने और चाँदी के सिक्कों की टकसालें थीं। विभिन्न वर्गों के अलग-अलग मोहल्ले थे, जिनमें अलगअलग तरह के व्यवसाय चलते थे जैसे हाथीदाँत, रेशम, लाल, हीरे, मोती आदि के पृथक-पृथक् चौक' थे । सर्राफों अथवा मुद्रा-व्यवसायियों का एक बाजार था; सुगन्धित द्रव्यों और अंगरागों का एक; चिकित्सकों अथवा अत्तारों का एक; दस्तकारों का एक; सुनारों का एक और चाँदी का काम करने वालों का दूसरा; मल्लाहों, चारणों और भाटों के भी अलग-अलग मोहल्ले थे। नगर में अट्ठारह वर्णों अथवा जातियों के लोग बसते थे। सभी सुखी थे। राजमहल भी शस्त्रागार, पालान (हाथीशाला), घुड़साल और रथागार आदि के लिए अलग-अलग बनी हुई इमारतों से घिरा हुआ था। विभिन्न प्रकार के सामानों के लिए अलग-अलग मंडियां थीं, जहाँ पर आयात, निर्यात और विक्री पर चुंगी लो जाती थी; जैसे-मसालों, फलों, औषधियों, कपूर, धातु, और देशी अथवा विदेशी प्रत्येक बहुमूल्य वस्तु पर कर लिया जाता था। यहाँ दुनियाँ भर की चीजों का व्यापार होता था। चुंगी को दैनिक प्राय एक लाख टंक होती थी। यदि आप पानी मांगोगे तो आपको दूध मिलेगा। बहुत से जैन मन्दिर हैं और एक झील के किनारे सहस्रलिंग महादेव का मन्दिर भी बना हुआ है । यहाँ की आबादीचम्पा, पुन्नाग, खजूर (ताड), जम्बू, चन्दन और ग्राम की कुंजों के बीच में १ देखो 'राजस्थान का इतिहास' भा. १, ५, २२७ २ कोस शब्द का अनुमान गो (गाय) के रंभाने [क्रोश से लगाते हैं जो प्रावाज किसी भी दिन के शान्त वातावरण में सवा मील तक सुनी जा सकती है। ३ इटालियन 'piazza' शब्द से इसका अर्थ बहुत अच्छी तरह व्यक्त होता है। * एक ताँबे का सिक्का जिसके मूल्य में परिवर्तन होता रहता है परन्तु साधारणतया उसकी कीमत एक रुपये के बीस टंक समझी जा सकती है । इस प्रकार अकेले प्रणहिलवाड़ा की चुंगी को प्राय पाँच हजार रुपये प्रतिदिन होती थी अथवा अट्ठारह लाख रुपया वार्षिक, जो दो लाख पचीस हजार पौण्ड के बराबर होती है। इस राशि का मूल्य यदि प्राज ब्रांका जाय तो दस लाख (पौण्ड) होगा । अब यदि इस प्राय में राज्य के चौरासी बन्दरगाहों पर वसूल होने वाले आयात-निर्यात कर को और जोड़ दिया जाय तो फिर परब यात्रियों ने जिस समृद्धि का वर्णन किया है उस पर हमें प्राश्चर्य नहीं होना चाहिए। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ८; अणहिलपुर का वर्णन [१६५ आनन्द से बसी हुई है, जहाँ तरह-तरह की बेलें फैल रही हैं तथा झरनों में अमृत जैसा निर्मल जल बहता है। यहाँ श्रोताओं के लिए वेदों पर उपदेशप्रद वाद (व्याख्यान) होता है । यहाँ पर बोहरे' बहुत हैं और वीरगाँव में भी कम नहीं हैं । यहाँ व्रतियों (यति अथवा जैन साधु), सत्यवादी और व्यवहार-कुशल व्यापारियों तथा व्याकरण-पाठशालाओं की भी कमी नहीं है। अणहिलवाड़ा नर-समुद्र है । यदि पाप समुद्र के पानी को माप सकें तो यहाँ पर निवास करने वाली आत्माओं को गिनने का प्रयास करें। सेना असंख्य है और घंटाधारी हाथियों की भी कमी नहीं है । सालिग सूरि ने वंशराज के ललाट पर राजतिलक किया। वंश राज ने पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया जिनके धर्म का वह अनुयायी था। यह सब संवत् ८०२ में हुआ। वंशराज ने पचास वर्ष राज्य किया और वह साठ वर्ष तक जीवित रहा। ___ इस संक्षिप्त भूमिका के बाद चावड़ा राजाओं की वंशावलो देकर ग्रन्थकार ने सन्तोष कर लिया है । वंशराज के क्रमानुयायियों से वंश-परिवर्तन तक कोई व्याख्या अथवा टीका-टिप्पणी नहीं को गई है और इस प्रकार वह अपने वर्णनीय कुमारपाल तक जा पहुँचता है, जिसके निमित्त यह काव्य रचा गया है। प्रस्तु, ' कारीगरों (दस्तकारों) और किसानों को धन उधार देने वाले बोहरे हिन्दुस्तान भर में पाए जाते हैं जो उद्योगों की पैदावार को हस्तगत करने के लिए लिखा-पढ़ी करा लेते हैं। यह प्राचीन फ्रेंच प्रथा मेतायर (Métayer) के बहुत समान है। घनीमाबादी की पुष्टि में इतिहासकार ने निम्नलिखित अतिशयोक्तिपूर्ण घटना का उल्लेख किया है। "एक दिन, एक स्त्री का पति खो गया। राजा के पास जाकर उसने अपना दुःख निवेदन किया। उसने नगरढिंढोरा पिटवाया कि जो कोई राणो (Ranoh) नाम का काना व्यक्ति हो वह बड़े चबूतरे (न्यायपीठ) पर उपस्थित हो जाय । इस पर नौ सौ निन्यानवे राणो नामक काने व्यक्ति वहां पर पा गए। वह दुःखिनी स्त्री उनकी कतार के चारों ओर घूम गई परन्तु उसका पति नहीं मिला। फिर दुबारा ढिंढोरा पीटा गया तब कहीं उसके पति का पता चला।" 3 रत्नमाला ग्रंथ के अनुसार वनराज ५० वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा था और फिर लगभग ६० वर्ष तक जीवित रहा। उसकी सम्पूर्ण प्रायु १०६ वर्ष २ मास २१ दिन को हुई थी। (प्रबन्ध चिन्तामणि पृष्ठ १३) । प्राईन ए-अकबरी में भी वनराज का ७४६ ई० में गद्दी पर बैठना और ८०६ ई० तक राज्य करना लिखा है। परन्तु, डा० भगवानलाल इन्द्रजी ने (इण्डियन एन्टीक्वेरी भा० १७, पृ० १९२) वनराज का राज्यकाल ७६५ ई० से ७८० ई० तक माना है और योगराज का राज्यारोहण समय ८०६ ई. बताया है। बीच के २६ वर्ष के अन्तर का कोई समाधान अभी नहीं हो पाया है । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अन्य नामों के विषय में हम उनके दूसरे समकालीन लेखकों के आधार पर ही उल्लेख करेंगे। अणहिलवाड़ा के संस्थापक के बाद जगराज योगराज] संवत् ८५२ ७६६ ई०) में गद्दी पर बैठा और उसने पैंतीस वर्ष राज्य किया। ___ खीमराज [क्षेमराज] संवत् ८८७ (८३१ ई०) में गद्दी पर बैठा और पच्चीस वर्ष राज्य करके संवत् ६१२ (८५६ ई०) में मर गया। इसी राजा के राज्यकाल में सबसे पहला अरब-यात्री' अणहिलवाड़ा राज्य में हिजरी सन् २३७ तदनुसार ८५१ ई० में आया था और दूसरा सत्रह वर्ष बाद हिजरी सन् २५४ (८६८ ई.) में उसके उत्तराधिकारी के समय में पाया था। बीरजी [वीरसिंह] संवत् ६१२ (८५६ ई०) में सिंहासन पर बैठा तथा २६ वर्ष राज्य करके संवत् ६४१ (८८५ ई०) में दिवंगत हा।। इन अरब यात्रियों ने अपने आगमन के समय राज्य करने वाले राजाओं के नाम तक नहीं दिए हैं- प्रस्तु, उनके द्वारा प्राप्त सूचना का क्रमशः विभाजन न करके अणहिलवाड़ा के शासकों की इतिहास में वर्णित समृद्धि के विषय में उनके द्वारा सम्मत प्रमाण का ही यहाँ पर उपयोग करेंगे । "बल्हरा भारत भर में सब से प्रख्यात और महान् राजा है; दूसरे राजा लोग यद्यपि अपने अपने-राज्यों के स्वतंत्र स्वामी हैं परन्तु उसके इस महत्त्व और विशेषाधिकार को सदा स्वीकार करते हैं । जब कभी वह अपना राजदूत उनके यहाँ भेजता है तो वे उसके सम्मान के लिए असाधारण आदर प्रदर्शित करते हैं । अरबों की रीति के अनुसार यह राजा भी बहुमूल्य भेंट और पुरस्कार प्रदान करता है। इसके यहाँ बहुत बड़ी संख्या में घोड़े और हाथी रहते हैं तथा खजाने में भी अतुल धन है। इसके यहाँ वे तातारी चांदी के सिक्के भी प्राप्य हैं जो 'तातारी द्रम्म' कहलाते हैं और जो तौल में 'अरब द्रम्म' से आधा द्रम्म* अधिक होते हैं। इन सिक्कों पर राजा की मूर्ति का ठप्पा लगा होता है और पूर्ववर्ती राजा की मृत्यु के बाद वर्तमान शासक • अरब के सौदागर सुलेमान ने, जो हिजरी सन् २३७ (९०८ वि; ८५१ ई०) में गुजरात पाया था, 'सिल सिलात-उत्-तवारीख' नामक पुस्तक लिखी थी। बाद में, अबू जैद प्रल हसन ने उसका शोधन किया और हिजरी सन् ३०३ (९७३ वि ; ६१६ ई०) में सम्पूर्ण की । अबू फारस की खाड़ी के किनारे सिराफ नामक स्थान का निवासी था। -History of India, Elliot and Dowson; Vol. I, pp. 3-4 Arabesque drachm ३ चाँदी का सिक्का जो तोल में ६० प्रेन के बराबर होता था। १ ग्रेन-१॥ रती, इसलिए ६० ग्रेन=१ तोला के लगभग । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ८; अणहिलवाड़ा के राजा [ १६७ के राज्यकाल का संवत् अंकित रहता है। ये लोग अरबों की तरह मोहम्मद के सन् से वर्षों का हिसाब नहीं लगाते अपितु अपने राजाओं के राज्यकाल के ही वर्ष गिनते हैं। इनमें से बहुत से राजा दीर्घ काल तक जीवित रहे हैं और पचास वर्षों से भी अधिक समय तक राज्य कर गये हैं; यहाँ के लोगों का विश्वास है कि इनका दीर्घजीवन और राज्यकाल अरबों के प्रति इनके सद्भाव का ही प्रतिफल है। वास्तव में, अरबों के प्रति इतना हार्दिक सौहार्द रखने वाले दूसरे राजा नहीं हैं और इनको प्रजा का भी हमारे प्रति वैसा ही मित्रभाव है। "बल्हरा कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है अपितु यह तो 'खुसरो' (Cosroes) एवं अन्य उपनामों तथा अवटंकों की भांति है, जो सभी राजाओं के नामों के साथ व्यवहृत होता है। जो देश इस राजा के अधिकार में है वह 'कमकम' नामक प्रान्त के किनारे से प्रारम्भ हो कर थल-मार्ग से चीन तक जा पहुंचा है। इसका प्रदेश अन्य ऐसे-ऐसे राजाओं के राज्यों से घिरा हुआ है जो इससे लड़ाई रखते हैं; परन्तु, यह राजा कभी उन पर चढ़ाई नहीं करता। इनमें से एक हरज़ (Haraz) का राजा है जिसके पास बहुत बड़ी सेना है और भारत के सभी अन्य राजामों की अपेक्षा अधिक घुड़सवार रखता है । इस राजा को मोहम्मद के मत से बहुत घणा है । इसका राज्य एक अन्तरीप [भूनासिका] पर स्थित है जहाँ पर बहुत सा माल, ऊँट और पशुधन है । यहां के निवासी चाँदी लेकर यात्रा करते हैं जिसे वे खोदकर निकालते हैं। उनका कहना है कि प्रायद्वीप में बहुत सी चांदी की खाने हैं। इन राज्यों की सीमा 'राहमी' नामक राजा के राज्य से मिली हई है जो हरज के राजा और बल्हरों से लड़ाई रखता है । उच्चवंश अथवा राज्य की प्राचीनता के कारण तो इस राजा का कोई सम्मान नहीं है, परन्तु इसके पास सेना बल्हरा राजा से भी अधिक है । इसी देश में लोग रूई की ऐसी-ऐसी विचित्र पोशाकें बनाते हैं कि अन्यत्र तो वैसी देखने को भी नहीं मिलती। इस देश में कौड़ियों को चलन है, जो छोटे सिक्के की जगह काम में आती हैं; 'साथ ही यहाँ पर सोना, चांदी, लकड़ी, आबनूस और काला चमड़ा भी खूब मिलता है, जो घोड़ों की काठी और मकान बनाने के काम में आता है।" १ कोंकण । २ हर्ष । रूपा-चांदी; अत: रूपावती नाम पड़ा। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अब हम इस विवरण का विवेचन करेंगे। सबसे पहले, 'बल्हारा' पद लें; यह 'बल्ला का राय' ( Balla ca Rae ) ' से बना है, जिनकी प्राचीन राजधानी वलभीपुर थी, जिसके स्थिति-स्थल पर टोलॅमी (Ptolemy) ने एक बाइजॅण्टियम को ला कर रख दिया है । दूसरे, चांदी के तातारी' द्रम्म सिक्के, जिनमें से एक मेरे पास भी मौजूद है; इसके एक तरफ राजा की मूर्ति ठपी हुई है और पीछे की ओर एक घेरे [पीरिश्रम Pyreum] के चारों तरफ कुछ अस्पष्ट जैन अक्षर भरे हुऐ हैं; तीसरी बात, इन राजाओं के लम्बे-लम्बे राज्यकाल की है; ये यात्री तीसरे और चौथे राजा के समय में पट्टण आए थे और इनके द्वारा प्रयुक्त 'बहुत ' (many) शब्द हमें अवश्य ही भ्रम में डाल देता यदि इनकी अन्य बातें सही और समझ में आने योग्य पाई जातीं । परन्तु, यह सहज ही में अनुमान किया जा सकता है कि वे लोग गुजरात की बोली अच्छी तरह नहीं जानते थे इसलिए वंशराज के अर्द्धशताब्दी एवं उसके क्रमानुयायी के तीस वर्षों के लम्बे राज्यकाल के कारण उन्होंने इस शब्द का प्रयोग उचित मान लिया होगा; अथवा, जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, केवल देवपट्टण से राजधानी का परिवर्तन हुआ था इस - लिए इस घटना से पूर्व के राजाओं के राज्यकाल के कारण ऐसा लिखा गया होगा । सन्त इतिहासकार सालिग तो नहरवाला में वंशराज के राज्याभिषेक के बाद कभी गये ही नहीं । चौथे, इन यात्रियों के भूगोल - सम्बन्धी ज्ञान के विषय में अनुवादक ने लिखा है कि "इन सभी स्थानों की स्थिति ऐसी भ्रमपूर्ण है, कि ठीक-ठीक अनुमान भी नहीं लगा सकते ।" अस्तु, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अनुवादक के अल्पज्ञान के कारण, जिसे उसने अपनी भूमिका में पूर्ववर्तियों पर थोपा है, यह पहले से अस्पष्ट विषय और भी अधिक दुर्बोध्य बन गया है, जिसे ' 'बलहरा' पद की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की गई है; यथो, 'बल्ल (प्रदेश) का राय (राजा) ' 'बल्लभीराज, भट्टार्क भृतार्क और 'वल्लभराज' आदि । श्रन्तिम उपाधि मान्यखेट के राष्ट्रकूटों ने ग्रहण की थी । इस विषय की विशेष जानकारी के लिए Journal of the Royal Asiatic Society, Vol. xii, p. 7. देखना चाहिये । • एक प्राचीन नगर, जो श्याम समुद्र ( Black Sea ) और मारमारा समुद्र (Sea of Marmara) को मिलाने वाली भू-पट्टी पर स्थित था। कुस्तुन्तुनिया की नई राजधानी की कल्पना भी इसी के आधार पर की गई थी। — N. S. E., p. 216 3 अनुवादक ने हमें इनमें तातारी सिक्के का अनुमान न करने के लिए सचेत किया है। उसका कहना है कि ये देशी सिक्के हैं और वह दस शब्द को 'थ' से शुरू करता है । यहां अनुवादक से तात्पर्य Renedaut से है । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण-८; बलहरों का राज्य विस्तार [१६६ अब इस प्रान्त का स्थानीय ज्ञान एवं पुस्तकों तथा परम्पराओं को पूर्ण जानकारी भी सुगम नहीं बना सकते । यह तो सभी जानते हैं कि अरबी और फ़ारसी भाषा में बिन्दुओं अथवा नुक्तों के ज़रा-से हेर-फेर' से नामों का रूप कुछ का कुछ हो जाता है। ऐसे ही कुछ प्रसिद्ध नामों के उलट-फेर के उदाहरण यहाँ दिए जा सकते हैं, जिनसे विदित होगा कि इस ग्रन्थ का एक नया अनुवाद होना कितना आवश्यक है। बल्हरों के राज्य की जो सीमा कोंकण (जिसको यात्रियों ने 'कमकम' लिखा है) से चीन के छोर तक बताई गई है, वह पूर्ण रूपेण सही होती यदि 'रिलेशन्स' पुस्तक अगले राजवंश के समय में लिखी जातो जब कि सिद्धराज के अट्ठारह राज्यों के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने 'हिमालय पर्वत को विजय कर के पाञ्चालिका की प्राचीन राजधानी सालपुरा (Salpoora) नगर में भी विजयपताका फहरा दी थी। राज्य की इस तत्कालीन सीमा पर हमारा पूरा विवाद है क्योंकि कोंकण में उस समय सोलंकी राज्य करते थे जिनके समकालीन इतिहास से उनके स्वतंत्र पड़ोसियों का पता चलता है ।' बल्हरों के सबसे बड़े शत्रु 'हरज' के राजा और 'राहमी' राजा (जिसका कुल ऊँचा नहीं था और जो दोनों ही से लड़ता रहता था) के विषय में हम अनुमान लगा सकते हैं कि वे कौन थे और अनुवादक ने अपनी टिप्पणी में यह कह कर हमारे लिए और भी अधिक गुंजाइश पैदा कर दी है कि "गोरज अथवा हरज़ इस प्रायद्वीप में कुमारी अन्तरीप और चीन के बीच में कहीं न कहीं होना चाहिए ।" 'गुजरात' शब्द भारत के आदिवासी शूद्रों में से गूजर नामक जाति से बना है; परन्तु, हमें इस बात का पता नहीं है कि इस जाति द्वारा संस्थापित कोई राज्य उस समय वर्तमान था या नहीं, और यह तो स्पष्ट ही है कि उन यात्रियों को इस बात का ज्ञान ही नहीं था कि यह नाम (गुजरात) उस समय बल्हरों के राज्य के प्रमुख भाग के लिए प्रयुक्त होता था। मेरा अनुमान है कि यह हरज का राजा गोल ' Ex. gr. p. 87 "भारत में कुछ ऐसे लोग हैं जो विकार (भिखार) Bicar कहलाते है और जो आजीवन नग्न रहते हैं।" हम यहाँ बिकार से फकोर समझ सकते हैं - यह गलती प्रशुद्ध नुकते की करामात है। इस गलती को, सेण्ट कोइस (St-Croix) ने रॉबर्ट डी नोबिली द्वारा लिखित Ezour Vedam नामक ग्रन्थ का सम्पादन करते समय ज्यों की त्यों दोहरा दी है। ने भारत के राजनैतिक भूगोल के विषय में हमें पृ० ८७ पर यात्रियों के अज्ञान का स्पष्ट पता चल जाता है जहां उन्होंने कन्नोज को गोजर (गुजरात) के राज्य में एक विशाल नगर बताया है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] पश्चिमी भारत की यात्रा कुण्डा का राजा 'हर' होगा जो अजमेर के चौहानों की बड़ी शाखा में था और बल्ल रायों (बल्हरों) से निरन्तर लड़सा रहता था। यह अनुमान उसकी निम्न. कुलीन राहमी से घनिष्ठता के कारण भी ठीक बैठता है, जो, मैं समझता हूँ, तेलिंगाना का राय परमार था, जिसने एक बार 'सर्वशक्तिमान' की उपाधि ग्रहण कर ली थी। उसके राज्य में बढ़िया सूती कपड़े बनने की बात से यह मत और भी पुष्ट हो जाता है क्योंकि ये कपड़े, मलमलें और बुरहानपुर का लाल कपड़ा रोम (Rome) तक प्रसिद्ध था और पॅरीप्लस के कर्ता के मतानुसार तो ये चीजें उस समय बहुत बड़ी व्यापारिक वस्तुएं समझी जाती थीं। यात्रियों द्वारा वर्णित शङ्खों तथा कौड़ियों का प्रचलन तो उस समय भी था और अब भी है और इस प्रान्त में समुद्र के किनारे खजूर की गुठलियों का प्रयोग तो आज तक भी होता है। . 'काशबिन (Kaschbin) राज्य', जिसको जंगलों और पहाड़ों से भरा कहा गया है वह कच्छभुज होना चाहिए; और, हमें यह कल्पना करने का भी लोभ होता है कि 'छोटी और गरीब राजधानी हिब्रुज' ही शत्रिंज' [शत्रुञ्जय] पालीताना का क्षुद्र राज्य था जो आज तक प्रसिद्ध है । 'नेहलवरेह (Nehelwarch) नगर की भौगोलिक स्थिति का वर्णन करने के बाद, जो नासिरउद्दीन और उलुग़बेग़ की तालिका के अनुसार १०२°३० देशान्तर और २२° उत्तर अक्षांश पर स्थित है इसलिए कालीकट, कोचीन अथवा बीजापुर में से कोई भी नहीं हो सकता, व्याख्याकारने आगे कहा है कि 'काली मिर्च के व्यवसाय को सुविधा के लिए ही उसने बल्हरा का अनुवाद कालीकट कर दिया है, अतः सम्भव है कि कालीकट जाने से पूर्व वह कहीं पर गुजरात में कुछ समय रहा हो।' उसने . पुर्तगाली लेखक जॉन डी बरॉस (John De Barros) का भी उद्धरण दिया है जिसने इस देश की पुस्तकों का अवलोकन कर के लिखा है कि 'उसे भारत के सभी राजाओं पर सम्राट् अर्थात् महाराजाधिराज के अधिकार प्राप्त थे ।' आगे चल कर यह विदित होगा कि अणहिलवाड़ा के बल्हरों और कोंकण के राजाओं के, जिनकी राजधानी कल्याण थी, धनिश्व सम्बन्ध थे और अन्त में उनके राज्य एक ही विशाल साम्राज्य के अन्तर्गत हो गये थे, यद्यपि यह घटना इन यात्रियों के समय की नहीं है। एक विचित्र बात और है, और सम्भवतः वही कालीकट ' जैसा कि अन्यत्र सूचित किया गया है 'स' प्रक्षर का इस प्रान्त में विशेष रूप से उच्चारण होता है; 'सालिमसिंह' को 'हालिम हिंग' बोला जाता है जिससे 'सालिम मिश्री' 'हींग' बन जाता है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ८; परब यात्रियों को भूलें [ १७१ नाम की रचना का मूल हो सकता है। नयर (Nyr) अथवा अणहिलवाड़ा का प्राकारयुक्त नगर 'कालीकोट' अथवा काली का दुर्ग कहलाता था और अब भी कहलाता है। इसी तथ्य के अज्ञान में अनुवादक ने बल्हरा राजानों को काली मिर्च का संग्रह करने के लिए भारतीय प्रायद्वीप के हृदय में भेजना आवश्यक मान लिया होगा। इन अनुवादों (प० २४) में से एक और विचित्र बात का उल्लेख करके में इस टिप्पणी को समाप्त करता हूँ। इस सूचना के विषय में किसी आधार का उल्लेख नहीं किया गया है :___ हमारे लेखकों ने अरबों के प्रति सहृदय होने के कारण बल्हरों की जो प्रशंसा की है वह इन राजाओं के विषय में बहुत अनुकूल बैठती है क्योंकि इनमें से अन्तिम राजा सरमा पायरीमल (Sarama Payrimal) मुसलमान हो गया था और उसने अपने अन्तिम दिन मक्का में बिताए थे।' . विल्सन का मैकेजी कलेक्शन जि० १; पृ० xcvii Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पहिलवाड़ा का इतिहास, चालू कल्याण के सोलंकी राजा; अणहिलवाड़ा के राजवंश में परिवर्तन ; समकालिक घटनाएँ; कल्याण का महत्त्व; मुसलमान लेखकों का भ्रम; प्रणहिलवाड़ा के राजाओं का क्रम (चालू); सिद्धराज, चालुक्यों की राजगद्दी पर चौहान राम का उत्तराधिकार; बलहरों के राज्यान्तर्गत प्रदेश कुमारपाल के कार्य; अणहिलवाड़ा के विस्तार और वैभव के संबंध में 'चरित्र' द्वारा सम्पुष्टि; लार (Lar) का देश; बौद्ध धर्म का समर्थक कुमारपाल ; उसके द्वारा स्वधर्म त्याग और इसलाम धर्म का प्रहण ; अजयपाल । अब हम बीच के राजाओं को छोड़ कर अरब यात्रियों के आगमन के समय जो राजा प्रणहिलवाड़ा में राज्य करते थे उनसे वंशराज के सीधे और अंतिम वंशज सामन्तराज के समय में आते हैं और कोंकण की राजधानी कल्याण के समकालीन शासकों की चर्चा आरम्भ करते हैं, जिन्होंने अणहिलवाड़ा में एक सौ छियासी वर्षों से राज्य करते आए चावड़ों को अपदस्थ कर दिया था। इस प्रयोजन के लिए हमें सोलंकियों की वंशावली के एक पृष्ठ का उपयोग करना पड़ेगा जो मुझे इस वंश के प्रतिनिधि, रूपनगर के शासक ने (जो अब मेवाड़ में जागीरदार है) दिया था। उसके घरू भाट के पास उनके मूल निकास, अणहिलवाड़ा की बातों की पोथी अब भी मौजूद है, जिसमें उनके पूर्वजों की परम्परा का वर्णन हैं ।' क्योंकि भाट की कहानी उसीकी जबानी कही • हम उनका गोत्र उन्हीं की बोली में लिखते हैं। इसका अनुवाद साधारण पाठकों के तो सन्तोष का विषय होगा नहीं; इसके गहरे जानकार तो कोई इक्के दुक्के ही होंगे, जो इस देहाती बोली में ही प्रानन्द ले सकेंगे। "मदवाणी साखा* (Madwani Sacha), भारद्वाज गोत्र, गढ़लोकोत, खार निकास, सरस्वती नदी. सामवेद, कपलि मानदेव (Kupilman Déva), कदिमान ऋषेस्वर (Kurdiman Rikheswar), तीन प्रवर जनेऊ, सूरीपान का छत्तो (Su'ripa na-cach hatto), गऊपालूपास (Gaopaloopas), गयानिकास (Gya-nckas), केवञ्ज देवी (Kewanj Devi), नेपाल पुत्र (Maipal Putra)" यह महीपाल, जिसको पुत्र कहा गया है, नारायणा (Nairanoh) के रणक्षेत्र में वीरता दिखाने के कारण सोलंकियों के पनेतों (Penates) में गोद लिया गया था। वह राजा बोरवेव का तीसरा पुत्र था, जिसको सांभर के चौहान राजा की पुत्री व्याही थी और जो अपनी ननसाल के विरुद्ध इसलामी झगड़े में मारा गया था। यहां के प्रत्येक वंश का * माध्यन्दिनी शाखा । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ; चालुक्य को उत्पति [ १७३ जा रही है इसलिए हम उसे सभी राजवंशों के काल्पनिक उद्गम से प्रारम्भ करने की छूट दे देते हैं । उसे अपने वर्णनीय रानात्रों का जन्म आबू के अग्निकुण्ड से होना स्वीकार नहीं है । वह कहता है "जब ब्रह्मा ने सष्टि का कार्य समाप्त कर लिया तो वह पवित्र नदी गङ्गा के सोरों घाट पर संध्या-वंदन करने के लिए आया और पवित्र दूब [दर्भ की बाल अंजलि में लेकर उसने चुलुक बनाया तथा संजीवन मंत्र का उच्चारण किया । उसी समय एक मर्त्य मानव उत्पन्न हुआ जो ब्रह्म-चौलुक्य' कहलाया। स्थान के कारण वही सोलंकी भी इतिहास ऐसी ही घटनाओं से भरा पड़ा है। इसी प्रकार अजमेर के माणिकराय का लोटपुत्र' (Lotputra), जो मुसलमानों के पहले हमले में मारा गया था, चौहानों का कुलदेवता माना जाता है । यहां 'पुत्र' का अर्थ है 'किशोर' अथवा वह जिसने अभी यौवन प्राप्त नहीं किया है। महाभारत के अनुसार द्रुपदराज पर कुपित होकर अपमान का बदला लेने के लिए द्रोणाचार्य ने चुलुक में जल भर कर संकल्प किया और चौलुक्य वीर उत्पन्न किया। कलचुरी वंशीय युवराजदेव (द्वि.) का लेख-एपि. इण्डिया भा. १, पृ. ५७ चालुक्य वंश के लिए लेखों और दान-पत्रों में 'चौलुकिक', 'चौलिक', 'चालुकिक', चुलुक्य' और 'चौलुक्य' नामों के प्रयोग मिलते हैं--देखिए, गुजरात नों मध्यकालीन राजपूत इतिहास, भा. १-२, पृ. १२८-१३० स्पष्ट है, 'च' का उच्चारण 'स' होने से सोलंकी शब्द प्रचलित हुआ। यहां स्थान के कारण 'सोलंकी' नाम पड़ने की बात समझ में नहीं आ रही है। राष्ट्रकूटवंशीय दन्तिदुर्ग के एक दानपत्र (जनल प्रॉफ दी बॉम्बे ब्राञ्च प्राफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी, वॉल्यूमे २) में लिखा है कि इन्द्र की रानी मातपक्ष में चन्द्रवंश से और पितृपक्ष में 'शालिक्य' वंश से सम्बद्ध थी-- 'राज्ञी सोमान्वयी तस्य पितृतश्च शालिक्यजा' इससे प्रतीत होता है कि 'शालिक्य' शब्द भी प्रचलित था जो 'सोलंकी' से अधिक निकट है |--History of Medieval Hindu India, C.V. Vaidya; p. 82 दक्षिण के चालुक्य राजा विमलादित्य के रणस्तिपुण्डी के दानपत्र (१०११ ई.) के अनुसार इस वंश के क्रम में ब्रह्मा, चन्द्र और अयोध्या के ५६ राजाओं का वर्णन है जिनमें उदयन भी सम्मिलित है । प्रागे कहा है कि इसी वंश का विजयादित्य राजा त्रिलोचन पल्हव से युद्ध करता हुआ मारा गया। उसकी गर्भवती विधवा रानी ने विष्णुभट्ट सोमयाजी के संरक्षण में रह कर पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम विष्णुवर्धन रखा गया। उसने 'चालुक्य' पर्वत पर स्थित गौरी माता की आराधना करके पुनः दक्षिणापथ का राज्य प्राप्त किया, इसीलिए उसका वंश चालुक्य कहलाया । --The Early History of the Deccan, G. Yazdani; p. 206 • 'इतिहास' क क्स संस्करण, १९२०; भा. ३; पु० १४४७ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा प्रसिद्ध हुआ।' यहीं पर उन्होंने अपनी राजधानी बनाई जिसको सोरों' भी कहते हैं और इसीलिए यहाँ पर गङ्गा का नाम 'सोरोंभद्र' पड़ा है। त्रेता और द्वापर अथवा स्वर्ण एवं रजत युगों में उन्होंने यहाँ पर राज्य किया ।' पाठक स्वयं इस उद्धरण के तथ्य को आंक लें; भूगोल के विद्यार्थी को कम से कम इससे एक प्राचीन राजधानी के उद्गम का पता तो चल ही जाता है, जो दिल्ली के अन्तिम चौहान सम्राट के समय तक प्रसिद्ध रही और अब तक भो एक धार्मिक तीर्थ-स्थान मानी जाती है । इस शाखा के गोत्र से हमें यह भी पता चलता है कि इसका निकास उत्तरी भारत अर्थात् लोकोट से है, जो पांचालिका (पंजाब) का एक प्राचीन नगर था । वहाँ से निकलने पर इन लोगों ने गंगा-तट पर सोरों बसाया। इतिहास में लिखे इस काल्पनिक युग का विशेष विचार न करते हुए अब हम भाट द्वारा बताई हई पष्ठमि पर अपना मत स्थिर करेंगे। 'विक्रम की सातवीं शताब्दी में दो भाई राज और बीज गंगा' को छोड़ कर गुजरात में पाए। इनमें से पहले [राज] ने पाटन के चावड़ा राजा की पुत्री से विवाह किया, जिसको सन्तान आगे चल कर गद्दी पर बैठो और वंशराज से कर्ण तक अर्थात् सिकन्दर खूनी द्वारा निष्कासित होने तक पांच सौ बावन वर्ष राज्य करती रही। टोडा (Thoda) और रूपनगर के सोलंकियों के भाट से हमें इतनी ही सूचना मिलती है। अब हम फिर 'चरित्र' के आधार पर आते हैं। 'राजा बीरदेव चावड़ावंश का था जो कि कान्यकुब्ज । कन्नौज) का अधिपति राजा था । वह अपनी राजधानी कल्याण-कटक से गुजरात में आया, इस देश पर विजय प्राप्त करके उसने यहाँ के राजा का वध किया और फिर अपनी सेना • मानव्य गोत्रीय क्षत्रिय और हारोत गोत्रीया ब्राह्मण कन्या के योग से यह 'ब्रह्मक्षत्र' भी कहलाये । ---मेवाड़ के गोहिल ; स्व० मानशंकर पीताम्बरदास मेहता, पृ० ७६-८० १ कासगंज के पास नवी के सूखे पेटे का अब भी यही नाम है; पहले गंगा इधर ही से बहती थी। मैं निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि यह प्राचीन नगर सोलंकियों का बसाया हमा है या नहीं। वीरदेव माणिकराय का समकालीन था, इससे एक और महत्वपूर्ण समसामयिकता का पता चल जाता है । 3 भिन्नमाल के आसपास का प्रदेश गूजरत्रा या गुजरात कहलाता था। राज या राजि उसी प्रदेश का एक सामन्त था । -लोरी देट वॉज गुर्जर देश; भा. ३; पृ० ७६ ४ यहाँ 'अलाउद्दीन' के स्थान पर भूल से 'सिकन्दर' लिखा गया प्रतीत होता है । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा देलवाड़ा ( आबू) के एक मन्दिर का भीतरी दृश्य Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; सोलंकी राजवंश [ १७५ यहीं छोड़ कर वह कल्याण लौट गया । " बीरराय के मिलन देवी ( मीनल देवी ) नाम की पुत्री थी जो अजमेर के चौहान राजा को ब्याही गई थी । उसीकी पन्द्रहवीं पीढ़ी में कुमारपाल हुआ, जिसके नाम पर इस ग्रंथ की रचना हुई है । 'बीरराय के एक पुत्र हुआ जिसका नाम चन्द्रादित्य था । उसका पुत्र सोमादित्य और उसका तनुज भोमादित्य हुआ, जिसके तीन पुत्र थे, उर अथवा अर, धीतक और अभिराम । उर सोमेश्वर ( सोमनाथ ) की यात्रा करने पाटन गया और वहाँ पर उसने राजा सामन्त की पुत्री लीलादेवी के साथ विवाह किया । प्रसूति के समय उस राजकुमारी की मृत्यु हो गई, परन्तु उसकी कुक्षि को काट कर बच्चा बाहर निकाल लिया गया। इस बालक का जन्म मूल नक्षत्र में होने के कारण ज्योतिषियों ने उसका नाम मूलराज रखा। राजा सामन्त चावड़ा ने अपना कोई पुत्र न होने के कारण, अपना राज्य जीवन - काल में ही मूलराज को सौंप दिया; परन्तु, बाद में पछता कर इसे वापस लेने वाला था कि उसके भानजे ने उसे मार डाला । ये सात कभी कृतज्ञ नहीं होते - जामाता, सर्प, सिंह, शराब, मूर्ख, भानजा और राजा । इनमें से कोई भी गुण ( कृतज्ञता) नहीं 7 मानता । " सोलंकी भाट के इतिहास में कल्याण के राजाश्रों में इन्द्रदमन नामक राजा का नाम श्राता है। भाट का कहना है कि इसी राजा ने जगन्नाय का मन्दिर बनवाया और 'पूरी' की नगरी बसाई जो उसके नाम पर इन्द्रपुरी कहलाती है । यह पिछली बात तो सही हो सकती है और उसने मन्दिर का जीर्णोद्धार भी करवाया होगा परन्तु यह नहीं हो सकता कि जगन्नाथ का मन्दिर उसने ही बनवाया हो । उड़ीसा की राज्य सरकार द्वारा १६५८ ई० में प्रकाशित ' Visit Orissa' नामक पुस्तिका में पृ० १२१ पर लिखा है कि जगन्नाथ का मंदिर सर्व प्रथम 'ययाति-केसरी' ने बनवाया था | ११६८ ई० में चोड़ गंगदेव ने इसका पुनर्निर्माण मात्र कराया । जगन्नाथमंदिर में सुरक्षित ताड़पत्रीय लेखों के आधार पर ज्ञात होता है कि ५०० ई० से ११३२ ई० तक केसरी- वंश के ४४ राजाओं ने राज्य किया था । ययाति इस वंश का संस्थापक था। फि गंग वंश के हाथ में सत्ता भाई । ऊपर की टिप्पणी में इन्द्रदमन के स्थान पर, इन्द्रवर्मन नाम हो सकता है। वास्तव में जगन्नाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराने वाले राजा का नाम अनन्तवर्मन चोड़देव था जिसका समय १२ वीं श० का उत्तरार्ध माना गया है । —History of Medieval Hindu India Vol. I; C.V. Vaidya pp. 318-326 २ जामाता वींछी नइ वाघ, मदिरा पांणी मूरख प्रभाग ; भगिनी-सुत, पृथ्वी नों नाथ, धुं गुण नवि जाणइ सात ॥ ७३ ॥ कुमारपाल रास - ऋषभदास पृ. १८ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] पश्चिमी भारत को यात्रा बहरों के इतिहास में आगे चलने से पहले यहाँ पर ( जब कि चावड़ों का राज्य चालुक्यों अथवा सोलंकियों के अधिकार में श्राया) इन दोनों वंशों के समसामयिक राजाओं की तालिका भी दे देना समुचित होगा । कल्याण के चालुक्य राजा १ बीरजी २ कर्ण ३ चन्द्रादित्य ४ सोमादित्य ५ भोमादित्य अणहिलवाड़ा के चावड़ा राजा १ वंशराज ( ७४६ ई० से ७६६ ई. तक ) २ योगराज ३ क्षेमराज ४ बीरजी ५. बीरसिंह ०६ रत्नादित्य ७ सामन्त ६ उर धीतक अभिराम उर ने सामन्त की पुत्री लीलादेवी से विवाह किया, जिसके मूलराज उत्पन्न हुआ, जिससे अणहिलवाड़ा के दूसरे राजवंश का आरम्भ होता है । यद्यपि इन दोनों ही आधारों में तथ्यों की समानता है परन्तु प्रारम्भ में थोड़ा-सा अन्तर है, क्योंकि भाटों के इतिहास का कहना है कि राज और बीज नामक दो चालुक्य बन्धु सातवीं शताब्दी में सोरों छोड़कर आए; और 'चरित्र' का आरम्भ कन्नौज के राजा वीरराय से होता है, जिसने गुजरात पर आक्रमण करके यहाँ के राजा का वध किया और लौट कर कन्नौज न जाकर मलाबार तट पर कल्याण चला गया। यहां पर इस सम्भावना का ध्यान रखना अनुचित न होगा कि यही वह विजेता हो सकता है जिसने पूर्व इतिहास में स्वीकृत समुद्री लूट के अपराध के कारण चावड़ों को उनकी प्राचीन राजधानी देव-पट्टण श्रौर सोमनाथ से निकाल बाहर किया था; यह काल भाट द्वारा कहे हुए सातवीं शताब्दी वाले समय से भी मेल खाता है, जो उसने सोरों से कन्नोज में राजधानी का स्थानान्तरण और कल्याण में राज्य संस्थापना के लिए बताया है । इस अनुमान को पट्टण के संस्थापक वंशराज-सम्बन्धी उस उपाख्यान से भी बल मिलता है जिसमें उसके विषय में लुटेरों के साथ मिल कर कल्याण को जाने वाली मालगुजारी के खजाने को लूटने की बात कही गई है। मैकेञ्जी संग्रह' का १ मैकेन्जी संग्रह - कर्नल मैकेन्जी १७६६ से १८०६ तक सर्वेयर जनरल आफ इण्डिया के पद पर रहे थे। इस अवधि में उन्होंने हस्तलिखित ग्रन्थों, शिलालेखों, नक्शों एवं अन्य पुरा Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - कल्याण के सोलंकी [ १७७ एक शिलालेख, जिसका अनुवाद श्री कोलबुक ने किया है और जो एशियाटिक रिसर्चेज, वॉल्यूम ; पृ० ४३५ में सम्मिलित है तथा जिसका अभी तक कहीं उपयोग नहीं हुआ है, मेरी इन धारणाओं को पुष्ट करने और हस्तलिखित आधारों की सचाई को तौलने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ; इस लेख के अनुसार इस राजवंश की स्थापना एक हजार वर्षों से भी पहले हो चुकी थी। यह शिलालेख चतुर्थ राजा सोमादित्य के समय का है, जिसमें उसका वंश चालुक्य और राजधानी कल्याण बताई गई है । लेख इस प्रकार चलता है--"सोमेश्वर... पर सदा अनुग्रह करें "इत्यादि-इत्यादि, राजकुल में विशिष्ट, चालुक्यवंशभूषण" इत्यादि, जो कल्याण नगर में राज्य करता है, इत्यादि।' यदि और कोई प्रमाण न भी मिले होते और केवल यही एक लेख होता तो अन्य सभी लेखों के संग्रह का महत्त्व प्रमाणित हो जाता क्योंकि उन सब में से यही एक ऐसा [प्रबल] है जिसने मेरे अनुसन्धान में सफलता एवं उत्साह प्रदान किया है । प्राचीन समय में कल्याण व्यापारिक एवं राजनीतिक महत्त्व का नगर था।' एरिअन ने परीप्लस में इसका कई बार उल्लेख किया है जिससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि दूसरी शताब्दी में यह बालेकूरों Balckoura s) अथवा बल्हरों की सार्वभौम सत्ता के अधीन करद राज्य रहा था और इसके विस्तार की पुष्टि प्रोम (Orme) द्वारा उसके 'बिखरे खण्डों' (Fragments) नामक पुस्तक में इसके खण्डहरों के वर्णन से हो जाती है। तत्त्व-संबंधी बहुमूल्य सामग्री का संग्रह किया, जिसको बाद में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने १०,००० पौंड में खरीद लिया। सूची-पत्र, एच० एच० विल्सन, १८२८ ई० ।। • यह बताने की प्रावश्यकता नहीं है कि सोमेश्वर और सोमादित्य का अर्थ एक ही है प्रर्थात चन्द्र (सोम) का प्रादित्य अथवा स्वामी । २ याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका के कर्ता विज्ञानेश्वर ने भी अन्त में लिखा है 'नासीदस्ति भविष्यति क्षितितले कल्याणकल्पं पुरम्' ३ रॉबंट प्रोम का जन्म १७२८ ई० मे त्रावणकोर के एन्जेन्गो नामक स्थान में हुआ था। वह १७७४ ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में प्रविष्ट हुप्रा और लार्ड क्लाइव के घनिष्ठ मित्रों में माना जाता था। बाद में, वह कम्पनी का इतिहासकार भी नियुक्त हुआ। उसकी दो पुस्तके प्रसिद्ध हैं, जिनमें से यहाँ अपर पुस्तक से तात्पर्य है1 History of Military Transactions of the British Nation in Indostan from 1745. 2 Historical Fragments of the Mogul Empire from the year 1659. प्रोम ने बहुत सी हस्तलिखित और प्राच्यविद्या-विषयक सामग्री कम्पनी को भेट । कर दी थी। उसका देहान्त १८०१ ई. में हुमा ।-E.B. Vol.XVII, pp. 853-54 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा इन पूर्वकालीन घटनाओं की ओर कुछ मुसलमान लेखकों का ध्यान गया तो अवश्य था, परन्तु उनको बौद्धिक अस्पष्टता के कारण विषय कुछ धुधलासा ही बना रहा । इन गुत्थियों को सुलझाने में असमर्थ अबुल फजल ने कन्नौज के राज्य का विस्तार समुद्रतट-पर्यन्त बताया है। मसूदी' ने इन प्रदेशों का विवरण दसवीं शताब्दी में लिखा है; वह 'बोरोह, (Bouroh)' राज्य की बात करता है और उसी को कन्नौज का राज्य कहता है । इस ग़लती का कारण यह समझ में आता है कि वह कल्याण के राजा वीर राय' के नाम को नहीं समझ सका, जो सोरों से कन्नौज के राज्य में चला गया था । ऐसा ज्ञात होता है कि पहला राज्य दूसरे से बड़ा होने का दावा करता था, जो सम्भवत: बाद में राजधानी बन गया था। बात यह है कि फ़ारसी अथवा अरबी लिपि में सोरों के 'शीन' के नीचे एक नुकता लगाया कि वह 'बोरो' हो जाता है। अरब यात्रियों का कहना है कि जब वे भारत में पाए थे तब यहाँ पर चार बड़े साम्राज्य थे। इनमें से बल्हरों को चौथे नम्बर पर बतलाते हैं और उनकी शक्ति का तो वे निस्सन्देह इतना बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन करते हैं कि उनकी सेना की संख्या पांच लाख तक पहुँचा दी है। अबुल फजल ने तत्कालीन कन्नौज की शक्ति का जो विवरण दिया है वह भी सत्य से इतना ही परे है क्योंकि गंगा से समुद्र-तट तक विस्तार-वर्णन के स्थान पर उसके विवरण में अजमेर, चित्तौड़ और धार जैसे शक्तिशाली राज्य कन्नौज और अणहिलवाड़ा के बीच में आ पड़ते हैं, जिनके अन्तर्जातीय युद्धों एवं विवाहों के उल्लेख मिलते हैं। परन्तु, अब हम चालुक्यों के नवीन राजवंश का विवरण आगे चलाते हैं । ' इसका नाम अबुल हसन अली मसऊदी (३०३ हिजरी) उच्चकोटि के इतिहास-लेखक, भूगोल लेखक और यात्री के रूप में प्रसिद्ध है । उसका जन्म-स्थान बगदाद था । इसको दो पुस्तकें मिलती हैं, जिनमें इतिहास की बहुत सी बातें लिखी हुई हैं और जिनके नाम क्रमश: "उल तम्बीह वल-अशराफ" एवं "मरुजुज-जहब व मपादनुल जोहर" हैं। दूसरी पुस्तक की भूमिका में सारे संसार की जातियों का उल्लेख हुआ है। उन्हीं में भारत भी है । मसऊदी के कथनानुसार (१) भारत में बहुत सी बोलियां बोली जाती हैं (२) कन्धार रहबूतों (राजपूतों) का देश है, आदि । मसऊदी ने "मुरुजुज जहब" सन् ३३२ हि० में अपनी यात्रा समाप्त करने के उपरांत लिखी थो। यह पुस्तक पेरिस से फ्रान्सीसी अनुवाद सहित नौ खंडों में प्रकाशित हुई थी और मिस्र में कई बार प्रकाशित हो चुकी है। -अरब और भारत के संबंध-अनु० रामचंद्र वर्मा, १६३०; पृ० ३२-३३ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; प्रणहिलपुर के सोलंकी राजा [१७६ मूलराज अणहिलवाड़ा की गद्दी पर संवत् ६८८ (९३२ ई०)' में बैठा । चावड़ा वंश के संस्थापक के समान उसका राज्यकाल भी बहुत लम्बा था अर्थात् छप्पन वर्ष; और यदि हम पूर्ववणित 'प्रकीर्ण संग्रह' को सही मानलें तो यह दो वर्ष और भी बढ़ जायगा । उसने अपने शस्त्र लेकर पश्चिम की ओर कूच किया और सिन्धु की घाटी तक पहुँच कर वहाँ के राजपूत राजा से युद्ध किया; उसी ने रुद्रमाला मन्दिर की नींव रखी थी, जिसका हम अन्यत्र वर्णन कर चुके हैं। चाउण्ड अथवा चामुण्डराय (जिसको अबुल फजल ने भूल से जामुण्ड लिखा है) संवत् १०४४ (६८८ ई०) में सिंहासनारूढ हुअा। उसने केवल तेरह वर्ष राज्य किया और उसके शासनकाल का अन्त उसके स्वयं के लिए एवं सम्पूर्ण भारत के लिए घटनापूर्ण सिद्ध हुआ। संवत् १०६४ अथवा १००८ ई० (मुसलमान इतिहासकारों के मतानुसार सन् ४१६ हिजरी अर्थात् १०२५ ई०) में ही गज़नी के बादशाह महमूद ने अणहिलवाड़ा पर आक्रमण किया था; उसने यहाँ की चारदीवारी को ध्वस्त करके मन्दिरों के ईंट-पत्थरों से नगर के चारों ओर की खाई को पाट दिया था। छः मास तक पाटण में विश्राम करने के बाद विजेता ने प्राचीन शासकों के एक वंशज को ढूंढ कर गद्दी पर बिठा दिया जिसका गँवारू-सा नाम दाबिशलीम (Dabschelim) था। उसको देव और सोमनाथ के राजा का पुत्र बतलाया जाता है, जो स्पष्टत: चावड़ा वंश का था। शिलालेखों के अनुसार, जो मुझे प्राप्त हुए हैं, इन लोगों की वंशपरम्परागत सम्पत्ति अणहिलवाडा में बारहवीं और चौदहवीं शताब्दी तक मौजूद थी। फरिश्ता के मेरे वाले संस्करण में इस (राजा) को 'मोर ताज' [मोरधज या मोरध्वज ?) उपाधियुक्त बॅबशेलीम कहा गया है, जिसका शुद्ध रूप इतिहास में वर्णित बल्लिराय अथवा बल्लभसेन हो सकता है, जो चामुण्ड के बाद गद्दी पर बैठा था; और, क्योंकि इस आधार के अनुसार उसका राज्यकाल केवल छ: मास ही बताया गया है, यह अनधिकारी दाबिशलीम के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता । 'मोर ताज' की पदवी उभयभाषात्मक है, जिसका अर्थ ' मूलराज संवत् ६८८ में नहीं, ६६८ में गद्दी पर बैठा था। क. टॉड दस वर्ष की भूल कर रहे हैं । 'कुमारपाल रास' में भी, जिसके आधार पर टॉड यह वृत्तान्त लिख रहे हैं, मूलराज के राज्यारोहण का समय ६६८ संवत् ही लिखा है-- 'संवत् नव अट्ठाणुं ज सई, मूलराज राजा थयो तसई ।।७५॥ पृ० १० • अबुलफज़ल ने इस नाम का अपनी प्रोर से भी रूपान्तर कर दिया है जिसको पाईन-ए अकबरी के अनुवादक ने बेसिर (Bcysir) लिखा है और डो' हरबोलॉट (D' Herbelat) ने अरबियों का अनुसरण करते हुए इसको Dabschlimat जाति का लिखा है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] पश्चिमी भारत की यात्रा हिन्दू और फारसी भाषाओं में, 'प्रधान' अथवा 'मुख्य ताज' या मुकुट है । इससे मुझे यह कल्पना होती है कि यह 'चौर ताज' का रूपान्तर है जिसका अर्थ होता है 'चावड़ों में मुख्य' । व्यक्तिवाचक नामों के विषय में फ़ारसी भाषा की यह अपूर्णता प्रसिद्ध ही है, जैसा कि पहले बताया जा चुका है, कि केवल एक नुकते के इधर-उधर हो जाने से शब्द कुछ का कुछ बन जाता है । अणहिलवाड़ा पर पड़ने वाली विपत्तियों, सोमनाथ और अन्य प्रसिद्ध मन्दिरों पर किए गए अत्याचारों के बदले में पथ-प्रदर्शकों द्वारा गज़नो लौटते हुए महमूद की सेनाओं को जंगल में गुमराह किए जाने की विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में पाठकों को फरिश्ता और अबुलफजल के विवरणों को पढ़ना चाहिए। दुर्लभ अथवा नाहर राव - संवत् १०५७ (१००१ ई०) में गद्दी पर बैठा और उसने साढ़े ग्यारह वर्ष तक राज्य किया; इसके बाद, उसका मन आत्मानुसन्धान एवं आत्मोद्धार के लिए उद्यत हुआ । वह अपने पुत्र को राज्य सौंप कर गया को चला गया। प्राचीन राजपूत राजाओं में यह प्रथा सदा से चली आई है और असाधारण नहीं मानी जाती है। दुर्लभ धार के प्रसिद्ध राजा भोज के पिता मुजराज का समकालीन था और हमें 'भोज चरित्र' से यह भी ज्ञात होता है कि गया जाते समय अपदस्थ राजा ने मुंज से भेंट की, जिसने उसे पुन: राज्य ग्रहण करने की सलाह दी परन्तु उसके पुत्र ने इस परामर्श को पसन्द नहीं किया। भीमदेव, जिसका नाम उसके समकालीन राजपूत राजाओं में सुप्रसिद्ध है, संवत् १०६६ (१०१३ ई०) में गद्दी पर बैठा ।' उसका ४२ वर्ष का दीर्घ राज्यकाल गौरव से हीन नहीं था, जिसमें मुसलमानों ने कई बार उत्तरी भारत पर हमले किए । महमूद की चौथी पीढ़ी में मौदूद इसी के समय में हुआ और तभी हिन्दुओं ने एक महान् प्रयत्न उस जूए को उतार फेंकने का किया, जो उनको दबाए हुए था। अजमेर के प्रसिद्ध चौहान राजा बीसलदेव (दिल्ली के विजयस्तम्भ के वीसलदेव) ने इस संघटन की संवत् ११०० (ई०१०४४) में अध्यक्षता की । अपने धर्म और स्वाधीनता के लिए संयुक्त प्रयत्न करने वाले देश के अन्य राजाओं के साथ, जिन्होंने बीसलदेव को अपना नायक चुना था, अणहिलवाड़ा के राजा को भी आमन्त्रित किया गया था; परन्तु, अजमेर और अणहिलवाड़ा के घरानों के पुराने वैर के कारण वह (भीमदेव) इस आमन्त्रण को स्वीकार न कर सका और इस अस्वीकृति के फलस्वरूप ही इन राज्यों में युद्ध का सूत्रपात हुना, जो कवि चन्द की पुस्तक के ६६ अध्यायों में से एक का विषय बन गया। बीसलदेव अपनी सहयोगी सेनाओं के साथ विजय पर विजय करता चला गया, यहां तक कि सम्पूर्ण पंजाब शत्रुओं से रहित हो गया और १ भीमदेव संवत् १०७६ (१०२२ ई.) में गद्दी पर बैठा था।-रासमाला। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; प्रणहिलवाड़ा के राजा (भीमदेव ) [ १८१ १ इसी विजय के फलस्वरूप दिल्ली के स्तम्भ पर लिखा गया कि विन्ध्य से हिमाचल तक म्लेच्छों को निकाल बाहर किया गया जिससे आर्यावर्त्त एक बार फिर 'पुण्यभूमि' बन गया । चन्द कहता है, जब गज़नी से कर के साथ-साथ वफादारी की 'आन'' की मांग भेजी गई तो शाकम्भरी के स्वामी ने अपने सामन्तों के नाम फरमान जारी किया । फिर ठठ्ठ और मुलतान के सरदारों के साथ मण्डोर और भटनेर के 'भार'' भी आए । अन्तर्वेद की सभी (राजपूत) शाखाएं उसके झण्डे के नीचे एकत्रित हुईं। सभी आए, परन्तु चालुक्य नहीं आया; उसे अपनी स्वाधीनता के लिए अपनी हो तलवार का भरोसा था। मारवाड़ में सोजत नामक स्थान पर विरोधी सेनाओं को मुठभेड़ हुई, जिसमें सोलंकी परास्त हुआ । वह जालोर चला गया, जो सम्भवतः उसके और प्रतिपक्षी के राज्यों का सीमा-स्थल था; परन्तु वह इस स्थान को भी छोड़ने के लिए बाध्य हुआ और विजेता ने प्रायद्वीप के मध्यभाग में गिरनार तक उसका पीछा किया। अपनी सेना को पुनः संगठित करके चालुक्य ने अपने दूतों को चौहान के पास भेज कर इस प्रकारण श्राक्रमण का कारण पुछवाया और कहलाया 'मैं तुमसे किसी बात में कम नहीं हूँ; एक मात्र कर, जो तुम ले सकते हो वह, तलवार है, जिसके टुकड़ों को, यदि पुनः युद्ध में विजयी हो जाओ तो, तुम बटोर ले जाना ।' चौहान वीसलदेव उस समय अपने देश को लौटने की तैयारी कर रहा था । उसने सच्चा राजपूती सौजन्य प्रदर्शित करते हुए चालुक्य को अपनी बात पर पुनः विचार करने का अवसर ही नहीं दिया प्रत्युत उसके सभी बन्दियों को मुक्त कर दिया और लूट का सामान भी लौटा दिया कि जिससे, भाट के शब्दों में, पुनः विजय प्राप्त करने पर फिर भी उसके पास कुछ मिल सके ।' 'चौहान ने अपनी सेना को चक्रव्यूह में सजाया और तुरन्त ही दो सहस्र सोलंकियों को मार गिराया । बाल-का- राय (बालूकराय) ने स्वयं सेना संचालन करके व्यूह का भंग किया । ' तलवार ने शोणित की नदी में फिर स्नान किया ।' दोनों प्रतिभट आपस में भिड़ गए और घायल हुए; रात्रि ने श्राकर उनको विलग किया। दूसरे दिन सन्धि हुई, जिसमें चालुक्य ने वीसलदेव के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना स्वीकार किया और यह भी तय हुआ कि उस स्थान पर चौहान के नाम पर " शपथ | * Array - सैन्य - समूह | 3 गंगा और यमुना के बीच (अन्तर ) का प्रदेश । रासो में यह वर्णन पृथ्वीराज और भोला भीम के युद्ध-प्रसंग में आया है न कि किसी बीसलदेव और भीम के रण-विवरण हैं । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] पश्चिमी भारत की यात्रा एक नगर बसाया जाय । वीसल नगर, जो आज तक विद्यमान है, इस इतिहास की सत्यता को प्रमाणित करता है। इस वृत्तान्त में सर्वत्र ही भाट ने अणहिलवाड़ा के राजा का 'बालूकराय' के नाम से उल्लेख किया है। परन्तु 'हमीर रासो' में, जिसमें रणथम्भोर [ रणस्तम्भवर] के इसी चौहान वंशीय राव हम्मीर के पराक्रम का वर्णन है, भाट ने यह लिखा है कि वीसलदेव राजा भीम के पुत्र कर्ण को बन्दी बनाकर ले गया था। राजा भीम के दो रानियाँ थीं, बीकलदेवी और उदयामती । पहली के पुत्र का नाम क्षेमराज था और दूसरी का पुत्र था कर्ण, जो राजगद्दी पर बैठने वाले राजपूतों में परम प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ और अपने बड़े भाई' के होते हुए भी संवत् ११११ (१०५५ ई०) में पिता के सिंहासन पर आरूढ हुना। उसके अनेक पराक्रमों में से एक कोली और भील जातियों का पूर्ण दमन भी गिना जाता है। इसी प्रसंग में उसने आसा भील का वध किया था जो पल्लीपति (Pallipati) अथवा एक लाख धनुर्धारियों का स्वामी कहलाता था। उसने पुराने नगर को मिटाकर उसकी जगह निज के नाम पर कर्णावती' नगरी की स्थापना की, जिसकी स्थिति के बारे में हमें ठीकठीक पता नहीं है। चरित्र में लिखा है कि उसने सात 'डड्डों [डकारों को निकाल बाहर किया था; वे ये हैं- डण्ड, डाँड, डोम (डूम = गाने बजाने वाले) डाकण, डर, डम्भ (Damb'h ठग) और डूभ (निराशा)। उसने रैवताचल पर पहले से विद्यमान बावन विहारों के अतिरिक्त नेमिनाथ का परम ऐश्वर्ययूक्त मन्दिर बनवाया, जो उसी के नाम पर कर्णविहार के नाम से प्रसिद्ध हमा। उसने कर्णाटक के स्वामी अरिकेसर (Ari-cesar) की पुत्री मीनल देवी के साथ विवाह किया जिसने अणहिलवाड़ा के गौरव, सिद्धराज को जन्म दिया। कहते ' अपने पूर्वजों की परम्परानुसार भीमदेव ने बड़े पुत्र क्षेमराज को गद्दी सौंप कर वन में तपश्चर्या करने की इच्छा को, परन्तु क्षेमराज ने भी पिता के साथ वन में रह कर सेवा करना चाहा, अत: कर्ण को गद्दी पर बिठाया गया । (रासमाला) • हमें इस समय की प्रादिवासी जातियों के बहुत से उल्लेख मिलते हैं और इन्हीं जातियों से सम्बन्धित बहुत सी गढियों और नगरों के भी चिह्न प्राप्त होते हैं, जिनका अनुसन्धान होना चाहिए। डंड, डाँड, नई डुबी जेह, डाडणि, डाकणिनो काढ्यो तेह; डर छतो दूरि कोउ डंभ, काठ्या रोप्यो कीर्ती शंभ ॥१॥-कुमारपाल रास-ऋषभदास; प०१९ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • ६; सिद्धराज [११ हैं कि जब कर्णाटक के सिंह' की पुत्री अणहिलवाड़ा पहुँची तब कर्ण उससे इतना अप्रसन्न हुआ कि उसने विवाह करना ही अस्वीकार कर दिया था, परन्तु अपनी माता के प्राग्रह का पालन करने एवं वधू को आत्मघात से बचाने के लिए ही, अन्त में उसने विवाह कर लिया। फिर भी कहते हैं कि, उसने कितने ही वर्षों तक उसके साथ सम्भोग नहीं किया; अन्त में, अपने सद्गुणों के अनवरत प्रकाश के द्वारा उसने केवल राजा को घृणा को ही अपसारित नहीं कर दिया वरन् उसके प्रेम और पादर को भी प्राप्त करके स्ववश में कर लिया । कर्ण ने उनतीस वर्ष तक राज्य किया और उसके बाद उसका पुत्र सिद्धराज जयसिंह - संवत् ११४० (१०८४ ई०) गद्दी पर बैठा जिसके अर्द्धशताब्दी जितने राज्यकाल में प्रणहिलवाड़ा ने अभूतपूर्व गौरव प्राप्त किया। वंशपरम्परागत एवं विजय के द्वारा प्राप्त किए हुए पूरे अट्ठारह राज्यों पर उसका आधिपत्य था और इस प्रकार 'चरित्र' में उसके लिए जो "अपने समय के राजाओं में परम बलशाली" विशेषण प्रयुक्त हुआ है वह सर्वथा सही है । इन सभी राज्यों के नामों एवं समकालीन अन्य राज्यों के साथ सम्बन्धों का वर्णन इस राजा के उत्तराधिकारी के राज्य-वृत्त में किया जावेगा। अतः अब इतिहासकार के साथ साथ हम आगे चलते हैं और कुमारपाल के राज्य का वर्णन प्रारम्भ करते हैं जिसके निमित्त उक्त विवरण भूमिका के रूप में दिया गया है। यहाँ में इतिहासकार के वर्णन का ही अनुसरण करूँगा। _ "अट्ठारह राज्यों के विजेता महाबली सिद्धराज के कोई सन्तान नहीं थी इसलिए सम्पूर्ण शक्ति एवं सम्पत्ति उसके लिए व्यर्थ हो गई थी। उसने ब्राह्मणों, , देखिए 'एशियाटिक रिसर्चेज वॉल्यूम १६' में इस राजा के विषय में टिप्पणी। मैकेजी. संग्रह भी इस विषय में देखना चाहिए। Cesar (सीज़र) अथवा Kesar (केसर), जिसका अर्थ सिंह है, प्राचीन काल के राजपूतों को साधारण उपाधि है; सिंघ का अभिधान तो प्रायः सभी राजपूतों के नामों के साथ जुड़ा रहता है । यह अभियान जंगल के राजा के लिए इसी संस्कृत शब्द से निकला है अथवा फारसी शब्द कैसर से या रूसी ज़ार से प्रथवा रोमन सीज़र से, यह विषय हम शब्द-शास्त्रियों के निर्णय के लिए छोड़ते हैं । । कहते हैं कि कर्णाटक के राजा की पुत्री मीनलदेवी कर्ण की प्राशा के विपरीत बहुत कुरूप और प्राकर्षण-हीन निकली इसलिए उसने उसके साथ विवाह करना नहीं चाहा; परन्तु, वह राजपुत्री सद्गुणों का भण्डार थी, यह उसके भावी चरित्र से भली प्रकार सिद्ध होता है। 3 सिद्धराज का राज्यकाल १०६४ ई० से ११४३ ई. तक था।-रासमाला। ४ सिद्ध' नाम के विषय में एक विचित्र पाख्यान है । कहते हैं कि उसको माता जो शुद्ध संस्कृत में परि केसरी और जन भाषा में गया-केसर (Gya-Kesar) अर्थात् परि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा ज्योतिषियों और भविष्य वक्ताओं को बुला कर उनको मनुष्य द्वारा सभी अभिलषित वस्तुएँ देना स्वीकार किया कि उसे किसी के भी प्रयत्न से पुत्र प्राप्ति हो जाय । परन्तु, जो बात परमात्मा को मञ्जुर न हो वह कोई भी पूरी नहीं कर सकता । एक साधु ने कहा 'दथली' [देवस्थली ] के सरदार का पुत्र तुम्हारा उत्तराधिकारी होगा, यही विधि का विधान है ।" इस पर राजा बहुत कुपित हुआ और एक सेना भेज कर दैथली पर आक्रमण कर दिया। वहाँ का चौहान सरदार मारा गया और उसका पुत्र कुमारपाल किसी तरह उस क़त्ले - ग्राम से बच कर निकल भागा। उसने अपने बहनोई कृष्णदेव के यहाँ, जो पाटण में रहता था, छुप कर प्राण बचाए । परन्तु वह उसका सम्बन्धी और जयसिंह का मन्त्री था इस कारण अधिक दिनों तक यहाँ भी छुपे रहने की कोई आशा न थी इसलिए वह एक कुम्हार के घर चला गया । कुछ समय वहाँ रहने के बाद वह पाटण में ही साधुओं और भिखारियों के साथ घूमता रहा । फिर वह किसी तरह अपने जन्म स्थान देथली भी जा पहुँचा । एक बार तो वह पकड़ा ही जाता परन्तु उसके एक कुम्हार मित्र ने उसे ईंटों की भट्टी में छुपा कर बचा लिया । अब उसने उज्जैन जा कर भाग्य- परीक्षा करने का विचार किया और चलताचलता खम्भात बन्दर जा पहुँचा । वहाँ थकान और भूख से व्याकुल हो कर एक पेड़ के नीचे सो रहा। उसी समय सुप्रसिद्ध हेमाचार्य अपने शिष्यों सहित पास ही के जंगल में जा रहे थे । उन्होंने उसे जगाया और यह देख कर कि कोई साधारण पुरुष नहीं है, उसे अपनी जैन युवक शिष्य मण्डली में सम्मिलित कर लिया | फिर आचार्य ने उसकी जन्म कुण्डली बनाई जिससे उसके भावीमहत्त्व का पता चला । परन्तु सिद्धराज के गुप्तचरों ने यहाँ भी उसका पता (शत्रु) के लिए सिंह और अजेय सिंह की पुत्री थी) पर बारह वर्ष का कुग्रह था । इस कुसमय में उसने बहुत दुःख पाया और इस अवधि को समुद्र में बिताने के लिए वह द्वारका को रवाना हुई। मार्ग में उसे एक सिद्ध अथवा दरवेश मिला जिसको उसने अपना मनसुबा बताया। उस सिद्ध के वरदान से उसे पुत्र की प्राप्ति हुई जिसकी कृतज्ञ होकर उसने उस पुत्र का नाम सिद्धराज रखा । १ राजा कर्ण के सौतेले भाई क्षेमराज के पौत्र और देवप्रसाद के पुत्र त्रिभुवनपाल के तीन पुत्र और दो पुत्रियां थीं। पौत्रों के नाम महोपाल, कीर्तिपाल प्रोर कुमारपाल थे और पुत्रियाँ प्रेमल देवी तथा देवल देवी थीं। प्रेमल देवी का विवाह सिद्धराज के प्रधान सेनापति कान्हदेव के साथ हुआ था और देवल देवी का विवाह शाकम्भरी के राजा श्रान्न अथवा राज के साथ हुआ था । ( रासमाला प्रक० ११ ।) म यह ग्राम कर्ण ने अपने काका के पुत्र देवप्रसाद को जागीर में दिया था । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; कुमारपाल [१८५ लगा लिया तब वह योगी के वेश में भड़ौच जा पहुँचा । खम्भात के एक बनिए ने, जो पक्षियों की बोली समझता था, इस पलायन में उसका साथ दिया। ज्योंही वे नगर में पहुँचे एक मन्दिर के कलश पर बैठे हुए दैवी शकुन-पक्षी ने दो स्पष्ट वाणी उच्चारित की जिनका बनिये ने यह अर्थ लगाया कि हिन्दू और तुर्क दोनों राज्यों पर उसका अधिकार होगा। एक बार फिर उसके आश्रयस्थान का पता चल गया और वह कुलू नगर को भाग गया। यहाँ पर एक प्रसिद्ध योगी ने उसे मन्त्र-दीक्षा दी कि जिससे उसका भाग्य चमक उठे, परन्तु यह मन्त्र तभी सिद्ध हो सकता था जब किसी शव पर बैठ कर उसका जाप किया जाए। कुमारपाल ने योगी के आदेश का पालन किया और मन्त्र का ऐसा प्रभाव हुया कि मृतक-शरीर बोल उठा और उसने यह भविष्यवाणी की कि पाँच वर्ष में वह गुजरात का राजा हो जाएगा। वहां से योगी के वेश में ही वह कल्याण कारिका' देश में कान्तिपुर गया और फिर वहाँ से उज्जैन जाकर प्रसिद्ध कालिकादेवी के मन्दिर में शरण ली, जहाँ एक सर्प ने उसे 'गुजरात का स्वामी' कह कर सम्बोधित किया। फिर, उसने चित्तौड़ की यात्रा की। वहाँ के सभी मन्दिरों के दर्शन और विवरण के अनन्तर मध्यभारत की इस प्राचीन राजधानी की स्थापना और इसके चित्राङ्गगढ़ नाम के विषय में एक लम्बी व्याख्या की गई है। वहाँ से वह कन्नौज, बनारस अथवा काशी, राजगढ और सम्पू (Sampoo) आदि स्थानों में घूमता रहा, जो सभी बौद्धधर्म के इतिहास में प्रसिद्ध हैं। इनमें से अन्तिम नगर में, जो चीन के राज्य में है, उसने जगडू नामक एक धनवान सेठ का वर्णन किया है, जिसने संवत् ११७२ के अकाल में उस देश के राजाओं की सेवा कई करोड़ रुपये देकर की थी। जिन लोगों ने इस सेठ की उदारता से लाभ उठाया उनमें से सिन्ध (Sinde) का हमीर भी था। कुमारपाल इसी १ अन्य के दूसरे भाग में इसको 'कल्याण कटक' लिखा है । कान्तिपुर का पता चलने से इसकी भौगोलिक स्थिति का प्रश्न हल हो सकता है। मूल में, यह कल्याणकारक देश', ऐसा पाठ है जिसका अर्थ मङ्गल करने वाला देश भी हो सकता है। २ अति प्राचीन काल से सुप्रसिद्ध यह मन्दिर अब भी विद्यमान है; 'कालिका' काल-मूति का स्त्रीलिङ्ग है। ३ स्थानीय पाख्यानों के अनुसार चित्राङ्गद मोरी चित्तौड़गढ़ का संस्थापक था। ४ इस साधारण सी बात का बहुत महत्त्व है क्योंकि इससे, इस राजा के राज्यकाल का समय निर्धारित होने पर, इस बात का पता चलता है कि प्राचीन पद्य के अनुसार मा का नाला कग्गर अथवा कर (Caggar or Kankar) इसके समय में सूख गया था। देखिए 'राजस्थान का इतिहास' जि० २, पृ० २६४ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा प्रकार घूमता रहा परन्तु संवत् ११८९ (११३३ ई.)' में सिद्धराज के अन्त समय तक किसी महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन नहीं पाता। कहते हैं कि सिद्धराज ने कृष्णदेव और कामदेव (Kamideo)' नामक मन्त्रियों को बुला कर अपने कण्ठ के हाथ लगा कर यह शपथ दिलाना चाहा कि वे कुमारपाल को कभी राजा न होने देंगे, परन्तु वे उसकी इस प्राज्ञा का पालन कर पाते इसके पूर्व ही वह मर गया। स्वर्गीय राजा का एक सम्बन्धी, जो कि सोलंकी शाखा का ही था, गद्दी पर बिठाया गया, परन्तु मूर्ख सिद्ध होने के कारण तुरन्त उतार दिया गया। कुमारपाल उस समय तिब्बत' के पहाड़ों में था। समाचार मिलते ही वह पाटण चला पाया; वहाँ पर उसने सभी वर्गों के लोगों को दिवंगत राजा की पादुकाओं और चरण-चिन्हों को पूजते पाया। इतने सम्मान के साथ वे उसका स्मरण करते थे ! बड़े-बड़े दरबारी जब गद्दी के उत्तराधिकारी का निर्णय करने में सफल न हुए तो उन्होंने वही उपाय ग्रहण किया जिसके द्वारा डेरियस (Darius) को फारस का राज्य प्राप्त हुआ था; परन्तु, राजपूत सरदारों ने अणहिलवाड़ा के अधीनस्थ अट्ठारह राज्यों के लिए उपयुक्त शासक ढंढने में हाथी से काम लिया, जो घोड़े की अपेक्षा अधिक शाही और बुद्धिमान् होता है। उस हाथी की सूंड में एक पानी का घड़ा पकड़ा दिया गया और सब ने यह स्वीकार किया कि वह गणेश का प्रतीक जिस पर उस पानी को उँडेल देगा . यहां संवत् ११६९ (११४३ ई.) होना चाहिए । २ इसका शुद्ध नाम कान्हड़देव है। ३ इसमें सन्देह नहीं कि उत्तर के पहाड़ों में कुमारपाल को किसी धर्म-श्रद्धालु जाति के लोगों ने ही शरण दी थी। तिब्बत के विहारों (धार्मिक-स्थानों) में प्रयुक्त लिपि में और मध्य एवं पश्चिमी भारत के शिलालेखों को लिपि में बहुत थोड़ा ही अन्तर है। तिस्बत के बौद्ध कभी-कभी सौराष्ट्र के पर्वतों की यात्रा करने पाया करते हैं, परन्तु यह स्पष्टतया नहीं कहा जा सकता कि यह धर्म वहीं से उत्तर में गया था। ४ बहुत सम्भव है कि इस दृश्य के महान अभिनेता को बहुत पहले से ही अभ्यस्त किया गया होगा और इस योजना की पूर्व-व्यवस्था कुमारपाल के बहनोई ने को होगी। इस बुद्धिमान् पशु को कुछ गन्नों के लोभ से गलियों में घुमा कर उसके द्वारा राजा के किसी प्रतिरूप का अभिषेक करवाने की शिक्षा देना बहुत सरल है। 'कुमारपाल रास' में यहाँ हथिनी से अभिषेक कराना लिखा है। डेरिस (Darius) को फरस का राजा बनाने में भी ऐसी ही तरकीब काम में लाई गई थी। कहते हैं कि एक घोड़ी उसके डेरे के किनारे बांध दो गई थी और वह शुभ प्रश्व छोड़ते ही उससे मिलने के लिए, वहाँ वोड़ पाता था। मेरे एक मित्र एडवर्ड ब्लण्ट ने भी प्रागरे में हमारे खच्चरों की दौड़ के अवसर पर Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - 25 कुमारपाल [ १८७ वही उनका राजा अभिषिक्त होगा। जब उस हाथी ने वह घड़ा एक योगी पर उँडेल दिया तो सबके आश्चर्य का ठिकाना न रहा और वही योगी तुरन्त 'मार्गशीर्ष कृष्णा ४ सम्वत ११८६' को राजगद्दी पर बिठाया गया।' यह योगी छद्मवेष में कुमारपाल ही था। जब सिद्धराज का सम्बन्धी गद्दी पर बैठाया गया तो सभी एकत्रित सरदारों ने उससे पूछा-'जयसिंह द्वारा छोड़े हुए अट्ठारह प्रान्तों पर पाप कैसे शासन करेंगे ? तब उसने उत्तर दिया 'पाप लोगों के परामर्श और शिक्षा के अनुसार ।' परन्तु, जब कुमारपाल सिंहासन पर बैठा तो उससे भी यही प्रश्न किया गया, तब वह तुरन्त उठ कर खड़ा हो गया और उसने अपनी तलवार हाथ में उठा ली। सभा भवन जयजयकार से गूंज उठा और सब को विश्वास हो गया कि वही सिद्धराज का योग्य उत्तराधिकारी था। इसके आगे राज्याभिषेक का विवरण है, जिसको यहाँ पर उद्धृत करना अनावश्यक होगा; कुमारपाल के भ्रमण एवं राज्याभिषेक-विषयक वर्णन से ही 'चरित्र' के अड़तीस हजार श्लोकों का अधिकांश भरा पड़ा है। इस राजा का विशेष विवरण लिखने से पूर्व हम उसके पूर्ववर्ती राजा (सिद्धराज जयसिंह) से सम्बन्धित कुछ उन घटनाओं का वर्णन करेंगे जिनके कारण उसका समय इतिहास में इतनी प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ और उसके नाम एवं पराक्रम का उस समय के राजपूताना की प्रत्येक रियासत के ऐतिहासिक काव्यों में वर्णन हुअा। चन्द वरदाई ने कन्नौज के राजा के विरुद्ध उसके उन युद्धों का सूचन किया है जब कि 'उसने अपनी तलवार को गङ्गा में प्रक्षालित किया था। उसने उसकी सार्वभौम विजय को रोकने के निमित्त मेवाड़ और अजमेर के राजानों में हुई सन्धि का भी उल्लेख किया है। इन घटनाओं से सम्बन्धित अभिलेख ताड़पत्रों से भी अधिक टिकाऊ शिलालेखों पर अंकित हैं, जो अब उन नगरों के खंडहरों में पाए जाते हैं जिनके नाम भी लुप्त हो चुके हैं। उसने पूरी तरह ऐसी ही चालाकी का प्रयोग किया था यद्यपि उसमें वैसी सफलता प्राप्त नहीं हई। उसने अपने गधे को दाने (अनाज) का बोरा लादे हुए घोड़े की पंछ से बाँध कर शिक्षित किया और वह अनाज निश्चित विजयस्थान पर पहुँचते हो उसे खिला दिया जाता था। घुड़दौड़ के दिन वह अभ्यास काम कर गया। दाना मिलने के लोभ में गधा दौड़ा और उसके स्वामी को पुरस्कार प्राप्त हुआ। 'संवत् ११९६ रा मंगसर वद ४ पुख नखत्र सूरज धार जद अहलपुर पाटण सोळ की कुमारपाल सिधराव सिंघ री गादो पाई ।'-बाँकीदास री ख्यात, १५५२, (५० १३३ रा.प्रा.वि.प्र. से प्रकाशित संस्करण, सं. २०१३ वि०) राज्य-वंशावली में लिखा है कि कुमारपाल मार्गशीर्ष शुक्ला ११ संवत् ११९६ वि. को गद्दी पर बैठा । (देखिए-रासमाला गुजराती अनुवाद, टिप्पणी, पृ. २३९) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] पश्चिमी भारत की यात्रा अर्णोराज को पुत्री से विवाह किया, जो चित्तौड़ के स्वामी के अधीन सात सौ ग्रामों का अधिपति था। यह सामन्त मेवाड़ की पूर्वीय सीमा के पठार पर था और उसकी राजधानी मीनल [मेनाल ?] (अन्यत्र वर्णित)' थी, जिसके खंड. हरों में मुझे इस सम्बन्ध को प्रमाणित करने वाला शिलालेख मिला है। चन्द्रावती के परमारों से सम्बन्धित एक अन्य महत्वपूर्ण शिलालेख से विदित होता है कि अर्णोराज कुमारपाल का भी समकालीन था। इसमें लिखा है कि 'कुमारपाल और अर्णोदेव के बीच युद्ध हुआ, जिसमें लक्षणपाल ने रणक्षेत्र में अमरत्व फल प्राप्त किया ।' ___ 'चरित्र' के संस्कृत संस्करण में लिखा है कि सिद्धराज ने धार के परमार राजाओं से युद्ध किया। उन्होंने कितने ही वर्षों तक सामना किया परन्तु अन्त में उसने धार पर अधिकार कर लिया और वहाँ के राजा नीरवर्मा [नरवर्मा] को पकड़ लिया। इस उदयादित्य के पुत्र के समय का कितने ही तत्कालीन शिलालेखों एवं हस्तलिखित ग्रन्थों के आधार पर में निर्णय कर चूका है और यहाँ पर जिज्ञासु पाठकों के लिए इतना ही कहूँगा कि 'चरित्र' का यह उल्लेख मेरे उस निर्णय का पुष्टि में एक और महत्वपूर्ण समकालिक तिथि-प्रमाण के रूप में उपस्थित हुआ है। सुप्रसिद्ध जगदेव परमार, जिसका जीवन-चरित्र एवं पराक्रम एक छोटी पुस्तिका में वर्णित है, बारह वर्ष तक सिद्धराज की नौकरी में पाटण रहा था। उदयादित्य के पुत्र यशोवर्मा के दो पुत्र थे, बाघेली राणी का रणधवल और पाटण को सोलंकिनी का जगदेव । बड़ा पुत्र धार का राजा हुआ और उसकी मृत्यु के बाद सिद्धराज की सहायता से जगदेव उसका उत्तराधिकारी हुग्रा । इसी जगदेव की वात में यह भी लिखा है कि सिद्धराज ने कच्छ के फूलजी जाडेचा की पुत्री से विवाह किया था, जो वातों में लाखा फूलाणी के नाम से प्रसिद्ध है। विक्रम की बारहवीं शताब्दी के अन्त में वह जंगल का राजा' बना हुआ था और उसके पराक्रमपूर्ण 'धाडों के कारण उसका नाम पड़ोसी राज्यों के इतिहासों में भी प्रसिद्ध है । । देखिए राजस्थान का इतिहास', जि० २, ५० ७४६ । दूसरा शिलालेख मीनल (Mynal) के खण्डहरों में प्राप्त हुआ है, जो 'वलभी के द्वार' पर मेवाड़ के राजाओं की महत्ता का प्रमाण उपस्थित करता है, जो पहले बल्हरा ही थे। • देखिए, रा. ए सोसाइटि जर्नल, जि० १, प० २०७। ३ लाखा फूलाणी तो मूलराज का समकालीन था जिसका समय ८८० ई० से १७९ ई. तक का माना गया है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - कुमारपाल [ १९ जंसलमेर के इतिहास में लिखा है कि वहाँ के राजा लांजा विजयराय को सिद्धराज की पुत्री ब्याहो थी । यद्यपि इस घटना के विषय में निश्चित समय का उल्लेख नहीं है परन्तु हम इसका अनुमान लगा सकते हैं । लाँजा का पितामह दुसाज [ दूसाजी | संवत् ११०० में लोद्रवा' की गद्दी पर बैठा था और विजयराय के पौत्र जेसल ने संवत् १२१२ में जैसलमेर बसाया था। इस प्रकार इनके बीच का समय विजयराय के राज्यकाल के रूप में ग्रहण किया जा सकता है और इससे समय-निर्धारण का एक और भी पुष्ट प्रमाण हमें मिल जाता है। भाटी राजपूतों के इतिहास में लिखा है कि इस राजकुमार की माता ने सिद्धराय की पुत्री से उसका विवाह होने के कारण 'उत्तर के म्लेच्छों के विरुद्ध पाटण के द्वार' की रक्षा करने का आदेश अपने पुत्र को दिया था। ऐसी कितनी ही और भी समसामयिक घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है परन्तु केवल उपरिवर्णित वृत्तान्त ही 'चरित्र' में उल्लिखित वंशावलियों को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। कुमारपाल-ने, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, संवत् ११८६ (११३३ ई०) में राज्य करना प्रारम्भ किया। उसने सबसे पहला काम यह किया कि जिन लोगों ने उसे विपत्तिकाल में आश्रय दिया था, उन सबको एकत्रित किया। हेमाचार्य को भड़ौंच के एकान्तवास में से दरबार में बुलाया गया और गुरुपदवी प्रदान करके उनका सम्मान किया गया; जैन युवक, जो बौद्ध दर्शन और भाषा की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, अब राजा के मुख्य नागरिक मन्त्री का कार्य करने लगे। कृष्णदेव को, जिसने राजा को पलायनकाल में सबसे पहले शरण दी थी, प्रधान सैनिक - परामर्शदाता अमात्य नियुक्त किया गया और सैनिक सभा के बहत्तर सामन्तों का नियन्त्रण भी उसके अधिकार में ' यह नगर अब बिलकुल खण्डहरों की दशा में पड़ा है। पहले यह जैसलमेर के 'वनराजों' (Desert Princes) की राजधानी था। अपने अनुसंधानों के सम्बन्ध में मुझे इसका वर्णन करना है। २ वास्तव में, सिद्धराज की पत्नी ने अपने जामाता को यह आदेश दिया था। तभी विवाह में समागत राजाओं ने विजयराय को 'उत्तर भड़ किवाड़ भाटी' की उपाधि से विभूषित किया था।-जैसलमेर का इतिहास; हरिगोविन्द व्यास; पृ. ४० । 3 मेरे द्वारा संग्रहीत बहुत से प्राचीन जैन लिपि में लिखे हुए शिलालेखों में एक सिद्धराज का लेख भी है जो अन्य कितने ही लेखों की तरह अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. ] पश्चिमी भारत की यात्रा दिया गया; इसके अतिरिक्त अन्य सामन्तं भी उसीके अधीन हुए। आगे चल कर 'चरित्र' में अन्य राजवंशों के साथ कुमारपाल की वंशावली एवं प्रणहिलवाड़ा के अधीनस्थ अट्ठारह राज्यों का वर्णन किया गया है। कुमारपाल सिद्धराज के वंश में नहीं था अपितु अजमेर के चौहान राजाओं से उसका निकास था। "गुजरात में दैथली (देवस्थली) नामक ग्राम में त्रिभुवनपाल रहता था जो बारह नामों का स्वामी था। काश्मीर' से ब्याही हुई एक रानी से उसके तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं, जिनके नाम कुमारपाल, महीपाल और कीर्तिपाल तथा पेमलदेवी और देवलदेवी थे। उसका वंश छत्तीसों जातियों में सबसे उँचा था।" इन जातियों की एक तालिका भी दी हुई है, जिसके अन्त में यह पद्य है "इन सबसे ऊंचा चौहान कुल है, जिस कुल में कुमार नरिंद उत्पन्न हुप्रा है, जो प्राकाश में सूर्य के समान है, मानसरोवर मे हंस के समान है, और जिसने चालुक्य वंश को उज्ज्वल कर दिया है।" यहां हम चौहानवंशीय राजा के चालुक्यों की राजगद्दी पर बैठने एवं अपरवंश के नाम में कोई परिवर्तन न होने के विषय में विचार करेंगे। यह एक 'बौद्ध मतावलम्बी इन राजपूतों और काश्मीर के राजाओं में ऐसे वैवाहिक सम्बन्धों के कितने ही उल्लेख मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कि ये लोग एक ही जाति के थे और उसी मत के मानने वाले थे। संस्कृत मूल में 'नाम्ना कश्मीरीदेवीति' पाठ है, इससे ज्ञात होता है कि रानी का नाम 'कश्मीरदेवी' था। राजकुलों में रानियों को पितृवंश से संबोधित करने का रिवाज है। • मूल पद्य इस प्रकार हैं छत्रीस राज कुळीस बखाण , सघळामां मोटो चूहाण ॥ ३४ जिम तारांमां मोटो चंद, जिम सुर मांही मोटो इंद । जिम परवतमा मेर बखांरिण, तिम क्षत्रीमा जाति चुहारण ॥ ३५ जेरणई कुली हुप्रो कुमरनरिंद , जाणे प्रगटयो गगनि दिणंद ॥ मानसरोवर जेहो हंस , जेणाई दीपान्यो चउलुकवंस ।। ३६ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६; कुमारपाल [ १९१ ऐसी पद्धति है जिससे राजपूत राजतन्त्र के दो तथ्यों का पता चलता है, जो इस (तन्त्र) को एक साथ चुनाव और दत्तक प्रथाओं पर आधारित सिद्ध करते हैं यद्यपि पूर्व प्रथा को किन्हीं विशेष और आवश्यक अवसरों पर ही ग्रहण किया जाता है। इन राज्यों की संपूर्ण सत्ता यहां के बड़े-बड़े सामन्तों में निहित होती है; हम ऐसे कितने ही उदाहरण उपस्थित कर सकते हैं कि राज्य के उत्तराधिकारी में व्यक्तिगत दोष होने के कारण राजवंश की अन्यतम शाखा में से किसी व्यक्ति का चुनाव कर लिया गया है और सामन्तों की इच्छानुसार राजा ने उसी व्यक्ति को उत्तराधिकारी स्वीकार करके गोद ले लिया है । परन्तु, मुझे ऐसा कोई दूसरा उदाहरण याद नहीं है कि जिसमें किसी अन्य शाखा का राजा गद्दी पर बिठाया गया हो और फिर भी उस राजवंश के अभिधान में कोई परिवर्तन न हुआ हो । यद्यपि कुमारपाल ने 'सिद्धराज की पगड़ी नहीं बँधाई थी (जो कि गोद होने का चिन्ह है)' फिर भी चालुक्य बन जाने के नाते यह उसका कर्तव्य हो गया था कि वह इस बात को बिलकुल भूल जाए कि राजा (सिद्धराज) के अतिरिक्त उसका पिता कोई और था, और उसके इसी व्यक्तित्व को स्वीकार करते हुए सोलंकियों के भाट ने अपनी वंशावली में उसे चालुक्य के अतिरिक्त कभी और कुछ नहीं बताया है। 'इन सब वंशों में चालुक्य वंश प्रधान है; कुमारपाल, जिसके गुरु हेमाचार्य हैं, इस वंश का भूषण है; (ये दोनों) मानव जाति के सूर्य और चन्द्रमा हैं ।' अब हम उन अट्ठारह' प्रदेशों के नामों का वर्णन करेंगे जो उस समय बल्हरा साम्राज्य के अधीन थे; इन सब का मिल कर इतना बड़ा विस्तार था कि यदि शिलालेखों से इस उल्लेख की पुष्टि न होती तो हम इसे 'चरित्र' लेखक की सारहीन अतिशयोक्ति मात्र ही समझ लेते । आश्चर्य तो इस बात का है कि बारहवीं शताब्दी में लिखे हुए इस विवरण का आठवीं शताब्दी में अरब यात्रियों द्वारा किए हुए वर्णन से भी पूर्ण सामंजस्य है कि यह साम्राज्य भारतीय प्रायद्वीप से लेकर हिमालय पर्वत की तलहटो तक फैला हुआ था। 'गुजरात', कर्णाटक', मालवा, मरुदेश', सूरत', (सौराष्ट्र), सिन्धु', कोंकण', सेवलकर, (शैवलक) राष्ट्रदेश, भंसबर'' (Bhansber), लारदेश', संकुलदेश'', कच्छदेश', जालंधर', मेवाड़५, दीपकदेश', ऊच", (Outch) बम्बेर', करदेश, भीराक° (Bheerak); और इनके अतिरिक्त चौदह और प्रदेश थे जिनकी , कर्णाटे गुर्जरे' लाटे । सौराष्ट्र कच्छ सन्धर्व' । उच्चायांचव भम्भैयाँ* मारवे मालवे तथा ॥१ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा सीमा में कोई जीव नहीं मारा जाता था।' इसके आगे उसकी राज्यव्यवस्था का वर्णन है, परन्तु यदि ऊपर दिए हुए सभी प्रदेशों पर उसकी सर्वोच्च सत्ता स्वीकार भी करली जावे तो उसकी सेना की संख्या पर सहज ही विश्वास नहीं किया जा सकता; ग्यारह सौ हाथी, पचास हजार सांग्रामिक- रथ, आठ लाख पैदल भोर ग्यारह लाख घोड़े । ये सब मिला कर उस संख्या से भी बहुत बढ़ जाते हैं जो सेना क्षरक्षस' (Xerxes ) ग्रीस पर चढ़ा कर लाया था । ७ कङ्कणे च महाराष्ट्र ' कोरे १६ जालंधरे १४ पुनः । सपादलक्षे १° (?) मेवाडे " दीदाभी' 'राख्ययोरपि ॥ २ ( कु.पा.च ) ऊपर टॉड साहब ने अट्ठारह की जगह बीस देश गिनाए हैं। उक्त पद्य में जिन अट्ठारह प्रदेशों के नाम दिए गए हैं वे प्राय: टॉड साहब की सूची में आ गए हैं, केवल भम्भेरी नहीं आया है । राष्ट्र देश सम्भवतः महाराष्ट्र है और भंसबर शायद सांभर, शाकम्भरी अथवा सपादलक्ष है । सेवलक और संकुलदेश के नाम उक्त पद्य में नहीं आए हैं । १७- झेलम और चिनाब के संगम से पश्चिम में थोड़ी दूर पर उच्च नामक स्थान अब भी है जो ऊंछ नाम से प्रसिद्ध है। यही उच्च देश का प्रधान नगर था । * भम्भेरी या बम्बुरा सिन्ध के कराची जिले का एक प्राचीन नगर था । इसके आसपास ही कोट है जहाँ प्रसिद्ध देवालय थे, जिनको सन् ७११ ई. के प्राक्रमरण में मुसलमानों ने तोड़ डाले थे, इसीलिए अब भी लोग इस स्थान को देवल, देबल अथवा दाबल नाम से पुकारते हैं । १४- जालंधर - इसका क्षेत्रफल १२,१८१ वर्गमील गिना जाता है; इसके ईशानकोण में होशियारपुर जिला है । वायव्य कोण में कपूरथला और व्यास नदी है- दक्षिण में सतलज मा गई है, और सतलज औौर व्यास के बीच का त्रिकोणाकार भाग जालंधर का दोग्राबा कहलाता है, जो बहुत उपजाऊ है । प्राचीनकाल में यह प्रदेश चन्द्रवंशी राजाश्रों के अधिकार में था । कांगड़ा के आसपास छोटे-छोटे संस्थानों में अब भी इस वंश के लोग बसते हैं। ये लोग महाभारतकाल के सुशर्म चन्द्र के वंशज हैं । सुशर्म ने महाभारत युद्ध के बाद मुलतान का राज्य छोड़ कर जालंधर के दोआबे में काटोच अथवा तंगतं नामक राज्यों की स्थापना की । चीनी यात्रा साँग के लेखानुसार सातवीं शताब्दी में होशियारपुर, कांगड़ा पर्वत का प्रदेश और प्राधुनिक चम्बा, मंडी तथा सरहिन्द के इलाके भी जालंधर में सम्मिलित थे। 1 पद्मपुराण में लिखा है कि जालन्धर नामक दैश्य ने इसकी स्थापना की थी। चीनी यात्री लिखा है कि जालन्धर का घेरा दो मील का है और इसके दोनों तरफ दो तालाब हैं । गज़नी के इब्राहिम मुसलमान का इस पर अधिकार हो गया था। मुगलकाल में यह नगर सतलज और व्यास नदियों के बीच के दो श्राबे की राजधानी था। इसके अलग-अलग विभाग बने हुए हैं और प्रत्येक विभाग के पृथक्-पृथक् परकोटे हैं। रासमाला, गुजराती अनुवाद, पृ. २३७-३८ । का पुत्र था। उसने एक विशाल सेना लेकर N.S.E; p. 1311 ' क्षरक्षस फारस के बादशाह डेरियस प्रथम ई० पू० ४५० में ग्रीस पर चढ़ाई की थी। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • कुमारपाल [ १९३ कुमारपाल के सोलह रानियां, बहत्तर सामन्त और अन्य सेनानायक थे । उसने अणहिलवाड़ा को बारह विभागों में बांट दिया था; प्रत्येक विभाग एक मुख्य न्यायाधीश के अधीन था। लार जाति को उसने अपने राज्य से निकाल दिया था। उसने अपने बहनोई शाकम्भरी के राजा पूर्णपाल से युद्ध करके उसे बन्दी बना लिया और उसके राज्य को आक्रान्त किया । सूरत के स्वामी समरेश (Samar-e's) पर भी आक्रमण करके उसको अपने आधीन कर लिया था।' संवत् १२११ (११५५ ई०) में उसने मन्दिर पर सोने का कलश चढ़ाया और विदेशियों से कर वसूल करके पवित्र पर्वत गिरनार पर सीढ़ियां बनवाने का खर्चा पूरा किया। कहते हैं कि उसने सिन्ध के रास्ते से होने वाले कितने ही मुसलमानी हमलों का सामना किया था। 'चरित्र' में कुमारपाल को 'जैनधर्म का स्तम्भ' लिखा है. जिसमें जीवहिंसा वजित होने के कारण वह राजपूत के लिए उपयुक्त धर्म नहीं माना गया है और इसी धर्म के अनुयायी को सर्वाधिकारी मन्त्री बनाना तो और भी असंगत बात थी। ___वर्षा ऋतु में जब वह शाकम्भरी के युद्ध से लौटा तो उसे विचार पाया कि इस युद्ध में असंख्य जीवों का भी वध हुआ है; अतः, सम्भवतः हेमाचार्य की प्रेरणा से, उसने भविष्य में उस ऋतु में कभी युद्ध न करने की शपथ ग्रहण की। कहते हैं कि इस सिद्धान्त का पालन करने के निमित्त उसने कन्नौज के राजा जयसिंह के पास भी एक पत्र भेजा जिसमें उसका स्वयं का चित्र याचना करते हुए अंकित था। उस पत्र में कन्नौज के राज्य में पशु-वध बन्द करने की प्रार्थना की गई थी; साथ में, दस लाख सोने के सिक्के और दो हज़ार चुने हुए घोड़े भी थे ' सम्भवतः यह सरम (Sarama) था, जिसका उपनाम पेरीमल (Perimal) था अर्थात् वह 'प्रमारवंश' का था जिसका रेनॉडॉट (Renadout) ने उल्लेख किया है कि वह मुसलमान हो गया था और उसने अपने अन्तिम दिन मक्का में बिताए थे। (पृ० १७१ प्रध्याय की अंतिम पंक्ति) इसको केवल मंदिर लिखा है। हम अनुमान करें कि यह सोमनाथ पत्तन का सूर्यनारायण का मन्दिर होगा । अथवा यह शत्रुञ्जय का मन्दिर होगा। संवत् १२११ में कुमारपाल ने बाहड़पुर में त्रिभुवनटाल-विहार पर कलश चढ़ाया। -कुमारपालप्रबन्ध; जिनमण्डन ; पृ० ७४ (A) ३ सन १८२० ई. में जब मैं मारवाड़ में था तो वहां के प्रसन्तुष्ट सैनिकों ने शिकायत की कि वे तो भूखों मर रहे थे और वहां के जैन मन्त्री कुत्तों को खिलाने में सैकड़ों रुपये खर्च कर रहे थे। ऐसे ही पक्षपातपूर्ण व्यवहार से प्रणहिलपाड़ा का पतन हुना होगा। यह एक अजीब सी बात है, परन्तु इसका ठीक-ठीक कारण ज्ञात नहीं है कि सभी वणिक जातियां विशेषतः प्रोसवाल जाति प्रणहिलवाड़ा के सोलंकी राजपूतों से निकली है और प्राश्चर्य इस बात का है कि प्रायः जैन गुरुनों का चुनाव इन्हीं घोसवालों में से होता है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अतः राठौड़ ने तुरन्त ही यह प्रार्थना स्वीकार कर ली यद्यपि हम जानते हैं कि इस प्रतिज्ञा का अधिक समय तक पालन करना उसके वश की बात नहीं थी। कुमारपाल के शत्रुओं ने भी उसकी इस सनक से लाभ उठाने में भूल नहीं की। सोलंकियों की वंशावली में भाट ने लिखा है कि रक्तपात को वर्जित करने वाले जैनमत के कारण ही पाटण राज्य का तख्ता उलट गया। 'चरित्र' में लिखा है कि "गजनी के खान ने उस पर आक्रमण किया परन्तु उसके ज्योतिषी [गुरु? ) ने उसे वर्षा ऋतु में युद्ध करने से मना कर दिया और मन्त्रबल से सोते हुए आक्रमणकारी खान को चालुक्य राजा के महल में मँगवा लिया जिससे खान में और उसमें पक्की मित्रता हो गई।"' जहाँ तक पदवी अथवा उपाधि से ही काम चल जाय वहाँ तक हिन्दू इतिहासकार प्रायः व्यक्तियों के नामों का उल्लेख नहीं करते; मुसलिम इतिहासों में इस राजा के राज्यकाल में गजनी से हुए किसी आक्रमण का विवरण नहीं मिलता। अतः इस आक्रमणकारी के विषय में इसके अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता कि यह निर्वासित शाहजादा जलालु ' कुमारपाल रास में यह वृत्तान्त इस प्रकार लिखा है "बात हवि परदेशि जसि, मुगल गिजनि पान्यो तसि । सबल सेन लेइ निज साथ, गज रथ घोड़ा बहु संघात । मौकस बाजी लेई करी, वाटई मुगल पाटण करी । पाव्या मुगल जाण्या जसि, दरवाजा लई भीड़या तसि चिन्तातुर हुवा जन लोक, पाटण मांहि रह्या सहि कोक । एक कहि नर खंडी जहि, एक कहि नर मंडी रहि । एक कहि काइ थाइसें, एक कहि ए भागि जासे । एक कहि ए निसंतराय, एक कहि नृप चढी जाय । एक कहि नप नासि प्राज, एक कहि क्षत्री नी लाज । मुसलमानी सेना से डर कर लोग उदयन मंत्री के पास गए। उसने उनको धीरज बंधाया और वह स्वयं हेमाचार्य के पास गया तब उसने चक्रेश्वरी देवी का प्राव्हान किया। "गुरु वचन देवी सज थई, निश भरी मुगल दल मां गई। भावी जहाँ सूतो सुलतान, निद्रा देई कोषू विज्ञान । प्रहि उगमती जागे जसि, पसि कोई न देखी तसि । पेखई क्षत्रीनो परिवार, असर तब हइडि करि विचार ।" ऐसा होने पर खान को बहुत पश्चात्ताप हुमा, परन्तु कुमारपाल ने कहा 'मैं चालुक्यवंशी राजा हूँ, बन्धन में पड़े हुए को मारने वाला नहीं है, अतः तुम्हें भी नहीं मारूगा।' ऐसा कह कर राजा ने उसका सत्कार किया जिससे खान बहुत प्रसन्न हुमा और कुमारपाल के साथ मैत्री करके डापना लश्कर वापस ले गया।' (रासमाला गुज., अनु., पृ. २६०.६१) Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - e; कुमारपाल और हेमाचार्य का अन्त [ १६५ हीन ही हो सकता है, जिसके सिन्ध पर हमले और उमरकोट के राजा पर आक्रमण का हाल हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इतिहासकारों ने लिखा है । परन्तु, यह जादू से पकड़ मंगवाने की बात समझ में नहीं आती; यह तो एक कल्पना मात्र है जिससे यह मालूम पड़ता है कि पट्टण पर अधिकार कर लिया गया था। इस कथा का अन्त तो और भी घटनापूर्ण है । उस मुसलमान के साथ मित्रता का फल यह हुआ कि कुमारपाल इसलाम के मूल तत्वों से प्रेम करने लगा और इस कार्य में हेमाचार्य ने पहल की। कहते हैं कि वह भी आचार्य की तरह इस्लाम धर्म में परिवर्तित होकर ही मरता यदि उसके राज्यकाल के तेतीसवें वर्ष में विष देने से उसकी मृत्यु न हो जाती । इस कृत्य का सन्देह उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी अजयपाल पर किया जाता है। इसका कारण यह बताते हैं कि जब राजा को यह मालूम हो गया कि उसे विष दिया गया है तो उसने अपने भण्डार में से सीप से बनी हुई विष-उतार की दवा मंगाई, जो अजयपाल ने इधर-उधर करदी। हेमाचार्य की मृत्यु एक वर्ष पहले ही हो चुकी थी। यद्यपि पागलपन का पर्दा डाल कर जैनमत के इस महान् प्राचार्य के स्वधर्म-त्याग की असाधारण घटना को छुपाने का प्रयत्न किया गया है परन्तु, कहते हैं कि मरते समय 'अल्लाह' 'अल्लाह' के अतिरिक्त उनके मुंह से और कोई शब्द नहीं निकले थे। परन्तु, उनके धर्म-परिवर्तन का अकाटय प्रमाण यह है कि मरने के बाद उनके अवशेषों को गाड़ा गया था।' इस सुप्रसिद्ध व्यक्ति का अन्त संवत् १२२१ में हुआ । उनका जन्म संवत् ११४५ में हुआ था । 'चरित्र' के शब्दों में ही हम इस राजा का चरित्र समाप्त करते हैं 'संवत् १२२२ (११६६ ई०)२ में कुमारपाल प्रेत हो गया। उसके उत्तराधिकारी अजयपाल द्वारा विष दिए जाने के कारण उसकी मृत्यु हुई।' ' जयसिंह सूरिकृत कुमारपाल चरित (सगं १०; पद्य २१५-२१७) में यह प्रमाणित किया गया है कि हेमाचार्य का अग्निदाह किया गया था। लिखा है कि चन्दन, मलयागरु और कपूर प्रादि उत्तम पदार्थों द्वारा सूरि के मृत शरीर का संस्कार किया गया। उसकी भस्म को पवित्र मान कर राजा ने सिलक लगाया और नमस्कार किया । यह देख कर सामन्तों एवं अन्य लोगों ने भी ऐसा ही किया। भस्म बीत जाने पर लोग वहां से मिट्टी भी खोदले गए जिससे एक घुटनों तक गहरा खड्डा बन गया। यह खड्डा पाटण में 'हेम खाडा' के नाम से प्रसिद्ध है। । संवत् प्रौर सन् लिखने में क० टॉड ने सर्वत्र भूल की है। यहां भी उनके आधारभूत कु० पा० चरित्र में कुमारपाल का मरण समय संवत् १२३० लिखा है "संवत् बारसें त्रीसई राय, कुमारपाल व्यंतर मां जाय । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अब हम इस राजा के राज्यकाल के विषय में प्राप्त विभिन्न एवं विचित्र विवरणों को व्याख्या करेंगे और अन्य विश्वसनीय वृत्तान्तों के आधार पर 'चरित्र' में वर्णित तथ्यों को जांच भी करेंगे। इसी राजा के समय में प्रसिद्ध अरब भूगोल-वेत्ता अल-इदरिसी बल्हरा-राज्य में पाया था जिसके वर्णन से बेयर (Bayer) और द'अॉनविले ने बहुत-सी सूचनाएं प्राप्त की हैं। ऊपर दिए हुए उद्धरण के बाद ही द'पानविले लिखता है-"नहरूरा (Nahroora) का उल्लेख इदरिसी में आता है । निस्सन्देह, यह भारत में हैं जिसे हम गुजरात के नाम से जानते हैं । इस भूगोलवेत्ता के अनुसार भारत के सभी दूसरे राज्यों में इस नगर का प्रभुत्व रहा है । यहां के राजा का भारतवर्ष के अन्य सभी राजाओं से अधिक सम्मान होता था; उसे 'बलहरा' की पदवी प्राप्त थी जिसका अर्थ 'राय' अथवा 'सर्वश्रेष्ठ अधिपति' होता है। इस प्रसिद्ध राजा का निवासस्थान इसी नगर में था। टॉलेमी ने बालेकूरों के शाही नगर के रूप में 'हिप्पोकरा' (Hippocoura) नाम बताया है और वह इसको स्थिति 'लारिस' के समीप एक भारतीय प्रान्त में मानता है, जिसको अफ्रीका की संज्ञा देता है; मैं पहले ही इसको 'गुजरात' बता चुका हूँ। 'बालेकर' और 'बल्हरा' पदवी की समानता एवं प्रान्त की सुलभता को देखते हुए मुझे विश्वास है कि यह प्रसंगगत राजा से ही सम्बद्ध है।" इस सूक्ष्मदर्शी विद्वान् ने उपयुक्त वक्तव्य से यह समुचित निष्कर्ष निकाला है-“भारत में एक गौरवपूर्ण सुप्रसिद्ध राज्य है, जिसका हमें तीसरी (सम्भवतः दूसरी ?) शताब्दी के प्रारम्भ में ही पता चल जाता है और जिसका विवरण बारहवीं शताब्दी में अरब विद्वान् द्वारा लिखी गई पुस्तक में भी मिलता है।" यहां वह पन्द्रहवीं शताब्दी] भी जोड़ सकता था। निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण सूचना के साथ वह अपना वक्तव्य समाप्त करता है-"इदरिसी हमें बताता है कि बल्हरा बुद्ध का भक्त था।" ___उपर्युक्त एवं अन्य सूचनाओं के आधार पर ही द'मानविले ने इस सुप्रसिद्ध नगर की स्थिति का पता लगाने का प्रयत्न किया है । "स्वयं पूर्वीय भूगोलशास्त्रियों के ही विवरण ऐसे हैं कि जिनसे बलहरा के राजकीय नगर की स्थिति का निश्चित रूप से पता लगना सुगम नहीं है । इब्न सईद ने तीन बार समुद्री मार्ग से खम्भात बन्दर की यात्रा को थी; उसके मतानुसार इसकी स्थिति मैदान में है।" न्यूबिग्रन (Nubian) भूगोल-शास्त्रो के इन स्पष्ट उद्धरणों से 'चरित्र' में वरिणत अणहिलवाड़ा के गौरव, यहां के राजाओं की शक्ति एवं उनके द्वारा प्रतिपालित धर्म-विषयक विवरण की भली भांति संपुष्टि हो जाती है। और Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - है। 'मानविले के निष्कर्ष [१९७ जब इदरिसी यह कहता है कि यह भारतीय राज्यों में सब से बड़ी इसी राजधानी को नगर था तो चरित्रकार के इस कथन पर हमें तनिक भी सन्देह नहीं होता कि इस नगर का विस्तार पन्द्रह मील को परिधि में था और कुमारपाल को इस राज्य को बारह प्रान्तों में विभाजित करने को आवश्यकता प्रतीत हुई। इदरिसी ने इस राजा की शक्ति एवं प्रभाव के विषय में भी अपना मत देकर समर्थन किया है। उसने लिखा है कि "भारत के अन्य सभी राजा उसका सम्मान करते हैं।" इस विषय में हमारे पास ऐसे ही और भी सबल प्रमाण मौजूद हैं। उसके सैन्यविस्तार के समान ही हम उसके द्वारा अधिकृत प्रदारहों राज्यों के विषय में भी शंका को व्यक्त करते हुए अवश्य परीक्षण करते, परन्तु इस सम्बन्ध में ऐसे पुष्ट और निर्विवाद प्रमाण मौजूद हैं कि संदेह का कोई अवसर ही उपस्थित नहीं होता। इनमें सबसे सबल प्रमाण दो शिलालेखों का है (परि० सं० ३ व ४) जिनमें से एक चित्तौड़ के मन्दिर में सुरक्षित है और दूसरा पाटण नगर में। 'चरित्र' में वर्णित उसकी मेवाड़ विजय, पंजाब में सालपुर नगर और हिमालय की बाह्य श्रेणी विलक (Sewaluc) पर्वत तक प्राधिपत्य होने की बातों के अकाटय प्रमाण इन शिलालेखों से प्राप्त होते हैं। जालन्धर, उंछ और सिन्धु पर विजय प्राप्त करना तो इससे भी सरलतर बात थी। इस प्रकार अरब भूगोलशास्त्री अबुल फिदा के वर्णन की पुष्टि होती है, जिसका उद्धरण बेयर (Bayer) ने अपने चूडासमा ख्वाम (Chorasmia-Khwarzm) विवरण में दिया है।' 'चरित्र' के इन अंशों से लारिस (Larice) और एरिपाक (Ariaca) देशों से सम्बन्धित बहुत समय से चला आया विवाद भी स्पष्टतया शान्त हो जाता है। टॉलेमी ने इनको पड़ोसी देश लिखा है। उसके मतानुसार यह देश सायरास्ट्रीन (Syrastrene) (सौराष्ट्र ?) अथवा सौरों के प्रायद्वीप का एक मुख्य भाग था। 'चरित्र' में अणहिलवाड़ा के अधीनस्थ अट्ठारह राज्यों में लार देश का भी वर्णन आया है और यह भी उल्लेख है कि किसी अपराध के कारण कुमार. पाल ने 'लार जाति को देश से बाहर निकाल दिया था।' इब्न सईद ने इस देश की स्थिति के प्रश्न को यह कह कर हल किया है कि 'मैंने उन अधिकारी विद्वानों से भेंट को है, जो सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर की स्थिति लार देश में बताते हैं।" कुछ भी हो, इससे यह बात तो सिद्ध हो ही जाती है कि यह जाति "Terram Khanbalek ab Austro attingunt montes Belhar, qui est rex rex regum Indiae.' Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा टॉलमी (Ptolemy) के समय में इतनी शक्तिशाली थी कि एक पूरा देश ही इसके नाम से विख्यात था और बारहवीं शताब्दी तक इसमें इतनी शक्ति मौजूद थी कि अणहिलवाड़ा के राजा को बदला लेने के लिए बल प्रयोग करना पड़ा। इस जाति के बचे-खुचे लोग अब ततीय वर्ण अथवा वैश्यों में पाए जाते हैं । मरु देश में बसने वाली चौरासी जातियों में से यह भी एक है, जो जैन मत का अवलम्बन करती है । मिस्र देशीय महान् भूगोलशास्त्री के 'लारिस' (Larice) और हमारे 'लार' देश के निवासियों के सम्बन्ध में इतना ही विवरण पर्याप्त है । 'लारिस' के पड़ोसी प्रान्त, जिसका नाम उसने 'एरिपाक' लिखा है, के विषय में हम प्रसंगवश पाठकों को पहले ही परिचय दे चुके हैं, और यदि विद्वान विल्फोर्ड (Wilford) 'तगर (Tagara) के स्थान पर एरिया (Aria) की राजधानी की इस व्याख्या को पूर्णतया मान लेता तो वह हिन्दू-पुरातत्त्व के महान् अन्वेषकों में गिना जाता। तगर (Tagara) और एरिपाक (Ariaca) के इस विवरण का अवसर एक शिलालेख के कारण उत्पन्न हुआ, जो बम्बई के पास तन्न (थाना या ठाणा) के खण्डहरों की खुदाई में प्राप्त हा था और सौभाग्य से जनरल करनाक (Caranc) के हाथ पड़ गया था। निःसंदेह इन लेखों से अब तक प्राप्त प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों में एक और मनोरंजक तथ्य की वृद्धि हो जाती है और विल्फोर्ड के विषय में यह कथन पूर्णतया न्यायसंगत ठहरता है कि इनको प्राप्ति के अनन्तर ऐसा योग्य रहस्योद्घाटक व्याख्याता (Expositor) और कोई नहीं हुआ । इन मूल्यवान अभिलेखों पर अतिरिक्त प्रकाश डालने के लिए मैं स्वयं को भी सौभाग्यशाली मानता हूँ क्योंकि इनसे प्रस्तुत विषय में पर्याप्त स्पष्टता आ जाती है। १ 'इतिहास' में वैश्यों की चौरासी जातियाँ इस प्रकार गिनाई गई हैं श्री श्रीमाल, श्रीमाल, पोसवाल, बघेरवाल, डिण्डू, पुष्करवाल, मेड़तवाल हरसोरा, सूरवाल, पल्लीवाल, भम्बू, खण्डेलवाल, दोहलवाल, केडरवाल, देसवाल, गूजरवाल, सोहड़वाल, अग्रवाल, जायलवाल, मानतवाल, कजोटीवाल, कोरतवाल, छेहत्रवाल, सोनी, सोजतवाल, नागर, माद, जल्हेरा, लार, कपोल, खेड़ता, बरारी, दशोरा, भांभरवाल, नागद्रा, करबरा, बटेवड़ा, मेवाड़ा, नरसिंहपुरा, खेतरवाळ, पञ्चमवाळ, हनेरवाल, सरखेड़ा, बैस, स्तुखी, कम्बोवाल, जीरणवाल, बघेलवाल, प्रोरछितवाल, बामनवाल, श्रीगुरू, ठाकरवाल, बलमीवाल, तिपोरा, तिलोता, अतवर्गी, लाडीसाख, बदनोरा, खींचा, गसोरा, बहावहर, जेमो, पदमोरा, महरिया, धाकड़वाल, मनगोरा, गोलवाल, मोहोरवाल, चीतोड़ा, काकलिया, भाडेजा, अन्दोरा, साचोरा, भंगरवाल, मनदहला, बामणिया, बगड़िया, डिण्डोरिया, बोरवाल, सोरबिया, पोरवाल, नफाग, और नागोरा । (एक कम है) -क्रुक्स संस्करण, भा० १, १९२०, पृ० १४४ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ६ ; प्रत्यकर्ता का अभिमत [ १९६ इन ताम्रपत्रों में भूमिदान का विवरण है, जो शक संवत ६३६ अथवा १०७४ विक्रमीय तदनुसार १०१८ ई० में हुआ था। साधारण रीत्यनुसार इनमें भी दाता की वंशपरम्परा का उल्लेख है। पांचवें पद्य में लिखा है कि कपदिन् 'सिलॉर वंश का प्रधान' था जिसका उल्लेख अणहिलवाड़ा के सम्राटों के अधोनस्थ छत्तीस जातियों में 'राजतिलक' विशेषण के साथ हुआ है। सम्भवतः यह सिलार 'लार' ही है, जिसके साथ सि अथवा सु उपसर्ग 'श्रेष्ठ' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और क्योंकि टॉलमी एवं एरिअन के समय में भी 'लारिस' और 'एरिआक' के पड़ोसी प्रान्त उसी सम्राट के अधीन थे इसलिये हमें इस व्याख्या को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है । अंतिम 'a' अनावश्यक है, जो अंग्रेजी सम्पादक ने रख दिया है। यह अक्षर बोला नहीं जाता और प्रायः व्यक्तिवाचक नामों के साथ लगाने पर भ्रम ही उत्पन्न करता है। पाठवें पद्य में कहा है कि बाद में उसका पौत्र गोगनी (Gogni)का स्वामी हुआ। सम्भवतः उसने खम्भात (Cambayet) के प्रसिद्ध नगर और बंदरगाह पर अधिकार कर लिया होगा, जिसका प्राचीन नाम गर्जनी (Garjni) अथवा गजनी (Gajni) था और जो लारिस और एरिपाक के मध्य में स्थित होता हुआ उन्हें आपस में सम्बद्ध करता था। सोलहवें पद्य में उपभोक्ता का नाम अरिकेसर आया है जिसका शब्दार्थ यद्यपि अरियों अर्थात् शत्रुओं के लिए केसरी या सिंह के समान होता है, परन्तु यदि इसे अपने देश परिया (Aria) का सिंह कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा। उसका मूल नाम देवराज आगे के वाक्य में परिणत हुआ है अर्थात् 'अरिकेसर देवराज सिलार वंश का राजा तगर (Tagara) नगराधिपति समस्त कोंकण देश पर शासन करता है, जिसमें चौदह सौ ग्राम एवं नगरादि हैं' इत्यादि। इन्हीं में से एक मम्बई (बम्बई) से मिला हुआ तन्न (Tanna) [थाणा] भो था। एरिअन के पॅरिप्लस नामक ग्रन्थ में से उद्धरण देते हुए विल्फोर्ड ने लिखा है कि "तगर एक विशाल प्रान्त की राजधानी था, जो एरिपाक कहलाता था; इस प्रान्त में पोरङ्गाबाद और कोंकण आदि सूबे भी सम्मिलित थे।' (वास्तव में, (यहाँ) शिलालेख के शब्द ज्यों के त्यों दोहराए गए हैं), 'क्योंकि दमाऊ (दम्मन), कल्याण, सालसिट (Salsette) जिसम तन्न [थाणा] था और बम्बई आदि एरिअन और इब्न सईद के मतानुसार, लारिकेह (Larikeh) अथवा लार के राजा के अधिकार में थे।" यह वही निष्कर्ष है जिस पर मैं 'चरित्र' एवं अन्य स्थानीय प्रमाणों के आधार पर पहुंचा हूँ। विल्फोर्ड ने आगे भी एरिअन के उद्धरण दिए हैं । 'उसका (एरियन का) कहना है कि ग्रीक लोगों को कल्याण एवं अन्य बन्दरगाहों पर नहीं उतरने दिया जाता था।' ऐसा पहिले नहीं था, Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] पश्चिमी भारत की यात्रा क्योंकि वे स्वतन्त्रतापूर्वक दक्षिण में प्रवेश कर सकते थे और कल्याण तथा बम्बई से अपना अपना माल जहाजों में लाद सकते थे। आगे चल कर उसने लिखा है कि बरुगाजा (Barugaza)' ही एक ऐसा बन्दरगाह था जहाँ वे लारकेह अथवा लार के राजा सन्दनेश [स्यन्दनेश? ] (Sandanes) की आज्ञा से व्यापार करने के लिए रह सकते थे और उसकी आज्ञा का उल्लङ्घन करने वालों को पकड़ कर भडौंच भेज दिया जाता था । सम्भवतः यह स्थिति रूमी (Roman) दूतों के प्रबल प्रभाव से पैदा हुई थी जैसा कि विल्फोर्ड ने कहा है कि मिस्र-विजय करने के बाद उन्होंने भारतीय व्यापार (क्षेत्र) पर एकाधिपत्य जमा लिया था और अन्य देशीय व्यापारियों के लिए लाल-समुद्र (का मार्ग) बन्द कर दिया था। विल्फोर्ड का मानना है कि ग्रीक लोगों ने दक्षिण में अपनी विजय को सुगम बनाने के लिए सालसिट में जबरदस्ती एक बस्ती बसा लेने का प्रयत्न किया था जिसमें उनके बैक्ट्रिया (Bactria) वाले बन्धुओं का प्रभाव भी काम कर रहा था। जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि मेनान्दर (Menander) और प्रोपोलोडोटस (Appolodotus) सौरों के CUPOL राज्य में घुसते चले गए थे तो हमें विल्फोर्ड की कल्पना असङ्गत प्रतीत नहीं होती। उसने कल्याण से दक्षिण में बन्दरगाहों पर जहाजों की रोकथाम के विषय । में प्लिनी, एरिअन और टॉलॅमो के लेखों से प्रमाण उद्धृत किए हैं और यह बताया है कि ग्रीक लोगों के लिए वहाँ पर उतरना वजित था। अब, इन भिन्न-भिन्न प्रमाणों को जब हम एक करके देखते हैं तो बाद के जमाने में भी वही लोग हमारे सामने आते हैं और मुख्यतः स्थानीय जनश्रुतियां भी यही प्रमाणित करती हैं कि जहाजी विप्लवों के कारण ही देवबन्दर के सौर अथवा चावड़ा राजा को 'लारिक देश' से निकाला गया था। परन्तु, निकालने वाला कौन था ? मिस्री, ग्रीक और रोमन लोगों ने बारी-बारी से भारतीय व्यापार पर प्राधिपत्य जमा लिया था; परन्तु, इन सभी को नील (नदी) और लाल समुद्र से, जहाँ इस्लाम का विजय-ध्वज फहरा रहा था, सन् ७४६ ई० में वंशराज द्वारा अणहिलवाड़ा की पुनः स्थापना होने पर निकाल बाहर किया गया था। अतः यह दुर्घटना जल के अधिपति वरुण देवता द्वारा न होकर हारूँ के जहाजी बेड़े द्वारा हुई होगी। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि कुमारपाल बौद्ध धर्म का महान् रक्षक था। इसकी पुष्टि 'चरित्र' से भी होती है और अल , भडौंच। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण -83 अजयपाल [ २०१ इदरिसी में भी लिखा है कि जैन और बौद्ध मत प्रायः समान ही हैं; केवल एक को मान्यताओं का दूसरे में परिष्कार मात्र हुआ है । इस कथन पर सन्देह करने का कोई अवसर नहीं है। मैं अणहिलवाड़ा की इतिवृत्तीय रूपरेखा का वहाँ के धर्म, व्यापार एवं जहाजी-सम्बन्धों पर टिप्पणी करते हुए उपसंहार करना चाहता हूँ । अत: हम कुमारपाल सम्बन्धी वृत्तान्त को यही कह कर समाप्त कर देते हैं कि मुसलमान इतिहासकारों ने शाहबुद्दीन के विस्फोट के अतिरिक्त और किसी आक्रमण का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, जो कुमारपाल और उसके गुरु हेमाचार्य के स्वधर्मत्याग की घटना के बीस वर्ष बाद हया था और जिससे हिन्दू सत्ता पर पतन की छाप लग गई थी। मेरे गुरु भी उन्हीं सुप्रसिद्ध जनाचार्य की आध्यात्मिक शिष्य-परम्परा में हैं और मेरे अणहिलवाड़ा-सम्बन्धी अनुसंधानों में भी मुझे इनसे बहुत सहायता मिली है। इन्होंने भी जनश्रुति के तथ्य को स्वीकार किया है, परन्तु धर्म-परिवर्तन की बात को जादू के प्रभाव से उत्पन्न पागलपन बताकर लीपापोती कर दी है । इससे हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि इन दोनों का धर्म-परिवर्तन बलपूर्वक किया गया था। अतएव हम कुमारपाल-विषयक वृत्तान्त को यह कह कर समाप्त करते हैं कि वह अपने समय का सबसे बड़ा राजा था और साथ ही उस धर्म का, जिसको त्याग कर उसने इस्लाम ग्रहण किया था, क्रमशः सबसे बड़ा सबल पोषक और तदनन्तर घोर विरोधी भी था। अजयपाल संवत् १२२२ अर्थात् ११६६ ई० में गद्दी पर बैठा ।' जैसलमेर के इतिहास में उसका उल्लेख इस प्रकार हुआ है कि संवत् १२१५ में धार के राजा यशोवर्मन के पुत्र रणधवल की बहन से विवाह के सम्बन्ध में वह जैसलमेर के राजकुमार का प्रतिद्वन्द्वी था। राजा भोज के महत्त्वपूर्ण समय का निर्धारण करने वाले शिलालेख से सोलंकी और भाटी वंशों के इतिहास की समकालीनता तुरन्त ही प्रमाणित हो जाती है। यह किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता कि अजयपाल कुमारपाल का उत्तराधिकारी होने के १ प्रबन्ध चिन्तामणि के कर्ता प्राचार्य मेरुतुंग ने लिखा है कि अजयपाल संवत् १२३० वि० (११७४) ई० में गद्दी पर बैठा । २ उसी इतिहास में लिखा है कि परमार के तीन पुत्रियां थीं और पाटण के अजयपाल के अतिरिक्त चित्तौड़ का युवराज भी वहां पर प्रतिस्पर्धी के रूप में उपस्थित था। भाटी के प्रति पक्षपात रखते हुए भी एक उपाख्यान में मेवाड़ के युवराज की श्रेष्ठता स्पष्ट स्वीकार की गई है । इस उपाख्यान में दोनों के झगड़े का वर्णन है, जो इस बात को लेकर खड़ा हुआ था कि भाटी ने मेवाड़ के राजकुमार के प्याले से पानी पी लिया था। इस इतिहास में कमसे कम चार समकालीन राजवंशों का वर्णन पाया है। ३ देखिए 'टॉन्जंक्शन्स् प्रॉफ दो रायल एशियाटिक सोसाइटी, जि० १, पृ० २२६ । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा साथ-साथ उसका पुत्र भी था।' सोलंकियों के भाट की वंशावली में उसका नाम छोनीपाल लिखा है और समकालीन शिलालेखों में भी यही नाम मिलता है। उसी (जैसलमेर के) इतिहास में लिखा है कि "वह तीसरे राजवंश अर्थात बाघेलावंश का संस्थापक था।" यह भी लिखा है कि कुमारपाल को ज्योतिषियों ने पहले ही कह दिया था कि उसके मूलनक्षत्र में पुत्र उत्पन होगा, जो अपने पिता की मृत्यु का कारण होगा। इसीलिए उसको पैदा होते ही बाघेश्वरी माता के मन्दिर में चढ़ा दिया गया था। वहाँ पर माता ने सोलंकी बालक को नष्ट होने से बचाया ही नहीं वरन् बाघिनी के रूप में अपना स्तनपान भी कराया, जिससे उसके पुत्र का वंश देश में बाघेला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अपने पिता के समान वह भी इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गया था और उसके शासन में सबसे पहला कार्य यह हुआ कि उसने अपने राज्य के सब मन्दिरों को, वे आस्तिकों के हों अथवा नास्तिकों के, जैनों के हों अथवा ब्राह्मणों के, नष्ट करवा दिया । किसी प्रकार तारिंगी ( Taringi ) की पहाड़ी पर एक मन्दिर बच गया, जो कूगर (Kugar) की लकड़ी का बना हुआ बताया जाता है । कहते हैं कि यह लकड़ी आग नहीं पकड़तो। अजयपाल अपने उत्कर्ष और पितघात, स्वधर्मत्याग तथा देवस्थान-भंजन के कार्यों के पश्चात् अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा। क्रोधावेश में उसने हेमाचार्य के उत्तराधिकारी की आँखें निकलवा लीं और इसके बाद ही वह घोड़े पर से गिर पड़ा। वह पशु उसे मार्ग में घसीटता हुआ ले भागा और इसोसे उसकी मृत्यु हो गई । अबुलफज़ल ने लिखा है कि कुमारपाल ने तेवीस वर्ष राज्य किया और अजयपाल ने आठ वर्ष; परन्तु, 'चरित्र' में इन दोनों का राज्यकाल मिला कर तीस वर्ष लिखा है, जिसमें अजयपाल का समय दो वर्ष से भी कम बताया गया है। ' व्याश्रय के कर्ता का कहना है कि अजयपाल मृत राजा कुमारपाल के भाई महीपाल का पुत्र था। • बाघेलखण्ड (Baghelcund) के राजा इसी वंश के हैं। गुजरात में इस जाति के और __भी छोटे-छोटे राज्य है जैसे, लूणावाड़ा, माण्डवी, माहीड़ा, गोध्रा, उभोई प्रादि ।। ३ कहते हैं कि यह मन्दिर नौ मंजिला है और अब तक विद्यमान है। ४ 'प्रबन्धचिन्तामणि' में लिखा है कि उसने सो प्रबन्धों के रचयिता रामचन्द्र नामक जैन विद्वान् को तप्त ताम्रपट्ट पर बिठा कर मारा था। ५ एक दिन वयजल देव नाम के प्रतिहार ने उसके कलेजे में छुरी भोंक दी। प्र. चि. ४, पृ. १५६ । 'चरित्र' में लिखा है, अकेले कुमारपाल ने तीस वर्ष राज्य किया । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण- अजयपाल . [२०३ . इस इतिवृत्त को पुष्पिका इस प्रकार है, 'इस प्रकार 'चरित्र' का गुजराती भाषान्तर, जो संवत् १४६२ (१४३६ ई०) में किया गया है, समाप्त. हुआ और उसकी यह प्रति अकबर के राज्य में लिखी गई । सालिग सूरि प्राचार्यकृत मूल इतिहास संस्कृत में अड़तीस हजार श्लोकों में है और यह गुजराती भाषान्तर तेरह हजार श्लोकात्मक है।'' ' संवत् १४९२ में हुए तेरह हजार श्लोकात्मक किसी गुजराती भाषान्तर का पता नहीं चलता है। वस्तुतः उपाध्याय जिन मण्डन गरिण ने कुमारपालप्रबन्ध की रचना १४६२ संवत् में की है, जिसकी पुष्पिका इस प्रकार है प्रबन्धो योजितः श्रीमत्कुमारनृपतेरयम् । गद्यपद्यनवः कश्चित्, कश्चित् प्राक्तननिर्मितः ॥ श्रीसोमसुन्दरगुरोः शिष्येण या श्रुतानुसारेण । श्रीजिनमण्डनगणिना, घ्यङ्कमनु (१४६२) प्रमितवत्सरे रुचिरः। इसी का अनुवाद विजयसेनसूरि के भक्त श्रावक ऋषभदास ने संवत् १.६७० (१६१३ ई०) में किया था, जो बादशाह अकबर से तुरन्त बाद का समय है। प्रशस्ति से पूर्व ग्रन्थकर्ता ने अपनी गुरु-परम्परा में हीरादजयसूरि का गुणगान किया है, जिसमें 'साहि अकबर' का नाम बार-बार पाया है। अकबर ने हीरविजय को प्रामन्त्रित करके एक विशाल ग्रन्थ-संग्रह भेंट किया था। सम्भवतः इसी कारण टॉड साहब को ऐसी भ्रान्ति हुई है ! संस्कृत में कुमारपाल सम्बन्धी अड़तीस हजार श्लोकों वाला कोई प्रबन्ध नहीं मिलता, न तेरह हज़ार श्लोक परिमाण का गुजराती अनुवाद ही उपलब्ध है। विशेष टिप्पणी-इस प्रकरण में कुछ नाम ऐसे पाए हैं जो तुरन्त ही स्पष्ट नहीं होते । इनके विषय में कुछ सूचनाएं बाद में मिली जो यहाँ दी जा रही हैं । इनसे इनको समझने में सुविधा रहेगी। Areake (एरियाके अथवा एरियाक)-यह महाराष्ट्र प्रदेश हो सकता है । यहाँ के निवासी मराठा या महाराष्ट्रों ने इसका यह नाम इसलिए रखा होगा कि वे मुख्यतः प्रार्य थे और उनके राजा भी भारतीय थे ! वे इस नाम 'मार्यक अथवा एरिमाके' के Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा [पृष्ठ २०३ का शेष ] द्वारा पड़ोसियों अथवा प्राधीनता में आई हुई जातियों से अपनी वरिष्ठता बताना चाहते थे । टॉलमी के समय में यह प्रदेश तीन मुख्य भागों में बँटा हा था, जिनमें से एक Sadinics (सादिनी) वंश के अधीन था । इनकी प्रजा में बहुत करके दे उन्नतिशील व्यापारिक जातियाँ थीं जो, समुद्र-तट पर बसी हुई थीं। ___इस वंश का वर्णन पॅरिप्लुस (शीर्षक ५२) में प्राया है, उससे जात होता है कि Sandanes (सन्दनेस या स्यन्दनेश) ने कल्याण पर अधिकार कर लिया, जो पहले सॅरेंगनीस (Saragnes) के अधीन था। इसके बाद उसने व्यापार पर कड़े प्रतिबन्ध लगा दिए जिसके अनुसार यदि कोई ग्रीक जहाज भूल से भी उसके राज्य के बन्दरगाह पर पा जाता था तो उसे गिरफ्तार करके 'बरुगाजा' राजधानी में पहुंचा दिया जाता था। लासॅन (Lassen) के अनुसार Sandanes का आधार संस्कृत 'साधन' (Sadhana) शब्द है जिसका अर्थ पूर्ण, पूरक अथवा प्रतिनिधि होता है। Saraganes सम्भवतः महान् शातकर्णी अथवा प्रान्ध्र वंश में से कोई है । 'परिप्लुस' के अनुसार 'एरिमाके' से मलाबार अथवा सम्पूर्ण भारत के राज्य का प्रारम्भ होता है । (पृ. ३८-४०) ___Barygaza (बॅरिगाजा) का प्राधुनिक नाम भडौंच है, जो समुद्र से ३० मील दूर नर्मदा के उत्तर में स्थित है । पॅरिप्लुस में इसका बार-बार उल्लेख हुआ है। उस समय यह पश्चिमी भारत का सबसे बड़ा नगर और शक्तिशाली राज्य की राजधानी था। डॉ. जॉन विलसन ने (Indian castes, Vol. II, P. 11 3 में) इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार ____ भार्गव शब्द भगु से बना है । भृगु ऋषि थे। भडौच के निवासी अवश्य ही पूर्व में भृगु के अनुयायी होकर यहां पाए होंगे। यह क्षेत्र उनको किसी विजेता ने प्रदान किया होगा।' टॉलेमी का 'बॅरिगाजा' भुगुक्षेत्र अथवा भृगुकच्छ का ही अपभ्रंश है। अब तक भी अपढ़ गुजराती इसको 'बरगछ' कहते हैं । (पृ. १५३) ___Larike--लार देश गुजरात और कोंकण के उत्तरी क्षेत्र का प्राचीन नाम है। यह नाम बहुत दिनों तक चलता रहा क्योंकि प्रारम्भिक मुसलमानी समय तक पश्चिमी तट के पश्चिम में पाया हुआ समुद्र, लार समुद्र कहलाता था और यहाँ की भाषा 'मसऊदी या लारी कहलाती थी।'-Yule's Morcopolo, Vol, II. p. 535 टॉलेमी का दिया हुआ 'लारिके' (Larike) नाम का प्राधार भौगोलिक होने की अपेक्षा राजनीतिक अधिक है । यह भाग समुद्र के समीप होने के बजाय अन्तरंग की ओर है, जहाँ खूब खेतीबाड़ी और व्यापार होता था। (पृ. १५३) -Mc Crindle's Ancient India as described by Ptolemy. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १० अहिलवाड़ा का इतिहास (चालू); भीमदेव; उसका चरित्र; अपहिलवाड़ा और अजमेर में युद्ध का कारण; भीम और दिल्लीपति पृथ्वीराज का युद्ध; भीमदेव का धष पृथ्वीराज द्वारा गुजरात-विजय ; शिलालेख; मूलदेव ; वीसलदेव; भीमदेव ; अणहिलवाड़ा का वैभव, अर्जुनदेव ; सारङ्गदेव; कर्णदेव गला (विक्षिप्त); मुसलमानों का आक्रमण; बल्हरा सत्ता का प्रस्त; टाक जाति द्वारा गुजरात-प्राप्ति और राजधानी का परिवर्तन, अपहिलधाड़ा के नाम का पाटण में पर्यवसान; इन ऐतिहासिक अभिलेखों का मूल्य ; परिणामों का सिंहावलोकन। भीमदेव संवत् ११६६ ई.' में गद्दी पर बैठा । समसामयिक इतिवृत्तों में उसके नाम से पूर्व 'भोला' पद का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ सीधा, मूर्ख या पागल होता है । राजपूत इतिहासकार एक ही नाम वाले राजामों में भेद बताने के लिए गणनात्मक अंकों का प्रयोग न करके किसी विशिष्ट पद अथवा उपसर्ग का ही सहारा लिया करते हैं । भीमदेव के विषय में जो कुछ वृत्तान्त ज्ञात है वह हमें चौहानों के इतिहास से ही प्राप्त हुआ है। यदि वह 'भोला' था तो बल्हरा वंश की राजगद्दी पर बैठने वाले राजामों में क्रमेण वह तीसरा पागल राजा था। यह एक ऐसी बात थी, जो इस शक्तिशाली साम्राज्य को पंदे विठा देने के लिए मुख्य और पर्याप्त कारण थी; फिर, भले ही इन राजाओं के सभी पूर्वज सुलेमान के समान ही बुद्धिमान क्यों न हुए हों। ऐसा भी हो सकता है कि लिपिकार ने 'बल' या 'बाल' का ही 'भोला' लिख दिया हो क्योंकि चन्द [बरदाई) ने उसे 'बाल का राय, चालुक्य वोर' लिखा है; कवि ने यदि वास्तव में उसका ऐसा चित्रण किया है तो यह विशेषण एक स्वाभिमानी और उद्धत राजपूत के लिए सर्वथा उपयुक्त है। ऐसा प्रतीत होता है कि भीम ने अपने पूर्ववर्ती राजाओं के दोषों को जल्दी ही भुला दिया और एक वीर योद्धा के रूप में अपने आपको सिद्धराज का राजदण्ड ग्रहण करने के लिए सब प्रकार से योग्य प्रमाणित किया। शाकम्भरी के चौहान राजा सोमेश्वर से युद्ध करके उसका वध करने और अन्त में उसके पुत्र १ ११७६ ई०-रासमाला, भाग १, रालिन्सन, १९२०; पृ. २०० । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा राजपूत रोलॅण्डो' पृथ्वीराज से लोहा लेने की कथाएँ चन्द कवि के महाकाव्य में अत्यन्त रोचक उपाख्यानों के रूप में वर्णित हैं। यदि इसी को पागलपन या भोलापन कहा जाय तो यह बहुत ऊँचे दर्जे का पागलपन था। कवि चन्द के काव्य में से प्रभूत मात्रा में उद्धरण देना यहां आवश्यक नहीं है, विशेषतः इसलिए भी कि किसी दिन इस काव्य का बहुत कुछ भाग जनता के सामने प्रस्तुत करने का मेरा विचार है; परन्तु, फिर भी यहाँ इतनी मात्रा में तो इसके अंश उद्धृत कर ही रहा हूँ कि जिससे इसका मूल्यांकन हो सके । यह सब इसलिए नहीं कि प्राचीन राजपूतों के रहन-सहन व रीति-रिवाजों पर प्रकाश डालना अभीष्ट है वरन् इससे उस समय के इतिहास और विशेषतः प्रस्तुत विषय का भी बहुत कुछ स्पष्टीकरण हो जाता है । इस युद्ध के वर्णन से 'चौहान के शत्रु' के व्यक्तिगत गुणों का बखान करने का ही अवसर प्राप्त नहीं होता प्रत्युत उसके राज्य के विभिन्न अंगों, साधनों एवं बल्हरा के झण्डे के नीचे एकत्रित होने वाली विविध खाँपों और उनके मुखियाओं का भी परिचय प्राप्त हो जाता है। 'गुर्जर धरा में भोला भीम भुग्रंगर राज्य करता था जिसके पास असंख्य घोड़ों, हाथियों और रथों से युक्त सेना थी। उसको कृपाण का पानी समुद्र के जल के समान चमकदार और गहरा था। उसके काका सारंगदेव की बराबरी कौन कर सकता था ? वह आकृति में देवता के समान था और उसके पुत्र ' रोलॅण्डो पाठवीं शताब्दी में फ्रांस के प्रख्यात राजा शार्लमॅन का सामन्त एवं भतीजा था । वह बहुत नेक, वीर एवं स्वामिभक्त था। उसके पराक्रमपूर्ण कार्यों का वर्णन योरप की सुप्रसिद्ध पुस्तक 'सांग ऑफ रोलॅण्डो (Song,of Ronald) में हुआ है। स्पेन-विजय के लिए जब शालमॅन ने चढ़ाई की तब रोलॅण्डो उसके साथ था । वापस लौटते समय उन लोगों पर सरसनों ने अचानक आक्रमण कर दिया। इसी हमले में रोलॅण्डो को मृत्यु हुई (सन् ७०८ ई.) -N. S. E.; p. 1066 २ भुनंग, भुजङ्ग का अपभ्रंश-सर्प की उपमा। भोरा भीम भुअंग तपै गुज्जरधर आगर । है गै दल पायक्क बल तेजह सागर ।। काका सारंगदेव, देव जिम तास बडाइय । . तासु पुत्र परताप सिंध सम सत्त सु भाइय ।। परतापसिंघ अरसी प्रवर, गोकुलदास गोविन्द रज, हरसिंघ स्याम भगवान भर, कुलभ रेह मुख नीर सज ॥२ (राजस्थान विश्व विद्यापीठ संस्करण, (सं० २०११; समय १६; कन्ह पट्टी) ३ यहाँ 'पानी' शब्द उस अर्थ में प्रयुक्त हुअा है, जैसे हीरे का पानी (प्राब); इसी प्रकार यह लोहे के पानी के अर्थ में भी प्राता है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; अपहिलवाड़ा अजमेर युद्ध [ २०७० प्रताप आदि सातों भाई, सिंह के समान थे। उनके चेहरों पर राजपूती तेज विराजमान था। वे जैसे शक्तिशाली थे वैसे ही बुद्धिमान भी थे; अपनी शक्ति पर उन्हें गर्व था और उसी के बल पर वे गरजते हुए तूफानों से भी टक्कर लेते थे। जब उनका स्वामी शत्रु से मुठभेड़ करने की आज्ञा देता था तो वे उस पर इस प्रकार टूट पड़ते थे जैसे बिजली पृथ्वी को झुलसा देती है।' अग्नि के समान प्रचण्ड, राणाओं के स्वामी शक्तिशाली झाला राणा का वध करने वाले वही थे। सारङ्गदेव वीरों के लोक (सुरलोक) को चला गया और प्रताप उसका उत्तराधिकारी हुआ । उसके साथ में पाँच सौ योद्धा थे, जिनमें से प्रत्येक अपने आपको वीरानगो समझता था। उन्हों वीरों के साथ वे सब भाई अपने राजा की सेवा में सदा तत्पर रहते थे और गुर्जर धरा के सत्रह हजार ग्रामों के लिए कल्पवृक्ष के समान थे, वे परम स्वामिभक्त थे और अपने स्वामी के निमित्त पर्वतों के भी सिर झुकवा देते थे। आगे चल कर इस कथा में पहाड़ी और जंगली जातियों द्वारा गुजरात के मैदान पर हुए एक ऐसे भयानक अाक्रमण का वर्णन आता है कि उनसे युद्ध करने के लिए स्वयं बल्हरा को [सेना का नेतृत्व करना पड़ा। लुटेरों को तुरंत ही खदेड़ कर भगा दिया गया और वे अपने जंगली घरों में चले गए। राजा और अन्य सामन्त जंगल में शिकार खेल कर मन बहलाने लगे। परन्तु, उसी समय एक ऐसी दुर्घटना हो गई जिसका प्रांशिक रूप से ही वर्णन करके हम कथा का रस बिगाड़ना नहीं चाहते । यह घटना आत्मरक्षा के लिए राजा के प्रिय हाथी को मार देने के कारण हुई, जिससे रुष्ट हो कर राजा ने उनको [प्रताप आदि को] 'देशवाटी' अर्थात् देश छोड़ कर बाहर चले जाने का आदेश दिया। वे अजमेर चले गए और चौहान राजा ने अन्तर्जातीय सौहार्द प्रदर्शित करते हुए उनका स्वागत किया। ' उसने उनके हाथ में एक पट्टा सौंप दिया ' रासो में पाठ यों है-"हुकुम स्वामि छुट्टत सु इम, मनु तित्तर पर बाज ।" . झाला शाखा के मुखिया की परवी राण (1) है । इस जाति के नाम 'ज्वाला' का अर्थ है, __ 'पग्नि को लपट' । चन्द ने बार बार इस शब्द का प्रयोग किया है। 3 इन्द्र को स्वर्गपुरी का काल्पनिक वृक्ष जिसके स्वर्णफल लगते हैं। "अर्द्ध सहस दल बल अनेत, बहु ग्रब्ब वर अप्प ।। सतरि सहस धर गुज्जरनि, मधि प्रोपत जिमि कप्प ।" (समय १६, पद्य ७) यहां 'मोपत जिमि कप्प' का अर्थ 'हनुमान के समान शोभायमान थे, ऐसा किया गया है (रा. वि. विद्यापीठ सं.२०११); परन्तु, कल्पवृक्ष वाला अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा और प्रत्येक को एक-एक पोशाक एवं एक-एक सौ घोड़े प्रदान किए।"' चौहान के बड़े सामन्तों में उनकी गिनती हुई और उत्कर्ष उनके भाग में आया; तब ही एफ दिन दुर्भाग्यवश "सुमेरु के समान [विशाल] सोमेश का पुत्र अपने सामन्तों के बीच में बैठा हुआ प्राचीन काल का इतिहास सुन रहा था तब प्रताप की आत्मा जाग उठो और कथा सुनते सुनते ज्यों ही उसका उत्साह बढ़ा तो उसका हाथ अपने आप मूंछों पर ताव देने लगा।" । .....अपने से बड़ों के सामने मूंछों पर ताव देना (जो अवज्ञासूचक कार्य समझा जाता है) राजपूतों में एक विशेष प्रक्षम्य अपराध माना जाता है। चौहान राजा के भाई और पृथ्वीराज के काका कन्हराय ने प्रताप की इस चेष्टा को देख लिया । पृथ्वीराज के बाल्यकाल में कन्हराय हो राज्य का सैन्य-संचालन करता था; फरिश्ता ने भी 'खाण्डेराय' के नाम से गजनी के सुल्तान के साथ उसके द्वन्द्व-युद्ध और विजय का वर्णन करके उसको अमर कर दिया है। प्रस्तु, भयानक कन्ह काका ने उसकी इस चेष्टा का विपरीत अर्थ लगा कर उसे जमीन पर गिरा दिया। प्रताप के भाइयों ने भी उसकी रक्षा करने व बदला लेने के लिए तलवारें निकाल लीं। बड़ो गड़-बड़ी हुई; युवक राजा तो किसी तरह बच गया परन्तु, सभामण्डप में मृत्यु और रक्तपात का हश्य उपस्थित हो गया। वे सभी भाई वीरगति को प्राप्त हुए और भाट की प्रशंसा के पात्र बन गए। हो सकता है, अपने मन की करने के निमित्त उसी [भाट] ने इस कुकृत्य के लिए उनको प्रोत्साहित किया हो। "चालुक्य धन्य हैं, जिन्होंने परदेश में भी स्वाभिमान की रक्षा की । संध्या समय महादेव' ने अपनी मुण्डमाला की पूर्ति की। योगिनियों ने अपने खप्पर अच्छी तरह भर लिए । चौहान वीर खन में लथपथ पड़े थे; यमराज के समान कन्ह उनके बीच में स्थाणु के सदृश खड़ा था क्योंकि उसी सुमेरु के भाई ने सभाभवन के क्षेत्र को रक्त से प्राप्लावित किया था। ' रासो में सात वीरों को सात घोड़े देना लिखा है-- "बाजि सपत दीने बगसि, संबोधे सत भ्रात । एक एक सिरपाव दिय, बहु प्रादर किय बात ॥" १२ २. प्रसिद्ध मुसलिम इतिहासकार । ३ युद्ध के देवता की माला नरमुण्डों की होती है। ४ एक प्रकार की राक्षसी, जो युद्ध क्षेत्र में चक्कर लगाया करती है। "पात्र भरें जुग्गिनि रुहिर, ग्रिध्धिय मंस डकारि ।। नच्यौ ईस उमया सहित, रुण्डमाल गल धारि ॥"३३ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०६ ऐसे थे राजपूत, और ऐसे ही हैं भी, जो एक तिनके के लिए ही लड़ मरें । इसी कारण 'भेंडा' ( Bhenda ) अथवा भोला पद उनके लिए सर्वथा उपयुक्त सिद्ध होता है तथापि चन्द ने ऐसी ही बातों के लिए उनकी प्रशंसा की है । " कन्ह भारत में भीम के समान है । वह रावण के समान है । कन्ह ने ( बड़ेबड़े) बलशालियों के नथनों में नाथ डाल दी ।" " प्रकरण १०: अणहिलवाड़ा और अजमेर का युद्ध -- यही वह नासमझी का कार्य था जिससे अणहिलवाड़ा और अजमेर के पुराने प्रतिद्वद्वियों में युद्ध छिड़ गया; दोनों के प्राण गए और मुसलमानों की अन्तिम विजय के लिए मार्ग निष्कण्टक हो गया । 'देशवाटी' का दण्ड भुला दिया और जिस कारण यह दण्ड दिया गया था वह अपराध भी क्षमा कर दिया गया, "चालुक्य वंश के सम्मान पर आँच श्रा गई थी ।" प्रताप और उसके 'रासो' में लिखा है कि झगड़ा समाप्त होने पर सामंतगण कन्ह को समझा-बुझा कर किसी तरह घर ले गए । पृथ्वीराज को इस दुर्घटना से बहुत दुःख हुआ । कन्ह को जब मालूम हुआ कि पृथ्वीराज नाराज हो गया है तो वह दरबार में नहीं गया और अपने घर बैठा रहा । तीन दिन तक अजमेर में हड़ताल रही 'तीन दिवस अजमेर में, परी हट्ट इटनार" । सात दिन हो जाने पर भी जब कन्ह दरबार में नहीं आया तो कुअर पृथ्वीराज स्वयं उसके घर पर मनाने गया और कहा कि "प्राकृत के मारे घर आए चालुक्यों को अकारण मारने से आपके शिर पर कलंक का टीका लग गया है।" कन्ह ने कहा "मेरे रहते दरबार में कोई मूंछ पर हाथ रखे, यह में सहन नहीं कर सकता ।" तब पृथ्वीराज ने कहा 'हे कन्ह, आप एक बात मान लें तो सभा में ऐसो घटना भविष्य में न हो सकेगी, वह यह कि आपकी आँखों पर रत्नजटित पट्टी बाँध दी जाय।" कन्ह ने मान लिया, तब से उसकी आँखों पर पट्टी रहने लगी 'सो पट्टी निसदिन रहै, छोरि देइ द्वं ठाम । के सिज्या वामा रमत के छुट्टत संग्राम ॥४७ इसो कन्ह चहुप्रान, जिसो भारथ्थ भीम वर । इसो कन्ह चहुमान, जिसो द्रोनाचारज वर | इसो कन्ह चहुम्रान, जिसो दससीस बीस-भुज । इस कन्इ चंहुचान, जिसो अवतार बारिसुज || जुध वैर इम्म तुट्टै जुरिन, सिंघ तुट्टि लखि सिंघनिय । प्रथिराज कुँवर साहाय कज, दुरजोधन श्रवतार लिय ।।५१ जहाँ जहाँ राजन काज हुत्र, तहँ तहँ होइ समथ्य । मेर हथ्थ बह भरे, नरनाहीं नर नथ्थ ॥५२ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] पश्चिमी भारत की यात्रा भाइयों की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु-कथा सुनने के बाद प्रणहिलवाड़ा के प्रत्येक श्वास में प्रतिहिंसा जाग उठी थी। "जब चालुक्य भीम और उसके योद्धाओं ने सारंगदेव के पुत्रों के दुर्भाग्य का हाल सुना तो उनकी क्रोधाग्नि भड़क उठी।" चालुक्य के आत्मीय जनों की हत्या को कारण मानते हुए चौहान के पास पत्र द्वारा युद्ध का सन्देश भेजा गया जिसका संक्षेप में यही उत्तर प्राप्त हुआ कि "सोमेश तुमसे युद्ध में भेंट करेगा।" युद्ध के कारणों की साधारण रूपरेखा ऊपर दी गई है। अगले 'समय' अर्थात उनहत्तर पोथियों के ग्रन्थ के अगले भाग में दोनों ओर से युद्ध की तैयारियों का विस्तृत वर्णन किया गया है । इसी में हमें उन वंशों और जातियों के नाम तथा उनके मुखियाओं का परिचय प्राप्त होता है, जो उन दोनों प्रतिस्पद्धियों के झण्डों के नीचे एकत्रित हुए थे। ___"गुर्जर देश में चालुक्य भोम राज्य करता है, जो पाण्डव भीम के समान है। उसकी कीर्ति और राजनीति का बखान शब्दों में नहीं हो सकता । परन्तु, सांभर का सोमेश उसके हृदय में काँटे की तरह चुभता रहता था; उसे न दिन में चैन था न रात में।" इसके पश्चात् उसके सामन्तों के नाम एकत्रित होने की घोषणा जारी होती है। प्रागमन के अनन्तर उनमें से कितनों ही ने दरबार में उपस्थित होकर भाषण भी दिए। ___ झालापति राणिङ्गदेव ने चालुक्यों के इन्द' से इस प्रकार कहा 'यदि आप इस क्रोधाग्नि से ही सन्तप्त हैं तो देश की सेना एकत्रित कीजिए जिससे हम पवन के वेग से शत्रु पर टूट पड़ें; जैसे भील मधु के छत्ते को तोड़ लेता है उसी प्रकार हम संभरी' को लूट लेंगे।" फिर, कन्ह, काठी नरिंद महाबली राणिंग राजभान, देवपति योद्धा धवलाङ्ग, धवलरा (Dholara), सुरतान और जिसके शरीर पर असंख्य घाव थे उस जूनागढ तातार के साथ मकवाणा सरदार सारंग भी बोले। तदनन्तर अपने परामर्शदाता मुख्य सामन्तों के बीच में चालुक्यराज ने "जब तुम मांगो वर वर, तब हम बेर सु देह" ।।५६।। २ 'इन्द्र' का संक्षिप्त रूप जिसका अर्थ राजा या स्वामी होता है। 3 'सांभर' को बिगाड़ कर 'संभरी' कहा गया है-शायद अपमान करने के लिए। इस उपाधि से प्राचीन देव और सोमनाथ के राजाओं की पहचान होती है, जो अब प्रण__हिलवाड़ा के करद सामन्त थे। ५ इससे इस राज्य में मुसलिम प्रभाव का सूचन होता है कि प्रायद्वीप के बीचों-बीच महत्वपूर्ण गढ़ उनके अधिकार में था। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; अपहिलपाड़ा और अजमेर का युद्ध [ २११ इस प्रकार भाषण किया, "पुराना वैर मेरे हृदय में सुई की तरह चुभ रहा है। फिर भी, साँभर मेरे सामने क्या है ? परन्तु, जब तक में उसके स्वामी का शिर रंग न दूंगा तब तक मुझे चैन नहीं है। क्या सोजत का युद्ध जीत लेने से ही उसे युद्ध का खिलाड़ी मान लिया गया है ? जब तक उससे युद्ध न करूँगा वह मेरे शरीर में काँटे की तरह कसकता रहेगा ।" फिर राणिङ्गराव, चूड़ासमा भान, श्याम (Sham) नरेश' शम्भु (Shamoh) और काठी योद्धा थानुंग (Thanung), ने जिसकी बुद्धि गहरी और शरीर सुन्दर था तथा जो युद्ध में अपने राजा की सहायता करने में सक्षम था, बारी-बारी से उत्तर दिए। क्रोध ६ से उबलता हा वीरसिंह चौहान भी, जो अपने क्रोध से ज्वालामुखी को भी समुद्र में डुबो सकता था, वहीं उपस्थित था। सबने शपथ ली कि वे ऐसा युद्ध करेंगे कि समस्त संसार उसको सुनेगा।" फिर सैन्य-प्रस्थान का वर्णन है । "सेना ज्यों ज्यों आगे बढ़ती है त्यों त्यों उत्तर दिशा से उमड़ कर पाते हुए पर्वताकार बादलों के समान बड़ी होती जाती है । बली और उत्साही योद्धा कदम बढ़ाते हैं और कहते हैं "हमसे बराबरी करने वाले कहाँ हैं ?" जिस प्रकार राम के वीरों ने लङ्का पर चढ़ाई की थी उसी प्रकार चालुक्य को सेना चौहान पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ रही थी। उनकी गिनती करने में आँखें चकरा जाती थीं। अमरसिंह' सेवड़ा के क्या कहने ? उसके मुख पर राजभक्ति स्पष्ट झलक रही थी; उत्साहवर्द्धक छन्दों के खजाने, भैरूं बारठ के विषय में भी क्या कहें ? वेदों में पारंगत लीलाघर ब्राह्मण अद्वितीय था और सुन्दर मुखवाला दण्डरूप चारण भी बेजोड़ था । ये चारों मन्त्री भीम के साथ थे।" १ क्या हम अनुमान करें कि उसकी सेना में सीरिया के सैनिक थे? श्याम ही सीरिया है। यह क्रूसंड्स का समय था और शाहबुद्दीन ने फ्रेंकों [फिरंगियों को अपनी सेना में स्थान दिया था। २ यह काठियों के शारीरिक सौन्दर्य का बहुत अच्छा उदाहरण हैं । ये लोग अलक्षेन्द्र (सिकन्दर) के पुराने शत्रु थे, जो पास पास की जातियों की अपेक्षा अधिक गोरे ही नहीं होते प्रत्युत नीली प्रांखों के कारण इनका उद्गम भी उत्तरवेशीय ही प्रतीत होता है। ३ सेवड़ा जैन-पुरोहित होते हैं। परन्तु, हमें यहां प्रसिद्ध कोशकार अमरसिंह का भ्रम नहीं होना चाहिए क्योंकि संयोगवश वह भी कितने ही बल्हरा राजानों के दरबार में रहा था। ये लोग तांत्रिक और ऐन्द्रजालिक होते थे। जहाँगीर ने एक बार नाराज हो कर इनको निकाल दिया था।-तुजके जहाँगीरी (प्र. अनु. रॉजर्स,बैवरिज भा. १, पृ.४३ ) ४ प्रणाहिलवाड़ा के राजा की सभा में ब्राह्मण मन्त्री था इसी से यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिए कि वह शंय था। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा चौहान वीर के विषय में यहाँ अधिक न कह कर हम युद्ध के परिणाम पर आते है, जो सोमेश्वर के लिए घातक सिद्ध हुआ। इस परिणाम के विषय में अपने वर्णनीय युवक वीर के प्रति पक्षपात वर्तते हुए चन्द ने कहा है कि पृथ्वीराज उस समय उत्तर में नहीं था और उसकी अनुपस्थिति के कारण ही ऐसा हुमा । "जयसिंह का पुत्र' उत्तरीय नक्षत्र के समान है। फिर भी, यदि पृथ्वीराज वहाँ होता तो वह हमारी भूमि पर पर नहीं रख सकता था।" सच्चे राजपूत की भाँति उसने अपने शत्रु की भी प्रशंसा की है । "जब चालुक्य ने प्रस्थान किया तो दिल्ली के निवासी अपने-अपने घरों में काँप उठे। वसन्त-कालोन बहुरंगे पुष्प-समूह के समान प्रतीत होने वाला साँभर का ध्वज आगे बढ़ा। रक्त-रंजित रणक्षेत्र में सोमेश योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ था । युद्ध छः घड़ी तक चलता रहा और तब "पचास बलवान सामन्तों के साथ सोमेश ने युद्ध की लहरी का पान किया, अमरत्व प्राप्त किया। सोमेश ने सोमेश को उठा लिया। सांभरपति रणक्षेत्र में धराशायी हुआ और चालुक्य को पालकी में ले जाया गया। यदि चालुक्य और चौहान फिर कभी मिलेंगे तो दूसरे ही सामन्तों के साथ मिलेंगे क्योंकि इस युद्ध में आए हुए वीरों में से कोई भी नहीं बचा था। योगी लोग जीवन में लम्बे समय तक तपस्या करने के पश्चात् जिस गति को प्राप्त करते हैं वह सोमेश्वर ने एक ही क्षण में प्राप्त करली। संसार ने “धन्य, धन्य" उच्चारण किया और देवताओं ने कहा "शोक, शोक ।"3 इस युद्ध से अणहिलवाड़ा के राजा को शक्ति में कोई कमी नहीं आई; वह गुजरात के सत्रह हजार ग्रामों और प्रायद्वीप का स्वामी था, जिसके सीमान्त पर झालावाड़, काठियावाड़, देव और अन्य प्रान्तों का बार-बार उल्लेख हुआ है। चालुक्य को यह विजय ही अन्त में उसके सर्वनाश का कारण हुई । पृथ्वीराज, जिसके भाग्य में दिल्ली का प्रथम प्रौर अन्तिम सम्राट् होना लिखा था, अपने पिता का बदला लेने के लिए कृत-संकल्प हुआ। [रासो का] एकतालीसवाँ समय इस प्रकार प्रारम्भ होता है "नरेश के हृदय में भीम एक हरे घाव के समान अथवा काँटे के समान कसकता रहता है । उसे वह अग्नि खाए जा रही है, जिसे शत्रु के रक्त से हो बुझाई जा सकती है।" वह अपने दुःख को इस प्रकार प्रकट करता है-"मेरे पिता का झगड़ा [वर] अभी मेरे सिर पर है; जब मैं पानो ' अर्थात् अन्तिम राजा अजयसिंह का पुत्र । 'जय' का अर्थ है जीत, 'अजय' अर्थात् दुर्जय । २ यहाँ एक 'सोमेश' का अर्थ 'शिव' है, जो सोम अर्थात् चन्द्रमा को धारण करते हैं। 3 क्योंकि उन्हें भय हुआ कि वह स्वर्ग में प्राकर उनकी स्वतन्त्रता का अपहरण कर लेगा। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; अपहिलवाड़ा और अजमेर का युद्ध [२१३ पीता हूँ तो मुझे उसमें अपने हो रक्त का स्वाद प्राता है; मेरा शत्रु बलवान् है।" अन्यत्र वह कहता है "फिर भी, किसी दिन मैं अपने पिता को इस भीम की प्रांतों में से निकाल लूंगा।" इसके आगे चोहान की चौसठ हजार सेना और उसके मुखियाओं का वर्णन बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से किया गया है। यह समाचार चालुक्य के पास भी पहुँचा; परन्तु, वह अनुत्साहित नहीं हुआ और उसने युद्ध के लिए कमर कस ली। सेना में एकत्रित होनेवाले सामन्तों की नामावली के निमित्त हम इस प्रसंग को संक्षेप में यहाँ उद्धत करेंगे और प्रतिपक्षी वरदाई को, अपने शत्रु के विषय में ऐसा वर्णन करने के लिए, एक बार फिर भी प्रशंसा करेंगे। ___ "जयसिंह का पुत्र कुपित हुआ। आवेश के कारण उसके अंग-प्रत्यंग फड़क उठे; उसकी आँखों में अग्नि प्रज्वलित हो गई और युद्ध के लिए सज्जित होने को उसने अपने वीरों का आह्वान किया। उसने देश भर में आमन्त्रण भेजा। नरेशों ने उसकी आज्ञा का पालन किया। खोत बाणों' (Khotbans) से लैस हो कर दो हजार खान पाए। तीन हजार घुड़सवारों के साथ तोशकदार कवच पहने हुए कच्छ का बल्ल पाया । एक हजार योद्धाओं के साथ सोरठ' का स्वामी और भयानक मुखाकृति वाला असाधारण धनुर्धारी ककराइच काले (Kakraicha kale) भी पाया, जिसको अपने तूणीर से एक लक्ष्य के लिए दूसरा बाण नहीं निकालना पड़ता था। फिर, झालावाड़ का झाला नरेन्द्र पाया, जिसके प्रस्थान करते ही सूर्य को किरणें भी धुंधली पड़ जाती थीं । काबा' सरदार मकरावण उपस्थित हुआ जिसके चलते ही देश के देश खाली हो जाते थे। फिर काठी की अर्गला-समान (काठी) नरेन्द्र पाए, जिनके शत्रुनों को कहीं भी शरण नहीं मिलती थी। इनके अतिरिक्त और भी बहुत से छोटे-मोटे सामन्त एकत्रित हुए जिनकी गिनतो में (चन्द) कहाँ तक करूँ? ऐसी चालुक्य की सेना थी, जो उसके देश गुर्जर-खण्ड से एकत्रित हुई थी और जिसे दिल्ली के गुप्तचरों ने एकत्रित होते देख कर अपने स्वामी को विवरण प्रस्तुत किया था। उन्होंने ' एक नली में से चलने वाले तीर [नावक ?] २ प्राधुनिक सूरत अथवा सौराष्ट्र का एक उपप्रान्त । 3 गुजरात में रहने वाली एक जाति-जिसका पेशा चोरी करना है। ये लोग अब भी वहां पाए जाते हैं। भीकृष्ण के स्वर्गमन के बाद जब अर्जुन यादव स्त्रियों के साथ द्वारिका से लौट रहा था तो काबों ने ही उनको लूट लिया था। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा कहा "लहराते हुए सागर के समान चालुक्य बढ़ा आ रहा है। लाखों पैदल और हज़ारों हाथियों के चलते ही समुद्र की मर्यादा भी भंग हो गई।" .. __ यहाँ चौहान की सेना का वर्णन करने का मेरा अभिप्राय नहीं है। कन्हराय उसका प्रधान सेनापति था, जो अपनी पूर्व पराजय का बदला लेने के लिए भी उत्सुक था। पिछले दिनों, उसने शाहबुद्दीन को परास्त किया था, उसी प्रकार अब भी उसके शिर पर राजचिन्ह, चंवर' और छत्र विराजमान थे। हरोल का नेतृत्व स्वयं पृथ्वीराज कर रहा था, निडरराय मध्य में था और पृष्ठ भाग की बागडोर परमार के हाथ में थी। राजपूतों की विशेषता का परिचायक एक अंश और भी उद्धृत करते हैं । जब सेनाएं आमने सामने हुई तो दोनों ओर से दूत, विरोध प्रदर्शन के लिए, राजाओं के पास भेजे गए । युद्ध जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर यह कार्य भाटों द्वारा सम्पन्न होता है इसलिए युवक सम्राट ने चन्द को ही बल्हरा के पास भेजा। "हे चन्द ! चालुक्य से जा कर कहो, मैं वैर लेने आया हूँ, परन्तु, मुझ से दो भेंट स्वीकार करो, एक लाल पगड़ी और दूसरी एक काँचली (अंगिया)। उसे इनमें से जो अच्छी लगे वही स्वीकार करने को कहो । उसे यह भी बता दो कि यह संसार स्वप्नवत् है, हम दोनों में से एक को | इस युद्ध में मरना है।" चन्द ने दूत के पवित्र कार्य का उचित रूप से पालन करते हुए, अपनी ओर से और भी बहुत-सी उत्तेजक बातें कहीं, जिनका चालुक्य ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करने हए इस प्रकार उत्तर दिया "मैं भीम हैं और भारत के भीम के समान तुम से युद्ध करूँगा। जो पिता की गति हुई वही पुत्र को होगी।" तत्पश्चात् उसने भी जगदेव नामक भाट को पृथ्वीराज के पास भेजा। उसके शब्दों का तो यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है परन्तु कवि ने उन्हें विष से भरे हुए बताया है। चन्द ने अपने राजा की ओर से बोलते हए दूत की असंस्कृत भाषा पर कटाक्ष कर के उसकी बात समाप्त कर दी। “गळबळ गळबळ गुजरातो बोल कर हमें क्यों परेशान कर रहे हो।" इससे यह अर्थ निकलता है कि दोनों बोलियों में उस समय भी उतना ही अन्तर था जितना कि आजकल है। ' गाय की पूंछ के बालों का बना चमर और छत्र; ये चिह्न युद्ध में प्राय: मुख्य योद्धा अथवा राजा पर नहीं लगाए जाते कि जिससे लोगों का ध्यान अन्यत्र बंटा रहे और वे सुरक्षित रहें। शेक्सपीयर 'कृत बॉसवर्थ फील्ड के युद्ध' वर्णन में रिचमाण्ड ने वीर माक्रमणकारी पर हमला करते हुए कहा है "तीन मुकुटधारी तो प्रब तक मारे जा चुके हैं।" Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १० अणहिलवाड़ और अजमेर का युद्ध [ २१५ . सेनाएं आमने सामने होती हैं और कवि को प्रतिभा चमक उठती है। वह कहता है "चन्द के लिए धर्मक्षेत्र सामने था, सुरलोक का मार्ग यात्रियों से भर गया था और अमरत्व पर अधिकार कर लिया गया था।" बहुत लम्बे समय तक घमासान युद्ध हुआ। जब युवक चौहान ने शत्रुनों से युद्ध किया तो दोनों ओर के बहुत से वीर काम आए, जिनके नाम और पराक्रम का उल्लेख है। एक पहर' तक वीरों के शिरस्त्राणों पर तलवारें बरसती रहीं; कवचों के टुकड़े-टुकड़े हो गए। सरस्वती नदी में रक्त की बाढ़ आ गई। योगिनियों ने रणक्षत्र में से अपने खप्पर भर लिए और पलचरों (Palacharas) की कामना पूर्ण हुई। पृथ्वीराज ने शत्रु को देखा और घोड़े की बागडोर खींच कर उसे आगे बढ़ाया। पृथ्वी डर से काँप उठी। संसार के संरक्षक [दिकपाल ] अपने अपने स्थानों से भाग गए। देवताओं को कंप-कैंपी छूटी। उसका हाथ स्वर्ग तक ऊंचा उठा हुआ था और जब उसका धनुष खिच कर गोलाकार हो जाता था तो फिर उससे कौन बच सकता था ? शिव को समाधि टूट गई और जब चौहान और चालुक्य युद्ध में भिड़ गए तो उनके हाथ से माला गिर पड़ी। प्रत्येक योद्धा की तलवार बिजली के समान चमक रही थी, बीजलसर के वार हो रहे थे । आमने-सामने होते ही पृथ्वीराज ने कहा, "भीम ! तेरा अन्तिम समय पा गया है, सम्हल जा!" भीम ने कहा, "मैं तुझे सोमेश्वर के पास भेजता हूँ।" पृथा ने लपक कर वार किया और उसकी तलवार भीम के गले पर वहाँ पड़ी जहाँ जनेऊ सुशोभित थी; गिरते समय उसने [ भी ] पृथ्वीराज के ललाट पर टीका कर दिया । देवगण ने 'जय-घोष' किया और अप्सराओं के विमानों से रणक्षेत्र पर छाया हो गई। स्वामी के गिरते ही चालुक्य-सेना के पर उखड़ गए।" भाट ने भीम के सद्गुणों का वर्णन किया है । वह आगे कहता है-वह देवविमान में बैठ कर शिवपुर को चला गया। परन्तु, यह विजय पृथ्वीराज को ' दिन का चतुर्थाशा २ अहिलधाड़ा में हो कर बहने वाली नवी । ३ बीजलसर का अर्थ है बिजली का सार । राजपूत योद्धा अपनी प्रिय तलवार के लिए प्रायः इसी नाम का प्रयोग करते है। ४. पृथ्वीराज को बीजलसर भी अरिप्रॉस्टो (Ariosto) के बॅलीसारडा (Balisarda) की तरह प्रसिद्ध थी। अरिऑस्टो (१४७४-१५३३ ई०) इटनी निवासी कवि था। उसका Orpando Furio नामक काव्य प्रेम गाथा और वीर-वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा मंहगी पड़ी । “पन्द्रह सौ घोड़े और पन्द्रह सौ प्रख्यात वीर (जिनमें पाबूपति जैत्र भी था) काम आये और इनके अतिरिक्त पांच सौ छोटे-मोटे योद्धा युद्धक्षेत्र में घायल होकर पड़े थे।" कवि ने जो युद्धोत्तर रात्रिकाल का वर्णन किया है उसे यहां पर उद्धृत करना अप्रासंगिक तो होगा परन्तु उपमाओं की छटा को देखते हुए यहाँ अवतारित करना अनुचित भी न होगा। ___ "पृथ्वीराज ने युद्ध में विजय प्राप्त की। यद्यपि वीरों के शरीर घावों से भरे हुए थे, फिर भी उन्होंने विजयशंख की ध्वनि की। पिता का वैर ले चुकने पर चौहान का क्रोध शान्त हो गया था। योद्धागण एक दूसरे की वीरता की प्रशंसा कर रहे थे। योद्धाओं का यश ही पृथ्वीराज का धन है । वे उस रात युद्धक्षेत्र में ही घायलों की देख-भाल करते रहे; परन्तु, वह रात बहुत लम्बी बीती; वे प्रातःकाल के लिए उत्सुक हो रहे थे। रात बीती, प्रात: कमल खिल उठा, रात भर जो भौंरा इसमें आबद्ध था उसने उड़ान भरी। तारे मन्द पड़ गए और रात्रि का काला पर्दा दूर हुआ। चन्द्रमा अन्तर्हित हो गया। मनुष्यकृत स्तवन को प्रवेश देने के निमित्त देवद्वार अनावृत हो चुके थे। रात के पक्षी (राजा) की मांखें फिर मुंदने लगी थीं। देवालयों में शंख-ध्वनि हो रही थी और सूर्यदेव ने अपनो यात्रा पुनः प्रारम्भ कर दी थी।" ___ इस परम चमत्कारिक वर्णन के बाद तुरन्त ही कवि की सहानुभूति उन लोगों के प्रति जाग उठती है जो उसके चारों ओर मरे हुए पड़े हैं और जो अव इस प्रकाशमान जगत् की किरणों से कभी प्रभावित न हो सकेंगे। वह कहता है "इस पृथ्वी पर कितने ही योद्धा उत्पन्न हुए हैं, जिन्होंने अपने शरीर तलवारों को अर्पण कर दिए हैं। स्वयं चन्द ने कितनी ही बार उनका यशोगान किया है । यह संसार एक स्वप्न है; इसमें जो कुछ है वह सब एक दिन नष्ट हो जायगा। मूर्खतावश लोग सांसारिक भोगों की कामना करते हैं । मृत्यु बधिक के समान है, परन्तु युद्ध में मृत्यु का पारितोषक प्राप्त करना ही वीरों का परम धन है; केवल तलवार की धार से ही अमरत्व प्राप्त किया जा सकता है।" सुरलोक (वीरों के स्वर्ग) के सुख-साधनों से सुसज्जित, मुसलमानों के जन्नत के विलासों से संवलित और स्कण्डेनेविया निवासियों के युद्ध और महाभोज से चित्रित यह सिद्धान्त राजपूतों में अपने स्वामी एवं देश के प्रति भक्ति उत्पन्न करने में सर्वथा पूरा उतरता है । दिल्ली और (पिता की मृत्यु के बाद) अजमेर के चौहान राजा ने अपनी विजय को पूरी की और “चालुक्य के चौरासी बन्दरगाहों पर अधिकार कर लिया।" उसने कच्छरा (Cutcra) नामक राजकुमार को गद्दी पर बिठाया और Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; पज्जूणराय [ २१७ उसको इनमें से दस बन्दरगाह दे दिए तथा उसे अपने साथ दिल्ली ले गया। यह कच्छ-रा कौन था, इसका पता चलाने में मेरे सभी प्रयत्न विफल हुए । इस नाम से उस वंश की एक शाखा का बोध हो सकता है जिसके अधिकार में कच्छ का करद राज्य था क्योंकि अंतिम शब्दांश 'रा' 'का' दा' 'चा' ही इस भाषा में सम्बन्धकारक पहचानने की कसौटी है। चौहानों के इतिहास में गुजरात पर इस आक्रमण का संवत् १२२४ दिया गया है, परन्तु सोलंकियों के भाटों ने भोला भीम की, मृत्यु का समय संवत् १२२८ लिखा है; यह अन्तर नगण्य है। इस प्रकार हमें एक और समकालिक-तिथिनिर्णायक तथ्य मिल जाता है, जिसकी पुष्टि हाँसी के शिलालेख से भी होती है। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण युग था कि जब प्रायः सभी हिन्दू राज्य समाप्त हो रहे थे। जिस शिलालेख का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसे मैं हाँसी-स्थित पृथ्वीराज के टूटे-फूटे महलों में से लाया था और उसो वर्ष माविवस हेस्टिग्स् के पास कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी में पहुंचाने के लिए भेज दिया था, परन्तु उसके बारे में आज तक कोई खबर नहीं मिली है । यह लेख केवल इसीलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे अन्तिम हिन्दू-सम्राट् के समय का पता चलता है प्रत्युत इससे उसके अन्यान्य समकालीन राजवंशों का भी समय निर्णीत करने में सहायता प्राप्त होती है । इनमें से अहिलवाड़ा के साथ हुए युद्ध का एक उदाहरण विस्तारसहित लिखा जा चुका है । एक और है, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है; वह है आम्बेर के राजाओं के महान पुरुषों का समय-निर्णय। राव पिरजण [प्रद्युम्न] उस समय आमेर का राजा था और वह चौहाण के सर्वाग्रणी सामन्तों में से था। उसका नाम हांसी के शिलालेख में भी हम्मीर के साथ सीमाप्रान्तीय महत्वपूर्ण गढ़ का संरक्षण करने के सम्बन्ध में उल्लिखित है। जिस युद्ध में पृथ्वीराज का पिता सोमेश्वर मारा गया था उसके वर्णन में भी राव पज्जूण का नाम आता है और एक छोटा सा 'समय' अथवा सर्ग भी 'पज्जूण सम्यौ' के नाम से दोनों युद्धों के वर्णन के बीच में रखा गया है। इस 'समय' में इस सामन्त के पराक्रम का वर्णन किया गया है कि किस प्रकार उसने सम्राट के मत्यु-स्थल पर खोई हई उसको कलंगी को खोज निकाला था। भाट ने उसकी सफलता और पाग में कलंगी के पुन: स्थापन का वर्णन किया है। हम इसे मारकेश्वर ' रासो में यह वर्णन 'पज्जून छोंगा' नाम से है, परन्तु कथावस्तु में अन्तर है। चालुक्यराज भोला भीम ने रागिन के पुत्र महाबली मकवाणा के सिर पर 'छोंगा' (तुर्रा) बँधवा कर सेनापति बनाया और सोनिगरों की राजधानी (जालोर ?) पर आक्रमण करने भेजा। तब पृथ्वीराज ने अपने कछवाहा सामन्त पज्जून को सेनापति नियुक्त किया और Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अथवा मारक के स्वामी द्वारा सफल अाक्रमण और लूट का आलंकारिक वर्णन मान लेते हैं । उपरि वणित शिलालेख का वृत्तान्त ट्रांजेक्शन्स् ऑफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी (वॉल्यूम १, प. १५४) में दिया गया है क्योंकि सौभाग्यवश मैंने मूल लेख की नकल और अनुवाद अपने पास रख लिए थे। ___ बालमूलदेव संवत् १२२८ (११७२ ई०)' में गद्दी पर बैठा । आलंकारिक विशेषण का यह एक और उदाहरण है और यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि इस वंश के आद्य और अन्तिम राजा उसी (मूल) नक्षत्र में जन्म लेने के कारण एक ही नाम के हुए। उसने अणहिलवाड़ा पर इक्कीस वर्ष अर्थात् संवत् १२४६ (११६३ ई०) तक राज्य किया। यह काल राजपूत-इतिहास में चिरस्मरणीय है क्योंकि इसी वर्ष दिल्ली और कन्नौज के प्रासादों पर इसलाम का विजय-नक्षत्र उदित हुआ था; इसी वर्ष परमवीर योद्धा पृथ्वीराज कग्गर (Caggar) के किनारे युद्ध करके वीरगति को प्राप्त हुना, और कन्नौज का सम्राट अपनी प्रान के अतिरिक्त सब कुछ गंवा कर गङ्गा में जा डूबा। इस प्रकार यद्यपि अणहिलवाड़ा के सभी बड़े-बड़े प्रतिस्पर्धी राजाओं का अन्त हो गया था परन्तु 'बाल मूलदेव' तक यह आघात नहीं पहुंचा और उसका उत्तराधिकारी वीसलदेव बाघेला हुआ। उसका राज्यकाल संवत् १२४६ मकवाणा से युद्ध करने भेजा । इस युद्ध में पज्जूण के पुत्र मलयसी ने मकवाणा के सिर पर से 'छोंगा' छीन लिया और अपने पिता को ला कर भेंट कर दिया। फिर गयो सु चालुक गेह तजि, रही कन गिरि लाज छोंगा कूरमराव लै, कर दीनी प्रथिराज ॥१२॥ पृ. ६८, (रा.वि. वि. संस्करण) तदनन्तर पृथ्वीराज राज सु छोंगा फेरि दिय, वर है-वर पारोह। घटि चालुक बढ़ि कूरमा, अयुत पराक्रम सोह ॥१२॥-वही.पृ.६० 'मूलराज द्वितीय प्रथवा बाल मूलराज ११७७ ई० (१२३४ वि०) में गद्दी पर बैठा और उसने केवल दो वर्ष राज्य किया । -रासमाला, रालिनसन, १९२४; पु. १६६ २ घग्घर। , गुजरात के इतिहास से बाल मूलराज के बाद वीसलदेव का गद्दी पर बैठना सिद्ध नहीं है। टाड साहब ने किस प्राधार पर यहां बीसलदेव के राज्यकाल की बात लिखी है. यह ज्ञात नहीं हुआ। एक पट्टावली में लिखा है कि 'बाल मूलराज ने संवत् १२३२ वि० की फाल्गुन कृष्णा १२ से १२३४ वि० की चैत्र शुक्ला १४ तकरे वर्ष १ मास राज्य किया तदनन्तर उसके भाई भीमदेव (भोला भीम) ने राज्य प्रारम्भ किया। एक अन्य जन लेख के अनुसार भीम १२३५ में राजा हुआ । प्रबन्धचिन्तामणि में भी स्पष्ट लिखा लिखा है 'संवत् १२३५ पूर्व वर्ष ६३ श्री भीमदेवन राज्यं कृतं'। चालुक्य राजवंश की तिथियों पर अद्यतन अनुसंधान के प्राधार पर श्री अशोक कुमार मजूमदार ने भी भोला भीम का राज्यकाल वि० सं० १२३५ से १२९८ निश्चित किया है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ प्रकरण ( ११६३ ई.) से प्रारम्भ होता है । उसको 'भागेला' अथवा बाघेला वंश का प्रथम राजा क्यों कहते हैं, इसका कारण मुझे ज्ञात नहीं हुआ क्योंकि नाम परिवर्तन के विषय में जो श्राख्यान प्रचलित है वह कुमारपाल के पुत्र से सम्बन्धित है और उससे यह सूचित होता है कि सब से पहले मूलदेव ही इस नाम से संबंधित हुआ था । अस्तु, यह कोई अधिक महत्वपूर्ण विषय नहीं है क्योंकि वीसलदेव के बाद वाले शिलालेखों में भी इस वंश का वही पूर्व नाम चालुक्य अथवा सोलंकी प्रयुक्त हुआ है । इस राजा ने पन्द्रह वर्ष तक राज्य किया, परन्तु हमें इसके विषय में एक भी उल्लेख योग्य घटना का पता नहीं चलता । - १०; भीमदेव भीमदेव संवत् १२६४ (१२०८ ई०) ' में गद्दी पर बैठा और उसने बयालिस वर्ष से कम राज्य नहीं किया । इसके अतिरिक्त राज्यारोहण के बीस वर्ष बाद उसके मंत्रियों द्वारा चित्तौड़ के मंदिरों का निर्माण इस बात का स्वतः सिद्ध प्रमाण है कि जिन इसलामी शस्त्रों ने दिल्ली, कन्नौज और चित्तौड़ के राज्यों को उलट दिया था वे अणहिलवाड़ा के राज्य को कोई भी हानि नहीं पहुँचा सके थे । श्राबू में प्राप्त सभी शिलालेखों में उसे सार्वभौम शासक लिखा है और पृथ्वीराज ने जिनको किंचित् काल के लिए मुक्त करा दिया था वे आबू और चंद्रावती के परमार राजा भी पुनः उसकी आधीनता में आ गए थे। इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि बल्हरों की शक्ति न दक्षिण में क्षीण हुई थी, न पश्चिम में । वास्तव में, वलभी के शिलालेख से, जिसमें उसके अनुवर्ती अर्जुनदेव के गुणों का वर्णन है, यह बात स्पष्टतया प्रमाणित हो जाती है कि केवल लार (लाट) देश ही नहीं वरन् सम्पूर्ण सौराष्ट्र पर उसका दृढ़ श्राधिपत्य था; हाँ, अरब के मल्लाहों को समुद्रतट पर बस्तियाँ बसाने की आज्ञा अवश्य मिल चुकी थी । हिलवाड़ा के वैभव का इससे अधिक सजीव प्रमाण श्रीर नहीं मिल सकता क्योंकि यदि श्राबू और तरङ्गी के पहाड़ों पर, चंद्रावती नगरी में तथा समुद्रतट पर एक साथ निर्मापित मंदिरों को इसकी उन्नतिशीलता का प्रमाण न भी माना जाय तो भी हम यह अवश्य कह सकते हैं कि यह राज्य उस समय " बाडमेर के पास किराडू के वि० सं० १२३५ (११७९ ई०) के लेख से ज्ञात होता है कि वह भीमदेव के राज्यकाल में लिखा गया था । इसी प्रकार डा० ब्युहलर द्वारा प्रकाशित ११ लेखों में से 8 वां ताम्रलेख संवत् १२९५ का है। इसके बाद १२६८ सं० का लेख (ताम्रपट्ट ) त्रिभुवनपाल के समय का है । प्रतः सिद्ध है कि भीमदेव ने संवत् १२३५ (११७६ ई०) से संवत् १२६८ (१२४१-४२ ई०) तक राज्य किया । कर्नल टॉड की एतद्विषयक तिथियां प्रामाणिक नहीं हैं । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] पश्चिमी भारत की यात्रा महानता की पराकाष्ठा पर न होते हुए भी वस्तुतः इसका कोई पतन नहीं हुआ था; अथवा यदि इतिहास और लोक-कथाओं में सुप्रसिद्ध देश के महान् राजा कर्ण और सिद्धराज के बाद 'तीनों बालों' (पागलों) के राज्यकाल में कुछ उतार भी आ गया था तो भी क्या इस देश की धन-सम्पत्ति और शान उस समय अपने वैभव के शिखर पर पहुंची हुई नहीं थी जब कि एक शताब्दी के बाद विदेशी आक्रमणों में बहुत कुछ सफाया हो जाने पर भी इतनी समृद्धि और समर्थता विद्यमान थी कि इन मंदिरों में से प्रत्येक की श्री-वृद्धि हेतु करोड़ों की धनराशि यहाँ के केवल तीन श्रेष्ठियों के अतिशय-धन कोष में से ही दान में दे दी गई ? हम कह सकते हैं कि यहाँ के श्रेष्ठी रोजा थे।' । . भीमदेव और उसके सामंत धारावर्ष ने मिल कर मुसलमानों के आक्रमणों के विरुद्ध गौरवपूर्ण प्रतिरक्षा की और बादशाह कुतुबुद्दीन को युद्ध में पराजित किया। इस युद्ध में कुतुब घायल भी हुआ; यही नहीं, उसके क्रमानुयायी भी प्रणहिलवाड़ा पर उस समय तक कोई विजय प्राप्त न कर सके जब तक कि आधी शताब्दी वाद कर अल्लाह का राज्य सर्वत्र स्थापित न हो गया। .. अर्जुनदेव संवत् १३०६ (१२५० ई०) में गद्दी पर बैठा । उसने तेवीस वर्ष तक राज्य किया और वह प्राय: अपने पिता की हो नीति का अनुसरण करता रहा । उसने आक्रमणों से तो प्रतिरक्षा की, परंतु साथ ही मुसलमानों से मित्रता भी बढ़ाता रहा, जो बड़ी तेजी से उसके राज्य के चारों ओर बढ़ते जा रहे थे। फिर भी 'चालुक्य चक्रवर्ती' (वलभी का शिलालेख) 'चालुक्य सार्व. भौम' और साथ ही 'सदा विजयी' आदि उसकी पदवियों से ज्ञात होता है कि उसकी शक्ति में कोई कमी नहीं आई थी। यह शिलालेख एक प्रकार का आज्ञा-पत्र है जो उसके जल-सेनापति हरमज (Hormuz) निवासी नूरुद्दीनफ़ीरोज के नाम, जो सोमनाथ के समीपवर्ती बिलाकुल (Billacul) बंदर का 'बाल मूलराज, भोला भीम और कर्ण गल।। • यह युद्ध ई० सं० ११९७ में हुआ था। कैम्बिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भा० ३, पृ० ४३-४४ ३ प्रलादीन खिलजी। ४ क० टॉड के तिथिक्रम में ही गड़बड़ी नहीं है, राजाओं के नामानुक्रम में भी पर्याप्त विपर्यय है । वीसलदेव बाघेला वि० सं० १३०२ में त्रिभुवनपाल के बाद गद्दी पर बैठा था, उसको बाल मूलराज का उत्तराधिकारी बना दिया और बीसलदेव के उत्तराधिकारी अर्जुनदेव को भीमदेव के बाद गद्दी पर बिठा दिया है । वास्तव में वीसलदेव का समय वि० सं० १३०२-१३१८ है पोर मर्जुनदेव का १३१८-१३३१ वि० सं० । अर्जुनदेव वीसलदेव के भाई प्रतापमल्ल का पुत्र था। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; सारंगदेव . [२२१ स्वामी था तथा उसके अधीनस्थ देव बन्दर एवं द्वीप के अधिकारी अन्य चावड़ा सरदारों के नाम लिखा गया था, जिसमें उनको व्यापारी सामान के कर की देख-भाल करते रहने के लिए आदेश दिए गए थे । यह कर सोमनाथ में स्थित महान् सूर्य-मन्दिर के जीर्णोद्धार के निमित्त समर्पित कर दिया गया था। चावड़े अब तक भी सूर्यदेव के भक्त थे। इस महत्वपूर्ण अभिलेख से चार मुख्य बातें प्रकट होती हैं। पहली यह कि सोमनाथ (अथवा चन्द्रमा के स्वामी) का मन्दिर सौरों द्वारा बनाया हुआ विशाल सूर्य-मंदिर है, जिनके कारण इस प्रायद्वीप का नाम सौराष्ट्र पड़ा है, जिसको बॅक्ट्रिया (Bactria) के ग्रीक राजा सायराष्ट्रीन (Syrastrene) कहते थे, जिनमें से दो अपोलोडोटस (Appollodotus) और (Menander) इसी ZUPOY' प्रदेश में शस्त्र लेकर आए थे। — दूसरी बात यह है कि देव द्वीप और पवित्र नगर सोमनाथ के चावड़ा राजा अधीनस्थ होते हुए भी चौदहवीं शताब्दी तक अपनी इस प्राचीन राजधानी पर अधिकार बनाए हुए थे, जहां से निष्कासित होने पर उन्होंने ७४६ ई० में अणहिलवाड़ा बसाया था। तीसरी यह कि वलभी के स्वामी बालरायों का अपना संवत् चलता था जो विक्रम संवत् ३७५ अथवा ३१६ ई० से प्रारम्भ होता था। . ___ चौथी बात यह थी कि हरमज बन्दर का एक अरबी अमीर १२५० ई० में अपहिलवाड़ा के एक जहाज़ी बेड़े का एडमिरल' (नायक) था। सारङ्गदेव संवत् १३२६ (१२७३ ई०) में गद्दी पर बैठा। इस दुःखपूर्ण समय में उसका इक्कीस वर्ष का राज्यकाल बहुत लम्बा निकला; परन्तु, अब वह समय शीघ्र ही आ रहा था जब कि अणहिलवाड़ा की गर्वभरी गर्दन झुकने वाली थी। ' इस विषय पर 'जिंक्शन्स् प्राव ही रायल एशियाटिक सोसाइटी' बॉ०१; प्र० ३१३ में विवेचन देखिये। . साधारणतया लोगों को यह ज्ञात नहीं होगा कि एडमिरल (Admiral) शम्द अरबी भाषा से निकला हुआ है, अर्थात् 'अमीर-अल-प्राव' (जल का स्वामी) से । ३ विचारश्रेणी और बॉम्बे गजेटियर के अनुसार सारङ्गदेव का राज्यारोहण संवत् १३३६ में हुआ था। । सारङ्गदेव ने संवत् १३३१ से १३३४ नि. - राज्य किया। वही Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा गैला कर्णदेव संवत् १३५० (१२६४ ई०) में राजा हुआ। राजपूत राज्यों के भाग्य में परिवर्तन का यह एक ऐसा विशेष समय पाया था कि उनमें से प्रत्येक के लिए अपनी अतिशय शक्ति का उपयोग करने के निमित्त सुलेमान की सी बुद्धिमानी को भी आवश्यकता थी। ऐसे ही समय में अणहिलवाड़ा की गद्दी पर एक पागल अथवा मूर्ख मनुष्य का अधिकार हुआ। गैला का अर्थ यही है, गोहिल नहीं, जैसा कि अबुलफजल ने लगाया है, क्योंकि 'बंसराज' की गद्दी पर इस वंश का कोई भी राजा नहीं बैठा । क्रूर अलाउद्दीन, जिसके लिए हिन्दुओं के पास 'खूनी' अथवा 'लोहू का प्यासा' के अतिरिक्त और कोई विशेषण न था और जो भारत के प्रत्येक राजपूत वंश के लिए विनाशकारी दत्य के समान था, इसी समय में अणहिलवाड़ा पाया था और अन्य सभी स्थानों के समान 'देखते देखते उसको भी फतह कर लिया था।' अणहिलवाड़ा की नींव पड़ने के बाद पांच सौ बावन वर्षों से टिकी हुई बलहरों की सत्ता गैला कर्ण के साथ समाप्त हो गई। राजधानी में और उसके मा पास अन्तिम बागेला वंश के छोटे-छोटे सरदार अपनी अपनी जागीरों पर बने रहे, परंतु उन पर प्राधीनता की मोहर लग चुकी थी; कालीकोट की गरबीली दीवारें भूमिसात् कर दी गई थीं। • बल्हरों की महानता के बहुत थोड़े अवशेष देखने को मिलते हैं। प्रथम चावड़ा वंश के कुछ ठिकाने गुजरात में हैं, जिनमें सब से बड़े की प्रामदनी एक लाख रुपया प्रांकी जाती है। उसी के बराबर की दूसरी बड़ी जागीर चालीस हजार रुपये मामदनी की बताई जाती है । इन सभी के साथ मेवाड़ के राणानों का प्राचीनकाल से वैवाहिक सम्बन्ध चला पाता है क्योंकि वे अपने पड़ोस के अधिक समृद्ध घरानों की अपेक्षा इन लोगों में चावड़ों का विशुद्ध रक्त होना मानते हैं। मेवाड़ का वर्तमान राणा और उसकी प्रभागिनी बहिन कृष्णाकुमारी की माता उस दूसरे ठिकाने की ही लड़की थी। रीवा का राजा, जिप्तका देश बघेलखण्ड कहलाता है, इस वंश के मूलपुरुष बाघजी की बत्तीसवीं पीढ़ी में है। दूसरे अर्थात् सोलंकी वंश के लोग अभी तक अपनी ही भूमि पर रह रहे हैं और उनमें मुख्य लूणावाड़ा का राजा है । पीथापुर (Pcetapur) और थेराद (Therad) वाले दोनों बाघेला हैं । टोंक-टोडा के सोलंको भी अपने समय में प्रसिद्ध थे। 'इतिहास' में परिणत उनका बूंदी का झगड़ा पढ़िए; वे भोला भीम और पृथ्वीराज के युद्ध में कारणीभूत अणहिलवाड़ा के बाहरबाट हुए भाइयों में से एक के वंशज बताए जाते हैं। उन्हें अजमेर के णस रामसर का पट्टा प्राप्त हुआ और वीरदेव का विवाह पृथ्वीराज को बहिन के साथ हुआ था। संवत् १२८० में इस सम्बन्ध से प्रसूत तीसरे वंशज गोविन्दराय ने गोलवाल (Geolwal) राजपूतों को टोडा से बाहर निकाल दिया, जिसका प्राचीन नाम तक्षशिला (Taksilla) है। जब १८०६ ई. में मैं उधर से निकला Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; बलहरों के वंशज [ २२३ [पृष्ठ २२२ का शेष तो वहाँ पर स्थापत्यकला के कुछ बहुत सुन्दर नमूने मुझे देखने को मिले। टोडा के रायों ने एक सुरक्षित राज्य कायम कर लिया था और वे अधिक शक्तिशाली पड़ोसी राजाओं से किसी बात में कम न थे। इस राज्य में रिन बिनाइ (Rin Binai)', उणियारा, टोडरी, जहाजपुर और मांडलगढ शामिल थे। जहाजपुर और मांडलगढ के जिले मेशर की ओर से जागीर में थे। मांडलगढ में एक टूटे-फूटे तालाब पर मुझे दो बड़े पत्थर मिले, जिन पर इन रायों की वंशावलियां खुवी हुई थीं। इनमें इनको बालनोत (Balnote) लिखा है और अब तक भी ये लोग परम्परानुसार इसी प्रवटंक से सम्बोधित होते हैं, जिससे उनकी पित-भूमि (fatherland) से उनका सम्बन्ध ज्ञात होता है, पोत (ote) का अर्थ है 'सम्बन्धित' । मांडलगढ के बालनोतों के प्रतिनिधि मिरची. खेड़ा (Mircheakhaira) और बटवाडा (Butwarro) के मरदार हैं, जो अब तक राव पदवी धारण करते हैं, परन्तु उनके अधिकार में केवल एक एक ही गांव है। राय कल्याण ने टोडा खो दिया था। राजा मान ने इसे लेकर माम्बेर में मिला लिया । उस ने कल्याण को निधाई के पास कुछ जमीन दे दो, जहाँ वह अपनी समस्त बस्सी के साथ जाकर बस गया-बस्सी शब्द एक साथ, प्रजा और ग्रह देवताओं का घोतक है। जिस स्थान पर उसने अपना डेरा गाड़ा वहीं पर एक कस्वा बस गया, जो माज तक बस्सी कहलाता है और यहीं पर टोडा के रामों और प्रणहिलवाड़ा के महान् सिद्धराज का वंशज 'पद्वारह राज्यों की एवज तीन कौड़ी (२०४३-६०) प्रावमियों (प्रजा) पर राज्य करता है । मोरखा के प्राक्रमणों के कारण बस्सी के राष को यह दशा हो गई है । उसका सम्बन्धी, जो टोंक के राव की पदवी धारण करता था, वह भी अच्छी वशा में नहीं है । परन्तु, कितनी ही बीघा जमीन हाथ से निकल जाने पर भी इन लोगों के साप वैवाहिक सम्बन्धों में कोई कमी नहीं पाई है, क्योंकि राजपूत का मान धन के कारण नहीं होता। भामेर के जयसिह महान ने टोंक के गरीब सोलंकी घराने से भी एक पत्नी प्राप्त की थी । मेवाड़ में रूपनगर के ठाकुर भी टोंक-टोडा वंश की ही शाखा में है और अपने बड़े भाइयों की अपेक्षा अच्छी दशा में है। कहते हैं कि उनके पास सिद्धराज के 'रण शंख का कुल-चिह्न (heir-loom) मौजूद है। इन्हीं के द्वारा में इस वंश के भाट से मिला था। और भी बहुतसी मिश्रित जातियां अपने को अहिलवाड़ा के सोलंकियों से निकली हुई मानती हैं, जैसे सोंट (Sont) और कोठारिया के गूजर (वास्तव में, गुर्जरराष्ट्र के मूल निवासी), मोगणा और पानरवा तथा हाड़ोती में मऊ-मैदनो (Mow-Maidano) के भील, बोंकन (Bonkun) के सुनार एवं अन्य बहुत सी हस्तकलामों का ध्यवसाय करने वाली जातियां । इस प्रकार हमने किसी समय शक्ति-सम्पन्न बहरों का इतिहास उनके भाग्य-विपर्यय की सभी वशानों में प्रांडवीं शताब्दी से, जब वे अपहिलवाड़ा की गद्दी पर बैठे, उन्नीसवीं शताब्दी तक, जब वे देश में तितर-बितर हो गये, खोज मला है। ' यह अजमेर के पास 'भिणाय' हो सकता है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा इस दुर्घटना से कितने ही वर्षों बाद अणहिलवाड़ा के बचे-खुचे राज्य पर सहारन के रूप में एक नये वंश का अधिकार हुआ, जो प्राचीन परंतु अब निःशेष, टाक जाति का था; परंतु इसलाम धर्म में परिवर्तित होने के कारण सहारन ने मुज़फ्फर नाम धारण करके अपने नाम और जाति को छुपा लिया था | उसका पुत्र' सुप्रसिद्ध अहमदशाह था जो शासकों (राजानों) की एक दीर्घ परम्परा कायम करने के सपने देख रहा था; अतः उसने गुजरात की राजधानी को सरस्वती के किनारे से उठा कर साबरमती के किनारे स्थापित की। जब प्राचीन राजधानी ध्वस्त चंद्रावती से लाए हुए अवशेषों से अहमदाबाद बन कर तैयार हो गया तो समय की गति के अनुसार धीरे-धीरे सब लोग अणहिलवाड़ा को भूल गए; और जब अहमदशाही तथा उनके परवर्ती एवं अधिक वैभवशाली तंमूर वंशीय सुलतान भी बारी बारी से भुला दिये गये और उनका अधिकार गाय[क] वार ( साधारण ग्वाले ) राजाओं के हाथ में चला गया तो अहमदाबाद की बारी आई और वह नगर भी उपेक्षा में पड़ गया । दामाजी ने अपनी विजय की पूर्ण महत्वाकांक्षा से एक नया नगर बसाया अथवा वंशराज के नगर के उपप्रांत के चारों ओर परकोटा खड़ा कराया, परंतु अब वह अणहिलवाड़ा पट्टण 'अहिल की राजधानी' न कहला कर केवल पट्टण कहलाया । कुछ लोगों के लिए तो यह संक्षिप्त इतिहास राजानों के राज्यारोहण और उनके श्मशान में महाशयन के वृत्तांत के अतिरिक्त और कुछ प्रस्तुत नहीं करता, परंतु जो लोग गहराई से इस पर विचार करेंगे उनके लिए इसमें कितने ही संकेत, संदर्भ, वस्तुओं एवं पुरुषों के नाम तथा ऐसे ऐसे विचार मोजूद हैं, जिनको ठीक ठीक समझ लेने पर उन लोगों को उस विषय की बहुमूल्य सामग्री प्राप्त हो सकती है जिसे 'इतिहास का दर्शन' कहा जा सकता है-यथा- धर्म एवं तत्कालीन मतमतांतर; व्यापार और उसका प्राचीन जातियों में विस्तार; जातियों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन; कलाएं, विशेषतः स्थापत्य, मूर्तिकला एवं मुद्राएं युद्ध, राजनीतिक एवं भौतिक भूगोल और इन ग्यारह सौ वर्षों में राजपूत राजात्रों के अंतर्जातीय व्यवहार । हमारे इतिहासकारों ने भी अतीत के अंधकारपूर्ण इतिहास में गोता लगा कर वे दार्शनिक परिणाम (तथ्य ) एवं उदाहरण प्रस्तुत नहीं किए हैं, जो उनकी कृतियों में आकर्षण भर सकते; उन्होंने जो ताना-बाना बुना है वह उस बहुरंगी सामग्री के आधार पर है जो कितने ही स्रोतों से प्राप्त की गई है; वह इतिहास के विस्तृत क्षेत्र में केवल ॐ ' वास्तव में ग्रहमदशाह मुज़फ्फर का पौत्र था । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; सौराष्ट्र का ऐतिहासिक सामग्री .२२५ "कितने ही प्रान्तों के फल-फूल मात्र" के रूप में है, जिसमें उनके अर्थ का साधन करने वाली कोई भी बात नहीं छूट पाई है। फिर, इन प्रदेशों में ऐसी सामग्री की भी कमी नहीं है जिसका उपयोग शोध [विषयक प्रवृत्ति को समान रूप से सम्मानित एवं प्रोत्साहित करने में किया जा सकता है, चाहे उसके मूलतन्तु इतने प्रभावशील न हों जितने कि उस देश की सामग्री के, जहाँ पर हमने जन्म लिया है अथवा उन राज्यों में प्राप्त सामग्री के, जो कि उस देश से सम्बद्ध हैं । गौण होते हुए भी इन विषयों में अनुसंधान की जो अभिरुचि उत्पन्न होती है वह सुनिश्चित प्रकार की होती है। शिलालेखों के आधार पर चरित्रों एवं ऐतिहासिक वृत्तों के तिथिक्रम के तथ्यों को निश्चित करना, भाटों के लेखों से जीत, तुरुष्क अथवा तक्षक, बल्ल, अर्यस्प, हूण, कोठी तथा अन्य विदेशी नामधारी जातियों के उत्तरी एशिया से चल कर इन प्रदेशों में बसने के क्रम का पता चलाना, उन विभिन्न पूजा-प्रकारों पर विचार करना जो वे अपने 'पूर्व पुरुषों की भूमि' से यहाँ पर लाए और यहाँ से जिन लोगों को हटा कर वे बस गए; उनके रहन-सहन आदि के प्रकारों में घुलने-मिलने से जो प्रांशिक परिवर्तन हुए उनके विषय में अनुमान लगाना, तथा इस बात की भी शोध करना कि उनकी प्राचीन आदतों और संस्थाओं में से कितनी अब भी बच रही हैं-ये ऐसे विषय हैं, जो किसी भी विचारशील मस्तिष्क के लिए थोड़े और गौण नहीं हैं, और इस सौर प्रायद्वीप में शोध के लिए जो सुविधाएँ प्राप्त हैं वे प्राय: भारत के किसी भी अन्य शोध-क्षेत्र में प्राप्त सुविधाओं से बढ़ कर हैं। बौद्धमत यहीं पर पला था, यही वह भूमि है जहाँ पर एतन्मतावलम्बियों का जन्म हुया अथवा उस मत का पोषण और संरक्षण उस समय हुआ जब कि उनको अन्य प्रदेशों से निकाल दिया गया था अथवा वे स्वयं ही वहाँ से चल कर इधर आ गये थे । कच्छ की खाड़ी से सिन्ध के डेल्टा तक फैला हुआ यह सायराष्ट्रीन (Syrastrene) अथवा सूर्य-पूजक सौरों का प्रान्त एरिया (Aria) और बॅक्ट्रीयाना (Bactriana) के अग्निपूजकों के लिए सिन्धु नदी द्वारा विभाजित अवश्य था परन्तु बौद्धों के लिए इसमें कोई 'अटक' नहीं थी। उनकी अनुश्रुतियाँ प्रमाणित करती हैं कि इसलाम के आगमन से बहुत पूर्व ही उनके महाभिक्षु पश्चिम में स्थित अपने विहारों की यात्रा करते समय इस नदी को पार किया करते थे। जरदुश्त (Zerdusht) और सामानियों (Samaneans) की भूमि एरिया (Aria) में बौद्धमत के लिए प्रयुक्त आर्य (Arhya) और Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] . . पश्चिमी भारत को यात्रा आर्यपुन्ति (Arhya Punti) (पुन्ति अर्थात् पथ) शब्दों से क्या तात्पर्य अथवा सन्दर्भ हो सकता है, इसका अनुमान हम उसी प्रकार लगा सकते हैं जैसे कि इस मत के नाम में और सम्भवतः मान्यता के विषय में समानता का अनुमान लगाया करते हैं कि 'पावं' के समान उसके कुछ अन्तिम जिनेश्वर एरिया (Aria) में ही हुए होंगे। उनके देवत्वप्राप्त धर्माचार्यों में से इस तेवीसवें प्राचार्य का समय ई० पू० ६५० का था जब कि पश्चिमी एशिया से नए प्रांगन्तुकों के झुण्ड के झुण्ड भारत में चले पा रहे थे। उनके नाम से भी प्राचीन 'पार्स' (Pars) और 'पार्थिक' (अग्निपूजक) में साम्य प्रकट होता है और जनों के पवित्र पर्वतों पर उत्कीर्ण शिलालेखों और सिक्कों के अक्षरों एवं चिह्नों में हिन्दू अक्षरों और चिह्नों का कोई सादृश्य नहीं हैं; वे सम्भवत: चाल्दिनन' (Chaldean) अक्षरों और चिह्नों के परिष्कृत रूप हैं, जो या तो व्यवहार द्वारा सीधे यूफाटीस (Euphrates) से प्राप्त किए गए हों अथवा एरिया (Aria) हो कर पाए हों; इस कल्पना का हमारे कुछ सृष्टिसिद्धान्तवादी विरोध करेंगे, जो इन तटों को सेमेटिक यात्रियों का भारत में पाने का मार्ग मानते हैं । सम्भव है, इन पवित्र विजन पर्वतों पर प्राप्त प्राचीन सभ्यता के खण्डहरों और शिलालेखों के आधार पर शोध करने से कुछ और भी रहस्य सामने पाएँ। ___ स्थापत्य के विषय में बौद्ध और जैन मन्दिरों से अब तक प्राप्त हुई सामग्री के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इसके मौलिक तत्त्वों को यदि वे अपने धर्म के साथ पश्चिमी एशिया से नहीं लाए थे तो भी जो कुछ प्रकार उन्होंने यहाँ पर आकर ग्रहण किया उसका परिष्कार ऐसे रूप में हो गया है कि वह अपने आपमें एक स्वतन्त्र शैली बन गया है, जैसा कि अब तक वर्तमान उन स्मारकों में देखा जा सकता है, जिनको नमूने के रूप में विश्व के सामने सर्वप्रथम प्रस्तुत करने की मुझे प्रसन्नता है। भारत के 'टायर' द्वारा आठवीं शताब्दी में बाहर से मंगाए हुए माल का विवरण देख कर संक्षेप में यही कहा और माना जा सकता है कि बढ़े-चढ़े और वहुत काल से संस्थापित व्यापार के कारण ही ऐसे परिणाम निकल सकते थे। जब मैं यह कहता हूँ कि चरित्रों, ऐतिहासिक वृत्तान्तों, सिक्कों और शिलालेखों आदि से इतनी सामग्री प्राप्त होती है कि अणहिलवाड़ा और उसके अधीनस्थ राज्यों का एक क्रमबद्ध इतिहास लिखा जा सकता है तो प्रश्न होता है • प्रति प्राचीन लिपि जिससे लैटिन अक्षरों का उद्भव हुआ बताया जाता है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; बल्हरों को राजधानियां [ २२७ कि मैंने ही ऐसा प्रयास क्यों नहीं किया ? उत्तर सीधा है, कि अपनी शक्ति पर भरोसा न होने के कारण मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर ऐतिहासिक और कालक्रम-सम्बन्धी तथ्यों की संगति कर देना ही अधिक उपयुक्त समझा और जैसा कि मैंने अपनी पूर्व-कृति' में किया है, इतनी हो सामग्री इतिहास-लेखकों के लिए प्रस्तुत करने में मुझे सन्तोष भी है, तथापि यहाँ पर हम उन टूटी हुई कड़ियों को जोड़ने का प्रयास कर सकते हैं जो पश्चिमी भारत के बल्हरा राजाओं के इतिहास को ईसाई सन् के समकालीन युगों से संबद्ध करती हैं। गुर्जरराष्ट्र (भाषा गुजरात) और सौराष्ट्र (गूजरों और सौरों का प्रदेश) के संयुक्त देशों में ही बल्हरों के साम्राज्य का मूल स्थान है और राजनैतिक आवश्यकताओं के अनुसार इन्हीं क्षेत्रों में, कभी यहाँ तो कभी वहाँ, राजधानियों की स्थापना होती रही है । इस विषय में तीन बार राजधानी की स्थिति में एवं इससे दुगुनी बार राज्य-वंशों में परिवर्तन होने का विवरण हम स्पष्टतया प्राप्त कर सकते हैं । मेवाड़ के इतिहास के अनुसार पहले राजवंश का संस्थापक उनका पूर्वज सूर्यवंशी (चावड़ा) कनकसेन' था, जिसकी राजधानी लोकोट (Lokote) उत्तरी प्रदेश में थी। ढांक (Dhank) अथवा मुंगीपट्टन' में उनका निवासस्थान था। वहां से उन्होंने वलभी की स्थापना की जिसके विषय में, सौभाग्य से शिलालेख प्राप्त हो जाने के कारण, यह सिद्ध हो चुका है कि इस नगर के स्थापनाकाल से इसका अपना संवत् प्रचलित हुमा, जो ३१६ ई० से प्रारम्भ हुआ था। पांचवीं शताब्दी में पार्थियनों, जीतों (Getes), हूणों और काठियों अथवा इन सब जातियों के मिश्रित समूहों के प्राक्रमण से जब यह नगर, 'जहाँ जनों के चौरासी मन्दिरों के घण्टे श्रद्धालुओं का आमन्त्रण करते थे,' नष्ट हो गया तब इस शाखा के लोग पूर्व की ओर भाग गए और अन्त में चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। उस समय इस प्रान्त में देव-द्वीप और सोमनाथ-पट्टण, जिसको लारिक (Larica) भी कहते हैं, राजधानी बने हुए थे। पाठवीं शताब्दी के मध्य में, इसके नष्ट होने पर अहिलवाड़ा में राजधानी स्थापित हुई और अभिलेखों के अनुसार यह नगर चौदहवीं शताब्दी तक, जब ' राजस्थान का इतिहास। . इस राजा का पाक्रमणकाल ईसा की दूसरी शताम्बी था। यदि इससे पूर्व होता तो इसे विल्सन के इतिहास, राजतरंगिणी का कनन (Knaksha)समझा जा सकता था। । जिसको तिलतिलपुर-पट्टन (Tila-tilpoor-puttun) भी कहते हैं। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा कि 'बाल-का-राय' की पदवी ही निःशेष हो गई थी, राजधानी बना रहा। विभिन्न लेखकों के समानान्तर-प्रमाणों के अतिरिक्त इन राजाओं की महानता उनके सिक्कों से भी प्रमाणित होती है, जो मुझे कच्छ और प्राचीन उज्जैन के खण्डहरों में प्राप्त हुए हैं। इन सिक्कों पर बौद्ध अक्षर पाए जाते हैं क्योंकि इस धर्म से बल्हरों का घनिष्ठ एवं अविच्छेद्य सम्बन्ध था। इन राजाओं की व्यापारिक-महानता पर सर्व प्रथम दृष्टि निक्षेप करने के लिए हम 'पॅरिप्लुस' के कर्ता के प्राभारी हैं, जो इन्हीं के राज्य में बॅरिगाजा (Barygaza), जिसका शुद्ध रूप भृगुकच्छ (Brigu•gocha), प्राधुनिक रूप बरवच (Berwuch) और अंग्रेजी बरीच (Baroach) है, में रहता था। यह नगर तब भी 'चौरासी बन्दरगाहों' में से एक था जब कि राजधानी अणहिलवाड़ा में स्थापित हो चुकी थी। टॉलमी ने भी बालेकूरों (Baleo-Kouras) के राज्य का वर्णन किया है यद्यपि 'हिप्पोकुरा" (Hippocura) हमारे समझ में नहीं पाता, जिसको वह राजधानी का नाम बतलाता है। यह एक ऐसा नाम है जिस पर हमें बॉइण्टिअम (Byzentium) से भी अधिक आश्चर्य होता है, जिसे उसने वलभी के स्थान पर ला रखा है। एरिपन से हमें लारिक (Larica) निवासियों की समुद्री डाके डालने की आदतों का सूचन मिलता है; निस्सन्देह, वे इसी कारण सिद्धराज के समय में देश से बाहर निकाले गए थे। एरिअन के दिनों, अर्थात् दूसरी शताब्दी, से पाठवीं शताब्दी में अणहिलवाड़ा के संस्थापक के समय तक और दशवीं शताब्दी में दूसरे राजवंश के अन्तिम राजा के राज्यकाल तक राज्य की आन्तरिक दशा कुछ भी रही हो परन्तु उसके (Arrian के) द्वारा वणित व्यापारिक अवस्था में कोई अन्तर या न्यूनता नहीं पाई थी। ग्रीस के प्रतिनिधि द्वारा दूसरी शताब्दी में वणित पदार्थ पाठवीं और बारहवीं शताब्दियों में भी यहाँ की विशाल मण्डी के "चौरासी बाजारों में भरे रहते थे । कच्छ और खम्भात की खाड़ियों के बन्दरगाहों से समान दूरी पर सरस्वती के किनारे पर उसकी (राजधानी की) स्थिति होने के कारण अफ्रीका, मिस्र और अरब के सभी पदार्थ उसके उत्संग में आ ठहरते थे। उसका प्रधान बन्दरगाह गजना (Gujna) अथवा खम्भात (Cambayet) सौ मील से अधिक दूरी पर नहीं था , कोल्हापुर और नासिक, ये ही दोनों ऐसे स्थान हैं जिनमें से किसी एक का इसके साथ ऐक्य हो सकता है। Mc Crindle's 'Ancient, India as described by Ptolemy.' - notes by S. Majumdar; p. 385 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • १०; अहिलवाड़ा का व्यापार [ २२६ और माँडवो भी इस से कुछ ही अधिक फासले पर था । यदि एण्टवर्प' (Antwerp) में "आसपास के देशों से एक बार में चार सौ जहाजों द्वारा लाए और ले जाने वाले व्यापारिक माल को ढोने के लिए दस हजार गाडियां चलती थीं" तो एक समय 'अट्ठारह राज्यों' की राजधानी बने हुए भारत के टायर (Tyre) को कौन सा गौरव प्राप्त नहीं था, जहाँ पर एशिया के प्रत्येक बन्दरगाह से जहाजों द्वारा धन खिच-खिच कर पाता था और जिसका भूमार्ग से होनेवाला व्यापार तारतारी (Tar-tary) पहाड़ों तक फैला हुआ था ? ये ऐसे तथ्य हैं जो आठवीं, दशवीं और बारहवीं शताब्दी में अरब यात्रियों को आश्चर्य से भर देते थे। अब हम एरिअन (Arrian) द्वारा सूचित बॅरिगाज़ा (Barygaza) और लाल समुद्र के बीच होने वाले व्यापार को कुछ मुख्य वस्तुओं और 'चरित्र' में वर्णित पदार्थों की तुलना करेंगे । हीरे और मोतियों आदि जवाहरात के बाद उसने प्रोजिनी [ Ozene उज्जयिनी ? ] से भेजी जाने वाली मैलो (Mallow) घास के रंग को मलमलों का विशेष रूप से वर्णन किया है । ये अणहिलवाड़ा के 'साल' हैं, जो लाल कपड़े और रेशम पर तैयार होते हैं। इनका एक बाज़ार ही अलग था। निस्सन्देह, अफ्रीका से आने वाला हाथीदांत पट्टण में एक मुख्य प्रायात की वस्तु थी। इससे हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि ललनामों में हाथीदांत की चूड़ियों का शौक उस समय भी इतना ही बढ़ा-चढ़ा और व्यापक रूप में प्रचलित था जितना कि अब है । मद्य भी आयात की वस्तुओं में से था; इससे ज्ञात होता है कि उन दिनों का राजपूत भी 'प्याले' का उतना ही भक्त था जितना कि आज है । एरिपन के विद्वान् अनुवादक ने प्रश्न किया है कि 'यह ताड़ की शराब अथवा ताड़ी होती थी ?' हमारा उत्तर है 'दोनों ही नहीं, क्योंकि 'जाल' का सुगन्धित रस तो उनके घर में ही बहुत था; वे लोग तो शुद्ध अंगूर की शराब (शायद शीराज की) मंगवाते थे जिसके गीत सुलेमान और हाफिज ने भी ' बेल्जियम का बन्दरगाह । • एक विशेष प्रकार की ओढ़नी ? 3 इन चूड़ियों से स्त्रियां कभी-कभी हाथ के गट्टे से कोहनी तक का भाग हक लेती हैं। मैंने अन्यत्र दो पाषाण मूर्तियों का वर्णन किया है, जो मोजेइक (सिनाइ पर्वत) के प्राचीन गिरजाघर के द्वार पर बनी हुई हैं । यह स्थान टॅन (Tarn) और गॅरोनी (Garonne) के जंकशन के पास है। मूर्तियां सर्वथा एशियाई पहनावे की प्रतीक है और सम्भवतः पश्चिमी गॉथ लोगों (Visigoths) के समय की हैं, जिनकी राजधानी ताउलाउस (Toulouse) थी। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] पश्चिमी भारत की यात्रा. समान रूप से गाए हैं। सप्त-धातु (हफ्त धात) अणहिलवाड़ा में पाया जाता था, परन्तु विदेशी भूरे रंग के टिन की अपेक्षा देशी टिन तो घर के पास ही प्राप्त किया जा सकता था क्योंकि मेवाड़ में जवन (Jawan) की खानों से पता चलता है कि उनमें खुदाई का काम बहुत पहले से प्रारम्भ हो चुका था और यहां की पहाड़ियां शीशा, तांबा, टिन और सुरमें (antimony) से भरी पड़ी हैं। सम्माननीय बीड (Vencrable Bede)' के पास कालीमिर्च, दालचीनी और लोहबान रहता था; डॉक्टर विसेन्ट का प्रश्न है कि "उस समय, ७३५ ई० में ऐसे पदार्थ ब्रिटेन में एक पादरी की कोठरी तक कैसे पहुंच जाते थे ?" एरिअन ने बहुमूल्य सुगन्धित द्रव्यों और अंगरागों का वर्णन किया है और 'चरित्र' में लिखा है कि अणहिलवाड़ा में ऐसी वस्तुओं का एक अलग ही बाजार था। जटामांसी या बालछड़, पीपल, लोहबान और गोमेदक' के विषय में भी एरियन ने लिखा है कि ये वस्तुएं मीनागढ़ (Minagara) से भेजी जाती थीं 'जहां पर' उसका कहना है कि 'एक पार्थिअन अधिकारी रहता था, जो गुजरात से कर वसूल किया करता था।' अन्तिम (गोमेदक) पदार्थ के अतिरिक्त ये सब वस्तुएं तिब्बत में पैदा होती हैं और इस चक्करदार रास्ते से बचने के लिए सिन्धु नदी ही सीधा व्यापारिक मार्ग था। डी' गुइग्नीस् (De Guignes) ने दूसरा शताब्दी में इण्डोसीथिक (Indo-Scythic) विस्फोट के बारे में और कॉसमस (Cosmas) ने छठी शताब्दी में हूण अाक्रमण के विषय में लिखा है; , गोमेवक पत्थर का पूर्वीय देशों में लाक्षणिक मूल्य है और विशेषतः ताबीजों में इसका प्रयोग अच्छा समझा जाता है। इस पत्थर की सुमरनी [माला भी बहुत प्रभावशील मानी जाती है। २ बॅनरेबुल बीड का जन्म ६७३ ई. में मांकवियर माउथ (Monkwearmouth) में हुआ था। वह अपने समय का अंग्रेजों में सबसे बड़ा विद्वान् और ख्यातिप्राप्त लेखक माना जाता था। उसे 'आंग्ल इतिहास का पिता' भी कहा जाता है। उसने सब मिला कर ४० ग्रन्थ लिखे थे, जिनमें २५ बाइबिल पर आधारित थे; शेष इतिहास भादि अन्य विषयों पर । उसकी मृत्यु ७३५ ई० में हुई।-E. B.Vol. III. p. 480-81 3 फ्रेञ्च प्राच्य विद्याविद्, "Historic Generale des HUNS" का लेखक । ४ छठी शताब्दी के इस लेखक की ग्रीक पुस्तक 'AChristian Topography Embra cing the Whole World' के अतिरिक्त उसके विषय में कोई सूचना प्राप्त नहीं है। इस पुस्तक के सब मिला कर १२ अध्याय हैं । पहले पांच तो ५३५ ई. के तुरन्त बाद ही लिखे गए प्रतीत होते हैं। बाद के सात मागे चल कर लिखे गए । लेखक पहले व्यापारी था, बाद में पादरी बन गया था। व्यापारी होने के नाते उसने लाल समुद्र, हिन्द महा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०० अहिलवाड़ा का व्यापार [ २३१ सीथिक लोग डेल्टा के ठट्ठ (Tatta) अथवा सामीनगर (Saminagur), मीनागढ़ (Minagara) पर बस गये थे और दूसरे (हूण) कुछ ऊपर की ओर जम गए थे। . पूर्व विस्फोट का समय यूति (Yuti) अथवा जीत (Gete) अभियान का समय था जिसका वर्णन मैंने यादवों के इतिहास में किया है। इन प्रदेशों में अब तक अत्यधिक संख्या में प्राप्त होने वाले अस्पष्ट अक्षरों से युक्त बहुत से प्राचीन पदक एवं चट्टानों पर उत्कीर्ण लेखों को इन्हीं इण्डो-पार्थिक अथवा इण्डोगेटिक आक्रमणकारियों से सम्बद्ध मानना चाहिए। अन्य बहुमूल्य पत्थरों को तरह गोमेदक और सुलेमानी पत्थर गुजरात में राजपीपली नामक स्थान पर पाया जाता है। मेरे पास सिन्धिया के डेरे पर खरीदा हा एक फलदान है, जो स्पष्ट ही यूनानी (Grecian) कारीगरी का है। पंजाब में इकट्ठ किए हुए बहुत से गोमेदक पत्थर' जिन पर नक्काशी का काम हो रहा है तथा सिकन्दर को विजय के अन्य बहुत से ऐसे अवशिष्ट पदार्थ भी हैं जिन से प्रतीत होता है कि ऐसी चीजें उस समय प्रभूत मात्रा में यहां पर मौजूद थीं। भाँति भाँति के रेशम के कपड़े भी एरिअन द्वारा निर्यात के मुख्य पदार्थों में गिनाए गए हैं और 'चरित्र' में लिखा है कि पट्टण के 'चौरासी बाजारों में से एक बाजार इन्हीं के लिए था। इसमें सन्देह नहीं कि पश्चिमी भारत के इस महान व्यवसाय-केन्द्र में रेशमी कपड़े का व्यापार समीपवर्ती तगर (Tagara) सागर में होते हुए प्रबीसीनिया, सुकॉत्रा, फारस की खाड़ी; पश्चिमी भारत और लंका की यात्राएं की थीं। यह पुस्तक प्रलॅक्जण्ड्रिया में लिखी गई थी। इसकी दो हस्त-प्रतियां अब भी उपलब्ध हैं। पहली ८वीं शताब्दी की प्रति पोप की वेटिकन (Vatican) लाइ. ब्रेरी में है और दूसरी इटली में टस्कनी के ड्यूक के मॅडिशिअन (Medicean) पुस्तकालय में है जो १०वीं शताब्दी की है। इस प्रति का अंतिम पत्र प्राप्त है। E. B Vol. VI; pp. 445-46 ' देखिए 'राजस्थान का इतिहास' जिल्ब २, पृ. २२१ ।। । जब १८०३.४ ई० में लॉर्ड लेक ने Altars of Alexander (मालटसं माफ प्रलक्जेण्डर) से होल्कर के साथ सन्धि की तो ऐसे पत्थर इतनी मात्रा में पाए गए कि मथुरा और आगरा के देशी कारीगर कुछ समय तक सफलतापूर्वक उनसे नकली नगीने बनाते रहे और यदि उन्हें प्रोत्साहन मिलता तो बहुत प्रसिद्धि हो जाती। मेरे मित्र कैम्पशाट (Kempshot) के एडवर्ड ब्लण्ट (Edward Blunt) के पास एक विशुद्ध प्रेसियन नमूना है जिसमें कारीगर ने गोमेवक की काली पतली झिल्ली से लाभ उठाकर एक सुन्दरी के मुख की स्पर्धा में पत्थर के सफेद हिस्से में काटकर एक हब्शी (Moor) का शिरोभाग बना दिया है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा के बाजार तक ही सीमित नहीं था वरन् हम यह भी अनुमान लगा सकते हैं कि मुल्तान, सरहिन्द और अन्य उत्तरीय प्रदेशों से भी ( जहाँ अब भी इन पदार्थों का बनना बन्द नहीं हुआ है ) बल्हरों की राजधानी में रेशम आया करता था । प्राचीन पश्चिमीय लेखकों ने प्रायः एकमत होकर सैरिका (Scirca ) की स्थिति चीन देश के दक्षिणपूर्वीय प्रान्तों में मानी है । परन्तु हम यह अनुमान क्यों न करें कि रेशम के बाज़ार के लिए काकेशस (Caucasus) पहाड़ को पार करने का कोई अवसर नहीं था ? सरहिन्द अथवा सिरका - हिन्द अर्थात् हिन्द ( भारत ) के सीमा प्रान्त के सिर से ही रेशम की प्राप्ति होती थी । ' यह भी असंभव नहीं है कि एरियन के रचना काल में पंजाब किसी इण्डोग्रीशिअन अथवा इण्डो-गेटिक राजा के अधिकार में हो, क्योंकि डेरिअस (Darius) के समय से ही, जो इसको पारसी साम्राज्य का सब से अधिक धनी मण्डल ( सूबा) मानता था, पंजाब झगड़े की जड़ रहा है। रेशम के व्यापार के निमित्त ही उज्जैन के पोरस नामक राजा ने ऑगस्टस ( Augustus) के पास एक राजदूत और ग्रोक ( यूनानी) भाषा में लिखा हुआ पत्र भेजा था, इससे विदित होता है कि उस समय इन लोगों का मध्यभारत में पदार्पण हो चुका था । इस राजा को राना ( Rana ) लिखा होने के कारण डॉक्टर विन्सेण्ट ने उसको मेवाड़ के राणाओं का पूर्वज माना है और यह एक विचित्र ही निष्कर्ष निकाला है । अब, यदि राजपूत राजाश्रों में सब से अधिक शक्तिशाली राणाओं और गुजरात के समान हितों के सम्बन्धों का ज्ञात होना सम्भव हो तो हम यह • साबित कर सकते हैं कि बॅरिंगाजा ( Barygaza ) श्रौर नलकुण्डा ( Nalkunda) का व्यापार इतना महत्वपूर्ण था कि इन राजपूत राजाओं और रोम के बादशाह में सम्बन्ध स्थापित होना श्रावश्यक हो गया था । यदि इस प्रारम्भकाल का कोई ऐसा इतिहास प्राप्त हो जाय जिसमें तथ्यों की सत्यता एवं सम्भावना की मात्रा विद्यमान हो तो इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला जा सकता है, जो इस समय केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित है । पर्याप्त दृढ़ता के साथ हम यह प्रमाणित कर सकते हैं कि 'तत्कालीन राजपूत राजाओं में सबसे अधिक शक्तिशाली राणाओं के हित गुजरात से सम्बन्धित ही नहीं थे' वरन् उन्होंने (राणाओं के रूप में नहीं) वास्तव में, प्रथम बल्हरा राजाओं के रूप ' जैसे लारिस (Larice) 'लार का देश' (Lari-ca-Des) का संक्षिप्त रूप है उसी प्रकार 'सिर' भी राजनैतिक अथवा भौगोलिक सीमा के लिए प्रयुक्त साधारण शब्द है और 'सिर का हिन्द' अर्थात् हिन्द ( भारत ) का सिर (सीमा) का छोटा रूप सिर का (Sirica) हो सकता है । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STER अणहिलवाड़ा पत्तन TYPITH पश्चिमी भारत की यात्रा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; अहिलवाड़ा का व्यापार [ २३३ में द्वितीय शताब्दी में कनकसेन से लेकर पांचवीं शताब्दी में शीलादित्य के समय तक, जब कि इण्डोसीथिक आक्रमणकारियों द्वारा वलभी का नाश हुआ, गुजरात में राज्य किया था। मैंने अन्यत्र अपना मत प्रकट किया है कि भारत की एक अति प्राचीन और शक्तिशाली जाति परमार है, जिसको पँवार बोलते हैं (उज्जैन और धार के पूर्वकालीन राजा)। इस जाति के नाम के कारण उसका अपभ्रष्ट रूप एक व्यक्तिवाचक नाम बन गया जिससे प्रागस्टस (Augustus) से पत्रव्यवहार करने वाले (इस वंश के) राजा और सिकन्दर के विरोधी राजा दोनों के नामों में भ्रम उत्पन्न हो गया है । मैं यह भी सिद्ध कर सकता हूँ कि राणा का सर्वोच्च पद उज्जैन के इसी वंश से सम्बन्धित था और थार-स्थित उमरकोट का पदच्युत सोढ़ा-जातीय राजा अब भी इसको धारण करता है । यह परमारों का एक विशेष उप-जिला था, जो किसी समय सतलज से समुद्रपर्यन्त पश्चिमी भारत के एकाधिकारी शासक थे । मेवाड़ के प्राचीन राजाओं का पद 'रावल' था; बाद में जब तेरहवीं शताब्दी में मरदेश की राजधानी मण्डोर पर विजय प्राप्त की तो उन्होंने 'राणा' पद ग्रहण कर लिया। दूसरी शताब्दी में एरिअन (Arrian) द्वारा वर्णित लाल-समुद्र के बन्दरगाहों के लिए धनवृद्धि के साधनभूत बल्हरों की राजधानी से, जिस पर बॅरिगाज़ा (Barygaza) की स्थिति निर्भर थी, व्यापार की आगे तुलना करना अनावश्यक है; और इससे भी कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता कि राजधानी अणहिलवाड़ा थी अथवा सूरोई (Suroi) प्रायद्वीप के समुद्रीय तट पर लार देश में स्थित देवपट्टन, क्योंकि राजवंश एक ही था। 'गुजरात में बल्हरा नाम से नहरवाला राजधानी में राज्य करने वाले सम्राट्, उनके विशाल राज्य, धन और सभा-वैभव का' विस्तार सहित जो वर्णन अरब यात्रियों ने किया है वह ठोक ही है; परन्तु, हम फिर कहेंगे कि यह व्यवसाय-केन्द्र इस (राज्य) के संस्थापक की कृति नहीं कहा जा सकता वरन् इसकी अन्तःस्थलीय स्थिति इस बात का दृढ़ प्रमाण उपस्थित करती है कि यह व्यापार बहुत प्राचीन काल से चला पा रहा था और उस प्रतिकूल अवस्था से भी सामान्य व्यापारिक यातायात में कोई अन्तर नहीं पाया, जिसके कारण यहाँ के बाजार समृद्धि से परिपूर्ण थे। इस विषय में मैं मसूदी (Masaudi) का एक महत्त्वपूर्ण उद्धरण उपस्थित करूँगा जो दशवीं सताब्दी में अणहिलवाड़ा आया था; यह उस समयं के आसपास की बात है जब कि यह राज्य चावड़ों से चालुक्यों के अधिकार में आ गया था। उसने भी अपने पूर्ववर्ती लेखकों द्वारा वर्णित 'बाल-का-रायों' के वैभव और तत्कालीन Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अहिलवाड़ा की बढ़ती हुई समृद्धि की सम्पुष्टि की है। वह इसका एक विलक्षरण कारण बताता है और वह है, हिन्दुओं की सहिष्णुता और मुसलिमों का सदाचार । " मुसलमानों की इज्जत बहुत थी; उनकी मसजिदें शहर में बनी हुई थीं, जहाँ दिन में पाँच बार नमाज पढ़ी जाती थी और वे (मेरे विचार से प्रणहिलवाड़ा के लोग ) अपनी प्रार्थनाओं में बल्हरों के दीर्घ जीवन की कामना करते थे ।" इसमें मूलराज के शासन के अन्तिम दिनों की ओर संकेत है, जो दशवीं शताब्दी के मध्य से अन्त तक के छत्तीस वर्षों का समय था । यद्यपि इसके थोड़े ही वर्षों बाद महमूद ने अपने बर्बर सैन्यदल के साथ ना कर इस देश को नष्टभ्रष्ट कर दिया था और नगरों की संपदा को समेट ले गया था जिससे कि गजनी' का वैभव बढ़ गया। फिर भी, अणहिलवाड़ा फोनिक्स (अपूर्व पौराणिक पक्षी) * के समान अपने भस्मावशेषों से पुनर्जीवित हो गया; और जब बारहवीं शताब्दी में सिद्धराज के राज्यकाल के अन्त और उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल के शासन काल के प्रारम्भ में अल इदरिसी यहाँ आया तो उसे उसी वैभव और अपार समृद्धि के दर्शन हुए, जिसका वर्णन उसके पूर्ववर्तियों ने प्राठवों, नवीं और दशवीं शताब्दियों में किया था । यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस समृद्धि का मूल केवल व्यापार-व्यवसाय पर ही निर्भर था, जिसके स्रोत अपनी विविधता और महत्ता के साथ-साथ इतने सुदृढ़ भी थे कि महमूद के आक्रमण जैसी अस्थायी विपत्तियाँ उनको छिन्न-भिन्न नहीं कर सकीं । श्रल-इदरिसी का एक रोचक अनुच्छेद हम यहाँ उद्धृत करेंगे - " राज्य ग्रहण की प्रथा वंशपरम्परागत नियम के अनुसार प्रचलित है । उस राजा की महान् शक्ति के कारण लोग उसे बल्हारा ( वलभी का राजा ) कहने लगे हैं जिसका तात्पर्य्यं उसके राजत्व और साम्राज्यशक्ति का द्योतक है । वह राजाओं का राजा ( राजाधिराज ) है । 'नहरोरा' नगर में मुसलमान व्यापारी बड़ी संख्या में व्यापार करने आते हैं ।" " 9 यवु (यादव) राजपूतों का कहना है कि इस नगर को उनके पूर्वज राजा गज ने बसाया था । (देखिए - राजस्थान का इतिहास, जि० २, पृ०१२२) २ कहते हैं कि यह पक्षी तेरह हज़ार वर्षों के लगभग जीवित रहता है, फिर अपने घोंसले में अपने प्राप जल मरता है । उसकी भस्म से एक नया फोनिक्स उत्पन्न हो जाता है । Regnum hoc hereditario jure possidetur a regibus suis, qui omens uno invariabli nominee vocantur Balhara, quod significat Rex Regum.Ad urben Narhroara multi se conferunt mercatores Moslemanni ad negotiandum. ( चालू ) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्याय - १०; हिन्दुओं को सहिष्णुता [ २३५ और आगे उसने कहा है कि पूर्व-कथनानुसार बुद्ध का पूजन ही उस समय का प्रचलित धर्म था। इस सहिष्णुता के कारण व्यापारी मुसलमानों का राजधानी में प्रवेश होने के अतिरिक्त और भी परिणाम निकला; प्रायद्वीप के मध्य में जूनागढ़ का किला एक मुसलमान जागीरदार के अधिकार में था और जहाजी बेड़े की कमान एक हरमज़ (Hormus) निवासी के हाथ में थी। भविष्य में, इसी सहिष्णुता के वे विनाशकारी परिणाम भी निकले जिनका वर्णन किया जा चुका है। - ऊपर लिखे वृत्तान्त के आधार पर हम यहाँ एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालते हैं जिसका यथास्थान प्रयोग हम उस समय करेंगे 'जब सौरों के प्रायद्वीप' में आगे चल कर यहां के धर्म, जातियों और चट्टानों पर उत्कीर्ण विचित्र अक्षरों के विषय में मन्तव्य प्रकट करने का अवसर पाएगा । वह निष्कर्ष यह है कि पश्चिमी भारत के राजपूत राजाओं और अरब, मिस्र तथा लाल-समुद्र के तटों के बीच ईसा से बहुत पूर्व ही विपुल व्यापार का सम्बन्ध स्थापित हो चुका था; और ईसवीय दूसरी शताब्दी में बल्हरों के चौरासी बन्दरगाहों में बसने वाले ग्रीक और रोमन आढ़तियों की साक्षी से हम स्वतन्त्रतापूर्वक इस बात पर विश्वास कर सकते हैं कि रोमन लोग चार लाख पाउण्ड जितना धन प्रतिवर्ष अपनी पूंजी के रूप में भारत को देते थे और टॉलमियों' (Ptolemies) के राज्यकाल में एक सौ पच्चीस भारतीय जहाजों के बेड़े एक बार में म्यूस (Myus), हरमस (Hormus) और बेरीनीस (Berenice) के बन्दरगाहों पर पड़े रहते थे; ये ही वे बन्दरगाह थे, जहाँ से मिस्र, सीरिया और रोम के प्रधान नगर में भी भारतीय पदार्थ पहुँचते थे और यहीं से मलाबार की कालीमिर्च सॅक्सन सप्त-राज्य (Sexon Heptarchy) • के समय में उस पादरी की गुफा में पहुंच पाई थी। इन पंक्तियों का अंग्रेजी रूपान्तर मेरे लिए श्रद्धेय डॉ. परमात्मा-शरणजी, दिल्ली विश्वविद्यालय, ने किया तदर्थ उनका आभारी हूं। उसी के आधार पर प्रानुमानिक अनुवाद ऊपर दिया गया है। 'मिस्र का राजवंश (ई० पू० ३२५ से ४० ई० तक) + ४४६ ई० से हवीं शताब्दी तक का समय । इस बीच में इंगलैण्ड सात राज्यों में विभक्त रहा था। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ११ अहिलवाड़ा के भग्नावशेष ; उनका द्रुतगति से गायब होना; स्थापत्य के केवल चार नमूने; सारासेनिक (Saracenic) मेहराब के नमूने ; इसका आविष्कार; हिन्दू-अणहिलवाड़ा के अवशेषों का अहमदाबाद और आधुनिक पाटण के निर्माण में उपयोग; नए नगर में प्राचीनताएं; शिलालेखों और ग्रंयभण्डार को मुसलमानों से रक्षा; जनों की खरतर-शाखा की सम्पत्ति, ग्रन्थालय के ग्रंथ और विस्तार; जैनों के अन्य ग्रंथ-भंडार, जिनकी खोज नहीं हुई; वंशराज-चरित्र । जिसका धार्मिक ग्रन्थों की भविष्यवाणी में विश्वास न झे ऐसा मनुष्य जब बल्हरों की इस एकदा गौरवमयी राजधानी में जायगा तो वहाँ उसे अतीत के इस विशाल नगर में, जहाँ 'चौरासी चौपड़ें और चौरासी बाजार थे', यह देखने को मिलेगा कि कैसी सुगमता से इतनी बड़ी बड़ी राजधानियाँ खड़ी की जाती थीं और उसी तरह नष्ट करके छोड़ दी जाती थीं। उस (दर्शक) को वहाँ के 'सोज़रों' (राजाओं) के प्रासादों को घेरने वाले परकोटे की ऊंची-ऊंची दीवारों के ही अवशेष दिखाई देंगे; दूसरी इमारतों की दीवारों का तो 'बैबिलोन'२ की दीवारों की तरह यह हाल है कि एक पत्थर पर दूसरा पत्थर भी न मिलेगा। पूर्व के देशों में जब बरबादी शुरू होती है तो वहाँ पर धार्मिक भवनों, मन्दिरों, बावड़ियों और पानी के टांकों के अतिरिक्त कुछ नहीं बच रहता।। वहाँ जाते ही नगर के मुख्य द्वार के पास नीचे बने हुए काली के मन्दिर से देखने पर जो पहली वस्तु दृष्टि को प्राप्ति करती है वह 'काली कोट' अथवा अन्तरंग नगर का अवशेष है, जिसमें दो मज़बूत बुर्जे बनी हुई हैं; वे काली की छतरियाँ कहलाती हैं । इन छतरियों पर से उस परकोटे पर दृष्टि दौड़ाई जा सकती है, जो एक भोंडे से द्वि-समानान्तर चतुर्भुज के रूप में लगभग पाँच मील के गिरदाव में फैला हया है। इसके बाहर चारों ओर मुख्यतः पूर्व और दक्षिण में उप-नगर बसे हुए थे जिनकी सुरक्षा के लिए बाहरी परकोटा बना होगा। वहाँ के दृश्य का अनुमान नीचे दिए हुए अधूरे से खाके से लगाया जा सकता है। १ रूस के बादशाहों । २ एशिया के सुप्रसिद्ध बॅबिलोनिया साम्राज्य का युफ्राटीस नदी पर स्थित नगर । सिकन्दर की मृत्यु यहीं हुई थी। बाद में यह नष्ट हो गया। इसके अवशेषों की खुदाई निरन्तर हो रही है। --N.S.E. Pp98-99 | Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ११, अहिलवाड़ा के भग्नावशेष [२३७ अहिलवाड़ा पर राज्य करने वाले तीनों राजवंशों के अब केवल तीन ही स्मारक अवशिष्ट हैं; परन्तु, 'चरित्र' और अनुश्रुतियों के आधार पर इस राज्य के भूतपूर्व गौरव के पर्याप्त प्रमाण मिल जाते हैं। प्रथम, काली की छतरियाँ; द्वितीय, सिद्धराज के प्राचीन महलों के अवशेष ; तृतीय, चौरासी बाज़ारों में से एक घी की मण्डी के खण्डहर, जो छतरियों से चार मील दूर हैं, और अंतिम परन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण, अहिलवाड़ा के खण्डहर, जो कालीकोट-द्वार से दो कोस अथवा तीन मील की दूरी पर हैं । इस शोध के पश्चात कई वर्षों की चिन्ता दूर हुई; यहीं पर वंशराज [वनराज] के प्रथम नगर की स्थिति थी, जैसा कि अब भी यहाँ के लोग कहते हैं; परन्तु, कुछ ही वर्षों बाद यह अतीत की वस्तुओं में गिना जायगा । कालीकोट को नष्ट करने में काल ने अथवा तुर्कों ने जो कुछ किया उससे भी अधिक नष्ट करने का दायित्व दामाजी गायकवाड़ का है; परन्तु, इसमें सन्देह भी हो सकता है क्योंकि यह सब जानते हैं कि खुन के प्यासे अल्ला' ने दीवारों को तोड़ कर ही दम नहीं ले लिया था वरन् मन्दिरों को बहुत-सा भाग नीवों में गड़वा दिया, महल खड़े किये और अपनी विजय के अन्तिम चिह्नस्वरूप उन स्थलों पर गधों से हल चलवा दिया, जहाँ वे मन्दिर खड़े थे। अब, सब वीरान है और केवल रेत में पनपनेवाला सदा-हरा पीलू ही बल्हरों के अवशेषों की शोभा बढ़ा रहा है । काली-कोट आस-पास के प्रदेश से बहुत ऊँचा खड़ा किया गया था। आजकल जिसको सिद्धराज के महल का खण्डहर कहा जाता है वह एक कृत्रिम ' अल्लाउद्दीन । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] पश्चिमी भारत की यात्रा सरोवर के बीच में खड़ा है परन्तु इसकी गहराई अब नाम मात्र की है। यहीं पर एक विशाल जलाशय (बावड़ी) के भी अवशेष हैं, जिसकी सामग्री से आधुनिक पट्टण' में एक नई बावड़ी बन गई है। इसी के साथ एक छोटी बावड़ी भी है, जो 'स्याही का कुण्ड' कहलाती है। लोगों का कहना है कि इसमें, हेमाचार्य के शिष्य उनके सूत्रों को लिखते समय अपनी कलम डुबोते थे। काली की छतरियों से कोई डेढ़ सौ गज की दूरी पर एक विशाल दरवाजे की मेहराब (तोरण) का ढांचा खड़ा है। यदि इस शोभमान अवशेष से अनुमान लगाया जाय कि अणहिल का नगर 'वाडा' कैसा था तो स्थापत्य-सम्बन्धी एक बड़ी गुत्थी तुरन्त ही सुलझ जाती है, क्योंकि सारसेनिक (Saracenic) कहलाने वाली मेहराबों के जितने ढाँचे मैंने देखे हैं उनमें यह सबसे अधिक सुन्दर है, और यदि हम यह प्रमाणित कर सकें कि इसका उद्गम हिन्दू है तो हमें इसमें अलहम्बा की मेहराबों एवं गॉथिक कहलाने वाली उस बहुविध नुकोली शैली के मूल रूप का पता चल जायगा, जिससे योरप भरा पड़ा है। यदि वास्तव में यह दरवाज़ा वंशराज द्वारा ७४६ ई० में बनवाए हुए परकोटे का ही भाग है तो यह ग्रेनाड़ा-राज्य में हारूं द्वारा बनवाए हुए सर्वश्रेष्ठ 'अलहम्बा भवन' के निर्माण-समय के आसपास का बना हुआ होना चाहिए। मैं अपना.यह मन्तव्य पहले ही प्रकट कर चुका हूँ कि यद्यपि चावड़ा राजा ने इन्हीं दिनों अपना वंश (राज्य) स्थापित कर लिया था परन्तु यह नितान्त असम्भव है कि इस नगर का इतना विस्तार और गौरव-प्रसार उसी के समय में हो गया होगा। हम यह अनुमान कर सकते हैं कि जब वंशराज को, उसके कुटुम्बियों की समुद्री-लुटारूपन की आदतों के कारण, देव-बन्दर से निकाल दिया गया था तो वह किसी दूसरी राजधानी में जा बसा अथवा किसी अधिक प्राचीन राजवंश का उत्तराधिकारी बन गया। हम जानते हैं कि बगदाद के खलीफों को, जिन्होंने स्थलीय महान् विजय प्राप्त करने के साथ-साथ समुद्री साम्राज्य भी काफी बढा लिया था, भारत के साथ लम्बे व्यापारिक सम्बन्धों के कारण महान समद्धि विरासत के रूप में मिली थी और वे जिस देश पर विजय करके उसे अधिकृत कर लेते थे वहाँ की मूल्यवान् कला और विज्ञान का तुरन्त १ यहां पर दिया हुमा छापा श्री प्रार्थर मैलट (Mr. Arthur Malet) के रेखा-चित्र का है जिसका विवरण यों दिया है--पट्टण के प्राचीन किले की बावड़ी के खंडहर । सीढ़ियां और सुरंगें गिर गई है; केवल दीवार का एक हिस्सा बचा है, जो सुन्दर बना हुमा है; मुसलमान संभवतः इसके पत्थर किसी हिन्दू-मन्दिर से लाए थे क्योंकि इन पर मूर्तियां भी बनी हुई है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण – ११; मेहराब के नमूने [ २३६ राष्ट्रीयकरण कर लेते थे। मैंने अन्यत्र' यह भी प्रकट किया है कि पाठवीं शताब्दी में ही इसलाम के बाजू सिन्ध और एब्रो (Ebro) तक फैल चुके थे; परन्तु अरबों ने यह मेहराब काटना या तोरण बनाना सीखा कहाँ से ? स्पेन में विसिगॉय' (Visigoth) से नहीं और न प्राचीन ग्रोक और पारसी मठोठदार इमारतों से; न रेगिस्तान में टेडमोर (Tadmor)" से, न पर्सीपोलिस (Persepolis)* से, न हारू से, न हालिब (Haleb) से। तब क्या उन्होंने ही इसका आविष्कार किया और योरप भर में प्रचार कर दिया अथवा उन्होंने हिन्दू-शिल्पियों से इसका ज्ञान प्राप्त किया जिनका विविग्रस (Vitruvius)' उस समय भी विद्यमान था जब कि उनके रोम्युलस (Romulus) का जन्म भी नहीं हुआ था ? एक बात पक्की है, जिसका हमें पूर्ण विश्वास है और वह यह कि इस मेहराब को बनाने वाला कारीगर हिन्दू था और इसके सभी अलङ्करण विशुद्ध हिन्दू हैं; यदि अरबों का इससे कोई सम्बन्ध है भी तो वह प्रकार मात्र का है। परन्तु, क्या सम्भावना-मात्र पर हम इतना विश्वास कर लें? हम जानते हैं कि मुसलमानों ने पाटण पर कभी राज्य नहीं किया ? जब टॉक जाति ने गुजरात पर अधिकार पाया तो उन्होंने तुरन्त हो राजधानी को स्थानान्तरित कर दिया था। ' देखिए 'राजस्थान का इतिहास' जि. १., पृ. २४३ । २ स्पेन की ३४० मील लम्बी नदी। पूर्वीय शाखा की जर्मन (ट्य टॉनिक) जाति जो अब निःशेष हो गई। * इसका ग्रीकनाम पामीरा (Palmyra) है। यह नगर सीरिया रेगिस्तान के मध्य में स्थित है । वहाँ एक सूर्य-मन्दिर भी है । इसका 'टॅडमोर' नाम मोल्ड 'टेस्टामेण्ट' में मिलता है। ५ पारसी साम्राज्य की प्राचीन राजधानी जो प्राधुनिक सीराज के समीप थी । इस नगर को थाया (Thais) नाम की गणिका के कहने से नशे की झोंक में सिकन्दर ने नष्ट कर दिया था। अनातोले फ्रांस ने सम्भवतः इसी थाया को अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'थाया' में चित्रित किया है। ___ इस घटना का उल्लेख ड्राइडॅन (Dryden) के गीत-मुक्तक 'Alexander's feast' में भी हुआ है। The Oxford Companion to English Literature -Harvey; pp. 299, 608, 778. सुप्रसिद्ध पोलेण्ड के बादशाह मॉगस्टस (1670 - 1733 A.D.) का शिल्पकार और ___ 'de Architectura' का कर्ता। ७ रेमस (Remus) भोर रोम्यूलस दोनों भाई रोम के संस्थापक थे। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] पश्चिमी भारत की यात्रा और, यह भी किसी प्रकार सम्भव नहीं है कि जब मजहब के दीवाने 'अल्ला' ने एक बार इसके मन्दिरों और दीवारों को बरबाद कर दिया तो फिर किसी मुसलमान बादशाह ने हिन्दुओं के रहने के लिए इसका पुननिर्माण कराया हो। इस स्थापत्य का प्रकार 'अल्ला' से पहले गोरी वंश के समय का होने के कारण बहुत पुराना है। बाद में, इसमें धीरे धीरे कोमलता आती गई और अन्त में बेल-बूटे एवं फूल-पत्तियों की सजावट साज-सज्जा तथा मुगलों की स्त्रैण किन्तु अाकर्षक विशिष्टता का समावेश भी इसमें हो गया । नुकीली शैली के विभिन्न प्रकारों का भेद ज्ञात कर लेना योरप में बहुत आसान है परन्तु अरबों द्वारा पश्चिम में जीते हुए देशों में इण्डो-सारसेनिक (शुद्ध सारसेनिक प्रणाली से भेद करने के निमित्त इस शब्द के प्रयोग की हमें छूट दी जावे) प्रणाली में इन प्रकारों का भेद ज्ञात करना इसकी अपेक्षा कटिन है क्योंकि उन्होंने (अरबों ने) अथवा उनके अनुवत्तियों ने प्रत्येक धार्मिक इमारत को नष्ट कर दिया या इसलाम के इबादतखाने में बदल लिया, और इस प्रकार जानने का कोई चारा न रहा कि विशुद्ध हिन्दू प्रकार क्या था ? यदि कोई कलाकार अथवा गवेषक पुरानी दिल्ली जाये और कुछ महीनों तक विभिन्न राजवंशों के समय में बनी हुई टूटी-फूटी इमारतों के अपार ढेरों में रहे तो उन गम्बदों को बनावट को देख कर वह इनके भेद को इतिहास के पन्नों की अपेक्षा अधिक शुद्धता से जान सकेगा क्योंकि इनमें से प्रत्येक का प्रकार उन सभी शैलियों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट है, जिनको (पुस्तकों में ?) हमने गॉथिक बाइजेंन्टाइन या तेदेस्के (Tedesquc) सारसेनिक और सॅक्सन आदि कह कर विभक्त किया है। मैं समझता हूँ, प्रोजो (Ogee)' या सिकुड़ी हुई मेहराब को हम हिन्दुनों द्वारा आविष्कृत मान सकते हैं क्योंकि उनके सभी वैवाहिक अथवा विजय-काल के साधारण से साधारण तोरणों की बनावट इसी प्रकार की है और घोड़े की नाल जैसी नुकीली मेहराब, जिसको सारसेनिक कहना गलत न होगा, इसी का परिशोधित रूप हो सकता है। ज्योतिष को ऊँची से ऊँची गति, बीज-गणित और सूक्ष्मतम आध्यात्मिक विषय की सभी गुत्थियों को सुलझाने में जिन समृद्ध और वैज्ञानिक हिन्दुओं के अनुसंधान एक ऐसे स्थल पर विद्यमान हैं कि जिसके मूल में कोई विवाद नहीं है उन्हीं के विषय में, जंगली और • इस प्रकार' का नाम 'प्रो-जी' इसकी प्राकृति के कारण पड़ा है जो ऐसा होता है जैसे 'G' अक्षर पर '0' रख दिया गया हो। प्राचीन पाण्डुलिपियों में इसे Ressaunt (रेसाँ) कहा गया है ।--E.B. Vol: I; p. 468 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा अणहिलवाड़ा पाटण की एक वापिका Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्रकरण [ २४१ (Bedouin) की अपेक्षा, इसके आविष्कारक होने की घुमक्कड़ बेडोइन बहुत अधिक सम्भावना है। · ११; भारतीय स्थापत्य # अहिलवाड़ा के तोरण को काल और गायकवाड़ के लिए छोड़ने से पहले हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि सर्वसंहारी विध्वंसों में वह बच कैसे गया ? विशुद्ध हिन्दू कंगूरों और व्यूह-रचना-सदृश परकोटे से युक्त उसकी एकांत छतरियां हिन्दू और तुर्क दोनों ही से अछूती रह गई इसका और कोई अभिप्राय हमारी समझ में नहीं आता - वह एक मात्र इसका अत्यधिक सौन्दर्य ही हो सकता है । मैं पहले ही कह चुका हूँ कि नीचे से ऊपर तक इस ढाँचे की पसलियाँ [ईंटें ? ] मात्र बच रही हैं, जिन पर ( चूने का ) किचित् भी लगाव नहीं रहा है; ये पसलियाँ जिन चौकोर खम्भों के सहारे टिकी हुई हैं उनको सीध में कोई अन्तर नहीं आया है और वे चुनावट के साथ वैसे ही पच्ची हो रहे हैं जैसे उस दिन थे जब खड़े किए गए थे । वे खम्भे सादा और तोरण के अनुरूप बने हुए हैं; उनका शिरोभाग विशुद्ध हिन्दू ढंग का है और साँकलों के गजरों से मण्डित है, जिनके बीच-बीच में जंजीर से वीरघण्ट अथवा युद्ध-घण्ट वैसे ही लटका हुआ है जैसे बाड़ौलो ( Barolli ) के खम्भों में है; यह वीरघण्ट जैनों (बल्हारा भी इसी मत के थे) के स्तम्भ निर्माण की बहुत प्राचीन एवं सामान्य सजावट का अंग है । तोरण के वृत्त खण्ड के मध्य में दोनों ओर कमल है । यहाँ पर यह भी बतला देना उचित होगा कि अहमदा बाद की बहुत सी प्रसिद्ध मसजिदों में भी इसी प्रकार की सजावट है । इससे यही सिद्ध होता है कि चन्द्रावती और अणहिलवाड़ा के अवशेषों से अहमद का नया नगर निर्माण करते समय मुसलमान लोग अपने प्रयोजन की सभी सामग्री इन नगरों में से ले गए थे । મ I मुझे इसका कारण ज्ञात न हो सका कि यहाँ के लोग तोरण से दक्षिण की और तीन मील तक के खण्डहरों का ही 'अन्हरवारा' नाम (जैसा कि वे बोलते हैं क्यों सीमित कर देते हैं ? यद्यपि अरब के जहाजियों के नाम पर बने हुए अथवा तगर (Tagara ) के बैंगनी सामान के चौक की तलाश अधिक सर्व • खानाबदोश और डेरे तम्बुओंों में रहने वाला अरब । अरब की एक घुमक्कड़ जाति, जो भेड़ें चरा कर जीवन निर्वाह करती थी । इन लोगों ने वीरे-धीरे अपना प्रभाव बढ़ा कर 'संगे-मूसा' वाले तीर्थ-स्थान पर भी अधिकार कर लिया था । 'The Outline of History ' --H.G. Wells, pp. 595-96 देखिये 'राजस्थान का इतिहास' जि. २, पु, ७१० । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा श्रानन्द-दायक होती, परंतु घी की मण्डी देख कर ही मुझे संतोष हो गया क्योंकि इससे 'चरित्र' के इस कथन का पुष्ट प्रमाण मिल गया कि प्रत्येक पदार्थ के व्यापार के लिए पृथक् मण्डी बनी हुई थी । मुझे इस बात पर श्राश्चर्य होता है कि यह नगर सरस्वती नदी के किनारे नहीं बसा था, जो अब इससे कुछ ही दूरी पर है; परन्तु मेरा तो दृढता के साथ यह कहने को मन होता है कि कम से कम उत्तर-पूर्व में तो इसका प्रसार नदी तक था ही, और आधुनिक पाटण का उससे भी अधिक भाग इसके अंतर्गत था जितना कि गायकवाड़ के अनुवर्ती श्राज स्वीकार करना चाहते हैं । इस मत की ओर मेरा झुकाव कुछ तो नए नगर के परकोटे के भीतर के मन्दिरों को देख कर होता है और कुछ वहीं पर एक विशाल सरोवर के कारण जो अब भी बहुत अच्छी तरह सुरक्षित है और जिसकी खुदाई नगर से लगभग तीन मील की दूरी पर असम्भव हो जाती है । यहीं पर अहमदाबाद की तरफ एक और तालाब है, जो इससे भी अधिक सुन्दर है । यह मानसरोवर कहलाता है और अब बिलकुल सूखा पड़ा है। इसके विषय में एक कहानी है कि इसको एक ग्रोड अथवा ईंट बनाने वाले ने बनाया था; जैसे ही यह बन कर तैयार हुआ उसमें और उसकी स्त्री में झगड़ा हो गया । स्त्री ने उसको शाप दे दिया जिसके कारण पानी जैसे बहकर आया था उसी तेजी से रिस-रिस कर निकल गया। जिन पाठकों ने मेरे पूर्व ग्रन्थ में गोता लगाया है उनको झालरापाटण के एक ऐसे हो सुन्दर तालाब की कथा याद आई होगी, जो भी एक प्रोड की ही कृति है । वास्तव में बात यह है कि प्रोड या ओड़ शब्द यद्यपि ईंटें बनाने वाली जाति का ही द्योतक है, जैसे कुम्हार बर्तन बनाने वाली जाति का, परन्तु, प्राचीन काल में इस नाम की एक शक्तिशाली जाति थी । ओड़ीसा ( Orissa ) के राजा इसी जाति के थे जिनके शिलालेख भी वैसे ही अस्पष्ट अक्षरों में पाए जाते हैं जैसे इस प्रदेश में, जो हमारे वर्णन का विषय बना हुआ है । कालिका अथवा काली की छतरी के चबूतरे पर से ये सभी स्थान साफ़ दिखाई देते हैं; इनके चारों ओर का विरल वृक्षावली वाला मैदान धीरे धीरे लहराता हुआ सा प्रतीत होता । यह दृश्य सुदूर क्षितिज द्वारा परिसीमित है । दक्षिण की थोर जंगल घना और अधिक है, जो एकाकिनी समतलता से उत्पन्न हुई अरुचि को दूर करता है । आगे चलकर श्राबू को लघु-श्रेणियां भी इस कार्य में सहायक बन जाती हैं जिनकी काली चोटियां छत्रायमान स्वच्छ नील श्राकाश से स्पष्ट ही भिन्न प्रतीत होती हैं । सम्भवतः अरण हिलवाड़ा के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री इन्हीं पहाड़ों से प्राप्त हुई थी Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ११, प्राचीन खण्डहर [२४३ प्राधुनिक पट्टण का आधा परकोटा तो प्राचीन नगर से प्राप्त प्रस्तर-खण्डों से बना हुआ है और शेष कार्य को पूरा करने में, दामाजी की इस नगर का संस्थापक कहलाने की महत्वाकांक्षा के कारण, बल्हरों के प्रासादों, जलाशयों और मन्दिरों से जो कुछ मसाला मिला वह बिना सोचे-समझे लगा दिया गया है। साधारण-सा निरीक्षण करने के बाद ही मेरी यह निश्चित धारणा बन गई कि यदि वेशभूषा और लेखों का अध्ययन करने के लिए इन उत्कीर्ण प्रस्तर-खण्डों में खोज की जाए तो समय और परिश्रम कदापि व्यर्थ नहीं जा सकता।' इन प्रस्तर-खण्डों से बनी सदृढ नींव पर खड़ी हुई ईंटों की दोवार अदरख की रोटी जैसी अलग ही दिखाई पड़ती है और इस बात का प्रमाण उपस्थित करती है कि संस्थापक गायकवाड़ में राजपूत देव-पर्वत (Olympus) पर अनलकुण्ड से आविर्भूत जातियों के विशुद्ध देव-रक्त (Tutonic) का कोई अंश नहीं था। मैं यह कहना भूल गया था कि कालिका की छतरियां ईंटों की बनी हुई हैं, परन्तु मैंने यह नहीं देखा कि इनकी नींव भी पत्थर की है या क्या ? फिर भी, यही अधिक सम्भव है कि वे पत्थरों से ही भरी गई हैं क्योंकि इन बालकामय क्षेत्रों में क्षारीय अंश बहुत होता है, जो ईंटों को धीरे-धीरे नष्ट करके नींवों को खोखली कर देता है अतः यह प्रावश्यक है कि नींवें पत्थरों से ही भरी जावें। वास्तव में, जिन नगरों की इमारतें और दीवारें ईंटों से बनी हुई हैं उनके प्रकार को देख कर उन सभी के निर्माण का समय ज्ञात कर लेना सम्भव हो जायगा। प्रागरा शहर और इसकी दीवारें इस विषय में उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, क्योंकि दो शताब्दी से कुछ ही अधिक प्राचीन होने पर भी किसी एक दीवार की भो नींव साबत नहीं है। अपनी अपनी शीघ्र नष्ट होने वाली सामग्री के अनसार प्रत्येक दीवार की सतह टूट-फूट कर धरातल के समीप आ गई है और एक क्षीयमाण ध्वंस मुख श्रेणी का दृश्य उपस्थित करती हुई यह बतलाती है, जैसा कि हिन्दू लोग कहा करते हैं, कि प्रकृति और कला में निरन्तर युद्ध चलता रहता है । काली अथवा 'नाश की देवी' के मन्दिर में और कोई उल्लेख ' मध्य भारत में एक हूण राजा के राज-चिन्हों की महत्त्वपूर्ण खोज के बारे में मैं अन्यत्र कह चुका हूं; यह खोज भैंसरोड़ को दीवारों परिश्रमपूर्ण अध्ययन के प्राधार पर की गई है, जो हिन्दुओं को अन्य इमारतों और नगरों की भांति तोड़ी-फोड़ी जाकर पनः बनाई गई हैं। २ 'बाल' Sand के लिए हिन्दू शब्द है; 'बालू का देश' बालुकामय प्रदेश हुना। ऐसा प्रतीत होता है कि इसी प्राधार पर उत्तरीय प्रागन्तुक जातियों के 'तत्त मुलतान का राय, ने इन क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करके यहां बस जाने पर बल्ल' उपाधि ग्रहण करली होगी। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] - पश्चिमी भारत की यात्रा योग्य बात नहीं है, केवल उसकी शक्ति के स्मारक कुछ प्राचीन प्रस्तर-मूर्तियों के टुकड़े मन्दिर के आस-पास पड़े हुए हैं। इसके पास ही वह तालाब है जो हेमाचार्य के 'मसिपात्र' के रूप में प्रयुक्त हुआ था। ऐसी बात नहीं है कि नए नगर में कोई आकर्षण को वस्तु हो न हो; यहां पर दो चीजें ऐसी हैं जो विशेष समादरणीय हैं; एक, अणहिलवाड़ा के संस्थापक वंशराज की मूर्ति और दूसरी जैनों का 'पोथी-भण्डार'। सफेद पत्थर से बनी हई वह मति .पार्श्व (नाथ) के मन्दिर में रखी हुई है और लगभग साढे तीन फीट ऊँची है । एक और छोटी मूर्ति इसके दाहिने हाथ की ओर रखी हुई है और वह वंशराज के प्रधान-मंत्री की बताई जाती है, परन्तु यह अधिक सम्भव है कि वह उसके संरक्षक आचार्य को प्रतिमा हो । दोनों ही मूर्तियों के साथ एकएक शिलालेख लगा हुआ है, जिनसे स्पष्टतः दूसरी मूर्तियों के स्थान का सूचन होता है जिनको महान् मूर्तिभञ्जक अल्ला [उद्दीन] ने नष्ट कर दिया था और उसका नाम भी इन पर खुदा हुआ है 'महाराज श्री खूनी आलम मोहम्मद पादशाह-उसका पुत्र (अथवा उत्तराधिकारी) श्री आलम फीरोज़ जिनकी कृपा से कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा, वृश्पतवार, इत्यादि । _ 'सान्देरा गच्छ के शीलगुण सूरि पंचासर के वन में मुहूर्त देखने गए थे। एक महुवा-वृक्ष के नीचे लटकते हुए झूले में उन्होंने पेड़ की छाया में एक नवजात शिशु को देखा; वह छाया स्थिर थी, इससे शीलगुण सूरि को उस शिशु के महान् भविष्य का ज्ञान हुआ । उसकी माता-सहित वे उसको अपने साथ ले गए और अपने सेवकों से उनका पालन-पोषण करने की अभिलाषा प्रकट की; उन्होंने ऐसा ही किया भी। वन में जन्म होने के कारण उस बालक का नाम वंश (वन ?) राज रखा गया और संवत् ८०२ में उसी ने अणहिलवाड़ा के परकोटे की दीवार खिंचवाई तथा देवीचन्द्र सूरि आचार्य ने अल्लेश्वर' महादेव की प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई।' दूसरा लेख इस प्रकार है-"संवत् १३५२ [१२९६ ई०] शुक्रवार, ६ वैशाख मास । वह, जिसका निवास पूर्व में है, जिसकी जाति मोर है, केलण का ' एक नया नाम, सम्भवतः 'मालय' अर्थात निवासस्थान । ___ यह भी सम्भव है कि अल्लाउद्दीन को प्रसन्न करने के लिए उसकी स्मृति रक्षित करने हेतु 'मल्लेश्वर' नाम रख दिया हो। प्रायः ऐमा चलन है कि मन्दिर का निर्माता अपना या जिसके निमित्त मन्दिर बनाया जाता है उसके लघु नाम के साथ 'ईश्वर' शब्द जोड़ कर उस शिव मूर्ति को प्रसिद्ध करता है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण . ११; शिलालेख, कालीकोट [२४५ पुत्र नागेन्द्र जिसके पुत्र प्रसोरा (Asora) ने संसार में से धन का सार प्राप्त किया जिससे श्रीमान् महाराज वंशराज के मन्दिर में कीतिलता को विकसित करने के निमित्त उसके पुत्र अरिसिंह ने आशादेवी की मूर्ति प्रतिष्ठित की; प्रतिष्ठा की विधि शीलगुण सूरि प्राचार्य के पुत्र देवीचन्द्र सूरि ने सम्पन्न कराई।" ये शिलालेख या तो अणहिलवाड़ा के संस्थापन-समय के ही हैं अथवा उनकी प्रतिलिपियाँ हैं और इनमें से एक पर प्रारम्भ में कर अल्ला (उहीन) की प्रशस्ति तथा दूसरे में संवत् १३५२ का उल्लेख, जब उसने इस नगर को ध्वस्त किया था, केवल इसी बात का सूचन करते हैं कि वे उसकी प्रशंसा में अथवा उस विध्वंसक अत्याचारी से 'घणी खमा' की याचना के निमित्त लिखे गए होंगे। पहले शिलालेख में नगर के संस्थापक के असाधारण जन्म-सम्बन्धी कथा की रूपरेखा है जिसकी 'चरित्र' से पुष्टि होती है । दूसरे से एक महत्वपूर्ण तथ्य का ज्ञान होता है, वह यह कि उसमें देवत्व एवं अलौकिकता के गण विद्यमान थे । अस्तु, सम्भावना यही है कि यह मूर्ति उसके पूर्वजों के नाम पर बने हुए मन्दिर से प्राप्त की गई होगी, जो उस महा-संहार के समय 'ढाह' दिया गया था; अथवा यह भी हो सकता है कि उन्होंने उसके मन्दिर को ही पाव (नाथ) के मन्दिर में परिवर्तित कर दिया हो और इसी में इस पूर्व देशवासी भक्त ने अपनी रक्षिका प्राशा देवी को भी एक पाले (niche) में पधरा दिया हो। हम सहज ही में यह निर्णय नहीं कर सकते कि मोर जाति का यह वंश द्वितीय वर्ष में था या तृतीय में, अथवा ये लोग सैनिक (राजपूत) थे या व्यापारी (वैश्य), परन्तु साधारणतया राजपूत शत्रुओं से तलवार के बल पर प्राप्त की हुई धन-सम्पत्ति के अतिरिक्त ये और किसी प्रकार के धन की बात नहीं करते; अतएव ये लोग सम्भवत: राजपूतों की उस बड़ी खांप में होंगे जिन्होंने जैन-धर्म में परिवर्तित होकर इसके अहिंसक सिद्धान्तों के पालनार्थ शस्त्रों के व्यवसाय के स्थान पर व्यापार को अपना लिया था। परमारों और चौहानों, दोनों ही राजपूत-वंशों में मोर या मोरो नाम की उप-जाति होना पाया जाता है और 'पाशा' चौहानों की कुल देवी है; इसलिये यह धनी व्यक्ति इसी जाति का व्यापारी होगा, जो अपने व्यापार के प्रसंग में पश्चिमी भारत की बड़ी मण्डी से सम्बन्ध स्थापित करने पाया होगा। 'पूर्व' शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है परन्तु यह साधारणतया उस प्रान्त के लिए प्रयुक्त होता है जिसको हम मुख्य बंगाल कहते हैं और जो बनारस तक फैला हुआ है । यह व्यापारी उसी धनीधरा के 'कालीकोट' का निवासी होगा जिसे बिगाड़ कर हमने कलकत्ता कर दिया है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ । पश्चिमी भारत की यात्रा महान् आचार्य के इस राज-शिष्य के पूजा-सत्कार में अब भी आधुनिक पट्टण के निवासी जैनों की ओर से कोई कमी नहीं आई है; यद्यपि इस वंश के प्रथम और अन्तिम राजा पाट-परमार और धारावर्ष के समयों को भी इतना काल बीत चुका है कि यह देवोपम सत्कार अत्यन्त प्राचीन हो चुका होता, परन्तु फिर भी स्वयं पाव (नाथ) के चढ़ी हुई केसर चावड़ा राजा को अब भी प्राप्त होती है। ग्यारह सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी आज इस साधारण सी बात से हमें सौर वंशराज के जीवन की एक विवादहीन व्याख्या प्राप्त होती है, जिससे यह सिद्ध होता है कि उसके पूर्वज किसी भी धर्म के मानने वाले रहे हों, चाहे वे बाल-शिव के उपासक हों अथवा साधारण सूर्य-पूजक, परन्तु वह बुद्ध का अनुयायी हो गया था। उधर, सर्व-मान्य प्रथा के अनुसार नया नगर अपने नाम से न बसाने के कारण यह भी निष्कर्ष निकलता है कि इसका आदिसंस्थापक वह नहीं था। मैं यहां पर यह भी बता दूकि नवपुर अथवा नये नगर में और भी बहत से मन्दिर हैं-यद्यपि उनमें विशेष उल्लेख करने जैसी कोई बात नहीं है। दो मन्दिर रघुनाथजी के नाम पर हैं और वे कुम्हारों और सुनारों के बनवाए हुए हैं। तीर।, महालक्ष्मी अथवा धन की देवी का मन्दिर है जो बर (Burr) जाति के वैश्यों ने त्रिपोलिया नामक दरवाजे के पास बनवाया है। इसी जाति के लोगों ने एक और भी मन्दिर बनवाया है, जो गोवर्द्धननाथ अथवा हिन्दुओं के अपोलो [इन्द्र देवता ?] का है । गूजरी दरवाजे पर द्वार रक्षक हनुमान की मति है और एक अन्य द्वार पर सिद्ध भिक्षुत्रों के आराध्य सिद्धनाथ महादेव की मूर्ति विराजमान है। अब हम दूसरे उल्लेखनीय विषय पर आते हैं-वह है पोथी-भण्डार अथवा पुस्तकालय, जिसकी स्थिति, मैंने उसका निरीक्षण किया उस समय तक, बिलकुल अज्ञात थी। यह भण्डार नए नगर के उस भाग में तहखानों में स्थित है जिसको सही रूप में अणहिलवाड़ा का नाम प्राप्त हुआ है। इसकी स्थिति के कारण ही यह अल्ला [उद्दीन) की गिद्ध दृष्टि से बच कर रह गया अन्यथा उसने तो इस प्राचीन प्रावास में भी कुछ नष्ट कर दिया था। यह संग्रह खरतरगच्छ की सम्पत्ति है, जिसम आम्र पार हेम 'श्रीपूज' थे। इस खरतर अथवा रट्टर (Orthodox) (दीर्घकालीन आध्यात्मिक विषयों पर शास्त्रार्थ के पश्चात् सिद्धराज द्वारा प्रदान किया हुया पद) शाखा में उपासकों की संख्या अन्य गच्छों की अपेक्षा सब से अधिक है, जो गणना करने पर सिन्धु से कन्याकुमारी तक ग्यारह गौ शिष्यों से कम नहीं मिलेंगे। यद्यपि प्रत्येक खरतर-नामधारी Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण " प्रकरण- ११पाटण का ग्रन्थ-भण्डार [ २४७ जन-साधारण अथवा यति की सम्पत्ति ग्रन्थ-भण्डार में मौजूद है परन्तु यह नगर सेठ और सरपंच अथवा मुख्य न्यायाधीश तथा नगर पंचायत के कड़े नियन्त्रण के आधीन है और इसकी देखभाल का सीधा भार कुछ यतियों पर होता है, जो हेमाचार्य के प्राध्यात्मिक शिष्यों की परम्परा में होते हैं तथा उनमें से ज्येष्ठ को विद्वान् होने का भी गौरव प्राप्त होता है । मेरी यात्रा से कितने ही वर्षों पूर्व मुझे इस भण्डार की स्थिति का पता मेरे गुरुजी से लग चुका था और वे भी मेरे ही समान अपने संशय को दूर करने के लिए उत्सुक थे। निदान, वहाँ पहुंचते ही सब से पहले वे 'भण्डार की पूजा' करने के लिए जा पहुँचे । यद्यपि उनकी सम्मानपूर्ण उपस्थिति हो कुल्फ [मोहर] तोड़ने के लिए पर्याप्त थी परन्तु नगर-सेठ के आज्ञा-पत्र बिना कुछ नहीं हो सकता था। पञ्चायत बुलाई गई और उसके समक्ष मेरे यति ने अपनी पत्रावली अथवा हेमाचार्य की आध्यात्मिक शिष्य-परम्परा में होने का वंशवृक्ष उपस्थित किया, जिसको देखते ही उन लोगों पर जादू का सा असर हुप्रा और उन्होंने गुरुजी को तहखाने में उतर कर युगोंपुराने भण्डार की पूजा करने के लिए आमन्त्रित किया। सूची की एक बड़ी पोथी है और इसको देख कर इन कमरों में भरे हुए ग्रन्थों की संख्या का जो अनमान मुझे उन्होंने बताया उसे प्रकट करने में मुझे अपनी एवं मेरे गुरु की सत्य-शीलता को सन्देह में डालने का भय लगता है। ये ग्रन्थ सावधानी से सन्दूकों में रखे हुए हैं जो मुग्द अथवा कग्गर की लकड़ी (Caggarwood) के बुरादे से भरे हुए हैं। यह मुग्द का बुरादा कीटाणुओं से रक्षा करने का अचूक उपाय है । भण्डार को देख कर जब वृद्ध गुरु मेरे पास वापस आए तो उनके आनन्द की कोई सीमा न थी । परन्तु, सूची में और सन्दूकों की सामग्री में बहुत अन्तर था; दो ग्रन्थों की खोज में उन्होंने चालीस (सन्दूकों) का निरीक्षण किया था। वे ग्रन्थ 'वंशराज-चरित्र' और 'शालिवाहन-चरित्र' थे । शालिवाहन ताक (Tak) अथवा तक्षक समुदाय का नेता था जिसने उत्तर से पाकर भारत पर आक्रमण किया था और सार्वभौम सम्राट विक्रम की गद्दी को उलट कर दक्षिण भारत में पहले से प्रचलित संवत् के स्थान पर शकसंवत् चालू किया था। तहखाने के तंग और अत्यन्त घुटन-पूर्ण वातावरण के कारण उनको इस अन्वेषण से विरत होना पड़ा और उन्होंने इसे तुरन्त ही बन्द कर दिया क्योंकि उन्हें यह वचन दे दिया गया था कि लौटने पर वे जिस ग्रन्थ की भी चाहें प्रतिलिपि करा सकेंगे। अभी उन्हें बारह मील की यात्रा मेरे साथ और करनी थी और वर्षा शुरू हो चुकी थी इसलिए मेरे क्षीण स्वास्थ्य के कारण यह यात्रा लम्बी होकर मेरे सामने खड़ी थी। यदि मेरे पास ठहरने का समय Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा भी होता तो शोध के इस नवीन क्षेत्र में नियोजित करने के लिए प्रतिलिपिकर्ता उपलब्ध नहीं थे । अतः मैं यही आशा करता हूँ कि मेरे इस अन्वेषण से दूसरे लोगों का मार्ग-दर्शन हो सकेगा। इस विषय में पूर्ण सावधानी और शिष्टाचार से काम लेना चाहिए; शक्ति-जैसी चीज का स्वल्पमात्र प्रयोग होने पर तो प्रत्येक प्रति को सदा-सर्वदा के लिए मोहर-नन्द किया जा सकता है क्योंकि, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इस संग्रह की रखवाली बड़े सन्देह-पूर्ण ढंग से की जाती है और जिनका इसमें प्रवेश है वे ही इसके बारे में कुछ जानते हैं। जब अल्ला (उद्दीन) ने पट्टण पर आक्रमण किया उस समय तो यह सम्भव नहीं था कि प्राचीन पट्टण के परकोटे के बाहर इन लोगों ने ऐसा सुरक्षालय बनाया हो और, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि नगर के इस भाग का नाम अब भी अणहिलवाड़ा ही है, हमें यह विश्वास करने के लिए और भी कारण मिल जाते हैं कि आधुनिक नगर का यह भाग प्राचीन सीमाओं के अन्तर्गत था। किरी निश्चित दूरी [सी पा] में रहने वाले गच्छ के सदस्यों को इस ग्रन्थालय से ग्रन्थ उधार दिए जा सकते हैं परन्तु वे उन्हें दस दिन से अधिक नहीं रख सकते। ___ जब तक अणहिलवाड़ा के भूगर्भस्थित 'भण्डार' में हमारी कुछ गति न हो जाय, जैसलमेर के प्रोसवालों के विषय में विशेष ज्ञान एवं वहाँ के ग्रंथ भण्डार में, जहाँ पट्टण के भण्डार जितनी ही संरया में और सम्भवतः अधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ विद्यमान हैं, हमारी पहुँच न हो जाय, और सबसे बड़ी बात यह कि जब तक जैन-मत के बड़े बड़े आदमियों एवं ग्रंथपालों से हमारा कुछ परिचय न हो जाय तब तक हम इस स्थिति में नहीं पहुँच सकते कि जैनों की बौद्धि क-सम्पदा के विषय में कोई प्रशंसा कर सकें। ऐसी स्थिात में तो हम उस दम्भपूर्ण मिथ्याभिमान के प्रति दयाभाव ही प्रदर्शित कर सकते हैं, जिसने इस विचार को प्रेरणा दी है कि हिन्दुओं के पास कोई ऐतिहासिक लेख सामग्री नहीं है और जिसके द्वारा इस प्रकार के अन्वेषणों को व्यर्थ का प्रयास घोषित करके जिज्ञासा की भावना को दबा देने का प्रयत्न मात्र किया गया है। इन गुप्त भण्डारों से लाभ उठाने की व्यावहारिकता के विषय में मुझे अपनी गतिविधि का तो थोड़ा ही भरोसा है। वर्षा और अत्यन्त बिगड़े हुए स्वास्थ्य के कारण मुझे बड़ौदा ठहरना पड़ा। वहाँ के रेजीडेण्ट की कृपा और प्रभाव से प्रेरित होकर गायकवाड़ के एक मंत्री ने, जो स्वयं जैन थे, 'वंशराज-चरित्र' की एक प्रतिलिपि के लिए पत्र लिख दिया था। उसके लिए 'हाँ' भर ली गई, और मैं इस राजवंश के इतिहास का उद्धार करने के लिए, जिससे हमें विक्रम और वलभी के राजाओं तक का पिछला Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - ११; पाटण का ग्रन्थ-भण्डार [२४६ विवरण प्राप्त हो सकता है, आतुरता से प्रतीक्षा करने लगा। परन्तु, खेद है कि प्रतिलिपिकर्तामों ने, भूल से अथवा प्रार्थना-पत्र लिखने में असावधानी होने के कारण, कुमारपालचरित्र की नकल कर दी जिसकी दो प्रतियाँ मेरे पास पहले ही से मौजूद थीं। इस भूल का तत्काल सुधार होना सम्भव नहीं था । भविष्य में अन्वेषण के लिए अधिक महत्वपूर्ण विषय तो स्वयं सूची-पत्र की प्रति ही हो सकती है क्योंकि ग्रन्थों के नामों में और विषयों में, चाहे वे आस्तिक पंथ के हों अथवा नास्तिक पंथ के, अधिक समानता नहीं होती, परन्तु, ऐतिहासिक कृतियों, रासों, चरित्रों, स्तिपासा (Stipasa), [स्तुतिपाठ ?] माहात्म्य आदि के विषय में ऐसी बात नहीं है। लोगों को परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करने के निमित्त में एक बात फिर कह दूं, जो साधारणतया बार बार नहीं कही जा सकती, कि मैंने जैसलमेर से कागज़ और ताड़पत्र की कितनी ही प्रतियां प्राप्त करली थीं; ताड़पत्र की प्रतियां तो तीन, पांच और पाठ शताब्दियों तक पुरानी हैं, जो रायल एशियाटिक सोसाइटी' के पुस्तकालय की पालमारियों में अछेड़ पड़ी हुईं अब भी शोभा बढ़ा रही हैं । इनमें सबसे पुरानी प्रतियां व्याकरण विषय की हैं और हमारे बुद्धिमान् लोग (साथी) समझते हैं कि वे इस विषय में बहुत जानते हैं । परन्तु, क्या इन इतनी पुरानी कृतियों का परीक्षण करना इसलिए भी समीचोन न होगा कि उस परीक्षण से किसी जिज्ञासु को यही प्रकट हो जाए कि उनमें कोई नई बात नहीं है ? अब, इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका है अथवा भारतीय विराम-पद्धति की वाक्यावलि में 'अलमिति विस्तरेण । १ इनमें से 'हरिवंश' की एक प्रति का अनुवाद पैरिस के एक पुरातत्वविद् कर रहे हैं । यदि वे ही विद्वान् 'पाबू-माहात्म्य' को भी ले लें तो धार्मिक क्रिया-कर्म-पद्धति के वर्णन से ऊबने पर उनका मन बहलाने के लिए प्रकृति और मानव का मिला-जुला इतिहास भी पर्याप्त मात्रा में उन्हें मिल Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १२ यात्रा चालू अहमदाबाव; यहाँ का स्थापत्य, अहिलवाड़ा के अवशेषों का इसमें उपयोग; हिन्दू शिल्पियों की कला; हिन्दू पौर इसलामी शैलियों की तुलना; खेड़ा (Kaira): वर्षा ऋतु में यात्रा की कठिनाइयाँ ; प्रानरेबुल कर्नल स्टेनहोप (Stanhope); खेड़ा की प्राचीन वस्तुएँ; मही नदी का संकटमय मार्ग; एक सईस डूब गया; बड़ौदा; रेजीडेण्ट मिस्टर पलियम्स के यहां डेरा; बड़ोदा का इतिहास । अब जून में वर्षा अच्छी तरह जम गई थी और हमको घोड़ों के खुर-डूब कीचड़ में होकर यात्रा करनी पड़ रही थी। किसी पाराम की जगह तक पहुंचने के लिए डेढ़-सौ मील की यात्रा मुझे पूरी करनी थी। इस किंचित् निम्नोन्नत रेतीले मैदान में वर्णन-योग्य और कोई नई बात नहीं थी-केवल इतना ही कि यह सदा-हरे खोयेनी (Khoenie) के पेड़ों से भरा हुआ था, जो 'बाल-का-देश' की विशेष वनस्पति माने जाते हैं । 'बाल-का-देश' गुजरात के उस भाग का नाम है जो बनास नदी और सौराष्ट्र के मध्य में स्थित है। वास्तव में, यह मरुस्थली अथवा महा-मारव की दक्षिणी सीमा है, परन्तु यहाँ की रेतीली सतह के नीचे ऐसी अच्छी मिट्टी है जो मक्का की फसल और घास के लिए बहुत उपयोगी समझी जाती है और साथ ही आलू भी इसके पेटे में अच्छे बैठ सकते हैं। तीन लम्बी मंजिलें मुझे अहमदाबाद ले आईं, जो अणहिलवाड़ा का प्रतिस्पर्धी नगर है; और, मैंने मुजफ्फरवंशी बादशाहों के एक सुन्दर ग्रीष्म-प्रासाद में डेरा किया जहाँ से में उनके अचिरस्थायी किन्तु दीप्तिमान वैभव की कल्पना उन मसजिदों और मदरसों' (Madrissas) को देख कर कर सकता था जिनकी गुम्बदें और मीनारें अपना सिर उठाए उन रास्तों में खड़ी थीं जिनमें कभी बड़ी भीड़-भाड़ रहती होगी और जो अब चुप-चापी व बरबादी के घर बने हुए थे । अहमदाबाद, माण्डू एवं अन्य नगरों में विजेताओं द्वारा छोड़ी हई पर्याप्त सामग्री को देख कर ऐसा लगता है कि आदिम जातियों के खण्डहरों में उनकी स्थिति क्षणभङ्ग र कीड़े-मकोड़ों के जीवन के समान थी; इस बात १ फरिश्ता- (भा. ४; पृ. ६७) में लिखा है कि गुजरात के विद्या-प्रेमी मुजफ्फर शाह द्वितीय ने फारस, अरब और तुर्की से विद्वानों को बुला कर गुजरात में बसाया था और मदरसे कायम किए थे। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • १२, अहमदाबाद [ २५१ का इससे अधिक प्रबल उदाहरण और क्या हो सकता है कि राजनैतिक महत्ता का विकास क्रमिक होना चाहिए और बड़े बड़े राज्य एवं राजधानियों को,मानव-शरीर की भाँति, बलपूर्वक बढ़ाना अशक्य है। जो लोग इस नगर में स्थापत्य-कला सम्बन्धी (जिसके कतिपय उदाहरण अद्यावधि वर्तमान हैं) विषय पर विचार करते समय उन मस्तिष्कों को कुछ भी श्रेय देना नहीं चाहते, जिन्होंने इसका निर्माण किया है, उन्हें भी राजपूतों के प्रति मेरी अपेक्षा (उदार अर्थ में) अत्यधिक पक्षपात करना होगा क्योंकि हम उन अनमेल तत्वों के सम्मिश्रण की ओर से आँखें बन्द नहीं कर सकते जो सुन्दर से सुन्दर इमारतों में, विशेषतः स्तम्भों एवं उनकी सजावट में, प्रयुक्त हुए हैं और जो मुसलमानों द्वारा रूपान्तर के भरसक प्रयत्न करने के उपरान्त भी पुकार पुकार कर अपने हिन्दू उद्गम का डिण्डिमघोष कर रहे हैं। यह बात स्पष्ट और प्रत्यक्ष है कि अहमदाबाद को खड़ा करने के लिए चन्द्रावती और अणहिलवाड़ा को ध्वस्त ही नहीं किया गया अपितु पुननिर्माण का कार्य भी किसी हिन्दू शिल्पी द्वारा ही हुआ है । परन्तु, इन सब असंगतियों के होते हुए भी हमें उस धैर्य और कौशल की तो प्रशंसा करनी ही होगी जिसके द्वारा सभी कठिनाइयों को परास्त करते हुए हिन्दू शैली के स्तम्भाधारों पर अरब शैली की इमारतें इस प्रकार खड़ी की गई हैं कि वे आंखों में बिलकुल नहीं खटकतीं । मुसलमानी और हिन्दू स्थापत्य का जो अन्तर यहां एकत्र लक्षित है उससे अधिक स्पष्टता शायद ही कहीं देखने को मिले; एक नुकीली, ऊँची और हवादार [इमारतों से युक्त है तो दूसरा स्थापत्य दृढ़, विशाल और गौरवपूर्ण है। मेरा विचार है, यद्यपि ग्रीशियन और गॉथिक शैलियों की भांति इसलामी और हिन्दू दोनों ही शैलियों के प्रशंसक मिल जायेंगे, परन्तु यदि संयुक्तता को छोड़ कर मत लिए जावें तो, इसलामी शैली को मत अधिक प्राप्त होंगे। - गहरे कटावदार हिन्दू भवन-समूहों को देखने पर एक चित्र-सरीखी श्यामल छाया गम्भीरतम दृश्य को उपस्थित करती है और वे मेघाच्छन्न आकाश से अधिक साम्य लिए हुए तथा अपने पिरामिड जैसे शुण्डाकार शिखरों के चारों ओर खेलते हुए तूफानों की शक्ति पर एक तिरस्कारपूर्ण हँसी हँसते हुए-से जान पड़ते हैं, जब कि किसी गुम्बददार मसजिद और इसकी परियों-जैसी गगनचुम्बी मीनारें उसी समय सुन्दरतम दृश्य उपस्थित कर पाती हैं जब प्रकृति शान्त होती है अथवा जब निरभ्र आकाश से किसी खिड़की की रंगीन चौखट में होकर आती हुई-सी सूर्य-रश्मियाँ संगमर्मर की गुम्बद पर अबाध गति से खेल रही होती हैं। परन्तु, जब इस विषय में पेंसिल ही इतना अधिक और सुन्दर चित्रण Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा कर चुकी है तो लेखनी द्वारा प्रयास करना तो ज्यादती ही होगी। जिन लोगों को हिन्दू-अरबी स्थापत्य में रुचि हो, मैं उन्हें टिप्पणी में दिए हुए ग्रन्थ' का अवलोकन करने के लिए अनुरोध करूँगा। खेड़ा (Kaira)-मुझे इस बात से प्रसन्नता हुई कि इसी स्थान पर विश्राम करना था और विशेषतः इसलिए कि इ. विश्राम-स्थान तक, जहाँ मुझे वर्षा का प्रकोप बढ़ता हुआ जान पड़ा था, मैं घुड़सवारी कर के जल्दी ही आ पहुँचा था। "बादल पर बादल जमा हो रहे हैं, समीपवर्ती आकाश की श्यामल भौहों ने तेजोमय सूर्य के मुख-मण्डल को आवृत कर लिया है, जो अपने वायु-मण्डलीय सिंहासन पर विराजमान हो कर निरभ्र, प्रकाशमान और शान्त गम्भीर प्रताप (तेज) के साथ समस्त पृथ्वी पर शासन करता है। आकाश-मण्डल पर भय का जादू छा गया है, यह वह जादू है, जिसको प्रतिभावान् कवि की अन्तर्दृष्टि ही देख सकती है और उसका कोमल हृदय ही इसके आकर्षण का अनुभव कर सकता है।" 'वर्षा प्रारम्भ होने पर' भारत में किसी यात्री के भ्रमण का वृत्तान्त, पढ़ने में, कितना ही मनोरञ्जक क्यों न हो, परन्तु उस स्वयं के लिए इसमें कोई विशेष प्रानन्द नहीं रहता, और उसके साथियों के लिए तो बिलकुल ही नहीं। हाँ, किसी चित्रकार के लिए तो वर्षा में अपने डेरे में बैठ कर कला की साधना करने के "Scenery and Costumes of Western India" by Captain Grindlay. यह पुस्तक Smith Elder & Co., London से १८३० ई० में प्रकाशित हुई है। इसमें पश्चिमी भारत के बहुत से प्राचीन और सुन्दर अवशेषों के चित्ताकर्षक मुंह-बोलते चित्र छपे हैं, जो कैप्टेन ग्राइण्डले द्वारा तैयार किए गए थे। प्रत्येक फलक के साथ एक परिचयात्मक टिप्पणी भी दी गई है। फलक सं० ५ में अहमदाबाद की झूलती हुई मीनारों का चित्र है। उसके साथ की टिप्पणी में कैप्टन ग्राइण्डले ने लिखा है'बहुत सी मसजिदों और अन्य धार्मिक इमारतों के पत्थरों पर जो अत्यधिक कुराई का काम हो रहा है उससे उस समय की विकसित और उच्चस्तरीय कला का परिचय मिलता है । निस्सन्देह, इनमें अति प्राचीन उस हिन्दू स्थापत्य का अनुकरण किया गया है जिसके नमूने प्रान्त भर में फैले हुए मिलते हैं और यह भी निविवाद है कि इन मुसलिम इमारतों का निर्माण भी हिन्दू धर्मावलम्बी कारीगरों के हाथों से ही हुआ है। केवल इतना-सा अन्तर आ गया है कि इनमें से उन देवताओं और जीवित प्राणियों की प्राकृतियों को कम कर दिया गया है, जो मोहम्मद के धर्मानुसार स्पष्टतः वर्जित हैं। Plate No. s Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १०; वर्षा ऋतु में यात्रा की कठिनाइयाँ [ २५३ लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो सकती है, विशेषतः गुजरात जैसे देश में । दिन में बड़ी कठिनाई रहती है; पहले, मार्ग में भीगे हुए परिकर को सुखाने का प्रयत्न करना; फिर, जब वरुण और अग्नि देवता ( जल और आग ) प्रभुत्त्व के लिए सङ्घर्ष कर रहे हों तो आकाशमण्डप के नीचे खुले में भोजन बनाना; ऊँट जुगाली करने में मगन हैं तो नतग्रीव घोड़े वर्षा की निर्दय फुहारों का सामना करने में डटे हुए हैं, प्रत्येक मोड़ पर उनकी प्रयाल में से, ओस की बूंदें नहीं, बाल्टी भर पानी गिरता है; उधर, आदमी बेचारे ठिठुरते हुए, उदास-से होकर चुपचाप चलते रहते हैं । सिपाही कहता है 'ऐ भाई, मेरा खाना किस सूरत से पकेगा ?' उसे भय है कि आज तो चबेनी खा कर ही गुज़र करना पड़ेगा और घी की चित्ताकर्षक सुगन्धि एवं धीरे धीरे पकने का शब्द और आटे की रोटियों का पेलियॉन ( Pelion' ) जैसा लघु पहाड़ उसकी इन्द्रियों को तृप्त नहीं कर सकेंगे । उससे भी अधिक विलासप्रिय पठान अश्वारोही व्यर्थं ही मिस्री 'मांस-पात्र' की कामना कर रहा है । जब देवता उनकी प्रार्थना सुन लेते हैं तो सम्भवतः सूर्य को प्राज्ञा होती है कि वह इन्द्र के प्रावरण को भेद कर वरुण के राज्य का क्षय कर दे; ऐसे समय में सभी लोग हँसते-बोलते अपने-अपने कोनों में से निकल पड़ते हैं और जब तक धूप निकली रहे तभी तक हाथोंहाथ भोजन बनाने में जुट जाते हैं । परन्तु यदि जल का देवता ( वरुण ) वश में नहीं होता और सूर्य अन्धेरे में जाकर बैठ जाता है तो मुसलमान अपना कपड़े में लिपटा हुआ कल का बासी खाना खोलता है, जब कि [ हिन्दू ] सिपाही के धर्म में बासी भोजन वर्जित है इसलिए उसे भुने हुए चने खा कर पानी पी लेने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रहता । चना और पानी की उसके लिए कोई कमी नहीं है । फिर, सब दृश्य रात में बदल जाता है और वे आज के चूके हुए भोजन को कल दुगुनी मात्रा में प्राप्त कर लेने के सपने देखने लगते हैं; परन्तु, 'आँधी प्राया' की एक समस्वर पुकार शायद उनके स्वप्नों को भङ्ग कर देती है । बिना बिगुल बजाए ही सभी लोगों के हाथ गिरते हुए पाल को रोकने के लिए एक साथ निकल पड़ते हैं । वास्तव में, उस समय जाग पड़ने में बड़ा आनन्द आता है जब आपके डेरे की भीगी हुई कनात आ कर आपके पटिये से टकराती है और खलासी ज़ोर से चिल्ला पड़ते हैं, "उठो साहिब, डेरा गिरा जाता ( है ) " । आप उठ • पेलियॉन ( Pelion ) थिसेली के एक पहाड़ का नाम है, जिसको दैत्यों ने श्रोसा (Ossa) पर परत पर परत जमा करके देवताओं के निवास श्रोलिम्पस पर्वत को मापने के लिए खड़ा किया था । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बैठते हैं, व्यर्थ ही अपने जूतों को पानी में पैरों से टटोलते हैं और आपको मालूम होता है कि पानी रोकने के लिए शाम को जो डौल खड़ी की गई थी वह वर्षा के ज़ोर से टूट चुकी है और पानी के छोटे-छोटे झरने आपके बिस्तर के नीचे इधर-उधर बहने लगे हैं; आपको उस समय अत्यन्त प्रसन्नता होगी जब आपके रक्षा-तत्पर नौकरों और सिपाहियों के सम्मिलित प्रयत्नों से डेरा की रुख में तब तक रुका रहता है जब तक कि टूटे हुए बाँस के स्थान पर गीली और नरम मिट्टी में नए बाँस नहीं गाड़ दिये जाते हैं । इसी बीच में पानी 'अपनी करनी कर चुकता है,' प्रापका बिस्तर तरान्तर हो जाता है और पके पास, यदि किसी तरह बच गए हों तो, कपड़े बदलने और लम्बलम्बायमान शेष रात्रि को टेबिल पर पैर फैला कर काटने के सिवाय और कोई उपाय नहीं बच रहता; अथवा यदि 'प्रकृति की कोमल धात्री " दौड़ कर किसी और जगह नहीं गई और आप ही के डेरे में आ गई है तो रात भर अपने बिछौने के तले उसकी तलाश करते रहिए- यदि बिछावन घोड़े के बालों का बना हुआ है और अधिक भारी नहीं है तो आपको कुछ आराम मिल सकता है परन्तु साथ ही प्रातः काल में थोड़े-से मीठे-मीठे (गठिया के ) दर्द भी अनुभव होने लगेगा । ऐसी थकान भरी रात और दुःख और दर्द-भरे दिन के बाद भी यात्रा - प्रेमी को पूर्ण सजग रहना पड़ेगा; यदि उसे किसी शिलालेख अथवा प्राचीन मन्दिर का पता मिल गया तो समयाभाव या पानी की दुनिया उसके अनुसन्धान में बहाना बन कर नहीं आ सकती । घटनाओं और नवीनताओं में रस लेने वालों के लिए तो इन सभी विचित्रताओं का उल्लेख करना आपके लिए आवश्यक है और विनोद का भाव लाने का भी प्रयत्न करना ही पड़ेगा, भले ही आपकी रचना में आपके लिए उसका एक कण भी न हो । उदाहरण के लिए, किसी ऐसी ही रात के बाद जब आपका घोड़ा डेरे के द्वार पर खड़ा है, कपड़े गीले हो गए हैं, सड़क पर घुटनों तक कीचड़ है, रात का हल्लागुल्ला आपके कानों में भरा पड़ा है, 'डब्बे' में मुर्गियाँ भीगी हुई बैठी हैं, आपका प्यारा घोड़ा पीड़ा से जकड़ा हुआ खड़ा है; इनके अतिरिक्त भी छोटे-मोटे सभी कष्ट हैं, जो शरीरधारियों को हो सकते हैं - परन्तु इन सबका इलाज एक ही है-कूच करना और नईनई घटनाओं एवं दृश्यों से, वे भले हों अथवा बुरे, पिछली घटनानों को भुला देना । सैंको (Sancho) से अच्छा दर्शन और किसी का नहीं है "सभी दुःखों • श्वा मुखी। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १२; खेड़ा [ २५५ का पर्यवसान मृत्यु में है" इसी विश्वास के साथ और उसी के कोष में से दूसरे प्रसिद्ध नीतिवाक्य " बड़े से बड़े दिन के बाद रात आती ही है" को सामने रखते हुए मैंने इनका अक्षरश: पालन किया है और इन्हें सभी समय के सभी दर्शनों के लिए उपयुक्त भी पाया है, चाहे वह सांख्य ( Sanchya ) का मत हो अथवा प्लेटो का । खेड़ा में मुझे मेरे पुराने मित्र और ( बॉनी कैंसल के ) सहाध्यायी सम्मान्य कर्नल लिंकन स्टेनहोप मिले जो उस समय सम्राट् की १७ वीं घुड़सवार सेना के नायक थे । जब से वे भारत में पहले पहल प्राये थे तभी से हमारा पत्रव्यवहार चल रहा था; और, पिण्डारी-युद्ध में तो मेरे एक अधीनस्थ अधिकारी एजेण्ट के द्वारा उज्जैन से सूचना पहुँचाने पर वे अपने रिसाले को लेकर भागे बढ़ गए और एक ऐसा वीरतापूर्ण आक्रमण कर दिया कि जिसको इन लुटेरों की सेना सदैव ही याद करती रहेगी। हम दोनों प्रायः एक ही समय योरप लौटने वाले थे इसलिए हमने यह निश्चय किया था कि हम लोग साथ-साथ ही स्वदेश जायेंगे और 'लिबानस-निवासिनी' उसी नाम वाली सुप्रसिद्धं महिला से मिल कर उसको नमस्कार करेंगे । परन्तु, पिछले छः मास के कठिन परिश्रम ने मेरे शरीर और मस्तिष्क को इतना थका दिया था कि मैं अपने साथी के लिए भारस्वरूप ही सिद्ध होता । इसलिए मैंने अपना यह बहुत दिनों का विचार छोड़ दिया, यद्यपि मुझे उन मित्र के साथ स्थानीय पर्यवेक्षण के उपरान्त हिन्दू, frat और सीरियन धर्मों एवं स्थापत्य सम्बन्धी भेदों के विषय में असाधारण परिणाम ज्ञात होने की आशा थी । में अपने मित्र के आतिथ्यपूर्ण घर में एक सप्ताह पर्यन्त, खेड़ा में ठहरा और इस अवधि में आगे की यात्रा के लिए अपने को पर्याप्त स्वस्थ अनुभव करने लगा । खेड़ा में भी अनुसन्धान के लिए बहुत कुछ क्षेत्र था। दीवारों के बड़े-बड़े ढेर बता रहे थे कि इस स्थल पर कभी कोई बड़ा प्रमुख नगर था, और वहाँ पर थोड़े ही दिनों के मुकाम में मैंने कुछ चाँदी के सिक्के अपने संग्रह में बढ़ा लिए, जो वहीं के खण्डहरों में प्राप्त हुए थे । इन सिक्कों पर कोई लेख तो नहीं था परन्तु कुछ विचित्र से निशान अवश्य बने हुए थे । पेरे मित्र कर्नल स्टेनहोप ने भी मेरे सिक्कों की संख्या में दो अथवा तीन की वृद्धि कर दी थी। इस प्रकार यदि शोध एवं अनुसन्धान को प्रोत्साहन दिया जाय तो भारतवर्ष के सभी भागों में बहुत कुछ किया जा सकता है । परन्तु, एक बात मैं यहाँ पर फिर दोहरा रहा हूँ जिस पर मैंने प्रायः बल दिया है; वह यह है कि सिक्कों, प्रत्येक भाँति की प्राचीन सामग्री, प्राचीन शिलालेखों एवं हस्तलिखित ग्रंथों के संग्रह के विषय में प्राचीन भारत की छानबीन करने में अंग्रेज लोग किसी से Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पीछे नहीं रहे हैं, और इसकी पुष्टि में मैं कह सकता हूँ कि यदि स्वास्थ्य और पर्याप्त अवकाश मुझे मिलता तो जो कुछ मैंने किया है उससे दस गुना काम करता और यदि विशेष सुविधाएँ मिली होती तो उस दस गुने का भी दसगुना करके दिखाता; मेरे इस कथन पर विश्वास कर लेना चाहिए। ___ मही नदी को पार करने के लिए बड़ी चढ़ाई करनी पड़ी । प्रत्येक दिन की मंजिल के बाद भी इसका विस्तार बढ़ता हुआ ही प्रतीत होता था। मुझे अपने सङ्घ और सामान को पार ले जाने के लिए एक मात्र छोटी-सी नाव मिली थी और नदी में पहले से ही बड़ा भारी चढ़ावा गया था; वह खम्भात की खाडी में प्रचण्ड वेग के साथ समुद्राभिमुख बह रही थी। घोड़ों को नाव में चढ़ाना किसी प्रकार सम्भव नहीं था इसलिए उनको ऊँचे घाट पर से परली पार ले जाने का एक मात्र प्रकार यही था कि उनके चाबुक लगा कर बगल से पानी में उतार कर ले जाया जाए। यह क्रिया यद्यपि साधारण थी परन्तु इसे दमघोंट जोखिम उठा कर पूरा करना पड़ा; इसके अतिरिक्त दिन बहुत चढ़ गया था और सब घोड़ों को पार उतारने के लिए उतने ही आदमियों की आवश्यकता थी जितनी उनकी संख्या थी अर्थात् पूरे तीस; ऊपर से पानी पोटों पड़ रहा था और उधर पहुँचे बिना रसद मिलने वाली नहीं थी। इसी तर्क-वितर्क में मैंने अपने लवाजमे के नायक बुड्ढे रिसालदार के पास जाकर कहा, 'यदि ऐसी नदी के कारण अपनी सेना को रुकी हुई देखते तो सिकन्दर साहिब क्या कहते ?' बस इतना ही पर्याप्त था और उस वृद्ध ने स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा-'कपड़े उतारो।' पाँच ही मिनट में उन्होंने अपने कपड़ों की गठरियाँ बाँध कर नाव में रख दी और उस वृद्ध ने अपनी घोड़ी पानी में उतार दी तथा धीरे-धीरे पार ले गया; उसके पीछे-पीछे धारा से जूझती हुई वह सवारों की छोटी-सी टुकड़ी चली, जिसमें कुछ अपने घोड़ों की पूंछ के भरोसे थे तो कुछ उनकी अयालों से अटके हुए थे; इस प्रकार वे सब अच्छी तरह उस पार पहुँच गए। यह बड़ी उद्विग्नता का क्षण था, एक बार बढ़ावा दिया गया कि फिर इसे रोकना कहाँ? सिपाहियों के लिए यह रुकना अपराध समझा जाता और 'स्किनर्स' के १ कर्नल जेम्स स्किनर के नाम पर बनी 'केवलरी'। जेम्स का पिता स्काटिश और माता मिर्जापुर जिले की राजपूतानी थी। निजाम की सेना के कर्नल पिरान का १८०५ ई० में देहान्त होने पर उसके २००० घुड़सवारों का रिसाला अंग्रेजी सेना में मिल गया। उसकी कमान जेम्स स्किनर को दी गई, जो 'स्किनर्स हार्स' नाम से प्रसिद्ध हमा। ये Yellow Boys भी कहलाते थे । स्किनर को देशी सिपाही 'सिकन्दर साहिब' कहते थे। १८४१ ई० में उसकी मृत्यु हुई। --European Military Adventures (1784-1803); H. Compton, p. 398 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १२; मही नदी का संकटमय मार्ग [ २५७ सिपाहियों' (Skinner's soldiers) के लिए तो यह दोहरा अपराध होता क्योंकि वे जानते थे कि उनसे किस बात की प्राशा की जा रही थी। परन्तु, जब में यह और कहँ कि नदी की चौड़ाई दो सौ गज के लगभग थी, गहराई बहुत थी और पानी कम से कम पाँच मील प्रति घण्टे की गति से बह रहा था, तो उनका यह सव कार्य प्रशंसा के योग्य ही समझा जाना चाहिए । उस शान्त, निर्भय वृद्ध ने अविचल रह कर वीरता दिखाई और यह सब क्रिया किसी भागदौड़ या हड़बड़ाहट के बिना पूर्ण शान्ति के साथ पूरी हो गई। डेरे पर पहुंचने पर मुझे मालूम हुआ कि एक सईस गायब था; तैरना न जानने के कारण उसने मेरे उत्तम 'हय-राज' (Hae-raj) को अपने सहायक को सम्हला दिया था। जब शाम हो गई और वह दिखाई न पड़ा तो नदी में उसके लिए व्यर्थ खोज की गईयह मालूम हुआ कि जब प्रायः सब लोग उतर चुके थे तो किसी ने उसे नदी में कूदते हुए देखा था-मानों, वह उसे पार कर जायगा-परन्तु, यह उसका पागलपन था, विशेषतः इसलिए कि वह प्रतीक्षा करता और फिर नाव में पार उतर जाता। बेचारे सईस के दुर्भाग्य ने इस प्रदेश की पुरानी कहावत को चरितार्थ कर दिया 'उतरा मही, हुआ सही', यद्यपि यह कहावत अन्य आपत्तियों के विषय में प्रयुक्त होती है, जो उन जातियों की लुटारू एवं गैर-कानूनी आदतों के कारण उत्पन्न होती हैं, जो इस नदी के किनारे-किनारे इसके उद्गमस्थल विन्ध्य की पहाड़ियों से कच्छ की खाड़ी तक दस मील की दूरी में बसी हुई हैं। इसके तट अथवा निकट बसी हुई एक जाति का नाम माहीर (Mahyeer) है, जो आदिवासी गौंड़ों की ही एक शाखा है। एक दूसरी जाति माँकड (Mankur) कहलाती है, परंतु उनकी आदतें और रहन-सहन भी वैसा ही है; उनमें वे सभी भेदभाव और पक्षपात मौजूद हैं जो दुराराध्य एवं उच्चजातीय ब्राह्मणों में होते हैं और जिनके कारण वे अपने-आप को ऊँचा समझते हैं, जैसे-अन्य जातीय हिन्दू अथवा मुसलमान का स्पर्श उन्हें अपवित्र कर देता है और उसके लिए प्रायश्चित्त अनिवार्य हो जाता है। वे संस्कृत-भाषी ब्राह्मण और तुर्क दोनों ही को समान रूप से अपने से भिन्न मानते हैं । उनमें यह एक मौलिक गुण है। मिही अथवा मही नदी के बहुत से नामों में से एक पापासिनी (Papasini) अथवा पाप की नदी भी है; दूसरा नाम 'कृष्ण-भद्रा' अथवा काली नदी है; इस अन्तिम नाम से ही वे सब नाम निकले होंगे जो इस खाड़ी में गिरने वाले पहर (Paddar) पर लिखे हुए हैं । उस गरीब सईस की याद से बेचैनी के कारण वह संध्या मेरे लिए शोकपूर्ण हो गई थी। वह बड़ा अच्छा सेवक था और कितने ही वर्षों से मेरे साथ था। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा - बड़ौदा- जून...। मुझे इस विश्राम-स्थल पर पहुंच कर बहुत प्रसन्नता हुई। यहाँ के रेजीडैण्ट मिस्टर विलियम्स की भ्रातृत्वपूर्ण कृपाओं ने इसे मेरे लिए अत्यन्त आराम का स्थान बना दिया था। बम्बई जाने वाली सड़कें (वर्षा के कारण) बन्द थीं और मेरे स्वास्थ्य की दशा ने मुझे उनके मित्रतापूर्ण तों को मानने के लिए सहज ही विवश कर लिया कि वर्षा का वह समय मुझे उन्हीं की छत के नीचे बिताना चाहिए। इस बीच में, मैंने एक मार्ग सोच निकाला; क्योंकि नव-वर्षारम्भ तक मुझे (जहाज में) जगह मिलने वाली नहीं थी इसलिए मैंने अपनी इच्छापूर्ति की बढ़ती हई सम्भावनाओं की खुशी में सोचा कि सौराष्ट्र के अन्तरंग में हो कर निकला जाय । मेरे मित्र ने भी इस योजना को प्रोत्साहन दिया और यह भी प्रतिज्ञा की कि मेरे दृष्टिकोण को पूरा करने में सहायक हो कर वे भी मेरे साथ चलेंगे। बीच का समय मैंने चढ़े हुए काम को पूरा करने में बिताया, जैसे-बहुत से हस्तलिखित ग्रन्थों एवं शिलालेखों की प्रतिलिपियाँ करना, जिनका मुझे राजपूत जातियों के चित्रण में समावेश करना था-सारांश यह है कि प्रतिदिन मैं अपने भण्डार की कुछ न कुछ वृद्धि करता ही रहा। बड़ौदा यद्यपि बहुत पुराना नगर है परन्तु वहाँ अन्वेषण के योग्य कोई वस्तु नहीं है। तालाब में मुझे एक गिलालेख मिला जो प्राचीन कुटिल जैन लिपि में लिखा हुआ था परन्तु उसके अज्ञानी स्वामी ने उसको मिटा दिया था। बड़ौदा का प्राचीन नाम चन्दनावती है क्योंकि इसे दोर (Dor) जातीय राजपूत राजा चन्दन ने बसाया था।' उपाख्यानों में उसका वर्णन खूब आता है। उसकी सुप्रसिद्ध रानी मुलीग्री (Muleagri) [मलयागिरि ?] से दो कन्याएं हुई जिनके नाम सौकरी (Socri) और नीला थे ।' इनकी कथाओं में ले जा ' Provincial Gazetteers of India- Baroda State - 1908 ' मूल कथा में राजा चन्दन और उसकी रानी मलयागिरि के राजकुमारों के नाम सायर और नीर लिखे हैं। बड़ोदा का पूर्व नाम चन्दनावती और वीरावती नगरी से बदल कर कब 'वटपद्र' हो कर कालान्तर में वडोदरा और तदनु बड़ोदा या बड़ौदा हो गया इसका ठीक-ठीक इतिहास नहीं मिलता। आजकल प्रायः गुजरात के निवासी इस नगर को 'बड़ोदरा' कह कर बोलते हैं, जो संस्कृत 'वटोदर' शब्द से निकटतम है। इसका यह नाम इसलिए पड़ा होगा कि पहले जब यह एक छोटे-से गाँव के रूप में था तो इसके चारों ओर घने वट-वृक्ष लगे हुए थे; अतः वटों के उदर अथवा बीच में बसा हुआ ग्राम 'वटोदर' हुा । वैसे, अब भी नगर के आसपास में बहुत बड़ी संख्या में वट-वृक्ष विद्यमान हैं । वडोदरा के साथ-साथ इसको वीरावती नगरी अथवा वीर-क्षेत्र भी कहते हैं । गुजरात के कवि प्रेमानन्द (१७ वीं शताब्दी) ने अपने काव्य में इन नामों का प्रयोग किया है। (चालू) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकररण १२ बड़ौवा [ २५ कर में पाठकों को अधिक कष्ट देना नहीं चाहता । अन्य प्राचीन नगरों के समान इसका नाम चन्दनावती ( चन्दन की लकड़ी का नगर ) से वीरावती ( वीरों का निवास ) में बदल गया; फिर 'बटपद्र' हुआ । सम्भव है, इसका कारण इसके परकोटे के आकार की उस पवित्र पत्र के साथ काल्पनिक समानता टप या वटपद्रक नाम भी बहुत पुराना है । 'पत्र' शब्द का अर्थ 'लघु ग्राम' है । इससे विदित होता है कि पहले यह एक साधारण ग्राम था। परन्तु इसका उल्लेख प्रायः आठवीं शताब्दी से मिल रहा है । सुप्रसिद्ध जैन आचार्य हरिभद्र सूरि ने अपने 'उपदेश पद' में एक सत्य नामक वणिक् पुत्र का उल्लेख किया है, जो 'बड़वड्डे' का रहने वाला था । श्राचार्य हरिभद्र का समय ७०१ से ७७१ ई० माना गया है । इण्डियन एण्टीक्वेरी भा० १२ (१८८३ ई० ) में पृ० १५६ - १५८ पर सुवर्णवर्ष अथवा कर्क (कक्क, द्वितीय) का एक दान-पत्र छपा है जिसमें 'वटपद्रक' ग्राम के दान और उसकी स्थिति का उल्लेख किया गया है । यह लेख वैशाष शुक्ला पूर्णिमा, शक संवत् ७३४ (८१२-१३ ई० ) का है । इसमें लिखा है कि अंकोटक नामक चौरासी ग्रामों के मंडल में वटपद्रक नामक ग्राम वात्स्यायन गोत्रीय माध्यन्दिनी शाखा के चतुविद्या (चतुर्वेदी) ब्राह्मण भानु भट्ट को दिया गया, जो सोमादित्य का पुत्र था और वलभी से प्रा कर वहीं बसा था । वह ग्राम विश्वामित्री नदी के पश्चिमी किनारे पर कुछ झोंपड़ियों के समूह में बसा हुआ था । लेख में ग्राम के चारों ओर की सीमा का भी उल्लेख है । 'गौड हो' नामक काव्य की संवत् १२६९ में लिखित एक हस्त- प्रति में भी 'वट्टपट्टक' का उल्लेख मिलता है । जैसे “कइरायलंछरणस्स वप्पइरायस्स गउडवहे ॥ गाहावीढं समत्तं ॥ इति महाकाव्यं समाप्तमिति । कथानिलानानदिव्या || || मंगलं महा श्री ॥ संवत् १२८६ वर्षे पौष शुदि ८ भौमे श्रद्येह 'वट्टपट्टके' गौडवहमहा ।" Goudavaho of VAKPATI, Ed. S. P. Pandit, 1887, Intro. P. IV. गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा के पुत्र खलील खान ने, जो बाद में मुज़फ्फ़रशाह द्वितीय के नाम से सुलतान हुआ था, उस नगर का दुर्ग बनवाया था । उसका समय १५१३ से १५२६ ई० का था । Wollebrandt Geleynssen de Jogh नामक एक पुर्तगाली अफसर 'डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी' में १६२५ ई० में था; उसने लिखा है कि ब्रोदेरा ( Brodera ) का नगर सुल्तान मोहमत बेगड़ा के पुत्र मूर ( मुसलिम ) ने बसाया था । मैण्डल्स्लो ((Mendelslo) ने १६३६ ई० में लिखा है कि बड़ौदा को सुल्तान महमूद बेगड़ा के पुत्र 'रसिया घी' ( Rasia Ghie) ने ब्रोदेरा के खण्डहरों के आधार पर बसाया । ब्रोदेरा यहाँ से श्राधी लीग की दूरी पर था । -Bombay Gazetteer, Vol. vii; p. 529 (चालू) Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ] पश्चिमी भारत की यात्रा है, जिसका मिल्टन' ने 'वीराङ्गनाओं की विशाल ढाल सदृश' कह कर वर्णन किया है। इसी से आगे चल कर 'बड़ोदा' हो जाना सहज है और यहाँ का स्वामी गायकवाड़ भी नगर का यही नाम बनाए रखने में सन्तुष्ट प्रतीत होता है। बेले (Bayley) ने भी मीरात-ए-सिकन्दरी में लिखा है-महमूद बैगड़ा के लड़के ने बड़ौदा जिले में एक शहर बसाया था, परन्तु फरिश्ता और तबकात-ए-नासिरी में कहा गया है कि उसने केवल बड़ौदा का नाम दौलताबाद में बदल दिया था। मीरात-ए-अहमदी से ज्ञात होता है कि उसने बडोदरा ग्राम के पास ही शहर बसाया और उसको भी उसी में सम्मिलित कर दिया।-Bayley, p. 244. कर्नल टॉड ने लिखा है कि उन्हें बड़ौदा में कोई ऐसी प्राचीन वस्तुएँ नहीं मिलीं जो उनके अनुसन्धान में सहायक होती; पिछले वर्षों में पर्याप्त शोध हुई है और बड़ोदा क्षेत्र में बहुत सी सामग्री मिली है। जिज्ञासु विद्वानों को इसके लिए Baroda Through the Ages नामक पुस्तक देखनी चाहिए, जो बड़ौदा विश्वविद्यालय से १६५३ ई० में प्रकाशित हुई और जिसके लेखक बेन्डापुडी सुब्बाराव हैं । , " x x x x x Those leaves, They gathared, broad a. Amazonian Targe, Paradise Lost, IX ग्रीक माइथॉलाजी में 'अमेज़न' वीरगनाओं का वर्णन पाता है। ये सदैव शस्त्रास्त्रों से लैस रहती थीं और अपना दाहिना स्तन इसलिए कटवा देती थीं कि वह तलवार चलाने में बाधक होता था। ये अपनी पुं-संतानों को भी मरवा देती थीं। इनकी ढालें वट-पत्र की आकृति की होती थीं। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १३ बड़ौदा से प्रस्थान; गजना (Gajna); हूण-लोग; खम्भात; इसके प्राचीन नाम: वर्तमान नाम की गाथा; जैन-शास्त्रों का केन्द्र , खम्भात; ग्रन्थ-भण्डार; नगीनों प्रावि का निर्माण; खाड़ी को पार करना; गोगो; शिलालेख; सौराष्ट्र का प्राचीन एवं वर्तमान इतिहास; सौर जाति का उद्गम; सीरियनों और सौरों के रीति-रिवाजों में समानता; सौरों का प्रायद्वीप में बसना; प्राधुनिक सौराष्ट्र; सोथिक जातियों के चिह्नः सौराष्ट्र की विभिन्न जातियां; बौद्धमत का केन्द्र ; देश के कतिपय प्राकर्षण; गोगो और सोरम (Seerum) का वृत्तान्त ; पूर्व पुर्तगालियों का इन भागों में दुष्ट आचरण; अल्बुकर्क का उपाख्यान; गोहिलों की राजधानी, भावनगर; राजा का स्वागत; उसका रङ्ग-विरङ्गा दरबार; अंग्रेज राजाओं को तसवीरें; छुटपुट चीजें; किरकिरीखाना; गोहिल राजा को जल-सेना; उसके अधिकृत स्थान; गोहिल वंश का चित्रण; समुद्री लूट, उनका मुख्य व्यवसाय; ब्राह्मण बस्ती, सीहोर; मेवाड़ के राजाओं की प्राचीन राजधानी, बलभी; भीमनाथ का प्राचीन मन्दिर और तालाब; उपाख्यान; तीर्थस्थल । खम्भात-नवम्बर ४ थी। वर्षा ऋतु समाप्त हो गई थी और सड़के चालू हो चुकी थीं इसलिए हमने २६ अक्टूबर को प्रस्थान कर के प्रोमेटा नानक स्थान पर मही नदी को पार किया। मेरा विचार नदी के मूह ने के पास गजना नामक ग्राम में जाने का था, जिसका अब वहां पर कोई नाम भी नहीं जानता। इस स्थान का वर्णन गहलोत राजाओं के इतिहास में प्राता है कि जब वे सौर प्रायद्वीप में राज्य करते थे तो इसकी बहुत प्रसिद्धि थी, परन्तु, अब यहाँ की अनुश्रुतियाँ इस विषय में मौन हैं और मुझे बताया गया कि अतीत गौरव के प्रतीक रूप में नदीमुख के दोनों ओर ही अब कोई भी अवशेष प्राप्त नहीं है । जो कुछ मुझे ज्ञात हो सका वह बस इतना ही है कि गजना ग्राम में पहले कोली वंश की एक शक्तिशाली जाति के लोग बसते थे जिनसे बाघेला राजपूतों की 'मीरेन' शाखा ने इस स्थान को छीन लिया था। उपजाऊ सपाट क्षेत्र-खण्ड अनुभुतियों के लिये अनुदल नहीं है और इन प्रार्द्र भागों में शीघ्र ही विघटनशील इंटों से बने हुए नगर भी किसी राजवंश की परम्परा को स्थिर नहीं रख सकते । वर्तमान खम्भात की अपेक्षा नदीमुख से ऊपर की ओर कुछ मील की दूरी पर बसे हुए प्राचीन नगर का नाम 'गजना' था। कहते हैं कि 'गजना नामक ग्राम की स्थिति खम्भात से २० मील दूर दहेवाण के पास मानी गई है । (खम्भातनो इतिहास, पृ० १४) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा वह नगर खम्भात के प्रस्तित्व में आने से पूर्व अन्तःस्थलीय राजधानी का बन्दरगाह था । यह वृत्तान्त मेवाड़ के इतिहास से पूरी तरह मेल खाता है, जिसमें गजना को 'बाल- रायों' की राजधानी वलभी से दूसरी श्रेणी का नगर बताया गया है । श्रोमेटा के सामने हो एक छोटे-से ग्राम में मुझे कुछ हूणों की झोंपड़ियाँ भी मिलीं। वे अभी तक उसी प्राचीन 'हूण' नाम को बनाए हुए हैं जिसके द्वारा हिन्दू- इतिहास में उनका परिचय प्राप्त होता है। बड़ौदा से तीन कोस पर त्रिसावी (Trisavi) नामक ग्राम में भी उनके तीन अथवा चार वंशों का निवास स्थान बताया जाता है । यद्यपि इनके शरीर- गठन एवं वर्ण के द्वारा तातार कहलाने वाले हूणों से इनका कोई सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता और इस परिवर्तन का कारण जलवायु एवं रक्त संमिश्रण हो सकता है, फिर भी इसमें सन्देह नहीं है कि वे उन्हीं अाक्रमणकारियों की संतानें हैं, जिन्होंने दूसरी एवं छठी शताब्दी में सिन्धु नदी के तट पर साम्राज्य स्थापित किया था और जो राजपूतों में इतने घुलमिल गये थे कि जीट (Gete), काठी और मध्य एशिया से श्राने वाली उन अन्य सासी ( Sacae) जातियों के साथ-साथ उन्हें भी भारत के छत्तीस राजवंशों में स्थान प्राप्त हो गया था, जिनके वंशज अब तक सूर्योपासक सोरों अथवा चावड़ों की भूमि पर बसे हुए हैं । निस्सन्देह, ये उन्हीं जातियों में से एक हैं । इन समस्त विदेशी जातियों के लिए यदि हम जेटी - भारतीय (Indo-Getae) अथवा सासी भारतीय ( Sacae - Indian ) पदों का व्यवहार करें तो वे नासमझी से प्रयुक्त होने वाले इण्डो- सीथिक ( Indo - Scythic ) पद की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होंगे । प्राचीन काम्बे, जिसको देशी भाषा में खम्भायत कहते हैं और जो अब उजड़ा पड़ा है, वर्तमान नगर से तीन मील की दूरी पर है। इसका नाम प्राचीन 'काल में 'पापावती' अथवा 'पाप की नगरी' था।' इसका यह नाम उस स्थान के समीप स्थित होने के कारण पड़ा है जहाँ मही नदी पापासिनी खाड़ी में प्रवेश करती है । यह खाड़ी भी अपने भयावह रूप के कारण ही पापासिनी कहलाती है । कुछ " यहाँ के व्यापारी व्यवसाय के प्रसंग में असत्य भाषाणादि पापाचरण करते थे अतः अन्य लोगों ने इसको 'पापावती या 'पापनगरी' कहना शुरू कर दिया। कुछ लोगों का मत है कि खम्भात के भखात में एक स्थल 'गोपनाथ' कहलाता था जिसको दूसरी शताब्दी के ग्रीक लेखकों ने 'पापिके' (Papike) लिख दिया (देखिये, पॅरिप्लुस ऑफ द इरिथिन सी, पृ०६८) और यही भागे चल कर इसके नाम में 'पाप' का अभिशाप बन गया । परन्तु, यह अनुमान मात्र लगता है । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६३ 3 समय पश्चात् यह नाम अमरावती अथवा 'अमर नगरी' में बदल गया जो पहले से सुन्दर तो अवश्य था परन्तु अधिक समय तक चल न सका । अतः यह 'बाघवती' ' अथवा 'बाघों का निवास स्थान' हो गई और फिर 'त्रिम्बावती' अथवा 'तारा-नगरी'' कहलाने लगी । यह अपर नाम इस विचार पर आधारित था कि इसका परकोटा ताँबे की धातु का बना हुआ था । अन्तिम परिवर्तन होकर यह खम्भायत' अथवा खम्भावती ( स्तम्भ नगर ) हो गई जिसका कारण यों बताया जाता है कि एक राजा ने खाड़ी का पानी या जाने अथवा मही की उपजाऊ मिट्टी अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाने के कारण प्राचीन नगर को निवासयोग्य नहीं समझा और वर्तमान नगर की स्थापना की । उस समय उसने देवी को प्रसन्न करने के लिए समुद्र तट पर एक स्तम्भ (देशी 'खम्भ' ) स्थापित किया और उस पर प्राचीन नगर एवं चौरासी ग्रामों की आय नवीन नगरस्थ देवी मंदिर के भोगराग-निमित्त व्यय करने का लेख उत्कीर्ण करवाया । यद्यपि उस स्तम्भ 3 १ अमरावती नाम इसकी तत्कालीन शोभा सम्पन्नता के कारण ही पड़ा होगा । २ बाघवती तो नहीं, भोगवती: प्रथवा भोगावती नाम बहुत प्राचीन समय से मिलता है । सम्भव है, क. टॉड ने 'भोगवती' को ही 'बाघवती' समझ कर इस शब्द की व्युत्पत्ति 'बाघों का निवास स्थान' कर डाली है । * प्रकरण १३; खम्भात के प्राचीन नाम - खम्भात गजेटियर, बम्बई (टिप्पणी), पृ० २१२ । वास्तव में म्बावती ताम्रलिप्ति (सं०) का अपभ्रंश है । ताम्रलिप्ति, तामलिति, तामलुक आदि नाम प्राचीन ग्रंथों और गुजराती रासो आदि में मिलते हैं। वेबर ने सिंहासनद्वात्रिंशिका के विवरण में Indische Studien, पृ० २५२ में साबरमती और मही नदियों के 'बीच ताम्रलिप्ति' का उल्लेख किया है । स्कन्दपुराण के कुमारिका-खण्ड के अनन्तर नगर - खण्ड (प्रध्याय २६४ ) में तारकासुर का निवास स्थान ताम्रवती नगरी लिखा है । खम्भात अथवा खम्भायत नाम सिद्धराज के समय से भी बहुत पहले से चला आता है । अरब यात्रियों ने १५ ई० के लगभग भी इसका नाम कम्बायत या खम्भायत लिखा है । कहते हैं, पादलिप्ताचार्य ने प्रतिष्ठानपुर के सातवाहन राजा की पद्मिनी रानी चन्द्रलेखा के हाथ से पारद का स्तम्भन कराया था इसलिए इसका नाम स्तम्भनपुर पड़ा । वि० सं० ११६३ में पं० गंगाधर - रचित 'प्रवासकृत्य' नामक ग्रन्थ में भी इसका नाम 'स्तम्भतीर्थ' लिखा है । मेरुतुंगाचार्य ने स्वरचित ' स्तम्भनाथ चरित्र' में लिखा है "सं० १३६८ वर्षे इदं.... बिम्बं श्रीस्तम्भतीर्थे समायात्" । इससे विदित होता है कि स्तम्भपार्श्वनाथ की स्थापना से पूर्व ही इस स्थान का यह नाम प्रसिद्ध हो चुका था । कुछ विद्वानों का मत है कि शिव का पूजन प्रत्यन्त प्राचीन सभ्यता का अंग रहा है। यह महादेव श्रथवा 'शिव-लिंग' स्तम्भ अथवा 'स्कम्भ' के प्राकार में पूजा जाता है इसलिए 'स्तम्भायतन' अथवा 'स्कम्भायतन' से ही बिगाड़ कर 'खम्भायत' या ' खम्भात' बना है । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा का अब कोई चिह्न प्रवशिष्ट नहीं रह गया है परन्तु इस प्राख्यान की सत्यता ग्यारहवीं शताब्दी में सिद्धराज द्वारा निर्मापित स्तम्भ पार्श्वनाथ के जैन मन्दिर के अस्तित्व से सिद्ध हो जाती है, जो अब मसजिद में परिवर्तित हो चुका है, फिर भी वह इस नगर में एक मात्र मुख्य दर्शनीय भवन है और हिन्दू एवं मुसलिम निर्माण कला का एक विचित्र सम्मिश्रित उदाहरण उपस्थित करता है । प्राचीन नगर के स्थान पर अब घना जंगल उग आया है और प्राचीन अवशेषों के नाम पर दो मन्दिर ही बताए जाते हैं - एक पार्श्वनाथ का और दूसरा महादेव का । आधुनिक काम्बे नगर में कुछ भी दर्शनीय नहीं है। अहमदाबाद के दरबार के किसी कृपापात्र का एक वंशज है, जो अपने निवास स्थान को बड़े गर्व के साथ 'महल' कहता है, और दिल्ली में सफदरजंग के नमूने पर बना हुआ बताता है । यद्यपि यह मकान उसके द्वारा सगर्व वर्णित मूल भवन से हुत भिन्न है, परन्तु मेरे द्वारा इस विषय में कुछ भी कहने से उसके सुखद विश्वास को ठेस पहुँचती और यह एक सहृदयतापूर्ण कार्य होता । हेमाचार्य के समय से बहुत पहले से ही और अब तक खम्भायत जैन - शास्त्राध्ययन का एक मुख्य केन्द्र रहा है और यहां पर नगर के भीतर जैन मन्दिरों की संख्या पचास अथवा साठ से कम नहीं है । जिस प्रकार अन्यत्र जहां-जहां जैनों की जन संख्या अधिक होती है वहां ग्रन्थ भण्डार होते हैं, उसी प्रकार यहां भी इस जाति का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भण्डार है । यदि, बिना गड़ I २ १ निज़ाम राज्य के संस्थापक का दादा अब्दुल्ला खांन फीरोज जङ्ग बहादुर गुजरात का सूबेदार था। उसकी कब्र अब भी अहमदाबाद में मौजूद है। स्वयं निज़ाम भी थोड़े दिन अहमदाबाद का सूबेदार रहा था । खम्भात की गद्दी का संस्थापक मोमिन खांन बहादुर और उसका पुत्र मोमिन खान द्वितीय भी गुजरात के सूबेदार थे। मुगल सम्राट् की ओर से निज़ाम को 'निजाम-उल-मुल्क फतहजङ्ग बहादुर श्रासफजहां' का खिताब मिला और खम्भात के नवाब ने ' नजमुद्दौला मुमताज्उलमुल्क मोमिन खांन बहादुर दिलावरजङ्ग' का अलकाब पाया । १७६१ ई० में पानीपत की अंतिम लड़ाई के बाद गुजरात में बहुत से छोटे-छोटे राजा, ठाकुर और नवाब अपने-अपने रूप में स्वतंत्र हो गए। कर्नल टॉड का उक्त नवाब के ही वंशज से मिलना हुआ होगा। इस वंश का James Forbes लिखित विवरण Oriental Memoirs, Vol. I, Chap. XVI, 1834 में द्रष्टव्य है। खम्भात के 'शान्तिनाथ -ग्रन्थ भण्डार' से तात्पर्य है । राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्ध में लिखा है कि महामात्य वस्तुपाल तेजपाल ने खम्भात के ज्ञान भण्डार की स्थापना करने में ३००,००० द्रव्य व्यय किया था। इस भण्डार में 'धर्माभ्युदय-काव्य' की एक ताड़पत्रीय प्रति है जिस पर स्वयं वस्तुपाल के हस्ताक्षर मौजूद हैं । (चालू) 7 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण .. १३; खम्भात का ग्रन्थ-भण्डार; व्यापार [२६५ बड़ी मचाये, इन ग्रन्थों के अवलोकन का प्रयास किया जाये तो इस धर्म के सिद्धान्तों और उनके प्रवर्तकों के विषय में बहत-सी नई बातों का पता चल सकता है क्योंकि व्यक्तियों के जीवनवृत्तों से ही हमें इतिहास की सामग्री प्राप्त करनी चाहिए। परन्तु, यह कार्य बहुत सावधानी और धैर्यपूर्वक अनुसन्धान के द्वारा ही सम्पन्न हो सकता है। अधिकार-प्रदर्शन से इसमें कभी काम . नहीं चल सकता। अनुसन्धान का सब से अच्छा उपाय तो यह है कि किसी ऐसे जैन साधु को 'मुंशी' बना लिया जाय जिसकी पत्रावली में हेमाचार्य अथवा अमर उसके धर्मगुरु पाए जाते हों; बस, फिर उसके माध्यम से सभी ताले खुल जावेंगे । ब्राह्मण को कभी साथ नहीं लेना चाहिए; हां, मुसलमान द्वारा सफलता की अच्छी सम्भावना हो सकती है । सुलेमानी पत्थर, मोचा-पत्थर, इन्द्रगोप और अन्य सभी प्रकार एवं जाति के लाल एवं गोमेदक पत्थरों को लोग राजपीपला के खण्डहरों में से लाते हैं और उनसे कई तरह के गहने, प्याले, पेटियां, मालाएं और कटार, चाकू तथा कांटों के मुठिए या मुद्राएं आदि तैयार करते हैं, जो यूरोपीय जनता में तुरन्त बिक जाते हैं क्योंकि वे ऐसी वस्तुए इङ्गलैण्ड में (अपने मित्रों आदि के पास) भेंटस्वरूप भेजते रहते हैं। यह बड़ी विचित्र बात है कि नगीने के कच्चे पत्थरों का रंग ताव देकर निखारा जाता है। गरमी पहुंचाने से दूधिया पीला हो जाता है, पीले से नारंगी रंग का, फिर भूरा तथा अन्य रंगों में बदल जाता है। मैंने भी अपने मित्रों के लिए बहुत सी चीजें खरीदीं और यदि मेरे सामने अधिक महत्वपूर्ण कार्य न होते तो अच्छी-अच्छी वस्तुओं का चयन करने हेतु कुछ और भी अधिक समय लगाता; अस्तु, हमारे घोड़ों, डेरों, सामान और साथियों को खाड़ी के उस पार सौराष्ट्र के किनारे तक पहुंचाने के लिए नावें प्राप्त करने में ही बहुत-सा समय बिताना पड़ा। नवम्बर - खम्भात के लम्बे दलदली तट पर ज्वार-भाटा के समय, दृष्टि फैलाई जाय वहाँ तक 'लूणा पानी' ही दिखाई पड़ता है । हमारे संघ के साथी इस नमकीन पानी को 'लूणा पानी' ही कहते हैं। मेरे जैसे सदैव चिन्ताग्रस्त रहने वाले व्यक्ति को बीस वर्षों की अनुपस्थिति के बाद भी समुद्र का यह गम्भीर इस भण्डार के ग्रन्थों की एक सूची पीटसन ने तैयार करके १८२२-२३ ई० में प्रकाशित की थी। तदनन्तर ज्ञान-भण्डार के मंत्रियों की ओर से एक सूची १९४२ ई० में निकली और फिर गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज में लिस्ट का प्रथम भाग १९६१ ई. में प्रकट हुआ है । इनमें कहा गया है कि पीटर्सन की सूची के अनुसार बहुत से ग्रन्थ अब नहीं मिल रहे हैं। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] पश्चिमी भारत को यात्रा वातावरण कोई विशेष प्रसन्नता न दे सका। बड़ी देर बाद ज्वार उतरने पर पानी लदान की स्थिति में आया, परन्तु, संध्या बड़ी सुहावनी हो गई थी और हमारा बजरा अर्द्धरात्रि तक धीरे-धीरे पानी पर बढ़ता रहा, इसके बाद फिर ज्वार आ गया। 'लंगर डालो' यह आज्ञा हुई। इस नवीन दृश्य को देख कर मैं अपने आपको एक प्रकार से मन्त्रमुग्ध-सा अनुभव करने लगा और इसके प्रभाव से मेरे मस्तिष्क एवं शरीर में एक प्रकार की नवीन स्फूति पैदा हो गई। मेरे सहयात्री कैप्टेन शोर' अपनी वॉयलिन ले आए और मैंने अपनी बाँसुरी उठाई। 'तारामण्डल के मधुर प्रभाव' से प्रेरित होकर हम कुल्हाड़ी से छिले हुए नाव के पृष्ठ भाग पर चढ़ गए और खाड़ी की जल-परियों के साथ धारा-प्रवाह सहगान करते रहे तथा आपस में एक दूसरे की प्रशंसा भी करते रहे । प्रातःकालीन शीतल समीर बहने लगा और अट्ठारह घण्टों बाद हमें पीरम द्वीप एवं बारह मील भीतर की ओर फैली हुई पहाड़ियां दिखाई दीं। हम गोगो पर उतरे और जब तक खाडी (रण) के सिरे पर किनारे-किनारे यात्रा करके हमारा भारी असबाब न आ पहुँचा तब तक हमें वहां पर कुछ दिन ठहरे रहना पड़ा। गोगो बन्दरगाह की दशा अब बहुत गिर गई है। यह अब केवल मल्लाहों का निवास स्थान मात्र रह गया है, जो देखने-भालने व शरीर की गठन में बहुत कुछ अरबियों के समान परन्तु सर्वथा भिन्न वर्ग के दिखाई पड़ते हैं। फिर भी, वे हिन्दू हैं और नहरवाला के राजाओं द्वारा पोषित समुद्री जाति के वंशज हैं। नहरवाला नगर में उन्हीं के नाम पर चत्वर बसा हुआ था और बदले में वे विदेशों से सम्पत्ति ला-ला कर यहाँ भरते रहते थे। फिर भी, गोगो में एक प्रकार की गम्भीरता दृष्टिगत होती है। इसकी प्राचीन और धुंधली दीवारें, जिन्होंने कभी इन समुद्रों में भरे पड़े जल-डाकुओं से इसकी रक्षा की होगी, इसको एक प्रकार का गम्भीर एवं आकर्षक स्वरूप प्रदान करती हैं। इसका दक्षिणी मुख, जिधर बहुत सी विभिन्न ऊंचाई की छतरियाँ बनी हई हैं, लम्बाई में बारह-सौ गज से किसी भी प्रकार कम नहीं है-फिर भी, यह पश्चिमी दीवार से बहुत कम है, जिधर यह परकोटा स्पष्ट ही समुद्र के प्राघातों से टूट-ट कर नीचे से नष्ट हो गया है । गोगो पहले गोहिल राजपूतों का निवास स्थान था। नगर के दक्षिणपश्चिमीय कोने में एक छोटा-सा किला है, उसी में वे लोग रहा करते थे। यहां के थोड़े-से दर्शनीय स्थानों में एक बावड़ी भी है जिसका सामने का भाग पत्थर की पूठियों का बना हुआ है। इन प्रस्तर-खण्डों पर पानी की टक्कर लग-लग Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३; गोगो; शिलालेख [ २६७ कर गहरे गोल-गोल गड्ढ़े-से पड़ गए हैं जिनसे इस बावड़ी की प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है। इस पर कुटिल-लिपि में एक शिलालेख के अवशेष भी दिखाई देते हैं परन्तु इसके स्थान पर गुजराती में एक नवीन शिलालेख लगा दिया गया है, जो ढाई सौ वर्ष से पुराना नहीं है । इसमें राजवाड़ा की 'गधा-गाळ' या शाप का उल्लेख है अर्थात जो कोई इस जलाशय को अपवित्र करेगा वह अपने माता-पिता को इस गर्दभ-युग्म जैसी प्रश्लील अवस्था में देखेगा। वहीं पर हमें अरबी और फारसी के लेख भी मिले जिनमें से एक पर 'जफरखां बिन वजीर उल मुल्क' (के राज्य में) 'शाह उल आजम शम्स उद्द, रिकउद्दीन, सुलतान मुजफ्फर' का नाम भी खुदा हुआ था। इस लेख की तिथि १० रजब, ७७७ (१३७५ ई०) है । अहमदाबाद के इतिहास की रूपरेखा तैयार करने के इच्छुक विद्वान् के लिए यह स्मारक बड़े महत्व की वस्तु है क्योंकि इससे ज्ञात होता है कि गोगो उस वंश की महत्त्वाकांक्षा का प्रथम लक्ष्य-बिन्दु था जिसने आगे चल कर विपुल वैभव प्राप्त कर लिया था। वजीर उल मुल्क टोक अथवा गेटिक-भारतीय जाति का स्वधर्म-त्यागी राजा था जिसके इतिहास का वर्णन में अन्यत्र' कर चुका हूँ। उसके पुत्र जफर खाँ को मण्डोर के राजपूत सरदार चूंडा ने चौदहवीं शताब्दी के अन्त में नागोर से निकाल दिया था। चूंडा मारवाड़ की वर्तमान राजधानी जोधपुर को बसाने वाले जोधा का पितामह था। राजपूतों के मध्य अपना संस्थान स्थापित करने के प्रयत्नों में जफर खाँ की असफलता उसके लिए वरदान सिद्ध हुई क्यों कि वहाँ यदि सफलता मिल भी जाती तो भी वह अधिक दिनों तक टिक न पाता; इधर, यहाँ अस्तव्यस्त पड़ी हुई नहरवाला की राजधानी में सामरिक विरोध का कोई विशेष अवसर भी उपस्थित न हुया और उसकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सहज ही में एक उपयुक्त क्षेत्र प्राप्त हो गया। इस लेख की तिथि से चौसठ वर्ष बाद वजीर उल मुल्क के पौत्र और जफर के पुत्र अहमद ने साबरमती के किनारे अपने नाम पर नई राजधानी बसाई। हमें इस विषय में कोई जानकारी नहीं है कि अहमद के पूर्वजों ने इस व्यापारिक बन्दरगाह (गोगो) को गोहिलों से किन उपायों द्वारा प्राप्त किया जिसको वे संवत् १२०० से अपने अधिकार में किए हुए थे जब कि कन्नौज से राठोड़ों के ' देखिए, राजस्थान का इतिहास, जिल्ब १, पृ. ९९, १०५ । इस प्रसंग में 'रा.प्रा.वि.प्र.' से प्रकाशित और अनुवादक द्वारा सम्पादित 'राजविनोद महाकाव्य' का 'प्रास्ताविक परिचय' भी द्रष्टव्य है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा आक्रमण के कारण उन्हें मरुस्थली में खेरघर छोड़ना पड़ा था । परन्तु हम इस विषय को गोहिल वंश की रूपरेखा के हेतु सुरक्षित रखेंगे क्यों कि इस वंश के लोगों का इस प्रदेश में अब भी राज्य मौजूद है और सौर प्रायद्वीप का एक उपविभाग गोहिलवाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है । अब हम इस विभिन्नता युक्त प्रदेश में भली-भाँति प्रविष्ट हो चुके हैं और मुझे अपना आगे का मार्ग इसी में होकर पूरा करना है, अतः मैं समझता हूँ कि यहाँ के प्राचीन एवं वर्तमान इतिहास पर विशेषतः यहाँ पर राज्य करने वाली जातियों पर दृष्टिपात करने का सबसे उपयुक्त अवसर यही है । सौराष्ट्र का अर्थ है 'सौरों का देश', जो एक प्राचीन सूर्य-पूजक जाति है जिसके उद्भव का इतिहास प्रतीत के अन्धकार में विलुप्त हो चुका है । यह किसी प्रकार भी असम्भव नहीं है कि यह ऊपरी (उत्तरी ? ) एशिया की गेटिकभारतीय जातियों में से एक है जिनकी अतिरिक्त बस्तियाँ सभी दिशाओंों में बहुत पहले से इधर-उधर फैल गई थीं । इसका विश्वसनीय प्रमाण इतिहास से प्राप्त होता है क्यों कि अब तक बची हुई जातियों के लोगों के नामों और रीति-रिवाजों से भी उसकी पुष्टि हो जाती है । अवशिष्ट प्राचीन सूर्य मंदिरों के उपासक काठी, कोमानी ( Comani) और बालों में अब भी पाए जाते हैं जिनकी शारीरिक गठन एवं सूरत-शकल, पहले श्राकर बसी हुई जातियों के साथ रक्त सम्मिश्रण हो जाने के उपरान्त भी स्पष्ट ही उत्तर- निवासी जातियों से पैदा हुई जान पड़ती हैं । सौरों ने इस प्रायद्वीप पर कब अधिकार जमाया इसकी हमें कोई जानकारी नहीं है, परन्तु जस्टिन ( Justin) स्ट्राबां (Strabo), टॉलमी (Ptolemy) श्रौर दोनों एरियनों (Arrians) के आधार पर हम इस बात का पता लगा सकते हैं कि उनके आक्रमण का समय अलक्षेन्द्र ( Alexander) महान् का समकालीन था । सोरों के देश पर मोनान्डर ( Menander) और अपोलोडोटस् ( Appollodotus) की विजय के विषयों को लेकर विद्वान् बेयर ( Bayer) और स्ट्रॉबो ( Strabo) के फ्रेंच अनुवादकों ने एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है । वे EUPOV अथवा सौर को फोनिक्स (Pevinox ) से संयुक्त देख कर हिन्दमहासागर के सीरिया को मध्यसागर के सीरिया और फोनीशिया में परिवर्तित कर रहे थे । अपनी छिन्न-भिन्न अनी' [ सेना ] के अवशिष्ट भाग को लेकर, १ राजपूत युद्ध - कला सम्बन्धी ग्रन्थ 'समर - सागर' में 'अनी' एक प्रकार के व्यूह का नाम लिखा है । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १३; सौरों ओर सीरियनों में समानता | २६९ जिसमें निस्सन्देह उन्होंने अपनी गेटिक भारतीय प्रजा को भी सम्मिलित कर लिया था, बॅक्ट्रिया के राजाओं के लिए एरिया और अराकोशिया ( Arachosia ) में होकर सिन्धु घाटी द्वारा सौराष्ट्र में आना, रेतीले जंगलों और शत्रु-जातियों द्वारा अवरुद्ध सीरिया के लम्बे मार्ग का अवलम्बन करने की अपेक्षा अधिक सुगम था । हमारे भारतीय - सीरिया के लिए प्राचीन अधिकारी विद्वानों द्वारा प्रयुक्त सौराष्ट्रीनी ( Saurastrene ) चोर सायरास्ट्रीनी (Syrastrene ) शब्दों के लिए हमें अधिक परिवर्तन के बिना ही सौराष्ट्र शब्द मिल जाता है; और यदि हमें यहाँ के प्राचीन चाँदी के सिक्कों और चट्टानों पर खुदे हुए लेखों में प्रयुक्त, विचित्र किन्तु पूर्ण, लिपि के अक्षरों की पूरी जानकारी हो जाय तो हम कम से कम उन मुकुटधारी राजाओं के नाम तो जान ही सकते हैं, जिनकी मूर्तियाँ सिक्कों में अग्निवेदियों के दूसरी ओर ठपी हुई हैं और जिनके पार्श्व चित्र एरिया ( Aria ) के प्राचीन सूर्य एवं अग्निपूजक सासियों ( Sacae ) के साथ उनके प्राकृति-साम्य की स्पष्ट 'घोषणा कर रहे हैं । ' इस विषय में शङ्का करना व्यर्थ है कि सौर जाति के लोग, जिनका प्राचीन लेखकों के वर्णन द्वारा तथा उनके सूर्य और लिङ्ग आदि पूजा-चिन्हों के अवशेषों द्वारा परम शक्तिशाली होना सिद्ध है, उसी वंश के हो सकते हैं, जिसको हेरोडोटस ने सौरोमेटी ( Souromatea ) लिखा है । यह निश्चित है कि वे ही संस्कार, उन्हीं नामों से, अपरिवर्तित रूप में, उन्हीं पर्व के दिनों में, उन्हीं देवताओं के निमित्त भारत के प्रायद्वीपीय सीरिया में भी सम्पन्न होते हैं जो मध्य- सागर के तटवर्ती सीरिया में माने जाते हैं । श्रन्यत्र मैंने इस विषय को विस्तार - पूर्वक लिखा है अतः यहाँ पर इतना ही फिर कहूँगा कि सीरिया में जिसको बाल (Bal) अथवा बेलनूस (Belnus) कहते हैं वही सौरों के बालनाथ हैं और सोमनाथ का विशाल मन्दिर सीरिया - देशीय 'बालबेक' का ही प्रतिरूप है । निम्नलोक अथवा चन्द्र मण्डल का अधिष्ठाता होने के कारण सोमनाथ बाल' का ही आलङ्कारिक अभिधान है। पूजा के महान् उपकरण के साथ सूर्य, उसके लाक्षणिक प्रतीक प्राचारहीन इसरायलियों के "प्रत्येक पहाड़ी पर खड़े फैलस १ इस पुस्तक के रचनाकाल और लेखक की मृत्यु के पश्चात् इस दिशा में पर्याप्त कार्य हो चुका है, जिसका परिणाम लेखक की मान्यताओंों और अनुमानों की पुष्टि ही करता है। • Phallus फैलस की व्याख्या टॉड साहब ने अन्यत्र (Annals of Rajasthan' में) को है और लिखा है कि यह 'फलेश' का रूपान्तर है; शिव का नाम प्राशुतोष है ही । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] पश्चिमी भारत की यात्रा (स्तम्भों) और प्रत्येक वक्ष के तले स्थापित पीतल के बैल" को और मिला लीजिए तो वे हमारे लिङ्गम् तथा नन्दिकेश्वर हो जाते हैं, जिनकी इन रहस्यों में विशेष पवित्रता मानी जाती है। चित्र में और कोई कमी नहीं रह जाती केवल इतनी ही कि सीरियनों ने पूजन के लिए दिन निश्चित कर रक्खा है और उस दिन कुछ चुने हुए मनुष्य ही पूजा करते हैं जिनके हृदय परमात्मा से हट गए हैं', यह दिन प्रत्येक मास का १५वा दिन होता है। यहां हमें सौरों और भारतीय अन्य जातियों में एक और समानता मिल जाती है; अमावस का दिन ही ऐसा है जो चान्द्र मास के कृष्ण और शुक्ल नामक दोनों पक्षों को विभाजित करता है; जब सूर्य और उसका उपग्रह अन्तरिक्ष में आमने सामने हो जाते हैं, एक अस्त होता है और दूसरा पूर्ण रूप में उदित होता है, तो साबीनों (Sabeans) के समान हिन्दू भी अपनी टोपियां नए चाँद की ओर फेंकते हैं और दावतें करते हैं।' ये सूक्ष्म समानताएँ आई कहाँ से ? हम भली भाँति जानते हैं कि प्राकाशीय ग्रह-मण्डल की आराधना प्राकृत-धर्म का मूल-स्वरूप है, जो ध्रुवीय समुद्र के निवासियों और आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले प्राचीन 'जीत' (Gete) लोगों में समान रूप से पाया जाता है। परन्तु, यहाँ तो कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जो एक मूल स्रोत अथवा सीधे सम्पर्क के बिना नहीं आ सकतीं। इन विषयों पर हम आगे, जैसे-जैसे अवसर और स्थान की अनुकूलता प्राप्त होगी वैसे-वैसे, समय-समय पर विचार और अनुमान करते रहेंगे। __सौराष्ट्र को प्राचीन हिन्दूशास्त्रों में भारत का उपविभाग बताया गया है। मनु ने इसका उल्लेख किया है। पुराणों में, विशेषतः जहाँ-जहाँ विश्व-विवरण प्राता है उन अंशों में, इसका भी वर्णन किया गया है । परन्तु, महाभारत में इसकी प्रसिद्धि और भी अधिक बढ़ गई है क्योंकि भगवान् कृष्ण और अन्य नेताओं के पराक्रमों एवं मत्यु के दृश्य यहाँ पर ही घटित हुए थे। अतः यद्यपि इन प्रमाणों के आधार पर हम इस प्रायद्वीप में पाकर सौर जाति के बसने की ठीक-ठीक तिथि तो निश्चित नहीं कर सकते परन्तु यह अनुमान करने में भूल नहीं हो सकती कि इसका समय सिकन्दर महान् से कितनी ही शताब्दियों पूर्व का था और बहुत करके यह (समय) सॉल (saul)' का समकालीन अथवा उससे एक , किश (Kish) का पुत्र साल (Saul) इजरायल के यहूदियों का प्रथम बादशाह था। सैम्यूबर, भा० १,०३१ में लिखा है कि डेविड ने इसको गिलबॉय (Gilboy) पर्वत पर ई. पू. ९९० के लगभग हराया था। प्रतः इसका समय ईसा से प्रायः दस शताब्दी पूर्व का होता है। -The Outline of History-H. G. Wells, p.260 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्याय १३ वर्तमान सौराष्ट्र 1 [ २७१ शताब्दी पूर्व का हो सकता है जब कि सायरो-फोनिशियन ( Syro - Phoenician) उपनिवेश सभी क्षेत्रों में फैलते जा रहे थे । अणहिलवाड़ा को स्थापित करने वाला वंश उस सौर जाति का था, जो समुद्री तट पर बसी हुई थी धौर उन लोगों की प्रवृत्तियाँ मुख्यतः जहाजी थीं । इनमें से कुछ जातियों में ऐसी विचित्र परम्पराएं पाई जाती हैं जो यद्यपि उनके धर्म पर आधारित नहीं हैं परन्तु यह सिद्ध करती हैं कि वे अरब और लाल समुद्र से सम्बन्धित हैं ( इनका वर्णन यथा स्थान किया जायगा ) और ये विचित्र शिलालेख इस तथ्य की पुष्टि करते हुए प्रतीत होते हैं । ' इन क्षेत्रों के राजनैतिक नामाङ्कन में अन्य सौराष्ट्र का कोई स्थान नही है; हां, अकबर के समय तक इस प्रायद्वीप का एक उपविभाग संक्षिप्त रूप में 'सोरठ' कहलाता था, जिसकी राजधानी जूनागढ़ थी और यह गहलोत (मेवाड़ के राणाओं की जाति के ) राजानों के अधिकार में थी; साम्राज्य में इनके निश्चित सैनिक संविभाग का वर्णन अबुलफ़ज़ल ने किया है। यद्यपि उस समय को बीते तीन ही शताब्दियाँ हुई हैं परन्तु अब इस भूमि में एक भी गहलत नहीं मिलता । इन देशों में इस द्रुतगति से जातियाँ नष्ट हो जाती हैं । आजकल यह प्रायद्वीप बहुत-सी छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ है । यद्यपि काठियों के अधिकार में इसका बहुत थोड़ा-सा भाग है परन्तु, किसी परम्परा के अनुसार इस गेटिक भारतीय जाति के नाम पर ही इस सम्पूर्ण प्रायद्वीप का अभिधान किया गया है और इस प्रकार काठियावाड़ से सौराष्ट्र अभिभूत हो गया है । अस्तु - बीच में ( काठियों के उदय से पूर्व ) इस देश का एक नाम ऐसा था जिससे अल्माजेस्टम (Almagestum) का कर्ता एवं हिन्दू भूगोल-शास्त्री भलीभाँति परिचित थे; यह नाम 'लारदेश' था, जो लार जाति के नाम पर पड़ा था और ग्रीकों का 'लारिका' (Larica) अथवा लारिस (Larice) शब्द इसी से सम्बद्ध है । सौराष्ट्र अणहिलवाड़ा राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है । भारत में इतना सुगठित कोई दूसरा प्रदेश नहीं है, जिसकी गणना ऐसे सुसंहत राज्यों में की जा सके । जगत अन्तरीप से खम्भात की खाड़ी तक इसकी 9 उत्तर प्रथवा दक्षिण के निवासियों द्वारा उच्चारण करने पर प्रक्षर 'स' पोर 'च' में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । इस प्रकार कुख्यात पिंजारी सरदार 'चीतू' को दक्षिणी उच्चारण में सदा ही 'शीतू' बोला अथवा लिखा जाता है । * टॉलमी (Ptolemy) कृत गरिणत-सारणी (२४० ) । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा 2 चौड़ाई लगभग एक सौ पचास मील है और बनास तथा सरस्वती नदियाँ जिसमें गिरती हैं उस, छोटे 'उत्तरी' रण से चावड़ों की प्राचीन राजधानी देवबन्दर तक का विस्तार भी प्रायः इतना ही है । इसके सभी ओर समुद्र घूम गया है, केवल उत्तर में दोनों खाडियों के सिरे विस्तृत अरण्यों (अप० रणों) के द्वारा मिल गए हैं और केवल साठ या सत्तर मील की केन्द्रीय पर्वत श्रेणी ( जिसको हिन्दू भूगोल - शास्त्री 'पार्वती' ( Parvati) कहते हैं) से बहुत से निर्भर निकल कर इस प्रदेश में आते हैं श्रीर दोनों समुद्री तलों की ओर बहते हैं, इस कारण यहाँ की धरती में कई प्रकार की मिट्टी पाई जाती है। इन पहाड़ियों से सभी प्रकार का इमारती सामान प्राप्त होता है तथा यहाँ की नदियों में मछलियों की बहुतायत है और उनके तटों पर घने जङ्गल भी हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि जब से प्रणहिलवाड़ा के राजवंश समाप्त हुए तब से यहाँ की जातियाँ स्वतंत्र होकर जंगली और लुटारू जीवन बिताने लगीं और यह क्रम उस समय तक चलता रहा जब तक कि गायकवाड़ राजाओं ने इस प्रदेश के कुछ भागों पर सामन्ती और कुछ पर सम्पूर्ण सत्तात्मक रूप में पूर्ण अधिकार न जमा लिया । यहाँ के मुख्य उप-विभाग ये हैं- खम्भात की खाड़ी पर गोहिलवाड़ अथवा गोहिलों का प्रदेश, उत्तर में झालावाड़ जहाँ भाला (राजपूत) बसते हैं, पश्चिम में नवानगर, जहाँ जाड़ेचों की एक शाखा के जैन रहते हैं, पोरबन्दर में बालों का अधिकार है; जूनागढ़ में एक मुसलमान सरदार है और इसके अतिरिक्त कुछ और भी छोटे-छोटे जिले हैं । केन्द्र में काठी लोग हैं तथा चावडों की प्राचीन राजधानी देव बन्दर पर तीन शताब्दियों से पुर्तगालियों का अधिकार है, जिसका नाम उन्होंने बदल कर डयू (Diu ) कर लिया है । प्रायद्वीप के इन भागों में उक्त मूल जातियों के अतिरिक्त और भी बहुत सी सीथिक जातियाँ पाई जाती हैं, जैसे कामरी ( Camari ), जो अब जेठवा कहलाते हैं, कोमानी ( Comani ), जो काठियों की ही एक शाखा है; मकवाणा, जो प को झालों में गिनते हैं; जीतवार के जीत तथा अन्य भी बहुत सी शुद्ध अथवा मिश्रित जातियां हैं, जैसे मीरिया (Myrea), काबा इत्यादि, जिनका वर्णन जैसेजैसे उनके भेदों से हमारा सम्पर्क प्राता जायगा वैसे-वैसे यथास्थान आगे करेंगे । सच तो यह है कि जातियों की विभिन्नता के विषय में, वे देशी हों अथवा विदेशी, सौराष्ट्र के साथ भारत के अन्य किसी भी प्रान्त की तुलना नहीं की जा सकती । यहाँ पर आपको नीली आँखों वाले और गोरे काठियों से लेकर, जो अब भी उतने ही स्वच्छन्द हैं जैसे कि उनके पूर्वज मुलतान में मैसीडोनिया वालों से लोहा लेते समय थे, काले और तीक्ष्ण दृष्टि वाले 'वनपुत्र' भीलों तक सभी Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३; सौराष्ट्र के प्राकर्षण [ २७३ वर्गों के लोग मिलेंगे। मानवीय प्राकृतिक-इतिहास के शोधकर्ता के लिए उपयुक्त क्षेत्र होने के अतिरिक्त यह प्रदेश, एशिया के इस समुद्र-परिवेष्टित कोने की मोर मानव-मस्तिष्क को प्राकृष्ट करने वाले सभी धर्मों के इत्तिवृत्तों का भी केन्द्रीय अनुसंधान-स्थल है । प्रागे चल कर हम देखेंगे कि बौद्ध-धर्म के विषय में दो बातों में से एक अवश्य हो स्वीकार्य है-कि या तो इसका जन्म ही यहाँ पर हुमा अथवा एरिया (Aria) तक पहुँचने के लिए इस धर्म की जड़ पहले इसी प्रदेश में जमी थी। इस प्रश्न पर यह विवाद सामने आता है कि यहाँ पर कृष्ण की उपासना भी प्रायः उतने ही उत्साह और भवितभाव पूर्वक होती है। परन्तु, यदि हम परम्पराओं का समादर करें तो कहना पड़ेगा कि यह उपासना बुद्धपूजा का ही एक भेद है । पुरातत्त्वान्वेषकों और शिल्पशास्त्रियों को तो अपने अनुसन्धानों और चित्र-कक्ष के लिए नये-नये भाव सजाने का यहाँ पर बहुत बड़ा अवसर मिल जायगा क्योंकि उन्हें यहाँ लेखों की गूढ लिपियों को खोल कर पढ़ना और उन विविधाकार मन्दिरों की रचना करने वाले यांत्रिक मस्तिष्कों के आधार पर कल्पना करना होगा, जिनके द्वारा उनके संस्थापकों का धर्म चिर-स्थायी हो गया है। और, किसी पहाड़ी की चोटी अथवा समुद्र के तट पर निरभ्र चमचमाते दिन में अथवा वर्षा की सघन घनावली के घने अन्धकार में एक चित्रकार तो यहाँ की समरस विभिन्नताओं एवं सौन्दर्य की अनेकताओं को निरख कर पुलकित ही हो उठेगा। जलदावली की इस श्यामलता का वह सोमनाथ के मन्दिर और शिव के अस्पष्ट प्राचारों के साथ संयोजन कर सकता है अथवा राधा के प्रेमी के मन्दिर पर 'बोलते हुए.. रंग बरसा कर यौवनपूर्ण सौन्दर्य का चित्रण कर सकता है। अथवा, जैसे-जैसे वह पहाड़ पर 'शक्ति' के उपासक के मन्दिर की ओर चढ़ता जायगा वैसे ही गम्भीर से गम्भीर एवं सूक्ष्मतम प्राकृति और वर्ण को चित्रित करने के भाव उसके मस्तिष्क में उदित होते जावेंगे। यह उस प्रदेश के प्राकर्षणों का एक साधारण-सा चित्र है, जिसमें हो कर मैं पाठकों को ले चलना चाहता है-इस भूमि में इतने अधिक अध्येतव्य विषय हैं कि उनसे कितने ही ग्रन्थ और चित्र-संग्रह तैयार हो सकते हैं-परन्तु, मेरे अनुसन्धान एक त्वरित यात्रा के कारण सीमित हैं (यद्यपि विषय का कुछ पूर्व-ज्ञान मुझे है) प्रत: में सौर प्रायद्वीप के बहुत से अभिरुचिपूर्ण विषयों में से कुछ ही महत्त्वपूर्ण विषयों की परिमिति में रहने को विवश हैं। अब हम वापस गोगो चलें, जहाँ बारहवीं शताब्दी के अन्त में खेरधर से निकल कर जिस जाति के लोगों ने शरण ली थी। उनका नाम इसी स्थान के Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] . पश्चिमी भारत की यात्रा आधार पर उनके पूर्वीय भाई-बन्धुओं से भिन्नता प्रकट करने के लिए गोगरा गोहिल पड़ा था। आजकल जो पीरम टापू बन गया है वहीं पर, गोगो से भी पहले, गोहिल लोग आकर बसे थे; उस समय यह टापू होने की विपरीत परिस्थिति में नहीं था क्योंकि एक छोटे-से भू-खण्ड द्वारा यह मूल प्रदेश से संयुक्त था और गोगो. बन्दर का सुदढ़ गढ़ बना हुआ था। इतिहास के इन घनिष्ठ सम्बन्धों में निरन्तर प्राप्त होने वाली सांयोगिक एवं मनोरञ्जक सम-सामयिक घटनाओं में से हमें एक ऐसी घटना का वृत्तान्त मिल गया है, जिससे पीरम की प्रधानता का सुपुष्ट प्रमाण प्राप्त होता है। मेवाड़ के इतिहास में सन् १३०३ ई० में, 'पल्ला' द्वारा उस देश के अधिकृत होने की चिरस्मरणीय दुर्घटना के सम्बन्ध में हिन्दू-धर्म की रक्षा के निमित्त एकत्रित हुए वीरों के नाम गिनाते समय 'पीरम के गोहिल' का भी उल्लेख किया गया है । उस ग्रन्थ का अनुवाद करते समय मुझे इस गोहिल के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई थी और न अभी इस समय तक ही हुई है । गोहिलों के इतिहास और परम्पराओं में इस घटना की स्मृति सुरक्षित है, जिसने इस जाति के सम्मान में वृद्धि कर दी है। उस गोहिल सरदार का नाम अखैराज था; जब वह बनारस की यात्रा से लौट रहा था तब चित्तौड़ की रक्षा के निमित्त उसने तलवार बजाई और उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में अपने वीर-समूह के साथ वीर-गति प्राप्त की थी। इन सेवाओं के उपलक्ष में उसे 'रावल' की उपाधि पहले ही प्राप्त हो चुकी थी, जो अब तक उसके उत्तराधिकारियों में चली आ रही है। उसके वंशज वर्तमान सरदार ने मुझे यह भी बताया कि उसके पूर्वज को चित्तौड़ (के राणा) की लड़की सूजन कुमारी के साथ विवाह करने का भी विशेष सम्मान प्राप्त हुआ था-परन्तु, उस नवविवाहिता कन्या को 'अल्ला' की विजय का शिकार होकर सती हो जाना पड़ा। यह उपाख्यान इस कृति के अन्यतम भाग से सम्बद्ध है, यद्यपि इसका विषय पीरम का प्राचीन नगर है, जो गोगो से आने वालो जाति का (दिया हुमा) नाम है; इस (जाति) के पतन-विषयक वृत्तान्त वास्को-डे-गामा के अनुसन्धानों का एवं उसकी जाति के लोगों की इन समुद्री तटों पर प्रतिष्ठा का महत्त्व बढ़ाते हैं। 'सन् १५३२ ई० में जब भारत में पुर्तगाली हितों का गवर्नर, नन्हा दे कान्ह (Nunna de Canha) ड्यू (Diu) पर अधिकार करने के प्रथम प्रयास में असफल हो गया तो उसने अपने एक कप्तान एण्टोनियो-दे-साल्दन्हा (Antonio de Saldanha) को केवल समुद्री लूटमार के लिए ही यहाँ छोड़ दिया था। उन लोगों ने डयू से बारह लोग दूर सौराष्ट्र के दोनों तटों पर निर्दयता से Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३; पुर्तगालियों के प्रत्याचार [ २७५ लूटमार की, गोगो और पट्टन (पाटण सोमनाथ) को जलाया और वहाँ का धन हर ले गए।" इसके पाँच वर्ष बाद उन्होंने अपने हितकर्तागुजरात के बादशाह बहादुर शाह को विश्वासघात करके नृशंसतापूर्वक मार डाला। सन् १५४६ ई० में गोगो पर फिर आक्रमण हुआ और आग लगाई गई, वहाँ के निवासियों को निर्बाध रूप से तलवार के घाट उतारा गया और जानवरों के पर काट दिये गए; बहुत से दूसरे नगरों एवं वहाँ की नावों आदि की भी यही दुर्दशा हुई। हिन्दवासी अन्यधर्मावलम्बियों के विरुद्ध, ईसाइयों के युद्ध के ये पहले उदाहरण हैं । ये उन लोगों के व्यवहार थे, जो अपने को उस महान् धर्म का अनुयायी मानते हैं जिसका प्रथम उपदेश 'अपने पड़ोसी से प्रात्मवत् प्यार करो' है। 'ला इल्लाह मोहम्मद रसूल ए अल्लाह' कह कर कलमा पढ़ लेने पर अथवा जीवन के बदले में कर-स्वरूप धन दे देने पर हत्यारा महमूद और पिशाच 'अल्ला' सन्तुष्ट हो जाते थे और काफिरों को रक्षा का वरदान दे देते थे। यदि भारत में इतिहास की वाणी मौन होती तो ईसाई धर्म का सौभाग्य होता और कितने ही ईसाइयों ने इसे मौन सिद्ध करने के प्रयास भी किए हैं क्योंकि इस प्रकार के अत्याचार हिन्दुओं को उनके मत से किसी भी प्रकार का सम्पर्क रखने में भयभीत करने के लिए पर्याप्त थे। फिर भी, इन समस्त अपराधों के बीच, कितने ही मनुष्यों और उनके कार्यों में महानता की झलक अवश्य मिल जाती है तथा उदारता के अनेक उदाहरण अभिलिखित हैं । अलबुकर्क का एक आख्यान ही ऐसा है जो केवल व्यक्ति की ही नहीं अपितु उन लोगों के व्यवहार की विशिष्टता का भी परिचायक हैं, जिनसे उसका सम्पर्क हुआ था । अपनी आकांक्षा को प्रथम गति देने के निमित्त धन की तात्कालिक आवश्यकता उत्पन्न होने पर उसने शहर के नाम ऋण-हेतु मांग-पत्र के साथ अपनी मूंछ का एक बाल एकमात्र बंधक के रूप में जोड़ दिया और यदि इसके मूल में वह पुर्तगाल-निवासी इन प्रदेशों के रिवाज का पूर्णतः पालन कर रहा था, जहाँ मूंछे और प्रतिष्ठा प्रापस में परिवर्तनीय शब्द हैं, तथा उनके स्थिति और पतन साथ-साथ होते है, तो यही सबसे बड़ी प्रतिभूति थी, जो वह उपस्थित कर सकता था। भावनगर; नवम्बर-गोहिलों की वर्तमान् राजधानी; यह नगर गोगो से उ०प० में पाठ मील दूर एक लधु नदी पर स्थित है, जो कुछ मील आगे जाकर खाड़ी में मिल जाती है, जिसके पानी का चढ़ाव इसको जहाजों के यातायात-निमित्त अच्छे और सुरक्षित बन्दरगाह में परिवर्तित कर देता है। गोगो Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा से यहाँ तक का प्रदेश बिलकुल सपाट है; नगर के पास की ऊँची भूमि बीच में प्राकर उसके दृश्य को ढक लेती है और जब आप इसके समीप आ जाते हैं तो प्राम्रकुंजों में से निकलती हुई यहाँ की ऊँची श्रीर गुम्बददार छतरियाँ दृष्टिगत होने लगती हैं । नगर में घुसते ही हमें कोई भी चीज विशेष ध्यान देने योग्य नहीं दिखाई दी, केवल घनी व्यापारी बाजारों में इधर-उधर घूम रहे थे, जिनसे, कवि चन्द के कथनानुसार 'नगरों को सौन्दर्य (वैभव ) की प्राप्ति होती है'; और इस विचार से भावनगर निस्सन्देह सुन्दर था । इस नगर की स्थापना चार पीढ़ी पूर्व गोगा के सरदार रावल भावसिंह ने की थी, जिसके नाम पर ही इसका नाम भावनगर पड़ा है। वर्तमान् ठाकुर का नाम विजयसिंह है, वह बड़ी सहृदयता से हमें गोगो से आधे रास्ते पर अपनी राजधानी में लिवा ले जाने के लिए सामने आया । राजपूत में मुझे सदैव ही मित्र के दर्शन होते हैं और हिन्दूपति के दरबार से, जिन्होंने इस ठाकुर के पूर्वजों का मान बढ़ाया था (यदि पदवियों से इनका मान बढ़ता हो), श्राने के कारण यहाँ तो मेरे लिए विशेष सौहार्द प्राप्त करना निश्चित ही था । साथ ही, मेरे मित्र मिस्टर विलियम्स के समागम का भी श्रानन्द मुझे मिल गया था । घोड़ों पर बैठ कर हम कुछ मील साथ-साथ प्राए; इस बीच में श्रापस की बातचीत से यह यात्रा उत्साहपूर्ण रही और उनकी जहाजों एवं सेनाओं के अभिवादन के बीच राजधानी में सोल्लास प्रवेश करने से पहले ही हम 'खेरथल' से उनके निष्कासन से लेकर वर्त्तमान् तक उनके वंश और इतिहास की रूपरेखा, उनकी नीति, प्राय-स्रोत, दुख-दर्द, मित्रताएं और लड़ाई-झगड़ों के विषय में बातें कर चुके थे । राजपूतों से मेरो घनिष्टता होने के कारण उनके पूर्वजों के रिवाज के एक विशेष प्रतिक्रमण की ओर मेरा ध्यान गए बिना नहीं रहा और अन्य महत्त्वपूर्ण बातों के समान मैंने इस बात से भी यही निष्कर्ष निकाला कि 'मीडीज्' (Medes ) ' के समान राजपूतों के नियम अपरिवर्तनीय नहीं हैं । ठाकुर जब श्रार्य-भाषा-भाषी जनों का मुख्य समूह तुकिस्तान और ईरान की ओर भाया तो बहुत से लोग तो हिमालय की ओर बढ़ गए और कुछ छोटे-मोटे समूह पठार के पश्चिमी भागों मैं बस गए। यह घटना ई० पू० २००० की है। कितनी ही शताब्दियों तक ये लोग छोटे-छोटे राज्य बना कर रहते रहे। अन्त में, दो जातियों ने परम्परा भंग कर के अन्य सभी निम्न समूहों का नेतृत्व ग्रहण किया—ये लोग मीडीज़ और पर्सियन कहलाए । मीडोज़ का अधिकार पश्चिमी ईरान के उत्तरी एवं मध्य भाग पर था । ई. पू. नवीं शताब्दी में इन लोगों का असीरिया (Assyria) से संघर्ष हुआ परन्तु छिन्न-भिन्न और बिखरे हुए कबीलों में रहने के कारण इन में अनुशासन और संगठन की कमी थी, इसलिए Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३; भावनगर के रावल [ २७७ की सवारी के आगे-आगे उसके पूर्वजों के ढोली के स्थान पर एक अरबी बाजे वालों की टुकड़ी उसका यशोगान कर रही थी और यह टुकड़ी एक विचित्र-से समूह के रूप में दिखाई दे रही थी, परन्तु भद्दी नहीं मालूम होती थी। दरबार में भी इसी प्रकार की असंगतियों भरी पड़ी थीं; जब तीसरे पहर हम महल में गए तो वहां सजीव एवं निर्जीव सभी वस्तुओं का एक ऐसा विचित्र समाज देखने को मिला जैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। यहाँ पर अरबी और राजपूत रिवाजों का सम्मिश्रण था, जहाँ प्रत्येक वस्तु में जलीय एवं स्थलीय दृश्यों के संयोग का दर्शन होता था । दीवानखाना सुन्दर-सुन्दर झाड़-फानूसों से सजा हुमा था परन्तु उनके दुसंखे लकड़ी के लट्ठों पर खड़े किए गए थे, जो अवश्य ही किसी डॉक-यार्ड से लाए गए थे, जहां पर अच्छी से अच्छो नावें रस्सों द्वारा इनसे बाँधी जाती होंगी। छत में बहुत पास-पास काच के टुकड़े जड़े हुए थे और उनमें दीवारों पर बने हुए राजाओं के चित्र प्रतिबिम्बित हो रहे थे, जिनकी स्मति के साथ प्रत्येक वरतु अंग्रेजों से सम्बद्ध थी-इनमें मुख्य, जार्ज तृतीय' और उसकी रानी थीं। आदरणीय सम्राट के प्रतीक (उस चित्र) के प्रति सम्मान प्रकट करने हेतु जब मैंने अपना टोप उतारा तो इस ओर गोहिल सरदार का ध्यान गए बिना न रहा। जार्ज तृतीय और उसके पिता फ्रेडरिक, प्रिंस ऑफ वेल्स के चित्र राजपूताना में अपरिचित नहीं हैं। उदयपुर के राणाजी के यहाँ भी दोनों ही का एक-एक चित्र लगा हुआ था और जब उनके सामने अचानक आकर में इस प्रकार सिर उघाड़ कर नमस्कार करता, जिसका इस देश में प्रचलन नहीं है, तो वे बहुत प्रसन्न होते; वरन् मुझे अच्छी तरह याद है कि जब इसका (सिर उघाड़ने का) तात्पर्य मैंने उन्हें बताया तो उन्होंने अपने पास वालों को यह समझाने का अवसर न जाने दिया विशेष सफलता न मिली। इस के अनन्तर इन्होंने प्राधुनिक "हमदान' के स्थान पर अपनी राजधानी बनाई। यह स्थान घोड़ों की बढ़िया नस्ल के लिए बहुत उपयुक्त है। कालान्तर में इन के पास घोड़ों, ऊंटों और खच्चरों के विशाल पशु-धन हो गया और वे असीरियाई साम्राज्य को ताबे कर सके । ये लोग युद्ध करते-करते बहुत पक्के और दृढ़ हो गए थे । - History of the World, Weech; W. N. pp. 260-61 १ जॉर्ज तृतीय का पूरा नाम जॉर्ज विलियम फ्रेडरिक था। इस का राज्य-काल १७६० ई. से १८२० ई० तक था। अंग्रेज जाति में इसका अधिक सम्मान इसलिए होता था कि वह विशुद्ध अंग्रेज़ था और अपने पूर्ववर्ती राजाओं के समान जर्मन कुलोत्पन्न नहीं था जिनको इंगलण्ड निवासी विदेशी समझते थे। जॉर्ज तृतीय जन्म से ही अंग्रेजी भाषा बोलता था, जो उसकी प्रजा की भाषा थी। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा कि देश और काल का अन्तर अच्छे प्रजाजनों को 'उस महनीयता को नहीं भुलाता जो राजा में निहित होती है।' यदि मुझे उस समय ध्यान पाता तो मैं उन्हें यह अवश्य कह देता कि हमारे प्राचीन अच्छे राजा के प्रति, विशेषतः विदेश में, सम्मान प्रकट करना हमारी आदत बन गई थी और यह मेरे समकालीन एवं समवयस्क प्रत्येक अंग्रेज की जातीय भावना का अंग था और राजा की सालगिरह इंगलैण्ड में प्रत्येक युवक के लिए त्यौहार का दिन होता है । . विविध-वस्तु-संग्रहालय (किरकिरीखाने) में एक बढ़िया अरगन बाजा था जिसके एक ओर तो कामदार पाइप [स्वरनालिकाएं] थीं और दूसरी ओर सुन्दर कारीगरी का काम था, जिसमें एक सुरीली घड़ी लगी हुई थी और उसमें जल-प्रपात एवं समुद्र के दृश्य बनाए गए थे; हाशिए पर पसियस (Perseus) और एण्ड्रोमीडा (Andromeda) की गाथा' चित्रित थी, जिसमें अश्वारोही पसियस ने एक समुद्री राक्षस अथवा दानव के द्वारा एक कुमारी को समूची निगल जाने से बचाया था। यह बाजा भूतपूर्व मराठा सरदार के पास था और उसने इसके लिए चार हजार पौण्ड खर्च किए थे; परन्तु, यह ठाकुर बड़े गर्व के साथ कहता था कि जब पेशवा का बचा-खुचा सामान बिका तो उसने इसे उपयुक्त कीमत के दशमांस में ही खरीद लिया। ऐसी ही कारीगरी की चीजों को देख कर यहाँ के लोग हमारो उच्चस्तरीय योग्यता एवं ज्ञान के विषय में धारणा बनाते हैं। पूर्व के देशों में यात्रा करने वाले के पास अपने देश के प्रदर्शनीय यन्त्रों के जखीरे से बढ़ कर और 'प्रवेश-पत्र' नहीं हो सकता। मेरे पास भी एक 'जादू की लालटेन' थी, जिसके साथ कुछ आकाशीय दृश्य दिखाने 'पसियस (Perseus) ग्रीक पौराणिक गाथा का वीर था, जिसने ईथोपिया के राजा सीफियस (Cepheus) की पुत्री एण्डोमीडा (Andromeda) को एक समुद्री दैत्य से बचाया था। बात यह थी कि सीफियस की पत्नी ने यह घोषणा कर दी कि वह जलपरियों से भी अधिक सुन्दर थी। परियां नाराज़ हो गई और झगड़े में समुद्र के देवता पोसीडोन (Poseidon) ने जल देवियों का पक्ष ले कर एक जल-राक्षस को सीफियस के राज्य में मनुष्यों और पशुओं का भक्षण करने के लिए भेज दिया। जब पसियस अपने वीरअभियान के प्रसंग में वहां पहुंचा तो कुमारी एण्ड्रोमीडा को एक चट्टान से बंधी हुई देखी। प्रथम-दृष्टि में ही उनका प्रेम हो गया और परिणामतः विवाह हुमा। पसियस और जल-राक्षस के युद्ध को बेबिलोन के लोग सूर्य देवता (मेरोडाच Merodach) और अन्धकार की शक्ति के संघर्ष का भी प्रतीक मानते हैं । यह गाथा भनेक चित्रों का विषय बन गई थी। Encyclopedia of Mythology; Robert Graves p. 201.---Encyclopedia of Religion and Ethics, Vol; V p. 609. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३; पाश्चर्यकारक विविध वस्तुएं [ २७६ एवं नक्षत्र-समूह सम्बन्धो स्लाइडे (काच-पट्टियाँ) भी थीं तथा स्लाइडों का एक अन्य सैट हिन्दू पौराणिक दृश्यों का था, जो जोन्स को आर्डर देकर बनवाया गया था; कुछ और भी स्लाइडे स्थलीय दृश्यों तथा 'हॉल्बीन" द्वारा चित्रित 'मृत्यु-नत्य' आदि की थीं; इनके अतिरिक्त तरह-तरह के प्राईने थे, जिन में वस्तुओं के विकृत रूप और लम्बे अथवा छोटे चेहरे दिखाई देते थे, इस की सहायता से सिन्धिया ने अपने एक सरदार को डरा दिया था। जिससे उसको बीमारी का दौरा हो गया। रासायनिक प्रयोगों से तो लोगों को विशेष प्राश्चर्य होता ही था पर पदार्थों और रंगों के परिवर्तन को देख कर तो यही कहना पड़ता था कि 'यह क्या रहस्य है ?' परन्तु, इन चीजों में सब से अधिक आश्चर्यकारी 'कैमरा-प्रॉब्स्क्यूरा था, जिससे अच्छे-अच्छे आदमियों का भी मनोरञ्जन होता था और जिससे उदयपुर के महाराणा को अन्तिम क्षणों में भी कुछ आराम मिल सका था। वे मुझ से कहा करते थे, आप मेरे 'मन की दवा ले आए हो ?' और, मैं इन चीजों को दिखाने के लिए नित्य कई घण्टे उन के पलङ्ग के पास बैठा रहता था। ऐसे अवसरों पर उन के चारों ओर जनाने की स्त्रियां इकट्टी रहती थीं, जो परदा नहीं करती थीं, परन्तु मैं उन के नाम और गुणों के विषय में कुछ भी नहीं जानता था। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे कुछ चुनी हुई (मर्जीपात्र) दासियां ही होती थीं। इसके पश्चात् ठाकुर के सब से छोटे लड़के ने हमें अपने चीनी खिलौने दिखाए जिनकी हम ने बारी-बारी से प्रशंसा की और हमारे मेजमान को खुशमिजाजी के कारण हमें इस कार्य में कोई कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ। विजयसिंह के दरबार से हम उनके बन्दरगाह पर गए, जिसका उन्हें बहुत शौक था। भारत के महान् मरुस्थल से भाग कर आए हुए एक राजपूत सरदार का व्यापारी के रूप में जहाज-व्यवसायी बन जाना एक विचित्र-सी सम्मिश्रण की बात है। हमने दो जहाज देखे; एक तो बर्फ के समान सफेद था, जिसमें अट्ठारह बन्दूकों के छिद्र थे, दूसरा दो मस्तूल वाला जहाज था । छोटी-छोटी नावों, डोंगियों, दो-मस्तूलें जल-वाहनों के अतिरिक्त सभी जहाज १ हॉल्बीन (Holbien) जर्मन चित्रकार था। उसका जन्म १४६७ ई० में हुआ था। काच पर चित्र बनाने में वह बहुत कुशल था। उसके बनाए हुए धार्मिक चित्रों की बहुत प्रसिद्धि थी। वह इंगलण्ड के बादशाह हेनरी सप्तम का दरबारी चित्रकार भी रहा था । १५४३ में वह प्लेग से लन्दन में मर गया।-N.S.E., P. 645 २ अंधेरे कमरे में सफेद भित्ति पर पदार्थों का छायाचित्र फेंकने वाला यंत्र । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] पश्चिमी भारत की यात्रा गोहिल सरदार के थे । उन्होंने अपने सबसे बड़े जहाज का इतिहास बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में आरम्भ किया, जो मोज़ाम्बिक' से गुलामों का काफिला ले जाते हुए पकड़े जाने के कारण बम्बई के जहाजी न्यायालय द्वारा ख़ारिज कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि उनका उस व्यापार से कोई सम्बन्ध नहीं था, चाहे वह अवैध हो अथवा श्रीर कुछ; उन्होंने तो वह एक व्यापारी को निश्चित रकम में किराए दिया था और अपने किराए की रकम के अतिरिक्त और किसी बात से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था । हमारे जहाजी व्यापार के नियमों को न जानने के कारण उन्हें जहाज - स्वामी के अवैध व्यवसाय के आधार पर जहाज को खारिज कर देने में कोई न्याय दृष्टिगत नहीं होता था । हमने उन्हें फैसला लोटने के सम्बन्ध में कोई आश्वासन नहीं दिया। उनकी प्राय का अधिकांश बन्दरगाह के कर से प्राप्त होता था, जो पहले तो सात लाख तक पहुंच जाता था परन्तु जबसे हमने पड़ोस के बन्दरगाहों और व्यापारिक मण्डियों, जैसे धोलारा आदि पर अधिकार प्राप्त किया है, उनकी यह श्रमदनी आधी से भी कम रह गयी है; भूमि के लगान से भी लगभग उनको इतनी ही आय होती है और सब मिल कर सात लाख के लगभग रकम प्राप्त हो जाती है । उन्होंने मुझे बताया कि गोहिलवाड़ प्रान्त के भीतर और बाहर कुल आठ सौ ग्राम उनके आधीन थे और वस्तुतः वे प्रायद्वीप के चतुर्थांश के स्वामी थे क्योंकि अपने प्रदेश के अतिरिक्त काठियावाड़ झालावाड़ और सुदूर बाबरियावाड़ तक में जीत कर बहुत-सी भूमि उन्होंने अपने अधिकार में कर रखी थी । परन्तु, विजय की भावना अब प्रायः बैठ चुकी है और इस सर्वत्रव्यापी शान्ति के काल में अधिकार ही स्वामित्व का मूल बन गया है । अब में गोहिल वंश का साधारण सा चित्रण प्रस्तुत करूँगा, मुख्यतः यह बताने के लिए कि समय एवं स्थानभेद अथवा दशा और व्यवसाय- परिवर्तन के कारण कोई राजपूत सरदार अपनी वंश-परम्परा को कभी नहीं भूल सकता है । ऐसा होता है कि भ्रमणशील कविपुत्र ( भाट ) ही प्रतिवर्ष प्राचीन खेरभूमि से आकर इन लोगों को प्रतीत की याद दिलाते हैं, क्योंकि कविता श्रौर व्यापार इस सृष्टि में विपरीत दिशा में रहने वाली वस्तुएं होने के कारण हिन्दू देवी सरस्वती का मन समुद्री बन्दरगाहों और रूई की गाँठों में प्रसन्न नहीं रह सकता; और, यह मानना पड़ेगा कि भावनगर के इतिहासलेखक, मुझे अब तक मिले हुए लेखकों में, सब से अधिक अनपढ़ थे। गोहिलों की १ पूर्व य अफ्रीका का एक पुर्तगाली बन्दरगाह | Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३, पीरम के गोहिल [ २८१ प्राचीन राजधानी खेरथल बालोत्रा से दश मील की दूरी पर है, अथवा थी। वहाँ से जिस सरदार को राठौड़ों ने निकाला था, उस का नाम सेजक था और वही सब से पहले सौर देश में भाग कर पाया था, जहाँ उस ने विजय प्राप्त कर के सेजकपुर नाम से नया नगर बसाया । उस का पुत्र राणजी हुआ जिस ने एक और नगर ले लिया और उसको अपने नाम पर राणपुर की संज्ञा प्रदान की। उस के पुत्र मोखड़ा (Mocarro) ने भीमाज, चमारनी, उमराला, खोखरा पौर प्राचीन बाली अथवा वलेह ले लिए, जो सब आजकल गोहिलवाड़ में सम्मिलित हैं । उसने गोगो और पीरम भी कोलियों से छीन लिए और पीरम को अपना निवासस्थान बनाया । वह प्रसिद्ध समुद्री डाकू हो गया था और अपने व्यवसाय को आमदनी के बल पर ही पीरम को हड़प गया; धन से लदे हुए छः जहाजों को लूटने के बाद वह इतना भयंकर हो गया था कि बादशाह को (आख्यान में बादशाह का नाम नहीं दिया है)' उस के विरुद्ध सेना भेजनी पड़ी। मोखड़ा ने, जो लम्बाई में छः हाथ का था, वीरतापूर्वक सामना किया और एक ही झपट्टे में बादशाह के भतीजे को भी मार डाला; पचीस हजार आदमियों के मारे जाने पर भी उस ने आमरण आत्म-समर्पण नहीं किया। इस घटना के कारण इस वंश को एक बार फिर देश छोड़ना पड़ा । मोखड़ा का बड़ा पुत्र डंगा किसी प्रकार गोगो में बना रहा, परन्तु उस का भाई सोमसी-जी नाँदोद चला गया और उस के वंशज आज तक राजपीपला में राज्य करते हैं। __इंगा के बीजली [जी] (Beejuli) और उस के कानजी और रामजी हुए। कानजी बादशाह के विरुद्ध गोगो की रक्षा करता हुआ युद्ध में मारा गया और उस का पुत्र सारङ्ग बन्दी हुआ । परन्तु, एक स्वामिभक्त नौकर किसी प्रकार बन्दीगृह में पहुँच गया और उस की जंजीरें तोड़ कर उसे चित्तौड़ ले गया। वहाँ के राजा ने उसे एक सेना देकर गोगो पर पुनः अधिकार प्राप्त करने के लिए भेजा, जहाँ पर उस समय उस के काका कानजी, [रामजी ?] ने कब्जा कर रखा था और अत्याचारी होने के कारण वहाँ की प्रजा उस से घृणा करती थी। उसे गद्दो से उतार कर पालीताना व लाटी के चौवालिस गाँवों का तपा' (Tuppa) उस की जागीर में दे दिया गया। सारङ्ग का पुत्र श्योदास था। एक बार फिर शाही सेना ने गोगो से गोहिलों का अधिकार हटा दिया और बे भाग कर खोखरा और उमराला चले गए। सम्भवतः उन का शत्रु वज़ीरउल्मुल्क ही था, जिस के शिलालेख के विषय में पहले लिखा जा चुका है। ' मुहम्मद तुगलक; History of Gujrat, Commissariat, Vol. I; p. 42 २ तप्पा-जिला या परगना । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा श्योदास का जैत नामक पुत्र था, जिस के रामसिंह हुआ, जो चित्तौड़ की रक्षा करते हुए काम आया और उस की स्त्री सूजन कुमारी उस के साथ सती हुई । उसके तीन पुत्र हुए-सत्त, देव और बीर । पिछले दोनों के नामों से 'देवाना' और 'बीराना' नामक गोहिलों की दो नई शाखाएं चलीं। सत्त के तीन पुत्र हुए, जिन में ज्येष्ठ पुत्र बीसल को सीहोर की जागीर प्राप्त हुई, जो अणहिलवाड़ा के मूलराज ने ब्राह्मणों को दान में दे रखी थी; परन्तु, वे आपस में लड़ पड़े और उन्होंने अपने पर शासन करने के लिए संवत् १५७५ (१५१६ ई०) में एक राजा का चुनाव किया। बीसल का पुत्र धूनो हुआ, जिस के पुत्र प्रखैराज ने निःसन्तान होने के कारण अपने भाई के पोते हर-ब्रह्म को गोद लिया। उस के पुत्र अक्षराज का पुत्र रत्न हुआ, जिस के पुत्र भावसिंह ने जूना अथवा पुराने बडवार के स्थान पर संवत् १७७९ (१७२३ ई०) में भावनगर बसाया। भावसिंह के अखैराज और बीसा हुए । बीसा बहुत समय तक बाहरबाट रहा और अन्त में उस ने वला और चमारनी को जागीर में प्राप्त किया। अखैराज का पुत्र बखतसिंह हुआ, जो साधारणतया अट्टाभाई के नाम से प्रसिद्ध था। उसी का पुत्र विजयसिंह वर्तमान ठाकुर है । उस का पुत्र और उत्तराधिकारी भावसिंह है, जो चौथी पीढ़ी में नगर के संस्थापक का नाम धारण करता है और इस समय बाली (प्राचीन बलभी) में रहते हुए वहाँ का शासन चलाता है। इस प्रकार खेरथल से निकल कर आए हुए मूलपुरुष से लेकर अब तक छ: सौ उनतीस वर्षों में इक्कीस पीढ़ियाँ हो चुकी हैं। अनुपात से एक-एक पीढ़ी का समय उनतीस वर्ष प्राता है, जो अन्तः स्थलीय राजाओं की पीढियों से छः वर्ष अधिक है। यदि यह ठीक है तो इन की दीर्घ-जीविता का कारण अच्छा जलवायु एवं शान्तिपूर्ण जीवन तो नहीं माना जा सकता क्योंकि जन्मभूमि से निकलने के बाद समुद्री लूटमार ही गोहिलों का मुख्य व्यवसाय रहा है। गोहिलों के सरदार को प्रालंकारिक भाषा में यहाँ के लोग 'पूरब का पातशाह' कहते हैं । इस में 'पूरब' का अर्थ प्रायद्वीप के पूर्वीय भाग तक ही सीमित है, जो सैक्सन सप्तराज्यों' में से कुछेक के बराबर है तथा 'फीफ' के साम्राज्य (Kingdom of Fife)' से भी उस की तुलना की जा सकती है। यह , ई. पू. ३०० के लगभग रुक्सन जाति के लोग योरप में फैल गए थे। उसी समय इंगलैंड पर भी इन का अधिकार था। उस समय यह देश सात छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। १ स्कॉटलैण्ड राज्य का एक भाग; इसका विस्तार केवल ५०४ वर्ग मील का माना जाता है और यह फोर्थ (Forth) और टे (Tay) नदियों के बीच का प्रायद्वीपीय भाग है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३, सोहोर [२८३ पूर्व का बादशाह चरित्र में सहृदय और सत्कुलोत्पन्न है । केवल चवालिस वर्ष की अवस्था में ही वह एक छः वर्षीय बालक का पितामह है। वह हमारे सम्मिलन से बहुत प्रसन्न प्रतीत होता था और हम भी उस के प्रत्येक कार्य में व्यवस्था और परिश्रम को देख कर प्रभावित हुए बिना न रहे, और इन प्रदेशों के पुरातन रीति-रिवाजों से सुपरिचित होने के कारण मैंने यही सोचा कि ये उपयोगी और मानवीय सभ्यता के सद्गुण उसे विस्तृत व्यापार के बदले में ही प्राप्त हुए थे। सीहोर - नम्वबर - यह नगर नौ कोस दूर था। नहरवाला के शक्तिशाली राजा मूलराज द्वारा दशवीं शताब्दी में बसाए हुए इस ब्राह्मण-उपनिवेश की स्थिति बहुत ही मनोरञ्जक है, और इस के परकोटे में किलेबन्दी के किसी भी सिद्धान्त के स्वीकार्य न होने से इस की सुन्दरता और भी बढ़ गई है। अलगअलग खड़ी हुई पहाड़ी चोटियों पर बनी हुई गोल बुर्जे नीची दीवारों से संयुक्त कर दी गई हैं और इन के पीछे खड़ी हुई ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ दृश्य के गौरवको बढ़ा देती हैं । नगर के परकोटे के चारों ओर एक स्वच्छ झरना बहता है, जिसके किनारे-किनारे बहुत बड़े-बड़े वृक्ष खड़े हुए हैं। सीहोर को अति पुरातनता का गौरव प्राप्त है, और इसके साथ बहुत-सी अतीत के उपाख्यानों को अनुश्रुतियाँ जुडी हुई हैं । इसके अतिरिक्त गोगो के हाथ से निकल जाने के बाद भावनगर बसाने तक के समय के लिए यह गोहिलों का प्रमुख निवास-स्थान भी रहा है। इसको मूल-पावनता गोतम (पौराणिक मुनि) के प्रभाव से एक रोग-नाशक जलस्रोत के कारण उत्पन्न हुई, जिसमें स्नान करने से मूलराज के किसी पुराने दुष्ट रोग का निवारण हुअा और इस अवसर पर उसने सीहोर तथा आसपास की भूमि का दान ब्राह्मणों को कर दिया था। उनके पास यह उस समय तक रही जब तक कि उनके आपसी मतभेद राजनैतिक झगड़ों में परिणत न हो गए और इन ब्राह्मण-योद्धाओं के वंशजों ने अपने को किसी स्वामी के आधीन मानना स्वीकार न कर लिया। उन्होंने गोगो के गोहिल को अपना नवीन स्वामी चुना और उसको समस्त जाति की रक्षा एवं राजनैतिक नियंत्रण सम्बन्धी सम्पूर्ण अधिकार दे दिए; परन्तु, एक बाग लगाने के निमित्त पर्याप्त भूमि के अतिरिक्त उन्होंने समस्त भूमि पर अपना ही अधिकार बनाए रखा और गोहिलों का भी प्राचीन संस्कारों के कारण 'शासन तोड़ने अथवा धर्मार्थ प्रदत्त भूमि का पुनर्ग्रहण करने को, अब तक आठ शताब्दियां पूर्ण होने पर भी, साहस न हुआ, क्योंकि इस कर्म का दण्ड साठ हजार वर्ष तक नरकवास जो होगा ! आज कल यहां पर गोहिल के युवराज भावसिंह का Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अधिकार है जिसकी, जैसा कि एशिया में ही नहीं, सभी जगह रिवाज है, अपने पिता से नहीं पटती, क्योंकि यहां पर भी अन्य उन्नत देशों की तरह उपासकों द्वारा उगते हुए और अस्तोन्मुख सूर्य को समान रूप से अर्ध्य नहीं दिया जाता। वलभी - 'सौरों की भूमि' की यात्रा करने का मेरे लिए एक मुख्य आकर्षण यह भी था कि मुझे मेवाड़ के राणाओं की प्राचीन राजधानी का पता लगाना था, जहां से इण्डो-गेटिक आक्रमणकारियों ने उन्हें विक्रम की पहली शताब्दी में निकाल दिया था। आजकल इसका नाम बाली अथवा वलेह है, परन्तु जब मैंने गोहिल राजा में इसके विषय में पूछा और उन्होंने इसका पूरा प्राचीन नाम 'बलभीपुर' बताया तो मुझे बहुत प्रसन्नता हुई; साथ हो, मुझे यह जान कर दुःख भी हुआ कि भूतकाल में जिस नगर का घेरा अट्ठारह कोस (बाईस मील) में था और जहां तीन सौ और साठ जैन-मन्दिरों के घण्टे उपासकों को प्रार्थना के लिए आमन्त्रित करते थे वहाँ उसकी महानता का अब कोई भी चिह्न अवशिष्ट नहीं रह गया था-केवल नींव की ईंटें खोदने पर ऊपर ही खूब मिल जाती हैं, जिनमें से प्रत्येक लम्बाई में दो फीट और तौल में आधा मन अथवा पैंतीस पौण्ड की होती है । प्रायः गडरियों को विचित्र भौति के सिक्के भी मिल जाते हैं। ये खण्डहर मेरे पालीताना के मार्ग से उत्तर की ओर पूरे दश मील की दूरी पर थे और गोहिल राजा ने, जिसके राज्य में ये स्थित थे, मुझे अच्छी तरह विश्वास दिला दिया था कि वहाँ कुछ भी दर्शनीय नहीं है, इसलिए मैंने वहां जाने का विचार छोड़ दिया । बलभी सिद्धराज के समय तक प्राचीन सूर्यवंशी राजाओं के एक वंशज के अधिकार में बना रहा। बाद में, ब्राह्मण जाति पर अत्याचार करने के कारण उसको निकाल दिया गया था। इन ब्राह्मणों को सिद्धपुर में विशाल रुद्रमाला मन्दिर के निर्माणोपरान्त यह नगर उसने एक सहस्र ग्रामों सहित 'सासन' अथवा धर्मार्थ प्रदान कर दिया था। इन लोगों के अधिकार में यह उस समय तक रहा जब तक कि आपसी झगड़ों के कारण वह जाति प्राधीन रह गई। उन लड़ाकुओं में से एक ने गोहिल राजा को यह प्रलोभन दिया था कि यदि वह उसकी सहायता करेगा तो वह अपने विरोधियों की भूमि उसको दिला देगा; उस समय-से, तीन शताब्दियां हो गई, यह गोहिलों के ही अधिकार में है । पवित्र पालीताना पहुँचने तक एक और भी अवसर मुझे मिला जब कि मैं अपने बलभी-विषयक ज्ञान में कुछ मनोरंजक वृद्धि कर सका; इस अवसर से मेरी उन सभी सूचनाओं की पुष्टि हो गई. जो मैंने बाली और मारवाड़ में सांडेरा के यतियों से सुन-सुन कर एकत्रित कर रखी थीं। ये उन लोगों Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३; बलभी संवत् [ २८५ के वंशज हैं, जिनको संवत् ३०० (२४४ ई०) में इसके विध्वंस के समय यहाँ से निकाल दिया गया था। मुझे जिन लोगों से जानकारी प्राप्त हुई वे विद्वान जैन साधु थे और उन्होंने सभी तथ्यों के प्रमाण अपनी पोथियों एवं परम्परागत अनुश्रुतियों के आधार पर प्रस्तुत किए थे। उपर्युक्त दोनों ही सूचना-स्रोतों के आधार पर उन्होंने इसकी प्रसिद्धि, प्राचीनता, विस्तार, विशालता और इतिहास में उस समय जैन-धर्म का मुख्यकेन्द्र होने के विषय में बातचीत की जब कि यहाँ पर सूर्यवंशी राजा राज्य करते थे। मेरे समान उनका भी यही अनुमान था कि सूर्य और सौर में समानता थी, और अपर शब्द के आधार पर ही इस प्रायद्वीप का नाम (सौराष्ट्र अथवा सौर द्वीप) पड़ा था और उपर्युक्त दोनों नामों की उत्पत्ति सूर्योपासना के कारण ही हुई थी। मेरी इस प्रसंगोपात्त किन्तु महत्वपूर्ण खोज के भी यहां पर पर्याप्त प्रमाण मिले कि बलभी का एक स्वतन्त्र संवत् प्रचलित हुअा था-जैसे कि मेवाड़ में मयणल (मेनाल] का शिलालेख, जो 'बलभी के द्वारों' की अोर आकर्षित करता हुआ यहां के राजाओं की महत्ता का प्रमाण उपस्थित करता है और यह भी सिद्ध करता है कि वे वलभी से ही निकल . कर उधर गए होंगे, क्योंकि उत्तर से आने वाले आक्रमणकारियों ने यहाँ के वैभव को नष्ट कर के 'सूर्य-कुण्ड की पवित्रता को गोमांस से भ्रष्ट कर दिया था।'.. अब तक भी पुस्तकें और अनुश्रुतियां दोनों ही बल्ल जाति को बलभी के राजाओं से सम्बद्ध बताते हैं । उनका कहना है कि कनकसेन, जो. लव अथवा लोह का (अयोध्या के सूर्यवंशी राजा का ज्येष्ठ पुत्र, जो पञ्चालिका अथवा. आधुनिक पंजाब के लोहकोट में बस गया था) वंशज था, वहां से इस प्रायद्वीप में आ गया था और उसने धानुक [धेनुका) को अपना निवास स्थान बनाया था, जो प्राचीन समय में मूजीपट्टण कहलाता था। तत्पश्चात् बालक्षेत्र पर विजय प्राप्त करके उसने बाल राजपूत की पदवी धारण को। बालक्षेत्र के स्वामी ही 'बाल-का-राय' कहलाए क्योंकि, निस्सन्देह ही, बल्हस राजाओं के लिए बहुधा प्रयुक्त इस पद की उत्पत्ति इसी कारण से हुई होगी। धानुक अब भी एक बल्ल जातीय राजा के अधिकार में है और इस प्रायद्वीप में भली-भांति प्रसिद्ध है। यद्यपि ये लोग अपने को विशुद्ध राजपूत कहते हैं, परन्तु लोगों का कहना है कि इनका रक्त काठियों से मिश्रित हो चुका है। उधर, काठी कहते हैं कि वे भी बल्लों की ही एक शाखा हैं और दोनों ही, अनुश्रुतियाँ तथा 'भाट का विरद' अर्थात् 'तत्त मुल्तान का राय', काठी की स्थिति वहीं जाकर बताते हैं, जहां पर काठी ने अलक्षेन्द्र से टक्कर ली थी, अर्थात् लोहकोट में, जो इस जाति का उद्गम स्थान है । अब हमारी प्राशा काव्य पर लगी हुई है । । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बलभी से अधिक दूर न चल कर यात्रियों के लिए अद्यावधि एक तीर्थस्थान विद्यमान है, जो भीमनाथ के नाम से प्रसिद्ध है और यहां के राष्ट्रीय महाकाव्य महाभारत से सम्बद्ध है; यहां पर एक जलस्रोत है जिस का पानी प्राचीन काल में चमत्कारपूर्ण प्रभाव से युक्त था। इसी के किनारे पर पवित्र शिव-मन्दिर है, जहां पर देश के कोने-कोने से यात्री पाया करते हैं। इस स्थल की उत्पत्ति पाण्डव बन्धुओं के पराक्रम और उन के विराट-वन में बनवास से सम्बन्धित बताई जाती है। अनुश्रुतियों के आधार पर इसी प्रदेश को विराटक्षेत्र बताया जाता है और इस की राजधानी विराटगढ़ आधुनिक परन्तु अधिक भाकर्षक धोलका को बताया जाता है, जो बाल-क्षेत्र के अन्तर्गत है और जो मेवाड़ के प्राचीन ऐतिहासिक वत्तों की सचाई को सद्यः एवं दढ़ता के साथ प्रमाणित करता है-उन ऐतिहासिक वृत्तान्तों में लिखा है कि बलभी, विराटगढ़ और गढ़-गजनी-ये तीन प्रमुख नगर थे, जो उन लोगों के सौर देश' से निष्कासित होने पर उन्हीं के अधिकार में रहे थे। भीमनाथ का नाम पाण्डव भीम के नाम पर पड़ा है और इस शिवलिङ्ग की स्थापना के मूल में उस का अपने अनुज अर्जुन के प्रति स्नेह-भाव ही था, जो अपने धनुष के बल पर शिवार्चन किए बिना भोजन नहीं छूता था। जब हरिका (जिस में विराट था) के दुर्गम्य जङ्गलों में कितने ही दिन घूमने पर भो कहीं कोई शिवलिङ्ग न मिला और थका-मांदा अर्जुन मूछित हो कर आगे चलने में समर्थ न हुआ तो भीम को थोड़ी दूर पर एक चरवा (पानी भरने का बड़ा बर्तन) मिला। उस ने झरने में से पानी भर कर चरवे को प्राधा जमीन में गाड़ दिया और इस के चारों ओर शिवजी के चढ़ाने योग्य पत्रपुष्प, जैसे बेल, पाक और धतूरा आदि रख कर किसी गवेषक के समान उत्साहित हो कर वह अपने भाई अर्जुन के पास दौड़ा गया और उसे प्रसन्न हो कर पूजा करने के लिए कहा । इस प्रकार, धोखे से, अपने भाई की शक्ति पुनः प्राप्त होने पर वह खुशी के मारे अपने षड्यन्त्र का उद्घाटन करने के लोभ को भी न रोक सका और अट्टहास करते हुए कहने लगा कि उसने तो एक पुराने चरवे की पूजा कर ली। भाई की इस हँसी से अर्जुन बहुत अप्रसन्न हुआ और वे आपस में लड़ाई पर उतारू हो गए। उसी समय, भीम ने विश्वास दिलाने के लिए उस चरवे पर गदा से चोट मारी और उस के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। परन्तु, तभी एक बड़े आश्चर्य की बात हुई कि जहाँ उस की चोट पड़ी थी वहीं दरार होकर एक रक्त का नाला उझल पड़ा। अपने इस पापकर्म पर पश्चात्ताप करते हुए भीम ने आत्म-बलिदान करने का निश्चय किया और अर्जुन Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १३; भीमनाथ [२८७ के बहुत कुछ अनुनय-विनय करने पर भी अपनी इस प्रतिज्ञा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब स्वयं शिवजी एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में प्रकट हुए तथा उस के अनुताप को स्वीकार करते हुए उन्होंने इच्छानुसार वरदान मांगने के लिए कहा। भीम ने प्रार्थना की कि उस के इस पाप की याद सदैव बनी रहे इसलिए जिस देवता का उसने अपराध किया है उस के साथ भीम का नाम भी जुड़ जाये और तदनन्तर वह स्थान भविष्य के लिए तीर्थ रूप बन जाये--इस प्रकार इस स्थान का नाम 'भीमनाथ' पड़ा। झरने के किनारे पर एक शिवलिंग का पूजन होता है। कहते हैं कि कुछ समय पूर्व यहाँ के मुख्य पुजारी ने देवता के दृश्यमान लिंग पर मन्दिर खड़ा करवाने का विचार किया और कुतूहलवश जमीन में गड़े हुए लिंग की गहराई जानने के लिए उत्खनन भी किया। तीस फीट खोदने पर भी कोई पता नहीं चला, फिर भी उस ने अपना काम चाल रखा, तब स्वयं शिवजी प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि 'मुझे विशाल बड़ के पेड़ के अतिरिक्त और किसी मन्दिर की आवश्यकता नहीं है, जिस की लम्बी-लम्बी शाखाएँ स्तम्भों के समान हैं और जिस का छत्राकार घेरा ही सर्वथा उपयुक्त चंदोवा है, जो स्वयं मेरे व मेरे भक्तों के लिए पर्याप्त है ।' श्रद्धालु भक्तों के उत्साह से वहाँ पर बहुत बड़ा संभार चलता है, क्योंकि भगवान् शिव तो ( प्राकृतिक ) तत्वों से अपनी प्रतिमा की ) रक्षा करने में समर्थ हैं, परन्तु उन के स्थानीय एवं आगन्तुक भक्तों के कलेवर तो पाषाण की अपेक्षा प्रति कोमल सामग्री के बने हुए हैं। अतः उन्होंने महान् वटतरु की अपेक्षा सुदृढ़तर सुरक्षा-गृह बनाना ही अधिक उपयुक्त समझा। निदान, सभी स्थानों से यहाँ आने वाले यात्रियों के लिए पर्याप्त भवन बने हुए हैं। महन्त के पास अभी पिछले दिनों तक कच्छ और काठियावाड़ के एक-सौ चुने हुए घोड़ों का अस्तबल था--परन्तु, भाटों और चारणों को दान कर के उस ने अब उन की संख्या आधी रख ली है। कहते हैं कि इस दान का मुख्य लक्ष्य व्यय में कमी करना ही था। अन्य बहुत-से तीर्थ-स्थानों की तरह यहाँ भी महन्त की ओर से सदावर्त चलता है और प्रत्येक प्रागन्तुक यात्री को किसी भी प्रकार के जातीय भेदभाव के बिना भोजन दिया जाता है । घुमन्तू काठी जाति के लोग इस तीर्थ की बहत 'मानता' करते हैं। शान्ति से पहले के बिगड़े हुए जमाने में, जब इन लोगों के भाले हल के फल के रूप में परिणित नहीं हुए थे तब, वे लोग यहां पर अपने शस्त्र पैने किया करते थे और शिवजी की मनौती मनाया करते थे कि यदि उनका मनोनीत डाका सफल होगा तो लूट के माल में से दशमांश Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा उत्कोच के रूप में चढ़ावेंगे; अथवा, यदि किसी को घोड़ी वंध्या होती तो वह यह 'बोलारी' बोलता कि वह पहला फल (बछेरा या बछेरी) भगवान् के अथवा महन्त के, जो एक ही बात है, अर्पण करेगा; परन्तु, अपनी मनौती को पूरी करना या न करना प्रागरे की सब्जी बेचने वाली कुंजड़िन की तरह उस घुमक्कड़ की इच्छा और मन पर ही निर्भर रहता था। कहानी इस प्रकार है कि एक बार उस कुंजडिन का वह बैल या गधा खो गया, जिस पर वह अपनी सब्जी बेचने के लिए बाजार ले जाया करती थी। उस ने मनौती बोली कि वापस मिल जाने पर वह उस की कीमत का आधा भाग पास वाली मसजिद में चढ़ा देगी अथवा गरीबों को बाँट देगी। उस का जानवर मिल गया परन्तु कृतज्ञता प्रकट करने के बजाय उस ने रो-रो कर अपने पड़ोसियों को परेशान कर दिया। एक पड़ोसिन कुँजडिन ने उस के दुःख का कारण पूछा और जब उस ने कहा कि उसका जानवर बिकने की नौबत आ पहुंची है तो वह ठहाका मार कर हँसी और कहने लगी कि 'यदि तेरे दुःख का कारण यही है तो अपनी जबान बन्द और दिल काबू में रख, क्योंकि इसी तरह मैंने कई बार खुदा को चकमा दिया है।' भीमनाथ की यात्रा के ये अानन्द हैं कि केवल उन का नाम लेना ही सब जगह के लिए एक प्रभावशाली पासपोर्ट (अनुमति-पत्र) का कार्य करता है तथा यात्री के लिए एक सिद्ध-मन्त्र के समान है, जिस के बल पर वह शत्रु-दल से आकीर्ण मार्ग में हो कर भी सकुशल यात्रा कर सकता है। मैं इस प्रसंग का इसी अनुमान के साथ उपसंहार करूंगा कि यहीं पर बलभी का वह प्रसिद्ध सूर्य-कुंड है जिस को उत्तरदेशीय आक्रमणकारियों ने भ्रष्ट कर दिया था। इस प्रदेश में आप को कदम-कदम पर ऐसे दृश्य मिले बिना नहीं रह सकते, जो स्वयं मनोमोहक हैं अथवा प्राचीन ऐतिहासिक एवं पौराणिक गाथाओं से सम्बद्ध होकर आकर्षण की वस्तुएं बन गए हैं। . Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १४ पालोताना, जैनों का तीर्थस्थान; शत्रुञ्जय पर्वत; जैन-यात्री; जनमत की उदारता और . बौद्धिकता; माहात्म्य; जैनों के पांच तीथं; शत्रुञ्जय के शिखर पर्वत पर निर्मित भवनों के अधिष्ठाता महापुरुष; मक्का के मन्दिर की हिन्दू शैली; शत्रुजय पर भवन-निर्माण की तिथियाँ ; पालीताना से पर्वत तक का मार्ग; चढ़ाई; उपाश्रय और मन्दिर; कुमारपाल का मन्दिर; प्रादिनाथ का उपाश्रय; गच्छों के मतभेव का दुष्परिणाम; मन्दिरों में पुरावस्तुएं ; प्रादिनाथ के मन्दिर में गहनों की कुप्रथा; मन्दिर पर से विहङ्गमदृश्य ; प्रावि बुद्धनाथजी की मूर्ति रतनघोर का मन्दिर; श्रादिनाथ की प्रतिमा; जैन तीर्थङ्करों और शिव की मूर्तियों में समानता और उनके लिङ्ग; हेंगा पीर की मजार; उतराई ; देवकी के पुत्र के मन्दिर; भाट; पवित्र पर्वत को सम्पत्ति; यात्रियों के संघ पालीताना नाम की व्युत्पत्ति पुरावस्तुओं का प्रभाव; संदेवाह भोर साधलिङ्गा की प्रेमगाथा; पालीताना का प्राधुनिक इतिहास और वर्तमान वशा । पालीताना - नवम्बर १७वीं - मेरी तबीयत इतनी खराब थी कि सीहोर और जैनों के इस सुप्रसिद्ध तीर्थस्थान के बीच में ठोक से कुछ भी देख-भाल न सका; यद्यपि इधर कोई देखने योग्य बात भी नहीं बताई गई थी, फिर भी, यह असम्भव है कि इस भूभाग में पन्द्रह बीस मील की दूरी में भी किसी जिज्ञासु यात्री के श्रम को सफल करने के लिए यहाँ के निवासियों की किन्हीं विशेषताओं अथवा स्थानीय लक्षणों के दर्शन ही न हों । फिर, मैं तो ऐसी भी प्रत्येक वस्तु के निरीक्षण की अपेक्षा रखता था जो मेरे मस्तिष्क पर विशिष्ट प्रभाव डालने वाली न हो तो भी कोई बात नहीं हैं; परन्तु, इतना अवश्य है कि शायद ही कोई जैन अथवा बौद्ध यात्री मुझ 'असभ्य' 'फिरंगी' जैसी उमंग लिए हुए पवित्र शत्रुञ्जय पर्वत पर पहुँचा होगा । मैं यहाँ अनुभव की अपेक्षा कल्पना को ही आगे बढ़ने का अधिक अवसर दिया क्योंकि इन भूभागों में मुझे किसी महत्वपूर्ण अनुसन्धान का अधिकार नहीं दिखाई दे रहा था, जहाँ 'मोहम्मद' और 'अल्ला' ने इसलाम के पैगम्बर द्वारा प्राप्त मूसा के मूर्तिभञ्जन प्रदेशों के पालनार्थं अपनी सेनाओं का सञ्चालन किया था । यद्यपि 'दश आज्ञाओं में से द्वितीय आज्ञा के पोलन में बाधक हो कर जो 9 १. परमात्मा की दश आज्ञाए, जो उन्होंने पंगम्बर मूसा को 'सनाई' Sanai पर्वत पर डी थीं। ये सर्वप्रथम दो प्रस्तर-खण्डों पर उत्कीर्ण हुई थीं । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] पश्चिमी भारत की यात्रा कोई सामने आता था उसे वे निर्दयतापूर्वक नष्ट कर देते थे, परन्तु यह सौभाग्य की बात थी कि मन्दिरों को मसजिदों में परिवर्तित करना वे ठलाघनीय समझते थे और अन्दर घुसकर 'अल्लाहो अकबर' का नारा लगाना उस नापाक इमारत को पवित्र करने के लिए पर्याप्त मान लेते थे। फिर, धार्मिक भवनों का नाश उन्होंने कितने ही बड़े पैमाने पर किया हो, परन्तु एक ऐसे सम्प्रदाय के स्मारकों को नष्ट करना उन विजेताओं की शक्ति के बाहर की बात थी, जिसमें सिद्धान्तों का प्रतिपालन अन्य बातों की अपेक्षा परम्पराओं पर अधिक निर्भर है। पालीताना, पल्ली को निवासस्थान, शत्रञ्जय की पूर्वीय तलहटी में स्थित है। यह पर्वत आदिनाथ (जैनों के चौबीस में से सर्वप्रथम तीर्थकर) के नाम से पवित्र है और लगभग दो हजार फीट ऊँचा है। रास्ते के मोड़ और घुमाव आदि का हिसाब लगावें तो इसकी चढ़ाई दो और तीन मील के बीच में आती है। इस मनोरञ्जक स्थल पर मेरे अनुसन्धानों में कुछ विद्वान साधुनों से वास्तविक सहायता मिली, जिनसे मेरा परिचय मेरे यति ने करवा दिया था। ये लोग इस समय यात्रा करने आए हुए थे और उन्होंने मुझे अपने धर्म तथा तीर्थ के विषय में 'शत्रुञ्जय-माहात्म्य' के आधार पर बहुत से विवरण एवं सूचनाएं दीं, जिसका कुछ अंश उनके साथ था । अन्य उदाहरणों के साथ-साथ में यह भी प्रस्तुत करना चाहता हूँ कि उन संकुचित और ईर्ष्यापूर्ण मनोविकारों के कारण हमारी जिज्ञासानों की शान्ति में यहाँ कोई बाधा उपस्थित नहीं हो पाती कि जिनका वर्णन मेरे देशवासियों ने बहुत ही बढ़ा चढ़ा कर किया है। मैंने इस मत के जितने भी अनुयायियों से बात-चीत की, चाहे वे जनसाधारण में से हों अथवा पढ़े-लिखे, उनमें बहुत उदारता पाई और ज्ञान की भी उनमें कोई कमी नहीं थी। प्रत्येक तीर्थस्थान का एक माहात्म्य-ग्रन्थ होता है जिसमें भवतजनों द्वारा सम्पादनीय धार्मिक कृत्यों के वर्णन के साथ बीच-बीच में बहुत-सा कथा भाग भी अथित रहता है; मन्दिर के निमित्त भेंट, दक्षिणा, जीर्णोद्धार और भूमिदानादि के उल्लेखों में, जो प्रायः शिलालेखों में सुरक्षित रहते हैं, कुछ प्राकृतिक उपज के भी सूचन दिए होते हैं (जैसे आबू माहात्म्य में) । 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य की रचना बलभी नगरवासी धनेश्वर सूरि आचार्य ने संवत् ४७७ (४२१ ई०) में की थी जब सूर्यवंशी राजा शिलादित्य ने आदिनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था।' इस उद्धरण से हमें इन ग्रंथों के अवलोकन से प्राप्त होने वाले लाभ का प्रत्यक्ष उदाहरण मिलता है क्योंकि इस ग्रंथ के रचनाकाल के साधारण उल्लेख से ही हमें इस क्षेत्र से सम्बन्धित तोन ऐतिहासिक तथ्यों का पता चल जाता है। पहली बात तो यह है कि यह पर्वत आदिनाथ को अर्पित है, जिनके मन्दिर का Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १४; शत्रुञ्जय [ २६१ जीर्णोद्धार मात्र ४२१ ई० में हुआ था, इससे मूल मन्दिर के निर्माण का समय हम कतिपय शताब्दियों पीछे ले जा सकते हैं । दूसरे, हमें कर्ता के निवासस्थान का पता चलता है कि वह बलभी का आचार्य था; तीसरी बात जो सब से अधिक महत्वपूर्ण है वह यह है कि यह राजा शिलादित्य सूर्यवंशी था। ये सभी बातें विशेष रूप से मेवाड़ के इतिहास की पुष्टि करती हैं। यही वह राजा था जिसका वर्णन उस इतिहास में किया गया है कि वह पश्चिमीय एशिया के पाक्रामक बर्बरों से बलभी की रक्षा करते हुए मारा गया था। मोहम्मद से पहले हुए हमलों में यह दूसरा था कि जिसका उल्लेख प्राप्त होता है। पॅरिप्लुस (Periplus) के कर्ता के मतानुसार प्रथम आक्रमण दूसरी शताब्दी में हुआ था; और कॉसमस (Cosinas)' के आधार पर तीसरा आक्रमण छठी शताब्दी में हुआ जब हूण लोग सिंध की घाटी में आकर बसे थे; इसी कारण जेटों अथवा जीतों ( Getes or Jits), हूणों और काठियों प्रोदि के मूल अब भी सौराष्ट्र में पाये जाते हैं । मानो भारत के प्रमुख वंश के इतिहास-सम्बन्धी मेरी अशिथिल शोध में चार चाँद लगाने हेतु अथवा बलभी के वृत्तांत को अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ आगे चलकर मैंने एक प्रस्तर-लेख प्राप्त किया, जिसमें लिखा था कि बलभी का स्वतंत्र संवत् भी प्रचलित था जो इस माहात्म्य की रचना से एक शताब्दी पूर्व ही चालू हुआ था। शत्रुञ्जय जैनों के पञ्चतीर्थो में से है। इनमें से तीन अर्थात् अर्बुद, शत्रजप और गिरनार तो पास-पास हैं। चौथा समेल [सम्मेत शिखर मगध अथवा वर्तमान बिहार की प्राचीन राजधानी में है और पांचवां चन्द्रगिरि, जो शेषकूट अथवा 'सहस्र-शिखर' भी कहलाता है, हिन्दूकोट अथवा पर्वतपति पामीर के बर्फीले क्षेत्रों में स्थित है, जिनको ग्रीक लोग कॉकेशस (Caucasus) और परोपैमोसम (Paropanmisus) कहते हैं। पहले बौद्ध धर्मगुरुओं के लिए सिन्ध में कोई 'अटक' नहीं थी और अनुश्रुतियों के साथ कल्पना और चमत्कार का सम्मिश्रण करते हुए (जो उनके मत की मूल विशेषता है) उन्होंने लिखा है कि 'जब प्राचार्य जैनादित्य सरि' अपने दलों से मिलने सिंध के पश्चिम में जाया ' कॉसमॅस (Cosmas) का समय १०४५-११२६ ई० है । उसने Chronicon Bohemo_rum नामक बोहेमियां का इतिहास लिखा था, जो १६०२ ई० में मुद्रित हुना। -E. B. VI. p. 446 २ सुप्रसिद्ध युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि का जन्म गुजरात प्रान्त में धोलका में श्रेष्ठी वाछिग के यहाँ वि० सं० ११३२ में हुआ था। इनकी माता का नाम वाहड़देवी था। वरिणत विषय में यह दोहा प्रचलित है : Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा 'करते थे तो वे अपनी चद्दर पर तैर कर नदी पार कर लिया करते थे । एक दिन पानी के देवता ( वरुण ? ) ने अपने राज्य में से निकलने के निमित्त दान कर ? ) मांगा तब आचार्य ने अपना अंगूठा काटकर भेंट कर दिया। कहते हैं कि वह चमत्कारिक चद्दर विचित्र लिपि में लिखित पुस्तक' के साथ अब भी जैसलमेर में चिन्तामरिण [ ? ] ( Chortaman ) के मन्दिर में सुरक्षित है। यही चद्दर जैनादित्य की गद्दी पर बैठने वाले प्रत्येक आचार्य के कन्धों पर डाली जाती है ।' इस गर्वोन्नत पर्वत के नाम चोबीस से कम नहीं हैं और एक सौ आठ शिखर इसको गिरनार पर्वत से संयुक्त करते हैं; जैन भूगर्भवेत्ता इस क्रम को प्राबू और तरिंगी [तारिंगा ] तक गया हुआ मानते हैं और सीहोर, बल्ल तथा अन्य पर्वत श्रृङ्खलाओं से, जिनमें कुछ बहुत नीची हैं और कुछ भूगर्भित हैं, सम्बन्धित बताते हैं । नाममाला में से एक उद्धरण इस प्रकार है : प्रथम | शत्रुञ्जयतीर्थनामानि ॥ माहात्म्य में इस नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी हुई है । प्राचीन काल में सुखराज पालीताना में राज्य करता था । जादू की सहायता से उसके छोटे भाई ने उसकी सी सूरत बना ली और राजगद्दी पर अधिकार कर लिया । राज्यच्युत राजा बारह वर्षों तक जंगलों में भटकता रहा और इस अवधि में नदी का सद्य जल नित्य श्रीसिद्धनाथ की प्रतिमा पर चढ़ाता रहा ।' उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर देव ने उसे शत्रु पर विजय प्रदान की । कृतज्ञ हो कर राजा ने उस प्रतिमा को पर्वत पर स्थापित किया, जो शत्रुञ्जय कहलाया । अतः यह पर्वत मूलतः शिव के अर्पित रहा होगा, जिनका एक मुख्य नाम 'सिद्धनाथ' अथवा 'सिद्धों के स्वामी' है; मेरा विश्वास है कि यह विशेषण जैनों के प्रथस तीर्थङ्कर प्रादिनाथ को कभी नहीं प्राप्त हुआ । पण्ढरी पर्वत आदिनाथ के प्रिय शिष्य पण्ढरी [पुण्डरीक] का पहाड़ | श्री सिद्धक्षेत्र पर्वत - पवित्र अथवा सिद्धक्षेत्र का पर्वत । श्रीविमलाचल तीर्थं - शुद्धि यात्रा तीर्थ (विमल - शुद्ध, पवित्र ) । = - सिन्धु देश में पञ्चनदी पर साधे पांचों पीर । लोई ऊपर पुरुष तिराए, ऐसे गुरू सधीर ॥ ( दादा साहेब की पूजा; यति रामलालजी कृत ) जिस लोई ( चद्दर) का यहाँ विवरण दिया गया है वह पहले महोपाध्याय वृद्धिचन्द्र के उपाश्रय में सुरक्षित थी, अब जैसलमेर के बड़े ज्ञान भण्डार में रख दी गई है । · यह विचित्र ( Sylulline ) पुस्तक, जो अब मुत्राङ्कित हो गई है, एक जंजीर से लटकी रहती है और वर्ष में केवल एक बार पूजन करके नये वेष्टन में लपेट कर पुनः रख देने के लिए ही उतारी जाती है। इसके अक्षर बड़े विचित्र हैं और जब एक स्त्री-यति (साध्वी) ने इसको पढ़ने की चेष्टा की तो वह अन्धी हो गई । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरगिरि - देवताओं का पर्वत । महागिरि - बड़ा पर्वत । पुण्यरसतीर्थानिकम् - पुण्य देने वाले तीर्थस्थान | धन देने वाला पर्वत ( श्री = लक्ष्मी ) । श्रीपतिपर्वत श्रीमुक्तशील (शैल ) - मुक्ति देने वाला पर्वत | श्री पृथ्वीपीठ पृथ्वी का मुकुट | श्रीपातालमूल = जिसकी जड़ पाताल में है । श्रीकामद पर्वत www प्रकरण - १४; शत्रुञ्जय = सर्व कामना पूरी करने वाला पर्वत । ' शत्रुञ्जय के स्थापत्य को समझने के लिए पाठकों को उन महापुरुषों से परिचित कराना आवश्यक है जिनको ये भवन अर्पित किए गए हैं अथवा जिनके नामों पर इनके नाम रखे गये हैं; इसके लिए हमें फिर 'माहात्म्य' का प्राश्रय " लेना पड़ेगा, जिसमें यह उद्धरण आता है कि 'आदिनाथ के दो पुत्र थे - भरत श्रीर बाहुबलि | बाहुबलि का राज्य मक्का देश पर था जो बालि देश' कहलाता था । वहां से जावड़शाह (Javur Sah) ने विक्रमादित्य से सौ वर्ष बाद उसकी (बाहुबल की ) मूर्ति लाकर शत्रुञ्जय पर स्थापित की थी। वहां से यह मूर्ति गोगो ले जाई गई जहां यह उस समय तक रही जब गोहिलों ने अपनी राजधानी बदल कर भावनगर में स्थापित की। वहां यह मूर्ति अब तक वर्तमान है । बाहुबलि से चन्द्रवंश की उत्पत्ति हुई और उसके बड़े भाई भरत से सूर्यवंश की ।' यह मेरे देखे हुए उन महत्त्वपूर्ण अनुच्छेदों में से है जिसमें तुरन्त ही बौद्धधर्म का उद्गम अरब में बताया गया है । साथ ही उस तथ्य का भी उल्लेख है जिसका मनु और पुराणों ने प्रतिपादन किया है कि भरत उन सभी वंशों का , मूल पुस्तक में पाठ इस प्रकार है जिसमें २१ नाम गिनाये गये हैं शत्रुञ्जयः पुण्डरीकः सिद्धिक्षेत्रं महाबलः । सुरशैली विमलाद्रिः पुण्यराशिः श्रियः पदम् ||३३२॥ पर्वतेन्द्रः सुभद्रश्च दृढशक्तिरकर्मकः । मुक्तिगेहं महातीर्थं शाश्वतं सर्वकामदः ॥ ३३३॥ पुष्पदन्तो महापद्मः पृथ्वीपीठं प्रभोः पदं । पातालमूलं कैलास: क्षितिमण्डलमण्डनम् ||३३४॥ [ २९३ " 'बालू' का अर्थ संस्कृत में रेत है। बालूदेश को फारसी में रेगिस्तान कहते हैं, जो अरब - के रेगिस्तान पर लागू होता है। हिन्दू भूगोल में बल्व प्रथवा बालुका देश का भी यही अर्थ है । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा आदि पुरुष था, जो भारतवर्ष अथवा भरतखण्ड में (जिसमें एशिया का वह भाग सम्मिलित था जो कास्पियन और गङ्गा के बीच में है) फैले हुए हैं। इससे हमें नृवंशीय विभिन्नताओं का भी कुछे अनुमान हो जाता है। 'आदिनाथ' एक अनिश्चित शब्द है जिसका अर्थ आदि (वृद्ध) पुरुष भी हो सकता है; आदि का अर्थ है प्रथम अथवा मूलपुरुष; और इस प्रकार उनका दो बड़ी शाखाओं में से एक को अरब के समुद्री तट हो कर भारत में और दूसरी को उत्तर की ओर भेजना इस ज्योति-केन्द्र से मानव जाति के आदिम प्रसार होने का द्योतक है । इसी से इस प्रायद्वीप के सौर अथवा सीरिया होने तथा यहां के धर्म का पश्चिमीय सीरिया से भेद ज्ञात होता है । और, इसी प्रकार भारतवर्ष के शकों और जीतों (Getes) में मनु द्वारा उल्लिखित सुपरिचित यवन' अथवा 'जवन' नाम भी सम्भवतः 'जवन' की ही सन्तान का द्योतक है । हमें यह बात आगे चल कर भी ध्यान में रखनी चाहिए और मुख्यत: 'कालनेमि' का ईथोपीय (Ethopic) मुखमण्डल, धुंघराले बाल एवं प्रशस्त अधरों को देखते समय तथा हिन्दुओं के भ-छोर, जगत-कंट पर कृष्ण के मन्दिर को देखते समय, जहाँ उससे भी पुराना बुद्ध त्रिविक्रम का मन्दिर आज तक विद्यमान है। मैं फिर इस बात पर जोर दूंगा कि गिरनार के प्रस्तरलेख का अध्ययन करने की दिशा में कुछ प्रयत्न होने ही चाहिएं। ___ यह तो निश्चयपूर्वक स्वीकार कर लिया गया है कि मक्का में एक हिन्दू मन्दिर था, जहां हिन्दू धर्म से सम्बद्ध मूर्ति पूजा प्रचलित थी और जो लोग उस मन्दिर में प्रवेश पा सके हैं, जिनमें बहार्ड (Burkhardt) भी एक है, यह सिद्ध करते हैं कि वह काला पत्थर, जिसका इसलामी लोग अब भी पूजन करते हैं, हिन्दुओं का शालग्राम है और 'कृष्णवर्ण देवता कृष्ण का स्वरूप होने के कारण पूजनीय है। हमें इस बात में भी कोई सन्देह नहीं है कि बहुत प्राचीन काल से हिन्दू यात्री प्राय: मक्का जाया करते थे और अब तक भी अष्टखान (Astrakhan)' की बस्ती में रहने वाले लोग वॉलगा के किनारे पर उसी प्रकार विष्णु की पूजा करते हैं जैसे वे अपनी मातृभूमि मुलतान में किया करते थे। ये लोग उसी वंश के हैं जिसका जावड़ शाह काश्मीरी धनिक बनिया था और जिसके द्वारा शत्रुञ्जय पर बाहुबलि की मूर्ति लाने का समय विक्रम से १०० वर्ष बाद अर्थात् ४६ ई० माना गया है। , वॉल्गा नदी पर तातार जाति की बस्ती । ये लोग तुर्को की उस शाखा में हैं जो हरण आक्रमण के अनन्तर वाल्गा नदी के निम्न भागों में बस गए थे। बाद में १५५७ ई. में रूस ने इन पर विजय प्राप्त कर ली थी-E. R. E; Hastings, Vol. XII; p. 623 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १४; शत्रुञ्जय के शिखर [ २६५ अब फिर प्रकृत विषय पर आते हैं। यह पहाड़ तीन भागों में बँटा हुआ है, जो 'टूक' कहलाते हैं; पहले का नाम मूलनाथ है, दूसरा सिवर सोमजी [शिवा सोमजी ] (Sewar Somji) का चौक कहलाता है, जो ग्रहमदाबाद का धनी मूल निवासी था । उसने संवत् १६७४ (१६१८ ई० ) में मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया एवं चारों प्रोर पक्की दीवार बनवाई थी, जिसमें बहुत बड़ी धनराशि खर्च हुई थी क्योंकि 'चौरासी हजार रुपये (लगभग दस हजार पौण्ड ) तो माल मसाला लाने के बारदाने में ही व्यय हुए थे ।' तीसरा भाग बड़ौदा के एक धनी धान-व्यापारी के नाम पर 'मोदी का टूक' कहलाता है, जिसने भी इसी प्रकार इन पर लगभग अर्द्धशताब्दी पूर्व ही विपुल धनराशि व्यय की थी । इन मन्दिरों में विविध प्रकार की पवित्र वस्तुएं, निम्नलिखित प्रकार से उनकी पुरातनता के आधार पर रखी गई हैं 1 " 'पहली इमारत भरत ने बनवाई थी, दूसरी उसी की आठवीं पीढ़ी में हुए धुन्ध वीर्य ! दण्डवीर्य ] ने, तीसरी ईशानेन्द्र (Isa Nundra) ने, चौथी महेन्द्र ने, पांचवीं ब्रह्मेन्द्र ने, छठी भवनपति ने ( Bhowun patti) ', सातवीं सगर चक्रवर्ती ने आठवीं विन्त्र इन्द्र [व्यन्तरेन्द्र ] ने, नवीं चन्द्रयशा [ ? ] ( Chandra Jessa) ने, दशवीं चक्रायुध ( (Chakra Aevnda ) ने ग्यारहवीं राजा रामचन्द्र ने, बारहवीं पाण्डव बन्धुनों ने, तेरहवीं काश्मीर के व्यापारी जावड़ शाह ने विक्रमादित्य से एक सौ वर्ष बाद बनवाई, चौदहवीं अणहिलवाड़ा के राजा सिद्धराज के मन्त्री देव [बाहड़ ] मेहता ने पन्द्रहवीं दिल्लीपति के काका सुमरा सारङ्ग [समराशाह ] ने संवत् १३७१ ( १३१५ ई० ) में श्रौर सोलहवीं का चित्तौड़ के मन्त्री कर्मा शाह डोसी [?] ( Carma Dasi) 'देवताओं के दास' ने संवत् १५७८ ( १५२२ ई० ) में निर्माण कराया ।" यह भी लिखा है कि जावडशाह (जो मूर्ति को यहाँ लाया था ) अन्त में प्राचीन नगरी मधुमावती ( वर्तमान महुवा) में ही सौराष्ट्र के किनारे पर बस गया था । " जिनहर्ष गरिए और समयसुन्दर उपाध्याय ने षष्ठ उद्धार का कर्ता चमरेन्द्र लिखा है, वह 'भुवनपति' भी कहलाता है । ગ્ शत्रुञ्जयरास और माहात्म्य में इस उद्धार का समय विक्रम से १०८ वर्ष बाद लिखा है । बाड (वाग्भट ) मेहता ने वह उद्धार सं० १२१३ में कराया था । वह, वास्तव में कुमारपाल का मंत्री था । यह संवत् १५८७ होना चाहिए । ४ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा __ पालीताना से इस पर्वत की तलहटी तक की सड़क का मार्ग विशाल वटवक्षों से प्राच्छादित है, जिनसे पूजा के निमित्त पाई हईं यात्रियों की मण्डलियों को पवित्र छाया प्राप्त होती है। यह मार्ग खूब चौड़ा है और जगह-जगह पर कुण्ड और बावड़ियाँ तथा पवित्र पानी के तालाब बने हुए हैं, जिनका पवित्र आत्माओं ने निर्माण कराया है। सजीव चट्टानों में कटी हुई एक सोपानश्रेणि तलहटी से चोटी तक चली गई है, जिसके दोनों ओर वेदियों पर चौबीस में से किसी न किसी सुप्रसिद्ध तीर्थङ्कर के चरण-चिह्न बने हुए हैं, जैसे आदिनाथ, अजितनाथ (जिनको तरिङ्गी पर्वत अर्पित है) सन्तनाथ और गोतम (अथवा गौतमार्य, जैसा कि उन्हें सर्वसाधारण में कहा जाता है), जो चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर के अनुवर्ती थे; यद्यपि उनका (गोतम का) नाम भारत से बाहर भी बहुत दूर दूर तक फैला हुआ है, फिर भी उन्हें वह सम्मान और अमरत्व प्राप्त न हो सका जिसका उपभोग उनके पूर्ववर्ती तीर्थङ्करने किया था। थोड़ी दूर चल कर पहाड़ो पर एक बीसाम (विश्राम) अथवा ठहरने का स्थान है, जो इण्डो-सीथिया के राजा आदिनाथ के ज्येष्ठ पुत्र भरत की पादुकाओं से पवित्र है । कुछ और आगे चल कर एक स्वच्छ पानी का टाँका है जो 'अच्छा' कहलाता है और नेमिनाथ की चरणपादुकाओं से पवित्र है । यहाँ से लगभग चार सौ गज की दूरी पर दूसरा विश्रामस्थान है, जहाँ एक सरोवर भी है, जिसको अणहिलवाड़ा के राजा कुमारपाल ने खुदवाया था। इसके पास ही हिन्दुओं को शक्ति देवी हिङ्गलाज माता का मन्दिर है। यहां से चल कर पहाड़ी की चढ़ाई के लगभग आधे मार्ग पर एक तीसरा बीसाम्ब (विश्राम) है, जो प्रायः इस चढाई में आने वाले सभी विश्राम-स्थानों से बड़ा है और यहां के सरोवर के नाम से 'शील-कुण्ड' ही कहलाता है। यहीं एक छोटा-सा गीचा है और सीढ़ियों की श्रेणी बनी हुई है जो छोटे-से जल-प्रपात को विस्तार प्रदान करती है। यह स्थान विशेष रूप से पवित्र माना जाता है क्योंकि यहां पर 'परमेश्वर' की पादुकाएं हैं, जो सब के स्रष्टा कहे जाते हैं। इसी प्रकार और भी बहत से विश्रामस्थल हैं जहाँ पर सरोवर और प्राचीन ऋषियों के चरण-चिह्न बने हए हैं। सभी तालाबों में पानी स्वच्छ था। बहुत-सी चक्करदार चढ़ाई के बाद हम सब से ऊँची चोटी के तल में पहुँचे, जो चारों ओर से सुरक्षित परकोटे द्वारा घिरी हुई है और जिसकी पूर्वीय मीनार पर 'हजा पीर' नामक मुसलमान सन्त की सफेद ध्वजा फहराती रहती है । जैन तीर्थङ्करों में इस मुसलिम सन्त के बलात् प्रवेश के विषय में आगे विवरण दिया जायगा । इसे अपनी दाहिनी ओर छोड़ कर हम पर्वत के दक्षिणी मुख की ओर आदीश्वर की टूक Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १४; श्रादिनाथ का मन्दिर [ २६७ को मुड़े। थोडी दूर तक इस सड़क के दोनों ओर की दीवारों के बीच चल कर हम अन्त में किले के पहले दरवाज़े पर पहुँचे, जो रामपोल कहलाता है । वहाँ से पत्थर जड़ी हुई सड़क पर होते हुए, जिसके दोनों ओर नीम के पेड़ लगे हुए थे, चार अन्य दरवाजों को पार करके हम एक मन्दिरों की कुञ्ज में जा पहुँचे जो पर्वत के दक्षिण-पूर्वीय मुख पर इकट्ठे बने हुए थे । रामपोल से ठीक आगे ही एक तालाब है, जो पाण्डवों की माता कुन्ती के नाम से प्रसिद्ध है । अनुश्रुति कहती है कि जब उसके पुत्र विराट में वनबास भोग रहे थे तब उसी की प्राज्ञा से इसका निर्माण हुआ था, परन्तु ( भूकम्प के झटकों से इसकी चट्टानें टूट गई हैं और बसुदेव को पुत्री [बहन ?] का यह पवित्र स्मारक अपने तत्त्व (पानी) से रीता हो गया है। दूसरे दरवाज़े का नाम सूगल पोल ( Sugal pol) है, जो बंगाल के एक धनी व्यापारी की उदार दानशीलता के कारण पड़ा है; इसके पास ही पालीताना के 'प्रथम गोहिल' नवघन द्वारा खुदवाया हुआ सरोवर है । दर्शक लोग यहाँ ठहर कर विश्राम करते हैं और यात्री लोग विभिन्न पूजा-स्थानों पर भक्तिभाव प्रदर्शित करते हैं। तीसरा द्वार 'बाघन पोल' कहलाता है और यहाँ पर हिन्दुओं की सिबिली' सिंह केसरी" माता की एक लघु मूर्ति है । यहीं पर गिरनार के नेमिनाथ की चौंरी भी है । इस इमारत से सटा हुवा एक चपटा पत्थर है, जिसमें जमीन से तीन फीट ऊँचा पन्द्रह इन्च व्यास का एक वृत्ताकार छिद्र है, जो 'मुक्तिद्वार' कहलाता है और जो कोई भी अपने शरीर को संकुचित कर के इस पवित्रता की कठिन परीक्षा में पार निकल सकता है। उसे मुक्ति मिलना सुनिश्चित है । 'दुर्बल पृथ्वी को अपनी मेदिनी बनाने वाले लक्ष्मी- पुत्रों में से बहुत थोड़े ही ऐसे होंगे जो अपने मांस को खूब सुखाए बिना इस परीक्षा में पूरे उतर सकें । 'मुक्ति- पोल' के सामने ही एक ऊंट की बड़ी विचित्र प्रस्तर मूर्ति है, जो आकार में प्रायः सजीव ऊंट के बराबर है; ये सभी खड़े पत्थर 'शूल' या सुई कहलाते हैं इसलिए हमारे प्रक्षरबद्ध लेखों में हम इनकी कल्पना मात्र कर लेने का ही सुझाव दे सकते हैं । चतुर्थ द्वार अर्थात् हाथीपोल पर अन्यतम प्रमुख जिनेश्वर पार्श्व [नाथ] का मन्दिर है जो शेष [ सहस्र ] फरिण के नाम से प्रसिद्ध है अर्थात् वह देव जिस का छत्र सहस्र फरणों वाला सर्प [शेष ] है । यहाँ पर मिस्र के हरमीज़ (Hermes ) 3 के • ग्रीक प्रकृति देवी । २ सिंहवाहिनी माता | 3 ग्रीक माइथोलॉजी के अनुसार एक देवता, जो ज्यूस Zeus का पुत्र था और मृतकों की आत्मा को निम्न लोकों में ले जाया करता था । वह वाणी और भाग्य का अधिष्ठाता तथा यात्रियों और व्यापारियों का रक्षक भी माना जाता था । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा साथ विचित्र साम्य का एक और भान होता है जिसका चिह्न सर्प है और जिसका एक नाम फनेटीज़ (Phanetes) भी है। इसके बाद हम उस मन्दिर पर पहुंचते हैं, जो बंगाल के सुप्रसिद्ध सेठ का बनवाया हुआ है। इतिहास में वह जगतसेठ के नाम से विदित है। मरहठों के आक्रमण के समय धन (शब्द) उसके नाम का पर्याय माना जाता था और दो करोड़ रुपयों को हानि (यदि श्रम और वस्तुओं का भी हिसाब लगावें तो ८ करोड़ के बराबर) का तो उस पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा था। यह तथ्य त इतना आधुनिक है कि इस पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। इससे लगा हुअा ही दूसरा मन्दिर 'सहस्र स्तम्भ' या हजार खम्भों वाला मन्दिर कहलाता है, यद्यपि इसमें कुल मिला कर चौसठ ही खम्भे हैं। पास ही में कुमारपाल का मन्दिर है, जिसमें बावन प्रतिमाएं हैं। इसके और पांचवीं पोल के बीच में दो कुण्ड हैं जो सूर्यकुण्ड और ईश्वरकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हैं । प्रथम कुण्ड पर एक शिवालय है और उसके नजदीक ही अधिक दयामयी अन्नपूर्णा देवी का मन्दिर है। अब एक लम्बी सोपान-सररिण को पार कर के पण्डरी पोल नामक द्वार से हम 'पावनांनां पावन' श्री आदिनाथ के मन्दिर के सामने पहुंचे। चौक में जाने के लिए जिस पण्ढरी के नाम पर बने द्वार से जाना पड़ता है वह तीर्थङ्कर का प्रिय शिष्य था और द्वार के ऊपर बने हुए कक्ष में उसका निवास था । प्राचीनता और पवित्रता की सभी सामग्री इस चौक में उपलब्ध है, परन्तु साम्प्रदायिक वैमनस्य, मूलनिर्माता कहलाने की आकांक्षा और अन्यधर्मावलम्बियों की मतान्धता ने मिल कर इस पवित्र पर्वत पर धार्मिक श्रद्धा से प्रेरित होकर बनवाये हुए सभी सुन्दर कार्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है । ऐसी कुप्रसिद्धि है कि समधर्मानुयायियों के मत-वैमनस्य ने अन्यर्मियों की घणा की अपेक्षा अधिक हानि पहुँचायी है, और यहां पर 'अहिंसा परमो धर्मः' के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले विद्वान् जैनों के मुख से यह तथ्य ज्ञात हुआ कि 'उनके तपागच्छ और खरतरगच्छ नामक मुख्य भेदों के आपसी कलह के कारण ही पुराभिलेखों का नाश अधिक हुआ है और मुसलमानों द्वारा कम, क्योंकि जब तपागच्छ वाले प्रभाव में आए तो उन्होंने खरतर वालों के उत्कीर्ण लेखों को निकलवा कर तोड़-फोड़ डाला और अपने लेख लगवा दिए-फिर, जब सिद्धराज सोलंकी के समय में खरतरगच्छ को शक्ति प्राप्त हुई तो उन्होंने तपागच्छ वालों के लेखों के टुकड़े-टुकड़े करवा दिए।' इन दोनों प्रमुख मतों में पृथक्त्व चतुर्थ सोलंकी राजा दुर्लभसेन के समय में उत्पन्न हुआ था, जो ११०१ ई० में Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १४; प्राविनाथ का मन्दिर [ २६६ गद्दी पर बैठा था। इनमें ऐसी कटुता आ गई थी कि आपस में अनेक गहरी लड़ाइयां हुईं और अपने मूल सिद्धान्त एवं पर्वत की पवित्रता को भुला कर उन्होंने इसे अपने रक्त से अपवित्र किया । अहिलवाड़ा के अजयपाल ने अपने पूर्ववर्ती राजा कुमारपाल के बनवाये हुये सभी मन्दिरों को तुड़वा दिया । कुछ लोग इस कृत्य के मूल में उसके प्रधान मन्त्री को कट्टरता को कारण मानते हैं और दूसरे लोगों का ऐतिहासिक संगति के आधार पर कहना है कि वह ऐसे सिद्धान्तों में विश्वास करने लगा था जो हिन्दू धर्म से सर्वथा विपरीत थे। हमें इस बात के प्रमाण तो नहीं मिलते कि महमद गजनवी इन पवित्र जैन पर्वतों को भी देखने पाया था परन्तु यह निश्चित है कि 'खनी अल्ला' के क्रोध के कारण सभी धर्मावलम्बियों ने अपने-अपने देवताओं को भूगर्भ (गहों) में छुपा दिया था क्योंकि जिनको नहीं छुपाया गया उनको उन्होंने (मुसलमानों ने) नष्ट कर दिया था। यद्यपि बहुत से (देवताओं की प्रतिमाएं) अब बाहर आ गई हैं परन्तु अपेक्षाकृत बहुत थोड़ी ही प्राचीन मूर्तियां बच पाई हैं । इसी प्रकार मन्दिर भी नष्ट हुए, केवल वे ही बच पाये जो मसजिदों में परिवर्तित कर दिये गये थे। परिणाम यह है कि आदिनाथ के चौक में दृष्टि घुमाने पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि वहां प्राचीनता का अंश ही नहीं है परन्तु पूरी इमारत को यह श्रेय नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसका बहुत-सा भाग नष्टभ्रष्ट और बचे-खुचे हुये हिस्सों पर खड़ा किया गया है, यहां तक कि स्वयं कुमारपाल के मन्दिर में भी निरन्तर टूट-फूट और मरम्मत के कारण हाल ही में धनिक श्रेष्ठी द्वारा पुनर्निर्माण से पहले की प्राचीनता के कोई निशान नहीं मिलते। यद्यपि आदिनाथ का मन्दिर एक आकर्षक इमारत है परन्तु इसमें पाबू के मन्दिरों का-सा स्थापत्य-सौष्ठव बिलकुल नहीं है-न बनावट की दृष्टि से न सामग्री की दृष्टि से । निज-मन्दिर एक चौकोर कक्ष के रूप में बना हुआ है जिस पर गोल छत है, इसी प्रकार सभामण्डप अथवा बाहरी बरामदा भी ऐसी ही छत से ढका हुआ है। देवप्रतिमा बहुत विशाल और सफेद संगमर्मर की बनी हुई है। ऋषभदेव सुपरिचित विचार मुद्रा में पद्मासन लगाए बैठे हैं, उनका चिह्न वषभ, जिसके कारण उनका प्रसिद्ध नाम वृषभदेव (प्राकृत-ऋषभदेव) प्रडा है, नीचे पोठिका पर उत्कीर्ण है । मुखाकृति में वही गम्भीरता है जो प्रायः जैन तीर्थङ्करों की सभी प्रतिमाओं में पाई जाती है परन्तु तराशे हुए हीरे के नेत्र भावगाम्भीर्य लाने में उसी प्रकार सहायक नहीं हैं जिस प्रकार किसी प्राधुनिक भक्त द्वारा उत्साह से प्रेरित होकर प्रतिमा की सजावट के लिए बनवाये हुए Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] पश्चिमी भारत की यात्रा अरुचिपूर्ण सुनहरी कड़े और बलेवड़े (कण्ठाभूषण)। सम्पूर्ण वातावरण की गम्भीरता को इस निम्नस्तरीय रुचि के कारण और भी आघात पहुंचा है, जो सम्भवतः फिरंगियों के पड़ोस और देवपट्टण में पुर्तगाली गिरजाघरों को देखने के कारण बढ़ गई है अथवा प्रेरित :ई है। आदिनाथ के मन्दिर को भारी डचबनावट की प्राकृतियों के सुनहरी चित्रों से सजाया गया है और मोटे चेहरे वाले तथा सुनहरी पंखों वाले देवदूतों के चित्र बनाए गए हैं जैसे इंगलैण्ड के किसी देहाती गिरजाघर में चिह्न-स्वरूप बनाए जाते हैं। और लीजिए, अंग्रेजी दीपकों का झाड़ वेदी को प्रकाशित करता है और पुजारियों को प्रातःकालीन स्तुतिगान के लिए जगाने को लोहे के मुद्गर से जो घण्टा बजाया जाता है वह किसी पुर्तगाली युद्धपोत का घण्टा है, जिस पर उसके बनाने वाले डा कॉस्टा (Da Casta) का नाम मौजूद है। इन बातों से आप इस पवित्र मन्दिर की असंगतियों का कुछ अनुमान लगा सकते हैं । ___ड्योढी पर संगमर्मर की बनी हुई एक बैल की मूर्ति के अतिरिक्त उसी पत्थर की परन्तु छोटी माप की हाथी की मूर्ति भी है जिस पर आदिनाथ की माता मरुदेवी अपने पोत्रों भरत और बाहुबलि को गोद में लिए विराजमान हैं । द्वार पर दो शिलालेख हैं जो महत्वपूर्ण नहीं है । एक में लिखा है 'चित्रकूट (चित्तौड़), मेवाड़ के महाजन जोशी प्रोसवाल बीसा कुमार शाह ने बहादुरशाह मुजरात के बादशाह के समय में इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया; शनिवार संवत् १५७८' दूसरे लेख में आदिनाथ, उनके मन्दिर की महिमा और जीर्णोद्धार कराने वालों के पुण्य का वर्णन है । चौक में अन्दर जाकर बाएं हाथ की ओर इस धर्म के अनुयायियों के लिए एक विशिष्ट पवित्र स्थान है जहां आदिनाथ 'एक ईश्वर' की उपासना में बैठा करते थे; उस समय इस पर्वत-शिखर पर केवल आकाश का चन्दोवा था और उनका मुख्य आराधना स्थल यही था। एक रायां का पेड़ उस स्थान पर उगा हुआ है और धार्मिक लोगों का दढ़ विश्वास है कि यह उसी अमर वृक्ष की संतान है जिसकी छाया में आदि जिनेश्वर बैठा करते थे और जो आज भी उनकी पवित्र पादुका पर छाया हुआ है। 'प्रकृति के द्वाग प्रकृतीश्वर' तक पहुंचने के लिए चित्त को एकाग्रता प्रदान करने वाला इससे अधिक उपयुक्त स्थान वे चुन भी नहीं सकते थे। दृश्य मनोरमा था; यद्यपि स्थल भाग की ओर बादल दृष्टिप्रसार को रोक रहे थे परन्तु सूर्य की एक किरण प्रायद्वीप के दक्षिण-पूर्वीय भाग में प्राचीन गोपनाथ और मधुमावतो (वर्तमान महुवा) को आलोकित करती हुई समुद्र तक फूट पड़ी थी। पश्चिम में हम को नेमिनाथ के पवित्र पर्वत और गौरवपूर्ण Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण – १४; मन्दिर की पुरावस्तुएं गिरिनार की झांकी मिल गई थी; परन्तु, उत्तर और पूर्व में हल्का अन्धकार हमें समुद्र तट और बीस मील तक के भू-भाग से आगे देखने में बाधक हो रहा था। हमने पर्वत की तलहटी में नागवती नदी को सूर्य किरणों में चमकते हुए और छोटी-छोटी लहरियों द्वारा क्षार समुद्र की ओर प्रधावित होते हुए देखा, और अन्त में, गहन वृक्षावली में से ऊपर निकलती हई छतरियों और पूर्वीय झील सहित पालीताना भी प्रकाश की आँख-मिचौनी में कभी कभी अपनी झलक दिखा देता था। पास ही में आदिनाथ के द्वितीय पुत्र बाहुबलि का भी एक छोटा-सा मन्दिर है जिसको पिता के प्रति भक्तों को आस्था का बहुल-सा भाग प्राप्त हो जाता है, परन्तु भारत में अन्यत्र भी कहीं इस 'मक्काधिपति' का पूजन होता है, ऐसा मैंने नहीं सुना । इससे सम्बद्ध दो अन्य पवित्र पर्वतों के नाम भी हैं-सौर भूमि से बाहर सिन्धु के पार सहसकूट और मगध की राजधानी में समेत शिखर जो अब बंगाल में है। बाहुबल के मन्दिर के पास ही सासन नाम की जैन देवी की छोटी-सी मूर्ति है और ढाल पर ही इस धर्म की दूसरी स्त्री-प्रतिमा वेहोती (Vehoti) माता की है, जिसका यह मन्दिर प्रणहिलवाड़ा के एक राजसी वणिक् ने बनवाया है, परन्तु इसको तुलना उसके द्वारा प्राबू पर बनवाये हुए देवालय से नहीं हो सकती। चौक में दीवार के सहारे-सहारे अनगिनती कोठरियां बनी हुई हैं जिनमें से प्रत्येक में कोई-न-कोई प्रतिमा विराजमान है। ये कोठरियां आदिनाथ की चरण सेवा में विभिन्न प्रांतों से आये हुये यात्रियों के लिए एकान्त साधना के काम में आती हैं। मैंने अपनी तिपाई रायां वृक्ष के नीचे रख दी और देखा कि पारा २८.०४' के निशान पर था और तापमापक दोपहर में भी ७२° बता रहा था, पहला यंत्र वही ऊंचाई बता रहा था जो आबू के गणेश मन्दिर की थी और उदयपुर की ऊंची घाटो की भी वही ऊंचाई थी। मन्दिर में भद्दापन और हीनता लाने वाले बेमेल जहाजी घण्टों, अंग्रेजी दीपकों, देवदूतों और न्यायाधीशों के चित्रों के होते हुये भी यदि कोई दर्शक 'बाबा आदम के टूक' (शिखर) पर से सन्तोष की भावना लिये बिना विदा होता है तो उसे केवल पुरातनता के रंग में डूबा हुआ आवश्यकता से अधिक एकाङ्गीण आलोचक ही माना जायगा; हां, यह बात अवश्य है कि इतिहासज्ञ और कलाकार को सन्तुष्ट करने के लिए वहां बहुत कम सामग्री है। मैंने प्राचीन पाली अथवा अन्य समझ में आने योग्य लेखों को ढूंढने का प्रयत्न किया परन्तु असफल रहा। मुझे जो प्राचीनतम लेख मिला वह संवत् १३७३ अर्थात् Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा १३१७ ई० का था अथवा यों कहिए कि 'अल्ला' या नरक के स्वामी 'यम के अवतार' की मृत्यु के बीस वर्ष बाद का वह लेख था। सब ओर प्राचीन काल की टी-फूटी इमारतों के ढेर पड़े हुए हैं और इन्हीं में से अतीत की स्मति बनाए रखने को आधुनिक मन्दिर खड़े किए गए हैं। ___अब इस मन्दिर को छोड़ कर हम पर्वत के दूसरे भाग पर चलें जो बड़ौदा के धनी अन्न-व्यापारी के नाम पर 'प्रेम मोदी का टूक' कहलाता है। दौलत की सर्वशक्तिमत्ता का इस से अच्छा प्रमाण और क्या हो सकता है कि केवल आधी शताब्दी पहले हुए एक साधारण मोदी के नाम ने उस प्रतापी सम्प्रतिराज के नाम को लुप्त कर दिया, जो विक्रम की दूसरी शताब्दी में हुअा था, जिसकी पवित्रता, महानता और सुरुचि के ऐश्वर्यपूर्ण स्मारक अजमेर और कुम्भलमेर के मन्दिरों के रूप में वर्तमान हैं तथा जिस को सभी जैन लोग राजग्रह (Rajgrah) के राजा श्रेणिक (Srinica) के समय से अब तक–अणहिलवाड़ा के स्वामियों को मिला कर भी, अपना महानतम और सर्वश्रेष्ठ राजा मानते रहे हैं। मैं इस तथ्य की सूचना के लिए उन आचार्यों के प्रति, जिनकी कृतियों के विषय में पहले लिख चुका हूं, और स्थानीय परम्पराओं के लिए आभारी हूं, जो मोदी के नाम के साथ सम्प्रति के नाम को जोड़ रही हैं। कुछ भी हो, वह (मोदी) भी प्रशंसा का पात्र अवश्य है क्योंकि उसने केवल गिरे हुए मन्दिरों का जीर्णोद्धार और सजावट करा कर पुजारियों के निर्वाह के लिए धन-राशि ही प्रदान नहीं को अपितु उनको रक्षार्थ चारों ओर व्यूह रचनाकार सुदृढ़ परकोटा भी बनवा दिया है। देवताओं की सुरक्षा का इससे अच्छा प्रबन्ध और कहीं नहीं है। यहां पर आदिनाथ और उनके अनुयायी, यदि उन्हें अपनी जनशक्ति में विश्वास हो तो, सब प्रकार से निर्भय होकर रह सकते हैं। ये शिखर एक घाटो द्वारा विभाजित हैं जिसमें चट्टान को काट कर एक विशाल सोपान-सरणि ऐसी रीति से बनाई गई है कि लघु-श्वास लक्ष्मी पुत्रों के लिए यह चढ़ाई सुगम से सुगम हो जाय । प्राधे रास्ते पर आदि बुद्धनाथजी की रूप और आकृतिहीन मूर्ति खड़ी है; इसके पास ही खोरिया माता का तालाब है जिसमें सब रोगों को दूर करने का प्रभाव है। किम्वदन्ती है कि इस महामाया ने तप और पूजा के इस पवित्र स्थान को हथियाने और भ्रष्ट करने वाले दानवों, दैत्यों और सौरों की 'खोर' अथवा हडिडयों को अलग-अलग कर दिया था। उक्त नाम बुद्ध और जिनेश्वर के अवतारों की एकता का एक और प्रमाण उपस्थित करता है और मेरे प्रमाणों के ग्राधार पर 'अर्-बुध' और 'पादिनाथ' अर्थात् प्रादि बोध और प्रादि-देव में कोई भेद नहीं है Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १४; चौमुखी प्रादिनाथ की प्रतिमा [ ३०३ यद्यपि बहुत से यूरोपवासियों ने इस विषय में अपने आप कितनी ही उलझनें पैदा करली हैं । वे इन पवित्र पर्वतों की यात्रा करें और इस जलाशय के तट पर बैठ कर प्रचलित रीति से इस मत के आचार्यों से श्रद्धापूर्वक ज्ञानामृत का पान करें । जल्दी ही हम मोदी द्वारा सफेद संगमर्मर से बनवाये हुए उस मन्दिर में पहुंचे जो यहां पर साधारणतया रत्नघोर (गृह) कहलाता । इसमें आदिनाथ की संगमर्मर - निर्मित पांच मूर्तियां हैं; कहते हैं कि ये पाण्डव बन्धुओं की मूल कृतियां हैं, जिनमें से प्रत्येक ने एक एक मूर्ति 'श्रादि जिनेश्वर' को अर्पित की थी और एक छठी मूर्ति, जो नीचे है, माता कुन्ती की आस्था का परिणाम मानी जाती है, जो वनवास काल में उनके साथ इस भूमि पर आई थी । द्वार के पास ही 'पञ्चपाण्डव-निवास' है, जिसके प्रति सभी मतों के यात्री श्रद्धा प्रकट करते हैं । इससे थोड़ी दूर चल कर एक जलाशय है जो जिञ्जकुण्ड कहलाता है । परकोटे में बने हुए एक दरवाजे से निकल कर हम 'मोदी टूक' से शिवासोमजी के टूक पर गए जो अहमदाबाद के एक धनिक नागरिक थे । उनकी पवित्र दानशीलता के फलस्वरूप उनका नाम उस पूजनीय प्रतिमा के साथ जुड़ गया, , जिसके मन्दिर का जीर्णोद्धार उन्होंने करवाया था; यह मन्दिर मूलत: विक्रम संवत् की उन्नीसवीं शताब्दी पूर्व का समकालिक था । मूर्ति का नाम चौमुखी प्रादिनाथ है, जो मुख्य मन्दिर वाली ११ फीट ऊंची मूर्ति से विशालता में किसी प्रकार कम नहीं है । कहते हैं कि इसके एक-एक पत्थर को मारवाड़ की पूर्वीय सीमा पर स्थित मकराणा की खान से यहां लाने में प्राठ हज़ार पौण्ड व्यय हुआ था; परन्तु उन्हें इसके लिए इतनी दूर जाने की श्रावश्यकता नहीं थी क्योंकि इससे भी अच्छा संगमर्मर आबू तथा पास ही अरावली पहाड़ में खूब मिलता है । 'शत्रुञ्जय माहात्म्य' के एक पत्र पर इस कार्य का लेख मिलता है'संवत् १६७५ सुलतान नसरुद्दीन जहाँगीर सवाई विजय राज्ये धौर शाहजादा सुल्तान खुसरू व खुर्रम के समय में । शनिवार, बैसाख सुदि १३ (२८ बैसाख ) देवराज और उनके परिवार, (जिसके सोमजी और उनकी पत्नी राजुलदेवी थी), ने चतुर्मुख आदिनाथ का मन्दिर बनवाया । इसके बाद आचार्यों की एक लम्बी सूची है, जो मैंने छोड़ दी है। इसी में 'जिनमाणिक्य सूरि' का नाम प्राता है, जिनके लिए यह प्रशस्ति है कि उन्होंने अपने धर्म के हेतु प्राप्त प्रथम वरदान के रूप में बादशाह अकबर से यह फरमान प्राप्त किया था कि जहाँ-जहाँ जैन धर्म की मान्यता है वहाँ पशुबध नहीं होगा । उसके शक्तिशाली साम्राज्य में विभिन्न मतों की धार्मिक मान्यताओं के प्रति इस विवेकपूर्ण समादर - भावना के Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ॥ पश्चिमी भारत की यात्रा कारण ही उस बादशाह को 'जगद्गुरु' की स्पृहणीय पदवी प्राप्त हुई थी और इसी कारण वैष्णव लोग उसे कन्हैया का अवतार मानते थे। उसके अव्यवस्थित चित्त वाले पुत्र जहाँगीर ने भी समय-समय पर. इन बातों और अन्य सुविधाओं को सम्पुष्ट किया, यद्यपि इसलाम के सिद्धान्तों से विचलित हो कर वह हिन्दुओं के वेदान्ती मठों में घूमा करता था। एक बार तो उसने अपने राज्य के सभी प्रोसवाल साधुओं को सुनत कराने की प्राज्ञा जारी कर दी थी-इस दुर्भाग्य को एक प्राचार्य की चतुराई ने ही टाला था।' शिवासोमजी की ट्रक छोड़ कर मैंने एक छोटे-से मन्दिर में आदिनाथ की माता मरुदेवि के दर्शन किये, जिनको उनके पुत्र के दर्शनार्थ आने वाले सभी यात्रियों की श्रद्धा प्राप्त होती है । इसी प्रकार वहाँ एक छोटा-सा मन्दिर सन्तनाथ का भी है; चौबीस जैन तीर्थंकरों में से यही एक हैं जिनकी मूर्ति सिद्धाचल पर भी है और जो प्रथम तीर्थकर के नाम से पवित्र है । इस नाम में पर्वत के बहत से पर्यायों में से इस शब्द के प्रयोग (अचल, एक प्रालंकारिक शब्द है अर्थात् न चलने वाला) और प्रथम जैन तीर्थंकर के अन्य नामों में से इस नाम (सिद्ध) के योग में हमें शैवों के शाश्वत प्रयोग का एक साम्य दिखाई पड़ता है। शिव का एक नाम सिद्धनाथ भी है अर्थात् वे सब सिद्धों के स्वामी हैं । आदिनाथ और आदीश्वर एक ही हैं और आदिनाथ का प्रसिद्ध नाम 'वषभदेव' 'नन्दिकेश्वर' का पर्याय है जिसका अर्थ है, 'वृषभ का स्वामी' । इसके अनुसार आदिनाथ अथवा वृषभदेव की मूर्ति सदा उनके नीचे उत्कीर्ण चिह्न वृषभ या बैल से पहचानी जाती है; और ईश्वर अथवा शिव को भी नन्दिक से उसी प्रकार अलग नहीं किया जा सकता जैसे 'मूविस' से 'प्रोसिरिस' को। सम्भवतः इनका नाक्षत्रिक महात्म्य भी समान ही है, और सब से अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि ये भारतीय 'सीरिया', पालीताना में और मध्यसागरीय सीरिया पलेस्टाइन (फिलस्तीन) में, सिन्धु और गंगा के तट पर तथा उसी प्रकार नील नदी के किनारे पर समान रूप से पाये जाते हैं और बाल अथवा सौरों या सूर्यदेवता (जिसके नाम और पूजा के कारण दोनों देशों का नाम सीरिया पड़ा) के उपासकों द्वारा पूर्ण भक्ति के साथ वृषभ अथवा लिंग के रूप में पूजे जाते हैं, जिनके विषय में कभी बौद्धों और जैनों का ऐकमत्य था। इस पर्वत की तीनों टूकों का सामान्य वर्णन करने के बाद अब हमें आदिनाथ के मन्दिर से नीचे उतरना चाहिए । प्रत्येक मन्दिर के पथक वर्णन, १ ये प्राचार्य युग प्रधान जिनचन्द्र सूरि थे। २ देखिए टिप्पणी पृ० ५५ । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १४; हेंगा पोर [ ३०५ परम्परा और ऐतिहासिक स्फुट संसूचन के लिए अधिक अवकाश और योग्य मार्गदर्शन में शोध आवश्यक है, जिसकी में अपनी इस अल्पकालीन यात्रा के अवसर पर आपको आशा नहीं दिला सकता; परन्तु, मैं अन्य ( गवेषकों) को अधिक गहराई से शोध करने का अनुरोध करूंगा और कहूँगा कि उदाहरण के रूप में मैंने जो कुछ किया है उस पर विचार करें और पता लगाएं कि इन अद्भुत और मनोरञ्जक धर्मावलम्बियों के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त होने पर क्या-क्या परिणाम निकल सकते हैं ? इस पवित्र अहाते के ठीक उत्तर में, दीवार में बनी हुई खिड़की में होकर हम सब से ऊंचे स्थान से बाहर आए और जल्दी ही मुसलमानी सहिष्णुता के प्रत्यक्ष चिह्न स्वरूप 'हँगा पीर की दरगाह पर पहुँचे । यह पीर कौन था और कब हुआ था, इन बातों को जानने के हमारे प्रयत्न विफल हुए; धर्मान्धता के जनक प्रज्ञान के कारण चल पड़ी इस किम्वदन्ती के अतिरिक्त कोई जानकारी न मिल सकी कि दिल्ली के बादशाह का भतीजा गोरो बेलम पालीताना में रहता था और उसी ने अपने समय में भीतर और बाहर दोनों मसजिदें और ईदगाहें बनवाई थीं । नीचे दी हुई कहानी के आधार पर हम यह नतीजा निकाल सकते हैं कि 'पीर' किसी 'दीन के दीवाने' विजेता के वंश का था। कहते हैं कि उक्त 'हेंगा' ने अपनी तलवार आदिनाथ के सिर पर चलाई, जिसको वें रोक तो न सके परन्तु आक्रामक को चोट देकर मार डाला ।' जब वह जिन (भूत) हो गया तो पुजारियों के पूजा-पाठ में इतने विघ्न करने लगा कि एक बड़ी सभा करके हेंगा के प्रेत को बुलाया गया और पूछा गया कि उस की आत्मा को शान्ति किस प्रकार मिल सकती है ? जवाब मिला कि 'मेरी हड्डियाँ इस पवित्र पर्वत की चोटी पर रखी जावें और जीवित अवस्था में भूतों को वश में करने वाला हेंगा पीर अब भी वहाँ लेटा हुआ है । हिन्दुओं को ऐसो किम्वदन्तियाँ मिल जाने पर बड़े आनन्द का अनुभव होता है जिनके द्वारा उनके धर्म के प्रति किए गए अपमान में, जिसका अधिक शक्तिपूर्ण प्रतिरोध वे न कर सके हों, कुछ हलकापन आ जाए; अस्तु, इस समय जो दरवेश अपने पीर की दरगाह की देखभाल करते हैं उन्होंने स्थानीय नियमों के पालन को आवश्यक मान रखा है; वे न तो पहाड़ी पर भोजन छूते हैं और न नीचे आ कर ही मांसाहार करते हैं । ज्यों ही हम नीचे उतरे त्यों ही बहुत दिनों से इकट्ठे हो रहे बादल भी कुछ फुहारें छोड़ कर बिखर गए और हवा ठण्डी हो गई । बॅरोमीटर पहाड़ पर २८° पर था ओर थर्मामीटर पहाड़ से नीचे आने पर भी ७२० बता रहा था । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पश्चिमी ढाल से घूम कर जैसे ही हम उतरे वैसे ही थोड़ी दूर पर हमें एक हलवाई का पालिया या चबूतरा मिला। कहते हैं कि जब घुमक्कड़ काठियों ने आदिनाथ के पुजारियों को लूट लिया था तो उस हलवाई ने 'पवित्र पर्वत की रक्षा करने के लिए अपना जीवन बेच दिया था।' कुछ प्रागे चल कर हम कृष्ण की माता देवकी के छः पुत्रों के 'थान' पर आए जिनको भारत के हराड (Herod), कंस ने मार डाला था। इस दुर्भाग्य से केवल कृष्ण ही द्वारका को भाग कर बच सके थे।' मन्दिर षट्कोण है और इसमें केवल चबूतरा और स्तम्भ बने हुए हैं। बध किए हुए शिशुओं की मूर्तियां काले पत्थर की हैं। यहीं पर हमें वृद्ध गायक के रूप में एक विदूषक मिला। उसके सिर पर लाल कपड़े की टोपी थी, जिसमें झूठे मोती लगे हुए थे। वह रेशमी चोला पहने हुए था, उसके हाथ में इकतारा और मंजीरे थे और पैरों में धुंघरू बंधे हुए थे। मंजीरों की ताल पर अपने पैरों के धुंघरू झनझनाता हुमा वह पुरातन भोटों द्वारा रचित अपने प्रान्तीय गीत गा रहा था और बीचबीच में आदिनाथ की महिमा का वर्णन करता जाता था। वह औरों की अपेक्षा अधिक प्रसन्न और प्रात्म-गौरवयुक्त दिखाई देता था और बड़े प्रसन्न भाव से घाटी की तल हटी तक हमारे पागे आगे चलता रहा । वहाँ आकर हम लोग विलग हो गए। अपने डेरों में चलने और पालीताना घूमने से पहले, पाइए, इस पवित्र पर्वत की सम्पत्ति के बारे में भी कुछ शब्द कह दें। प्रादिनाथ को भौतिक सम्पत्ति का प्रबन्ध अहमदाबाद, बड़ौदा, पट्टण और सूरत आदि प्रमुख नगरों के धनिक भक्तों की एक समिति करती है। ये लोग स्थानीय और पर्यटक गुमाश्तों को नियुक्त करते हैं, जो भक्तों से भेंट ग्रहण करके हिसाब में जमा करते हैं तथा मरम्मत, धूप केसर आदि दैनिक पूजा-सामग्री, बलिमुक्त कबूतरों व पशुओं तथा मन्दिर के पवित्र अहाते में रखी हुई पिंजरापोल की वृद्धा गायों के दाने-चारे का खर्च लिखते हैं । वर्तमान स्थानीय प्रबन्धक मेवाड़ का निवासी है। कहते हैं कि मुख्य देवालय का खजाना सोने और ' हैरॉड गैलिली (Galilee) का बादशाह था उसका समय ४० ई० पू० से ४ ई० पू० तक का माना गया है । वह निरपराध प्राणियों और बच्चों का वध कराने के लिए कुख्यात है ।-N.S.E; p. 636. २ यहाँ टॉड साहब को भ्रम हो गया है । जन्म के समय तो श्रीकृष्ण को गोकुल ले जाया गया था और द्वारका तो वे कंस की मृत्यु के बाद जरासंध के आक्रमण के समय गए थे। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १४; प्रादिनाथ को समृद्धि और प्राभूषण [ ३०७ जवाहरात से खूब भरा हुआ है और इस शान्तिपूर्ण 'सतयुग' अथवा स्वर्णयुग में शीघ्र ही इसकी और भी वृद्धि हो जायगी। पिछले पचास वर्षों से जिन काठी लुटेरों की टुकड़ियाँ धनी श्रावकों और सामान्य जैन गृहस्थों को अपने इस 'पेलस्टाइन' को यात्रा करने से रोकती थीं उनका अब नाम मात्र शेष रह गया है; अन्यथा पहले ऐसा होता था कि कभी संयोग से ही किसी यात्री को किसी के किले में से इस पवित्र चट्टान की झांकी मात्र लेकर अपनी यात्रा पूरी करनी पड़ती थी और वहां पर मुक्ति-धन चुकाने तक सड़ना पड़ता था। परन्तु यदि प्राज की तरह ही यह छोटा-सा प्राचीन सौरों का राज्य पैतृक भावना के साथ शासित होता रहा तो अवश्य ही इसके उपजाऊ मैदान, सोरोस (Ceres) के वरदान से, पुनः समद्ध दिखाई देने लगेंगे और आदिनाथ के यात्रियों को यातना देने वाले लटेरे कहीं भी दिखाई न देंगे। विशेष मेलों के अवसर पर भारत के प्रत्येक भाग से असंख्य यात्री इस प्रायद्वीप में आते हैं। इन यात्रियों के झण्डों को 'संघ' कहते हैं और कभी-कभी तो एक एक संघ में बीस-बीस हजार यात्री होते हैं। सामान्यतया कोई धनिक व्यापारी अपने क्षेत्र के यात्रियों का प्रमुख संघपति होता है और अपने निर्धन किन्तु धर्मात्मा धर्मबन्धुओं का इस पवित्र पर्वत की यात्रा में आते-जाते समय का खाने-खर्चे का व्यय अपने पास से देता है-यह एक प्रकार का पण्य है, जिसका सुफल अवश्य मिलता है। ऐसे ही अवसरों पर आदिनाथ की सम्पत्ति का प्रदर्शन होता है और उसकी वृद्धि भी होती है क्योंकि प्रत्येक यात्री अपनी सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ भेंट अवश्य चढ़ाता है। उस समय प्रतिमा पर भारी-भारी सोने की शृंखलाएं और चांदी के बाजूबन्ध चढ़ाए जाते हैं । इनके अतिरिक्त प्रादिनाथ की तिजोरी में सोना केतो बह-बह कर पाता ही रहता है। हाल ही में, हेमा भाई नामक अहमदाबाद के धनिक व्यापारी ने बड़े-बडे पन्नों (नीलम) से जड़ा हुआ सोने का भारी मुकुट बनवाया है जिसका मूल्य ३५०० पाउण्ड के बराबर आंका जाता है। आदिनाथ के मस्तक पर सदा ही एक मुकुट रहता है, जो अवसर के अनुकूल मूल्य का होता है-जिस समय मैंने दर्शन किए उस समय एक सादा सोने चाँदी का गंगा-जमुनी गोल मुकुट था। किसी पाश्चात्य फिरंगी यात्री के लिए सब से अधिक आकर्षण की बात यह है कि ऐसे सडों के अवसर पर प्राचार्यों और अन्य जैन विद्वानों के विचारार्थ ' ग्रीक देवशास्त्र के अनुसार बनस्पति और शस्य की देवता। ऑलिम्पस पर्वत पर उसका निवास माना गया है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा एवं सम्मानार्थ साहित्यिक निधियाँ प्रस्तुत की जाती हैं। ऐसे उत्सवों में कार्तिक को पञ्चमी का उत्सव सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसका नाम 'ज्ञानपञ्चमी' ही 'ज्ञान' का द्योतक है; उस दिन समस्त भारत में जैन ग्रन्थ-भण्डारों के ग्रन्थ गम्भीरतापूर्वक बाहर धूप में निकाले जाते हैं, उनको साफ किया जाता है और फिर उनका पूजा करके वापस रख दिया जाता है। आदिनाथ का ज्ञान-भण्डार एवं भौतिक वस्तु-भण्डार (खजाना) उनकी स्वयं की सुरक्षा में मूर्ति के पास ही अवस्थित है। पालीताना-शत्रुञ्जय की तलहटी में कुछ मीलों के फेर में समस्त पृथ्वी पवित्र मानी जाती है और 'पल्लि' का निवास तो इस पर्वत से सटा हुआ ही है । 'इस नाम में क्या रहस्य है ?' में बहुत दिनों से दृढ़ आशा लिए बैठा था कि जिस भूमि पर पल्लि ने अपने यश और धर्म का प्रसार किया था वहाँ मुझे इस इण्डो-सीथिया की गलाती (Galatae) अथवा केट्टी (Kettre) नामक भ्रमणशोल जाति के विषय में चिरप्रतीक्षित सूचना मिलेगी, परन्तु पुरातत्त्वज्ञ पाठक मेरी घोर निराशा का अनुमान लगाएं जब प्रमाण के रूप में मुझे ऐसी शब्द-व्युत्पत्ति बताई गई जो केवल आधारभूत कल्पना को नष्ट करने वाली ही नहीं थी अपितु इतनी भद्दी ओर अशास्त्रीय थी कि पालोताना, शत्रुञ्जय, आदिनाथ और उनके शिष्यों के विषय में जो मेरा उत्साह था उस पर पानी फेर दिया । मिस्र के 'फिलातीनों अथवा पूर्व इटली' निवासी पेलों (Pales) के साथ कोई साम्य बताने के बजाय मुझे पादलिप्त नामक एक महातान्त्रिक का नाम सुनाया गया, जो अपने निवास-स्थान भगकच्छ (जिसको ग्रीक लोग Barygaza कहते थे और जो आजकल भड़ोंच कहलाता है) से आदिनाथ पर्वत तक आकाश मार्ग से यात्राएं किया करता था। इस विद्वान का यह नाम उड़ान के लिए तैयारी करते समय पैर के तलुओं पर एक विशेष प्रकार का लेप प्रयुक्त करने के कारण पड़ा था। इस प्रकार के माहात्म्य की प्रामाणिकता में विश्वास करने में हम मजबूर हैं। इसी नामकरण को ले लीजिए, विद्वान् प्राचार्यों ने जो कुछ इसकी व्याख्या 'एट रिया इटली का एक जिला है, जो हालकल टस्कनी (Tuscany) नाम से विदित है। रोम (Rome) के अभ्युदय से पूर्व यहां ऐसी सुसभ्य जातियां निवास करती थीं जिनकी महान् सभ्यता के चिन्ह पाये जाते हैं। अवश्य ही रोमी सभ्यता पर उनका प्रभाव पड़ा था। कुराई के काम और संगतराशी की कारीगरी से युक्त गुम्बदें तथा फूलदानों पर चित्रकारी और अन्य बर्तनों के कलात्मक नमूने इसके प्रमाण हैं । एट्र स्कन लोग संगीत कला से गी सुपरिचित थे ।-N.S.E. p. 462 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १४; पालीताना के पुरावशेष - [३०९ की है वह बिलकुल बच्चों की सी और असन्तोषप्रद है। इस कथन से प्रभावित हो कर मैं अपनी मान्यता का बलिदान न करते हुए, यह बात अस्वीकार करने में तनिक भी संकोच न करूंगा कि वृद्ध पादलिप्त और उसके पादलेप ही, भले ही वे कितने ही चमत्कारिक रहे हों, पल्लियों (Pallis) के इस निवासस्थान के नामकरण में मूल कारण थे। पल्लियों ने सम्पूर्ण पश्चिमी भारत में विचित्र अक्षरों और नगरों के नामों के रूप में अपनी निशानियां छोड़ी हैं । मेरी यह भी धारणा है कि यह मध्य एशिया से एक महान् जाति के प्रस्थान का परिणाम है, जो अपने साथ कम से कम उन धार्मिक तत्त्वों को लेकर आई थी, जिनका यहाँ पर बौद्ध और जैन धर्मों के रूप में विकास हुआ और वे तत्त्व अधिक परिकृत रूप में उन्हीं प्रदेशों में मानवता का प्रसार करने के लिए परावृत कर दिए गये (जहाँ से कि वे आये थे)। - पालीताना में प्राचीन युगों के बहुत-से अवशेष हैं। बहुत से देवालय और धार्मिक इमारतें यद्यपि, वहाँ पर हैं, परन्तु कोई भी प्राचीन मन्दिर अथवा इमारत गॉथिक से भी गए बोते इसलामियों के हाथों नहीं बच पाई है। इमारतें अधिकतर कच्चे पत्थर की बनी हुई हैं, जिनकी सतह की पपड़ियाँ सहज ही में उखड़ जाती हैं । इससे बहुत से शिलालेख भी नष्ट हो गये हैं यद्यपि वे प्रायः सुघड़ खड़िया पत्थर अथवा भूरे पत्थर पर ही खोदे गये थे। शहर का विस्तार पहले बहुत अधिक था, गोरो बेलम की बनवाई हुई मसजिद भी पहले शहर के अन्दर हो थी, जो आजकल इसके बाहर है। परन्तु, मेरी बादशाह के भतीजे के विषय में सूचना देने वाले किसी शिलालेख की खोज व्यर्थ गई। इतिहास में हमें किसी भी ऐसे गोरीवंश का पता नहीं चलता जिसका इन प्रदेशों पर कभी राज्य रहा हो अथवा वे दिल्ली-सल्तनत के प्रतिनिधि बन कर यहां रहे हों। परन्तु, इस मसजिद तथा पालीताना के अन्य मुसलिम अवशेषों से हिन्दूस्थापत्य को कला एवं रुचि का ज्ञान अवश्य हो जाता है। यहाँ तक कि 'मम्बार' या मुल्ला के चबूतरे के दोनों ओर बने हुए तोरण भी शैव-पवित्रता को धारण किये हुए हैं। शहर के अन्दर की ओर एक प्राचीन स्मारक अवश्य है; यह एक सार्वजनिक बावड़ो या जलाशय है जो परम्परागत कथाओं .. अनुसार सुप्रसिद्ध सदयवत्स और सावलिंगा के प्रेमी-युग्म के नाम से विख्यात है, जिनकी प्रेमगाथा हिन्दुओं की अनेक प्रणयकथाओं में से एक है। इसकी सम्पुष्टि में यदि कोई शिलालेख मिल जाता तो हम इस बावड़ी के निर्माण को कम से कम अट्ठारह शताब्दी पूर्व का अवश्य मान लेते । सदयवत्स तक्षक शालिवाहन का पुत्र था । जिसने हिन्दुस्तान के Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] पश्चिमी भारत की यात्रा सर्वोच्च सम्राट् (विक्रम) को पराजित किया था और जिसका संवत्, जो ईसवीय सन् से छप्पन वर्ष पूर्व का है, अब भी उत्तरी भारत में सुप्रचलित है। किसी समय यह सम्वत सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रचलित था, बाद में टाक अथवा तक्षक शासक ने विक्रम पर आक्रमण करके नर्मदा के दक्षिण भाग में से उसके शासन को उखाड़ फेंका, अपना सम्वत् शक नाम से प्रचलित किया जो उसके सीथिक अथवा गेटिक उद्गम का एक और अन्यतम प्रमाण है । यदि हम पुरानी गाथाओं पर विश्वास करें तो यह मानना होगा कि इन दोनों शासकों के युद्ध का परिणाम एक समझौते के रूप में हुआ जिसके अनुसार शालिवाहन भारत के प्रायद्वीपीय भाग का स्वामी हो गया और महती विभाजन रेखा बनी हुई नर्मदा का समस्त उत्तरी भाग विक्रम के अधिकार में रहा। आज भी पूर्व भाग अर्थात् दक्षिणी भारत में शक का प्रयोग होता है और अपर भाग में अर्थात् उत्तरी भारत में (विक्रम) संवत् प्रचलित है। परन्तु, अब हम बावड़ी को प्राचीन गाथा पर पाते हैं - कहानी की नायिका सावलिंगा उस समय अपने रूप और गुणों के कारण सर्वत्र प्रशंसा की पात्र बनी हुई थी। वह जैन-धर्म का पालन करती थी और उसके पिता पद्म को उस पर बहुत गर्व एवं सन्तोष था। पद्म उस समय का बहुत धनवान् व्यापारी था। वह गोदावरी के तट पर शालिवाहन की राजधानी पैठान' नामक नगर में रहता था। भारत के महान् जंगल, मरुस्थली के सुदूर दक्षिणी भाग में स्थित पारकर (Parkur) नामक नगर के निवासी एक समानधर्मी और धनी महाजन ने सावलिंगा के माता-पिता से उसकी मांग की थी और उसी के साथ उसकी सगाई हुई थी। उसका भावी पति अपनी मांग को लेने के लिये पैठान आया था। परन्तु, हन्त ! सावलिंगा का हृदय अपने वश में नहीं था; उसने शालिवाहन के पुत्र को देख लिया था; वह उसकी प्रेमिका थी और वह उसका प्रेमी; उस युवक के वियोग की अपेक्षा वह मृत्यु श्रेयस्कर समझती थी और पारकर के नखलिस्तान की अपेक्षा वनवास अच्छा मानती थी। अभी उनका प्रेम पवित्र था ; जगन्माता कालिका देवी के मन्दिर में एक ही आचार्य के पास विद्याध्ययन करने वाले इन दोनों शिष्यों के हृदयों में प्रेम का पौधा अनजाने ही पनप गया था। और, वियोग का प्रारणघातक दिन आया १ यही Periplus का Tagara है जहां से रोम के बाजारों में मलमलें जाया करती थीं। मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि यह नाम 'टाकनगर' अथवा 'तक्षकनगर' का ही अपभ्रंश है। २ मूल कथा में 'पारा नगर' और 'रूपसी मेहता' नाम लिखे हैं। पारा नगर की स्थिति अन्वेष्य है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • १४; सवयवत्स-सावलिंगा को कथा [ ३११ उससे पहले उन्हें यह भी ज्ञात नहीं हुआ था कि अदृश्य रूप में कामदेव उनकी शिक्षा का अधिष्ठाता बन चुका था जिसने एक ऐसा पाठ पढ़ा दिया था कि जिसे पढ़ लेना सुकर था परन्तु प्राचार्य द्वारा प्रदत्त सम्पूर्ण ज्ञान के बल पर भी भुला देना कठिन था। अन्त में, वह घातक सत्य सामने आ ही गया, और सदयवत्स को उसके भविष्य का निर्णय कालिका माता की वेदी के सामने ही सुना दिया गया, जो उन दोनों की पारस्परिक शपथों की साक्षी थी कि वे एक दूसरे के लिए ही जीवित रहेंगे। यह निश्चय हुआ कि विवाह के दूसरे दिन प्रात:काल ही में पारकर का महाजन अपनी नव वधू को लेकर विदा होगा और मरुस्थल के मार्ग में पड़ने वाले सभी सौर-देशस्थ धार्मिक मन्दिरों के दर्शन भी करता हुमा जायगा। सावलिंगा ने किसी प्रकार इस कार्यक्रम की सूचना अपने प्रेमी को पहुँचा दी और अन्तिम मिलन के लिए देवी के मन्दिर का स्थान निश्चित किया जहाँ उन्होंने प्रेम-प्रतिज्ञा की थी। सदयवत्स देवी के मन्दिर में जा छुपा और प्रेमपगी प्रेमिका भी वहीं जा पहुँचो परन्तु देवी को एक स्त्री की यह कर्तव्यच्युति सहन न हुई क्योंकि वह अन्य पुरुष की परिणीता हो चुकी थी, अतः उसने राजकुमार को गहरो निद्रा में मग्न करके उस योजना को विफल कर दिया-ऐसी गहरी निद्रा में कि सावलिंगा की सभी प्रणय-चेष्टाएं उसे जगाने में असफल रहीं। समय के पर लग गये थे और यह डर सर पर चढ़ा था कि लोग इसे ढूंढ़ लेंगे; साथ ही इस बात का भी दुःख था कि वह अपने प्रेमी को वचन-पूर्ति की सूचना दिए बिना सदा के लिए छोड़ दे । अन्त में, उसे एक ही तरकीब तुरन्त सूझ पड़ी; पान के निचुड़े हुए रस (पीक) से उसने अपने प्रेमी की हथेली पर कुछ लिखा और विदा हो गई। स्पष्ट है कि जब राजकुमार की मोह-निद्रा भंग हुई तो वह बहुत निराश हुमा । उसने भिक्षुक का वेश बनाया, हाथ में दण्ड लिया, कन्धे पर मृगछाला डाली और प्रेमिका की खोज में पैठान का राजमहल छोड़ दिया।' पालीताना पहुँच कर वह शहर की पुरानी बावड़ी में मुंह हाथ धोने गया; जब वह स्नान करने लगा तो उसे एक पुर्जा दिखाई दिया जिस पर लिखा था 'कालिका के मन्दिर में ली हुई शपथ याद रखना।' इन अक्षरों का अर्थ समझाने के लिए किसी व्याख्याकार की आवश्यकता न थी; इन्हें प्रेम की आँखें ही पढ़ सकती थीं, और कोई नहीं । शालिवाहन के युवराज का हृदय खुशी से भर गया; उसने तुरन्त ही प्रसन्नता से अपना डण्डा उठाया और पाशा और उत्साह के साथ मरुस्थल की ओर पुनः प्रस्थान कर दिया। पाठकों को कहानी के इतने ही अंश से सन्तोष करना पड़ेगा (क्योंकि Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अवशिष्ट भाग मेरी टिप्पणी और स्मृति, दोनों ही से गायब हो गया है) अथवा जीवित इतिहासकारों से परिणाम ज्ञात करने के लिए पालीताना की बावड़ी का पाश्रय लेना पड़ेगा क्योंकि यद्यपि सावलिंगा का पुर्जा तो अब इसकी शोभा नहीं बढ़ाता है; परन्तु जब तक यह बावड़ी कायम रहेगी तब तक यह कथा मुंहोंमुंह कही जाती रहेगी। भारत में ऐसे बहुत से कथानक प्रचलित हैं जिनके मूल में कोई-न-कोई ऐतिहासिक वृत्तान्त रहता है, जिससे साधारण कृषक से लेकर राजा तक समान रूप से परिचित होते हैं। परन्तु, मेरी प्राचीन शिलालेखों को खोज व्यर्थ गई-क्रूर तुर्क मेरे सामने था, टूटी-फूटी इमारतों की अन्य सामग्री के साथ उत्कीर्ण लेखों वाले पत्थरों को भी नई इमारतों में काम में लेने की दोनों ही हिन्दू और मुसलमानों की पादत सदा ही भूत के अधिकांश को वर्तमान की आँखों से तब तक ओझल करती रहेगी जब तक कि वह अपने आप समय की वेदी पर बलिदान न हो जायगी अथवा और कोई विध्वंसक उन इमारतों को ध्वस्त करके प्राचीन अवशेषों को प्रकाश में न ले पाएगा। - अाधुनिक पालीताना का इतिहास अधिक लम्बा नहीं है। यह गोहिलवंश की एक शाखा के अधिकार में उसी समय से चला आ रहा है जब से यह जाति कोई पचीस पीढ़ी पूर्व सौराष्ट्र में पाकर बस गई थी। पिछले साठ सत्तर वर्षों में इसकी महिमा और भी बढ़ गई है, कारण कि गायकवाड़ सरकार के निर्दयतापूर्ण अत्याचारों और काठियों के आक्रमणों से जान बचाने के लिए गोड़ियाधार निवासी उस प्रान्त को छोड़ कर यहां प्रा बसे हैं। वर्तमान शासक का नाम काण्ड (Kanda) भाई है; वे अवस्था में बावन वर्ष के हैं और अच्छी सुप्रसिद्धि का उपभोग कर रहे हैं। उनके छोटे से राज्य में गौरियाधार को ट्रक सहित पचहत्तर गांव (कस्बे) थे, परन्तु वे सब-कुछ तो उनके वंश की ज्येष्ठ शाखा के प्रमुख भावनगर के राव से द्वेषपूर्ण वैरभाव के कारण और कुछ काठियों की लटखसोट तथा उनके स्वामी गायकवाड़ की लोलुपता के कारण, प्राय: उजड़ और दुर्दशाग्रस्त हो गये हैं। सामयिक रीति-रिवाज के अनुसार उनको अपनी सुरक्षा के लिए कर अरबों की एक बड़ी भारी जमात की खातिरदारी करनी पड़ती थी। जब शान्ति का राज्य प्रारम्भ हुआ तो उन्हें अपने इन रक्षकों से ही महान् भय की प्राशंका हुई, अत: उनकी भयानक धमकियों से बचने के लिए उन्होंने अपने खर्चे निमित्त चालीस हजार रुपया वार्षिक निश्चित करके यात्री-कर सहित अपनी समस्त जायदाद को प्राय एक बनिये के गिरवी रख दी और उसने इन आततायो अरबों से छुटकारा पाने के लिए आवश्यक रकम अदा कर दी। यह प्रणाली कैसे कार्यान्वित होतो है, यह समझने के लिए मैं केवल एक दिन के Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण :१४, पालीताना के स्मारक [३१३ मुकाम में पर्याप्त तथ्य एकत्रित न कर सका। स्पष्ट है कि ऋणदाता दस वर्ष का ठेका होने के कारण भूमि-सुधार और कृषकों की समृद्धि में रुचि लेता था। परन्तु, यह भय और अत्याचार का राज्य बहुत लम्बे समय तक चला था और अब भी आन्तरिक नीति इतनो अस्थिर है कि उन्हें अभी यह सीखना बाकी है कि उनके निजी हित किस सीमा तक जनहित पर अंवलम्बित हैं। पहले गोहिल राजाओं द्वारा लगाया हुआ यात्री-कर स्थिति और यात्रा की दूरी के आधार पर एक रुपये से पांच रुपये प्रति व्यक्ति तक था किन्तु अब मुझे बताया गया कि वह बिना भेदभाव के एक रुपया कर दिया गया है। परन्तु, यदि यह मान लिया जाय कि सङ्घों में धनवान सदा ही गरीबों का कर चुकाते आये हैं तो इस हिसाब से भी दस से बीस हजार तक की आमद होनी चाहिये और इससे इस नगर की पुनः वृद्धि होनी चाहिये । इस समय आसपास के प्रदेशों में खेतीबाड़ी कम होती है, यद्यपि मध्य भारत की तरह यहाँ को मिट्टी उपजाऊ है जिसमें चिकनी बुकनी की अधिकता रहती है और जो 'माल' नाम से प्रसिद्ध है तथा जिसके कारण उस भू-भाग का नाम मालवा पड़ा है। हमें पालीताना से, स्मारक-शिलानों अथवा 'पालियों के विषय में कुछ कहे बिना विदा नहीं होना चाहिये। नगर के पश्चिमी द्वार पर एवं अन्य स्थानों पर पवित्र पहाड़ी को तलहटो तक ऐसे पत्थरों के बहुत से समूह लगे हुए हैं । सौराष्ट्र के वीरकाल के स्मारक ये पत्थर उत्तरी भारत के यात्री को चकित किये बिना नहीं रहते, विशेषतः यदि वह राजपूताना में न घूमा हो जहां इन्हें 'जूझार' (पालिया का पर्याय) कहते हैं और जहाँ ये बहुत अधिक संख्या में उन स्थानों का सूचन करते हैं, जहाँ वोरों ने अपने स्वत्वों के लिए जूझते हुए प्राण दे दिये थे। परन्तु, यहाँ जो पत्थर गाड़े गए हैं वे अंग्रेजी चर्च के कब्रिस्तान के समान बहुत मोटे-मोटे हैं । इन छोटे-छोटे पत्थरों पर खुदे हुए संक्षिप्त और सरल इतिहास प्रायः ध्यान देने योग्य होते हैं; यदि उस यात्री को इनसे किसी एतिहासिक तथ्य का ज्ञान प्राप्त करने में सफलता नहीं मिलती है तो भी उसे किसी ऐसी जाति के रीति-रिवाजों और रहन-सहन के बारे में तो उल्लेख मिल ही जाता है, जो उसकी जानकारी से भिन्न (नवीन) होता है। यहां तक कि लेख के अभाव में इन पत्थरों पर सामान्यतया खोदी हुई सन्दर्भमय प्राकृतियों से भी विनोद के प्रतिरिक्त बहुत कुछ और मिल जाता है, जैसे उस व्यक्ति का सामाजिक स्तर। उदाहरण के लिए, पास हो के खैरवा गांव में हत व्यक्ति की मूर्ति रथ में दिखाई गई है, जो अपने आप में प्राचीनता की घोषणा कर रही है, क्योंकि युद्धों में रयों का उपयोग बहुत समय पहले ही बन चुका है। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा ___ जैनों, उनकी परम्परामों, पट्टावली और माधुनिक दशा के विषय में जो थोड़ा-बहुत मुझे कहना है वह गिरिनार के पवित्र पर्वत की यात्रा तक सुरक्षित रख रहा हूँ। इसके पश्चात् भी मेरी टिप्पणी बहुत ही संक्षिप्त और पूर्व पृष्ठों में वणित सन्दर्भो से स्वतन्त्र होगी; मेरे मित्र मेजर माइल्स ने इस विषय में बहुत कुछ और बहुत भली प्रकार से प्रकाश डाला है।' वे मुझ से बहुत-कुछ अपेक्षा भी रखते हैं, परन्तु मैं समझता हूँ कि बहुत विस्तार से लिखने पर केवल उनको कही हुई बातों की आवृत्ति मात्र करना होगा। हमारी जानकारी के स्रोत, विचारधारा और निष्कर्षों पर पहुँचने की प्रणाली समान है अतः निश्चय ही नतीजे एक होंगे। इसलिए मैं केवल उन्हीं बिन्दुओं तक अपने विचार सीमित रखूगा जो उनके अनुसन्धान में पर्याप्त अवधान नहीं प्राप्त कर सके हैं । - - ५ देखिए 'ट्रांजेक्शन्स् माफ वो रायल एशियाटिक सोसाइटी, वॉल्यूम ३, पृष्ठ ३३५ । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १५ गोरियाधार; प्रान्त की रूपरेखा; दम्मनगर, कृषि; पाकला; महामारी का प्रकोप अमरेली; काठी क्षेत्र; काठियों की पुरुषाकृति; सौराष्ट्र प्रान्त का अधिपति, सिंचाई के यन्त्र ; प्रामों के क्षुद्र दृश्य; लुभावनी मृगमरीचिका; देवला; एक काठी सरवार; पूर्वीय और पश्चिमी जातियों के रीतिरिवाजों में समानता; अंसाजी की कथा; एक डाक् का सन्त में परिवर्तन; गढ़िया; काठियों को श्रावते; पाण्डवों का शरणस्थल, कुन्ती की कथा; बलदेव की मूत्ति; तुलसीशाम; कृष्ण और दैत्य के युद्ध की झांकी; मन्दिर; हमारे मानचित्रों में इस भाग का गलत भूगोल; दोहन, खनिज सूचनायें; कौरवार; इस क्षेत्र के चरवाहे। श्रेष्ठ पशुधन; मूल द्वारका का पवित्र पर्वत; शूद्रपाड़ा; कृषक बस्ती में सुधार; सूर्यमन्दिर; सरस्वती का उद्गम । गोरियाधार - नवम्बर - हमें इस स्थान तक पाने में लगभग सत्रह मील उपजाऊ भूमि का रास्ता तय करना पड़ा-उपजाऊ इस अर्थ में कि यहाँ की मिट्टी उर्वर है, यद्यपि खेतीबाड़ी तो कुछ गांवों के पास-पास ही होती है। यहाँ के मंदान भी क्रमशः ऊँचे-नीचे हैं; कहीं तो कुछ मीलों की परिधि में ही दृष्टि अवरूद्ध हो जाती हैं और कहीं शत्रुञ्जय पर्वत और दक्षिण की ओर बढ़ती हुई प्रवर श्रेणियों का दृश्य भी सामने खुल जाता है । इस भू-भाग में वृक्षावली बहुत विरल है; केवल गांवों के आसपास उगे हुए कुछ प्रामों और नीमों के पेड़ों से आँखों को सुख मिल जाता है और जंगलों में तो बबल ही बबल उगे हुए हैं, जो किसी अंश में दश्य की गम्भीरता की रक्षा कर लेते हैं। पूर्व अध्याय में वणित कारणों के अनुसार गोरियाधार में देखने योग्य कुछ भी नहीं है, फिर भी, यह एक मुख्य टूक है और पालीताना के ठाकुर के सम्बन्धी का निवास स्थान है। दम्मनगर-नवम्बर १९वों - यह बारह मील की छोटी-सी यात्रा थी। गायकवाड़ का 'खास' तालुका होने के कारण कृषकों को संरक्षण प्राप्त था, इसलिए यह स्थान अच्छी खेती के लिए प्रसिद्ध था । पहले, यह गोहिलों के अधिकार में था पर बाद में उनसे ले लिया गया और अब तो यह अमरेली विभाग का एक हिस्सा है। प्राचीन काल में इसका कोई हिन्दू नाम था, परन्तु प्रथम दक्षिणी शासक दामोजी ने इसको अपने ही नाम पर नाम और संरक्षण दिया। यह वही दामोजी था जिसने पाटण का कोट बँधवाया था। हमने काले गन्ने के कुछ हरे-भरे खेत देखे और नवीन धान तथा तिल (मीठा तेल) और उपयोगी मंग के पौधे भी बहुतायत से लहलहा रहे थे। परन्तु, सियालू फसल के ज्वार और Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा . बाजरा के पतले डण्ठल बता रहे थे कि अनियमित वर्षा से गुजरात का प्रायद्वीप भी कम प्रभावित नहीं था। मुझे कपास के कुछ बहुत अच्छे खेत देख कर कृषीय अर्थशास्त्र की यह नई जानकारी प्राप्त हुई कि उन्हीं खेतों में एरण्ड की भी होनहार फसल लहलहा रही थी। मुझे बताया गया कि पानी केवल बीस ही फीट गहरा था, परन्तु गेहूं की सिंचाई के लिए न कुंए थे न अन्य साधन । गोगो छोड़ने के उपरान्त मुझे कोई ऐसे चिह्न भी दिखाई नहीं दिए कि जिनसे सिंचाई होती हो, यद्यपि गेह के लिए इससे अच्छी मिट्टी नहीं हो सकती। यह कमी अवश्य ही राजनैतिक कारणों से रही होगी। कसबे के पास होकर छोटा-सा नाला बहता है, जिसमें बड़ी सुन्दर मछलियां हैं। ये उत्तर भारत की गोरया मछली जैसी हैं और सफेद (मछली) से बहुत समानता लिए हुए होती हैं । प्राकला - नवम्बर २०वीं- हमें डर था कि यदि एक सांस में अमरेली पहुँचे, जो बाईस मील थी, तो हमारे साथी थक जाएंगे इसलिए हमने इस मंजिल के विभाग करने का निश्चय किया; परन्तु, जब मालूम हुआ कि आकला पिछले मुकाम से केवल नौ ही मील था तो कुछ चिढ़-सी हुई। हम अपने डेरे पर प्रातः ८ बजे ही पहुँच गये और उस समय तापमापक ६८° बता रहा था । यह एक सुन्दर झरने के किनारे बसा हुआ छोटा-सा गांव है। इस झरने को सौराष्ट्र राज्य में नदी कहते हैं। मिट्टी, सतह और फसलें कल जैसी ही हैं परन्तु यहां के दृश्य अधिक प्रभावोत्पादक हैं, जिनकी सीमा दोनों ओर गिरिनार और शत्रुञ्जय को स्पर्श करती है । बीच-बीच में कुछ और भी छोटी-छोटी पहाड़ियां आ गई हैं। मैं छोटी-छोटी पहाड़ियों के एक समूह को पार करता हुआ निकला जहां खोडिया माता का मन्दिर है-यह बड़ी दुर्गम्य यात्रा का स्थान है। कोई भी तपस्वी यहां लम्बे समय तक दुःख भोगे बिना नहीं रह सकता। उसके शरीर और श्रद्धा में कितनी भी दृढ़ता क्यों न हो, इस महामारी के स्थान में दुःख सहन करता हा कोई अधिक से अधिक तीन महीने का समय निकाल ले तो निकाल ले, इससे अधिक सम्भव नहीं है। हां, लोगों का कहना है कि हर दूसरे या तीसरे वर्ष अपने-आप आग लग कर पूरा जंगल का जंगल भस्म हो जाता है और यों यहां की हवा शुद्ध हो जाती है। इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि यह कोई भूगर्भीय अग्नि है, जो समय-समय पर भड़क उठती है और वाय-मण्डल में भी गंधक का मेल तो बना ही रहता है। सौती या साती (Soutee) नामक छोटासा गांव यहां से तीन मील की दूरी पर है। अमरेली - नवम्बर २१वीं - तेरह मील । सड़कें उत्तम और मिट्टी के प्राकृतिक रूप में उपजाऊ होने का जवाब नहीं। प्रायद्वीप में अब तक देखी हुई सभी Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५; काठी क्षेत्र | ३१७ फसलों से यहां की फसल भी बढ़िया है। सात मील तक लगातार गेहूँ के पौधे भरपूर लहलहा रहे थे और तिल भी कम नहीं था, परन्तु चना कुछ कमज़ोर था। गाँवों की दशा बहुत गरीब दिखाई देती थी और वहां की मिट्टी की दीवारें काठियों से बचाव करने के लिए पर्याप्त नहीं थीं । प्रकरण पास पहुँचने पर अमरेली का क़स्बा आकर्षक लगा । इसके चारों ओर पक्का परकोटा है, जिसमें जगह-जगह बड़ी-बड़ी गोल बुर्जे बनी हुई हैं । परकोटे के भीतर कोई दो हजार घरों की बस्ती होगी और यह उत्तरी मुख की ओर एक छोटे-से नाले से घिरा हुआ है । यहां पर प्रान्तीय शासक ( गवर्नर ) रहता है और 'खास' होने के कारण यह पांच जिलों का मुख्य शहर है, इसीलिए इसकी दशा सम्पन्न । जब से ब्रिटिश सरकार ने इस प्रायद्वीप के करद सामन्तों को संरक्षण दिया है तब से तो यहाँ और भी अधिक सुधार हो गया है । विशाल गिरिनार की सूच्याकार प्राकृति स्पष्ट होती जा रही थी और थोड़ी ऊंचाई पर चढ़ कर देखने से तो इसके सभी शिखर, जो इसे शत्रुञ्जय से सम्बद्ध करते हैं, हमारे बाईं ओर एक अर्द्ध-गोलाकार में दौड़ते हुए से दिखाई पड़ते थे । अब हम काठी क्षेत्र के बीचोंबीच श्रा पहुँचे हैं, जो गोहिलों की भूमि से घाघरा नदी द्वारा विभाजित होता है । आज प्रातःकाल ही में एक ठेठ काठी पुरुष को देख कर कृतार्थ हो गया। वह अपने गेहूँ के खेतों की रक्षा के लिए जा रहा था, जिनकी बड़ी मेहनत से सिंचाई की गई थी और जो उसकी देह के समान ही एक विशुद्ध प्राकृतिक उपज के नमूने थे। उसकी पुरुषाकृति, खुला हुना चेहरा और स्वतंत्र चाल देख कर पीछे छोड़े हुए क्षेत्रों के तथा गङ्गातटीय भारत के चिन्ताग्रस्त किसानों से उसमें स्पष्ट भिन्नता पाई जाती थी। उसकी निगाहों से मालूम होता था कि वह खेत उसी का था और उपज का लगान ( दशमांश ) वसूल करने में उस पर दबाव की अपेक्षा सोहार्द अधिक प्रभावशील हो सकता था। सभी बातें क़ायदे की थीं; बैल बड़े-बड़े और सुपुष्ट ; विशेष प्रकार की पोशाक पहने हुए सभी काठी हलवाहों ने हमारा हृदय से अभिवादन किया और हमारे प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर दिये । वे सीधे खड़े रहते थे और मानो यह जताते थे कि मानव जाति में उनका भी कोई महत्वपूर्ण स्थान है । प्रत्येक काठी में यद्यपि पूर्ण राजपूती शौर्य और गर्व भरा है परन्तु इतनी ही असमानता है कि वह 'हल की पूजा करता है; फिर भी, जब वह अपने प्रौजार ( यन्त्र) को हाथ में लेता है तो उतनी ही समझदारी और शान से लेता Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] पश्चिमी भारत की यात्रा है जितनी तत्परता से कि वह सिनसिनाटस (Cincinnatus)' की भूमिका अदा करने को तलवार हाथ में लेने के लिए तैयार रहता है । अपना दैनिक कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व वह तलवार को हल को लकीर में दृढ़ता से गाड़ देता है मानों यह कहने को कि 'या तो यह खेत में रहे अथवा खेत धनी के पास ।' अनवरत संघर्ष से जीवन को एकाकी शान्ति में बदलने के कारण परस्पर विरोधी भाव उसके मन में अवश्य उठते होंगे; और, इन लोगों को पुराने वैरियों एवं उत्पीड़क स्वामियों से घिरे देख कर इनकी सैनिक तथा श्रमिक प्रवत्तियों में अलगाव से मुझे भी खेद होता है, परन्तु मैं चाहता हूँ कि अत्याचार का डट कर मकाबला करने को तैयार रहते हुए भी ये शान्ति के वरदान का आदर करना सोखें और जब तक इनके अधिकार सुरक्षित हैं तब तक, हमें आशा है कि, इनकी गैर-काननी प्रवत्तियों पर, (उनके) उस ऊंचे अदम्य उत्साह को बिना भंग किए भी, नियन्त्रण रखा जा सकता है, जिसके बल पर इनकी मानसिक स्वतंत्रता सिकन्दर के समय से अब तक टिकी चली आ रही है। तीसरे पहर प्रान्त का सूबेदार गोविन्दराव हमसे मिलने आया। थोड़ी देर बातचीत करके हम साथ साथ शहर देखने निकले और बाद में उसके निवासस्थान तक भी गये । अमरेली का मुख्य बाजार अच्छा लम्बा-चौड़ा और श्रमिक प्राबादी से पाकीर्ण है । बोच में एक चौक है जहाँ से गलियां फैटती हैं। भीतरी घेरे के उत्तर-पश्चिमी कोने पर एक शस्त्रागार है, जो यद्यपि अधिक बड़ा नहीं है परन्तु मजबूत है। यह दामोजी के शासनकाल में बना था। इसके सामने हो एक अच्छे परकोटे वाला चौक है, जिसमें खपरैल की छत के नीचे गायकवाड़ का तोपखाना लगा हुआ है । ज्यों ही हम गवर्नर (सूबेदार) के निवास स्थान में प्रविष्ट हुए, पांच तोपों को सलामो दागी गई। मेरी समझ में, सौराष्ट्र के सूबेदार के निवास में प्रवेश करने से अधिक आश्चर्योत्पादक कोई बात किसी यूरोपीय यात्री के लिए नहीं हो सकती, विशेषतः जब कि वह अपने देश से नया ही आया हुआ हो। हम लोग एक बड़े दीवानखाने में गये जो पचास फीट लम्बा, बीस फीट चौड़ा और इससे कुछ अधिक ऊँचा होगा; इसके दोनों और छः छः खम्भे थे जो मेहराबों , Cincinnatus (सिनसिनाटस) एक रोमन वीर था । ई० पू० ४६० में वह अपने पद से निवत्त होकर खेतों में काम करने चला गया था। ई० पू० ४५८ में जब रोम पर प्राक्रमण हुआ तो उसे खेत छोड़ कर शासक बनने के लिए बुलाया गया। उसने शत्रु को परास्त किया और पुनः खेत को लौट गया । ई० पू० ४३६ में अस्सी वर्ष की अवस्था में एक बार फिर वह डिक्टेटर बना, परन्तु उसी वर्ष उसकी मृत्यु हो गई।-N.S.E; p. 258 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १५: सूबेदार से मुलाकात ; देवला [ ३१९ से सम्बद्ध थे; छत पर सुरुचिपूर्ण कोरनिस की सजावट हो रही थी और चार चमकदार कटे हुए काच के झाड़ लटक रहे थे; बीच-बीच में गोल दीपक को हॉडियाँ भी पंक्तिबद्ध आलम्बित थीं। इस विशाल हाल के चारों प्रोर पूरे बीस फीट चौड़ा एक बरामदा था जिसकी रंगीन लकड़ी की बनी हुई ढालू छत से भी ऐसे ही दीपकों की पंक्तियां लटक रही थीं। दीवानखाने के ऊपरी हिस्से में हम लोगों के लिए कुर्सियाँ लगी हुई थीं। ठीक सामने ही एक फव्वारा पूरी रफ़्तार से चल रहा था, जिसके प्रोस सदृश चमकदार माध्यम से हमने प्रकाशमान आतिशबाजी देखी जो विशाल श्राँगन में जलाई जा रही थी । स्पष्ट है कि इस जंगली क्षेत्र में 'सहस्त्र - रजनी- चरित्र' के से दृश्य देख कर हुआ प्राश्चर्य थोड़ा नहीं था क्योंकि कुछ ही वर्षों पहले यहाँ दलदली लुटेरों के घोड़ों की rai प्रथवा घाड़े की सूचनाओं के अतिरिक्त और कुछ सुनाई ही नहीं देता था । हम अपने मेजमान के साथ पूरे एक घण्टे तक विनोदपूर्ण बातें करते हुए बैठे रहे; वह सभ्य, सलीकेवाला और समझदार आदमी था। इसके अनन्तर, हमारे इत्र लगा कर गुलाबजल छिड़का गया और सुवासित पान के बीड़े पेश किये गये, जिनको खाना या न खाना हमारी इच्छा पर छोड़ दिया गया था । देवला - नवम्बर २३ वों - हमारे दस कोस के अनुमान के विरुद्ध यह पूरे सत्ताईस मील की बड़ी लम्बी और साथियों को थका देने वाली मंज़िल निकलीं । हम ठहरने के मुकाम पर पहुँचे उससे पहिले ही सूर्य आकाश के मध्य में चढ़ चुका था और हम यह जान कर और भी परेशान हुए कि तुलसीशाम, जिसके कारण गिरनार का सीधा मार्ग छोड़ कर हम इस रास्ते श्राये थे, यहां से अभी छः के बजाय दस कोस था; और तुर्रा यह कि मार्ग टेढ़ा मेढ़ा और पहाड़ों में होकर जाता था इसलिए हमें इसे दो मंजिलों में बांटना पड़ेगा । इसकी तो कोई परवाह न थी, परन्तु समय निकला जा रहा था और वे लोग बहुत दूर बैठे थे जो यह समझे हुए थे कि मैं गहरे समुद्र पर चल रहा हूँ जब कि मैं अभी यहां काठियावाड़ के जंगलों में ही मंजिलें तय कर रहा था । आज प्रातः दस बजे तक हवा प्रसन्नता और ताज़गी देने वाली थी परन्तु हमारे डेरे तक पहुँचते-पहुँचते थर्मामीटर ९०° तक जा चुका था । इस क्षेत्र में खेतीबाड़ी खूब है और सिंचाई के लिए चमड़े का चड़स, जिसको चलाने के लिए एक ही आदमी काफी है, सर्वत्र प्रचलित है । उद्योग के सभी यन्त्रों के समान इस प्रान्त में इस चड़स की बनावट और उपयोग भी अत्यन्त सरल है । यद्यपि समस्त भारत में कुछ ऐसे ही चड़स काम में लाये जाते हैं परन्तु हू-ब-हू ऐसा ही तो मेरे देखने में और कहीं नहीं आया । मैं यहां इसका एक खाका दे रहा हूँ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] पश्चिमी भारत की यात्रा AB. कुमा CD. कुए के सिरे पर खड़ा लट्ठा EF. आड़ा डण्डा जो D बिन्दु पर मुकता है और ऊंचा होता है E. मिट्टी का लौंदा या भारी पत्थर जो H चड़स को पानी में डुबोता है FG. रस्सी, जिसके द्वारा किसान चड़स को डुबोता है और ऊंचा उठाता है IH. चमड़े का लचकोला [सूंडया] चड़स जिसके दोनों मुंह खुले होते हैं। चौड़े मुंह का व्यास करीब १५ इंच होता है; यह लोहे के गोल चक्कर [माँडळ-मंडल] के सहारे खुला रहता है जिसमें abcd लोहे के दो आड़े डंडे भी लगे रहते हैं । KI. चड़स की सूंड को कायम रखने का तस्मा KL. पानी की नाली (ढाणा) जब चड़स भर जाता है तो E.D.F डंडा खींच लिया जाता है, इससे चड़स किसान के पास पा जाता है, फिर KI तस्मे पर झोला देने से इसका मंह ढांणे में आ जाता है, जहां यह स्थायी रूप से अटका रहता है। चौड़े मुंह को तब तक ऊंचा उठाये रहते हैं जब तक कि पूरा पानी खाली न हो जाये, और फिर पुनः भरने के लिए नीचे उतार देते हैं। जहां पानी की सतह नजदीक है वहां बागों और पौधघरों को सींचने के लिए इस यंत्र के उपयोग को सरलता से ग्रहण किया जा सकता है। कोटा के Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १५; शत्रुजय के वृश्य ३२१ महान् कृषक जालिमसिंह ने, जो उपयोगी और कमखर्च चीजों की तलाश में कभी नहीं चूकता, इसी को नकल कर डाली है । अमरेली से आठ मील दूर हमने शत्रुज नदी की मुख्य शाखा को पार किया जिसका उद्गम गिरनार की दक्षिणी पहाड़ियों में है और जो इस प्रायद्वीप में मेरी देखी हुई नदियों में सब से बड़ी है। गांव तो बहुत थे, परन्तु उनमें बस्ती हल्की थी। इन गांवों में और गुजरात के गांवों में, जहां व्यापार और खेतीबाड़ी मिले हुए धन्धे हैं, रात दिन का अन्तर है। यहां अमरेली जसे कसबों को छोड़ कर कहीं व्यापार का नाम भी नहीं है। आज का रास्ता दक्षिण की ओर था, गिरनार दाएं और शत्रुञ्जय बाएं, प्रायः समान ही दूरी पर; और उनकी नीची पहाड़ियां तो प्रायः इधर-उधर थी ही। प्रात:कालीन प्रकाश में चमकती हुई मरीचिका में होकर देखने पर इनकी शोभा और भी बढ़ जाती थी जब कि उन पवित्र पर्वतों द्वारा ग्रहण की हुई तरङ्गायमान और निरन्तर परिवर्तनशील प्राकृतियां प्रांखों के सामने छाया-चित्र से उपस्थित कर रही थीं। पहले तो एक घना काला स्तम्भ गिरनार पर्वत पर टिका हुआ दिखाई दिया, फिर वह धीरे-धीरे प्रादिनाथ के निवास शत्रुजय तक फैलता चला गया। यह एक मोटी, स्पष्ट दौड़ती हई-सी रेखा थी जो प्रायः दृष्टिवृत्त की प्राधी परिधि में लिपट-सी गई थी। इस घोर अन्धकारपूर्ण वाष्प-समूह ने तुरन्त ही दोनों पर्वतों के बीच की जगह को भर दिया; यह दृश्य उत्तर की ओर के पारदर्शक माध्यम से सर्वथा भिन्न था जिसमें होकर अमरेली की मीनारें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं; इस दर्पण में प्रतिबिम्बित होकर उनको ऊंचाई, नीची स्थिति होने पर भी, बहुत बढ़ी हुई सी लगती थी और ऐसा प्रतीत होता था मानो वे सुदूर सिहोर के पर्वत-शृंगों से जा मिली हैं। शत्रुञ्जय का दृश्य प्रतिक्षण बदल रहा था । एक काली, भद्दी और विषम किनारों वाली प्राकृति से यह स्तम्भाकार बन गया, फिर अपनी मूल प्राकृति में बदल गया और कुछ ही क्षणों में दूसरा वेश ग्रहण कर लिया-एक विशाल पर्वत-खण्ड, जिसकी बगलें स्पष्ट टूटी हुई, नीची संयोजक श्रेणी के कुछ भाग ऊँचे उठ गये और बड़ा तथा ऊँचा खण्ड दब गया । सब से अधिक आकर्षक दश्य तो उस समय उपस्थित हुआ जब कि समुद्र-तल से उठ कर सर्य की ऊर्ध्वगामी किरणों ने पर्वत के समस्त विस्तार को आलोकित कर दियाऐसा प्रतीत हा मानो अन्तरिक्षीय अन्धकार में तरल अग्नि की एक झील लहरें ले रही हो । धीरे-धीरे प्रकाश ने धुंध पर विजय प्राप्त की और इसके मण्डल ने अपना ऊपरी छोर पर्वत के समतल भाग से भी ऊपर जा टिकाया, जो प्रत्यक्ष हो अंधेरी रात में तोप का झपाका-जैसा मालूम पड़ रहा था। ज्यों-ज्यों Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] प्रकाश की शक्ति बढ़ती गई, धुंध को श्रृंखला टूटती चली गई और अन्त में यह विचित्र एवं रहस्यमय श्राकृतियों में विभक्त हो कर अनस्तित्व में विलीन हो गई । मैंने ऐसे ही और इस से भी बढ़ कर दो दृश्य और देखे हैं- एक मरुस्थल के उत्तर में हिंसार नामक स्थान पर और दूसरा कोटा में, जिनका वर्णन मैंने अन्यत्र' किया है । पश्चिमी भारत की यात्रा ३ हमने जैर (Jair ) गांव की पहाड़ी पर चढ़ाई शुरू की, जो दोनों पवित्र पर्वतों की संयोजक श्रृंखला है । थूर एवं खजूर से ढँकी हुई इस पांच मील ऊँची भूमि को पार कर के हम अपने ठहरने के स्थान, देवला ग्राम में पहुँचे जिसका, वहाँ के ठाकुर के प्रतिरिक्त, कोई महत्त्व नहीं था । अब भी उस के गढ़ के चारों ओर छोटा मिट्टी का परकोटा है जिसमें बुर्जे भी हैं और इसके स्वामी को इस पर उतना ही गर्व है जितना कि लुई चौदहवें को अपने किले लिले ( Lille) + पर था । एक स्वच्छ पानी के छोटे पहाड़ी नाले पर देवला की सरहद पूरी हो जाती है; यहाँ के जो थोड़े-बहुत निवासी हैं वे कुनबी श्रौर कोली जातियों के हैं तथा उनका ठाकुर भी काठी है जिससे हमने तीसरे पहर भेंट की । जैसा, अथवा अधिक आदरसूचक रूप में जेसाजी, अपनी जाति का एक अच्छा नमूना है । उन्होंने अपनी अवस्था पचास वर्ष की बताई परन्तु यदि वह अपनी दाढ़ी के अधकटे बाल, जो एक सप्ताह से बढ़ रहे थे, और काली मूंछें कटा कर चेहरा साफ करा लें तो उनकी इस अवस्था में सहज ही पाँच वर्ष कीं कमी नज़र आने लगे । कुछ देर आराम से बैठ कर वाणी की पूरी स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए सच्चे काठी की तरह वह बेरोकटोक बातें करते रहे; तभी मैंने यह पूछ कर बातचीत के सिलसिले को उनके विगत जीवन के विषय में मोड़ दिया, 'क्या आपने इस एकान्त निवास स्थान को छोड़ कर कभी अपने सम्मानपूर्ण शस्त्रों के उपयोग का व्यवसाय नहीं किया ?' तब उस दलदल के अश्वारोही ने बड़ी उदासीनता से उत्तर दिया, 'बहुत थोड़ा, भावनगर, पाटण और झालावाड़ से प्रागे कभी नहीं ।' यदि पाठक मानचित्र देखें तो पता चलेगा कि जेसाजी के 9 एनल्स एण्ड एण्टीक्विटीज़ श्राफ़ राजस्थान, वॉल्यूम १, पृ० ७६८ । यह दुर्गं फ्रांस की राजधानी पेरिस के उत्तर में १५५ मील की रेलवे दूरी पर स्थित है। स्पेन के फिलिप चतुर्थ की मृत्यु के बाद लुई चौदहवें ने लिले के किले पर १६६७ ई० में अधिकार कर लिया था । इसका 'पेरिस-गेट' दरवाजा १६८२ ई० में उसी के सम्मान में पलंण्डर्स. विजय के उपरान्त बनाया गया था । —E. B., Vol. XIV; pp. 641-42 L Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५; बैबला का काठी सरदार [ ३२३ 1 तीन बिन्दु एक त्रिकोण बनाते हैं जो प्रायद्वीप के पूर्वीय, दक्षिणी र पश्चिमी सुदूर भागों तक फैला हुआ है और यदि किसी भी दिशा में वह थोड़ा भी आगे निकले तो घोड़ा और घुड़सवार दोनों ही समुद्र में जा पहुँचें। थोड़ा और बढ़ावा दे कर यह पूछने पर कि यह क्षेत्र तो बहुत सीमित है, क्या कभी उत्तरी भाग में प्रयत्न नहीं किया गया ? तो उन्होंने उसी सादगी के ढंग और व्यङ्ग्यात्मक लहजे में उत्तर दिया- 'क्यों, मैंने अहमदाबाद की पोळ तक में अपना भाला जा टेका है ।' बस, मुझे इससे अधिक कुछ नहीं पूछना था । देवला के ठाकुर जेसाजी और उसके एक दर्जन साथियों ने, जिनकी भूमि एक अच्छी सी विशाल जायदाद से अधिक नहीं थी, गुजरात की राजधानी का मानभंग कर दिया था । अध्ययन के समय मेरे मस्तिष्क पर स्थिर प्रभाव डालने वाला रूपक, जिसे इन दृश्यों ने जन्म दिया था, मुझे याद आ गया - वह था श्रादिम जातियों द्वारा उत्तरी इटली की लूट । जेसा काठी की विशेष प्रकार की मूर्ति की समानता लाङ्गोबाई जातीय अल्बोइन ( Longobard Alboin ) ' से की जा सकती है जो उसकी सफल शक्ति का प्रमाण उपस्थित करती थी । प्रकरण एलबोइन की जाति का ही एक अन्य व्यक्ति भी इसी उपमा के लिए और इसी उद्देश्य के लिए हमारे सामने है । जब जार-साम्राज्य के संस्थापक रूरिक ( Rurik) का उत्तराधिकारी पहली बार अस्सी हज़ार सेना ले कर बोरिस्थिनीज़ ( Borysthenes ) को पार कर के राजधानी पर (जो अब तक भी आकांक्षा का स्थल बनी हुई है) हमला कर के गया तो नगर की पराजय और अपनी विजय के चिन्ह स्वरूप 'उसने बाइजेण्टिग्रम (Byzantium ) के दरवाजे पर अपनी ढाल कीलों से जड़वा दी थी तथा वहाँ के बादशाह को उसने एक संधि करने के लिए विवश कर दिया था, जिसमें विजेता के वाराञ्जिअन (Varangian) रक्षकों ने अपने शस्त्रों और ढालों की शपथ ली थी।' इस कथा से हमें केवल विजय के वृत्तान्त का आलंकारिक साम्य ही नहीं ज्ञात होता वरन् शपथ लेने का एक विशेष प्रकार भी सूचित होता है जो स्वरूप में विशुद्ध राजपूती है और साधारणतया जंगल के निवासी प्रत्येक काठी के मुँह से सुनने को मिलता है । परन्तु, Longobard (अथवा Long beard-लम्बी दाढ़ी वालों की) जाति एल्ब Elbe नदी के तटीय उपजाऊ मैदानों में रहती थी। इस शब्द का इटालिअन रूपान्तर Lombard है । इनके बादशाह Alboin (एल्बोइन) ने ५६८ ई० में इटली पर प्राक्रमण कर के लुटपाट की थी । ५७३ ई० में वेरोना (Verona ) नामक स्थान पर उसकी हत्या कर दी गई। —E.B., Vol. XIV; p. 813. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा लॉङ्गोबाई अलबोइन (Longobardic Alboin) और वाराञ्जिमन जार (Varangian Czar) दोनों ही नॉरमन (Norman) थे जिस जाति के लोगों ने वेज़र (Weser)' और एल्ब (Elbe) के मुहानों को आबाद कर रखा था और स्कैण्डिनेविया (Scandinavia) के प्रारम्भिक इतिहासकारों ने भी जिनको एशी अथवा एशियाई कह कर उनको भिन्नता प्रकट की है । प्रतिदिन ऐसे प्रमाण मिल रहे हैं कि कोई प्रादिकालीन भाषा ट्यूटॉनिक (Teutonic) से जिसका पृथक्त्व बताने के लिए इण्डो-जरमनिक (Indo-Germanic) संज्ञा दी गई है उससे बहुत अधिक मिलीजुली है और उनकी प्राचीन मान्यताएं एवं रीतिरिवाज़ भी समान हैं। इससे यह अनुमान होता है कि यद्यपि प्राज इन देशों के निवासियों के देश, रंग, धर्म और रहन-सहन में बहुत बड़ा अन्तर आ गया है फिर भी यह असम्भव नहीं है कि एलब के काठी और सिकन्दर का सामना करने वाले काठी के पूर्वज मध्य एशिया के किसी एक ही क्षेत्र से निकल कर विभिन्न स्थानों को चले गए हों। परन्तु, अब हम मार्ग में आने वाले मनोरञ्जक उदाहरणों के आधार पर वर्तमान रंगढंग की रूप-रेखा बनाते हुए आगे चलें और पुनः जेसाजी से मिलें। आजकल की अधम शान्ति के दिन उनकी पैदा के लिए घातक सिद्ध हुए हैं और उनके मस्तिष्क की गति किसी भी दूर के धाड़े में तलवार हाथ में होने पर गिरफ्तार कर लिए जाने की अस्पष्ट आशंका से रुद्ध हो गई है। इसका मजा उन्हें पहले मिल चुका है जैसा कि उन्होंने हमारे सामने अपनी सहज सरलता के साथ वर्णन किया है। उनकी घुड़सवारी की शान अब गढ़ के आसपास के खेतों में काम करने वाले कृषकों की देखभाल करने तक ही सीमित रह गई है और केवल इसी पर उनके गुजारे की आशा टिकी हुई है। हां, तो उनकी कहानी इस प्रकार है-अपने अनियमित धन्धे के अतिरिक्त जेसाजी ने गोंडल के चार गांवों पर अपना ग्रास' कोयम कर लिया था; और इस विषय में यह एक सबक था , जर्मनी की एक नदी जो मिण्डेन (Minden) नामक स्थान पर फुल्दा (Fulda) और वेरा (Wera) नामक नदियों के मिलने स बनती और ३०० मील उत्तर में बह कर उत्तरी समुद्र में गिरती है। • यूरोप की प्रसिद्ध नदी जो बोहेमियाँ के पहाड़ों से निकल कर ७२५ मील का मार्ग पूरा कर के उत्तरी समुद्र में मिलती है। पास या गिरास उस लगान या कर वसूल करने के अधिकार को कहते हैं, जो किसी सरदार द्वारा धौंस जमा कर किसी गांव से या व्यापार-मार्ग से वसूल किगा जाता था। -Asiatic Studies I, Lyall; p. 181 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२५ प्रकरण - १५; काठी बेसाजी जो उनके भले अपग्राहक ने ऐसा पढ़ा दिया था कि जिससे उन पर पहला प्रभाव जमाने में धोखा नहीं हुमा। लगान की, अथवा लूट की कहिये, अन्तिम 'किश्त' की कौड़ियां कमरबन्ध में बांधे वे चुपचाप अपने पहाड़ी निवास को लौट रहे थे कि उन्हें घेर लिया गया, पूरे सफर की साथिन घोड़ी से उतार दिया गया और बुरी तरह बांध कर गोंडल के किले में डाल दिया गया। परन्तु, जेसाजी की बुद्धि ने साथ न छोड़ा; नये घर के किसी भाग से निकाली हुई एक कील उनकी बेड़ियां खोलने का औजार बन गयी और आधी रात का मौका देख कर गर्दन टूट जाने तक की जोखिम उठाते हुए वे जेल की दीवार से कूद पड़े। भाग्य से कोई चोट न पाई और कुछ ही घण्टों में वे सही सलामत एक काठी गांव में जा पहुंचे। कहानी का उपसंहार करते हुए उन्होंने अपनी घोड़ी को रख लेने पर रोष प्रकट किया; उनके समझ में नहीं पा रहा था कि वे किस कायदे से उस घोड़ी को रख सकते थे और उनसे कौड़ियां छीन सकते थे, जो उन्होंने अपनी तलवार के बल पर, बहुत दिनों से अमल में आने के कारण अपने मूल अधिकार के प्राधार पर वसूल की थीं ? जेसाजी की प्राकृति देखते हुए उनका यह कथन ठीक मालूम पड़ता था कि 'मैंने लोगों को चिथड़े छोड़ने के लिए डराया ज़रूर, परन्तु कभी खून नहीं बहाया।' दस्यु की भाषा में चिथड़े के अन्तर्गत साफा, पगड़ी और ऐसी ही चीजें अथवा 'कोई भावनगर की गाय, भैस या घोड़ा-घोड़ी जो भो रास्ते में मिल जाय' आते हैं। इस पुराने दस्यु ने पाटण तक इन पहाड़ियों में हमारा मार्ग-दर्शक बनना स्वीकार कर लिया है और कहता है कि हर पहाड़ी क्या, इसका एक-एक पत्थर उससे छुपा नहीं है। इसमें कोई सन्देह की बात भी नहीं है । बिछुड़ने से पहले शायद कुछ और कहानियां भी सुनने को मिलेंगी। ___ इस प्रायद्वीप के घूमन्तु लोगों के रीतिरिवाजों के बारे में उदाहरण के लिए एक और भी घटना का वर्णन कर दूं। जब हम कल की यात्रा में उधर से निकले तो एक ब्राह्मण हमें चरूरी के काठी सरदार के यज्ञ में ले जाने लगा। चरूरी आठ हजार रुपये की वार्षिक आय का गांव है। वहां के ठाकुर ने ब्राह्मण भोजन के अतिरिक्त एक मन्दिर बनवा कर उसका प्रबन्ध भी किया था और साथ ही प्रत्येक त्यागी योगी को एक-एक रुपया और एक-एक कम्बल दान में दिया था। संक्षेप में, हमारे पथ-प्रदर्शक ने उसका पूरे सन्त का सा चित्रण उपस्थित किया। इन भले-लुटेरों की खोह के बीच में रहने वाले इस एकाकी धार्मिक मनुष्य का इतिहास जानने की उत्सुकता से मैंने और भी पूछताछ की तो पता चला कि कभी काठियावाड़ की 'भायाद' में वह बहुत ही साहसी और कुख्यात रहा है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा परन्तु, जब वह स्वयं अपने धंधे के सक्रिय कर्तव्यों को पूरा करने में समर्थन रहा तो उसने यह काम अपने पुत्रों पर छोड़ दिया और अपनी जवानी में लटी हुई सम्पत्ति एवं पुत्रों को लूटपाट के धन को धार्मिक कार्यों तथा दानपुण्य में खर्च कर के प्रात्म-शान्ति के लिए मन बहलाने लगा है। सभ्यता के समान-युगों में भी हमें इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर प्रायः ऐसे ही चरित्रों का वर्णन मिलेगा। दृश्य को केवल हमारे सम्राट् को म्यूल्फिक (Guelphic)' पूर्वज-परम्परा में बदल दीजिए, जिसके विषय में कॉनराड (Conrad) • से भी पूर्व मध्यकालीन अस्पष्ट युगों का वर्णन करते हुए, प्रतिभाशाली गिबन (Gibbon) ने कहा है 'हम उनके बारे में बहुत कम जानते हैं, परन्तु यह अनुमान लगा सकते हैं कि वे जवानी में धन लूटते थे और बुढ़ापे में गिरजे बनवाते थे ।' ___काठी अथवा ऐसे ही अन्य मनुष्यों के जीवन की विचारधारा को सर्वथा बदलने के लिए बल-प्रयोग ही कोई अचूक साधन नहीं है क्योंकि 'भौमिक आकपंण' के इन देशों में ऐसे धन्धों को अपमान की दृष्टि से नहीं देखा जाता; यही नहीं, यदि अन्त में वे पूर्णतया बदल जाते हैं तो पूर्व-कुकृत्यों को परवाह न करते हुए उनके स्वामी (राजा) भी उनका कम सम्मान नहीं करते और ऐसी एक प्रशान्त आत्मा द्वारा आत्म-समर्पण के अवसर पर, शान्त और नियमित रूप से कर देने वाले तथा 'बाहरबाट' होने का स्वप्न में भी विचार न करने वाले निन्यानवे प्रजाजनों के आधीन हो जाने की अपेक्षा, अधिकाधिक खुशियां मनाते हैं। गढ़िया, नवम्बर २४ वीं-इस ऊँची वन-भूमि के सुन्दर और अत्यन्त मनोरम दृश्यों में हो कर सात मील चले। हमारे मार्ग में प्रत्येक मील पर हमने वनाच्छादित घाटियों से बह कर पाते हुए छोटे झरनों को गहरी दरारों में होकर अपना निर्मल जल-प्रपात करते हुए देखा; ये झरने पठार भूमि पर पुनः , इंगलण्ड का राजवंश । सन् १९१७ ई० में बादशाह जार्ज पञ्चम ने अपने वंश की सभी पूर्व जर्मन उपाधियों का त्याग करके विन्डसर कुल (House of Windsor) कायम किया था। पहले यह कुल Guelphic कहलाता था।-N.S.E.; p. 1301 . २ अंग्रेजी उपन्यासकार Joseph Conrad; जन्म १८५७ ई० । इनकी कहानियों में समुद्र एवं समुद्रवासियों का वर्णन अधिक पाया जाता है। कॉनराड की मत्यु अगस्त, १९२३ ई. में हुई -N. S. E., P. 314 ३ प्रसिद्ध अंग्रेजी इतिहासकार । जन्म १७३७ ई०, २७ अप्रेल; मृत्यु १६ जनवरी १७६७ ई. लन्दन में। इसकी लिखी Decline and Fall of the Roman Empire नामक पुस्तक प्रसिद्ध है।-N. S. E; p. 559 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकररण १५ काठी सरदार का निवास [ ३२७ 4 G धीरे-धीरे बहते हुए शत्रुञ्जय नदी में जा मिलते हैं । घनी वनावली में थोड़ीथोड़ी दूर पर झोंपड़ियाँ भी दिखाई देती हैं, जो यह बताती हैं कि ऐसे स्थानों पर भी मनुष्यों का अभाव नहीं है, जो किसी डकैत के लिए पूर्ण स्वर्ग के समान हो, जहाँ किसी छायादार बड़ या पीपल के नीचे वह अमल की पोनक में मानन्द लेता रहता है अथवा किसी कुनबी किसान के काम की देखभाल करता रहता है, जो उस भूमि में खेती द्वारा रोटी पैदा करता है । वहाँ भी जहाँ-जहाँ रेतीली भूमि है वह नीचे के मैदानों जैसी ही समृद्ध दिखाई देती है । सुदूर नील गगन में पहाड़ी चोटियाँ दृष्टिगत होती हैं; भ्रमरेली में गौरवगिरि गिरनार का एक ही क्रमबद्ध शिखर दिखाई पड़ता था, उसके वजाय यहाँ से पाँच शिखरों का स्पष्ट दर्शन होने लगा । गढ़िया पहुँचने पर काठी सरदार के निवास की सुन्दर छबि देखने को मिलती है; अनगढ़ पत्थरों से बनी वर्गाकार काली छतरीइसकी सन्धियाँ नुकीली चट्टान पर टिकी हुई, चारों ओर नीचे की तरफ रक्षा के लिए बने कच्चे घरों की टेढी-मेढी लहराती हुई पंक्तियाँ और यह सब दृश्य वटवृक्षों के झुरमुटों से घिरा हुआ, जिनके बीच में स्वच्छ जल का झरना बहता हुआ । इस स्थान पर पहुंचते ही मैंने देखा कि एक छोटा-सा तम्बू तना हुआ है और घर के लोग तथा अन्य कार्यकर्ता कल की थकान के बाद आराम कर रहे हैं । इस दृश्य को पूर्णता प्रदान करता हुआ जैसा, एक पड़ौसी के घोड़े पर सवार, हाथ में भाला लिए झुरमुट में प्रविष्ट हुआ, जहाँ से एक सुपुष्ट घोड़ी की नंगी पीठ पर सवार केवल रस्से की लगाम बनाए एक खिलाड़ीकी - सी आकृति सहज ही कन्धों पर कम्बल डाले पूरी तेजी से दौड़ती दिखाई दी । मेरे पास से निकलते हुए उसने बहुत बादर से सलाम की । इस मूर्ति के बारे में जब जेसा से पूछा गया तो उसने बताया कि वह पास ही की ढाणी का स्वामी बाल राजपूत था और अपनी खोई हुई गाय की तलाश में आया था । यद्यपि यह कोई नया दृश्य नहीं था फिर भी मुझे बहुत पसन्द आया क्योंकि यह सभी जगह के राजपूती रीति-रिवाजों के अनुकूल था । यह बाल राजपूत जिस ढाणी का स्वामी था उसमें तीन ही घर थे- दो कोलियों के और एक कुणबी का । बाद में, वह अपने स्वजातीय 'झिरी' के भूमिया के साथ हम से मिलने श्राया । इन के मुखों और अंगों पर प्रकृति ने यौवन की छाप लगा दी थी; एक के चेहरे पर लम्बी दाढ़ी थी, जिसके सिरे दो नोकों में विभक्त थे और दूसरा अभी बाईस वर्ष का सुपुष्ट युवक था । जेसाजी उनको भली भांति जानता था और निःसंकोच अनुमान लगाया जा सकता है कि 'बहुत से भले आदमियों को 'ठहर जा' इस तरह दकालने में वे साथ रहे होंगे ।' प्रायद्वीप पर बसने वाली विभिन्न -- Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा जातियों में अन्तर बताने वाले गुणों का सूक्ष्म विश्लेषण करते हए कैप्टेन (कप्तान) मैकमुरड़ो (Captain Mac Murdo) ने राजपूत और काठी के बीच एक रेखा खींची है, जो किन्हीं अंशों में ठीक हो सकती है, परन्तु ऐसे अवसरों पर जैसा कि ऊपर कहा गया है, जब वे हमें एक ही गैर-कानूनी उद्देश्य के लिए सम्मिलित दिखाई पड़ते हैं तो इनमें स्पष्ट विभाजन रेखा को ढूंढ़ना अत्यन्त बारीक नज़र का ही काम होगा; पोशाक, रंगढंग, भोजन, विश्वास और सोचने के प्रकारों में वे समान हैं-केवल एक छाया, नाम मात्र का हो अन्तर उनमें होता है। तुलसीशाम-नवम्बर २५वीं-सौराष्ट्र के पहाड़ी भागों में जो अनुमानित दूरी अथवा कोस माने जाते हैं उनमें और देशी कोस अथवा गांव-कोस में वास्तविक अन्तर है क्योंकि गढ़िया से यहाँ तक दस या ग्यारह मील के बजाय जो सात कोस के बराबर होते-हम पूरे सोलह मील चले आये; फिर भी हम थके नहीं और न इन विभिन्न प्रकार का सौन्दर्य लिए हए दृश्यों में किसी को रुचि के बहाने अपने आपके बारे में सोचने का ही अवसर मिला । पहले दो मील तक तो पठार पर चलना पड़ा जिसमें भी थोड़ी सी चढ़ाई अवश्य थी परन्तु दोनों ओर प्रहरी के समान खड़े शिखरों के बीच से निकलने के बाद जंगलों में होकर उतराई शुरू हुई । शेष यात्रा का वर्णन में इससे अच्छा नहीं कर सकता कि हम एक के बाद दूसरी पृथक् वन-संकुल और परिमित लम्बाईचौड़ाई वाली रंगभूमि में से गुजरे जो कि थोड़ी ऊंचाई वाली क्रमहीन पहाड़ी चोटियों से घिरी हई थीं। अमरेली के मैदानों से पठार तक की चढ़ाई क्रमिक है परन्तु यात्री को इस ऊबड़ खाबड़ और द्रुत अवरोह से ही शत्र जय और गिरनार के महान् शिखरों को संयुक्त करने वाले पर्वतीय भाग की ऊँचाई का ठीक ठीक ज्ञान हो सकता है। आज के दिन की मंजिल में बैरोमीटर ने पूरे पांच सौ मील का उतार दिखाया । गढ़िया छोड़ने के बाद झरनों का बहाव दक्षिण को प्रोर देख कर ऊँचाई का मध्यबिन्दु स्पष्टतया लक्षित हो जाता था क्योंकि यहाँ तक वे शत्रुञ्जय की पोर पश्चिमी ढाल पर बह रहे थे । महत्वपूर्ण स्थिति के कारण ये झरने सौराष्ट्र के भूगोल में अधिक ध्यान देने योग्य हैं। हमारे बायीं ओर वनाच्छन्न एक हो घाटो में दौड़ती हुई 'काली गढ़िया' और ऊना में समुद्रसंगम के लिए अग्रसर हो रही 'दूधिया रानला' का, जिसके इस पार और उस पार हमको चार बार आना जाना पड़ा था, अन्तर यहाँ स्पष्ट दिखाई पड़ता था। मैंने रानला के लिए दूधिया शब्द का प्रयोग इसलिए किया है कि ज्यों ही इसके चूनामिश्रित पेटे में हलचल हुई कि इस स्वच्छ झरने का जल दूध के Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १५, गढ़िया का ठाकुर; मार्ग के प्राकर्षण [३२६ समान श्वेत हो जाता है कि जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसका मार्ग चूनाबहुल चट्टानों पर होकर है। हमारे कुछ सिपाहियों ने, जो कभी काठियों के विरुद्ध इधर आए थे, मुझे इस पानी के विशेष प्रस्वास्थ्यकर होने के विषय में बताया। परों की सी शकल के झोव (Jhow) के पेड़ बहुत बड़ी तादाद में इस झरने पर झुके हुए थे; किनारे पर छाए हुए अन्य बहुत से वृक्षों में वृहदाकार 'टेंडू' को में तुरन्त पहचान गया। ___ इस टेढ़े-मेढ़े और चित्ताकर्षक मार्ग में मेरा पथ-प्रदर्शक एक बढ़िया घोड़ी पर सवार था । जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं वह गढ़िया का काठी सरदार तो था ही, परन्तु उसमें मनुष्यता की भी कमी नहीं थी; रास्ते भर वह लोककथाओं से हमारा मनोरञ्जन करता रहा और ऐसा कोई भी स्थल नहीं बताया जो किसी मर्मस्पर्शी कथा से सम्बद्ध न हो। जब हम हमारे रास्ते के बाँई ओर नदी के किनारे पर खुले पत्थरों के एक पालिये [समाधिस्थल] के पास से निकले तो उसने ठंडी साँस लेकर कहा, 'यहाँ जब बाबरिया झगड़ा करने पाए थे तो मेरा भाई काम आया था; उसकी मृत्यु से पुराना वैर चुक गया था।' ज्योंही वह घुमक्कड़ ठाकुर रास्ते में पड़े हुए एक लकड़ी के लट्ठ के पास होकर निकला तो उसकी घोड़ी भड़क गयी, इस पर उसने बड़ी निर्दयता से उसके चमड़े के चाबुक लगाए । जब वह उसको काबू में ले आया तो मैंने कहा, 'मैं समझता था कि तुम काठी लोग अपनी घोड़ियों को अपने बच्चों की तरह समझते हो और उनसे दयापूर्ण व्यवहार करते हो !" उसने कहा, 'यह ठीक है, परन्तु जैसे पाप और मैं जानते हैं उसी प्रकार यह घोड़ी भी जानती है कि यह लकड़ी का लट्ठा है।' यह कह कर वह अपनी घोड़ी को उसकी नासमझी पर झिड़कने लगा जैसे वह सब कुछ समझती हो । उसका गाँव गढ़िया जूनागढ़ में है, परन्तु गायकवाड़ उनसे चौथ वसूल करता है। यह एक घृणित प्रकार का कर है जो बन्द होना चाहिए और जब तक यह बन्द नहीं होता तब तक काठी न शान्त होकर बैठेंगे न उन्हें बैठना ही चाहिए । जैसे जैसे हम अपनी यात्रा में गन्तव्य स्थान के समीप-समीपतर पहुँचते थे वैसे ही इस भूमि का कदम-कदम सन्दर्भ-गर्भित मिल रहा था। इसी जंगली प्रदेश में, जो निश्चित रूप से 'हिडम्बा-वन' के नाम से प्रसिद्ध है, वनवासी पांडवों ने यमुना के सुरम्य तट से निर्वासित होने पर शरण ग्रहण की थी; और, यदि कम से कम अनुमान लगाया जाय तो भी इस घटना को घटे तीन हजार वर्ष बीत चुके हैं, फिर भी हिन्दू मानव का मन इसके महत्व एवं व्यापक प्रभाव से इतना व्याप्त है कि इस भूमि का प्रत्येक स्थल, जहाँ उनके दुःखों का प्रशमन Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] पश्चिमी भारत की यात्रा अथवा बढ़ावा हुआ था वह पवित्र माना जाता है । तुलसीश्याम से दो मील इधर ही हम वहाँ के पवित्र दृश्यों में से उस स्थल पर पहुँचे जहाँ पाण्डवों की माता कुन्ती ने अन्तिम विश्राम लिया था और अपने वात्सल्यपूर्ण व्यवहार से इसे पवित्र बना दिया था । शत्रुनों के गुप्तचरों से बचते-बचाते जब पांचों भाई वन में घूमते हुए इस स्थान पर पहुंचे तो उनकी माता थकान और प्यास से त्रस्त होकर मूर्छित हो गई, परन्तु उसे पुनः चेतना में लाने के लिए कहीं भी पानी नहीं मिला, तब भीम ने अपनी गदा से एक चट्टान को तोड़ा और वहीं पानी का एक फव्वारा छूट पड़ा। परन्तु यह पुण्य कार्य बहुत घातक सिद्ध हुआ क्योंकि कुन्ती के जीवन की चिनगारी और प्यास एक साथ ही बुझ गई । ' यहीं पर उसका अन्तिम संस्कार किया गया और स्मृति में एक छोटा-सा मंदिर बनाया गया, जिसका अनुवर्ती युगों में श्रद्धा एवं सम्मानपूर्वक पुनरुद्धार होता रहा । हमारे मार्ग में बाँई ओर एक पगडण्डी उस स्थान को जाती है जहाँ कोई भी यात्री चट्टान में एक दरार को देख सकता है, जिसमें से स्वच्छ पानी का करना इस अनुश्रुति की सम्पुष्टि करता हुआ भरता है और इसका पानी सदा से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रहा है और आजकल भो इधर का 'हवा पानी' वर्जित है । इसी स्थान से सम्बद्ध एक और भी कथा प्रचलित हैं, जो सम्भवतः श्रधिक सही है । कहते हैं कि श्रीकृष्ण और दानव तुलसी के युद्ध का अखाड़ा यही था, जिसकी पराजय श्रौर मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण ने गतश्रम होकर शुद्ध होने की इच्छा की तब उनके बन्धु बलदेव ने अपने हल की फाल से चट्टान पर चोट मारी । तभी इसकी दरार में से झरना जारी हो गया । यह दरार अब तक भी 'बलदेव की फाड़' कहलाती है और बहुत ध्यान से देखने पर, जिसे पवित्र वात्सल्य के पुजारियों ने पाण्डवों को मानवता की मूर्ति मान रखा है, मुझे वह 'भारतीय हरक्यूलीज' की प्रतिमा प्रतीत हुई और भूल से बचने के लिए उसकी पीठिका पर बलदेव का नाम भी उत्कीर्ण करा दिया गया। वे सभी समकालीन थे और साथ रहते थे; उनका कुल 'हरिकुल' अथवा हरि का कुल कहलाता था । 'हरि' श्रीकृष्ण की विशेष उपाधि थी । 'तुलसीश्याम' एक बहुत पवित्र स्थान है, जो श्याम ( श्रीकृष्ण के साँवले रंग का द्योतक पर्याय) और सौराष्ट्र के तूल नामक दैत्य के युद्ध का अखाड़ा होने महाभारत से तो इस कहानी का मेल नहीं बैठता । पाण्डवों को माता कुन्ती का अन्त तो महायुद्ध में उसके पुत्रों की विजय के अनन्तर हुआ था जब वह धृतराष्ट्र और विदुर के साथ वनवास में चली गई थी । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १५; तुलसीश्याम [ ३३१ के कारण प्रसिद्ध है । यह दैत्य सभी पवित्र और धार्मिक लोगों के लिए भय का कारण बना हुआ था; वह किसी भी घातक अमोघ शाखा से मृत्यु को न प्राप्त होने का वरदान प्राप्त कर स्वयं देवताओं को ही अपमानित और पीड़ित करने लगा था; परन्तु, उसे यह पहले ही जता दिया गया था कि श्रीकृष्ण के प्रव तार से सावधान रहे क्योंकि वह उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है । श्रौर, उपाख्यान में कहा गया है कि जब वह अपने विजेता के चरणों में पड़ा अन्तिम साँसें गिन रहा था तो उसने अन्तिम अभिलाषा यह प्रकट की कि उसका नाम उसके शरीर के साथ ही नष्ट न हो जाये, इसीलिए विजेता और विजित के संयुक्त नाम से यह क्षेत्र 'तुलसी- श्याम' कहलाता है । इस दानव का निवास एक जङ्गली घाटी में है, जो चारों ओर पहाड़ियों से घिरी हुई है; यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि यह एक विशाल प्याले के समान है जिसकी दीवारें वनस्पति से ढकी हुई हैं और इसके पैदे में एक सीताकुण्ड अथवा गरम पानी का कुआ है, जो बड़े प्राश्चर्य की वस्तु है । एक कुण्ड ऐसा पानी एकत्रित करने का है जो बहुत सी व्याधियों के उपचार में लाभदायक माना जाता है । ऊपर के सिरे पर इसकी लम्बाई अस्सी फीट और चौड़ाई पैंतालीस फीट है; फिर एक सोपान - पंक्ति इसके पैंदे की ओर उतरती है, जहाँ इसकी लम्बाई चौड़ाई कम होकर पचपन और वीस फीट रह जाती है । मेरा मन इसमें स्नान करने को हुआ । पानी का तापमान बाहरी हवा से २१ ऊपर था प्रौर वह प्रसह्य रूप से उष्ण था । इस समय डेरे ( तम्बू) में थर्मामीटर ८६° बता रहा था और बाहर केवल ८६ । कुण्ड में थोड़ी देर डुबोए रखने पर यह ११०° पर चढ़ गया और बाहर निकालते ही ७६° पर आ गया; फिर तेजी से वह बाहरी तापमान को ८६° बताने लगा । • यहीं पर श्याम देवता का एक छोटा और भोंडा-सा मन्दिर है, जिसके भीतरी भाग में स्वास्थ्यप्रद जल के अधिष्ठातृ देवता की प्रतिमा विराजमान है । अहाते के फाटक पर ही युद्धप्रिय शिव और भैरव के भी मन्दिर बने हुए हैं । यदि हम यहाँ के लोक-प्रवाद को स्वीकार करें तो यह लगेगा कि गरम पानी का झरना तूल दानव के जीवनकाल में विद्यमान नहीं था । युद्ध के उपरान्त भूखे और थके श्याम अपनी प्रिय पत्नी रुक्मिणी के कोमल हाथों से बने पाक की श्रातुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे । रुक्मिणी चावलों का भात बनाने में व्यस्त थी। इतने ही में भूख से उत्तेजित हो श्याम ने कुछ ऐसे वाक्य कहे जो रुक्मिणी को सहन नहीं हुए और वह उबलते हुए चावलों के पात्र को उलट कर अपने भूखे और उद्विग्न पति को 'भावना के खट्टे मीठे स्वाद' लेने के लिये वहीं छोड़ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा कर पहाड़ी पर दौड़ गई । ग्रीस के देवताओं की भाँति हिन्द के देवताओं का कोप भी कभी निष्फल नहीं होता; अतः वह ओंधाया हुआ चावलों का पानी {मांड] उपयोग करने वालों को पवित्रता और स्थिर बुद्धि देने वाला अमर झरना बन गया। इस कथा के प्रमाणस्वरूप ये लोग अब भी सीता-कुण्ड के किनारे पर मण्डप-स्थित रुक्मिणी की प्रतिमा की प्रार्थना करते हैं । __ यह एक अलग ही जंगली स्थान है, जो एक बड़े यात्री-संघ के लिए अत्यन्त सीमित है। हमारे इस प्याले में घोड़ों, पैदल और गाड़ियों की भीड़ ने ऐसी हलचल मचा दी थी जो ऐसे एकान्त स्थान के लिए बिलकुल अनुरूप नहीं थी। इस कुण्ड में से एक निकास-नाले द्वारा अतिरिक्त पानी बाहर निकलता है और यही एक छोटे से झरने का उद्गम स्थान है, जिसके किनारे-किनारे खजूर आदि के पेड़ उगे हुए हैं । यह नाला ऊबड़-खाबड़ और टूटी हुई चट्टानों में होकर टेढ़ीमेढ़ो चाल से बहता है और यहाँ के सुन्दर दृश्यों में कितनो ही कल्पनाओं का सृजन करता है। दोहन-नवम्बर २६वीं-पन्द्रह मील तक हम बहुत रद्दी रास्तों से चलते रहे (यदि उन्हें रास्ता कहा जाय तो) परन्तु वास्तव में रास्ता था ही नहींवह तो ऐसा कर्कश मार्ग था जिसमें दृश्य की भी कोई सुन्दरता बच नहीं पाई थी। अन्य पहाड़ी क्षेत्रों की तरह इसको देख कर कोई प्रसन्न भले ही हो ले परन्तु, रामणीयकता के नाते कोई भी इस यात्रा को दोहराने की इच्छा नहीं करेगा। इस क्षेत्र को हमारे मानचित्रों में बहुत ही अशुद्धता से दिखाया गया है और प्रशासनिक खण्डों तथा नदी-विज्ञान का चित्रण तो अत्यन्त दोषपूर्ण है; परन्तु भूलें बताना उनमें सुधार करने की अपेक्षा सरल है और मेरा स्वास्थ्य यहाँ का सर्वेक्षण करने के श्रम को सहन नहीं कर सकता। इस पर मैंने अपने समय में खूब ध्यान दिया था, परन्तु यदि मैं स्वस्थ होता तो इस आकर्षक क्षेत्र के प्राकृतिक एवं राजनैतिक लक्षणों को सूक्ष्मता से चित्रित करने के अतिरिक्त मेरे ध्यान में और कोई ऐसा कार्य नहीं है कि जिसमें पूर्ण मनोयोग करने से मुझे अधिक प्रात्म-सन्तोष होता । दोहन से दो मील इधर ही हेतिया गाँव में हम पहाड़ियों के पार हो गए । हेतिया दो सुन्दर, चौड़े और वनस्पति-संकुल झरनों के बीच में बसा हुआ है। इन दोनों ही झरनों को हमने पार किया। एक का नाम मच्छन्दरी है जिसकी स्वच्छ सतह पर हलू के झाड़ों और सरपत की घनी परछाँही पड़ रही थी, फिर भी जल का विस्तृत दृश्य स्पष्ट देखने को इसका विस्तार पर्याप्त था। दोहन नदी का पानी विशेष रूप से प्रस्वाथ्यकर और जलोदररोग-कारक माना जाता है । कहते हैं कि कुछ ऋतुओं में यह इतना Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १५, कोरवार [ ३३३ प्रबल हो जाता है कि कोली सरदार का गाँव और कुछ अन्य बस्तियां (जो जूनागढ़ के आधीन हैं) बहुत से लोगों की मृत्यु हो जाने अथवा स्थान छोड़ कर चले जाने के कारण ऊजड़ हो गई हैं । हम यहाँ समुद्री तट पर स्थित ऊना से छ: मील की दूरी पर हैं। ____ कोरवार (Kowrewar) नवम्बर २७ वीं- इस मंजिल के दस कोस इक्कीस मील के बराबर निकले । कैसा आनन्ददायक परिवर्तन था ! हम तुलसी श्याम से चल कर बाबरियावाड़ के ऊसर, अस्वास्थ्यकर और पहाड़ी इलाके से निकल कर आज नोसगेर (Nosgair) जिले में पहुंच गये थे और वहाँ की हरी-भरी भूमि पर चल रहे थे । पहले चार मील तक एक उपेक्षित सड़क है जिस पर पीले, सछिद्र अथवा कृमिसंकुल कंकड़ बिखरे हुए हैं, जिनमें चमकीले पत्थर के दाने भी अधिकता से मिले हुए हैं। जहाँ जहाँ जमीन बिना ढकी हुई थी वहाँ वहाँ इसकी किस्म इसी जात की मालूम हुई, जिस पर लहरदार रेखायें बनी हुई थीं मानो 'असंख्य सर्प इस पर ये लकीरें बनाते हुए इधर से उधर निकल गए हों। इन हरे-भरे मैदानों में प्रवेश करने के थोड़ी देर बाद ही हमने रूपनी अथवा 'काच सदृश' नदी को पार किया, जिसका स्वच्छ और गहरा पानी एक सँकड़े पेटे में सीमित था और जिसके किनारे-किनारे घनी वनस्पति उगी हुई थी। इसके बाद शीघ्र हो हमने संगवरी (Sangavari) और गौरीदर के पास दूसरी मच्छन्दरी को पार किया। यहाँ पर पैंसिल से काम करने के लिए बहुत अच्छा अवसर है। गांव के ऊपर हो किला और चौबुर्जे बने हुए हैं, जो एक चट्टान पर स्थित हैं, वे काल-कम से काले पड़ गए हैं और पहाड़ी तथा घाटी से ऊपर निकल कर चौकसी करते हुए-से प्रतीत होते हैं । एक ओर गिरनार के शिखर हैं, दूसरी ओर समुद्री तट पर बसे हुए शहर हैं, जिनकी चट्टानी परिधियों के कारण समुद्री दृश्य आँखों से परोक्ष रहते हैं । दोपहर के लगभग हमने इस यात्रा में जामुनवाडा और भील नामक गाँवों के बीच विजयनाथ महादेव के मंदिर के खण्डहरों में विश्राम किया। यह मन्दिर एक छोटे से झरने के किनारे पर एकान्त स्थान में बना हुआ है। इसका प्रवेशद्वार तो अभी खड़ा है और निज-मन्दिर भी, जिसमें देवता का लिङ्ग स्थापित है, साधारण स्थिति में सुरक्षित हैं, परन्तु मण्डप अथवा मन्दिर का शरीर टूट कर ढेर हो गया है। स्थान के अनुरूप हो यहाँ का प्रबन्धक पुजारी एक दरिद्र मुर्दे की सी शकल वाला कोढ़ी जोगी था, जो तमाखू के पत्तों की गड्डी को धूप में सुखा रहा था। मेरे रैबारी मार्गदर्शक ने तुरन्त ही शिवलिङ्ग के आगे साष्टाङ्ग दण्डवत की और प्रार्थना का उच्चारण किया; सम्भवत: यह उसकी Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा व्यक्तिगत प्रार्थना ही थी कि उसकी गायें दूध के अजस्र झरने बहाने वाली हों । यह स्थान 'प्रदिपुष्कर' कहलाता है; मुझे आज ही ज्ञात हुआ कि इस नाम कोई बारह तीर्थ-स्थान हैं । भारतवर्ष में बाईस वर्ष रह कर मैंने जिन क्षेत्रों को देखा है उनमें हरियाणा को छोड़ कर यही एक ऐसा है, जिसको मैं विशुद्ध पशुपालन क्षेत्र कह सकता हूँ; और मुझे यह देख कर प्रसन्नता हुई कि यहाँ के निवासियों में वही सादगी मौजूद है जो इस प्रकार के जीवन से सम्बद्ध मानी जाती है । इन समृद्ध और विस्तृत मैदानों में बसने वाले पशुपालक रैबारी कहलाते हैं; इस अभिधान से उत्तरी भारत में प्रायः ऊँट चराने वाले अथवा उनकी रक्षा करने वाले लोगों का बोध होता है । यहाँ इस शब्द से चरवाहे अथवा गडरिया का व्यवसाय करने वाले का ही अर्थ लिया जाता है और इनकी बहुत सी जातियाँ होती हैं-वर्ग कहूं तो अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि बहुत से वंश-परम्परा के अध्येताओं ने भी कहा है कि उनमें हूणों का सम्मिश्रण है । इन सुन्दर चरागाहों में हमने ग्रानन्द से चरते हुए जानवरों के tus के झुण्ड देखे । प्रकृति, सुन्दरता और शक्ति में भारत के किसी भी भाग के जानवर इनसे बढ़ कर नहीं हैं - यहाँ तक कि हरियाना में भी, जहां मैंने कर्नल स्किनर के खेत में गो वंश के ऐसे - ऐसे चित्र देखे थे, जो एक अनुभवहीन दर्शक की दृष्टि में भी उसी पूर्ण प्रशंसा के पात्र थे जिसके लिए अच्छी से अच्छी नस्ल के घोड़े अधिकारी हुग्रा करते हैं; और वास्तव में, उनके मस्तक अरबी घोड़ों की तरह एक समान थे और आँखें (भारत में जहाँ इनकी पूजा होती है, ऐसा कहना धृष्टता होगी) समझदारी से भरी हुईं तथा सभी अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुन्दर एवं सुगठित थे। इनका तुलनात्मक मूल्याङ्कन इनसे प्राप्त होने वाली कीमत के आधार पर किया जाता है। गायें दस से पन्द्रह डॉलर प्रत्येक के मूल्य पर बिकती है और चार साल के बैलों की जोड़ी प्रायः चालीस डॉलर में मिल जाती है; यहाँ डालर से तात्पर्य रैबारियों द्वारा प्रयुक्त विनिमय मुद्रा से है । मैं कह चुका हूँ कि इस जाति के लोग ईमानदार और सीधे होते हैं; मैं अपने इस निष्कर्ष के आधारभूत उदाहरण देता हूँ । मेरा मार्गदर्शक स्वयं एक पशु-पालक है । वह सभ्य, विनम्र और समझदार | जब चौदह मील तक वह मेरे साथ चल लिया और सामने ही गाँव दिखाई देने लगा तो मैंने चाहा कि वह अपने गाँव लौट जाय- इसलिए मैं उसे कुछ चाँदी के सिक्के देने लगा | परन्तु उसने लेना अस्वीकार कर दिया और कहा, 'मैं तो राजी राजी पूरे रास्ते आपके साथ चलता, परन्तु एक भैंस मेरे ही हाड़ हिली Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १५; ईमानदार रेवारी [ ३३५ हुई है, और किसी को दूध नहीं देती।' फिर, उसने जिस गाँव में हम पहुँचने वाले थे उधर ही एक झोंपड़ी की ओर इशारा करके कहा, 'परन्तु कोई बात नहीं, वहाँ मेरा भानजा है, आप केवल आवाज लगा दीजिए, वह आ जायगा।' यह कह कर विदाई की सलाम कर के वह घर की ओर चल दिया, परन्तु कुछ कदम चल कर वह फिर लौटा और उसने मुझ से प्रार्थना की कि उसे कभी न भूलूं। मैंने कहा 'मैं कभी नहीं भूलूंगा' और अब भी उस बाबरियावाड़ के ईमानदार किसान से की हुई प्रतिज्ञा को याद करता हूँ। एक और भी ग्रामीण को मैंने देखा जो अपनी रोटो में से तोड़ कर दूसरे को हिस्सा देने का पूर्ण अाग्रह कर रहा था। इन्हीं बातों के आधार पर और इनके चेहरों पर झलकते सन्तोष को देख कर ही (क्योंकि मैं सदा से लॅबटर (Lavater)' का अनुयायी रहा हूँ) मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि इन लोगों का रहन-सहन और स्वभाव इनके व्यवसाय के अनुरूप है। मैंने अपने मार्गदर्शक के भानजे को आवाज़ दी जिसको सुन कर वह 'मीठिया की ढाणी' में से निकल कर आया, परन्तु हमारी यात्रा का लक्ष्यबिन्दु कोरवार सामने ही दिखाई पड़ रहा था इसलिए मैंने उसे वापस अपने काम पर भेज दिया और वृत्ताकार छतरियों तथा समाधि के पालियों (चबूतरों) को अपने दाहिनी बाजू छोड़ते हुए हम आगे बढ़े। ये बुर्जे, जो गांव को सुरक्षा के लिए बनाई गई प्रतीत होती हैं, इस क्षेत्र के दृश्यों में विशेष महत्व की वस्तुएं बन गई हैं । ये प्रायः दो-दो मंजिल ऊँची हैं अथवा यों कहें कि बत्तीदार बन्दूकें छोड़ने के लिए बने छिद्रों के दो-दो घेरे इन पर बने हुए हैं। कुछ पर साधारण मिट्टी की छतें हैं और कुछ पर नासमझी से फस के छप्पर डाल दिए गये हैं, जिनको यदि आग लगा दी जाय तो रक्षार्थियों के लिए कोई भोट ही न रहेगी। कोरवार से एक मील इधर हमने सौराष्ट्र में अब तक देखे हुए झरनों में से सर्वश्रेष्ठ झरने को पार किया, जो सिंगोरा (निकुन्ती भी) कहलाता है; इसका निर्मल जल सुन्दर सपाटों के बाद कंकड़ीले पेटे में गिरता है और इसके किनारे पवित्र वट-वृक्षों के झुरमुटों से घटाटोप हो रहे हैं। मैं घोड़े से नीचे उतर कर डेरे तक पैदल ही गया; डेरे के पीछे ही कोरवार का किला खड़ा है और झरने के किनारे पर ही रणछोड़ का मन्दिर है। यह झरना चिरचेई (Chirchae) नामक पर्वत श्रेणी से निकल कर उत्तर में छ: मील दूर रुद्र ' ज्यूरिच (फांस) का रहने वाला सुप्रसिद्ध आकृति-विज्ञान का विद्वान् । उसका समय १७४१-१८०१ ई० का है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा महादेव के मन्दिर के पास होता हुआ मूल द्वारका के पवित्र पर्वत के समीप समुद्र में जा गिरता है । मूल द्वारका के पास इसका वेग बढ़ कर उसको टापू जैसा बना देता है । हिन्दुओं और विशेषतः वैष्णवों के लिए उस भूमि का चप्पा-चप्पा पवित्र है क्योंकि वे इस स्थान को, अपने अपकीर्तिकर विग्रह रणछोड़ रूप में पूजित, कन्हैया के अवतार से भी बहुत पूर्व से ही, मूल द्वार अथवा देव-भूमि का प्रवेश-द्वार मानते आए हैं। मूलतः यह प्रतिमा कच्छ की खाड़ो के मुख भाग पर बेट (Bate) द्वोप के मन्दिर में प्रतिष्ठित थी, परन्तु १४०० वर्ष हुए यह वहाँ से हटा ली गई है और ब्राह्मणों ने मूल रणछोड़ नाम की प्रसिद्धि से बहुत लाभ उठाया है । हिन्दू लोग गायकवाड़ के दीवान की धार्मिकता के प्रति भी बहुत आभारी हैं, जिसने नये मन्दिर का निर्माण करा कर उसमें सोमनाथ के एक बहुत प्राचीन लिंग की स्थापना की है। इन दोनों ही देव-प्रतिमानों का पूजन करने के लिए 'आखा तीज' [ प्रक्षय तृतीया] अथवा वैशाख मास की तृतीया को बहुत बड़ी भीड़ लग जाती है । यहाँ से कोई बारह कोस की दूरी पर एक और पवित्र स्थान है जो 'गोपति प्रयाग' (Gaopati Prag) कहलाता है; यहाँ एक पानी के सोते से निकल कर लघु झरना बहता है, जो गंगा के पवित्र नाम से प्रसिद्ध है । यहीं पर सन्यासियों का एक मन्दिर है जिनका निर्वाह इसके जल में स्नान करके पवित्र होने वाले यात्रियों की श्रद्धा पर निर्भर है। कोरवाड़ का धार्मिक एवं राजनैतिक दोनों हों दृष्टियों से महत्व है क्योंकि यह चौरासी (गांवों के) परगने का मुख्य स्थान है । शूद्र पाड़ा - नवम्बर २८वीं - यह सोलह मील की चित्ताकर्षक यात्रा बड़ी अच्छी सड़क पर मनोरञ्जक प्रदेश में हुई, जहाँ हमने पहाड़ी भूमि के दरिद्र झोंपड़ों को छोड़ कर कोरवाड़ के मैदानों में कृषकों के सुखद आवासों की भूमि में प्रवेश किया; सौराष्ट्र के पहाड़ी इलाके में उलझी हुई झाड़ियों, विषम चट्टानों और अजस्र प्रवाही भरनों के बीच भूरे रंग का परिधान पहिने प्रकृति से बातें करना कितना ही सुखप्रद क्यों न हो, परन्तु इस दृश्य का जन-संकुल श्रौर सभ्यतापूर्ण पक्ष में बदल जाना भी कम आनन्ददायक नहीं है । झगड़ालू, लुटारू और शिकारी प्रवृत्ति के लोगों को देखते-देखते मस्तिष्क में थकान- सी होने लगती है । यद्यपि मैदान में प्रवेश करने पर हमने देखा कि हल की फाल ने तलवार को बहिष्कृत कर दिया है फिर भी यहाँ के लोगो में अभी पर्याप्त मात्रा में सैनिक प्रादतें बनी हुई हैं, जो इनको निस्तेज नहीं होने देतीं । कैसा भी गांव हो, उसकी सुरक्षार्थं बनी काली चौकोर बुर्जे सगर्व खड़ी हुई हैं और Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण [ ३३७ यद्यपि मुसलमानों की मसजिदें और मज़ारें अब सूनी पड़ी हैं, परन्तु वे उनके साम्राज्य के विरुद्ध हुए प्रत्येक झगड़े की साक्षी दे रही हैं। हम कुछ ऐसे ही गांवों में होकर गुज़रे जैसे सिंगुर, लोदवा, पछनोरा और मुख्य शूद्रपाड़ा, जिसका समुद्री तट पर पत्थर की पूठियों से बना दुर्ग बहुत श्रादरणीय है । यहाँ के निवासी मुख्यतः अहीर, गोहिल और केरिया जाति के हैं; इनमें से हीर विशुद्ध चरवाहे हैं और अन्तिम जाति के लोग यद्यपि अपने नाम के अनुसार राजपूत हैं परन्तु अब व्यवसाय से कृषक हैं— श्रोर, निःसंदेह उनकी फसल बहुत अच्छी थी । - १५; शूद्रपाड़ा शूद्रपाड़ा के तट और नगर के बीच में एक अपूर्व सूर्य-मन्दिर है, जिसमें इस सुन्दर भू-भाग में एकदा मान्यता प्राप्त सूर्यदेव की प्रतिमा विराजमान है । वह मूर्ति अब अपनी रश्मिराशि से वियुक्त होकर इतनी बदल गई है कि ईसा के पवित्र दश श्रादेशों में से दूसरे अध्याय के अन्तर्गत जो वर्णन आया है उससे शायद ही मेल खा सके । ग्रीकों के विश्वदेवतानों के समान प्रत्येक हिन्दू देवता के पराक्रमों में उसकी सहधर्मिणी भी भागीदार होती है और तदनुसार यहाँ भी एक पुतली अथवा 'रेणादेवी' की मूर्ति उसके स्वामी के पास प्रतिष्ठित है । जहाँ जहाँ सूर्य मन्दिर हैं वहाँ एक पानी का कुण्ड भी होता है । यहाँ के कुण्ड पर एक शिला - लेख है, जिससे केवल इतना ही पता चलता है कि चार सौ वर्ष पूर्व इसका जीर्णोद्धार कराया गया था । इसके पास ही नवदुर्गा का मन्दिर है, जिसमें छोटी-छोटी नो मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं । मन्दिर से पूर्व की ओर थोड़ी दूर पर एक और कुण्ड है, जो प्राचीन ऋषि च्यवन (Chowun) के नाम से प्रसिद्ध है । उत्तर में कोई सात मील की दूरी पर एक स्थान प्राची नाम से प्रसिद्ध है. जो सरस्वती नदी का उद्गमस्थान होने के कारण बहुत पवित्र माना जाता है और यहाँ यात्रियों की भीड़ भी लगी रहती है। इसके किनारे पर ही 'मधुराय' का मन्दिर है, जो भारतीय 'अपोलो' का ही एक रूप माना गया है; इसके विषय में कहते हैं कि यद्यपि यह निर्भर अपने किनारे पर स्थित देव-प्रतिमा को जलनिमग्न करने के लिये निरन्तर जूझता रहता है परन्तु वह मूर्ति अपने ही स्थान पर सुस्थिर बनी रहती है । इसी स्थान पर 'लुटेश्वर' अर्थात् लूट-पाट के देवता का छोटा-सा मन्दिर है, जिसकी इन भागों में बहुत मान्यता है । इस देवता को लोग शिव का ही स्वरूप मानते हैं, परन्तु मैं समझता हूँ कि इसको 'मरकरी' अथवा बुध ग्रह मानना अधिक संगत होगा जैसा कि आगे चल कर विदित होगा कि इस ग्रह में समुद्री डाकुओं का, जो इस तट पर श्रादिकाल से छाए हुए हैं, संरक्षण करने का गुण है । पूजा और यातायात सम्बन्धी मेले, बो Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] पश्चिमी भारत की यात्रा साधारणतया इन क्षेत्रों में सम्मिलित रूप में हुआ करते हैं, प्राची में खूब भरते हैं, जिनमें समीप के गाँवों और शहरों से ब्राह्मण-बनिये तो पाते ही हैं, साथ ही उन वन-प्रदेशों से, जिन्हें हम पीछे छोड़ आये हैं, बहुत से 'स्वतन्त्र लोग' भी प्रा कर सम्मिलित होते हैं। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १६ पट्टण सोमनाथ अथवा देवपट्टण; इसको प्रसिद्धिः सूर्य • मन्दिर, सिद्धेश्वर का मन्दिर; कन्हैया की कथा; उनको निर्वाणस्थली; भीमनाप-देवालय; कोटेश्वर महादेव के मन्दिर में पत्थर का त्रिशूल, प्राचीन नगर का वर्णन; मूल धास्तु, नुकीली मेहराब; सोमनाथ के मन्दिर का वर्णन; इसके दृश्य की सुन्दरता; मूतिभञ्जक महमूद का नाम नगर में अज्ञात; 'सोमनाथ के पतन की कथा' का हस्तलिखित ग्रन्थ; महमूद से पूर्व विध्वंस के चिह्नः दो नये संवत्सर; आधुनिक नगर। पट्टण सोमनाथ - नवम्बर २६वीं - अन्त में मुझे भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध नगर के, जिसको अधिक आदरपूर्वक देवपट्टण अथवा शुद्ध रूप में देवपत्तन अर्थात देव का मुख्य निवास-स्थान कहते हैं, दर्शन हुए । हमारे पिछले डेरे से यहां तक सात मील का फासला है जिसकी भूमि सपाट, मिट्टी अच्छी और फसलें उत्तम हैं । यहां पहुंचने पर हमें त्रिवेणो को पार करना पड़ा ; यह 'बजिनो', सरस्वती (हिन्दू मिनर्वा) और हिरण्या (स्वर्णमयो) का संगम है । पहली नदी दल-दल में होकर बहती है इसलिए इसके विषय में कोई प्रशंसनीय वक्तव्य नहीं है, परन्तु अपर दोनों नदियों का जल स्वच्छ और निर्मल है। अन्तिम नदी को पार करने पर सूर्य का शिखरहीन मन्दिर और नगर के परकोटे की धुंधलो बुर्जे पत्रावली में होकर दिखाई पड़ने लगी तो वे मस्तिष्क की आंखों के सामने आठ शताब्दी पूर्व महमूद और उसको विजय की दृश्यावली को उपस्थित करने लगीं । हिन्दू और मुसलिम इतिहास से सम्बद्ध इस सुप्रसिद्ध मन्दिर की यात्रा का विचार करने वाले व्यक्ति के मन में कैसे कैसे भावों की बाढ़ पाती होगी ! अपने लक्ष्य की अोर बढ़ता हुआ मैं, पूर्वधारणा और उपेक्षा के मिश्रित भावों को लिये हुए, मुसलिम सन्त 'गब्बीशाह' की मजार के पास होकर निकला, परन्तु 'सूर्य-मन्दिर' में पहुँचने तक सांस लेने को भी बीच में नहीं ठहरा। यह मन्दिर अब उजाड़ और अपवित्र दशा में पशुओं का आश्रय-स्थान बनो हुआ है और इसका टूटा-फूटा शिखर और गर्भगृह टुकड़े-टुकड़े हो जमीन पर बिखरा पड़ा है । यद्यपि इसमें विशालता जैसी कोई बात नहीं है, परन्तु इसकी बनावट बहुत ठोस है और शिल्पशास्त्र में विहित पवित्र शिखरबन्ध भवनों के सभी विधान के पूर्ण अनुकूल है । भित्तियों पर बनी आकृतियों के ढांचे स्थूल और स्पष्ट हैं तथा हाव-भाव भी कहीं-कहीं अाकर्षक हैं, परन्तु जो सामग्री प्रयुक्त हुई है वह केवल किरकिरी मिट्टी या बजरी मात्र है जिसमें छेनी के काम के लिए कोई अवसर Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] पश्चिमी भारत की यात्रा अथवा अनुकूलता नहीं है । फिर भी, सब मिला कर इमारत प्रभावोत्पादक है। प्रवेश द्वार की चौखटें अच्छी तरह रोगन किये हुये पीले रंग के खनिज से बनी हुई हैं, जो देखने में सूर्यकान्त जैसी लगती हैं, यद्यपि यह चौखट प्राचीन पढ़ने योग्य संगमरमर की ही कोई किस्म होगी । मण्डप का व्यास सोलह फीट से अधिक नहीं है ; यह हल्की सजावट वाले सुदृढ़ खम्भों पर आधारित है और चारों ओर बरामदे से घिरा हुआ है, जिसके सिरे पर चौकोर खम्भे बने हुए हैं, जो बाहरी दीवार से प्राकर एक जगह मिल जाते हैं । मण्डप से आगे एक अलिंद है जिसकी छतरियां चौकोर और सीधे स्तम्भों पर टिकी हुई हैं; इसमें होकर निज-मन्दिर (गर्भ-गृह) में जाते हैं, जहां लाल रंग [सिन्दूर से गो-पालकों ने एक गोल निशान बना रखा है। अब वही सूर्य-देवता का एक मात्र चिह्न रह गया है । महमूद द्वारा की हुई क्षति की पूर्ति तो नहरवाला के सम्राटों ने करा दी थी परन्तु धर्मान्ध 'अल्ला' ने जिस शिखर को तोड़ कर फेंक दिया था वह अभी तक पुनः खड़ा नहीं किया गया है । मन्दिर के उत्तर में ठोस चट्टान को खोद कर बनाया हुआ सूर्य-कुण्ड है। इसमें उतरने के लिए छोटी-छोटी सैकड़ी सीढ़ियों की श्रेणी बनी हुई है। कहते हैं कि इसका पानो शारीरिक और मानसिक व्याधियों का शमन करने वाला है, परन्तु स्नान और परीक्षण की अवधि पूरे एक सौर वर्ष की रखी गई है, जिसमें पूर्ण श्रद्धा के साथ अन्यान्य सत्कार्य भी करना आवश्यक है, तभी यह उपचार अधिक प्रभावशील हो सकता है । हमें बड़ी गम्भीरता के साथ बताया गया कि जिन लोगों पर भगवत्कृपा नहीं होती उनकी पहचान इस प्रकार हो जाती है कि 'जितनी चांदी के साथ लाये होते हैं वह सब तांबे में बदल जाती है।' इससे ये नतीजे निकाले जा सकते हैं कि पूर्ण श्रद्धालु व्यक्ति को इस जल का आचमन करने से पूर्व अपनी समस्त चांदी सूर्य देवता के पुजारी को दे देनी चाहिए; दूसरा यह कि जो लोग अपनी नकदी अपने साथ रखते हैं उनको यह समझाया जाता है कि वह सब, उनके पापों के कारण, न कि पानी की गन्धकाम्लवत्ता के कारण, तांबे में परिवर्तित हो जाती है । 'प्रकाश के देवता के मन्दिर से उतर कर में सिद्धों के आराध्य सिद्धेश्वर के मन्दिर में आया जो एक अन्धेरो चट्टान को खोद कर बनाया गया था। वह अन्धकारपूर्ण और नम था तथा उसकी नीची छत टूटे-फूटे खम्भों पर किसी तरह टिकी हुई थी। कोई भी आदमी इसको देख कर डॅल्फॉस (Delphos) • - -- • ग्रीस का Delphi (डॅल्फो) नगर जहाँ प्रसिद्ध भविष्यवाणी होती थी। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण [ ३४१ की गुफा की कल्पना कर सकता है; यद्यपि हमारे इस अन्धे ओलिया की भवि यवाणियां उसके अन्य बन्धुनों की अपेक्षा अधिक कटु, परन्तु सत्य निकली थीं । प्रस्तु, कैसा भी भौंडा बना हुआ हो, यह 'रौरव श्रन्धनरक' का प्रतीक था । हिंगलाज माता' और पातालेश्वर की प्रतिमाओं के अतिरिक्त एक छोटे-से मण्डप की खुरदरी दीवार पर नौ छोटी-छोटी मूर्तियां स्पष्ट कुरेदी हुई थीं, जिनको अन्धे महन्त ने नवग्रह बताया था, 'जो मनुष्य के भविष्य का नियन्त्रण करते हैं ।' गुफा के सामने ही एक छोटा-सा भाँगन है, जिसकी दीवारों का जीर्णोद्धार कराया गया है अथवा उसको दूसरे टूटे-फूटे मन्दिरों के मसाले से चिनवाया गया है; इसके प्रत्येक भाग में देव मूर्तियों के टुकड़े मौजूद हैं। इस आँगन में बड़ के पेड़ छाए हुए हैं, जो शिवजी को बहुत प्रिय हैं। यद्यपि यहाँ पर कोई ऐसी श्राकर्षक वस्तु नहीं है फिर भी जो पुराणों का जानकार है, उसको लगेगा कि गुहामन्दिर की रचना पौराणिक आधार पर होने के अतिरिक्त, यहाँ पर प्रकाश और अन्धकार की शक्तियों के तारतम्य का भी प्रत्यक्ष अनुभव होता है और साथ ही, भक्त का एक वातावरण से दूसरे में तुरन्त प्रा जाना भी ध्यान देने योग्य बात है । - १६; पातालेश्वर 1 ' हिङ्गलाज माता को चारण लोग आद्या शक्ति का अवतार मानते हैं । लोकगाथाओं में यह चारण जाति की प्रथम कुलदेवी के रूप में कही गई है । इसका मुख्य स्थान बलोचिस्तान में है । कहते हैं कि पहले चारण लोग इसी की छत्र-छाया में बलोचिस्तान में ही बसते थे । बाद में, दक्षिण और पूर्व की ओर चल पड़े। कुछ वंश गुजरात-काठियावाड़ आदि स्थानों में बस गए और कुछ राजस्थान की ओर श्रा गए। जहां-जहां पर ये लोग बसे. वहां-वहां ही हिङ्गलाज के मन्दिर भी बनाते गए। इस प्रकार देश में इस देवी के अनेक मन्दिर हैं । बलोचिस्तान में (सिन्ध और अफगानिस्तान के बीच की पहाड़ियों में ) रमठ नामक स्थान पर एक वृक्षविशेष के रस को एकत्रित करते हैं, जो 'हिङ्ग' कहलाता है [ हिमं गच्छति = हिङ्ग : ] । ऐसे देश की निवासिनी होने के कारण ही सम्भवतः यह देवी 'हिङ्ग लाजा' कहलाई । रमठ स्थान में प्राप्त होने के नाते 'हिङ्ग' को 'रामठ' भी कहते हैं । कुछ विद्वानों का मत है कि हिङ्ग लाज माता के पिता का नाम कापड़िया था श्रीर उसका समय प्रायः सातवीं शताब्दी के आसपास का था । विक्रमीय आठवीं शताब्दी में सिन्ध के ही सांडवा चारण शाखा में उत्पन्न भादा के पुत्र मामड़िया [ मम्मट ? ] की पुत्री 'आवड़' को हिंगुलाज का अवतार मानते हैं । वास्तव में, समस्त विद्यात्रों की जननी महाविद्या 'महात्रिपुरसुन्दरी' का ही एक स्वरूप 'हिङ्गला' भी है । 'हिङ्ग ुला मङ्गला सीता सुषुम्णा मध्यगामिनी' - वामकेश्वरतंत्रगत महात्रिपुरसुन्दरीसहस्रनाम Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा __ इस गुफा से मैं उस स्थान पर गया, जिसको हिन्दू लोग परम पवित्र मानते हैं, जहाँ पर गोपाल-देव (Shepherd-god) परम धाम को गए थे। हम अन्यत्र इस यदु [यादव] राजकुमार के पूरे इतिहास का वर्णन कर चुके हैं, जो अपने जीवन-काल में ही देवता के समान पूजे जाते थे और कृष्ण अथवा (शरीर का रंग पक्का होने के कारण) श्याम के नाम से विष्णु का पूर्ण अवतार माने जाते थे तथा कन्हैया के नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। अपने प्रात्मीय-जनों, कौरवों और पाण्डवों के गृह-युद्ध में उन्होंने पाण्डवों का पक्ष लिया था और वनवास-काल में भी उनका साथ दिया था। उस समय उन्होंने अपने मदनमोहन मुरलीधर-रूप को छोड़ दिया था जिससे वे मुरली (वंशी) बजा कर सूरसेन-देश के गोकुल में गोएं चराते हए गोपियों को मोहित किया करते थे और अब इण्डो-गेटिक (Indo-Geric) जाति के प्राचीनतम शस्त्र चक्र' को धारण करके चक्रधारी बन गए थे। यद्यपि इस अवसर पर वे सौरों के क्षेत्र में विजेता होकर ही प्रविष्ट हए थे, परन्तु उनका यह स्वरूप स्थायी नहीं था, क्योंकि इससे बहुत पूर्व उनको चेदि के राजा२ से डर कर भागना पड़ा और यहाँ आकर शरण लेनी पड़ी थी; और इसी कारण उनका अस्पहरणीय 'रणछोड़' नाम पड़ा था, जिसके विषय में पहले लिखा जा चुका है। परन्तु, उन्होंने कोई भी नाम धारण किया हो, उन्हें नए से नए भक्त और श्रद्धालु प्राप्त होते रहे और जो फाल्स्टाफ (Falstaff) के समान 'शौर्य के सर्वोत्तम स्वरूप, विवेक' में विश्वास करने वाले हिन्दू 'रणछोड़' नाम को भी प्रशंसात्मक ही मानते हैं, क्योंकि उनके इस विग्रह का पूजन करने वाले लोग भी बहुत बड़ी तादाद में हैं। परन्तु, मैं फिर कहता हूँ कि इस बार वे, भारत को उजाड़ कर देने वाले भयंकर घोर युद्ध में से बचे-खुचे कुछ संबंधियों के साथ अपनी आयु के शेष दिन, महत्त्वाकांक्षावश अपने स्वत्त्वों की रक्षा के लिए ही सही, रक्तपात से दुखी होकर पश्चात्ताप में बिताने के लिए हिन्दुओं के मतानुसार इस 'जगतकूट' स्थान पर आए थे। इस प्रकार अर्जुन, युधिष्ठिर (भारत का राजपद-मुक्त सम्राट्) और बलदेव आदि अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ की यात्रा करते हुए सोमनाथ मन्दिर के पासपास की पवित्र भूमि में पहुँचे । पवित्र त्रिवेणी में स्नान करने के उपरान्त १ भारत में अब सिक्खों के अतिरिक्त और कोई इस शस्त्र का प्रयोग नहीं करता । २ श्री कृष्ण चेदि के राजा से डर कर कभी नहीं भागे । जरासंध के आक्रमण पर भागने से ही 'रणछोड़' नाम पड़ा था। 3 शेक्सपीयर कृत 'हेनरी चतुर्थ' नाटक का विदूषक पात्र जो प्रत्युत्पन्नमति और विपत्ति से येन केन प्रकारेण टल निकलने की नीति में विश्वास करता था। ४ हमें मान लेना चाहिए कि इन भक्तों में राजपूतों की संख्या अत्यधिक है । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६, कृष्ण को निर्वाणस्थली .. [ ३४३ दोपहर को चिलचिलाती धूप से बचने के लिए कन्हैया ने एक छत्राकार पीपल-वृक्ष के तले विश्राम लिया; जब वह लेटे हुए थे तो (जनश्रुति के अनुसार) एक भील ने उनके चरण-तल में अङ्कित पद्म-चिन्ह को हरिण की आंख समझ कर अपने तीर का निशाना बनाया। जब उनके सम्बन्धी लोटे तो उन्होंने देखा कि जीवन निश्शेष था। बहुत देर तक बलदेव मृत शरीर से लिपट कर विलाप करते रहे परन्तु अन्त में उन लोगों ने तीन नदियों के संगम पर उनको उत्तरक्रिया सम्पन्न की। पीपल का एक पौधा, जो निश्चित रूप से 'मूल वृक्ष' की ही परम्परा में माना जाता है, अब भी उस स्थान को निर्दिष्ट करता है, जहां हिन्दू अपोलो [विष्णु ने शरीर छोड़ा था, और वहीं से एक सोपान-सरणि 'हिरण्य' (नदी) के तल तक चली गई है, जिसके द्वारा यात्री वहाँ पहुँच कर पवित्रता प्राप्त करता है। यह पावन भूमि 'स्वर्ग-द्वार' के नाम से प्रसिद्ध है और पापों का शमन करने में देवपट्टण की स्पर्धा में अधिक सामर्थ्यवती मानी जाती है। यह भलका और पद्मकुण्ड नामक दो सुन्दर सरोवरों से सुशोभित है। प्रथम भलका-कुण्ड बारह समान भुजाओं वाला सरोवर है, जिसका व्यास तीन सौ फीट के लगभग है । पद्मकुण्ड कुछ छोटा है और इसकी सतह पर कन्हैया के प्रिय पद्म-पुष्प छाये रहते हैं। इसी से उनका अत्यन्त मधुर नाम 'कमल' पड़ा है। कुण्ड के पूर्वीय किनारे पर एक छोटा-सा महादेव का मन्दिर है। गोपालदेव के भक्तों को दृष्टि में ये दोनों कुण्ड बहुत पवित्र माने जाते हैं और अकबर के समय में भी इनका ऐसा ही माहात्म्य था, क्योंकि अबुल फजल ने अपनी कृति के कुछ अंश में पीपलेश्वर और भलका-तीर्थ को यात्राओं का वर्णन किया है। इस पवित्र पीपल-वृक्ष को छूते हुए एक मसजिद के निर्माण, से मुसलिम-असहनशीलता स्पष्ट परिलक्षित होती है; और, यद्यपि इन क्षेत्रों पर अब बहुत समय से धर्म-परायण हिन्दू राजाओं का आधिपत्य चला आ रहा है, परन्तु वह आपत्तिजनक मसजिद अछेड़ अवस्था में ज्यों की त्यों बनी हुई है। इससे एक धर्म की सर्वप्रिय सहनशीलता सह-अस्तित्त्व भावना और दूसरे की कट्टर धर्मान्धता को लेकर दोनों का प्रबल और स्पष्ट अन्तर ज्ञात हो जाता है । यहां से मैंने अपने कदम हिरण्य (नदी) से ऊपर की ओर आगे बढ़ाये और भीमनाथ के मन्दिर पहुंचा, जो शिव का ही नाम है । इसका शिखर डेरे की भांति का है, जिसकी छत पिरामिड के ठोस आधार जैसी है; सम्भवत: महाकाल के मन्दिर को यही प्राचीनतम प्रकार है । मुझे शायद इस मन्दिर की वर्तमान अवस्था की अपेक्षा इसकी भूतकालिक दशा का वर्णन करना चाहिये, क्योंकि एक घेरघुमेर वट-वृक्ष ने इसमें जड़ें जमा ली हैं और उसकी Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा शाखाएं छत में घुस पैठी हैं; कालान्तर में यह वृक्ष इस समूचे मन्दिर को ले बैठेगा और इस पर एकमात्र प्राकाश का ही चंदोवा रह जायगा। भक्तों को. वृक्ष के हाथ लगाने का साहस नहीं होता क्योंकि सर्व-संहारक महाकाल के मन्दिर के साथ-साथ इसका भी महत्त्व है-शायद इसीलिए शिव ने अपने अन्य बहुत-से उपकरणों के साथ इसको भी मान्यता प्रदान की है। मैंने कार्यवाहक पुजारी को तर्क के बल पर समझाया कि यदि वह पेड़ को नष्ट नहीं करेगा तो वह कभी न कभी मन्दिर को ध्वस्त कर देगा; ऐसी दशा में, दो आपत्तियों में से हल्की वाली का वरण क्यों न किया जाय ? उसने इस सत्य को स्वीकार तो किया परन्तु अपनी आलंकारिक भाषा में कहा, 'क्या करू, इधर पड़ तो कुमा है और उधर पडूं तो खाई है, विचित्र उलझन है।' इस मन्दिर के समीप ही महादेव का एक बहुविग्रहिक लिंग है, जो कोटेश्वर कहलाता है। यह विशुद्ध लाल पत्थर का महालिंग है जिस पर बहुत-से छोटे-छोटे लिंग भी बने हुए हैं। मैं पापेश्वर [मूर्तिमान पाप' के ऐसे मन्दिर में जाकर खड़ा हुआ, जिसकी इमारत का किञ्चित् भी अवशेष नहीं बचा था । यह पहला ही अवसर था कि जब मैंने विश्व-देवताओं में इस देवता का नाम सुना। कहते हैं कि कन्हैया की प्रियतमा सुन्दरी रुक्मिणी इस मन्दिर की मुख्य पुजारिन ही नहीं थी अपितु इसका निर्माण भी उसी ने कराया था। यदि यह सत्य है तो यह इस बात का दूसरा प्रमाण है कि कृष्ण, हिन्द में देवत्व-पद प्राप्त करने और उनके अनुयायियों का सम्प्रदाय बनने से पूर्व, शिव के ऐसे अशद्ध विग्रहों और बुध (ग्रह) का पूजन किया करते थे, जो एक साथ ही चोरों और बुद्धि का रक्षक माना जाता है । ऐसा लगता है कि मुसलमानों ने 'पाप-देवता' के इस मन्दिर पर मजहबी शरम को अच्छी तरह लाग करने के लिए विशेष प्रयत्न किए थे, क्योंकि उन्होंने एक भी पत्थर को दूसरे पत्थर पर टिका नहीं छोड़ा; परन्तु मेरे यह समझ में नहीं पाया कि उन्होंने मुख्य लिंग को क्यों नहीं छेड़ा? यह सम्पूर्ण कथा बहुत ही अलंकारमयो हैं और वास्तव में यह बड़ा विचित्र रूपक है; यद्यपि, बहुत सी अन्य कथाओं के समान, पहले तो देखने में यह बच्चों की-सी छिछली कहानी लगती है, परन्तु इससे विचार करने को बहुत कुछ सामग्री प्राप्त हो जाती है । यद्यपि यह ठीक है कि पाप की जड़ पाताल में गड़ी है, तो भी इसकी क्या संगति है कि पूजनीय यदु (जिसको ये लोग इन्द्र, सूर्य और • वास्तव में 'पापेश्वर' से तात्पर्य है 'पापों का नाश करने वाला ईश्वर या शिव ।' उस विग्रह को पाप की मूर्ति मानना सही नहीं है। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; दामोदर महादेव का मन्दिर [३४५ बुध के रूप में पूजते हैं) को अर्धाङ्गिनी सुन्दरी रुक्मिणी को इसकी पुजारिन बनाया गया है ? 'हिरण्य' के ठीक उस पार इस महान् विश्व के चक्षु और आत्मा के प्रतीक इसी मण्डलाकार के दूसरे मन्दिर का दृश्य पौराणिक सादृश्यों को प्रमाणित कर रहा है। अस्तु, मैंने सङ्गम पार किया, जहां दो छोटी नदियों का पानी 'हिरण्य' में मिल कर समुद्र की ओर सह-प्रवाहित होता है । यहाँ भक्तों के लिए कुछ मन्दिर और धर्मशालाएं बनी हुई हैं, जो विशाल प्रायद्वीप से आए हुए केवल उन यात्रियों के लिए ही आकर्षक हो सकती हैं जो पहली बार त्रिवेणी के सीमित अन्तस्तल में समुद्र द्वारा धकेली हुई विस्तृत लहरों के दृश्य को देखते हैं । इन सब को, जो मेरी यात्रा के उद्देश्य में सहायक मात्र थे, देख कर तथा जिसका मेरे पूर्व जीवन में तो पूरा साहचर्य रहा था परन्तु जिसके गुरु-गम्भीर गर्जन से सुदीर्घ बीस वर्षों तक अपरिचित-सा रहा और अब जिस जलराशि के भरोसे शीघ्र ही अपने आप को सौंपने जा रहा था उसी समुद्र को परमश्रद्धालु पाराधक के समान उत्साह से प्रणाम कर के मैंने सोमनाथ के मन्दिर की ओर चरण बढ़ाए। सूर्य-मन्दिर और बाल नगर के प्रवेश-द्वार के बीचोंबीच दामोदर महादेव के पास हो कर निकला, जिसका गायकवाड़ के दीवान विट्ठलराव ने, जिसके उदार, धार्मिक और वास्तव में उपयोगी कार्यों ने उसकी स्वयं को और सरकार की प्रतिष्ठा बढ़ाई है, आमूल पुननवीकरण करा दिया है और इसमें जो बात असाधारण (भारत में ही नहीं) है वह यह है कि अन्दर और बाहर से जो मरम्मत कराई गई है वह मल ढाँचे के अनुरूप है। यद्यपि यह मन्दिर दर्शनीय है, परन्तु सपरिश्रम विवरण लिखने जैसी कोई बात नहीं है। हाँ, इतना उल्लेख अवश्य करूंगा कि इसके एक बाहरो ढंके हुए पाले में जहाँ पहले 'सूखा माता', अकाल की देवी, की मूर्ति विराजमान थी वहाँ अब एक बड़ा प्रस्तर-खण्ड रखा है, जिस पर 'सैण्ट एण्ड्य' का क्रॉस बना हुया है। स्कॉटलैण्ड के इस रईस की सुदूर पूर्व में यहाँ तक की यात्रा के विषय में मैंने कभी नहीं सुना और शायद मेरा अनुमान गलत नहीं है कि यह पुर्तगालियों का कृत्य है, जिनके अधिकार में कभी यह पूरा समुद्री तट रहा था और जो सौराष्ट्र के प्रतीत गौरव के लिए स्वयं महमूद से भी बड़े शत्रु प्रमाणित हुए थे। यह बात नहीं है कि बहुत-सी तरह के क्रॉस-चिह्न हिन्दुओं में प्रचलित न हों और विशेषतः जैनों ने, जिनके सिक्कों और इमारतों पर मैंने ' स्काटलैण्ड का प्रोटेस्टेण्ट शहीद । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा दुर्बोध्य मिस्री निशान देखे हैं, इनमें पूजा के अन्य उपकरणों का साम्य लिए हुए और भी बहुत प्रकार के चिह्न जोड़ दिये हैं। ____ मैं देवपट्टण में सूर्यपोल से प्रविष्ट हुअा। नगर के परकोटे की दीवार, इसमें प्रयुक्त हुई सामग्री और बनावट की दृष्टि से, उसी उद्देश्य के अनुरूप है, जिसके लिए इसका निर्माण हुआ है । ये दीवारें पास ही की खानों के अनगढ़ पत्थरों से बनाई गई हैं और यहाँ के क्षारीय वायुमण्डल में से नमी सोखने के कारण इन की प्राचीनता का रंग और भी धूमिल पड़ गया है जब कि चौकोर छतरियाँ, जिनकी बनावट बाहर की ओर स्पष्ट ढलान या 'तालस' लिये हुए है, जो केवल प्राचीन खण्डहरों में ही द्रष्टव्य है, सौन्दर्य और सुदृढ़ता की परिचायक हैं । परकोटे का घेरा तीन-चौथाई कोस माना जाता है, परन्तु मैं इसे पौने दो मील से कम मानने को तैयार नहीं हूँ। इसका पश्चिमी मुख, जो सब से छोटा है और प्रायः उत्तर से दक्षिण को दौड़ गया है, लगभग पांच सौ गज लम्बा है; दक्षिणी अथवा समुद्राभिमुख दीवार, जो सीधी. नहीं है और अंतिम दो सौ गज लम्बाई में उत्तर पूर्व की ओर मुड़ गई है, सब मिला कर लगभग सात सौ गज है तथा पूर्वीय प्राकार पाठ सौ गज के करीब है।' इन दीवारों की ऊंचाई कहीं पचीस और कहीं तीस फीट है और नींव पर इनका प्रासार सोलह फीट है। एक पचीस फीट चौड़ी और लगभग इतनी ही गहरी खाई (जिसको दीवारें चुनी हुई और प्राकार की भाँति ढलाव लिए हुए है) चारों ओर घूम गई है। इसको एक बढ़िया कृत्रिम जलप्रवाहक से इच्छानुसार भरा या खालो किया जा सकता है। मैंने सब मीनारों की गिनती तो नहीं की परन्तु प्राकारों की निगरानो और सुरक्षा के लिए उनकी संख्या पर्याप्त है; किनारों पर (कम से कम दक्षिणपूर्वीय कोण पर) ये पंचकोनी हैं और इनका मुख्य भाग नगर की ओर निकला हुआ है। इतिहास से हमें इस बात का पता नहीं चलता कि वाबन (Vauban) • का और नहरवाला के राजाओं का क्या सम्बन्ध था ? यदि एक मात्र यही प्राकार १ दुर्भाग्य से चोथी अथवा उत्तरी दीवार की माप मेरे जर्नल [नित्यलेख] में नहीं मिल रही है, परन्तु हम इसे पूरे छः सौ गज मान सकते हैं। २ वॉबन (Vauban) फ्रेंच सैनिक मोर इजीनियर था और स्पेन की सेना में नौकर था। उसने ३५ युद्धों का संचालन किया, ३३ नये किले बनवाये तथा ३०० जीर्ण दुर्गों का उद्धार कराया था। उसकी Dime Royal नामक पुस्तक १७०७ ई० में प्रकाशित हुई जिसमें कर-व्यवस्था का विवेचन है। उसी वर्ष लुई १४वें ने उसकी योजना को अस्वीकार कर दिया और उसकी मृत्यु हो गई।-N.S.E. p. 1259 यहाँ नहरवाला के राजामों की भग्न-इमारतों का जीर्णोद्धार कराने में रुचि से तात्पर्य है। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; नुकीली मेहराब का उद्भव [ ३४७ और मीनारें ऐसी नहीं हैं कि जिन पर इसलाम की सीढ़ियां प्रयोग में लाई गई हों तो इतना अवश्य है कि इनको इन्हीं के खण्डहरों से पुनः खड़ा किया गया है, क्योंकि इनकी प्राकृति और दृश्य समान हैं। वास्तव में, ये सोमनाथ की सुरक्षा के लिए. ही बनाई गई थीं न कि देवपट्टण के मर्त्य-निवासियों के रक्षणार्थ, क्योंकि यह घेरा वहां की आबादी और सम्पत्ति से, जो कोई एक मील की दूरी पर बताई गई है, बहुत फासले पर बना हुआ है । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि शहर के अन्दर की ओर भी दीवार बनी हुई थी । भद्रकाली के मन्दिर में प्राप्त एक महत्वपूर्ण शिलालेख (सं० ५) से यह प्रश्न हल हो जाता है, जिससे ज्ञात होता है कि सोमनाथ की प्राचीन आड़ का जो भाग महमूद के अग्रदूतों से बच गया था, उसको सौराष्ट्र के सर्वसत्तासम्पन्न सम्राट् और नहरवाला के महाराजा कुमारपाल ने ठीक दो शताब्दी बाद पुनः सम्पूर्ण बनवा दिया था। नगर के पूर्वीय प्रवेशद्वार पर बाहरी दरवाजे के अतिरिक्त एक अन्तर्वर्ती सुरक्षा प्राङ्गण है जिसकी एक नुकीली मेहराबदार दूसरी पोल या ड्योढ़ी है; मेहराब के दोनों पार्श्वक खूब सजे हुए आजू-बाजू के चार चपटे स्तम्भों से उठ कर उन्हीं पर टिके हुए हैं । इनके शीर्षो पर समुद्री जलराक्षस बनाये गए हैं, जिनके फैले हुए जबड़ों में से मेहराबें निकलती हैं और उनके मुख में विभिन्न मुद्रात्रों में मनुष्याकृतियां बनाई गई हैं; यथा - किसी में अनिच्छा से उनमें प्रविष्ट होती हुई तो किसी में उस राक्षस के मले को कटार से चीर कर बाहर निकलती हुई । प्रायोजना, अनुपात और निर्माण की एकरूपता हमारे इस निर्णय को सम्पुष्ट करती है कि यह हिन्दू ढंग की इमारत है। पौराणिक आधार पर प्रायोजना और सामग्री- समायोजन पूर्णतया ऐसा ही होता है, क्योंकि सभी प्राचीन मन्दिरों के तोरणों में, वे जैन हों अथवा शैव, मेहराब को इसी प्रकार के जलराक्षस के जबड़ों से निकलते हुए दिखाया गया है । मैंने चम्बल पर बाड़ौली के शिव मन्दिर और आबू पर जैन मन्दिरों में यही प्रकार देखा है। अधिक से अधिक मैं इतना मानने को तैयार हूँ कि यदि इसका नक्शा किसी इसलामी शिल्पकार ने बनाया है तो निर्माण राजपूत राजा अर्थात् कुमारपाल और उसके शिल्पियों ने किया है । खम्भे तो निस्सन्देह हिन्दू ढंग के हैं और ऊपर का ठाठ भी उनके अनुरूप ही है इसलिए हमें नुकीली मेहराब के उद्गम का प्रमाण भी मिल ही जाता है इस पोल की ऊंचाई तीस फीट है और चौड़ाई भी उसी अनुपात से है । इस शिलालेख (परि० सं० ६) मिला, जिसमें एक यदुवंशी राजा की सुन्दर पुत्री भक्त यामुनी, के सत्कृत्यों का वर्णन उत्कीर्ण है । । प्रबेश द्वार पर मुझे एक १ देखिये – शिलालेख । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा - मुख्य प्रवेशद्वार उत्तरी दीवार के बीच में है और एकदम सुदढ एवं आधुनिक है, यदि हम 'आधुनिक' शब्द का प्रयोग इस अर्थ में करें कि प्राचीन टूटे हुए मन्दिरों के मलबे से इसका पुननिर्माण कराया गया है। यह त्रिपोलिया एक प्रकार से दोहरा आंगन को घेर कर बनाया गया है। पहला दरवाजा उत्तर को देखता है; दूसरा इससे समकोण बनाता हुआ अर्थात् पूर्व की ओर है और इसी प्रकार तीसरा इस दूसरे से समकोण बनाता है, जिससे निकलने पर विशाल मन्दिर का पूरा दृश्य सामने आ जाता है। इस प्राकार-वेष्टित पोल को ऊंचाई पूरे साठ फीट की है। यह शस्त्र-प्रयोग के लिए उपयुक्त स्थान है, शत्रु-सेना को रोकने के लिए सोच-समझ कर बनाया गया है और इस बात का अन्तःसाक्ष्य प्रस्तुत करता है कि मजहब के योद्धाओं का प्रमुख अाक्रमण यहीं पर हुअा था। दूसरे दरवाजे पर एक ठोस, बन्द और सुडौल छतरी बनी हुई है, जहां से शत्रुसेना पर निगह रखी जा सकती है; इस छतरी के कारण इसकी समानता नॉरमन' (Norman) किलेबंदी की शैली के अधिक निकट आ जाती है और संपूर्ण दृश्य को पेंसिल-कार्य (चित्र) के लिए एक आकर्षक विषय बना देती है। कुराई के काम की सजावट भी बहत है जिसका अतीव आकर्षक भाग पहले द्वार पर है, जहां शैव-मन्दिरों का वही प्रिय विषय प्रदर्शित है, जिसमें एक मनुष्य सिंह से युद्ध करने में व्यस्त है; वह उसकी पीठ पर सवार है और दृढ़ता से उस पशु के शिर को पकड़ कर अपनी कटार उसके गले में भोंक रहा है। सम्भवतः इसके द्वारा पशु-बल और अन्ध-साहस पर बुद्धि तथा कौशल की विजय दिखाई गई है। अब देखिए आप, मैं सोमनाथ की ड्योढ़ी में आ पहुँचा हूँ'; यही मूर्तिपूजकों का वह मन्दिर है, जिसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई है और जिससे आकृष्ट होकर 'सितारे इस्लाम' पैरोपैमिसां और कॉकेशश (Caucasus) के ' नारमन लोग, वास्तव में, उत्तरी फ्रांस के रहने वाले थे। बाद में, ये लोग इटली और सिसली में भी जम गए थे । १०६६ ई० में नारमण्डी का ड्यू क विलियम सैक्सनों को हरा कर इंगलेण्ड का राजा बना और 'विलियम दी कान्करर' (विजयी) के नाम से प्रसिद्ध हुपा। नारमन वास्तु कला गाथिक कला से पुरानी है । गोल मेहराब इसकी विशेषता है । इंगलेण्ड की बहुत सी पुरानी इमारतें नारमन प्रणाली की हैं। --N.S.E. p. 938 * पैरोमीसान् (Paropamisan)-प्राजकल जो विशाल पर्वतश्रेणी 'हिन्दूकुश' नाम से प्रसिद्ध है, उसे मकदूनियां वाले इण्डीकस कॉकेसस' (Indicus Caucasus) कहते थे। हिन्दूकुश' नाम का उद्गम इसीसे हुआ माना जाता है । लासॅन ने काबुल नदी के उत्तर में फैली हुई पर्वतश्रेणी का नाम निषध (Nishadha) लिखा है । पं रोप नि स स नाम टालमी का दिया हुआ है। जनरल कनिङ्घम के मतानुसार जेन्दप्रवेस्ता में उल्लिखित Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; सोमनाथ का मन्दिर [ ३४६ मध्य अपने ग्रहपथ को छोड़ कर भारत महासागर के इस रेतीले किनारे पर उष्ण कटिबन्ध में खिंचा चला प्राया था; यद्यपि यह जो कुछ पहले था उसका छिलका मात्र रह गया है, इसका शिखर उतर जाने से मन्दिर नंगा हो गया है। और उस शिखर के टुकड़े-टुकड़े जमीन पर बिखरे पड़े हैं, ऊपर की रचना से यह हीन हो गया है और किसी समय की सम्पूर्ण इमारत का प्राधार मात्र बच कर रह गया है, परन्तु, फिर भी इसके खण्डहरों से हम इसकी पूर्व दशों का अनुमान तो लगा हो सकते हैं । जो कुछ बच रहा है वह उस प्रतिसाहस और उत्साह का परिणाम है, जिसने परिवर्तन के अभाव में मुसलमानों की इस विजय को अपूर्ण ही रख दिया था; जिसने मन्दिर को मसजिद में और सूर्य देव की पीठिका को मुल्ला के धर्मासन में परिवर्तित कर दिया था, जहां से वह अब भी रक्तपात की दुर्गन्ध फैलाता हुआ अपने विजय- गीत 'ला इल्लाह मोहम्मद रसूल अल्लाह' (परमात्मा एक है और मोहम्मद उसका पैगम्बर है) की बांग लगाता है । परन्तु, बाहर की ओर परिवर्तन का दूसरा चिह्न भी मौजूद है, वह है मन्दिर के प्रवेश-द्वार पर कलशदार मीनारें, जो मुसलिम शिल्पी की कारीगरी हैं और जहां से मुहम्मद का मुअज्जिम अपने सहधर्मी सिपाहियों को काफिरों पर विजय प्राप्त करके खुदा और उसके पैगम्बर की शान बढ़ाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर उत्साहित करता था। क्या हम विश्वास करें कि वास्तविक सुरुचि और उदार भावना के किंचित् भी अंश से प्रेरित होकर उसने प्राचीन समय के इस टूटे-फूटे अवशेष को बचा लिया था ? हम धर्म के नाम पर की हुई बर्बरतान पर शौर्य का पर्दा डालने का प्रयत्न करते हैं और इस कारण हुई हानि के विविध रूपों को वीरता की संज्ञा देते हैं, इस अर्थ में महमूद का बारहवाँ प्राक्रमण सब से दुर्धर्ष और अपूर्व अभियान माना जा सकता है, जिसमें पवित्रता अथवा धार्मिकता के चोगे से ढकी हुई उसकी महत्वाकांक्षा अतीव प्रबल हो उठी थी । 'पॅरोश' (Parosh) अथवा 'अपरसिन' (Aparasin ) पर्वत ही ग्रीकों का पॅरोपॅमी सॉस है । स्थानीय बोली में 'पर' अथवा 'परुत' शब्द पर्वत के लिए प्रयुक्त होता है । प्रवेस्ता में भी इसके लिए 'पुरीत' शब्द आया है । सेन्ट मार्टिन ने माना है कि यह 'परु' और 'निषध' का संयुक्त रूप है - परन्तु न जाने इन दोनों के बीच में एक 'प' का श्रागम कैसे हो गया ? अरस्तू ने इसका नाम 'परॅनॅस्सॉस ' ( Paranassos ) लिखा है । वही पहला ग्रीक लेखक था जिसने इस पर्वत श्रेणी का उल्लेख किया । श्राजकल इस श्रेणी का पूर्वीय भाग 'हिन्दूकुश' और पश्चिमी भाग 'पॅरॉपॅमीसस' नाम से जाने जाते हैं । Ancient India as described by Arrian-Mc Crindle; p. 189. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० । पश्चिमी भारत की यात्रा इस मन्दिर की बनावट चित्तौड़ के लाखा राना के मन्दिर से (जिसका शिल्प वही है, परन्तु सजावट बहुत कम है) तथा भारत के अन्य दूरस्थ शिवमन्दिरों से, जो इसलामी हमलों से बचे रहे, भिन्न नहीं है। इस मन्दिर को मूल आयोजना का ज्ञान (इस अध्याय के अन्त में दिए हुए) मन्दिर निर्माणकला सम्बन्धी खाके से ठीक-ठीक हो सकेगा और इस प्रकार 'सोमनाथ' के धूमिल वैभव को लेखनी की अपेक्षा चित्र अधिक स्पष्टता से व्यक्त कर सकेगा। यह चार भागों में विभक्त है; बाहरी पोल, जो निज-मन्दिर का प्रवेश-द्वार है, जो स्तम्भपंक्ति-युक्त विशिष्ट मार्गों [बरामदों से घिरा हुआ है। बाहरो परिधि ३३६ फीट, लम्बाई ११७ फीट और पूरो चौड़ाई चौहत्तर फीट है । जिन लोगों ने यॉर्क के गिरजाघर या मिलान के ड्यू मो (Duoma of Milan)' सैण्ट पीटर अथवा सेंट पॉल के गिरजाघरों के आधार पर मन्दिरों की विशालता का खयाल बना रखा हो, उन्हें ध्यान रखना चाहिए और वहत्परिमाण की प्राधार-कल्पना को सही कर लेना चाहिए कि एशिया के मूर्तिपूजक समूहों में एकत्रित होकर पूजा नहीं करते हैं वरन् देवताविग्रह की विशुद्ध महिमा को भावभूमि में अवतारित कर लेते हैं, जिसका केवल बाह्य और स्थूल उपकरणों से कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु, यहाँ पर हमें एक और मन्दिर का भी ध्यान पाता है, जिसकी जानकारी हमें बहुत पहले से है और जो प्रायः उतना ही पुराना है तथा सम्भवतः उसी तरह के नक्शे पर बनाया गया है ; वह है सिमॉन (Sion) का मन्दिर; इसकी लम्बाई तो ठीक सोमनाथ के मन्दिर जितनी ही है परन्तु यह 'बुद्धिमान् राजा' का मन्दिर चौड़ाई और ऊँचाई में सोमनाथ से कम है। फिर भी, 'यहूदी इतिहासकार' ने कहा है कि उन दिनों में और उन देशों में 'ऐसा दूसरा मन्दिर पहले नहीं बना था।' 'जब इजराइल के निवासी सीरिया के देवता, बालिम (Paalim) और अष्टरथ (Ashtaroth)' तथा . इटली का प्रसिद्ध नगर । • जेरूसलम के पास सिमॉन पर्वत पर निर्मित गिर्जाघर । 3 हॉडिप्रन। ४ जॉसफस (Josephus), समय ३७ ई० से १५ ई० 'History of Jewish Wars' और ___ 'Antiquities of the Jews' का कर्ता। ५ सीरिया में 'Baal' बाल शब्द ग्राम-देवता के अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'बालिम' 'बाल' का बहुवचन है । राष्ट्रिय बॉल का पूजन 'ऊंचे स्थानों पर होता था । बाद में कुछ पैगम्बरों ने इस प्रकार के पूजन को अमान्य कर दिया था । Dictionary of Phrase and Fable; Brewer-p. 60 ६ Astaroth (Ashtaroth) अष्टारॉथ-एक नगर का नाम है, जो Ashtart देवता का निवास स्थान माना जाता है । ऐसे कितने ही स्थान और नगर पहले प्रसिद्ध थे। फोनी. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६, सोमनाथ का मन्दिर [ ३५१ अमन (Ammon)' व बाल-देवताओं का पूजन करते थे' उस समय के गेराजिम (Garazim) अथवा बाल्बैक (Balbec) के शून्य जनस्थानों में बने हुए मन्दिरों की अपेक्षा इस भारत के सीरिया में बने हुए बालनाथ के मन्दिर का निर्माण-समय पूर्वतन मान कर इसको प्राचीनता को अतिरञ्जित भी हमें नहीं करना चाहिए। यूरोप में तो हमें बहुत थोड़े ऐसे गिरजाघरों की कल्पना करनी चाहिए, जो सोमनाथ के मन्दिर से बड़े न हों; परन्तु, इसकी दैत्याकार सुदृढ़ता से मन पर विशालता का वास्तविक प्रभाव पड़ता है और ऐसा लगता है मानो काल और मानवीय विद्वेष से टक्कर लेने के लिए ही इसकी ऐसी रचना की गई है। यह उस समय कैसा लगता होगा जब इसका शिखर नाविकों के लिए मार्गदर्शक संकेत बना हुआ था, जब स्तम्भपंक्तियों से युक्त इसके विशिष्ट पार्श्वमार्ग अभग्न अवस्था में थे और, सब से बढ़ कर, जब प्रवेशद्वार की गुम्बजदार छत के भग्न होने से पूर्व, मन्दिर का मुख्य उपाङ्ग, नन्दि-मण्डप, जो अपने आप में एक मन्दिर के समान था, अपने स्तम्भों और गुम्बज तथा बालनाथ के लिंग के सामने घुटने टेक कर बैठे हुए पोतल के वृषभ (जो सूर्यदेव का अन्यतम रूप है) सहित सम्पूर्ण अवस्था में विद्यमान था ! ___अस्तु, अब पुन: विवरण की बात पर आते हैं। पहले बाहरी भाग को लीजिए; बीठ (Beeth) अथवा स्तम्भाधार भूमि चार भागों में विभक्त है और प्रत्येक का नामकरण उस भाग में हुए संगतराशी के काम पर हुआ है। पहले भाग में साधारण इजारों के मालाकार दानों पर ग्रहों के बहुत से मस्तक बने शिया में प्राप्त कितने ही शिलालेखों से इस देवता के अस्तित्व और पूजित होने के प्रमाण भी मिले हैं । यह कनॅनाइट, फोनीशियन और हिब्रू देवता है । इसका उच्चारण 'अश्तर' और 'इश्तर' अथवा 'प्रश्-तर-तु' (Ash-tar-tu) भी किया जाता है । 'तु' प्रत्यय स्त्रीलिंग का वाचक है । यह सेमिटिक देवता मानी जाती है । कुछ विद्वानों का मत है कि पुरुष और स्त्री, दोनों ही रूपों में इसकी पूजा होती थी। बन्धनरहित यौन-प्रेम, मातृत्व और प्रजनन तथा युद्धदेवता के रूप में इसकी उपासना होती थी। Encyclopedia of Religion and Ethics; Hastings Vol. 2; p. 115-118 ' मिस्र का वृहद् देवता। इसका पूजन यूनान तक फैल गया था, जहां यह ज्यूस (zeus) नाम से और रोम में ज्यूपिटर एम्मोन (Jupiter Ammon) नाम से प्रसिद्ध था । इसकी भविष्यवाणी अफ्रीका में सिकन्दर के प्रागमन के बाद प्रसिद्ध हुई थी। • Baalbac (बॉलबेक) नामक नगर का निर्माण जेनी (Genie) ने जान-बेन-जान के आदेश से कराया था। पूर्वीय पुराण-कथानों में कहा गया है कि जान वेन जान 'प्रादम' से भी बहुत पूर्व लोकों का स्वामी था। Dictionary of Phrase and Fable; Brewer---p. 60 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा हुए हैं, जो हिन्दू पौराणिकों के ग्रिफ़िन (Grifin)' हैं। एक हल्की-सी मेखला इसको दूसरी शोर्ष-पंक्ति से विभक्त करतो है जो गज-तूड़ (Guj-turh) अथवा गज-पंक्ति कहलाती है और इसमें इस श्रेष्ठ पशु की गले तक की अर्धाकृतियाँ बनी हुई हैं। इसके ऊपर अश्व-तूड़ (aswa-turh) है, जिसमें विविध भंगियों में अश्व बने हुए हैं और इससे भी ऊपर की पट्टी में, जो कुछ अधिक चौड़ी है, (ईश्वर के मन्दिर में विशिष्ट माने गए) मतवाले मद्यपी नर्तकों की टोलियाँ उत्कीर्ण हैं, जो विविध प्रकार के वाद्य लिए हुए हैं और नाना प्रकार के हावभाव प्रदर्शित कर रहे हैं ।' पीठिका से ऊपर उत्कीर्ण प्राकृतियाँ कुछ बड़ी हैं और समूहों में बनी हुई हैं, परन्तु वे इतनी छिन्न-भिन्न हैं कि उनका विवरण देना असम्भव है । एक स्थान पर कुछ बचे हुए अंशों से पता चलता है कि उनमें रहस्यमय 'रासमण्डल' की उन 'स्वर्गीय अप्सराओं' का अंकन हुआ है जिनकी ताल और गति समस्त लोकों की ताल और गति का प्रतिरूप है। यद्यपि उनके शिर, बाहु और पैर सुसलिम-हथौड़े के शिकार हो चुके हैं परन्तु कुछ बचे हुए मुख्य भागों से ज्ञात होता है कि इनमें कोरणी का उत्कृष्ट काम हुआ है। मण्डप का गुम्बज पूर्ण है परन्तु दुर्भाग्य से यह मूल आयोजना के अनुरूप नहीं है इसलिए यह विश्वास नहीं होता कि यह हिन्दू-निमिति है। मेहराब की चौड़ाई बत्तीस फीट है और सिरों पर चपटे अर्डाण्ड का भाग होने के कारण इसकी ऊँचाई व्याल से अधिक है अर्थात् धरातल से मेहराब को उठान तक लगभग तोस फीट है। छतरीका खम्भों पर टिकी हुई है (जो अष्टकोण बनाते हैं। जिनके शीर्ष घने अतिभारी पट्टो द्वारा सम्बद्ध हैं; गुम्बज की प्राकृति एक जहाजी पिण्ड के समान है और इस पर कितनी ही परतें चढ़ी हुई हैं, जैसे छोटे डबोरे, सफेद मिट्टी और ऊपर चूने की लोई; इसका आपेक्षिक गुरुत्व महान है, रचना असामान्यतया सुदृढ़ है और टकोरने पर इसमें से धातु के ' ग्रीक देवशास्त्र के काल्पनिक जन्तु, जिनके पैर और पंजे शेर के समान तथा चोंच और मुख बाज के समान माने गये हैं। २ वास्तुशास्त्र में ये तीन प्रकार के थर (स्तर ?) कहलाते हैं--१. गजथर, २. अश्वथर और ३. नरथर । 3 मेरी नौष में यहां कुछ गड़बड़ी है । मैं ज्यों की त्यों शब्दावली उद्धृत करता हूं। 'मेहराब (arch) की चौड़ाई (Span) बत्तीस फीट है, उसकी ऊंचाई भी प्रायः, इतनी ही है और धरातल (ground) से उठान या कमान (Spring) तीस फीट है।' मैं समझता हूँ कि मैंने भूल से शीर्ष (Vertex) के स्थान पर Spring (कमान) लिख दिया है । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६, सोमनाथ का मन्दिर [ ३५३ समान ध्वनि निकलती है। इन खम्भों और उनके शीर्षपट्टों की स्थिति से, जो एक अर्धाण्डाकार गुम्बज के लिए अष्टकोण आधार बनी हुई है, यह प्रमाण मिलता है कि 'पाड़ी डाट' के सिद्धान्तानुसार इस छतरी की मूल आयोजना हिन्दू-प्रकार की हो रही है; परन्तु, वर्तमान मेहराब अधिक वैज्ञानिकता और सप्रकाश स्पष्टता के आधार पर बनी हुई है और इसमें ईटों का प्रयोग भी हुआ है इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश हो जाते हैं कि, हिन्दू कारीगरी हो अथवा तुर्क परन्तु इतना अवश्य है कि, यह मूल इमारत का भाग नहीं है । इसी का एक और भी सबल प्रमाण है, जो इस अनुमान की पुष्टि करता है कि यह मुसलिम कारीगरी है। मुखभाग के अतिरिक्त, जिससे दालान में होकर निज-मन्दिर में जाते हैं, इसकी अन्तःस्तम्भ-संघटना सुघड़ और मेहराबदार है और ये मेहराबें एक को छोड़ कर एक नुकीली अथवा दीर्घवृत्ताकार हैं । छतरी के मुख्य भाग, जिसका अभी वर्णन किया गया है, और निज-मन्दिर के बीच में एक विस्तीर्ण पाच्छादित और स्तम्भपंक्तियुक्त अलिन्द है, जिसमें अब कूड़े और मलबे का ढेर लगा हुआ है, जिससे प्रवेशद्वार अवरुद्ध हो गया है। यह विध्वंस का ढेर अभी हाल ही का है और कहते हैं कि यह तोपों की गड़गड़ाहट के कारण हुप्रा है; ये तोपें, लड़ाई के समय, किनारे पर मंडराने वाले फ्रांसिसियों के सामान्य जहाजों को रोकने के लिये मन्दिर की छत पर लगाई गई थीं। जैसेतैसे मैं गुहा-गृह में गया, जो तेवीस फीट लम्बा और बीस फीट चौड़ा सामान्य-सा अन्धेरा कमरा है, जिसमें एक भीतरी सुरंग है, जिसमें होकर सम्भवतः बालनाथ के महन्तजी मण्डप में बैठे हुए भक्तजनों तक अपने सहयोगियों द्वारा देवी उपदेश पहुँचाया करते होंगे। जहाँ शिव का महालिङ्ग स्थापित था वह स्थान अब ध्वस्त पड़ा है और पश्चिमी दीवार में 'मक्का पाक' की ओर देखता हुया 'मुल्लां का धर्मासन खुदा हुआ है। मुख्य कक्षों और बाहरी दीवार के बीच में भारी-भारी खम्बों की पंक्ति है, जिन पर बने हुए चपटे अथवा अर्द्धवृत्ताकार बाहर निकलते स्तम्भशीर्षों पर छत की पट्टियां टिकी हुई हैं। इनमें प्रयुक्त सामग्री जूनागढ़ की पहाड़ियों से निकले हुए ठोस बलुमा पत्थर की है, जिसको गढ़ कर चौकोर अथवा आयताकार शीर्ष बनाए गये हैं और वे चूना मिली हुई बजरी से, जो कंकर कहलाती है, पुख्ता कर दिये गये हैं । यह बजरी पाटण के आसपास के गड्ढों से खोद कर निकाली जाती है। परन्तु, सौरों का यह बालनाथ का मन्दिर इसके चारों ओर बने हुए छोटेछोटे देवालयों से स्पष्ट ही बड़ा और सुन्दर है, और इन्हीं से अपना गौरव ग्रहण करता है । इस बात में भी यह सुलेमान के मन्दिर से अनुरूपता लिए हुए है, Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा जिसके विषय में व्याख्याकारों ने कहा है कि 'यह एक छोटी-सी इमारत है, परन्तु, इसके श्रासपास बनी हुई बहुत सी कचहरियों और कार्यालयों के कारण सब मिला कर यह एक विशाल ढेर सा लगता है ।' सोमनाथ का मन्दिर अपने ही ऊँचे परकोटे से घिरे हुए एक विशाल चौकोर चौक के बीच में खड़ा है । इसके आसपास में बने हुए छोटे-छोटे मन्दिर, जो उपग्रहों के समान सोमनाथ की शोभा बढ़ाते थे, अब भूमिसात् हो गये हैं और उनके मलबे से मसजिदें, दीवारें और मत्यों के आवास निर्मित हो गए हैं। चौक के विस्तार का सीधा और सरल अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि बालदेव और उनके पुजारियों के अभिषेक के लिए बना हुआ जल- कुण्ड मुख्य मन्दिर से पूरे एक सौ गज की दूरी पर है। बड़ी मसजिद के जिसे जुमा मसजिद (Joomma Masjid ) कहते हैं, बनाने में कम से कम पाँच छोटे मन्दिरों की सामग्री लगी होगी क्योंकि इसके पाँच छतरीदार गुम्बज अपने समस्त उपकरणों सहित विशुद्ध हिन्दू, शैली के हैं और खम्भों की तिहरी पंक्ति से घिरे हुए जिस विशाल आँगन के मध्य यह मसजिद स्थित है उसके निर्माण में बारह और मन्दिर समाप्त हो गए होंगे। , हिन्दुनों में इसके प्रति ऐसा था, श्रीर ऐसा है सोमनाथ का मन्दिर, जो अब भी आदरणीय है; हिन्दुओं के समृद्धिशील और विजयोल्लास के दिनों में तो यह अपने प्रबन्धोपकरणों सहित और भी अधिक गौरवपूर्ण रहा होगा ! इस समय जो इसकी दुर्दशा हो रही है उसकी कल्पना स्वयं महमूद ने भी शायद ही की हो। समस्त पूज्यभाव लुप्त हो गया प्रतीत होता है । प्रवेश द्वार पर बनी हुई मीनारों तथा मक्का की प्रोर देखते हुए मुल्लों के धर्मासन के प्रति मुसलमानों में किञ्चित् भी श्रद्धा नहीं रह गई है और भ्रष्ट सूर्य-मन्दिर को पुनः पवित्र करने के लिए गङ्गा का सम्पूर्ण जल भी अपर्याप्त होगा । हुल्कर महान् की पत्नी अहल्याबाई ने, जिसकी परोपकारिता भारत में कैलास से लेकर पृथ्वी के छोर तक सुप्रसिद्ध है, एक छोटे से मकान के स्थल पर मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया है, जहां अब भक्त लोग सोमनाथ का पूजन करते हैं। इसके समीप ही बड़ोदा के दीवान ने एक विशाल धर्मशाला बनवाई है, जिसके विषय में ऊपर लिखा जा चुका है । मन्दिर के लिए चुने हुए स्थल को सुन्दरता में और कोई स्थल नहीं पा सकता; यह एक आगे निकली हुई चट्टान पर खड़ा है, जिसके तल को समुद्र प्रक्षालित करता है। यहां प्रबल जलराशि के छोर पर टिकी हुई दृष्टि जब उसके अनन्त विस्तार में खो जाती है तब लहरों के एक मात्र गर्जन में भक्त को एक प्रकार की वरदानमयी शान्ति का अनुभव होता है । उसके सामने बेलावल तक Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; सोमनाथ का मन्दिर |३५५ फैली हुई खाड़ी है, जिसके स्पष्ट और गौरवपूर्ण वक्रता लिए हुए तट की सुनहरी वालुका में लहरें निरन्तर हलचल पैदा करती रहती हैं। भारत में तो इसकी समानता करने वाला स्थल कोई है ही नहीं, अपितु संसार की सुन्दर से सुन्दर पैन्जान्स (Penzance) से सैलेरम (Salerum)* तक जिन बड़ी-बड़ी खाडियों को उनकी पृष्ठभूमिगत समस्त सज्जा-सहित सन्ध्या की मनोरम घड़ियों में मैंने देखा है, उनमें से किसी ने भी पट्टण की खाड़ी से बढ़ कर मेरी कल्पना को इतनी प्रबलता से प्रभावित नहीं किया। बेलावल का बन्दरगाह और उसके ऊपर का भ-भाग अपनी विशाल श्यामल भित्तियों सहित, जो यूरोपीय समुद्री लुटेरों से रक्षार्थ निर्मित की गई थीं, दृष्टि-विराम के लिए एक आकर्षक दृश्य उपस्थित करता है और यहीं से भूमि का रुख उत्तर में द्वारका की ओर घूम जाता है। गिरनार के शिखर, जो यहां से बीस कोस की दूरी पर हैं (उ० ७० पू०), विशिष्ट भावनाएं उत्पन्न करते हैं और यदि दर्शक अधिक शान्त दश्यों में रमने वाला हो तो आसपास का प्रदेश उसकी रुचि के दृश्य उपस्थित करता है । ये मैदान वन-संकुल हैं और प्रकृति एवं उसकी कला दोनों ही ने इनमें विचित्रता उत्पन्न कर दी है। ऐसा है मूर्तिपूजकों का यह मुख्य मन्दिर, जिसके ध्वंस को हिजरी सन् ४१६ (१००८ ई०) में गज़नी के सुलतान ने एक 'धार्मिक कर्तव्य' की संज्ञा दी थी। यह अनुमान सहज ही में लगाया जा सकता है कि इस युद्ध का विवरण, जो कि इसलामी इतिहासकारों के लिए गौरव का विषय था और जो वीरता इसमें प्रदर्शित हुई थी उसकी समानता करने वाला वर्णन 'क्रूसेडर्स' के धर्मयुद्ध के इतिहास में भी नहीं मिलता, अवश्य ही वज्र-लेखनी से इस मन्दिर के प्रत्येक पत्थर पर लिखा गया होगा; परन्तु, यह बात जितनी अविश्वसनीय लगती है उतनी ही सत्य भी है कि पूर्वकाल में क्रूरतम यातनाओं के कारण जाति-विशेष पर कितनी ही आपदाएँ प्रा पड़ी हों, फिर भी आज इस देवनगर में महमूद महान् का नाम तक किसी मुसलमान के लिए उसी प्रकार अपरिचित है जिस प्रकार किसी ब्राह्मण, बनिए अथवा विणजी के लिए। मेरे मित्र मिस्टर विलियम्स और उनके समस्त अधिकारों की सहायता से भी मुझे एक भी परम्परागत मौखिक , इंगलैंड के दक्षिण-पश्चिमी किनारे पर कॉर्नवाल का एक सुन्दर बन्दरगाह। यह मछली पकड़ने का केन्द्र है और यहाँ से टिन, तांबा और चीनी मिट्टी का सामान बाहर भेजा जाता है।-N. S. E., p. 985 २ इटली का बन्दरगाह । यहाँ ११वीं शताब्दी का बना हुमा एक गिरजाघर है, जिसमें सुन्दर लकड़ी में कुराई का काम हो रहा है । वही, पृ० १०६२ । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अथवा उत्कीर्ण वृत्तान्त उस व्यक्ति के विषय में नहीं मिला, जिसने हिन्दुयों से एक शाश्वत अपकीर्ति प्राप्त करने में गर्व का अनुभव किया था; और यद्यपि बालदेव के मन्दिर के किसी समय गर्व से उन्नत रहने वाले शिखर के बिखरे पड़े खण्ड फरिश्ता' को जानने वाले के लिए किसी पुस्तक से कम नहीं हैं, फिर भी उन लोगों के लिए, जिनसे उनका प्रत्यधिक सम्बन्ध है, वे रून ( Runes ) ' अक्षरों के समान दुर्वाच्य और दुर्बोध वस्तुएं हैं। मानव जाति कितनी सुखी और प्रसन्न होती यदि महत्वाकांक्षा के सिर पर झूठे और बाहरी आकर्षण को लिए हुए ताज के बजाय, जो बुद्धिमान् से बुद्धिमान् को भी ललचा कर विनाश की ओर ले जाता है, अन्धकार और विस्मृति का प्रावरण पड़ा होता ! परन्तु, जोप्पा ' फरिश्ता का पूरा नाम 'मोहम्मद कासिम हिन्दूशाह' था । वह पर्सियन वंश का था और कैस्पियन सागर के तट पर अश्तराबाद नामक नगर में १५७० ई० के लगभग पैदा हुआ था । प्रायः १२ वर्ष की अवस्था में ही वह अपने पिता के साथ भारत में प्राया था और श्राजीवन अहमदनगर के निजामशाही दरबार में रहा । बहुत छोटी अवस्था में ही उसने ऐतिहासिक वृत्तों का संकलन प्रारम्भ कर दिया था और १५६६ ई० के लगभग तो उसने बीजापुर के शासकों का वृत्तान्त पूरा कर लिया था। उसकी पुस्तक का मूल नाम 'गुलशने इब्राहिमी' है परन्तु वह 'तारीख-ए-फरिश्ता' के नाम से अधिक प्रसिद्ध है । इस पुस्तक का फारसी मूल तो १६०५ ई० में नवलकिशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित हुआ था और उर्दू अनुवाद भी १९३३ ई० में इसी मुद्रणालय से निकला था। जॉन ब्रिग्स को सुप्रसिद्ध पुस्तक "History of the Rise of Mahomadan Power in India till the year 1612 A.D. के प्रथम भाग में 'तारीखे फरिश्ता' का अंग्रेजी अनुवाद है, जिसको इतिहास के विद्वान् प्रायः उद्धृत करते रहते हैं । यह पुस्तक कलकत्ता से १६१० ई० में प्रकाशित हुई है। फरिश्ता की मृत्यु १६११ ई० के लगभग हुई मानी जाती है। • स्कैण्डिनेविया की एक दुर्वाच्य लिपिविशेष । पहले इस में २४ गए। इन प्रक्षरों में मरोड़ नहीं होती । ग्रेट ब्रिटेन के प्राचीन मिलती है। हड्डी, धातु और मुद्राओं में भी ये अक्षर खुदे मिलते हैं । -N.S.E.; p. 1078 'जफो' और अरबी में Joppa पेलेस्टाइन का एक प्राचीन बन्दरगाह । इसको हिब्रू में 'याफा' या 'जफ़्फा' कहते हैं। स्ट्रॅबो ने लिखा है कि यह समुद्री लुटेरों का अड्डा था, इस कारण यहूदियों के युद्ध में इसको बरबाद कर दिया गया । श्राधुनिक नगर के दक्षिण में एक छोटी सी खाड़ी है, जो 'बिर्केत अल्- कम्र' ( चंद्र-सरोवर ) कहलाती है; सम्भवतः वहीं प्राचीन बन्दरगाह भी था । ११८७ ई० में सलादीन ने इस नगर पर अधिकार कर लिया था और ११६१ ई० में रिचार्ड प्रथम ने इसे मुक्त करा दिया, परन्तु ११९६ ई० में मलिक अल-आदिल ने पुनः इस पर कब्ज़ा कर लिया । १७६६ ई० में नेपोलियन ने भी इस नगर पर धावा मारा था। उस समय यह परकोटे से घिरा हुआ था, जिसको बाद में 3 अक्षर थे फिर १६ रह शिलालेखों में यह लिपि · Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; पाटण के पतन की कहानी [३५७ (Joppa) एके (Acre)' और पवित्र पहाड़ो (Holy Hill) की भी यात्रा करने वाले को, यदि वह वहां रिचार्ड कोर डी लायन (Richard Coeur de Lion) अथवा उसके अधिक योग्य विपक्षी सैलॅडिन के विषय में जानकारी करना चाहे तो क्या इससे अधिक सफलता मिल सकेगी? अन्त में, हमारे मुकाम के अन्तिम दिन, पाण्डुलिपियों की अब तक की असफल खोज का सुफल मिल ही गया, और मेरे मित्र के एक कर्मचारी ने एक पुराने काज़ी के प्रज्ञ वंशज से, जिसको यह पता भी न था कि में क्या लिखा है, एक काव्य की खण्डित प्रति प्राप्त की, जिसमें भूतकाल का कुछ वृत्तान्त अंकित था। इसको देखने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि यह किसी मूल फारसी कविता का शुद्ध हिन्दी बोली में रूपान्तर है, जो किमी राजपूतों के कवि [भाट] ने किया है । मैंने उत्सुकतापूर्वक इसको हथिया लिया और अब, इसको पद्यात्मकता को अलग रख कर, प्रसन्नता से 'पाटण के पतन' की कहानी सरल गद्य में पाठकों के सम्मुख उपस्थित करता हूँ। 'हाजी महमूद मक्का से एक व्यापारिक जहाज में आया और पट्टण से उत्तर-पश्चिम में तीस मील की दूरी पर मांगरोल बन्दरगाह पर उतरा, इसी कारण वह 'मांगरोली शाह' कहलाने लगा। वहाँ से वह पट्टण पाया और एक रैवारी के घर शरण लेकर रहने लगा । यहाँ पर उसको ज्ञात हुआ कि सोमनाथ की प्रतिमा के आगे नित्य एक मुसलमान की बलि दी जाती है और उसके रक्त से ही मूर्ति पर टीका लगाया जाता है । अधिक जिज्ञासा होने के कारण वह नगर में गया और वहाँ एक विधवा तेलिन से छाती फाड़-फाड़ कर रोने का कारण पूछा तो उसे ज्ञात हुआ कि उसके इकलौते पुत्र को पुजारियों ने बालनाथ के अर्पण करने के लिए मांगा है। हाजी ने उसे प्रसन्न रहने को कहा और उसके पुत्र को बचाने के लिये स्वयं बलि चढ़ जाने की इच्छा प्रकट की। परन्तु, जब राजा को यह सूचना दी गई कि कोई विदेशी तेली के पुत्र को बचाने के लिए जान दे रहा है तो यह विचार रद कर दिया गया। उधर वह सन्त किसी अंग्रेजों ने पुख्ता करा दिया था। यह जरूसलम के बन्दरगाह से एक सड़क द्वारा सम्बद्ध है। यहां की आबादी में मुसलमान अधिक हैं । यहाँ पर एक 'कायम मुकाम' या गवर्नर रहता है। --E.B. Vol. XIII; p. 746 - Acre-पैलेस्टाइन का बन्दरगाह जो जेरूसलम से ८० मील दूर है। सलादीन ने इस पर अधिकार किया, उसके बाद Crusaders ने इसे पुनः ले लिया था। रिचार्ड प्रथम ने इसे फिर जीत लिया।-N.S.E.; p. IO Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा भी तरह हठ नहीं छोड़ता था। मन्दिर पहँच कर वह बाहरी सीढ़ियों पर बैठ गया, जहाँ से नन्दी की पीतल की प्रतिमा के पास जाते हैं और जहाँ बलि चढ़ाई जाती है। राजा और कार्यकर्ता पुजारी आदि को पहले ही वहाँ बुला लिया गया था और बलि-पात्र भी वहीं उपस्थित था। हाजी ने राजा से पूछा कि 'क्या चढ़ाई हुई भेट को नन्दी खा जायगा ?' राजा ने कहा, 'नहीं, परन्तु, यह परम्परा है कि लड्डुओं की भेंट सदा ही चढ़ाई जाती है।' तब हाजी ने पानी मँगवाया और जब एक भक्त कुण्ड में से पानी लाने चला गया तो उसने लड्डुओं की परात उठाई और नन्दी के मुह के पास ले गया, जो लपालप लड्डू खाने लगा। यह देख कर सभी शाश्चर्यचकित हो गए और जब हाजी ने 'अल्लाहो अकबर' की बांग लगाई तो सोमनाथ का लिङ्ग अदृश्य हो गया और उसके स्थान पर एक हब्शी प्रकट हुआ, जिसको हाजी ने अपने प्याले में जल लाने का हुक्म दिया। जब वह जल ले आया तो, कहते हैं कि, तुरन्त ही खबर मिली कि कुण्ड का पानी सूख गया और पवित्र मछलियां नष्ट होने लगी; तब पानी का प्याला वापस कर दिया गया और कुण्ड में पानी पुनः उझलने लगा। तेली के लड़के की जान तो बच गई परन्तु पट्टण के मूर्तिपूजकों को दण्ड देने के लिए हाजी ने, अपनी चमत्कारिक योग्यता को ही पर्याप्त न मानते हए, तुरन्त ही एक सन्देशवाहक को गजनी रवाना कर दिया। जब संत का प्राज्ञापत्र महमूद के पास पहुंचा तो वह क्रोध के मारे प्रायः अन्धा हो गया, परन्तु जब उसने उस पवित्र लेख को आदरपूर्वक अपने सिर के लगाया तो उसकी दृष्टि लौट आई।' इस चमत्कारिक उपचार के सम्पन्न होते ही कूच का हुक्म तो होना ही था। हाजी की करामात में हमारा विश्वास हो या न हो, परन्तु इस कथा का तिथिक्रम तो किञ्चित् भी विश्वसनीय नहीं है और सम्भवतः हिन्दू भाट ही, जिसने ईरान की परिष्कृत भाषा में अपनी 'भाखा' मिला दी है, इस ऐतिहासिक तिथिव्युत्क्रम के लिए उत्तरदायी है। इसमें बताया है कि महमूद ने शाह के कोपभाजन स्थल मांगरोल में आने के लिए सतलज को उस स्थान पर पार किया, जहाँ वह सिन्धु से मिलती है और वह जैसलमेर के (जो दो शताब्दी के बाद बना था) रेगिस्तान में होकर पाया। इस हस्तलेख में लिखा है कि पट्टणविजय करने से पूर्व महमूद के चौबीस हजार प्रादमी मारे गए । उसके द्वारा नगर पर अधिकार करने के विवरण में तिथि-सम्बन्धी और भी गड़बड़ियां हैं। लिखा है कि उस समय कुमारपाल पट्टण का राजा था और उसका भाई जयपाल मांगरोल पर शासन करता था। अब, भयोंकि महमूद का आक्रमण १००८ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · प्रकरण - १६; पाटण का पतन [ ३५६ (अथवा १०२५) ई० में हुआ और कुमारपाल की मृत्यु ११६६ ई० में हुई, इससे यह विचार होता है कि यह शायद कोई वह आक्रमण था जिसका (मुसलिम इतिहास में उल्लेख होने से रह गया है) चरित्र में वर्णन हुआ है और जिसके परिणाम में कुमारपाल की राज्यच्युति, धर्मपरिवर्तन [तबलीग] और मृत्यु हुई तथा उसके पश्चात् 'पागल' अजयपाल गद्दी पर बैठा। इस सब में मुख्य रुकावट और गड़बड़ी महमूद के नाम की है। परन्तु, यही नाम अथवा गजनी की गही पर उसके क्रमानुवतियों में से मौदूद का नाम भी अप्रसिद्ध नहीं था। फिर, 'चरित्र' का यह उल्लेख भी इसके पक्ष में ही है कि कुमारपाल ने मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया और इसके गुम्बज पर सोना चढ़वाया, इत्यादि । इससे मेरा यह कथन भी पुष्ट हो जाता है कि इसकी नींव में उलटी मूर्तियां लगी हुई हैं, परन्तु, इस हस्तलेख का आधार प्रत्यक्ष में अधिक प्रामाणिक है। "बादशाह ने महासरोवर पर मोर्चा लगाया और पट्टण के राजा ने भलकाकुण्ड पर । पूरे एक मास तक बहुत-सी लड़ाइयां हुई और दोनों ही ओर से खूब खून-खच्चर हुआ । सुलतान ने अपने पीछे की ओर मजबूत मोर्चा जमाया और इसी तरह पवित्र त्रिवेणी पर भी सुदढ़ प्रबन्ध किया; परन्तु, हमीर' और बेगडा गोहिल बंधुओं ने, जो पट्टण के राजा की सहायता के लिए पाए थे, उनकी सेनाओं को काट कर छिन्न-भिन्न कर दिया। इस तरह पांच मास व्यतीत हो गए तब दूसरा घमासान युद्ध हुआ, जिसमें सुलतान की सेना के नौ हजार और हिन्दुओं के सोलह हजार प्रादमी मारे गए । परन्तु मजहबी सेनाएं दबाव डालती रही और सुलतान ने कंकाली के मन्दिर पर कब्जा कर लिया। उसने वहीं पर अपना मुख्यस्थान कायम किया और उन इमारतों पर धावा बोलने का हुक्म दिया जिनसे सोमनाथ की रक्षा हो रही थी। उसको विजयश्री का लाभ होने ही वाला था कि उसी दिन हाजी मर गया। तीन दिन तक उसने खाना नहीं छुना और कुछ समय तक सन्त के दर्शन न मिलने से उसका शोक , यह हमीर लाटी और अरटीला के ठाकुर भीमजी गोहिल का छोटा पुत्र था। जब १४९० ई० में महमूद बेगड़ा ने सोमनाथ पट्टण पर चढ़ाई की तब वह अपने मित्र और श्वसुर बेगड़ा भील की सहायता से पांच-सौ साथियों के साथ सोमनाथ की रक्षा करता हुआ युद्ध में काम आया था। बेगड़ा भील की पुत्री से जो हमीर की सन्तान हुई उसके वंशज देव जिले में नाघेर नामक स्थान में अब भी पाए जाते हैं और वे गोहिल कुली कहलाते हैं। प्रतः उक्त घटना महमूद गजनवी के प्राक्रमण के समय की नहीं है। ग्रन्थकर्ता ने भ्रमवश दोनों आक्रमणों की घटनाओं को घिलमिल कर दिया है। -रासमाला (हिन्दी अनुवाद) द्वि. भा.; पृ. ११२-१३ रा.प्रा.वि.प्र. में भी 'परजन हमीर की वार्ता' शीर्षक एक हस्तप्रति सं० २१५६ परहै । जिसमें इस घटना का रोचक वर्णन दिया गया है। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा और भी बढ़ गया।' (इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि वह काफिरों के हाथों में पड़ गया था) 'इस अवसर पर यद्यपि हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों के अधिक आदमी मारे गए थे परन्तु वे (हिन्दू) सन्धि के लिए प्रयत्न कर रहे थे और सभी तरह के दूत, चारण, भाट अथवा अन्य सन्देशवाहक महमूद के पास यह संवाद लेकर भेजे गए कि वह किसी भी शर्त पर और कितना भी धन लेकर आक्रमण बन्द कर दे। परन्तु, सोमनाथ के मन्दिर में सिजदा पढ़ने से कम किसी भी शर्त पर उसको सन्तोष नहीं हुअा। छठे मास में फिर घमासान युद्ध हुआ, जिसमें दोनों राजपूत योद्धाओं के मारे जाने पर शेष योद्धा रानी की रक्षा का प्रबन्ध कर के शत्रु का सामना करने के लिए सन्नद्ध हो गए। इस विशाल प्रतिरोध को बलपूर्वक रोकने में असमर्थ सुलतान ने चाल से काम लिया और समस्त रक्षकों को नियत स्थानों से हटा लिया । उसने पीछे हटने का बहाना किया, सभी उपलब्धियों को छोड़ दिया और चौकियों को तोड़ कर परकोटे से पाँच कोस पीछे हट गया। घिरे हुए योद्धा उसके जाल में फंस गए और अपने को मुक्त समझ कर खुशी के नारे लगाने लगे तथा हर्षोन्माद में प्रबन्ध को ढीला कर बैठे। _ 'उस दिन जुमेरात अर्थात् इसलाम का रविवार' था। मध्यरात्रि में पैगम्बर का हरा झण्डा खोला गया और जफर व मुजफ्फर नामक दो भाइयों की अधीनता में एक चुनी हुई फौज की टुकड़ी के सुपुर्द किया गया। वे चुपचाप दरवाजे पर पहुंच गए । एक विशाल हाथी, जिसका सुदृढ़ मस्तक पुराने जमाने में दरवाजा तोड़ने के हथियार की एवज काम में लिया जाता था, द्वार के निकले हुए लोह-शूलों से युक्त कपाटों से जा टकराया; उस समय एक ऊंट को हरौल बनाया गया जिसके भारी शरीर के बीच में आ जाने से आक्रमणकर्ता का मस्तक बच गया और दरवाजे के किवाड़ टूट कर दूर जा गिरे । अन्दर युद्ध का ज्वार उठा और जफर बन्धुओं की अग्रिम टुकड़ी की सहायता के लिए स्वयं महमूद की अध्यक्षता में मुख्य सेना भी तुरन्त आ पहुँची। उस दिन अन्धाधुन्ध मारकाट मची। खुदा की बरकत और इसलाम के ईमान के नाम पर पट्टण की गलियों में खून की नदियां बह चलीं और जिन्होंने पैगम्बर के नाम पर रहम की प्रार्थना की उनके सिवाय कोई भी स्त्री, पुरुष किसी भी दशा में, शक्त, अशक्त, बच्चा या बुड्ढ़ा तातार की पाशविक फौलादी तलवार से न बच सका। अप • जुमेरात शुक्रवार को कहते हैं; यहाँ रविवार से छुट्टी का दिन अथवा प्रार्थनादिवस से तात्पर्य है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; पाटण का पतन [३६१ रिचित भाषा में किए हुए आत्मसमर्पण के निवेदन को सुनने-समझने वाला भी शायद कोई ही उस उत्तर से आए हुए बर्बर लोगों के काफिले में रहा हो, जो सभी प्रकार की दुर्भावनामों से उत्तेजित हो रहे थे । लम्बे समय तक चले घेरे में नष्ट हुए मित्रों और सम्बन्धियों का बदला, धर्मोन्माद, जिसमें प्रत्येक काफिर का धड़ से जुदा किया हा सिर अहले-ईमान के लिए पैगम्बर द्वारा स्वीकार्य निजात [मुक्ति] का तोहफा बना हुआ था; ये भावनाएं और इन जिद्दी लोगों में इससे भी प्रबल लूट और वासना के प्रलोभन की दीवारें खड़ी हुई थीं जो दया के प्रवाह को आगे बढ़ने से रोक रही थीं। उधर, सोमनाथ के रक्षक राजपूत सर्वस्व होम देने की भावना से लड़ रहे थे; मानवीय शौर्य को उद्बुद्ध करने के अन्य सभी प्रलोभनों के अतिरिक्त वैकुण्ठ-प्राप्ति की सतत आशा उनकी दृष्टि के आगे खेल रही थी। वे यह भली भाँति जानते थे कि उनके प्राणों की रक्षा केवल एक शर्त पर अवलम्बित थी, और वह थी-उनके मन्दिरों का विनाश, धर्म का परित्याग और मोहम्मद की वेदी के सामने प्रणिपात। नगर में खून के पनाले बह गए, धर्म, अरमान और प्रतिष्ठा की खातिर दोनों ही पक्षों के अगणित योद्धा मौत के शिकार हो गए, चुनी हुई सेना की टुकड़ी के अगुवा जफर और मुजफ्फर भी मारे गए और मन्दिर के पश्चिम में उनकी याद में बनी हुई मसजिद उस स्थान को बतला रही है, जहाँ वे शहीद हुए थे। सड़कें लाशों से रंध गई थीं और हजारों मृत शरीर सोमनाथ के मन्दिर के आसपास बिखरे पड़े थे। फिर भी, महमूद और उसके साथ उत्तर से आए हुए अवर सिपाहियों के सभी प्रयत्न व्यर्थ गए, क्योंकि उस दिन इसलाम का झण्डा उस परकोटे पर न फहर सका, जो हिन्दुओं के पैलाडिअम (Palladium),' संरक्षक देवता के चारों ओर घिरा हुआ था। 'निर्णायक संघर्ष के घटने में अधिक समय नहीं लगा; अपने राजा की अध्यक्षता में सात-सौ वीरों ने मन्दिर के मुख्य द्वार पर अपने देवता की प्रतिमा को भ्रष्ट होने से बचाने के लिए प्राणान्त युद्ध किया। इससे पूर्व सुलह के लिए चालीस लाख (द्रम्म) देने का प्रस्ताव किया गया, जिसको लोभ अथवा उदारतावश महमूद ने स्वीकार भी कर लिया था, परन्तु सलाहकारों के तिरस्कार ने उसके सुप्त शौर्य को पुन: जागृत कर दिया और 'काफिरों से कोई सुलह नहीं' 'मन्दिर को नेस्तनाबूद कर दो' के नारों ने उनको उस भविष्य के लिए सज्ज कर दिया, जो उनकी प्रतीक्षा में था । • पैलास Pallas की मूर्ति, जिसकी सुरक्षा पर ट्रॉय Troy नगर को सुरक्षा अवलम्बित थी। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा मन्दिर पर धावा बोल दिया गया और एक भयानक रोमहर्षण संघर्ष के बाद वह ध्वस्त हो गया। रक्षकों में से इक्के-दुक्के ही बच पाये; लिङ्ग को भग्न कर दिया गया और 'पावनानां पावन सोमनाथ' की वेदी से 'सच्चे खुदा और उसके पैगम्बर' का नाम गंज उठा। नगर में खुली लूट मच गई और मन्दिर से प्राप्त विपुल धनराशि के अतिरिक्त विजेताओं को इस लुट से अपार धन प्राप्त हुना। मीता खाँ को पट्टण और अधीनस्थ प्रदेश का हाकिम बनाया गया और चौरासी अथवा एक सौ गांवों सहित मांगरोल हाजी के एक सम्बन्धी को इनायत कर दिया गया। सुलतान के लोट जाने के बाद हिन्दुओं ने मीताखां के विरुद्ध सर उठाया परन्तु उनका विद्रोह उन्हीं के लिए घातक सिद्ध हुआ।' इस प्रकार हस्तलेख समाप्त होता है। . इस खण्डित हस्तप्रति में मुकाबला करने वाले राजा का नाम नहीं दिया हुप्रा है जो, मैं समझता हूँ, सौराष्ट्र के पुराने स्वामी चावड़ा राजपूतों में से था और इस प्रसंग में फरिश्ता का कथन हमें ठीक प्रतीत होता है कि वह राजा एक नाव में बैठ कर बच निकला था। इसी हस्तलेख में इतिहासकार ने एक और कथा को भी लिपिबद्ध किया है, जिसमें अन्तरिक्ष में अधर लटकती हुई प्रतिमा को महमूद द्वारा गदा-प्रहार से भूमिसात् किए जाने का वृत्तान्त है। यहाँ पर यह पुनः कह देना होगा कि यह हस्तलेख किसी मूल प्रामाणिक कृति का अंश है; सम्भवतः, वह 'तारीखे महमूद गज़नी' हो जिसको प्राप्त करने के लिए हिन्दुस्तान की राजधानी तक में मेरी खोज बेकार गई, यद्यपि यूरोप में इस कृति की कितनी ही प्रतियाँ उपलब्ध हैं। इसके सूक्ष्म निरीक्षण से ही यह निर्णय किया जा सकेगा कि यह जखीरा उक्त कृति का ही अंश है या क्या, तभी हम किसी तरह उस राजा का नाम ज्ञात कर सकेंगे जिसने इस प्रकार जान झोंक कर वीरता से गजनी के सुलतान का सामना किया। एक बात और है, जिसका सन्तोषपूर्ण निश्चय होने पर और भी महत्व के परिणाम निकल सकते हैं; यह यह कि, क्या वर्तमान खण्डहर उसी मन्दिर के अभिन्न अंश हैं, जिसको महमूद ने ध्वस्त किया था और क्या उसका धर्मोन्माद 'बाल के मन्दिर' को अपवित्र करने तथा उसको इसलामी मसजिद में परिवर्तित ' इस विषय में हिन्दू-ग्रन्थों में तो कोई प्रामाणिक वृत्तांत नहीं मिलता है, परन्तु 'इन्ने असीर' नामक ११६० ई० में लिखित पुस्तक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उस समय भीमदेव प्रथम ही राजा था। -देखिए, रासमाला (हिन्दी अनु०) भा० १ पूर्वाद्धं (टिप्पणी पृ० १६१-१६४) Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; पाटण के पतन की कहानी [ ३६३ करने से ही शान्त हो गया था? यदि हमें इस बात का निश्चय हो जाय कि दरवाजे की मीनारें और मम्बार या मुल्लां का धर्मासन उसी के समय में छोड़े हुए हैं तो हम उसके द्वारा किए हुए विध्वंस का परिणाम ज्ञात कर सकते हैं। प्रत्यक्ष में किसी दूसरे इसलामी हमले का उल्लेख नहीं मिलता' इसलिए इस परिणाम पर पहुँचने के लिए यह और भी दृढ़ कारण उपस्थित हो जाता है कि कुमारपाल के बाद (जिसके लेख से ज्ञात होता है कि हम उसके प्रति मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिए आभारी हैं) कोई भी राजा इतना समृद्ध नहीं हुया कि जो इतनी विशाल इमारत को उठा सकता, क्योंकि उसकी मृत्यु के उपरान्त नहरवाला का साम्राज्य द्रुतगति से विनाश की ओर अग्रसर हो चुका था। परन्तु, यदि यह अनुमान ठीक भी निकले तो एक और प्रश्न खड़ा हो जाता है, जो बड़ी दुविधा में डालने वाला है; वह यह है कि महमूद से पूर्व विध्वंसक कौन हुआ ? और, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि विध्वंस या परिवर्तन इसमें अवश्य हुआ है क्योंकि एक स्तम्भाधार को ध्यानपूर्वक देखने से एक स्थल पर, जहाँ सामने का कुछ अंश हटा दिया गया है, एक भारी पत्थर पर मेरी दृष्टि पड़ी जिस पर संगतराशी का काम हो रहा है और जो अब भी नींव का मुख्य भाग बना हुआ है। इस पर तराशी हुई मूर्तियाँ उलटी हैं (अर्थात् पत्थर उलट कर रख दिया गया है) जो जीर्णोद्धार के अतिरिक्त और किसी अवसर पर सम्भव नहीं हो सकता। किसी भी प्रकार की हानि के लिए खुला होने के कारण यह भाग (यथावत् है और) यह बतलाता हैं कि वर्तमान नींव को भरने में अधिकतर प्राचीन इमारतों का मलबा ही काम में लिया गया है। परन्तु, महमूद से पहले के किसी ऐसे आक्रामक का हमको पता नहीं है जिसके धर्म में मूर्ति-भंजन कर्तव्य माना गया हो और न मध्य एशिया के इन्डो-गेटिक आक्रामकों में ही कोई ऐसा था, जो ऐसी बातों की परवाह करता हो। कम से कम हमको तो यह किसी ने नहीं कहा कि वे मूर्ति-भञ्जक थे; यद्यपि, यह अवश्य है कि उन्होंने रक्षकों को आत्मसमर्पण के लिए विवश करने को बलभी में सूर्य-कुण्ड को रक्त से भ्रष्ट कर दिया था। यद्यपि मेरे द्वारा बेला[रावल में खोज निकाले गए और मूलतः सोमनाथ से प्राप्त शिलालेख (परि० ७) के विषय को मैं अन्यत्र स्पर्श कर चुका हूँ, फिर भी इस स्थल पर उसको छोड़ कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता क्यों कि वह ' वास्तव में, सोमनाथ पर अन्तिम प्राक्रमण करने वाला महमूद बेगड़ा (१४६० ई०) था न कि महमूद गजनवी। -रासमाला (हिन्दी अनु० भाग २) टि० पृ० ११५ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] पश्चिमी भारत को यात्रा हमारे इस प्रसंग से संबद्ध है। ऐतिहासिक लेख के रूप में मैं इसके महत्व पर सविस्तार विवेचन कर चुका हूँ। इससे हमको दो स्पष्ट नए संवतों का पता चलता है-एक वलभी संवत् का और दूसरा सिंह (Seehoh) संवत् का; प्रथम संवत् ३७५ विक्रमाब्द से चालू है और वलभी के सूर्यवंशी राजारों से सम्बद्ध होने के कारण बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक दूसरे शिलालेख (परि० सं. ४) की खोज से इसकी सन्तोषप्रद सम्पुष्टि हो जाती है। इसमें कुमारपाल के राज्यकाल को सामान्यतया विक्रम-संवत् में न लिख कर वलभी-संवत् ८५० + ३७५ = १२२५ वि. संवत् लिखा है जब कि उसका चमत्कारपूर्ण राज्यारोहण हुआ था। यह संवत् पुण्यकाल मानने योग्य है क्योंकि तभी अणहिलवाड़ा का राजदण्ड ग्रहण करने से पूर्व प्राई हुई समस्त आपदाओं से वह निस्तार पा सका था।' ___ इण्डो-गेटिक आक्रमणकारियों द्वारा वलभी के विध्वंस का वृत्तान्त मेवाड़ के पुरालेखों में मिलता है, जिनमें यह घटना संवत् ३०० में हुई बताई गई है। निश्चय ही यह मूल (वलभो) संवत् हो होगा। इस प्रकार ३०० + ३७५ == ६७५-५६ (विक्रम-संव. और ईसवीय सन् का अन्तर) ६१६ ई० का समय वलभी के नाश और लोहकोट में कनकसेन के वंश की समाप्ति के लिए निश्चित होता है । यह ठीक वही समय है जिसको Cosmas (कॉसमस) ने एब्टीटीलॉस (Abtetelos) अथवा सफेद हूणों के जीतों अथवा जीटों के समूहों के साथ हुए आक्रमण का माना है, जो बाद में सिंध-घाटी में मीनागर (Minagara) स्थान पर बस गए थे। यहां हम फिर कहेंगे कि यह उस जाति का दूसरा आक्रमण था; पहला अाक्रमण दूसरी शताब्दी में हुआ था जैसा कि 'पॅरिप्लुम' के कर्ता ने लिखा है और द' अॉनविले, गिबन और डी गुइग्नीस आदि ने भी उसी का अनुकरण किया है। ये जातियां अपने कुटुम्ब के कुटुम्ब सौराष्ट्र में छोड़ गई थीं, परन्तु हम उनसे यह आशा नहीं करते कि उन्होंने मन्दिरों को ध्वस्त किया होगा। इस प्रसंग का हिसाब बैठाने में एक अनुमान हम और भी लगा सकते १ यहां पर ग्रन्थकार संवत् के विषय में कुछ गड़बड़ी में उलझ गए जान पड़ते हैं जिसका निराकरण होना असंभव है । कुमारपाल के राज्यारोहण का समय ११८६ वि० सं० है। [वास्तव में कुमारपाल का राज्यारोहण सं. ११९६ में हुआ था। इस एवं वलभी और सिंह संवत्सर के लिये कृपया देखिए---रासमाला, प्र. भा. उत्तरार्ध, हिन्दी अनुवाद, टिप्पणी पृ. ११०-१११ व ११७] । प्रेग (Prague) निवासी पादरी जिसने १२वीं शताब्दी में 'बोहेमियां का इतिहास' (Chronicon Bohemirum) लिखा था। यह पुस्तक १६०२ ई० में प्रकाशित हुई थी। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६, सोमनाथ पट्टण _ [ ३६५ हैं, यद्यपि है वह सम्भावना मात्र ही-वह यह है कि जिस शक्ति ने ७४६ ई० में चावड़ा-वंश के राजाओं को समुद्री लूटपाट के कारण दिउ अथवा देव-पट्टण से निष्कासित किया था और अणहिलवाड़ा की स्थापना की थी, वह प्राचीन लेखों के अनुसार वरुण न होकर खलीफा हारूं (की शक्ति) थो। बस, प्राचीन देव-पट्टण के विषय में इतना ही पर्याप्त है। वर्तमान नगर में लगभग नौ सौ घर हैं, जिनमें से दो सौ ब्राह्मणों के, चार सो मुसलमानों के, प्राय: इतने ही व्यापारी बनियों के तथा शेष सभी जाति के लोगों के हैं। यदि यह जनगणना ठीक है तो यहाँ की आबादी पाँच हजार के अन्दर-अन्दर होनी चाहिए। आसपास की दृश्यावली मनोरञ्जक है, जो प्राचीन वैभव से सम्बद्ध कितने ही उपकरणों से युक्त है-इनमें सुन्दर-सुन्दर जलाशयों की मुख्यता है जो यहाँ के निवासियों की सुविधा एवं विलाप के लिए बनाए गए थे। इनमें से पहला जलाशय उत्तरी द्वार से लगभग एक सौ गज की दूरी पर है । इसकी सम्पूर्ण परिधि अट्ठारह सौ गज है; आकृति में यह बहुकोण होने से वृत्ताकार के समान है। इसके चारों ओर ठोस अनघड़ पत्थरों की दीवार है और चारों ही तरफ से सीढ़ियों की पंक्तियाँ उतरती हैं ; केवल गिने-चुने स्थानों पर जानवरों के लिए उतर कर पानी पीने के खुरे बने हुए हैं। इससे उत्तरपश्चिम में प्राधो मील की दूरी पर भलका और पद्म-कुण्ड हैं, जिनके विषय में पहले लिखा जा चुका है। हिन्दू-मान्यता के इन अत्यन्त प्राचीन चिह्नों की रोचकता इस बात से और भी बढ़ जाती है कि इनसे उन स्थानों का पता चलता है जहाँ उत्तर से आने वाली सेनाओं ने अड़े जमाए थे; जैसे कि उपरिवर्णित हस्तलेख में बताया गया है कि महमूद ने भलका-कुण्ड के पास डेरा डाला था। पट्टण के चारों ओर बनी हुई अनगिनती मजारें इसलाम के नाम पर हजारों की संख्या में शहीद होने वालों की साक्षी दे रही हैं। हिन्दुस्तान के बड़े से बड़े शहरों में भी इनसे अधिक कलें देखने को नहीं मिलती। समुद्री तट पर एक विशाल ईदगाह है। ऐसा मालूम होता है कि एक नामहीन इमारत ने संस्थापक के कीति मन्दिर को नींव भी बालू पर रख दी है। बेलावल अथवा अधिक शुद्ध रूप में 'वेलाकूल' पट्टण का बन्दरगाह है और अणहिलवाड़ा के अच्छे दिनों में जब 'हुरमुज' का नूरूद्दीन यहाँ के जहाजी बेड़े का अध्यक्ष था, कितने ही परिणामों के लिए अभिमान का स्थान रहा है। यह बेड़ा अब छिन्न-भिन्न होकर केवल एक दर्जन पट्टामार नावों तक ही रह गया है, जो साधारण समुद्र-तटीय व्यापार में काम आती हैं अथवा यात्रियों को मक्का तक पहुंचा देती हैं । इसो किनारे के अन्य नगरों को भाँति इस नगर को भी 'यूरोप Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा के 'मूर्ति - पूजकों' ने बहुत हानि पहुँचाई, जिनके लालच और क्रूरता को दशवीं शताब्दी में तातार और तेरहवीं में अल्ला (उद्दीन) की अध्यक्षता में अफगान लोग भी मात न कर सके थे । एक प्राचीन समुद्री यात्रा विवरण के संकलन में से कुछ उद्धरण पहले दे चुका हूँ, जो १५३२ ई० में नूना डा कुन्हा (Nuna da Cunha) और उसके योग्य सहायक एण्टोनियो डी सलाडान्हा (Antonio de Saladanha) के आचरण से सम्बद्ध है । वास्तव में वे लोग प्रमाण-पत्र प्राप्त समुद्री लुटेरे थे प्रोर तदनुकूल आचरण के योग्य प्रत्येक कार्य पूरा करते थे जैसा कि उन्हीं के बान्धव स्पेनवासियों ने रक्त के प्रक्षरों में उनको 'आधुनिक संसार के अभागे प्रादिवासी' लिखा है । सोमनाथ के मन्दिर का मूर्ति-कक्ष Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १७ दूरी के ज्ञान में प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिट्टी की किस्म मन्दिर और शिलालेख, निवासी; चोरवाड़; महीर; मालिया, उन्याला अथवा उणियारा; जूनागढ़ ; प्राचीन इतिहास एवं वर्तमान दशा; प्राचीन दुर्ग का विवरण; याववों का सरोवर; 'बाहरबाट को गुफा'; अस्पष्ट प्रक्षर; गिरनार का प्राचीन शिलालेख, लिपि और अक्षर; देवालय; सांकेतिक लिपि के शिलालेख, भैरूं उखाळ ; निर्जन चट्टान; खंगार के प्राचीन महल । चूड़वाड़ [चौरवाड़] दिसम्बर ४ थी-अनुमानित नाप के अनुसार आज की मंजिल आठ कोस की थी; यह फासला सोलह मील से कम न था और सीधासीधा साढ़े चौदह मील तो था ही। जो बहुत सी बातें भारत में किसी यात्री के ध्यान में आती हैं उनमें से एक जो उसको आश्चर्य में डाल सकती है वह यह है कि यहाँ के प्रायः सभी लोगों को पास-पड़ोस के स्थानों की दूरी का सामान्य ज्ञान रहता है; यद्यपि अन्य देशों में माप को विभिन्नता हो सकती है परन्तु इनके ज्ञान में एक ही प्रकार की समानता और शुद्धता सर्वोपरि है। इसका कारण क्या है ? निश्चय ही यह संयोग की बात नहीं है और न केवल सामान्य कासिदों [दूतों द्वारा दिया हुआ विवरण ही इसका आधार हो सकता है। वास्तव में, ये उस प्राचीन सभ्यता के अवशेष हैं, जिसकी हम स्वभावतः अवगणना करते रहते हैं यद्यपि उसमें समाज के कल्याण, सुख-सुविधा और बौद्धिक विकास के सभी आधार विद्यमान रहे हैं, चाहे वह युगों पुरानी नैतिक एवं राजनैतिक परवशता के खण्डहरों के नीचे दबो रही हो, परन्तु अभी तक भी परम्पराओं तथा लेखों में वह निःशेष नहीं हुई है; और, इन दोनों ही प्राधारों से इस बात की सम्पुष्टि होती है कि बहुत प्राचीन काल में भारतवर्ष-भर में सड़कों की नाप के प्रकार प्रचलित थे। यही कारण है कि इस खुले देश में वाचिक अनुमान के आधार पर दूरियाँ कायम को हुई हैं, जो जरीब अथवा सतह नापने के यन्त्रों से मापने पर सही निकलती हैं । मेरे देशवासी यदि एक हजार अथवा पन्द्रह सौ मोल की पदयात्रा करें तो उन्हें 'कोस' की सभी विभिन्नताओं का परिचय प्राप्त हो सकता है क्योंकि वे अपने प्रातराश की भूख में यहाँ के निवासियों की मान्यतामों को सही-सही नापना अवश्य चाहेंगे और तब वे उनको 'सर्वशुद्ध' की ही संज्ञा देंगे, जब कि गांग-प्रदेश का साधारणतया दो मील का कोस आगे चल कर इतना लम्बा हो जाता है कि जिसको स्कॉटलैण्ड के पहाड़ी लोग (a we bittie) कहते है, जो प्रायः चार या पाँच मील का होता है । परन्तु इन विभिन्नताओं से देश में Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अनेक राजाशाही अन्तविभागों का पता चलता है, जिनमें अपने-अपने ढंग के सिक्के, तौल और माप प्रचलित थे और जिनमें परिवर्तन करने का अधिकार राजत्व का एक लक्षण अथवा विशेषाधिकार माना जाता था। इस प्रदेश की भूमि पिछले प्रदेश के समान ही है; भूमि का तल पानी के बहाव के कारण अनावृत हो गया है। हमने देखा कि इसमें वही झरझरी और बड़खनी (सहज ही में टूट जाने वाली) बजरी है जो बीच की उन पहाड़ियों की तलहटी में से बह कर समुद्र में आती है, जो प्रायद्वीप को बीचों-बीच से विभक्त करती है । खेतीबाड़ी केवल गाँवों के आस-पास ही होती है जहाँ गेहूँ और जो की ताजा फसलों तथा कहीं-कहीं सघन गन्ने की बढ़िया पाटियों क्षेत्रों की कमी नहीं है। हमारी स्थिति में थोड़ा-सा बदत होते ही पवित्र गिरनार की नई चोटियां दिखाई देने लगी और चोरवाड़ से सीधा फासला उ० २६° पू० में पचीस कोस अथवा पैंतालीस मील माप में पढ़ा गया। पट्टण से लगभग चार मील की दूरी पर अहीरों के गांव ढाब (Dhab) में दो मन्दिरों के खण्डहर हैं, जिनमें से एक सूर्य का देवालय था। यहाँ एक सुन्दर जलाशय अथवा बावड़ी भी है जिसमें, मुझे बताया गया कि, एक शिलालेख भी है, परन्तु दुर्भाग्य से वह पानी की सतह से नीचे था। हमने कितनी ही नदियाँ पार की और सुना कि इनमें से एक के समुद्र-संगम-स्थल पर चोरवाड़-माता का मन्दिर है तथा वहीं हनुमान की विशाल मूर्ति भी है । 'चौरवाड़' का अर्थ है'चौरों का नगर'- यह नाम सम्माननीय नहीं है, क्योंकि पुराने समय में तट का प्रत्येक बन्दरगाह समुद्री लुटेरों का अड्डा बना हुआ था । आजकल के निवासियों की जातियाँ दूसरे ही प्रकार का धन्धा करती हैं । वे लोग मुख्यतः रैबारी अथवा अहीर हैं, जो पशुपालक हैं । इसी प्रकार यहाँ कोरिया और रायजादा जाति के लोग भी थे; रायजादा प्राचीन चूड़ासमा शाखा के हैं, जो कभी इस भूमि के राय अथवा स्वामी थे। चोरवाड़ के ठाकुर जेठवा राजपूत हैं; यहाँ के सभी लोग भले और देखने में अच्छे हैं । नगर में तो कोई विशेष उल्लेखनीय बात देखने में नहीं पाई, परन्तु मुझे एक रोचक शिलालेख (परि० ८) मिल गया जो कोरॉसी (Koraussi) के प्राचीन सूर्य-मन्दिर से लाया गया था। इसको मैंने अपनी दाहिनी ओर थोड़ी दूर पर देखा । यह शिलालेख इसमें उत्कीर्ण प्रशस्ति की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है वरन् इसमें (मेवाड़ के राणाओं की) गेहलोतशाखा का उल्लेख भी मिलता है कि उन्होंने 'सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त की थी।' इससे अबुल फजल के उस कथन का प्रमाण मिल जात है, जो अन्यथा अप्र. माणित समझा जाता था कि अकबर के समय में 'सोरठ (सौराष्ट्र का संक्षिप्त Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण-१७; लुकागच्छोय यति [ ३६६ रूप) सरकार एक स्वतंत्र प्रदेश था;' यहाँ का स्वामी गहलोत-शाखा का था और उसके अधिकार में पचास हजार घुड़सवार तथा एक लाख पैदल थे।' यह स्मरणीय है कि मेवाड़ में संस्थापित हो जाने के बाद तक इस जाति का परम आराध्य देव सूर्य ही था और अब भी, उस समय जितना तो नहीं, परन्तु मुख्य देवता के रूप में उसकी मान्यता अवश्य है । मैं अपनी इस खोज के लिए लुकागच्छ के एक जैन यति के प्रति आभारी हूँ, जो विनम्र, अप्रभावित, विद्वान् और प्रायद्वीप में अपने धर्म से सम्बद्ध मन्दिरों के विषय में पर्याप्त और प्रत्येक जानकारी रखने वाला था। उसने केवल प्रानन्द और ज्ञानवृद्धि के लिए ही बहत सी यात्राएं की थीं और यद्यपि पहले किसी-किसी फिरंगी से उसका वास्ता नहीं पड़ा था, फिर भी मैंने देखा कि उसमें किसी प्रकार की झिझक नहीं थी और वह अच्छा वक्ता भी था। लंका-लोग ईश्वरवादी हैं; वे केवल 'एक' को मानते हैं और 'कलापूर्ण निर्मित मन्दिरों' में विश्वास नहीं करते, न कभी उनमें प्रवेश ही करते हैं। वे पर्वत-शिखरों और एकान्त जङ्गलों को ही उपासना के लिए अधिक उपयुक्त स्थान समझते हैं। वे चौबीस तीर्थङ्करों के उपदिशों की प्रशंसा करते हैं और उनको अति-मानव मानते हैं जिनकी शुद्धता और जीवन की पवित्रता के कारण देवी कृपा के प्रसादरूप में उनको मोक्ष प्राप्त हुई । अतएव वे उन्हें पूज्य और मध्यस्थ (मोक्ष-प्राप्ति में सहायक) मानते हैं, आराध्य नहीं। मेरे नवीन मित्र ने 'पवित्र पर्वत' तक मेरे साथ यात्रा करना और मेरी शोध में सहायता करना स्वीकार कर लिया है। प्रसन्नता है कि मेरे गुरु 'ज्ञान के चन्द्रमा' भी बड़े उत्साह से इस व्यक्ति से स्पर्धा करने को तत्पर हैं, जो उनके विशाल ज्ञानभण्डार में कुछ वृद्धि कर सकेगा। . सूबा गुजरात की सरकारों में सोरठ (काठियावाड़) सरकार भी सम्मिलित है, जिसमें १२ महाल (१३ बन्दरगाहों सहित) हैं। सरकार की प्राय ६३,४३,७६६ दाम है । --आईन-ए-अकबरी (अनु० एच० एस० जैरट) भाग २, पृ० २६३ २ वास्तव में ये अनीश्वरवादी हैं । इस गच्छ का संस्थापक अहमदाबाद निवासी लौंका या लुंपाक नामक लेखक था । लेख में चूक रहने के कारण ज्ञानजी यति द्वारा तिरस्कृत हो कर उसने लींबड़ी निवासी राज्याधिकारी लखमसी बनिए के सहयोग से अपना मत वि० १५२४ में चलाया । ये लोग ४५ पागम छोड़ कर केवल १२ सूत्र मानते हैं और प्रतिमापूजन प्रादि में विश्वास नहीं करते। १५३३ वि० में भाण ऋषि ने इसे अंगीकार किया और नागोरी, गुजराती व उत्तरी नाम से तीन गद्दियां कायम हुई। -रत्नसागर, (जैन इतिहास) भाग ५, पृ० १२३ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] पश्चिमी भारत की यात्रा ___ चौरवाड़ काफी बड़ा है, जिसमें लगभग पन्द्रह सौ घर होंगे, यद्यपि इनको पूरी तरह प्राबाद नहीं कहा जा सकता। जातियाँ बनिये और मुसलमानों की हैं, परन्तु मुख्यतः यहाँ पर पशु-पालक अहीर और एक और जाति के लोग हैं, जिसके विषय में मैंने पहले कभी नहीं सुना । इस जाति का नाम हाथी (Hathi) है; ये लोग सूरत-शकल और व्यवसाय में अहीरों के समान हैं और प्रायः मध्य सौराष्ट्र के बहुत से भागों में बसे हुए हैं। इस एकाकी और अपराध-वृत्तिरहित जाति के विषय में मैंने अन्यत्र विवरण लिखा है, जो प्राचीन समय में कभी विशिष्ट रही है और अब भी इन लोगों में 'पल्लि' जाति के अवशेष होने के सभी चिह्न पाये जाते हैं। मध्यभारत में एक विशाल भू-भाग इन्हीं के नाम पर अहीरवाड़ा कहलाता है, जो उस क्षेत्र के बीचों-बीच है, जहाँ प्रत्येक वस्तु, जैसे, नगर आदि के नाम के अन्त में 'पाल' जुड़ा रहता है और जहाँ राजाओं का एक लम्बा वंश चला था, जिनकी राजधानी भेलसा, भोपाल आदि नगर थे, जहां प्राचीन बौद्ध वास्तुकला के कुछ उत्तम अवशेष और शिलालेख उस भाषा में मिलते हैं, जो 'पालो' कहलाती है। इन सभी बातों से ज्ञात होता है कि इस पशुपालक जाति की परम्पराएं उस अभिप्राय को सिद्ध करती हैं, जो दिनोंदिन जोर पकड़ता जाता है और जिसका सूत्रपात मैंने ही किया था, कि इस जाति का मूल निवास भारत में नहीं था।' अकबर के राज्य में अहीरों का सौराष्ट्र प्रायद्वीप में राजनैतिक महत्त्व था; अबुलफ़जल कहता है कि "डूंडी नदी के किनारे इन लोगों का एक उपजिला था, जो स्थानीय भाषा में 'पुरञ्ज' कहलाता था। यहां तीन हजार घुड़सवारों और इतने ही पैदलों की सेना थी, जो जाम (जाड़ेचा) की जाति से सदा विद्रोह करती रहती थी। इस बुद्धिमान् विश्व-विवरण-लेखक ने काठियों को अहीरों की ही एक शाखा मान लिया है, परन्तु साथ ही यह भ्रान्तिपूर्ण अभिप्राय भी प्रकट किया है कि 'कुछ लोग इस शाखा को मूलत: अरबी मानते हैं'- यह भूल सम्भवतः इन लोगों की विशिष्ट अश्व-प्रियता के कारण उत्पन्न हुई मालूम होती है। निस्सन्देह, यह हो सकता है कि ब्राह्मणों, पण्डों और पुजारियों की कट्टरता से तंग आकर, लूट-पाट और पशु-पालन-व्यवसाय के कारण अहीरों के रंग-ढंग और रहन-सहन स्वतंत्रतापूर्वक काठियों से मिल गए हों। मालिया (Mallia) दिसम्बर ५वीं-सात कोस । यह स्थान बहुत प्राचीन है, परन्तु इसके बहुत थोड़े ही अवशेष उपलब्ध हैं। यह एक सुन्दर झरने के 'बाद की शोध में ग्रन्थकर्ता के इनमें से अधिकांश अनुमान भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध हो गए हैं । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १७; उनियाला, जूनागढ़ [ ३७१ किनारे पर बसा हुआ है, जो उधर ऊपर की पहाड़ियों से निकलता है। आज की सुबह की यात्रा में मनुष्यों की दशा प्रायः ठीक नहीं रही; रास्ते के गांव छोटे-छोटे, दरिद्र और बे-चिराग से हैं; खेतीबाड़ी भी विरल और उपेक्षित सी ही दिखाई दी। मालिया में मुख्यतः बनियों और रैबारियों की बस्ती है। दूसरा गाँव, जिसमें होकर हम निकले, काठियों और हाथियों का है, परन्तु वहाँ बहुत से राजपूत भी थे, जिनकी जाति मेरे लिए सर्वथा नई थी; वे 'करिया' राजपूत थे और अपना निकास परमारों से बताते थे-कुछ कोली-परिवार भी इन लोगों में हिल-मिल गए थे। उनियाला अथवा उनियारा-दिसम्बर ६ठी-नौ कोस । हमारा मार्ग लगातार चढ़ाई और एक फैले हुए मैदान में होकर था। मंजिल की समाप्ति के निकट ही शेरगढ़ की प्राकारयुक्त चौकी थी, जहाँ से समुद्रतट-स्थित माँगरोल नगर साफ दिखाई देता था। ऊनियारा से 'ऊन' अर्थात 'गर्मी के घर का तात्पर्य है; यह नाम, मैं समझता हूँ, इसकी दक्षिणी और असुरक्षित स्थिति का परिचायक है । यहाँ के निवासी मुख्यतः मुसलिम और लोबाना (Lobana) जाति के बनिए हैं, जिनका उद्गम भाटी राजपूतों से है और जो सिन्ध की घाटी में बहुत मिलते हैं। जूनागढ़-दिसम्बर ७वीं-नौ कोस । आज सुबह की मंज़िल में, जो लगभग अद्वारह मील की थी, हमें बहुत थोड़े गाँव मिले। ये सभी दूर-दूर जंगलों और झाड़ियों के बीच में थे। सच बात तो यह है कि 'उणियारा से जूनागढ़ तक सब उजाड़ ही उजाड़ पड़ा है', फिर भी, इसमें कोई अरोचक बात नहीं थी क्योंकि प्रत्येक कदम पर हम उस पवित्र पर्वत के समीप पहँच रहे थे जो हमारी यात्रा का महान् लक्ष्य था। गाँवों में मुख्यतः अहीर लोग बसे हुए थे जो बस्ती के प्रासपास छुट-पुट खेतो भी कर लेते थे; परन्तु, यहाँ की हर चीज यह बता रही थो कि मानव का अत्याचार ही विकास में बाधक बन बैठा था और यहाँ तो लोगों को तो, दोनों ही, धार्मिक एवं राजनैतिक विपरीतताओं को सहन करना पड़ता था क्योंकि यहाँ का सूबेदार मुसलमान था। ___ जूनागढ़ का अतीत समय की धुन्ध में खो गया था; परम्परागत कथाएँ और वर्तमान इतिहासज्ञ यही कहते हैं कि यह 'बहुत जूना' है और वास्तव में इसकी स्थापना की कोई तिथि ज्ञात न होने के कारण बहुत पहले से ही इसको 'पुराना किला' अर्थात् जूनागढ़ कहते आये हैं। उपलब्ध पुराने लेखों से ज्ञात होता है कि यह यादव-शाखा के राजाओं की राजधानी रहा है । जब मेवाड़ के राणा के पूर्वज वलभी के सर्वसत्ता-सम्पन्न स्वामी थे तब भी ऐसा ही कहा जाता था और Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा जब उस वंश के अन्तिम राजा माण्डलिक का महमूद बेगचा [ड़ा] के द्वारा नाश हुआ तब भी यही मान्यता थी। इससे हम अधिकारपूर्वक यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्रृंखला टूटी नहीं थी और इसलिए जब महमूद ने ईसा की दसवीं . शताब्दी में आक्रमण किया तब भी यहाँ पर कोई यदुवंशी राजा ही राज्य कर रहा था । अब ज़रा देखें कि प्रबुलफजुल सौराष्ट्र के प्रांकिक विवरण में यहाँ के विषय में अकबरकालीन परिस्थिति का कैसा विवरण देता है--नौ जिलों में बंटा हुआ, जिनमें प्रत्येक में अलग-अलग जाति के लोग बसे हुए थे; पहले भाग का, जो साधारणतया 'नवसोरठ' कहलाता है, बहुत समय तक घने जंगलों और पहाड़ियों की भूल भूलैयाँ के कारण पता नहीं चला था । संयोग से एक आदमी उधर भटक गया और उसने अपनी शोध का विवरण दूसरों को दिया । यहाँ पर पत्थर का बना हुआ एक किला है जो जूनागढ़ कहलाता है। इसको सुलतान महमूद ने जीत लिया था और इसी की तलहटी में दूसरा छोटा किला बनवाया था।' जूनागढ़, यद्यपि अब बस गया है, परन्तु देखने में वस्तुतः वैसा ही है जैसा कि अबुल फजल ने सदियों पहले बयान किया है । यह चारों प्रोर कुछ मील चौड़ी घने जंगल की पट्टी से घिरा हुआ है, जिसमें मुख्यत: कँटीले बबूल आपस में ऐसे गुंथे हुए हैं कि उनको पार करके अन्दर घुसना असम्भव है; फिर भी, दो तीन जगह पास के मुख्य-मुख्य गाँवों में जाने के लिए बबूल काट कर मार्ग बना दिए गए हैं। जंगल की ऐसी पट्टियाँ [ वन - मेखलाएं] मनु के आदेशानुसार रखी जाती हैं, जिसका विविध विषयक धर्मशास्त्र जिस प्रकार युद्ध-कला का विधान करता है उसी प्रकार नागरिक, सामाजिक एवं धार्मिक नियमों के उल्लेखों से भी समन्वित है । इस जंगल से सुरक्षा के साधनों में अभिवृद्धि होती है या नहीं, यह दूसरी बात है, परन्तु इतना अवश्य है कि इससे घिरे हुए स्थान १ प्राईन-ए-अकबरी, भाग २, १०६६, ग्लेडविन । व्यक्तिवाचक और विशेषतः भौगोलिक नामों में गड़बड़ी पैदा करने वाली अरबी श्रौर फारसी भाषा से बढ़ कर और कोई भाषा नहीं है। अबुल फजल का एतत्प्रान्तीय प्रांकिक संकलन प्राचीन नगरों और पुरुषों के नामों में अस्पष्टता होने के कारण ही अपना बहुत-सा महत्व खो बैठा हैं। जूनागढ़ धोर 'चूनागढ़' में तो थोड़ा ही अन्तर है परन्तु, 'बेराञ्जी' (Beranjy) और 'गोरीनर' (Gowereener ) को पढ़ कर शत्रुञ्जय और गिरनार के पवित्र पर्वतों का अनुसंधान कौन करेगा ? (पृ. ६७) फिर, तीसरे जिले का विवरण देते हुए वह लिखता है। 'सिरोंज पहाड़ की तलहटी में एक बड़ा नगर है जो अब टूटा-फूटा पड़ा है' इससे कौन अनुमान लगाएगा कि वह शत्रुञ्जय और पालीताना की बात कह रहा है ? इत्यादि । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १७; जूनागढ़ [ ३७३ अस्वास्थ्यकर अवश्य हो गए हैं, क्योंकि यहां के निवासियों को धनी वनस्पतियों में निरन्तर ही अशुद्ध वायु में श्वास लेना पड़ता है । इसका हमको भी अनुभव हुआ, क्योंकि मौसम के विचार से वर्ष का सबसे अधिक स्वास्थ्यदायक काल होने पर भी बहुत थोड़े दिनों के पड़ाव में ही हमारे साथियों में बहुतों को बुखार हो गया । पुराने जमाने में यह नगर सात कोस अथवा चौदह मील के गिरदाव में था और वर्तमान घेरे से, जो अब पाँच मील से अधिक नहीं है, बहुत दूर तक फैला हुआ था; परन्तु, यह सिकुड़ा हुआ क्षेत्र भी इस आबादी के लिए बहुत ज्यादा है, जो पाँच हजार प्रात्मानों से अधिक को नहीं है। अधिकतर लोग नागर और गिरनारा ब्राह्मण जाति के हैं; इतनी ही संख्या में मुसलमान होंगे और शेष में खेतिहर तथा कारोगर लोग हैं, जैसे अहीर, कोली आदि; राजपूत कोई होंगे तो बहुत थोड़े। 'जूनागढ़' का वर्तमान स्वामी एक बांबीजाति का मुसलमान है, जो नवाब का विरुद धारण करता है और गायकवाड़ को खिराज देता है। उसकी आय बहुत थोड़ी है और उसकी महत्त्वाकांक्षाएं उसके अन्तर में उसी तरह घुटी हुई हैं जैसे कि उसका किला जंगल की पट्टी से घिरा हुआ है; वह खण्डहरों में रहता है। जूनागढ़ को किसी भी अोर से देखें तो ध्यान तुरन्त ही इतिहास के उस प्राचीनतम काल तक पहुँच जाता है, जिसको स्पष्ट रूप से सौराष्ट्र पर राज्य करने वाली यादवों की प्रथम शाखा का समकालीन कहा जा सकता है और सम्भवतः तब यह देश मिनान्डर (Menander) और अप्पोलोडोटस (Appolodotus)' का मुकाबला करने वाले तेसारिमोस्तस (Tessarioustus) तेजराज] का आवास बना हुआ था। प्राचीनता की दृष्टि से आदरणीय और स्थिति के कारण आकर्षक जूनागढ़ को इसकी बहुसंख्यक ठोस चौकोर छतरियाँ और सच्छिद्र परकोटा सुदृढ़ता और गौरवपूर्णता का स्वरूप प्रदान करते हैं। निस्सन्देह, बारूद के आविष्कार से पहले यह जितना अभेद्य और सुदृढ़ माना जाता था उतने ही गौरव को अब तक भी धारण किए हुए है। इसकी तत्कालीन चुनी हई स्थिति बलुआ पत्थर की एक रेतीली श्रेणी के चढ़ाव के अन्तिम छोर पर है। यही कैंकरीली मिट्टी सौराष्ट्र की मध्य-श्रेणी की तलहटी से समुद्र तक इस देश के भूमि-तल में व्याप्त है और इस स्थल पर पाकर तीस गज ऊँचे पठार तक चढ़ गई है। यहीं से उत्तर-पूर्वीय कोण में राजप्रासाद हैं, जो अपने-आपमें एक विशाल इमारत है और जो इस कठोर पत्थर वाली श्रेणो से केवल सोनारिका नदी के बीच में आ जाने से पृथक् हो गए हैं। । सिकन्दर के सेनापति । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा __ 'जनागढ़' की निर्माण प्रायोजना को किसी वर्ग-विशेष में नहीं रखा जा सकता। यह एक अनियमित विषम-कोण एवं विषम-बाहु प्राकृति वाला क्षेत्र है, जिसको ऊपर का रेखाचित्र देख कर हो अच्छी तरह समझा जा सकता है । मैंने इसके कोणों को लेकर चाहरदीवारी के तीन तरफ कदमों से माप कर बनाया है। दक्षिणी दीवार, जो सबसे छोटी है और जिसमें मुख्य द्वार भी है, केवल ७०० गज लम्बी है; पूर्वीय मुख, जिसमें भी एक द्वार बना हुआ है, एक सीधी दीवार के रूप में है और ८०० गज का है। इनमें प्रत्येक अोर सत्रह-सत्रह छतरियां बनी हुई हैं और उनके बीच की पतली दीवारों से अधिक जगह रुकी हुई नहीं है। पश्चिमी दीवार सबसे बड़ी है और लगभग दो मील लम्बी है। उत्तरी दीवार अत्यन्त टेढ़ी-मेढ़ी है; यह लम्बाई में एक सौ गज अधिक है और इसके सिरे पर भी एक द्वार बना हुआ है। इस प्रोर की विशाल प्राकार-भित्ति सोनारिका के किनारे-किनारे चलो गई है, जो गहरी-गहरी करारों की चट्टानें काट-काट कर बनायी गई है; अतएव यह दीवार सर्वाधिक सुदृढ़ है। चट्टान को ही काट कर एक खाई भी बनाई गई है जो कहीं बीस और कहीं तीस फीट गहरी है तथा इससे कुछ ही कम चौड़ी है; इससे निकली हुई सामग्री से ही किले की दीवारें बनो हैं, जो ठीक खुदी हुई दीवार के ऊपर ही उठाई गई हैं कि जिससे चारों तरफ साठ से अस्सी फीट तक ऊंचा प्राकार बन गया है और जहाँ-जहाँ नदी का किनारा आ गया है वहां-वहाँ तो सौ फीट की सीधी ऊँचाई हो गई है। परकोटे पर बाहर की ओर तोप रखने के स्थान से क्रमिक ढलाव भी है कि Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १७; जूनागढ़ [ ३७५ जिससे यदि उन दिनों में तोपें भी दागो जाती तो, दोवार के मलबे से खाई के भर जाने की कभी कोई आशंका नहीं थी । उत्तर की ओर से दृश्य और भी प्रभावकारी है। पहाड़ी श्रेणी के खुले भाग में से एक मात्र गौरवपूर्ण गिरनार दिखाई पड़ता है, जिसके प्राकृतिक प्रवेश-द्वारों में से एक का सार्थक नाम दुर्गा 'दुर्गस्था प्रकृतिमाता' (Cebeile) के नाम पर है और उधर 'स्वर्ण-प्रवाहिनी' सोनारिका सँकडे मार्ग में होकर किले की दीवारों की ओर बहती हुई दृष्टिगत होती है, जिससे वियुक्त होते ही दोनों प्रोर किनारों पर छाये हुए घने जंगलों की छाया से इसका मुख मलिन पड़ जाता है । मिस्टर विलियम्स के प्रभाव से हमको किले में प्रवेश मिल गया। कहते हैं कि यह सुविधा पहले किसी यूरोपियन को प्रदान नहीं की गई थी। यद्यपि इसके भीतर की सभी प्राकृतिक समृद्धि समाप्त हो चुकी है, परन्तु अब भी बाहर से पूर्णतया प्राचीनता के अनुरूप उत्साह से ही इसकी रक्षा की जाती है । द्वार पर सैनिक रक्षा-दल ने हमारा स्वागत किया; सैनिकों की संख्या को देखते हुए सम्मान अथवा अविश्वास, दोनों हो अर्थों में अनुमान लगाया जा सकता है । परन्तु क्योंकि विशाल दरवाजे के चूल पर चरमराते हुए किवाड़ आधे ही खोले गए इसलिए दोनों ही तरह के मनोभावों के कारण ऐसा हुआ होगा, ऐसा सोच लेने में हमसे भूल नहीं हुई । यदि नगर की प्राचीनता के विषय में किसी प्रकार का सन्देह उत्पन्न हो तो किले को देखते ही वह दूर हो जाता है। यहाँ का प्रत्येक पत्थर हमें अतीत के उस समय की याद दिलाता है जब कि छप्पनकुल यादव भारत में सार्वभौम सत्ता का उपभोग करते थे। शामनाथ (बाद में जिन्हें देवत्त्व प्राप्त हुआ) के सौराष्ट्र में राज्यकाल का कोई भी समय निर्धारित किया गया हो, परन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि जब राणा के पूर्वज कनकसेन ने पञ्जाब में लोहकोट से आकर दूसरी शताब्दी में 'बालकादेश' पर विजय प्राप्त की तब भी यहाँ पर कोई यदुवंशी राजा राज्य करता था। हम गढ़ के दक्षिण-पश्चिमी कोने में दो विशाल अर्धचन्द्राकार मोरियों में से प्रविष्ट हुए, जो मुख्यद्वार की रक्षा के लिए बनी हुई थीं। पहले दरवाजे को पार करके हम एक चौक में पाए, जिसके दूसरे सिरे पर एक बहुत प्राचीन ढंग का दूसरा दरवाज़ा बना हुआ है । प्रत्येक दरवाजे के बाहर को प्रोर तो नुकोली मेहराब बनी हुई है, परन्तु भीतर की ओर बड़े-बड़े प्रयानिट पत्थरों के शीर्ष बने हुए हैं जिनके खुरदरे संगमरमर पर मोटो कुराई का काम हो रहा है। ये शीर्षपट्ट हर तरफ चार-चार खम्भों पर टिके हुए हैं, जो भो उसी पत्थर के बने हुए हैं। बोच में एक विशाल प्रांगन है जो - दरवाजों से घिरा हुआ है । इन दोनों Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा ही पर द्वार और चौक की सुरक्षा के लिए बड़े-बड़े और सुदृढ़ रक्षा-कक्ष बने हुए हैं। दरवाजों पर नोकदार मेहराब बनाने के लिए उन्हें दलदार लकड़ी से ढँक दिया गया है और ऊपर लोहे के पत्तरों से मंढ दिया है, जो मौसम के प्रभाव से पूरी तरह काले पड़ गए हैं। परन्तु इस दुर्ग-द्वार में जो सब से अधिक श्राकर्षक बात मुझे लगी वह यह थी कि रक्षा कक्ष के प्रवेशद्वार से बाहर की प्रोर देखती हुई चूने की तलवारें और ढालें काफी उभरी हुई आकृति में ऐसे मुख्य स्थान पर बनाई गई थीं जहाँ दर्शक की दृष्टि पड़े बिना न रहे। ऐसी स्थिति में किसी 'आदर्श वाक्य' की श्रावश्यकता नहीं होती क्योंकि ये उपकरण अपना विषय प्राप ही स्पष्ट कर देते हैं । परन्तु जिन लोगों ने रूस के वाराञ्जियन (Varangian) शासकों का प्राचीन इतिहास पढ़ा है उन्हें रूरिक ( Rurik)' के पुत्र द्वारा बाइजेण्टिअम (Byzantium) के दरवाजे पर लटकाई हुई ऐसी ढाल की खूंटियों का अवश्य ध्यान आ जाएगा जब कि वह अस्सी हजार सेना लेकर बोरिस्थिनीज ' ( Borysthenes ) से गुजरा था और ग्राठवीं शताब्दी में ही उस नगर पर, जो आज तक भी उनका नहीं है, ऐसे ही शब्द जड़ दिए थे । हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वाराञ्जियन (Varangian) नारमन (Norman जाति के थे और उस समय तक भी अर्द्ध एशियाई थे; और हम इतना और जोड़ देते हैं कि जब वाराजियन सैनिकों ने युद्ध-सन्धि को निबाहने के लिए 'अपने शस्त्रों की शपथ खाकर' सम्पुष्टि की थी तो हम यह कल्पना कर सकते हैं कि राजपूत थे 1 3 वे इन रक्षा-प्राकारों को छोड़ कर हम ठोस चट्टान में काट कर बनाई हुई 1 रूरिक मूलतः स्केण्डेनेविया का रहने वाला था । उसने उत्तर पश्चिमी रूस में अपना साम्राज्य स्थापित किया था ( ८५० ई० हवीं शती) । उसके उत्तराधिकारी और पुत्र इगर Igor के संरक्षक ड्यूक प्रोलेग (Duke Oleg) ने श्राधुनिक रूस की नींव रखी थी । कुस्तुन्तुनिया के लोग इनके सिपाहियों के युद्धकौशल की बहुत प्रशंसा करते थे और इनको वाराजियन कहते थे —The Outline of History, H. G. Wells; p. 658 २ बॉस्फोरस नदी के तट पर स्थित एक प्राचीन ग्रीक नगर जो वर्तमान कुस्तुन्तुनिया की पूर्वतम सात पहाड़ियों पर स्थित था । कहते हैं कि यह नगर ई० पू० ६६७ में निर्मित हुआ था । 3 योरप की महानदी जिसका मूल नाम Dnieper ( नीपियर ) था । ग्रीकों ने इसको बोरिस्थिनीज़ नाम दिया । यह वाल्डाई की पहाड़ियों से निकलती है जो सुप्रसिद्ध वॉल्गा के उद्गम से अधिक दूर नहीं है । यह नदी लगभग ११ हजार मील लम्बी है और श्यामसमुद्र ( Black Sea ) में मिल जाती है । - E. B. Vol. VII, p. 306 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खडार के महल और मन्दिर S पश्चिमी भारत की यात्रा Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १७; जूनागढ़ [ ३७७ सोपान-सरणि द्वारा किले की उस खुली रविश पर गए जहाँ तोपें रखी जाती थीं। इस दुर्ग के भीतरी भाग में कैसी भी शानदार इमारतें रही हों परन्तु हिन्दुओं द्वारा बनवाई हुई एक भी इमारत अब नहीं बची है । एक विशाल भवन ने किले की मुंडेर को हड़प लिया. है-यह है एक विशाल मसजिद, जिसका निर्माण काफ़िर राजपूत पर इसलाम की विजय को चिर-स्मृत करने के लिए (भग्न) मन्दिरों और यादवों के महलों के मसाले से किया गया है । इसका श्रेय राजा माण्डलिक की पराजय पर सुलतान मोहम्मद बेगचा (महमूद बेगड़ा) को दिया जाता है । एक के बाद एक आने वाला प्रत्येक विजेता केवल एक ही समान लक्ष्य से प्रेरित हुआ जान पड़ता है और वह यह है कि जितने अधिक मन्दिरों को 'सच्चे ईमान' [इसलाम] के नाम पर कुर्बान किया जायगा उतना ही अधिक ऐहिक यश और पारमार्थिक श्रेय उसे प्राप्त होगा। परन्तु यहाँ भी, जहाँ तक ईमान का सम्बन्ध है, उनकी करारी हार हुई है, क्योंकि मकबरा हो, मसजिद हो या ईदगाह हो-वे बेमेल विशाल ढेर, विधान में मुसलिम होते हुए भी उनके प्रत्येक अवयव और सामग्री के विचार से तो हिन्दू ही हैं। बेमेल कहने से मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि इस इमारत को या इसके निर्माता को इस कलाकृति का समुचित श्रेय देना में अस्वीकार करता है, क्योंकि इसकी बना. वट विलक्षण है और शिल्पी ने इसके निर्माण में एक ऐसी कृति उपस्थित कर दी है कि जिसकी एकरूपता, विस्तार, दृढ़ता और स्वाभाविकता को देखते हुए इसे गौरवपूर्ण का विशेषण देना समुचित ही होगा। जब मैं यह कहै कि इसकी लम्बाई एक सौ चालीस फीट और चौड़ाई एक सौ फीट है, इसके ढंके हुए और खले दालान ग्यानिट पत्थर के बने हुए गोल और चोकोर दो सौ स्तम्भों पर आधारित हैं तो पाठक स्वीकार करेंगे कि फैलाव के विचार से मेरे द्वारा दिया हुआ उक्त विशेषण अनुपयुक्त नहीं है। इसके तीन विभाग हैं, एक मध्य का और दो पावों में । मध्य भाग में तीन अष्टकोण हैं। इनमें से प्रत्येक की लम्बाई तीस फीट है और हर एक चारों ओर खम्भों से घिरा हमा है । खम्भों का आपस में अन्तर आठ-पाठ फीट का है। ऐसा ज्ञात होता है कि सामान्य हिन्दू-पद्धति के अनुसार इनको गुम्बजों से आच्छादित करने की योजना थी क्योंकि तीस-तीस फीट ऊँचे ग्यानिट के गोल अस्थायी खम्भे अब भी खड़े हैं; इनमें से प्रत्येक स्तम्भ नाप-जोख के हिसाब से तीन बराबर के भागों में विभक्त है और ये छतरी का काम पूरा होने तक उसको साधे रहने के लिए बीच-बीच में खड़े किए गए थे। पार्श्व-भाग के स्तम्भ चौकोर हैं । ये भी सब प्रयानिट के ही बने हुए हैं, प्रत्येक की ऊंचाई लगभग सोलह फीट है और इनके शोर्ष तथा Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पिडगियाँ (आधार) शुद्ध सादे हैं । स्तम्भों के प्रत्येक युग्म पर भारो-भारी मध्यपट्ट मिठोठ] रखे हुए हैं जिन पर सीधी छत टिकी हुई है। मध्य की छतरी के चारों ओर प्रत्येक दो खम्भों को एक नोकदार मेहराब से जोड़ा गया है जिससे निर्माण के भारी स्वरूप को बहुत कुछ सहारा मिल जाता है। उत्तर को ओर (और यदि मेरी टिप्पणी गलत नहीं है तो शायद पश्चिम की ओर भी) काम पूरा हो चुका है। दूसरे भाग खुले पड़े हैं और नुकीली मेहराबें दो दो खम्भों पर खड़ी हैं । एक तकिया अथवा पाड़ा पर्दा, जो रंग-बिरंगे एक ही संगमर्मर पत्थर का बना हुआ है और अट्ठारह फीट लम्बा तथा दस फीट चौड़ा होगा, बहुत बढ़िया कारीगरी का नमूना है। बहुत से ऐसे कारण हैं जिनसे यह विश्वास हो जाता है कि यह इमारत अन्य मन्दिरों के मलबे से ही बनवाई गई है। मुख्यत: इन खम्भों और पवित्र पर्वत पर कुछ अर्द्धभग्न मन्दिरों के बचे-खुचे खम्भों की माप एवं प्राकृति समान है। कुमारपाल के मन्दिर का भव्य मण्डप पूर्णतया उतार लिया गया है और इसी प्रकार नेमिनाथ का भी-इनकी माप मसजिद की मनोनीत गुम्बजों के ठीक बराबर है । पर्वतस्थित सोमप्रीत राजा [सम्प्रतिराज की छतरी, जिसका व्यास भी इतना ही है, निस्सन्देह, तीसरी गुम्बज़ के लिए निर्धारित रही होगी। परन्तु, मृत्यु के कारण निर्माता के मनसूबे पूरे न हो सके, अथवा विद्रोह के कारण इसका पूरा पूरा पता नहीं चलता । अत एव ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व हुए इस जनमत के प्रधान अनुयायी का यह स्मारक ग्रयानिट पत्थर को नींव पर उसी पत्थर का बना हुआ अब भी यथावत् खड़ा है। ___ हाँ, यादवों का एक अमर स्मारक यहाँ पर और है-वह है एक सरोवर, जो ठोस चट्टान में खोद कर बनाया गया है और गहराई में एक सौ बोस फीट से कम नहीं है। इसकी प्राकृति वृत्ताकार है (जो क्रमश: नीचे की ओर छोटी होती चली गयी है); इसका सब से बड़ा व्यास पचहत्तर फीट के लगभग है। चट्टान के पत्थर पर राजगीरी [चूने] का काम है। इस दुर्ग के एक और प्रबल रक्षोपकरण को हम नहीं भुला सकते; वह है पीतल की एक विशाल तोप जो पश्चिम की ओर निकले हुए खुले चबूतरे पर रखी हुई है। इसकी लम्बाई बाईस फीट, जोड़ पर व्यास दो फीट दो इञ्च, मुखभाग पर उन्नीस इञ्च और मुखछिद्र पर सवा दस इञ्च है। इस पर दो लेख उत्कीर्ण हैं जिनसे पता चलता है कि यह टर्की में ढाली गई थी। इसमें सन्देह नहीं कि यह सुलेमान (Solomon) महान् के काफिले के साथ यहाँ पाई थी, जिसने पन्द्रहवीं शताब्दी में देव (Diu) द्वीप पर अाक्रमण कर के गुजरात के राजा के मुकुट के रत्न प्राप्त कर लिए थे। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकररण [ ३७६ इस 'पुराने किले ' ( जूनागढ़) में ऐसे ही कुछ देखने योग्य पदार्थ हैं; वैसे, अब यह बिलकुल जंगल हो गया है, जिसमें शरीफे के पेड़ों की मुख्यता है ! Stables - १७; खापरा चोर की गुफ़ा उत्तर-पश्चिम वाले मार्ग से उतरते हुए बाहर की ओर मैंने एक गुफा देखी जो यात्रियों के लिए बहुत से अन्य दर्शनीय स्थलों में से एक है। एक उठे हुए और कुछ फैले हुए पठार को कुरेद कर कुछ बड़े बड़े भोंडे से कक्ष बना दिए गये हैं, जिनको कल्पना और परम्परागत बातों ने कितने ही निवासियों के नाम प्रदान कर दिए हैं। एक कक्षावली तो पाण्डवों के नाम से है, दूसरी खापरा चोर की है, जो प्राचीन काल में इस क्षेत्र का राबिन हुड' था परन्तु उसका पराक्रम हमारे नायक से बढ़ कर था क्यों कि यही वह व्यक्ति था जो कलश में रखे हुए स्वर्ण की चोरी करने के लिए बाड़ौली के मन्दिर के शिखर पर चढ़ गया था । खापरा की गुफा कितने ही भागों में विभक्त है; एक उसका [बैठने-उठने का ] बड़ा कक्ष, दूसरी रसोई और तीसरो अश्वशाला इत्यादि । यह साठ फीट लम्बा और साठ फीट चौड़ा वर्गाकार है, जो भारी, वर्गाकार और लगभग नौ फोट उंचे सोलह खम्भों पर टिका हुआ है । उसको यों बताया जा सकता है— I • राबिन हुड का नाम अंग्रेजी उपाख्यानों में बहुत आता है। प्राचीन वीरकाव्यों में भी उसका चित्रण एक अलमस्त बाहरबाट के रूप में किया गया है जो धनिकों को लूट लूट कर निर्धनों की सहायता किया करता था । ऐतिहासिक आधार पर तो उसके अस्तित्व के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं परन्तु, चौदहवीं शताब्दी की रचनाओं तक में उसका उल्लेख अवश्य मिलता है, यथा Piers Plowman नामक १३७७ ई० की रचना में 'rhymes of Robin Hood' का उल्लेख है - N. S. E., p. 1063 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] पश्चिमी भारत की यात्रा परिवर्तन के प्रकार से स्पष्ट दिखाई देता है कि मुसलमानों ने खापरा की अपवित्र गुफा को शेख अली दरवेश की दरगाह में बदल दिया है । वही दुर्बोध्य अक्षर, जिनके बारे में में कई बार कह आया हूँ, यहाँ भी दीवारों पर खुदे हुए हैं । उनके नमूने ये हैं J XLD8J}617716[+hē b परन्तु अब अपने को अवन्तिगिरि अथवा 'सुरक्षा के पहाड़' के मार्ग पर चलना है, जो गिरिराज अथवा 'पर्वतों के राजा' के पचीस शास्त्रीय नामों में से एक है । 'गिरिराज' को प्रायः गिरनार कहते हैं; 'गिरि' अर्थात् पर्वत और 'नारि' (nari) का भी वही अर्थ है, जो 'स्वामी' अथवा मालिक का है। दूसरे नाम ये हैं, उज्जयन्त गिरि ( Ujanti Gir ) अथवा 'पापों का नाश करने वाला पर्वत'; हर्षद शिखर (Harsid Sikra ) 'हर्षद का शिखर' अथवा योगियों का स्वामी शिव; 'स्वर्णगिरि' अथवा सोने का पर्वत; 'श्रीढांक गिरि ( Sri-dhank-Gir) अथवा समस्त अन्य पर्वतों को ढाँकने वाला पर्वत, 'श्रीसहस्रकोमल' अथवा सहस्र- दल के समान कोमल; 'मोरदेवीपर्वत' अथवा ग्रादिनाथ की माता मोर [मरु] देवी का पर्वत; 'बाहुबलि तीर्थ' अथवा प्रादिनाथ के द्वितीय पुत्र बाहुबलि का पवित्र स्थान; इत्यादि । परन्तु सब से अधिक सार्थक नाम 'स्वर्ण' है, जो यहाँ की नदी या निर्झरिणी के लिए भी समान रूप से प्रयुक्त हुआ है, जिसमें कालीकाली चट्टानों और पर्वत की दरारों से बह कर आने वाले अनेक झरने मिलते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस आदिकालीन पर्वत में वह बहुमूल्य धातु अवश्य प्राप्य है; यह केवल इस लिए नहीं कि यह बात इसके नाम 'सोनारिका' अथवा 'स्वर्णप्रवाहिनी' के अर्थ के अनुरूप है, परन्तु राणावंश के इतिहास के आमुख में एक ऐसी कथा भी है जिसके अनुसार सौराष्ट्र के शक्तिशाली यदु (वंशी) राजा अपनी पुत्री एक अनजान अतिथि को इसलिए ब्याह दी थी कि 'वह मूल्यवान् धातु का अन्वेषण करने की कला जानता था और उसने गिरनार की पहाड़ियों में ऐसे स्थल बताए भी थे, जहाँ सोना विद्यमान था ।' अच्छा, तो आइये, अब 'जूनागढ़' के किले के पूर्वीय मेहराबदार द्वार से सीढ़ियों द्वारा आगे चलें । घोड़ों के व्यापारी सुन्दरजी का विशाल वैभव यहाँ से आरम्भ हो कर ऐसे निर्माण कार्य में आगे बढ़ा है, जिससे उसका नाम तो अमर हो ही जायगा, साथ ही इस यात्रा में अपने परमाराध्य तक पहुँचने के मार्ग को सुगम बनाने के लिए उसे यात्रियों का आशीर्वाद भी प्राप्त होता रहता है । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १७; सुन्दरजी का परोपकार . [३८१ नगर के परकोटे से प्रारम्भ कर के उसने जंगल में हो कर एक बड़ा अच्छा रास्ता निकाला है, जिसके दोनों ओर आम तथा जामुन आदि के वृक्ष लगाए हैं, जो कालान्तर में थके हुए यात्री को छाया और भोजन दोनों ही प्रदान कर सकेंगे। यह मार्ग जहाँ सोनारिका से मिलता है वहाँ एक लम्बा पत्थरों से जड़ा रास्ता है, जो नदी के समानान्तर चलता है और उस स्थान पर समाप्त होता है जहाँ पर यह दर्रा के संकड़े रास्ते हो कर पार निकलती है और जहाँ तीन मेहराबों वाला सुदृढ़ एवं सुन्दर पुल है, जिस पर जालीदार खुली दीवारें बनी हई है। इससे दृश्य का मनोरम प्रभाव तो बढ़ ही जाता है, साथ ही इसकी उपयोगिता से सुन्दरता में भी चार चाँद लग जाते हैं क्योंकि इससे गरीब आदमियों की बड़ी भारी जमात को रोटी ही नहीं मिलती वरन् जब यह पूरा हो जायगा तो अचानक बाढ़ के कारण नदी में भक्तों के बह जाने का समस्त भय भी पूरी तरह दूर हो जायगा। जो सब से कठिन भाग था वह तो पहले ही पूरा हो चुका है और यद्यपि सुन्दरजो मर चुके हैं, परन्तु उनके पुत्र और उत्तराधिकारी के कारण इसमें कोई शिथिलता नहीं आई है। वह अपने धार्मिक उत्साह से पिता की आज्ञा को पूरा कर रहा है और पुलिया को नदी के दूसरे उतार तक बढ़ा रहा है, जहाँ से आगे यह उपयोगी की अपेक्षा सुन्दर अधिक होगा। पूल पर से देखने पर बड़े प्रभावोत्पादक दृश्य दिखाई देते हैं। सामने ही पर्वत-श्रेणी के बीच दुर्गाद्वार में होकर गिरनार का उच्चतम गम्भीर शिखर दिखाई पड़ता है और पीछे की ओर 'जूनागढ़' का किला अपने 'गौरवपूर्ण पराभव' के कारण नीचे बैठता-सा जा रहा है। वह ऐसा मालूम होता है मानों पवित्र पर्वत पर जाने के लिए घाटी के मार्ग की सुरक्षा हेतु ही कोई सहायक किला बनाया गया हो। अब पुल को छोड़ कर मुझे उस चीज़ का वर्णन करना है जो पुरातत्त्वानुरागियों के लिए सब से अधिक महत्त्वपूर्ण स्मारक है-ऐसा स्मारक जो विगत समय की अपरिचित भाषा में बोलता है और फिरंगी विद्वान अथवा 'सावन्त' [सन्त ?] को उस अज्ञानान्धकार को हटाने के लिए आमन्त्रित कर रहा है, जिससे वह युगों से प्रावृत हो रहा था। एक बार सुन्दरजी को फिर धन्यवाद दें कि उनकी उदारता के बिना यह आगे भी दुर्गम्य बनों के बीच उलझे हुए घने बबूलों के दुर्भेद्य जाल से ढंका पड़ा रहता । मैं पहले दो लघु स्थानों के बारे में कहूँगा । पहला एक छोटा-सा सुन्दर कुण्ड है जो नगर के दरवाजे से निकलते ही मिलता है और 'सुनार का कुण्ड' (Goldsmith's pool) कहलाता है। दूसरा, दुर्गा की पहाड़ी के नीचे ही बाघेश्वरी माता का छोटा-सा Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा मन्दिर है जो फ्रोजियन (Phrygian) ' देवी से कुछ ही भिन्न लगती है अथवा उसी की बहिन है। वह काँटों का मुकुट पहने हुए है और बाघ उसका वाहन है । पहले सौराष्ट्र के जंगल इन दोनों से ही खूब भरे हुए थे। यह स्मारक स्पष्ट ही किसी महान् विजेता का है, जो काले पत्थर के एक अर्द्धचन्द्राकार ढेर के रूप में धरती माता की ऊपरी परत पर मस्से के समान है, जिसमें न कहीं छिद्र है न असमानता, और जो 'लोह-लेखनी' की करामात से एक पुस्तक में बदल गया है । इसके परिधि-खण्ड की माप लगभग नव्वे फीट है; इसकी सतह कुछ विभागों अथवा समानान्तर चतुर्भजों में बँटी हुई है, जिनके अन्दर सामान्य प्राचीन अक्षरों में खुदे हुए शिलालेख हैं। इनमें से दो कारतूस रखने की पेटी-जैसे (पत्थरों पर खदे) लेखों की नकल मैंने अपने गुरु की सहायता से और बहुत सावधानी से की; तीसरे की भी आंशिक रूप में नकल ली तो है, परन्तु इसके अक्षर भिन्न हैं। पहले दो लेखों की दिल्ली के विजय-स्तम्भों, मेवाड़ की झोल के बीच में खड़े 'विजय-स्तम्भ' और भारत के विभिन्न प्राचीन गुहा - मंन्दिरों के लेखों से समानता स्पष्ट है । प्रत्येक अक्षर लम्बाई में लगभग दो इञ्च है और बहुत ही सुडोल रूप में बनाया गया है तथा उसकी प्राकृति पूर्णतया सुरक्षित है। इनसे कुछ प्राधुनिक प्रकार के अक्षरों के नमूने इस ढेर की चोटी पर तथा पश्चिमी ढाल पर मिले । ये उन अक्षरों के समान हैं जो मैंने 'ट्रांजेक्शन्स आफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी' के लिए इण्डो-गेटिक पदकों पर उत्कीर्ण कराए थे तथा जिनके नमूने मैंने कालीकोट के खण्डहरों और खाड़ी के उस ओर के दूसरे प्राचीन नगरों से प्राप्त किए थे। मैं उनको पाठकों के लिए यहाँ पर उद्धत करता हूँ कि जिससे वे शिलालेखों से उनका मीलान कर सकें। मैं इसको सही रूप में एक पुस्तक कह सकता है क्योंकि पूरी चट्टान उन अक्षरों से भरी हुई है, जो बनावट में इतने समान हैं कि इन सभी को आसानी से अत्यन्त प्राचीन कहा जा सकता है और मैं इसको एक ही व्यक्ति की कृति की 'पाण्डुलिपि' मानता हूँ। परन्तु, वह व्यक्ति कौन था ? ये अक्षराकृतियाँ निश्चय ही सूरोइ (Suroi) के विजेता मीनान्डर (Menander) और अपोलोडोटस (Appolodotus) से बहुत पहले के समय की हैं और इनमें ग्रीक अक्षरों का विचित्र मिश्रण होते हुए भी हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि ये उनको राजपूतों से हुई भेट अथवा Tessariostus या तेजराज पर प्राप्त विजय के सूचक • Phrygia (फ्रोजिया) एशिया माइनर में है। वहाँ के लोग मागे निकली हुई नोकदार ___टोपियाँ पहनते थे। २ मेवाड़ का विजयस्तम्भ तो चित्तौड़ दुर्ग में है, वहाँ झील कहाँ है ? Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १७; प्राचीन अक्षरों की पहचान [३८३ चिह्न हैं, जो सम्भवतः उस समय जूनागढ़ का यदुवंशी राजा था। लिपिविशेषज्ञ अब मीलान करके देखेंगे कि कितने अक्षर प्राचीन ग्रीक और कैल्टो-एट स्कन (Celto etruscan) अक्षरों से मिलते हैं, जैसेXTET/OOTERIPADMRO0Ey फिर, कुछ 'समारिती'' (Samaritan) अक्षर भी हैं, जैसे FKJTAY४DH अलिफ़ बे पे हे ऐन नून तोय तोय [जोय] इनमें से प्रत्येक के साथ शिलालेख में बहुत से अन्य संयुक्ताक्षर भी हैं। मैं यह जानता हूँ कि यदि किसी बात को सिद्ध करने के लिए अत्यधिक प्रयत्न किया जाय तो कुछ भो सिद्ध नहीं हो पाता, परन्तु इस कथन में भी थोड़ा तथ्य नहीं है कि 'सत्यांश के आधार पर भी शेष सम्पूर्ण सत्य का आभास प्राप्त हो सकता है।' इसी लिए मैं अगुवा लिपिशास्त्री बनने का दुस्साहस कर रहा हूँ। विषय को सरल बनाने के प्रयत्न में मैंने ऐसे अक्षर चुने हैं जो असंयुक्त और स्वतंत्र मालूम दिये, फिर इनसे संयुक्ताक्षरों का पता लगाया। प्रथम (स्वरों) की संख्या सोलह ही है, परन्तु व्यञ्जन अनेक हैं। स्वरों में अल्पप्राण ग्रीक अक्षर 0 (omicron) के ही मुझे सत्रह से कम व्यञ्जन नहीं मिले; इसी प्रकार अन्य स्वरों के भी अनेक व्यञ्जन हैं, यदि इस शोध का कोई फल नहीं निकलता है तो मेरा समय व्यर्थ गया समझिए; परन्तु, जब मैं यह कहना चाहता हूँ कि इनमें से दो अक्षर अर्थात् YE जो एक शिलालेख के अन्त में आते हैं वे नक्काशी के काम में नामाक्षर-भित्ति (Monogram) बनाते हैं और ग्रीक हरक्यूलोज़ की प्राकृति एवं समस्त गुणों को व्यक्त करते हैं तो मुझे यह पाशा बँधे बिना नहीं रहती कि सीरिया की प्राचीन लिपि के सूक्ष्म विश्लेषण एवं मीलान के फल-स्वरूप कुछ और भो पाश्चर्यजनक परिणाम निकलेंगे। मैं यह नहीं कह सकता कि मैं ही पहला व्यक्ति है जिसने इन अक्षरों, ग्रीक लिपि एवं प्राचीन चौकोर अक्षरों में समानता के दर्शन किए हैं, क्योंकि प्राधी शताब्दी पूर्व उत्तरी भारत से हमारे प्रथम सम्पर्क के अवसर पर जिस पहले अंग्रेज़ ने फीरोज़ के प्राचीन महल में स्तम्भ का . पैलेस्टाइन के उत्तरपूर्वीय प्रदेश से सम्बद्ध । " Transactions of the Royal Asiatic Society, Vol. III, p. 139. Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा निरीक्षण किया था उसने उसको 'पोरस पर सिकन्दर की विजय का लेख' घोषित किया था । मैं इस विषय को विद्वानों (Vedya) और बम्बई की एशियाटिक सोसाइटी द्वारा इन पत्थरों पर समय के आगामी आक्रमण से पूर्व ही पूरी छानबीन के लिए छोड़ता हूँ, क्योंकि ढेर की चोटी पर तो ऊपरी सतह बिलकुल छिल गई है, जैसा कि प्राय: ऐसे पत्थरों में होता है और इनको शिलालेख के लिए अनुपयुक्त प्रमाणित करता है-इसी बात को लेकर मुझे गिरनार के मन्दिरों में प्रायः पछताना और दु:खी होना पड़ा था। इसी लिए हिन्दू-लोगों ने अपने लेखों के लिए भूरा चट्टानी पत्थर, सुदृढ़ चूने का पत्थर, काला या भूरा अथवा स्लेट या पतली परत का पत्थर ही चुना है। पिछले अक्षर बाद की तिथि के हैं और इनमें सुधार करने का जैनियों में साधारणतया प्रचलन था, और वह भी इतना पहले कि बारहवीं शताब्दी में। इनका मैंने एक बड़ा संकलन किया जिनमें सबसे पुराना पांचवीं शताब्दी का था, जिसमें जीत (Jit) या जीट Gete के राजा के प्राक्र मणों का वर्णन है) जिनको मेरे गुरु ने बड़े परिश्रम से पढ़ा और फिर मैंने उन्हीं के द्वारा तथ्य की सम्पुष्टि उन के सम्प्रदाय के बड़े अधिकारी अथवा श्री पूज्यजी, उनके पुस्तकाधिकारियों और प्रिय शिष्यों द्वारा कराई, जिनको इस विषय का पूरा ज्ञान था और वे इस उलझे हए लेखन-प्रकार की कुजी भी जानते थे, यद्यपि चौकोर अक्षर के विषय में वे भी संदिग्ध थे, क्योंकि उसका औरों से साम्य नहीं बैठता था। अब हम पुल को पार करके घाटी अथवा दोनों पहाड़ियों के बीच में हो कर अपनी यात्रा चाल करें। सदा कल्पनाशील हिन्दुओं ने इन दोनों छोरों (सिरों) को भी, जो इस सँकड़ी घाटी के प्रवेशद्वार हैं, सशरीरता प्रदान कर दो है। अश्वमुखीदेवो (Centaur Bhynasara) ने दाँई ओर और जोगिनी माता ने बांई ओर रक्षा के लिए तथा श्रद्धाहीन व्यक्तियों को घुसने से रोकने के लिए आसन जमाया है। घाटी से सड़क, नदी के पेटे और चोटी तक वृक्षावली से ढंके पहाड़ के बीच से संकड़ा मार्ग छोड़ कर सोनारिका के बाएं किनारे-किनारे, बल खाती हुई चलती है । वृक्षों में सब से अधिक देखने योग्य सागवान है, जिसके केवल पत्ते ही बड़े-बड़े हैं और यह शायद ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये पत्ते ऐसे लघु और बल खाए हुए तने वाले वृक्ष के हो भी सकते हैं या क्यो ? परन्तु, इनसे किसानी काम और मकान बनाने के लिए सामग्री तो मिल ही जाती है। पहाड़ी के सिरे पर ही जिस पहली पवित्र इमारत पर ध्यान जाता है वह दामोदर महादेव का मन्दिर है और काफी बड़ा है । यहाँ सोनारिका को रोक Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १७; दामोदर महादेव का मंदिर [३८५ कर एक कुंड बना दिया गया है, जिसमें मन्दिर में जाने के लिए सीढियां चढने के पहले यात्री स्नान करके पवित्र हो लेते हैं । मन्दिर के चारों ओर ऊंची-ऊंची दीवारें हैं और वहाँ धर्मशाला बनी हुई है, जिसमें थके-मांदे यात्री विश्राम लेते हैं । एक ऊपर चढ़ती हुई सोपानसरणि से दूसरे कुण्ड में जाने का रास्ता है, जो चट्टान को काट कर बनाया गया है और इसका अग्रभाग टांकी से कटे हुए पत्थरों का बना हुआ है। इसके विभिन्न भागों में टूटी-फूटी मूर्तियां दिखाई देती हैं, जिनको मुसलमानों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । यह रेवती-कुण्ड कहलाता है और कहते हैं कि जूनागढ़ के प्राचीन यदु-वंशो स्वामियों ने इसको अपने महान् पूर्वज कन्हैया को अर्पित कर दिया था । मेरा बड़ा सौभाग्य था कि मुझे एक शिलालेख [परि० ६] मिल गया, जो विध्वंसकों की दृष्टि से बच गया था। इस लेख से हमें इस मन्दिर को शिव-मन्दिर का नाम देने की असंगति का पता चलता है क्योंकि देवत्व-प्राप्त यदु-नेता कन्हैया का बचपन का एक नाम दामोदर भी है-ऐसा लगता है कि पाठवीं शताब्दी में जब शैवों और वैष्णवों में घोर साम्प्रदायिक झगड़े हुए तो किसी शैव ने अपने उपास्य देवता की मति भी यहाँ स्थापित कर दी । कुण्ड के समीप ही एक छोटे से मन्दिर में कन्हैया के भैया बलदेव की मूर्ति भी विराजमान है, जिसके हाथों में गदा, चक्र और शंख हैं।' यहां के ब्राह्मणों का अज्ञान देख कर भी आश्चर्य होता है। ये लोग जिन देवताओं का पूजन करते हैं उनके साधारण चिह्नों एवं गुणों के विषय में भी कुछ नहीं जानते । नदी के उस पार कुछ ऐसे यात्रियों की समाधियां बनी हुई . हैं जिनको इस पवित्र पर्वत के उपान्त में दिवंगत होने का सौभाग्य प्राप्त हमा था। ऐसा लगता है कि सौराष्ट्र के यदुवंशी राजाओं का समाधिस्थल भी यही रहा है; शिलालेख को देखते हुए इस मत की और भी सम्पुष्टि हो जाती है। विष्णु (जिसके गुणों का कन्हैया में प्राधान किया गया है) के इस पावन सरो- . वर का अधिष्ठातृ-देवता होने के दो निमित्त हैं; पहला यह कि वह इस महान जाति का प्रादि पुरुष है और दूसरे, मृतकों के प्रात्मा को उसके निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचाने के गुण उसमें विद्यमान हैं। यह शिलालेख कितने ही दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है। इसमें बहुत से ऐसे राजाओं के नाम उत्कीर्ण हैं जिनका इस क्षेत्र में राज्य रहा है और जो परम्परागत बातों में प्रसिद्ध भी है, विशेषतः राव माण्डलिक और खंगार जिनसे कितनी ही कथाएं सम्बद्ध हैं। पहले नाम १ बलराम का प्रायुध तो हल प्रसिद्ध है, चतुर्भुज विष्णु के आयुध अवश्य ही शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं । पता नहीं, टाड साहब कैसे इस मूर्ति को बलराम की मूर्ति मान बैठे हैं ? Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा ( माण्डलिक) का दो बार उल्लेख है और मूल में लिखा है कि प्रथम ( माण्ड - लिक ) ' बहुत प्राचीन काल में हुआ था । ऐसे शिलालेखों में प्रायः देखा गया है कि किसी अत्यन्त प्राचीन सूत्र का उल्लेख किया जाता है, फिर बीस पीढ़ियाँ छोड़ कर जिसका संस्मरण लिखना होता है उसके अतिनिकट पूर्वजों का विवरण देने लगते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि यह शिलालेख जयसिंह द्वारा अपने स्वजातीय प्रमुख योद्धा अभयसिंह के प्रति आभार प्रदर्शन का प्रमाण उपस्थित करता है, जो भिंगरकोट की 'जवनों' से रक्षा करता हुआ बलिदान हो गया था – 'जवन' शब्द का प्रयोग प्राचीन ग्रीस निवासियों और 'बर्बर' मुसलमानों के लिए समान रूप से किया जाता है । भिंगरकोट या जूनागढ़ के लिए इस नाम के प्रयुक्त होने के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं है, यद्यपि तलहटी में स्थित होने के कारण इसका विवरण बहुत ठीक उतरता है । इस लेख से गढ़ाक्षरों में समय-सूचन प्रणाली का भी अच्छा उदाहरण प्राप्त होता है जिसमें, मिश्र देशवासी गुढ़ाक्षर-लेखक पुरोहितों के समान, ब्राह्मणों को जनसाधारण की समझ से प्रत्येक बात को गुप्त रखने में आनन्द प्राता था । परन्तु, मैंने इसकी कुंजी अन्यत्र दे दी है इसलिए यहाँ संक्षेप में इतना ही लिखूंगा कि इस (संवत् ) का उद्धार किस प्रकार किया गया है । संवत् को इस प्रकार संकेताक्षरों में लिखा गया है—'राम, तुरङ्ग, सागर, मही'; इनको उलटा कर पढ़ना चाहिए अर्थात् दाएं से बाएं, तब हमको १४७३ का संवत् मिल जाता है । अर्थ इस प्रकार है— राम तीन हैं, तुरंग अर्थात् सप्ताश्व - सूर्य का सात शिरों वाला अश्व, सागर से तात्पर्यं चारों समुद्रों से है, जो पृथ्वी को घेरे हुए हैं और मही अर्थात् पृथ्वी एक है । आधा मील आगे चल कर जहाँ नदी को फिर पार करना पड़ता है, इमली और पीपल के वृक्षों से आच्छादित प्रत्यन्त रमणीय घाटी में भावनाथ महादेव का मन्दिर और सरोवर हैं । यहाँ पुन: स्नान किया जाता है और जब यात्री इस शीतल एवं आनन्दप्रद स्थान में विश्राम के अनन्तर शारीरिक और मानसिक पवित्रता लाभ कर के दर्शन करने जाता है तो पुजारी उसके 'भभूत' [विभूति] का टीका लगाता है । आधा मील और आगे चल कर हम दो मुसलमान सन्तों की मजार पर पहुँचे, जिन पर एक प्रकार की बेदी सी बनी हुई है जो कपड़े से ढकी हुई थी और लगभग एक दर्जन लाल कलंगी वाले मुर्गे उसके ऊपर और आस-पास पूर्ण स्वतंत्रता से गर्वभरी चाल से घूम रहे थे । हिन्दू और मुसलमान, दोनों ही ऐसे स्मारकों के आगे मस्तक झुकाते हैं - यह उन अनेक उदाहरणों में से एक है, जो किसी भी पवित्र वस्तु के प्रति हिन्दुओं की स्वाभाविक आदर Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १७; भैरव-झाप [३८७ भावना को व्यक्त करते हैं । यहाँ हमने 'स्वर्ण प्रवाहिनी' नदी का अन्तिम दृश्य देखा, जो बाद में हमारे पद-पद पर घनी होती चली गईं घने जंगल की गहराइयों में खो गया और कि हम गिरिराज की तलहटी के समीप पाते गये जहाँ से दक्षिण-पूर्व में ही उसका मुख्य उद्गम-स्थान है । अब मार्ग सँकड़ा हो गया था-इतना तंग कि उस पर अकेला एक ही यात्री चल सकता है और ऊपर झूलती हुई वृक्षों की घनी पत्रावली से मुंह को बचाने के लिए बार-बार उसे अलग हटाना पड़ता है। इस उलझे हुए मार्ग से थोड़ी दूर चलने पर ही यात्री एक अत्यन्त प्राचीन महा-मुनि की पादुका की ओर आकृष्ट होता है जिसे साष्टाङ्ग दण्डवत् करने की भावना उसमें सहज ही उत्पन्न हो जाती है, और पास ही में बहुत पुराने अपरिष्कृत रूप में निर्मित पांच मन्दिर हैं, जिनकी छतरियाँ ग्यानिट के खम्भों पर आधारित हैं। ये पाण्डव-बन्धुओं के मन्दिर बताए जाते हैं और इनके समीप ही और भी अधिक दुर्दशा-ग्रस्त अन्य दो मन्दिर हैं, जो उनके सम्बन्धी और सखा कन्हैया तथा पांचों हिन्दू-सीथिक राजाओं की एक पत्नी द्रौपदी के नाम पर हैं । इसी, घाटी के संकड़े मार्ग के, स्थान से साढ़े तीन मील की ऋमिक चढ़ाई है; 'पादुका' से यह चढ़ाई निश्चित दिशा ले लेती है और इस मार्ग में यात्री को गोल तथा स्तम्भाकार बड़े-बड़े पत्थर के टोले मिलते हैं जो किसी हलचल (भूकम्प) के कारण पहाड़ की चोटी से विलग हुए प्रतीत होते हैं । ये इस तरह लटके हुए हैं कि पुनः लुढ़क जाने के लिए तैयार ही हैं। मार्ग का यह बड़ा और एकान्त भाग 'भैरों झाँप' कहलाता है, जो लगभग सौ फीट ऊंचा और इससे दुगुनी परिधि के फैलाव में है। इसकी चोटी पर से, इस क्षणभङ्ग र संसार से तंग आए हुए लोग, पुनर्जन्म के लिए झाप (छलांग) मारते हैं और इसी लिए इसका यह नाम-झाँप अर्थात् कूदना और भैरू (भैरव) अर्थात् विनाश का देवता, पड़ा है । प्रायः महत्त्वाकांक्षा ही इस आत्मघात का प्रेरक उद्देश्य हो सकता है अर्थात् मरने वाले को इससे अपनी वर्तमान दशा में सुधार न होने की निराशा और 'नये जन्म में राजा बनने की' प्राशा रहती है। अतएव ऐसे लोगों में उच्च श्रेणी के व्यक्ति नहीं होते वरन प्रायः ऐसे होते हैं जिनको अपने साधारण पुरुषार्थ से इस जीवन में ऊँचे बढ़ने की आशा नहीं रहती । मेरे मित्र मिस्टर विलियम्स् सन् १८१२ ई० में यहीं पर थे जब कोई बारह हजार यात्रियों के संघ में से केवल एक आदमी ने 'भैरों-झांप' ली थी- और वह बेचारा एक परम दरिद्री प्राणी था। इनमें से दूसरे घातक प्रस्तर-समूह का नाम 'हाथी' है; यह पहाड़ के आधे रास्ते चल कर एक चट्टान के ठीक मुख भाग पर पन्द्रह सौ फीट की सीधी ऊँचाई पर है। इसकी प्राकृति Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] पश्चिमी भारत की यात्रा साठ से अस्सी फोट तक के पिरामिड की सी है और इसके एवं पर्वत के बीच में यात्रियों के चलने के लिए रास्ता काफी है। इस स्थान तक तो यह पहाड़ जंगल से ढंका हुआ है, परन्तु यहाँ प्राकर वनस्पति का लोप होगया है और कोरी काली पथरीली चट्टानों के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता, जिनमें हो कर खंगार के महलों तक पहुँचने के लिए बड़ी सावधानी से चलना पड़ता है। धनवानों के दयाभाव ने इन खड़ी चट्टानों में हो कर मार्ग को अपेक्षाकृत सुगम और सुरक्षित बना दिया है। चट्टानों को काट-काट कर नीची-नीची और सैकड़ीसैकड़ी सीढ़ियाँ बना दी गई हैं और स्थान की दुरूह आकृति के अनुसार अनगिनती चक्करों और मोड़ों में हो कर यह रास्ता निर्मित हुआ है-कहीं-कहीं तो चट्टान के बिलकुल किनारे पर ही कोई सीढ़ी आ गई है। पिछली शाम, मैं अचानक ही लंगड़ेपन का शिकार हो गया इसलिए मुझे पहाड़ी-डोली में चढ़ने को विवश होना पड़ा, जिसका वर्णन मैं माबू के प्रकरण में कर चुका हूँ, और इन चट्टानों में काट कर बनाई हुई सीढ़ियों से गुजरते समय बाई ओर की चट्टान से टकराती हई डोली और दायीं ओर देखने पर पन्द्रह सौ फीट गहरी खाई [खन्दक के मेरे अनुभव विशेष अनुकूल और रुचिकर नहीं थे। ग्यारह बजे मैंने सौराष्ट्र के प्राचीन राजाओं के प्रासाद में पहुँचाने वाले दरवाजे में प्रवेश किया, जिसकी काली-काली दीवारें विश्व के सम्मिलित राजाओं का भी मुकाबला करने के लिए सक्षम हैं। 'रूढ़ मान्यता' को भी भ्रष्टता से बच कर अपना मन्दिर बनाने के लिए इससे अच्छा और सुरक्षित स्थान शायद ही मिल पाता और उन लोगों के लिए बैठ कर अपने आत्मा को परमात्म-साधन में लगाने के लिए इससे बढ़ कर कोई उपयुक्त स्थान भी नहीं था। यहाँ चट्टान के किनारे खंगार के महलों में एक प्रहरी-कक्ष में बैठ कर, जिसको छत दो नोकदार मेहराबों पर टिकी हुई है, मैंने प्रातराश किया। इस समय 'जूनागढ़' से लगभग तीन हजार फीट की ऊंचाई पर खण्डहरों में बैठा हुआ में उस (जूनागढ़) के खण्डहरों की ओर नीचे देख रहा था। ऊपर की ओर पहाड़ की चोटी पर पूरे छः सौ फोट की ऊंचाई पर 'देवमाता' [अदिति ?] का मन्दिर दिखाई देता था जिससे भी ऊपर एक और पर्वत-शृंग मुकुटायमान दृष्टिगत हो रहा था । इन सभी स्थानों पर पहुंचना बड़े साहस का काम था। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १८ लेखक के विचार; गोरखनाथ की चोटी पर चढ़ाई; गिरनार के अन्य शिखर; मुसलिम सन्त; कालिका के मन्दिर की कथा; अघोरी; एक धनवासी योगी; मन्दिर जैनों के गच्छ। देवालयों का वर्णन; शिलालेख ; नेमि(नाथ) का मन्दिर नेमि और मेम्नान की प्रतिमानों में साम्य; खंगार-वंश; महल के खण्डहरों में एक रात; पर्वत की ढाल ; नेमिनाथ मंदिर के यात्रा; वृद्धा यात्रिणी; हाथी चट्टान; डेरे पर वापसी। सभी युगों में भक्तों ने जगत्स्रष्टा परमात्मा का भजन और चिन्तन करने के लिए पर्वत-शिखरों पर ही पाश्रय लिया है और जब इस संसार के झंझटभरे पदार्थों से मन ऊपर उठ जाता है तो वह अवश्य ही ऐसे साँचे में ढल जाता है कि फिर उस (परमात्मा) को सर्वशक्तिमत्ता की प्रत्ययभावना का विस्तार उसके द्वारा निर्मित सांसारिक वस्तुओं के आधार तक ही सीमित नहीं रहता। यदि चिंतन कभी मायासित होता है तो वह ऐसे ही स्थानों में -जैसे कि मैं इन प्राचीनकाल के एकान्त खण्डहरों में बैठा हूँ जहाँ को गहरी चुपचापो को केवल चील की आवाज़ अथवा सूने मकानों में घुरघुराती हुई वा ही भंग करती है; और यहाँ मुझे मनुष्य और उसकी प्रवृत्तियों पर दया आ रही थी। कहीं दूर, दूर पर अस्तोन्मुख सूर्य की किरणों से किञ्चित् पालोकित समुद्र का दृश्य भी ऐसी भावराशिको जगाने में पीछे नहीं रह रहा था जिसमें पीड़ा और प्रसन्नता दोनों ही प्रापस में गुंथी हुई थीं, यह वह समुद्र है जिसके माध्यम से बाईस वर्ष पहले मैं घर से यहाँ पाया था और अब एक बार फिर उसी मार्ग से उधर लौटने वाला हैं। ऐसे क्षणों में और ऐसे दृश्यों में मस्तिष्क जीवन के कार्यकलापों का क्रमशः सिंहावलोकन कर गया; और, यह तो आप जानते ही हैं कि जिसका कार्यकाल विचित्रताओं से भरा रहा हो तो क्या उसको संवेदनाएं विविधरूपता से रीती रही होगी? मेरे विदेश-वास की अवधि समाप्त हो चुकी थी; में जहाँ से रवाना हुमा था वहीं लौटने वाला था और मुझे उस क्षण की स्पष्ट याद हो आई जब कि मैंने अपने देश और मित्रों से खुशी-खुशी विदा ली थी-'जीवन के जादू भरे प्याले' के 'चमकते हुए लबालब भरे किनारे' का स्वाद लेने के लिए; और तब मैंने केवल उन दिनों का हिसाब लगाया जो मेरे स्वतंत्र रूप से कार्यक्षेत्र में उतरने के समय के बीच में थे और भाग्य से इस कार्यवृत्त का अर्ष-व्यास छोटा नहीं था। भारत के उत्तर में फैले हुए हिमाच्छादित पर्वतों से गंगा, ब्रह्मपुत्रा और सिन्धु के मुहानों तक मुझे बहुत से मनुष्यों, उनके व्यवसायों और विभिन्न बस्तियों Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] पश्चिमी भारत की यात्रा का अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिला था; मैंने बहुत से मित्र बनाए; उनमें से बहुत-से मौत के मुँह में समा गए मेरे मार्ग में बहुत-सी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ भी आईं, बहुत-सी बातों का मुझे पछतावा है और उनसे भी अधिक संख्या में चिरस्मरणीय प्रसंग हैं; दुःख और निराशा के काले धब्बों के पलड़ों को आशा और आनन्द-भरे दृश्यों ने बराबर किया; सचमुच, में अब भी इस देश से चिपका हुआ ही था और शायद पूर्वस्मृतियों के कारण इस पवित्र भूमि को सदा के लिए छोड़ने का मन नहीं हो रहा था; स्वजनों और स्वदेश की आशाएं मेरे सामने अस्पष्ट थीं क्योंकि जिन लोगों के साथ जीवन के अत्यन्त आनन्दमय दिन बीते थे उनको छोड़ते हुए शोक का आवेग मुझ पर छाया हुआ था । सूरज उगते ही मैंने इन्द्रवाहन अथवा स्वर्ग- शकटी में बैठ कर पुनः चढ़ाई शुरू कर दी और जब मैं जगन्माता अम्बा भवानी के मन्दिर में पहुँचा तो पर्वत की ऊपरी श्रेणी को सूर्य आलोकित कर चुका था । यहाँ मैं केवल इस चोटी की ऊँचाई देखने के लिए ही ठहरा श्रौर फिर गोरखनाथ के शिखर की ओर आगे बढ़ा। यद्यपि हम लोग इतनी ऊँचाई पर थे परन्तु हवा वन्द थी। सूरज बादलों में ही उगा था और जब वह दो घंटे ऊपर आ गया तो भी थर्मामीटर अपने आरम्भ के अंक ६६° से केवल एक ही डिगरी आगे बढ़ा था । गोरखनाथ के शिखर पर पहुँचने के लिए मुझे काफी नीचे उतरना पड़ा तथा बीच की एक चढ़ाई भी तय करनी पड़ी; यहाँ पहुँचने पर रास्ता इतना ढालू था कि मैं इन्द्रवाहन छोड़ने को विवश हुआ तथा यात्री के सहज उत्साह के साथ चारों ओर से खड़ी चढ़ाई पर जैसे-तैसे चढ़ गया। शिखर पर पहुँच कर मैं एक चबूतरे पर श्राया जिसका व्यास दस फोट से अधिक नहीं था और जिसके बीचोंबीच एक समूचे पत्थर का छोटा-सा गोरखनाथ का मन्दिर बना हुआ था। यह सुन्दर शिखर एक तराशे हुए शंकु के आकार का है जो अपने आधार से लगभग दो सौ फीट और 'अम्बा भवानी' के शिखर की तलहटी से डेढ़ सौ फीट अधिक ऊँचा है । गिरिराज के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर मुझे सन्तोष हुआ और छोटे-से मन्दिर में विराजमान सिद्ध पादुकाओं के पास बैठ कर मैं उन शिखरों की झाँकी लेने लगा जिन पर अपने बे-मौके के लंगड़ेपन के कारण मैं नहीं पहुँच सकता था । यद्यपि मौसम अनुकूल न होने के कारण दूर की वस्तुएँ साफ दिखाई नहीं देती थीं, परन्तु दृश्य बहुत ही गौरवपूर्ण था। मुझे आशा तो थी, परन्तु मैं यहाँ से शत्रुञ्जय की छवि नहीं देख सका; फिर भी, समुद्र की सतह पर सूर्य का प्रकाश पड़ रहा था और यद्यपि तट पर बसे हुए नगर अच्छी तरह पहचान में Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८, गोरक्ष-शिखर नहीं पा रहे थे तो भी चालीस मील की दूरी पर पट्टण से पोरबन्दर तक उसकी दिशा स्पष्ट थी तथा पचीस मील के भीतर दुरगी, जैतपुर और अन्य स्थान तो साफ-साफ नजर आ ही रहे थे। गिरिनार के छः प्रसिद्ध शिखर हैं, जिनमें से चार तो समतल भू-भाग में से साफ़-साफ दिखाई देते हैं और ये ही दोनों ओर से इसके आयाम को बढ़ा हुआ बताते हैं क्योंकि पूर्व से देखो या पश्चिम से, यह एक सम्पूर्ण शंकु के आकार का दिखाई पड़ता है। गोरखनाथ-शिखर पर से देखने पर प्रत्येक शिखर ही गौरवपूर्ण लगता है और कुछ तो पचीस मील की दूरी पर भी स्पष्ट दिखाई देते हैं, परन्तु, उससे मागे वे प्रत्येक मील पर धीरे-धीरे पार्थिव-समूह में विलीन होते जाते हैं। अमरेली से पूरा शंकू शिखरों को समान दिशा बताता हुआ दिखाई पड़ता है। गोरखनाथ से देखने पर स्थिति इस प्रकार हैमाताजो का शिखर पश्चिम में अघोर [ोघड़] शिखर उ. ७०° पू. गुरुधातृ शिखर उ. ७०° पू. कालिका माता शिखर रॉई माता द. ७३° पू. अन्य स्थान हिडिम्बा झूला द. ७०° पू. जमालशाह का मन्दिर द. ३०° पू. SAN CHECatest KEEne India Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा उत्पत्ति और संहार की दोनों 'माताओं', अम्बा भवानी और कालिका के मन्दिरों में सीधा फासला दो मील का है। कालिका के मन्दिर का शिखर अम्बा के आधार स्थल से ऊँचा नहीं है, परन्तु बीच के शिखर दक्षिण की रेखा से काफी बाहर निकले हुए हैं और स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। कालिका के मन्दिर से परली घाटी का उतार सीधा और जल्दी का है। ___गोरखनाथ-शिखर पर से इस समस्त पर्वत-पुञ्ज की 'मेरुसमान' उपमा ठीक-ठीक समझ में आती है; आसपास की अवर पहाड़ियों के बीच यह मुकुट के समान खड़ा है और अपनी तलहटी में एक विशाल अखाड़ा-सा बनाए हुए है, जो दुर्गम्य जंगलों से ढंका हुआ है तथा जिसके श्यामल पादप-पुञ्जों में होकर चट्टानों की दरारों में से निकलने वाले अनेक झरने बहते हैं, जिनके सभी के भिन्न-भिन्न नाम हैं, जैसे-शश-वन, हनुमान-भर आदि । समीप के प्रत्येक वन, झरने अथवा पर्वत के शिखर तथा जंगल का नाम किसी न किसी आशा अथवा भय पैदा करने वाले पदार्थ के साथ जुड़ा हमा है और उनसे सम्बद्ध वार्तामों की प्रचलित परम्परा समृद्ध है। दक्षिण-पश्चिम की ओर सबसे ऊंची पहाड़ी पर जमालशाह नामक मुसलिम सन्त ने अपना प्रासन (तकिया) लगा रखा है और वह श्रद्धालुओं की निजात के लिए मध्यस्थ बना हुआ है। जब मैंने एक वृद्ध मुसलमान नौकर से पूछा कि उसे यहाँ क्या प्राप्त हुआ, तो उसका उत्तर था 'इमाम को] खैर और उसके मालिक व खुद की तन्दुरुस्ती।' इस जङ्गल का एक भाग 'हिडिम्ब की पुत्री का भूला' कहलाता है, जो पाण्डवों के समय में इस] वन का राजा था और, कहते हैं कि, जिन लोगों में भय की अपेक्षा कुतूहल अधिक प्रबल है उनको अब भी यहाँ अंगूठियां देखने को मिल जाती हैं क्योंकि वहाँ तक पहुँचने का मार्ग एक पहाड़ की चोटी के नीचे होकर जाता है जो उस असूर की कन्या के नाम से प्रसिद्ध है। उपाख्यान में कहा गया है कि वनपति की कन्या का हाथ उस वीर के लिए सुरक्षित था, जो उसकी पृथु-काया को प्रकम्पित कर सके; और भीम वह सौभाग्यशाली मनुष्य था [जो ऐसा कर सका । मुकुन्द्रा घाटी में भी ऐसी ही वार्ता आज तक प्रचलित है । एक दूसरे स्थल के लिए बताया गया कि वहाँ 'कमण्डली' अथवा 'कुण्डल-कुण्ड' नामक जलाशय है जहाँ मानवीय सामान्य प्रायु से अत्यधिक वय वाला एक साधु जीवन व्यतीत कर रहा था। कहते हैं कि वह एक सौ बीस वर्ष का था। वह अपने पवित्र जीवन एवं परोपकारपरायणता के कारण सभी के द्वारा पूजनीय था क्योंकि सती-सेवकों से प्राप्त होने वाली भेंट से उसने गिरनार के गरीब यात्रियों के Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८, कालिका मन्दिर; नरभक्षी । ३६३ लिए सदावत चालू कर रखा था। मैं उससे बातचीत करने की अपेक्षा करता परन्तु इच्छा और शारीरिक शक्ति का समन्वय नहीं हो पा रहा था। कालिका के मन्दिर तक न पहुंचने पर मुझे बड़ी चिड़चिड़ाहट-सी हुई क्योंकि इसके बारे में परम्परागत और सार्वजनिक रूप से बहुत-सी रहस्यभरी बातें प्रचलित थीं। मैंने गायकवाड़ के प्रतिनिधि लल्ल जोशी को, उसके मना करने पर भी, पहले ही से कह दिया था कि चाहे कितनी भी मुसीबत हो उस भयानक स्थान पर पहुँचना ही है, परन्तु, उसने और अन्य साथ वालों ने मेरे आकस्मिक लंगड़ेपन को बड़ी गम्भीरता से इस भ्रष्ट संकल्प का परिणाम बताया। इस भयानक मार्ग में जाने की कोई यात्री हिम्मत ही नहीं करता, और, लोककथाएं कहती हैं कि, यदि कभी किसी ने ऐसी मूर्खता की भी तो उसे अपनी इस धृष्टता का बड़ा महँगा मूल्य चुकोना पड़ा है। कहते हैं कि एक अनजान व्यक्ति देवापराधी यात्रियों के साथ हो लेता था और आगे चल कर अपना बनावटी वेष छोड़ने पर वह स्वयं 'माता' सिद्ध हुई। इस माता की पूजाविधि भयंकर अघोरी द्वारा सम्पन्न होती है, जिसकी अधिष्ठात्री होने के कारण वह 'अघोरेश्वरी माता' कहलाती है; और इन्हीं नरमांस-भक्षी अघोरियों का कुछ भेद जानने की प्रबल इच्छा के कारण में कालिका-माता के शिखर तक अपनी थकान-भरी यात्रा को बढ़ाने के लिए लालायित हो रहा था अन्यथा और किसी भी दृष्टि से उधर कोई प्राकर्षण नहीं था। पहले कभी ये लोग किसी संख्या में इस क्षेत्र में रहते थे; परन्तु बहुत बड़े हिंसक पशुओं के समान वे घोर भयानक स्थानों में ही पाये जाते थे, जैसे-पर्वत, गुफाओं अथवा घने जंगलों की अंधेरी झुरमुटों आदि में। मैं इस विषय का अन्यत्र स्पर्श कर चुका हूँ अतः यहाँ कुछ अतिरिक्त उपाख्यानों से ही तथ्यों की पुष्टि करूंगा। मर्दखोरों अथवा नरभक्षियों में से किसी अघोरी के नाम पर ही यह 'अघोर शिखर' कहलाता है, जो वहाँ पर स्थायी रूपसे बस गया था। इन पशुओं में से एक का नाम गाज़ी था, जो कभी-कभी अपनी पर्वतीय मांद को छोड़ कर भूख मिटाने के लिए नीचे के मैदानों में उतर आता था । अन्तिम बार जब उसको देखा गया तो एक जीवित बकरा और शराब से भरा मिट्टी का पात्र उसके सामने रखा हुआ था। उसने उस जानवर को दाँतों और नाखूनों से फाड़ डाला, खोला और खून और शराब पीकर उसी के अवशेषों में सो गया; फिर जगा, फिर उसको खोला और खून और शराब पीकर जंगल को लौट गया । १८१६ ई० में मैंने अपने मित्र मिस्टर विलियम्स (जो अब मेरे साथ हैं) को इन राक्षसों के बारे में अपील की थी। उनका उत्तर इस प्रकार था-'जब मैं काठियावाड़ में था तो Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा वहाँ तीन या चार आदमी ऐसे थे जो अक्षरशः जंगली पशुओं का सा जीवन बिताते थे और वे नेबूचॅड्नेजर (Ncbuchadnezzar)' की कहानी का विश्वास दिलाते थे; अन्तर केवल इतना ही था कि वे कच्चा और मनुष्य का मांस भी खाजाते थे। मरा खयाल है, सन् १८०८ में, इन राक्षसों में से एक बड़ौदा में पाया था जो प्रत्यक्ष ही एक मरे हुए बच्चे का हाथ खा गया । एक दूसरा राक्षस १८११ ई० में काठियावाड़ के सिरसोहो (Sirsohoh) में आया था, परन्तु उसके रहने से नुकसान नहीं हुआ, यद्यपि लोगों ने उसे दुशालों आदि से ढंक दिया था। एक बार एक अघोरी गिरनार की यात्रा के अवसर पर पहाड़ पर पाया और यात्रियों में शामिल हो गया; उन लोगों ने उसकी पूजा की, दुशाले, पगड़ियाँ और अंगूठियाँ आदि भेंट की। वह कुछ देर बैठा रहा, फिर एक मूर्खतापूर्ण हँसी के साथ उछल पड़ा और जंगल में भाग गया।' मुझे बताया गया कि कुछ ही मास पूर्व, एक कमबखत अपनी गुफा से निकल आया और उसने एक ब्राह्मण के लड़के को, जो मन्दिर से थोड़ी दूर निकल गया था, पत्थर मार कर गिरा लिया; परन्तु, उसकी टाँग ही टूट कर रह गई और बच्चे की चिल्लाहट सुन कर किसी ने आकर उसे बचा लिया। अघोरी अपने शिकार के लिए लड़ा परन्तु उसे पीटपीट कर बेदम कर दिया गया और मरा हुआ समझ कर वहीं छोड़ दिया गया। तब से वे लोग पास-पास और सचेत रहने लगे और कहते हैं कि वह अपराधी गिरनार का जंगल छोड़ कर कहीं चला गया। पाठकों को याद होगा कि, मैं जब इन विवरणों में भटक गया तो उन्होंने मुझे गिरनार शिखर पर अकेला छोड़ दिया था, जहाँ से मैं इन अभिशप्त मानवमूर्तियों को 'महामाता' के मन्दिर को ओर चुपचोप देख रहा था और उन विचारों के तानेबाने में उलझा हुआ था, जिनको मेरी इस एकान्त स्थिति ने जन्म दे दिया था। मेरा एकान्त एक प्राणी के कारण भंग हुआ जिसके माने की मुझे खबर भी नहीं हुई कि कब वह चुपचाप पाकर गोरखनाथ के मन्दिर के सामने बैठ गया। एक फटे कपड़े का चिथड़ा ही उसके शरीर को ढंके हए था, बालों के बने हुए रस्से से उसकी कमर कसी हुई थी और उसका समस्त शरीर एवं उलझे हुए बाल राख से सने हुए थे। उसके अंग सुगठित थे, प्राकृति सुन्दर और पौरुषयुक्त थी, परन्तु बाईस वर्ष से अधिक अवस्था न होते हुए भी ' बेबीलोनिया में तीन बादशाह इस नाम के हुए हैं| Nebuchadnezzar II ने ६०४-५६१ ई.पू. तक राज्य किया। उसने जरुसलम पर भी ५८६ ई.पू. में अधिकार कर लिया था। (N. S. E., p. 922) Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८; अघोरी [ ३६५ वह मानवता के पतन में निम्न कोटि को प्राप्त हो चुका था। उसकी आँखें जल रही थी और वह नशे में लगभग मूछित-सा हुआ जा रहा था, फिर भी ऐसा लगता था कि जो क्रियायें उसने प्रारम्भ की थीं उनका उसे पूरा-पूरा ध्यान था। सिद्ध गोरखनाथ के छोटे-से मन्दिर के सामने बैठते ही उसने अपनी आँखें बन्द कर ली और थोड़ी देर निश्चल समाधि अवस्था में रहा । थोड़े ही क्षणों बाद उसमें किसी आत्मा के आवेश के लक्षण दिखाई देने लगे, जो उसके मुख की मांस-पेशियों में स्फुरण, शरीर की ऐंठन और गर्दन एवं हृदय की हलचल से प्रकट हो रहे थे मानो जिस मासुरी माया का वह उपासक था वही उसमें प्राविष्ट हो चुकी थी। जब यह दौरा समाप्त हुआ तो वह खड़ा हुआ और 'अलख, अलख' चिल्लाता हुआ विविध प्रकार की मुद्राओं में अपने आपको ढालने लगा। उसे छेड़ने से पहले मैंने इस चिल्लाहट को शान्त हो जाने दिया क्योंकि मुझे देखने और समझने के लिए उसके मस्तिष्क की आँख अत्यन्त धूमिल पड़ चुकी थी; परन्तु, उससे एक भी शब्द निकलवाने के मेरे प्रयत्न व्यर्थ ही गये। मैंने जो कुछ कहा वह उसने सुना और मुस्कराया भी, परन्तु मेरी उपस्थिति के विषय में चेतना का जो चिह्न उसमें दिखाई दिया वह केवल यह मुस्कुराहट मात्र थी। वह एक झोला लिए था; स्पष्ट है कि उसमें खाने पीने का सामान होगा; उसके पास एक नारियल का हुक्का भी था-नशीली चीजों का दम लगाने के लिए, और एक लोहे का चिमटा जिससे वह आग का उपयोग करता होगा । परन्तु, जिस वस्तु से मुझे अत्यन्त प्राश्चर्य हुआ वह थी एक बांस की बांसुरी, जो वह हाथ में लिए था। 'मधुर स्वर-संगम' का ऐसे प्राणी पर क्या प्रभाव पड़ता होगा जिसने प्रत्यक्ष रूप से मानवता के प्रत्येक चिह्न का परित्याग कर दिया था ? उसकी अभेद्य चुप्पी के कारण में इस विषय में उससे कोई निश्चित उत्तर प्राप्त न कर सका । गोरखनाथ को अन्तिम प्रणाम करके 'मलख' शब्द का उच्चारण करता हुमा वह विदा हुआ और शिखर से उतर कर निषिद्ध कालिका मन्दिर की ओर चल दिया तथा मार्गावरोधक पदार्थों में मेरी दृष्टि से अोझल हो गया। मेरा यह पूछना व्यर्थ ही हुआ कि वह कौन था; केवल इतना ही पर्याप्त था कि वह किसी से बातचीत नहीं करता था और उसे देखने वाले लोगों का मत था कि वह साधारण मनुष्यों से बढ़कर था। मैं नहीं कह सकता कि वह मर्दखोर था या नहीं, परन्तु वह सीधा अघोरीशिखर की ओर गया था, जहाँ बहुत करके उसी के पन्थ के लोग रहते हैं, इसलिए सम्भव है वह भी उसी बिरादरी का हो । मैं थोड़ी देर तक सिद्ध के चबूतरे पर इस समागम की अपूर्वता पर विचार Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा करता हुआ बैठा रहा। सदा ही बुद्धिरूपी दैवी गुण के अभाव में कुछ ऐसा भयानकसा भाव, जो हमारी प्रकृति में अन्तनिहित रहता है, प्रबल हो उठता है और हम तत्काल किसी ऐसे पदार्थ के चिन्तन में लग जाते हैं कि जिससे सर्वशक्तिमान् परमात्मा ने हमारे बौद्धिक भाव का मुख प्रावृत कर दिया है। परन्तु, यहाँ प्रत्यक्ष रूप से एक पागल और राक्षसतुल्य मनुष्य के विचार से बच निकलने का कोई उपाय नहीं था क्योंकि मैं मैदान से तीन या चार हजार फीट की ऊँचाई पर पर्वत-शिखर पर बैठा हुआ था। मेरे मन में पहले ऐसा विचार कभी नहीं आया था और उस समय मूल रूप से मुझे प्रकृति के उस पतित मानव के प्रति दुखःपूर्ण उत्तेजना एवं गहरी करुणा के भावों की अनुभूति हो रही थी। धूप तेज होने लगी थी और साथ ही मुझे ध्यान दिला रही थी कि अभी और भी बहुत सी चीजें देखनी थीं; परन्तु, ऐसा दृश्य देखने के बाद मन पर जो कैंपा देने वाला प्रभाव पड़ा, उसका प्रतिरोध करना भी सरल नहीं था। मुझे उन मनुष्यों पर दया पाती है जिन्हें कभी ऐसी अछेड़ विचारमग्नता की विलासमयी तन्द्रा का अनुभव नहीं हुआ जैसी अभी थोड़ी देर के लिए मेरी समस्त चेतनाओं पर छा गई थी। खांसी, खरखरी और जाते हुए थके यात्री के सोच ने मेरे स्नायुजाल पर चोट की थी। मुझे अपने एकान्त से ईर्ष्या हुई और ऐसा लगा मानो दूसरे लोगों की उपस्थिति एक प्रकार की बाधा थी। परन्तु, सभी स्थितियों का अन्त अवश्य होता है इसलिए अपने कदम वापस बढ़ाता हुआ अन्त में में पुनः अपेक्षाकृत अधिक सौन्दर्य और रामणीयकता की मूर्ति 'अम्बा-भवानी' के मन्दिर में जा पहुंचा। ___ मण्डप के नीचे वेदी पर विराजमान माता के दर्शन कर के मैं पश्चिमी झरोखे में आ गया और वहाँ एक बड़े-से काले पत्थर पर बैठ कर नीचे की ओर खंगार के महलों के आसपास बने हुए मन्दिरों के समूह को निहारने लगा। जनों के इन स्मारकों का विहंगम-दृश्य बहुत गौरवपूर्ण एवं इनकी प्रायोजना और विभाजन का सही-सही परिचय देने वाला है। ये सब मन्दिर पर्वत के पश्चिमी मुकुटाकार शिखर के छोर पर अर्ध-चन्द्राकार बनाते हुए खड़े हैं जिसके अन्तिम किनारे पर ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी के पास एक हजार फीट ऊंची दीवार बनी हुई है, जो अपनी आधारभूत काले पत्थर की चट्टान के ही अनुरूप है । दक्षिणी किनारा खंगार के महलों से, जिसके परकोटे की दृढ़ दीवारें तथा उनकी सुरक्षार्थ काले पत्थर की पूठियों से विशाल चौकोर बनी हुई बुर्जे हैं, सुरक्षित है, और, वास्तव में ये महल ही इस पवित्र दुर्ग का प्रवेश-द्वार हैं, जो स्वयं दुर्गा का समुचित आवास है। किलेबन्दी को देखते हुए गिरिराज Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८, नेमिनाथ का मन्दिर [ ३९७ बेजोड़ है, क्योंकि यदि खाने-पीने की सामग्री का पूरा प्रबन्ध हो और पानी की बहुतायत हो तो माता और गोरखनाथ के शिखरों से सुरक्षित इस दुर्ग पर कोई भी शत्रु अधिकार नहीं कर सकता । परन्तु, मैं अपने पाठकों को इन मन्दिरों में एक-एक में होकर ले चलूंगा जिनकी अद्भुत स्थिति का सही अनुमान नीचे दिए हुए खाके से लगाया जा सकता है । E S PARAN - - 'महामाया' के शिखर से उतरते हुए, जिसके प्रति अद्वैतवादी जैनों को भक्ति विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त हुई है, पाठकों को मार्ग में ऊँची-ऊँची जगहों पर स्तम्भ-समह पर आधारित छतरियाँ देखने को मिलेंगी, जिनसे सामान्य दृश्य के सौन्दर्य में जो अभिवृद्धि होती है उसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। बेला अथवा अन्य प्रीतिकर पुष्पों का चयन करती हुई स्त्रियां भी पाठकों के दृष्टिपथ की अतिथि होंगी जो पुष्पमालाएं गूंथ कर गिरनार के देवताओं पर चढ़ाने के लिए उन्हें यात्रियों को बेचा करती हैं। प्रवेश-द्वार के पास ही दिगम्बरों का बनवाया हुआ नेमिनाथ का पहला मन्दिर है, जो चौबीस जिनेश्वरों में से एक मात्र उनके लिये प्राराध्य हैं। जो लोग इस धर्म के विषय में अनभिज्ञ हैं उनकी जानकारी के लिए मैं बताएं कि जैन लोग दो बड़े विभागों में बँटे हुए हैं अर्थात् दिगम्बर और श्वेताम्बर; प्रथम मत के वे लोग हैं जो समस्त प्रावरण को उतार कर दिक् अथवा आकाश को ही अपना अम्बर या वस्त्र मानते हैं। इसके विपरीत, श्वेताम्बर वे हैं जो 'पवित्र' (श्वेत) वस्त्र के साथ एकाकार हैं । पूर्वमत के प्रवर्तक सिद्धसेन Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा देवकाचार्य' (दिवाकर) संवत् ४०० . (३४४ ई.) में हुए थे। तदनुसार इस मत के श्रीपूज्य या गुरु बिना वस्त्र के रहते हैं और अपनी कमर भी नहीं ढंकते; केवल जाड़ों में मौसम के प्रभाव से बचने के लिए एक लिहाफ (रजाई) ऊपर डाल लेते हैं; परन्तु, अब बहुत थोड़े (आजकल एक गिरनार में हैं) ऐसे रह गये हैं, जिनको तपस्या और सांसारिक भावनाओं के त्याग-स्वरूप ऐसी महती प्रतिष्ठा प्राप्त है। ग्वालियर की गुफाओं में जो विशाल मूर्तियाँ हैं और जिनमें से कुछ तो पचास-पचास फीट ऊँची हैं वे और भारतवर्ष भर में इसी प्रकार की बनी हुई अन्य प्रतिमाएं, सब इसी मत से सम्बद्ध हैं । वर्तमान गुरु का मुख्य स्थान सूरत में है; उनका नाम विद्याभूषण है और इन विद्या [विज्ञान के भूषण [अलङ्कार के ज्ञान की बहुत प्रसिद्धि है। उनके स्वयं के पास तो बहुत थोड़े से शिष्य रहते हैं, परन्तु बहुत से भारत भर में इधर-उधर फैले हुए हैं। इस मत के मानने वाले या अनुयायी मुख्यतः बनिये अथवा व्यापारी वर्ग के लोग हैं और उनमें भी खास कर हुम्बड़ हैं (Hoombibanas), जो चौरासी कुलों में से हैं। इन लोगों का अनुभव है कि ऐसे अनुयायियों की संख्या चालीस हजार है और उनमें से अधिकांश जयपुर में रहते हैं जहाँ बहुत से दिगम्बरों के मन्दिर हैं। परन्तु यह पन्थ भी 'काष्ठासंघी' और 'मुर-मयूर-सिंघी' नामक दो शाखाओं में विभक्त है, प्रथम तो आद्य संघ का नाम मात्र है और दूसरे का यह नाम मोरपंख लिये चलने के कारण पड़ा है। १ वास्तव में, सिद्धसेन दिवाकर जैन-दर्शन के आद्य प्राचार्य थे और दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से पूज्य माने जाते हैं । परम्परागत-मान्यतानुसार ये विक्रम के समकालीन थे। • मैंने ऐसे एक प्राणी को देखा है जिसके पास एक अंजीर का पत्ता भी नहीं था और उसको डालपुर (Dhalpoor) के न्यायालय में सम्मानित स्थान प्रदान किया गया था। ३ जैनों के ये संघ मुनियों के आचरण एवं उनकी मान्यताओं से सम्बन्ध रखते हैं। इन्हीं आधारों पर समय-समय पर माथुर-संघ, द्राविड-संघ, मूल-संघ, यापिनी-संघ आदि अनेक संघों की रचना हई। ये संघ केवल शास्त्रों तक ही सीमित रहे । अब तो इनमें से बहुत से लुप्त हो चुके हैं। ४ वास्तव में काष्ठ-प्रतिमा का पूजन करने के कारण इस संघ का यह नाम रखा गया था। कहते हैं कि नन्दीग्रामवासी विनयसेन के शिष्य कुमारसेन ने आजीवन सन्यासव्रत लिया था । परन्तु, कुछ दिनों बाद क्षुधादिक से पीड़ित होकर उसने आहार कर लिया एवं व्रतभंग किया। कुछ महान् प्राचार्यों ने उसे पुनः दीक्षा लेने की व्यवस्था बतायी थी परन्तु विद्यामद में चर होकर उसने इस विधान को नहीं माना, नए शास्त्रों की रचना कर डाली और काष्ठ-प्रतिमा का निर्माण करा कर पूजन करने लगा। और भी बहुत से लोग उसके अनुयायी हो गए। यह संघ काष्ठासंघ कहलाया। इसकी स्थापना वि० सं० ७६३ में हुई थी।- बुद्धिविलास (वखतरामकृत) रा० प्रा० वि० प्र० १९६४ पृ. ६९-७० Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८% पार्श्वनाथ का मंदिर [ ३६६ इस मत के अनुयायी अपरमतावलम्बियों की तरह नेमिनाथ की मूर्तियों के बिल्लोर या हीरे इत्यादि के नेत्र नहीं लगाते और ये लोग स्त्रियों के मोक्ष में भी विश्वास नहीं करते यद्यपि वे महान् नग्न श्रीपूज्यजी का भक्ति-भाव से पूजन करतो हैं और वे भी उसे परम अक्षब्ध भाव से ग्रहण करते हैं। श्रीपूज्यजी के व्यक्तित्व की एक और विशेषता है-वह यह कि वे अपने हाथ से भोजन नहीं करते; यह कार्य उनका कोई साधारण सेवक सम्पन्न करता है। इस मन्दिर में और कोई विशेष उल्लेखनीय बात नहीं है। इसके आगे तीन मन्दिरों की त्रिकुटी है जिसका निर्माण अथवा जीर्णोद्धार तेजपाल और बसन्तपाल [वस्तुपाल] नामक रईस बन्धुत्रों ने कराया था जिन्होंने अपने विपुल धन का व्यय आबू के मन्दिरों पर किया था । संवत् १२०४ [११४८ ई०) के एक शिलालेख से, जो यहाँ मिला है, ज्ञात होता है कि ये मन्दिर प्राबू के मन्दिरों से लगभग आधी शताब्दी पुराने हैं परन्तु विस्तार और मूल्यवत्ता की दृष्टि से उनका उनसे कोई मकाबला नहीं है । ये तीनों एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित हैं जो पत्थरों से जड़ा हुआ है । बीच के मन्दिर मैं उन्नीसवें जैन-तीर्थङ्कर मल्लिनाथ की मूर्ति है; इनके दाहिनी ओर का मन्दिर सुमेरु और बायीं ओर का समेत-शिखर कहलाता है जो इन अद्वैतवादियों के 'पञ्च तीर्थो" अथवा पवित्र शिखरों में से दो सुप्रसिद्ध हैं।' मल्लिनाथ का मन्दिर, जिनकी घन-श्यामल मूर्ति में नेमिनाथ का भ्रम उत्पन्न हो जाता है, चार मंजिलों का है जो एक के बाद एक छोटी होती चली गई हैं और सब से ऊपर आठवें तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ की छोटी-सी मूर्ति विराजमान है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक दिशा के कोने पर भी एक-एक मूर्ति स्थित है । एक कोने पर पीले रत्न की बनी हुई मेरु-शिखर की लघु प्राकृति है जो छत के पार चली गई है। प्रागे वाला मन्दिर जो पार्श्वनाथ को अर्पित है, सोमप्रीति राजा का बनवाया हुआ है, जिसके विषय में मैंने प्राय: उल्लेख किया है कि वह विक्रमपूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ था। यह इस राजा द्वारा निर्मापित तीसरा मंदिर है जिसे खोज निकालने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। शेष दो मन्दिरों के 'पार्श्वनाथ के नाम पर पवित्र समेत-शिखर बिहार में है जो प्राचीन मगधराज्य का हो भाग था। वहीं पर पाश्र्वनाथ के मतावलंबी पूर्व समय में, प्रत्यधिक संख्या में बसते थे। मेरुशिखर, जिसको स्थानीय नाम प्राप्त है, सिन्ध नदी के बहुत पश्चिम में है। और जैसा कि मैंने अनुमान किया है (Balk Bamian) (बल्ख बामियां) की पोर है जहां अबुल फजल द्वारा परिणत विशाल जन-मूर्तियां अब तक मौजूद है। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] पश्चिमी भारत की यात्रा लिए पाठकों को मेरी पूर्व कृति ' देखनी पड़ेगी; ये जैन- वास्तुकला के, जिसे मैं हिन्दू वास्तुकला हो कहूँ, वे सर्वोत्कृष्ट नमूने हैं जो आज तक पश्चिमी जगत् को प्राप्त नहीं हुए हैं । इस स्मारक में जिसकी आयोजना यद्यपि सामान्य नहीं है, गिरनार पर्वत पर ही नहीं, वास्तव में समस्त सौराष्ट्र में सर्वोत्कृष्ट स्थापत्यकला के उदाहरण का प्रदर्शन हुआ है । चट्टान के सिरे पर होने के कारण इसकी स्थिति बहुत सुन्दर बन पड़ी है; भूतल से ऊपर तीन मंजिलों और भूरे ग्रानिट पत्थर का स्तम्भ - समूह इसको और भी गौरवपूर्ण छवि प्रदान करता है । नीचे दिये हुए भू-चित्र से इसकी बनावट का सामान्य ज्ञान हो सकेगा । यद्यपि इसे बिलकुल सही नहीं कहा जा सकता । Caey of measurenient, will give moueral fdes of its enniscenction. The entrance (now blocked up) to the west, was by flight pe ste पश्चिमी प्रवेश-द्वार से (जो अब बन्द कर दिया गया है) एक सोपान सरणि खम्भों पर टिकी ( ड्योढ़ी) तक जाती है जिसमें होकर मन्दिर के मुख्य भाग में प्रवेश करते हैं । तिहरी स्तम्भ पंक्ति पर छत से प्राच्छादित विशाल कक्ष में होकर मण्डप अथवा केन्द्रीय गुम्बज में पहुँचते हैं जो प्रायः तीस फीट लम्बा और इतना ही चौड़ा है और स्तम्भों पर खड़ा है । स्तम्भ पंक्ति युक्त दीर्घाएं, जिनमें चौकोर खम्भे दीवार के सहारे खड़े हैं, इसे एक दालान से और अन्तरंग मण्डप से जोड़ देती हैं, जो भी गुम्बजदार छत से प्राच्छादित है और इसके १ अखिलभारतीय जैन पञ्चतीर्थो में शत्रु ञ्जय, गिरनार, आबू, समेत शिखर और ऋषभदेव माने जाते हैं । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १८; कुमारपाल का मन्दिर [ ४०१ आगे ही 'सोमपट्ट' (Sompat ) अथवा निज मन्दिर है जिसमें एक प्रशस्त वेदी पर पार्श्व (नाथ) की मूर्ति विराजमान है । खम्भे चौदह फीट से अधिक ऊँचे नहीं हैं, परन्तु गुम्बज की छत को देखते हुए, जिसमें चार-चार खम्भों के बीच में विभिन्न प्रकार की निर्माणकला का प्रदर्शन हुआ है, प्रभावकारी और ठोस प्रायोजना की तुलना में यह ऊँचाई कुछ भी नहीं है । भीतर और बाहर दोनों र से देखने पर यहाँ पैंसिल के लिए कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत हो जाता है । पश्चिमी द्वार के पास ही जमीन के नीचे तहखाने में होकर निकलने का एक गुप्त मार्ग है, जिसमें होकर महमूद बेगड़ा द्वारा उसके देश और राजधानी पर अधिकार कर लेने के उपरान्त, राजा (राव) माण्डलिक निकल भागा था । इस मन्दिर से मैं भीमकुण्ड गया, जिसको स्थानीय यदुवंशी राजा भीमक ने देवकूट के उत्तरी सिरे पर खुदवाया था । कुण्ड और सीढ़ियाँ चट्टान में काटी गई हैं, जिनके द्वारा सत्तर फीट लम्बी और पचास फीट चौड़ी परिमिति में भरे पानी तक पहुँचते हैं । इसके पास ही दूसरा मन्दिर है जिसके लिए कहा जाता है कि प्रणहिलवाड़ा के कुमारपाल ने बनवाया था । इसकी टूटी-फूटी अवस्था को देखते हुए ऐसा सम्भव भी लगता है क्योंकि, कहते हैं कि, उसके उत्तराधिकारी ने तारिंगा के अजितनाथ मन्दिर के अतिरिक्त उसके द्वारा निर्मार्पित सभी मन्दिरों को तुड़वा दिया था । खम्भों पर टिके मध्यपट्टों के ऊपर-ऊपर की सभी बनावट नष्ट कर दी गई है और कोई-कोई तो स्तम्भ प्रथवा मध्यपट्ट गायब भी है । मैं पहले संकेत कर चुका हूँ कि महमूद बेगड़ा अथवा अन्य जिस किसी मुसलिम विजेता ने जूनागढ़ पर मसजिद बनवाई है, उसने वहाँ के अन्य मन्दिरों के साथ-साथ इस मन्दिर की भी सामग्री का उपयोग किया है । इस मन्दिर का नक्शा पार्श्वनाथ मन्दिर की पूर्ण प्रतिकृति है और विस्तार भी प्रायः उतना हो है। जैन श्रावकों की पञ्चायत ने, जो मन्दिरों का प्रबन्ध करती है, इसके जीर्णोद्धार का कार्य चालू कर दिया था और निज मन्दिर के कुछ भाग का काम पूरा भी हो गया था परन्तु, तभी इस प्रदेश के महा सेठ की धार्मिक कट्टरता ने इसमें बाधा उपस्थित कर दो, क्योंकि उसने इसमें अपने इष्टदेव शिव के लिंग की स्थापना करने का निश्चय कर लिया था । प्रबन्धक जनों ने विरोध का वही मार्ग अपनाया, जो उनकी शक्ति में था अर्थात् उन्होंने मन्दिर की देहरी पर प्राण दे देने की धमकी दी । विषय यहीं समाप्त होता है और गिरनार पर्वत पर कुमारपाल का नाम चलने की सम्भावनाएं भी प्रायः समाप्त हो जाती हैं । शैवों श्रौर जैनों में एक देवता के मण्डप को दूसरे के में, अर्थात् आदिनाथ और आदीश्वर के में, Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा परिवर्तित कर देने को सुगम परम्परा से दोनों धर्मों का एक ही समान स्रोत होने पर कुछ प्रकाश पड़ सकता है। ऊँची-ऊंची दीवारों से घिरा हुआ दूसरा मन्दिर सहस्र-कण पार्श्वनाथ का है जिन पर उनके वाहन अथवा चिह्न (शेष) नाग ने हजार फणों से छाया कर रखी है । यह मन्दिर सोनी-पार्श्वनाथ के नाम से अधिक प्रसिद्ध है क्योंकि दिल्ली के संग्राम नामक सोनी [स्वर्णकार ने अकबर के राज्य में, जिसका वह परम प्रीतिपात्र था, अपने खर्चे से इसका जीर्णोद्धार कराया था। इस जैन-श्रावक के अतुल धन, जादुई-चमत्कार और धातु-परिवर्तन की चतुराई के सम्बन्ध में बहतसी कहानियाँ प्रचलित हैं। यद्यपि सोमप्रीति राजा के मन्दिर की अपेक्षा इस मन्दिर की बाह्य आकृति में पुरातनता की कमी दृष्टिगत होती है, परन्तु भीतर से हल्के हरे और चमकीले चट्टानी पत्थरों के खम्भों को लिए हुए यह काफी अच्छा दिखाई पड़ता है। साधारणतया इसकी बनावट पूर्ववणित प्रकार की ही है और आँगन के बगल की दीवारों के सहारे-सहारे कोठरियां बनी हुई हैं जिनमें विभिन्न श्रद्धालु भक्तों ने अपनी-अपनी भावना के अनुसार महन्तों अथवा गुरुपों की छोटी-छोटी मूर्तियाँ स्थापित कर दी है। इस से आगे का भाग 'गढ़ की टूक' कहलाता है । ऋषभदेव अथवा आदिनाथ का मन्दिर बहुत सुन्दर है, जिसमें बहुत से अच्छे-अच्छे स्तम्भ और कक्ष हैं, परन्तु यदि उनका सूक्ष्म विवरण देने लगें तो वह अनावश्यक रूप से लम्बा और अरुचिकर हो जायगा । यहाँ सफेद संगमर्मर और पीले सूर्यकान्त के बने हुए मेरु और समेत प्रादि पवित्र जैन-शिखरों की लघु प्रतिकृतियां भी विद्यमान हैं तथा चौक की चारदीवारी के सहारे-सहारे छोटी कोठरियों की पंक्ति चली गई है जिनमें 'चौबीस' [तीर्थङ्कर] विराजमान हैं। समूह का अन्तिम मन्दिर, जो खंगार के महलों से सटा हुआ है, गिरनार के संरक्षक देवता नेमिनाथ का है। यद्यपि यह मन्दिर मूलतः बहुत पुराना है परन्तु असंस्कृत-रुचिपूर्ण आधुनिक परिवर्तनों के कारण इसको आकृति इतनी विकृत हो गई है कि दृश्य की शालीनता को लेकर सोमप्रीति के मन्दिर के सामने यह कहीं भी नहीं ठहरता । शत्रुञ्जय पर आदिनाथ के मन्दिर के समान इसका अन्तरंग भाग भी भित्तिचित्रों और चमकीले जड़ावों से सजा हुआ है, जिनसे आधुनिक भक्तों की सुरुचि की अपेक्षा समृद्धि का ही अधिक प्राभास मिलता है। देवखण्ड (Devachunda) अथवा गुम्बर (Gumbarra-गुम्बज) में, जिस शब्द से निजमन्दिर को अभिहित किया जाता है, सोने को जंजीरों और कंगनों से शृंगारित रजतमुकुट धारण किये और होरकनेत्रों से सुशोभित नेमिनाथ की श्यामल मूर्ति Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८; राव माण्डलिक; शिलालेख [४०३ वेदी पर विराजमान है। पीतल के बड़े-बड़े दीपाधारों और धूपदानियों में दोपक और धूप अखण्डरूप से जलते रहते हैं और यात्री लोग यहीं पाकर अपनी-अपनी भेंट चढ़ाते हैं। अन्यान्य मन्दिरों की अपेक्षा इसकी चट्टान छोटी और नीची हैं और यात्रियों के यहाँ तक पहुँचने के लिए चट्टानें काट-काट कर रास्ता बनाया गया है। इस मार्ग में बहुत से शिलालेख थे, परन्तु पत्थर इतना चटखना था कि मुझे एक भो लेख पूरा और ठीक हालत में नहीं मिला; जो दो टुकड़े मैंने प्राप्त किए वे पांच शताब्दियों से कुछ पुराने हैं और वे भी मन्दिर के धर्म-प्राण जीर्णोद्धारक भक्तों के स्मारक मात्र हैं। इनमें से एक (परि० ६) में एक विचित्र ही तथ्य का उल्लेख है कि अपनी उदारता का लेख लिखाने वाले इस व्यक्ति ने दो सौ मोहरें तो दान में दी और इसी अभिप्राय के लिए दो हज़ार मोहरें 'ब्याज पर' उधार भी दी। दूसरा शिलालेख (परि० १२) खंगार के महलों के दरवाजे पर लगा हुआ है। उसमें भी यहाँ के स्वामी राजा माण्डलिक द्वारा जीर्णोद्धार का ही उल्लेख है; परन्तु, यह राजा माण्डलिक प्रथम था अथवा ततीय, इस विषय में तो केवल अनुमान का ही प्राश्रय लेना पड़ेगा क्योंकि बहुत लम्बे समय तक चली आई जूनागढ़, गिरनार को राजधानी, में इसी नाम के चार राजा हो चुके हैं। अतः इस 'अत्यन्त प्राचीन' 'बहुत जूना', दुर्ग पर लगे हुए अस्पष्ट उल्लेख को हमें यहीं छोड़ देना पड़ेगा। परन्तु, हर हालत में वह खंगार का पूर्ववर्ती चौथा राजा था; फिर, इस खंगार नाम के भी तो अनेक राजा हो चुके हैं।' ___ नेमिनाथ के मन्दिर का मैं विस्तार से विवरण नहीं दूंगा। इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि यह एक बहुत विशाल इमारत है और इसका शिखर बहुत ऊंचा है । इन मंदिरों के विषय में जिज्ञासा की शान्ति के लिए प्रत्येक के खाके की आवश्यकता होगी। इसमें सबसे अधिक आकर्षण की वस्तु तो स्वयं नेमिनाथ की श्यामलमूर्ति है जो चट्टानो अथवा काले संगमर्मर की बनी हुई है। परिमाण में यह मूर्ति बहुत बड़ी है और बैठक के आसन की मुद्रा में बनी हुई है, नीग्रो [हब्शी के समान धुंघराले बाल हैं तथा मुखमण्डल पर दया एवं शांति के भाव १ राजपूत-परिवारों में प्रसिद्ध नामों की पुनरावृत्ति करने का बहुत प्रचलन है। उदयपुर के राजघराने में तीन प्रमर हुए हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश ये लोग हमारी भांति नामों के साथ अंकों का प्रयोग नहीं करते और किसी बौद्धिक अथवा शारीरिक विशेषता के कारण उसके जीवनकाल में जिन उपाधियों का उपयोग उनकी भिन्नता बताने के लिए किया जाता है वे प्रागे चल कर लुप्त हो जाती हैं। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४] पश्चिमी भारत की यात्रा विराजमान हैं । भारतीय बौद्धों [जनों ?] के नेमि और बृटिश-संग्रहालय [म्यूजियम स्थित मिस्री मेमनॉन' की मूर्तियों में अत्यधिक साम्य की बात प्रायः मेरे मस्तिष्क में आती रही है और बहार्ड [Burckhardt] के निम्न अनुच्छेद से तो यह विचार और भी सशक्त होकर मेरे मन में जोर पकड़ गया 'नूबिया (Nubia) * में एब्सम्बोल (Ebasamboul) के कोलोसो (Colossi) के शिरों का इससे बहुत साम्य है; केवल अन्तर इतना ही है कि वे बलुआ पत्थर के बने हुए हैं । मुख पर भाव भी प्राय: समान ही हैं; कदाचित् नूबिया वालों में गम्भीरता अधिक है, परन्तु असाधारण शान्ति और देव-सुलभ गाम्भीर्य एवं सुकुमारता दोनों ही में दर्शनीय है।' नेमिनाथ का वर्णन करने के लिए इससे मौर अच्छी भाषा का प्रयोग नहीं किया जा सकता कि उनके धुंघराले ईथोपिक [मिस्री) बाल, पद्मचिह्न और श्याम वर्ण इन्हीं भावों को उत्पन्न करते हैं कि प्राचीन काल में भारतीय सीरिया और लाल समुद्र के तटीय प्रदेश में अवश्य ही धार्मिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध विद्यमान थे। महलों के खण्डहरों का विस्तृत वर्णन करना अनावश्यक होगा-इसको लेखनी की अपेक्षा पेंसिल अधिक अच्छी तरह बता सकेगी । जूनागढ़-राजवंश के संस्थापक के वंशवृक्ष को लेकर उसके मूल का आदर करते हुए यदि मैं परम्परा का बखान करने लगे तो पाठक मुझे और भी कम धन्यवाद देंगे। अस्तु, महाभारत के अनन्तर कई पीढ़ियों बाद ये रुद्रपाल से प्रारम्भ करते हैं। वंश का उद्गम कृष्ण और उनकी पत्नी रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न से हुआ है। ऐसे पारम्परिक विवरणों का अन्त उस समय तक नहीं पाता जब तक कि हम माण्डलिक और उसके पुत्र खंगार तक नहीं पहुँच जाते, जो देवड़ी रानी से विवाह करने के लिए अणहिलवाड़ा के राजा सिद्धराज का प्रतिस्पर्धी था; और क्योंकि यह राजा [सिद्धराज] इस प्रायद्वीप को भी अपने विजय किए हुए अट्ठारह राज्यों में ही गिनती ' मेमनॉन (Memnon) ग्रीक पुराण-शास्त्र में टीथॉनस (Tithonus) और इमोस (Eos) के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध है। वह बहुत सुन्दर था और ट्रॉजन युद्ध में ग्रीकों की सहायता करता हुआ एचीलीज़ (Achillies) द्वारा मारा गया था। -N. E.S. p. 875 २ अफ्रीका में लाल समुद्र से नील नदी तक और मिस्र से अबीसीनियों तक फैला हुआ भू-भाग, जो बाद में इथोपिया कहलाने लगा। • मेमनॉन की दो विशाल मूर्तियां जो ऊंचाई में ७० फीट बताई जाती हैं। ये भी संसार के सात आश्चर्यो में परिगणित ।-N. S. E. p. 306 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८ विश्राम और वृश्यावलोकन [ ४०५ करता था इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः खंगार की स्वतंत्रता उसकी शौर्याग्नि में बलिदान हो गई थी । एक पद्य में, जो प्रायः सभी चारणों को और मुख्यत: यादवों के चारणों को याद है, जूनागढ़-गिरनार की राज-वंशावली में चार मांडलिक, नौ नवधन, सात खंगार, पाँच सूरजमल और पाठ रूपपाल हुए हैं। दिन भर अत्यधिक परिश्रम करने के बाद मैं बहुत ही आभार मानता हुअा इन पुरावृत्तों को छोड़ कर महल के दरवाजे पर सुरक्षा-कक्ष में विश्राम के लिए लौटा–यदि इसे विश्राम कह लें क्योंकि मुझे इतने सारे पदार्थों की, जो देखने में आए थे, टिप्पणी लेनी थी और यह क्रम उस समय तक चलता रहा जब तक कि प्रकाश बिलकुल विलुप्त न हो गया। जब मैं अपनी कुस, चट्टान के सिरे पर आधारित किले की दीवार पर देवकूट से द्रुततया अदृश्य होते हुए दृश्य की अन्तिम झलक देखने के लिए ले गया तो दिन जल्दी जल्दो अस्त हो रहा था । घाटी के बीच में होकर जूनागढ़ की धुंधली छतरियां अस्पष्ट दिखाई दे रही थीं और हमारे तम्बू दूर से सफेद निशान (चखत्ते) ऐसे जान पड़ते थे। बीच की भूमि में स्पष्ट ऊँचे स्थान लक्षित होते थे; कहीं कहीं जंगल में धूमिल गुम्बज उठे हुए थे जिनसे मिल कर संध्या की छाया एक अस्पष्ट-से क्षीण रंग का दृश्य उपस्थित कर रही थी। __ जो बादल दिन भर से बिखरे-बिखरे डोल रहे थे अत्र एक घने समूह में एकत्रित हो कर क्षितिज में एक पतली-सी पट्टी को छोड़ कर सम्पूर्ण गहरे आकाश में अन्धेरा भर रहे थे । इस अन्धकार के पीछे सूर्य चुपचाप नीचे उतर गया था-मैं तो समझा, डूब चुका था; तभी अचानक बिजली की चमक के समान उसका रक्ताभ-मण्डल विशाल समुद्र के वक्षस्थल पर उसके विस्तार को मानों जादू से आलोकित करता हुआ दिखाई पड़ा । पट्टण से मांगरोल तक का समुद्र-तट यद्यपि स्पष्ट हो गया था परन्तु बीच-बीच में नगों के समान जड़े हुए नगर अस्पष्टता में ही लिपटे रहे । एक क्षण भर के लिए थोड़ा-सा प्रकाश कुछ सफेद-से पदार्थों पर कौंध गया जिनको कतिपय नगरों के नाम से बताया गया; परन्तु, यह दृश्य जितना सुन्दर था उतना ही क्षणिक भी था; उधर सूर्य की अन्तिम और तिरछी प्रकाशयुक्त किरणें सोनारिका (नदी) की भुजंगम-गति को समुद्र से गिरनार की तलहटी तक स्थान-स्थान पर आलोकित कर रही थी, कुछ ही क्षणों में इस 'प्रकाश-पुञ्ज' का स्थान दश गुने अंधकार ने ले लिया। मैं इस अचिरस्थायी दृश्य की खुमार का आनन्द लेता हुआ थोड़ी देर Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बैठा रहा परन्तु संध्या ठंडक लिए हुए थी इसलिए अन्त में मैं उसी निर्जन रक्षाकक्ष में लौट श्राया जिसे छोड़ कर उधर चला गया था । मौसम में अब प्रचण्डता आ गई थी; हवा की तेजी प्राधी रात तक बढ़ती रही और मुझे मेरा बिस्तर, जो मैदानों के लिए काफी से अधिक था, यहाँ बहुत कम जान पड़ा । झञ्झा की आत्मा खिड़कियों और जालियों में होकर खंगार के द्वारहीन कक्षों में चीत्कार कर रही थी और यदि इसके साथ ठंड न होती तो इसका शब्द उस अवसर के लिए उपयुक्त लोरी [ शयन- गीत ] का काम करता । इसको कुछ कम करने के लिए मैंने यह तरकीब की कि जिस ओर से हवा आ रही थी उधर के खुले स्थानों को झाड़ियों और घास आदि से बन्द करवा दिए और फिर दिन भर की थकान के बाद जल्दी ही गहरी नींद में सो गया । में इस प्रकार कितनी देर सोया हूंगा, यह तो पता नहीं परन्तु अचानक ही मेरे ऊपर लुढ़कती हुई किसी भारी-सी वस्तु ने मेरी निद्रा को भंग कर दिया और दीपक को बुझा दिया । मैं चौंक पड़ा और मुझे सन्देह होने लगा कि किसी जंगली भालू अथवा अघोरी ने तो आक्रमण नहीं कर दिया, अथवा 'कालीमाता' ने ही मुझे अपने कर्कश पाश में प्राबद्ध तो नहीं कर लिया ? तभी उस खुले स्थान से, जिसको मैंने बन्द कर दिया था, एक हवा का झोंको आया और मेरी निद्रा भंग करने वाली वस्तु की किस्म मुझे ज्ञात हो गई । मैंने तुरन्त हो नवाब के पहरेदारों की सहायता से उस अवरोधक को पुनः यथास्थान रखवा दिया। वे पहरेदार नीचे चौक में अलाव के चारों ओर बैठे समय काटने के लिए गप्पें लड़ा रहे थे । उसी विश्रामस्थल से मैंने उनको उक्त कार्य के लिए बुलाया था । इसके बाद ही पिछले चौबीस घण्टों के नाटक का यवनिकापतन हुआ और मैं एक बार फिर कोमल 'पुनः पोषिका' निद्रादेवो की गोद में सो गया । और, मेरा यह प्रयत्न व्यर्थं नहीं गया । दूसरे दिन प्रातः मैंने उतराई शुरू की और जैसे ही महल की ज्योढ़ियों से बाहर निकला तो वे सभी दृश्य, जो कल शाम को धुंधले से दिखाई पड़ रहे थे, अब अपनी गम्भीरता सहित स्पष्ट हो गए थे । सूर्यदेव निरभ्र प्राकाश में उदित हुए थ और पर्वतों एवं जंगलों की विपुल तमोराशि पर सुनहरी किरणें बिखेरते हुए नेमिनाथ के मन्दिर तथा ग्रन्य पवित्र स्थानों के यात्रियों में प्रसन्नता का संचार कर रहे थे । अनेक टोलियों के यात्रियों में से मेरा ध्यान एक वृद्धा की ओर आकृष्ट हुआ जो एक पत्थर के सहारे लेटी हुई थी और उसका पुत्र चढ़ाई के कारण थके हुए उसके दुर्बल अंगों की चंपी करने के पवित्र कार्य में व्यस्त था । मैंने उससे वार्तालाप किया तो ज्ञात हुआ कि वह गोकुल से आई थी और उसके Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८; वृद्धा यात्रिणी; हाथी टूक [ ४०७ अपने एवं गोपाल देवता के जन्म स्थान से पैदल चल कर द्वारका और पीची (Pichee) तक गई थी, जहाँ श्रीकृष्ण की निर्वाण स्थली थी; अब वह वापस गोकुल जा रही थो । सन्तोष को प्रतिमा गढ़ने निमित्त वह वृद्धा यात्रिणी किसी शिल्पकार की टांकी के लिए एक बढ़िया नमूना या आदर्श हो सकती थी; उसे देख कर श्रद्धा और वात्सल्य के मिश्रित भावों के चित्र मेरी चेतना का स्पर्श करने लगे; उसके गांव गोकूल का नाम सुन कर भावों में और भी अधिक गम्भीरता पा गई थी और निश्चिन्तता एवं प्रसन्नता भरे कितने हो दिवसों तथा बहुत से पुराने मित्रों की स्मृतियाँ ताजा हो उठी थीं, जिनमें से अब केवल एक ही जीवित बचा है । दूसरे यात्रियों ने भी अपनी अपनी जन्म-भूमि के विषय में मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए; कोई गंगातीर्थ से आया था तो कोई जमना, कावेरी से और कोई 'काशीजी' या बनारस से । ज्योंही हम आगे बढ़े तो बहुत से यात्रियों ने 'गङ्गा की जय'- इस घोष को दोहरा कर उत्तर दिया। ___ मैं 'हाथो' नामक ट्रक पर ठहरा; धूप में यद्यपि बहुत तेज़ी थी और पाठ बज चुके थे, परन्तु गिरनार के गुहानिवासी पक्षी गरुड़ और गिद्ध अपनी अपनी गुफाओं से अभी बाहर नहीं निकले थे, जिनके झुण्ड के झुण्ड पर्वत के इस मुख पर मधुमक्खियों के छत्तों के समान लटके रहते हैं। सभी खोखले एक ही प्रकार के थे और मैं इसके विषय में यही कह सकता हूँ कि इनको किसी भी रूप में अद्वैतवादी जीव-रक्षकों ने काट-काट कर पक्षियों के रहने के लिए बनाए हैं, क्योंकि इनमें से बहुत से ऐसे स्थानों पर बने हैं जहाँ मौसम का प्रभाव यकायक नहीं पड़ता। कहीं-कहीं बड़े बड़े खोखलों के अन्दर कबूतर आदि लघु पक्षियों के रहने के लिए छोटे-छोटे मोखले भी बने हुए हैं। फिर, कई जगह धरती बड़े-बड़े काले सर्यों से इस तरह पटी हुई है कि चट्टान का एक कण भी दिखाई नहीं देता । मैं नहीं जानता कि गरुड़ अथवा उससे भी अवर पक्षी गिद्ध इस शिकार पर टूट पड़ते हैं या नहीं ? परन्तु, यदि वे अघोरी के साथ दावत नहीं मनाते हैं तो उन्हें अपने भोजन की तलाश में बाहर ही जाना पड़ता होगा। कौमा गिरनार पर निवास नहीं करता; इससे उसकी चतुराई ही प्रकट होती है कि वह बुद्धिमानी से मांसाहारो शव के साथ रहना पसन्द करता है और शाकाहारी भोजन जैन के लिए छोड़ देता है। ____ इस असम्बद्ध ऊँचो पहाड़ी पर विद्यमान एक चट्टान में मोटे-मोटे और स्पष्ट अक्षरों में राव राणिगदेव' का नाम दिखाई पड़ता है, जिसने संवत् १२१५ में यहाँ की यात्रा की थी।' इसमें जाति और देश का नाम तो नहीं लिखा है, परन्तु मैं निःसन्देह कह सकता हूं कि यह सौराष्ट्र के उपजिले Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा झालावाड़ का झाला सरदार और अणहिलवाड़ा के राजा भोला भीम प्रथम का सामन्त था। दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज के इतिहास [रासो] में इसका नाम बड़ी प्रतिष्ठा के साथ लिखा गया है । इसी राजा भोला भीम द्वारा मारे गए अपने पिता साँभर-नरेश-सोमेश की मृत्यु का बदला लेने के लिए पृथ्वीराज ने उसी वर्ष पहली बार तलवार उठाई थी; पृथ्वीराज का सामना करने के लिए जो वीर सामन्त एकत्रित हुए थे उनमें राणिंगदेव का नाम मुख्य है और यह अनुमान इस सत्य का प्रमाण है कि झाला सरदार ने अपने महाराजा के दरबार में पहुंचने के लिए झालावाड़ से प्रस्थान करके मार्ग में इस पवित्र पर्वत की यात्रा के अवसर का भी लाभ उठाया था।' खंगार के महलों से 'हाथी टूक' तक तो उजाड़ ही उजाड़ है, परन्तु यहाँ से वृक्षावली पुन: प्रारम्भ हो जाती है और जूनागढ़ शहर के नीचे के दरवाजे तक में इस दृश्य का आनन्द लेता ही गया; वहीं जंगल में एक किनारे पर हमारा डेरा लगा हुआ था; जब मैं वहाँ पहुँचा तो थका हुआ अवश्य था, परन्तु यात्रा के कारण चित्त प्रसन्न था क्योंकि गिरनार अर्बुद से समानता भले ही न कर सकता हो फिर भी इसके चरागाह, झीलें और झरने, विविध वनस्पति और मन्दिरों का बहुमूल्य गौरव आदि इसकी अपनी विशेषताएं हैं । यद्यपि मेरी तरह बहुत से लोगों को लगेगा कि यहाँ के धूधले और भूरे पत्थर और भारी ग्रयानिट के स्तम्भ प्राचीनता का गौरव लिए हुए वहाँ के अधिक सजीले संगमर्मर और बारीक कारीगरी की तुलना में नहीं ठहर सकते, परन्तु आँखों के सामने क्रमशः बढ़ता हुआ सागर का विस्तार जिस भाव-सामग्री को यहाँ जन्म देता है, मरुस्थली के रेतीले मैदानों में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मैं अब तक विविध देशों की यात्राएं कर चुका हूँ; (स्विजरलैण्ड में) रिगी (Righi)' पर्वत की चोटी पर से हेल्वेटियन (Hclvetian) पाल्प्स् के बर्फीले शिखरों पर सूर्योदय का दृश्य देखा है और ध्वस्त तोरतोना (Tortona)" के पीछे से शरदाकाश में अस्तंगत सूर्य की गुलाबी किरणों से हिमाच्छादित एपीनाइन्स (Appnines) को आलोकित होते हुए भी निहारा है; मॉण्ट ब्लॅङ्क १ देखिए पीछे पृ०२१० । २ यह लुसिरिन (Lucerene) और जूग (Zug) नामक झीलों के मध्य में स्थित है। 3 फ्रांस में १७९८ ई० में जो गणराज्य स्थापित हुआ था वह 'हैल्वेटिक रिपब्लिक' (Hel vetic Republic) कहलाता था। ४ स्पेन में एक रमणीय पर्वतीय स्थान । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १८; लेखक द्वारा देखे हुए विविध वृश्य [ ४०६ (Mont Blanc)' के सन्निकट पुंजीभूत 'सहस्राब्दीय शरत्' में होकर निकला हूँ; अर्द्धरात्रि के समय निष्कलङ्क चाँदनी में कॉलीजिअन' की भग्न मेहराबों को एकटक देखता रहा हूँ एवं सिरॉको' और शोक के बीच ज्वरसंतप्त होकर, मानों अन्धकारपूर्ण नाव में झकझोले खाते हुए, वेनिस (Venies) की दयनीय स्थिति पर भी मैंने विचार किया है और कामना की है कि इन्द्र (Jove) का गर्जन यहाँ के महलों पर अड्डा जमाए हुए नीच-जन्मा गिद्धों को नष्ट कर दे; मैं पीस्टम (Paestumn) के खण्डहरों में जंगली, निःशंक कैलेब्रियनों के बीच में भी बैठा हूँ; इनके अतिरिक्त, जिनको दिल दहलाने वाले दृश्य कह सकते हैं उनको भी अच्छी तरह देख चुका हूँ; परन्तु, कहीं भी मेरे मन में ऐसे भाव उत्पन्न नहीं हुए जिनको अनुभूति मुझे सप्तशिखर गिरनार पर गोरखमन्दिर के आगे एकाकी फिरंगी की उपस्थिति में अत्यधिक मदपान से मदहोश और लम्बे-लम्बे श्वास लेने वाले अर्द्धविक्षिप्त अघोरी को देख कर हुई; जब देवकूट के ऊबड़खाबड़ शिखर पर रात्रि की छाया मेरे चारों ओर चुपचाप सिमटीमा रही थी, सूर्य की अन्तिम किरणें सागर को आलोकित कर रही थीं और अस्तप्राय प्रकाश के गौरव पर चुप-चापी का साम्राज्य छा रहा था, तब भी ऐसी ही हलचल मेरे मन पर छा गई थी। इन दृश्यो से तुलना करने योग्य एक मात्र दुश्य वही हो सकता है जो मैंने मॉण्ट सेनिस (Mont Cenis) से उतरते हुए जाड़ों के मध्य अर्द्धरात्रि के समय देखा था-उस समय चोटो से लेकर कई फीट गहरी घाटी तक वह पहाड़ बर्फ से ढका हुआ था और उसकी रूपहरी सतह शुभ्र चाँदनी में नहा कर चमक उठी थी-उस चाँदनी में धुंधले देवदारु-वृक्ष-समूहों को लम्बी-लम्बो छाया 'पाल्प्स पर्वत का सर्वोच्च शिखर जो फ्रांस और इटली के मध्य में है और १५७६१ फीट ऊँचा है। २ रोम का सबसे बड़ा रङ्गाङ्गण। यह ८० ई० में बन कर तैयार हुमा था। इसमें ५०,००० मनुष्य बैठ कर खेल देख सकते थे। इस में हुए अनेक खङ्ग-युद्धों में बहुत से क्रिश्चियन बलिदान हो गए थे। ३ मध्यसागर के उत्तरी मैदानों में चलने वाली गर्म और सूखी हवाएं। ४ Paestum (पीस्टम) नामक प्राचीन ग्रीक नगर का पहले पोसीडोनिया (Poseidonia) नाम था। यह नगर ई० पू० ६०० में बसा था। स्ट्राबो और हरॉडोटस के लेखों में भी इसका विवरण मिलता है । रोमन कविताओं में यहां के प्रसिद्ध गुलाब का उल्लेख खूब हुआ है । अब भी इसके अवशेष मिलते हैं, जिनमें नेपच्यून का मन्दिर सुप्रसिद्ध है। ५ इटली का सुदूर दक्षिणी प्रान्त कैलेंबिया (Calabria) कहलाता है । वहाँ के निवासियो से तात्पर्य है। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ] पश्चिमी भारत की यात्रा एक रहस्यमय आकर्षण का विषय बनती जा रही थी, जिसके कारण साधारण से साधारण वस्तु में भी विशालता का आभास होकर भय की प्राशङ्का बढ़ जाती थी - एक अविच्छिन्न चुपचापी छाई हुई थी, जिसमें बर्फ से ढकी हुई पहाड़ी पर केवल घोड़ों की टायें सुनाई दे रहीं थी । मौसम साफ़ हो जाने के कारण, हम चढ़ कर गये थे तब से, बैरोमीटर १० अंक ऊपर दिखा रहा था। जूनागढ़ के स्वामी नवाब से मिलने और जवाब में उनका स्वागत करने के लिए हम वहाँ एक दिन और ठहर गये थे । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १६ aigar (Dandoosir); fafsart (Jinjirrie); #51514rat (Kattywauna); भादर नदी का परिवर्तित मार्ग; तुरसी (Tursye); कण्डोरना (Kundornah); का प्राचीन नगर; भोवल (Bhanwal); प्रान्त का क्यनीय दृश्य; गुमली (Goomli); के खण्डहर; जेठवों के मन्दिर; शिलालेख; जेठयों का ऐतिहासिक वृत्तान्त; नगड़ी (Nagdeah); देवला (Deolah); अहीरों की उत्पत्ति ; मुकतासर (Mooktasir); द्वारका; निर्जन प्रदेश द्वारका का मन्दिर, देवालय; महात्मा; मन्दिर-विषयक लोककथा । दादूसर-दिसम्बर १७ वीं-चार कोस । बबूल के पेड़ों से भरे घने जंगल को पार किया, जिसमें कहीं कहीं जमीन के टुकड़ों में खेतो, मुख्यत: चने की, दिखाई देती थी। गांव दरिद्र थे और उनमें इस क्षेत्र के पशुपालक अहीर तथा कुलमी (Koolmbies) बसते थे, परन्तु कुछ गांवों में सिन्धी ही सिन्धी थे। जिजिरो-दिसम्बर १८ वीं-छः कोस । खेतीबाड़ी कल जैसी ही थी, परन्त बस्ती में सामान्य जातियों के अतिरिक्त हमें दूसरी पश्चिमी बलूता ( Bulotah) जाति के लोग भी मिले । काठीवाना-दिसम्बर १६ वीं; आठ कोस । इस जगह को कस्बा कहा जा सकता है, जहाँ तीन हजार घर हैं और पक्का परकोटा भी है। यह भादर के किनारे पर स्थित है, जिसमें मेरे द्वारा देखी हई इस प्रायद्वीप की सभी नदियों से अधिक पानी है । अबुल फज़ल ने यहां की बढ़िया मछलियों की बहुत तारीफ की है, परन्तु हमने जो एकमात्र मछली कांटे से पकड़ी उसने भारतीय हेरोडोटस' द्वारा की हुई प्रशंसा को अन्यथा ही सिद्ध किया, क्योंकि वह स्वाद में बुरी तरह खारी थी और नदी के रंग को भी गदला कर रही थी। हमारी मंज़िल के अन्तिम दो मील नदी के किनारे-किनारे ही चले और उसीके तट पर हमने डेरा जमाया। यह कस्बा कुछ प्राचीन है और पुराने जमाने में कुन्तलपुर कहलाता था; अब भी यहाँ पर एक प्रान्तरिक दुर्ग मौजूद है, जिसका नाम 'काली कोट' है । कहते हैं कि काठीवाना में अट्ठारह 'बरण' अर्थात् जातियों के प्रतिनिधि बसते हैं, परन्तु यहाँ की आबादी मुख्यतः सिन्धु घाटी के बनियाभाटियों' और मोमन अथवा मुसलमान जुलाहों की है। भादर ने अपना मार्ग १ प्रथम इतिहासकार। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बदल लिया है, इस तथ्य का प्रमाण एक पुल से मिलता है, जो अब बहुत ऊंचा हो गया है और सूखा पड़ा है। पिछले अकाल द्वारा हुए विनाश का असर कस्बे और देहात दोनों हो पर पड़ा है, जिससे आबादी बहुत कम हो गई है। गांव बहत दरिद्र थे, जिनमें प्रत्येक में बीस से लमा कर सत्तर तक झोंपड़ियां थीं, और उनमें बसने वाली अत्यन्त उपयोगी जातियों के नाम अहीर या कुनबी थे जिनकी दशा बहुत ही दयनीय थी। तुरसी-दिसम्बर १६ वी; अठारह कोस । यात्रा प्रारम्भ करने के बाद कोई पाँच मील चल कर हम एक मुख्य स्थान पर पहुँचे जो इसरियो (Esarioh) कहलाता है। यहाँ अहीरों और कुनबियों की बस्ती है, जिनमें परिष्कृत खेती के लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं । हमारे बाई ओर कण्डोरना (Kundornah)' का प्राचीन नगर था, जो जेठवा राजपूतों के आधिपत्य में था। देवला (Deolah) में एक गढ़ी उस नदी के किनारे खड़ी है, जो जूनागढ़ को जाम के राज्य से पृथक् करती है और तीसरी सीमा बाईं ओर कोई डेढ़ मील पर है, जहाँ खुलसना (Khulsuna) में जेठवा राना की हद है। अब तक चली आई कमजोर फसलें यहाँ पाकर और भी क्षीण हो गई हैं और किसान प्रायः उन्हीं जातियों के हैं, जिनके नाम ऊपर लिखे जा चुके हैं । तुरसी (Tursyc) बरड़ा की पहाड़ियों की पूर्वीय श्रेणी के पास है। भांवल (Bhanwul)-दिसम्बर २० वीं से २३ वीं तक । सात कोस । ज्यों ज्यों हम आगे बढ़ते हैं त्यों त्यों जमीन की हालत अधिक खराब नज़र , एक अत्यन्त बुद्धिमान् भाट के पास मैंने इतिहास और वंशपरम्परावृत्त का स्फुट संग्रह देखा था, जिसमें से सौराष्ट्र के प्राचीन नगरों के विषय में कुछ उद्धरण भी लिए थे। कुछेक इस प्रकार हैं- 'कण्डोरना या कण्डोला ही बहुत पहले वीसलनगरी था, बाद में शिलानगरी में बदल गया, फिर तिलापुर और थन-कण्डोल हुआ और अब कण्डोला हो गया।' भाट की पुस्तक में से जो नकल मैने ली है उसमें यही क्रम है, परन्तु मैं समझता है कि यदि जेठवा जाति के 'शोल कुंवर' के कारण इसका नाम 'शिला नगरी' पड़ा हो तो तिलापुर' इससे पहले का नाम रहा होगा। बहुत से वर्षों तक मैं (मेवाड़ के) राणानों के पूर्वजों की राजधानियों में से सौराष्ट्र में तिलापुर पट्टन की खोज करता रहा परन्तु सफल न हुमा; परन्तु, अब मैं अनुमान किए बिना नहीं रह सकता कि यह वही स्थान है। यह भी असम्भव नहीं है कि इसका नाम 'शिला नगरी' शिलादित्य के कारण पड़ा हो, जिस नाम के हो (राजा) बलभी के विध्वंस से पूर्व हो चुके हैं। प्रथम संवत् ४७७ में मौर अन्तिम सं० ५६ [?] में । शिलालेखों से यह प्रश्न हल हो सकता है। विलभी का अन्तिम राजा शिलादित्य सप्तम ७६६ ई. में हुआ था] Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; गूमली; बरड़ा की पहाड़ियां । ४१३ पाती है। जंगली घास और कांटेदार थूवर से भरे विस्तृत मैदानों में खेतीबाड़ी तो जमीन के किसी-किसी टुकड़े ही में दिखाई देती है। हम मीइपुर (Meapoor) गांव में होकर निकले, जिसमें एक किले के अवशेष हैं; वह कुछ ही वर्षों पहले डाकूमों की जगह होने के कारण नष्ट कर दिया गया है। अब, इस गाँव में दीन दुखिया अहोरों के पचीस घरों की बस्ती है। भांवल नवानगर के जाम के अधिकार में है और यहाँ पर मोमन कारीगरों जुलाहों के लगभग पंद्रह सौ घर हैं । यह कस्बा बनवारी नदी के किनारे पर स्थित है, जिसका बहुत सा पानी नालियों द्वारा खेती-बाड़ी में प्रयुक्त होता है और बचा हा वितोद्रा (Vitodra) नामक विशाल नदी में जा मिलता है, जिसके तट पर इन्द्र देवता का एक मन्दिर खड़ा है । गूमली के अवशेष-इस प्रायद्वीप में एकदा विशिष्ट रही जेठवा जाति की प्राचीन राजधानी गूमली के खण्डहरों की खोज के लिए हम कुछ दिन भाँवल ठहरे। वहीं इस प्रान्त के पोलिटिकल एजेण्ट मेजर बानवेल (Major Barnewell) भी हमसे आ मिले। गूमली बरड़ा (Burrira) की पहाड़ियों के उत्तरी मुखभाग पर स्थित है, जिसका नाम प्राचीन भारतीय भूगोल में पारियात्र (?) (Purvata l है और लो महर्षि भृगु के आश्रम के रूप में प्रसिद्ध है । यह प्राचीन नगरी भांवल से लगभग तीन मील की दूरी पर स्थित है और अपनी एकान्त स्थिति के कारण यात्री को आश्चर्य में डाल देती है, क्योंकि यहाँ के प्रसिद्ध मन्दिर का शिखर भी बहत नज़दीक पहुंचे बिना दूर से दिखाई नहीं पड़ता । ऐसा कह सकते हैं कि यह एक गर्त अथवा घाटी में दबा हुआ है, और दक्षिण तथा पूर्व में अपने आधार से लगभग छः सौ फीट ऊंची बरड़ा की पहाड़ियों से घिरा हसा है और शेष दिशाओं में अन्य छोटी पहाड़ियों में छुपा हुआ है। दर्शक के आश्चर्य में यह जान कर भी कोई कमी नहीं आती कि गमली में पिछली कई शताब्दियों से कोई नहीं रहता है । तीन ओर से चने और कंकरीट (जिसको कांकरा भी कहते हैं) से बना हुआ, बड़ी-बड़ी वर्गाकार छतरियों से युक्त सुदृढ़ परकोटा इसको उत्तर, पूर्व और पश्चिम में घेरे हुए है, जो दक्षिण में स्वाभाविक रूप से सुरक्षा करने वाली पहाड़ियों से जा मिलता है। परकोटे की ये दीवारें पहाड़ के ऊपर तक चली गई हैं, जहाँ पर [प्राचीन] किले के अवशेष अब जंगली जानवरों की गुफाएं बन गए हैं। प्रत्येक दीवार के बीच में सम्बद्ध दिशा के सामने एक द्वार बना हुआ है। पूर्वीय और उत्तरी दीवारें क्रमश: पांच सौ और पाठ सौ गज लम्बी और साबुत हैं-पूर्वीय परकोटे की भींत और मुडेरें तो बिलकुल पूरी है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पश्चिमी दीवार बहुत टूटी-फूटी है - एक चौड़ी खाई के अवशेष भी यहाँ दृष्टिगत होते हैं । इस कस्बे में घुसते ही सब से पहले जिस चीज की ओर ध्यान जाता है वह है जेठों का मन्दिर, जो महलों के पास ही उस कोण पर बना हुआ है जहाँ से पहाड़ियों में पुनः प्रवेश किया जाता है । यह इमारत क्रॉस ( काँटे ) की प्रकृति की है, जो हिन्दुनों की पवित्र स्थापत्यकला में अनजानी नहीं है । इसका प्रवेशद्वार उगते हुए सूर्य के श्रभिमुख है । यह (मन्दिर) एक ऊँचे चबूतरे की पीठिका पर खड़ा है, जिसकी लम्बाई एक सौ तरेपन फीट चौड़ाई एक सौ बीस फीट और ऊँचाई बारह फीट है । यह तराशे हुए पत्थरों से बना हुआ है और इसकी भित्ति-सज्जा बहुत ही सुन्दर है । मन्दिर में तेवीस फीट व्यास वाला एक अष्टकोण मण्डप है जिसको ऊँचाई दो खण्ड है और उसके ऊपर एक गुम्बज है जो धरातल से लगभग पैंतीस फोट ऊँचा है । इस मन्दिर का स्थापत्य और मूर्ति - शिल्प दोनों ही असाधारण हैं और जो जो चीजें मैंने अब तक देखी हैं उन सबसे भिन्न हैं । इसके आधार में लगभग बारह फीट ऊँचाई के स्तम्भों की एक सरणी है जो अष्टकोणाकृति में प्रायोजित की गई है और ये स्तम्भ कोरणी का काम किये हुए भारपट्टों से सम्बद्ध कर दिए गए हैं । इसीके ऊपर दूसरी स्तम्भपंक्ति है (जिसमें सामने ही पत्थर की रविश और कटहरा है ), जिस पर कोरणी द्वारा उत्कीर्ण रास- मण्डल अथवा स्वर्गीय नृत्य-सम्बन्धी मूर्तियों से सुसज्जित गुम्बज टिकी हुई है, परन्तु इसका कुछ भाग टूट कर गिर गया है । पूर्व और पश्चिम की ओर आगे निकली हुई दो ड्यौढ़ियाँ हैं जो हमारे गिरजाघरों के मध्य भाग के समान हैं । इनकी ऊँचाई व चौड़ाई चौदह फोट तथा आठ फीट है; इनमें अनेक खम्भे व बोच की छत है, जिसके मध्य में बहुत बारीकी और सजावट से कोर कर एक कमल बनाया गया है । बड़ी गुम्बज के चारों ओर कुछ छोटी गुम्बजें भी हैं, जो भी इसी की तरह खम्भों पर टिकी हुई हैं । पश्चिम में 'देव खण' [ देवखण्ड ] अथवा निजमन्दिर है जो दस फीट वर्गाकार का एक छोटा सा कक्ष है; यह अब खाली पड़ा है और इसके ऊपर खड़े शिखर का बहुत-सा भाग तोड़ कर गिरा दिया गया है । यद्यपि भीतर से इसकी अधिकतम लम्बाई-चौड़ाई तरेसठ फीट और चौपन फीट ही है परन्तु मैंने बहुत थोड़ी ऐसी इमारतें देखी हैं, जो इसकी तरह प्रशंसा के दायरे में आती हों। जेठवों के इस मन्दिर की पौराणिक मूर्तियाँ बहुत ही आकर्षक हैं; विशेषतः खम्भों के शीर्ष भागों में, जिन पर मन्दिर का मुख्य भाग टिका हुआ है, असाधारण समायोजना को इतनी उत्कृष्ट Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१५ प्रकरण - १६ गणपति-मन्दिर विभिन्नताएं प्रदर्शित हुई हैं कि मैंने इससे पूर्व कहीं नहीं देखीं; जैसे सिंह, नरसिंह, ग्रास (Gras) [ग्राह ?] या ग्रिफिन (Griffin)' तथा वानरों की प्राकृतियां एवं ग्रीक प्रणाली की स्तम्भाधार पुतलियों (Caryatidae) को अचूक प्रतिकृतियाँ और भग्न घटचक्रादि (Gatachue)। इन मूर्तियों में प्रत्येक तरह की भाव-भङ्गिमा दृष्टिगत होती है और कुराई का काम इतना सुन्दर है कि उनको हमारे किसी भी अत्यन्त प्राचीन सैक्सन गिर्जे में स्थापित करना अनुचित न होगा। मन्दिर में कोई भी ऐसा चिह्न प्राप्त नहीं है कि जिससे यहाँ की आराध्य प्रतिमा का अनुमान लगाया जा सके, परन्तु देव-कक्ष के बाहरी शिल्प में सर्व-संहारक महाकाल के लिंग बने हुए हैं, जो इस निर्णय पर पहुँचने में पर्याप्त सहायक हैं कि यह मन्दिर या तो शिव का रहा होगा अथवा जेठवों की कुलदेवी हर्षद-माता का। थोड़ी दूर पर दक्षिण-पश्चिम में गणपति का मन्दिर खड़ा है, जो हिन्दू विश्व-देवतागण में प्रमुख है और जिसका शुण्डवाला मस्तक बुद्धि का प्रतीक है। इस मन्दिर की बनावट अपने ढंग को एक ही है; कोठरियों के चारों ओर खम्भों के स्थान पर दीवारें और चौखटदार खिड़कियां हैं तथा छत अण्डाकार है। पास ही के एक कक्ष में मध्य-पट्ट पर नव ग्रहों की मूर्तियां बनी हुई हैं, जो मनुष्य के भाग्य पर शासन करते हैं। इस 'बुद्धि' के मन्दिर के पास ही उत्तर में 'ज्ञान' का मन्दिर लगा हुआ है, जो नास्तिक बूद्ध के अनुयायियों से सम्बद्ध है। इसकी बनावट भी इस धर्म के उन सभी मन्दिरों से भिन्न है, जो अब तक मेरे देखने में आए हैं। इसमें एक दूसरे से सटे हुए चार मण्डप हैं जो खम्भों पर टिके हुए हैं जिनके शीर्ष यद्यपि उपरिवर्णित स्तम्भ-शीर्षों जैसे नहीं हैं और इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों से भी मेल नहीं खाते परन्तु यह स्पष्ट है कि इनका प्रकार उसी भावना पर आधारित ' ऐसा कल्पित जन्तु जिसका शरीर और पंजा शेर के जैसा और चोंच व डेना बाज़ के समान हो। इसका आविर्भाव एशिया में हुआ और बाद में प्राचीन भवनकला में सजावट का अंग बन गया । सन् १८८० में फ्लीट स्ट्रीट और स्ट्रेण्ड (Strand) के बीच में जो स्मारक (The Griftin, Temple Bar) के स्थान पर बनाया गया है वह नगर के 'परिचय-चिह न' (Coat of Arms) के आधार पर है। २ भवन-कला में मेहराबों का प्राधार बनी हुई स्त्री-प्राकृति । कहते हैं, कि (Caryatidae) नाम ग्रीकों द्वारा Caryae लोगों की पराजय का स्मरण कराता है, जो स्त्रियों को चुरा ले जाते थे। एथेन्स (ग्रीक की राजधानी) में Erachthaum पर बहुत अाकर्षक पुतलियाँ बनी हुई हैं ।-N. S. E; p. 244 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा है । ये उसी समय के और उन्हीं कारीगरों के द्वारा बने हैं, जिन्होंने आस्तिकों के प्राचीन 'हर्षद- माता' के मन्दिर का निर्माण किया था। इसी के भीतर एक पार्श्वनाथ की मूर्ति भी थी और एक पत्थर पर चौबीस तीर्थङ्करों अथवा देवत्व - प्राप्त जैन - प्रमुखों की मूर्तियां भी उभरी हुई थीं । महाकाल का पवित्र वृक्ष अप्रत्यक्ष रूप से परन्तु अवश्यम्भावेन इन इमारतों पर फैलता जा रहा है और ऐसा लगता है कि कुछ ही वर्षों में वह इन दोनों पर विजय प्राप्त कर लेगा । इन खण्डहरों से मैं बावड़ी पर गया जिसे देख कर प्राचीन जेठवों के कोष की पुष्कलता और हृदय की उदार भावना का पता चलता है; यहाँ मेरी शिलालेखों की शोध कुछ फलवती हुई क्यों कि यहाँ एक शिलालेख संवत् १३ (सौ) का मिला जो केवल इसके जीर्णोद्धार ( मात्र ) का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा था । गूमली में सब से अधिक आकर्षक और पूर्ण अवस्था में कोई पुरावशेष का चिह्न है तो वह रामपोल अथवा 'राम का द्वार' है । हम आगे चल कर देखेंगे कि राम के सेनापति हनुमान् से ही जेठवा लोग अपनी उत्पत्ति मानते हैं । रामपोल पश्चिमी दरवाजा है, परन्तु इसके निर्माण एवं शिल्प का ठीक-ठीक चित्रण करने में केवल पेंसिल ही सक्षम हो सकती है । प्रत्येक और तीन चौकोर खम्भों पर पत्थरों से चुने हुए शीर्षपट्ट टिके हुए हैं और दोनों तरफ अत्यन्त प्राचीन प्रकार की मेहराबें हैं; इनसे बिलकुल विपरीत दो नोकदार मेहराबें भी हैं, जो प्रत्यक्ष ही इनसे क्रम पुरानी हैं; परन्तु जब इस बात के असंदिग्ध प्रमारण मौजूद हैं कि गूमली कस्बा लगभग आठ सौ वर्षों से उजाड़ पड़ा है तो हम यह निष्कर्ष निकाले बिना कैसे रह सकते हैं कि वे मेहराबें हिन्दू प्रणाली की ही हैं ? यहां सर्वत्र ही अत्यन्त असाधारण कोरणी का काम दिखाई देता है; कुछ भागों में, बाडोली और अन्य स्थानों के समान, प्राणियों में श्रेष्ठ, मनुष्य को पशुओं में श्रेष्ठ [सिंह ? ] से युद्ध करता हुआ दिखाया गया है; अन्यत्र वह घोड़े पर सवार है; घोड़ा तो पिछले पैरों पर खड़ा है और सवार अपने धनुष से तीर छोड़ रहा है । फिर कुछ पुरुषों और स्त्रियों की मण्डलियाँ हैं, जो किसी पौराणिक गाथा को प्रस्तुत कर रही हैं; परन्तु इनसे भी विचित्र पॉन [ Pan] ' जैसे वन देवतानों " ग्रीस की पौराणिक कथाओं में Pan को गडरियों, शिकारियों प्रौर देहातियों का देवता माना गया है। वह पशुओं, भेडों, जंगली जानवरों और मधु मक्खियों का रक्षक है और वन-देवताओं में प्रमुख है । बाँसुरी का श्राविष्कर्ता भी उसे ही माना जाता है, जिससे Pans' pipes (पॉन की बांसुरी ) प्रसिद्ध है। कहते हैं कि वह अचानक भय उत्पन्न कर देता है, इसी से अंग्रेजी में भय का वाचक Panic शब्द बना है । उसके शिर पर दो छोटे सींग होते हैं और उसका प्रधोभाग बकरे जैसा होता है । - N. S. E; p. 971 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १९; जेठवों के स्मारक . [ ४१७ की आकृतियाँ हैं, जिनका कमर तक का भाग मनुष्य जैसा है और नीचे का बकरे-जैसा। ____ 'रामपोल' से मैं जेठवों के स्मारक-'पालियों' पर गया जिन पर घास और कंटीली थवरें खूब उगी हुई हैं। बहुत से पालिये तो टूट-फट गये हैं और उन पर जो लेख थे वे प्राय: सभी लुप्त हो चुके हैं। ध्यानपूर्वक परिश्रम से खोजने पर मुझे पांच स्मारक मिल गये, जो यद्यपि संक्षिप्त थे परन्तु उनके लिए 'विनाशक' को धन्यवाद देता हूँ कि (उसने उन्हें छोड़ दिया कि जिससे) गूमली के विनाश-सम्बन्धो पारिवारिक कथाओं की सम्पुष्टि हो जाती है । इनसे यह सिद्ध होता है कि राजपूत अहंभावी नहीं होते और उनके स्वभाव में यह बात नहीं है कि देश के लिए मरने वाले में ही विश्व के समस्त सद्गुणों का आधान करें-उन्होंने मतक की प्रशंसा में केवल साधारण नाम और आत्म-बलिदान की तिथि लिख कर ही सन्तोष कर लिया है; यथा संवत् १११२, पोस मास को ७...."धालोत संवत् १११२, कार्तिक मास की १३..."भरुग संवत् ... " विकट, ऊमरा और वेणजी जेठी, हरिया बनिया चोहान, और सूंसिरवा जेठवा । संवत् १११८, फागुन (वसंत) सोमवार पूर्णिमा-महाराजा हरीसिंह जेठवा । संवत १११६, कात्तिक (दिसम्बर) की ६, वीर जेठवा । इस प्रकार जिन थोड़े से अवशेषों में तिथि के रूप में जो कुछ प्राप्त हो सका उससे ज्ञात होता है कि यह सब सामग्री १०५६ ई० से १०६३ ई. तक की अथवा महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद तीस से चालीस वर्षों के बीच की है। अचिरात् हम देखेंगे कि गमली के नाश एवं पतन के समय से इन तिथियों का कहाँ तक मेल बैठता है ? जब हम भाँवल में अपने डेरे पर लौटे तो इस प्रान्त के राजनैतिक प्रतिनिधि (Political Agent) मेजर बार्नवैल (Major Barnewell) को देख कर बड़ी प्रसनता हुई; वे (डाक्टर मैकाडम Dr. Macadam के साथ) जाम की राजधानी से चल कर हम से मिलने आए थे। मैं उनके सौजन्य के प्रति आभारी हूँ कि उनकी सहायता से मैं गूमली के जेठवा राजाओं का वृत्तान्त लिख सका। वैसे, इस प्रान्त के एक सजीव इतिवृत्त-रूपी बुद्धिमान् चारण के मुख से, जो सौराष्ट्र के इतिहास का भी समान रूप से जानकार था, परम्परागत वृत्तान्त सुन कर मैंने जेठवों के इतिहास की रूपरेखा तैयार करली थी, परन्तु मेजर बार्नवैल ने अपना एक Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा दूत समुद्री तट पर पोरबन्दर भेजा था, जहाँ वर्तमान जेठवा नरेश रहते हैं, और वह उनके घरू भाट और राजाओं के इतिहास तथा बहियों के साथ लौट प्राया था। जेठवा-वंश इस प्रायद्वीप के अत्यन्त प्राचीन राजपूत वंशों में है। ऐसा ज्ञात होता है कि जब गज़नी से आक्रमण हुये थे तब इनकी शक्ति समस्त पश्चिमी भाग पर छाई हुई थी, जो भादर और कच्छ की खाड़ी से घिरा हुआ था और हालार (Hallour), बड़ीरा (जिसको मानचित्र में बरड़ा नाम से दिखाया गया है) तथा झालावाड़ का पश्चिमी भाग भी इसी में सम्मिलित थे। यद्यपि ये लोग उस समय पूर्ण स्वतंत्र होने का गर्व करते हैं, परन्तु अहिलवाड़ा के इतिवृत्तों से यह स्पष्ट विदित होता है कि वे बलहरों के अधीनस्थ सामन्तों में से थे। गुमली का नाश होने के बाद जेठवों की शक्ति क्षीण होती चली गई और उनके पड़ोसी जाम द्वारा सीमातिक्रमण के फलस्वरूप उनका अधिकार बरड़ा की पहाड़ियों के दक्षिण में एक छोटे से भू-भाग तक ही सीमित रह गया है, जिसकी वार्षिक राजस्व आय एक लाख से अधिक नहीं है। राज्य की क्षीणता के उपरान्त भी पोरबन्दर के 'पूछेड़िया राणा' अथवा लम्बी पूंछ वाले राणा छोटे-छोटे भोमियों में अपना सर ऊँचा उठाये रहते हैं और अपनी शिराओं में प्रवाहित होने वाले प्राचीन रक्त पर गर्व करते हुए अपने जमींदार स्वामी गायकवाड़ को एक प्रकार से घृणा को दृष्टि से हो देखते हैं। __ जब में 'बही-वंश' [वंश बही) में उलझ रहा था तो मुझे सेन्ट पॉल' (St.Paul) द्वारा तिमॉथी (Timothy)' को दिये हुए इस उपदेश में पूरा बल जान पड़ा कि 'दन्त कथाओं और अन्तहीन वंशानुक्रमणिकाओं पर ध्यान नहीं देना चाहिए।' मेरे दो दिनों के परिश्रम का फल मुझे इस आत्म-विश्वास के रूप में मिला कि कम से कम में भी उन लोगों की उत्पत्ति के विषय में उतना ही जानता था जितना कि वे स्वयं अपने बारे में जानकार थे। थोड़े से तथ्यों और, उनसे १ सेन्ट पॉल-सन्त पौर धर्मोपदेशक । यह पहले का इस्ट के विरुद्ध थे और उनके अनुयायियों पर अपराध लगाने में सक्रिय भाग लेते थे परन्तु एक बा. जब ये दमिश्क जा रहे थे तो मार्ग में क्राइस्ट को एक ही बार देख कर उनके शिष्य बन गये । ईसाई मत के इतिहास में सेन्ट पॉल का बहुत ऊंचा स्थान है। रोमन पाम्राज्य में ईसाई मत उन्हीं के प्रयत्नों से फैला तथा उनके आध्यात्मिक एवं नैतिक सिद्धान्तों का भी सभ्य संसार में खूब प्रचार हुप्रा था। तिमॉथी (Timothy) सेन्ट पॉल के साधी और संत थे। वे उनके साथ यूरोप गए और मसीडॉन (Macedon) में गिरजे स्थापित करने में उनकी सहायता की । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६ जेठवा-राजवंश का उद्गम [११६ भी कम, तिथियों के साथ जुड़े हुए कुछ नामों से ही उनकी परम्परा बनी हुई थी। फिर भी, मैं एक-सौ-पैंतालीस राजाओं का गुणगान, गूमली की स्थापनो से विनाश तक का वर्णन, उन लोगों के अन्तर्जातीय विवाहों, उनकी स्त्रियों और जातियों के (विविध) नामों का विवरण अनुकरणीय धैर्य के साथ इस प्राशा से सुनता रहा कि वंशावली की इस लम्बी श्रृंखला से समसामयिकता के आधार पर सम्भवतः कोई तथ्य निकल सके जिसका कि 'वेल्स की ऐसी जातियों में भी पादर हो सके जिन के मूल का अनुसन्धान प्रभी नहीं हो पाया है।' यह पुस्तक मेरे द्वारा देखी हुई वस्तुओं में बहुत विचित्र प्रोर कलात्मक सिद्ध हुई। ____ मस्तिष्क की ऐसी विकृति का, जो इस प्रकार की असम्बद्ध बातों को लेखबद्ध करने में कारण बनती है, मैं एक ही उदारण यहाँ प्रस्तुत करूंगा। इस उदाहरण की पश्चिम के किसी भी कवि अथवा भाट द्वारा गढ़ी हुई बात से समानता की जा सकती है। जातियों की उत्पत्ति के प्रसंग में मुझे पहले भी ऐसी मनघड़त कहानियों का उल्लेख करना पड़ा है, जो उनके बर्बर-उद्गम को छुपाने के लिए आविष्कृत की गई हैं । इन लोगों का कहना है कि 'पूछेडिया' सरदारों का पूर्व-पुरुष लाल-समुद्र के प्रवेश-द्वार सकोत्रा (Socotra) स आया था (जो प्राचीन काल में व्यावसायिक वस्तुओं के लिए एकत्रित हुए ग्रीक, परव, मिस्री और हिन्दू व्यापारियों से बसा हुआ माना गया है)' जिसको उन्होंने 'शङ्खोद्धार' अथवा शंख का दरवाजा, ऐसा शास्त्रीय नाम दे रखा है। यह व्यक्ति राम का सेनापति वानर देवता हनुमान था, जो उसकी पत्नी सीता की पुनः प्राप्ति के लिए अपनी सेना लङ्का पर चढ़ा ले गया था। जेठवों का मातामह मकर (Macur), (मनु के अनुसार एक समुद्री जन्तु) के अतिरिक्त और कोई नहीं था जो या तो बड़ी मछली थी या घड़ियाल था। जब राम वीरतापूर्वक लंका-विजय करके लौटे तो मकरध्वज (मकरों के ध्वज) को उसकी माता ने सौराष्ट्र के पश्चिमी तट पर मानवीय राजाओं का वंश चलाने के लिए अव. तरित किया। परन्तु, जैसा कि प्रत्युत्पन्नमति गिबन (Gibbon) ने कहा है, [बालक को] भिन्नतासूचक चिह्न माता-पिता में से किसी एक ही का प्राप्त होता है, यहाँ माता का कोई निशान न रहा और पिता पर पड़े हुए जेठवा ने उसका एक शारीरिक लक्षण बढ़ी हुई रीढ़ की हड्डी के रूप में प्राप्त किया, ' ये जातियां Cinmbri कहलाती हैं। ये लोग रोमन-शक्ति के लिए भी दुर्दम्य प्रमाणित हुए थे और इतिहासज्ञों के लिए इनका उद्गम अब तक भी अन्वेषण का विषय है। २ Edin. Review No. cxxiv. Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] पश्चिमी भारत की यात्रा जो लॉर्ड मोनबोडो (Lord Monboddo ) ' और डॉक्टर प्लॉट (Dr. Plot ) द्वारा वर्णित जातियों के चिह्नों के समान, बहुत सी पीढियाँ गुजर जाने एवं वंशपरम्परा के भ्रष्ट हो जाने के कारण धीरे-धीरे नष्ट हो गया है, अतः वंशभाट को यह प्रश्न हल करने में कुछ कठिनाई का अनुभव हुआ कि क्या वर्तमान सरदार 'पूंछेड़िया' उपाधि की परिधि से बाहर निकल गया था ? फिर भी उसने दृढ़ता के साथ सम्पुष्ट किया कि केवल चार पीढ़ी पूर्व राव सोनतान (Sonran सुरतान ? ) तक तो वह हड्डी नीचे की ओर अधिक बढ़ी हुई चली आई थी । असम्भव और असंगत कालक्रम एवं घटनाओं को छोड़ कर और अपेक्षाकृत बुद्धिवादी मेरे सहायक चारण का सहारा लेकर हमें इन प्रसंस्कृत तिथि-क्रमों को ठीक करने के लिए बुद्धि और साधारण समझ से काम लेने का प्रयत्न करना चाहिए । सकोत्रा से आई हुई मकरों की इस विचित्र जाति की पहली राजधानी उस जगह स्थापित हुई जहां मकरध्वज भूमि पर उतरा था और उसका नाम 'श्रीनगर' रखा गया तथा वहाँ के राजा इन्द्रजीत के समय तक 'ध्वज' ( अर्थात् पताका) नामान्त हुए। उसके पुत्र शील ने अपनी जाति और राजधानी दोनों ही के नाम बदल दिए। उसने गूमली बसाया और प्रत्यक्ष ही उच्चारण-साम्य के आधार पर 'मकर' के स्थान पर 'कमर' [ कुमार ] नाम ग्रहण कर लिया । शीलकुंवर गंगाजी की यात्रा करने गया और उसे दिल्ली के राजा अनंगपाल की पुत्री का पाणिग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । यदि हम जेठवों के पुरालेखों में विश्वास करें ( क्योंकि वे वंश-परम्परागत वृत्तों से सम्पुष्ट हैं) तो हमें गूमली की स्थापना का समय अनायास ही मिल जाता है, क्योंकि अनंगपाल दिल्ली को चमकाने वाला राजा हुआ है और उसका समय वि० सं० ७४९ अथवा ६९३ ई० माना गया है । इतनी पुरातनता से किसी भी जेठवा का संतोष हो जाना चाहिए और गूमली पर एक बार दृष्टिपात करने से भी इस तथ्य की सम्पुष्टि हो जायगी । समय-समय पर मध्य एशिया से आकर इन प्रदेशों में बस जाने वाली जातियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसलिए सकोत्रा से उत्पत्ति होने के विवाद में न पड़ कर हम इतना ही कहेंगे कि कुँवर ( Canvar ) की जाति उच्चतर एशिया में उल्लेखनीय रही है; और यह भी असम्भव नहीं है कि वानर देवता की कहानी उनके 'बर्बर' मूल को छुपाने के लिए ही गढ़ी गई है । जेठवों के वैवाहिक सम्बन्ध बहुत पीढ़ियों से जूनागढ़ के 1 देखिए पृ० ३० Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; जेठवा-राजवंश [४२१ यादवों, ढाँक अथवा प्रपट्टण के बल्हों, मूंगीपट्टण के गोहिलों, उमरकोट के सोढ़ों और अन्त में चावड़ों से भी होते रहे हैं, जो इस प्रायद्वीप में यादवों से भी पहले निवास के विषय में झगड़ते रहे हैं। यही नहीं, इस (चावड़ा) जाति के बचेखुचे लोगों से मुझे यह भी ज्ञात हुआ है कि उनका और जेठवों का निकास एक हो स्थान से है; 'वे समुद्र पार सकोत्रा बेट अथवा लालसमुद्र में सकोत्रा द्वीप से आए और पहले अोखामण्डल में बस गए, फिर वहाँ से प्राचीपट्टण इत्यादि स्थानों पर चले गए। शील के बाद चौथे राजा फूलकुँवर ने सूर्य का मन्दिर बनवाया, जो अब तक श्रीनगर में विद्यमान है; उसके उत्तराधिकारी भीम ने गूमली पर छिटकी हुई बरड़ा पहाड़ियों की चोटी पर किला बनवाया जो उसी के नाम पर भीमकोट कहलाता है । मेरे यात्रा-सहचर मिस्टर विलियम्स ने, जो ऊपर चढ़ गए थे, बताया कि यह बहुत लम्बा-चौड़ा किला था और गढ़े हुए पत्थरों से बना था, जो बिना सीमेण्ट के ही एक दूसरे से सटे हुए थे, यद्यपि ऐसे चिह्न मिलते हैं कि वे लोहे या इस्पात की सहायता से एक दूसरे से जोड़ दिए गए थे। वहीं पानी का एक टांका भी था। परन्तु, जेठवों का यह दृढ़ किला अब केवल जंगली जानवरों की प्रारामगाह बना हुआ है और मेरे मित्र के अनुसन्धानमूलक उत्साह ने एक वन्य वराह को उसकी माँद में से जगा भी दिया था। वंशवृत्त में लिखा है कि आठवें राजा ने कर्ण बाघेला को परास्त कर दिया था, परन्तु अणहिलवाड़ा के इतिहास का ज्ञान होने पर इस विपरीत कथानक का असत्य सामने आ जाता है, क्योंकि सोलंकी वंश के इस सुप्रसिद्ध राजा पर विजय पाना तो दूर रहा प्रत्युत उसके शासनकाल में ही गूमली का वास्तविक विनाश सम्पन्न हुआ था। दसवें राजा भाणजी द्वारा कच्छ पर आक्रमण कराया गया है और कहा गया है कि उन्होंने वहाँ को तत्कालीन राजधानी कन्थकोट (Canthi-Kote) और सिन्ध के सुप्रसिद्ध नगर बमनवाड़ा (Bumanwara)' पर अधिकार कर लिया था। चौदहवें राजा राम के विषय में कहा गया है कि वह जूनागढ़ के राव चूड़चन्द यदु का समकालीन था, जिसका नाम गिरनार के लेख में पाया जाता है। ' शिववाद[स]पुर (Sheodadpoor) आज तक कोट ब्रह्मन (Kote-Burman) कहलाता है और सम्भवत: यही मेरे शिलालेख और चन्द के काव्य का बमनवासो (Bumunwasso) Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२] पश्चिमी भारत की यात्रा ___राम के उत्तराधिकारी महीप (Mehap-महपा ?) ने तुलाई (Tullaye) के काठी राजा की कन्या से विवाह किया; इस वृत्तान्त से यह सिद्ध होता है कि जेठवों का उद्गम 'बर्बर' जाति से था । ___ गूमली के बाईसवें राजा खेमा(Khemoo) तक बीच में कोई उल्लेखनीय बात इस वृत्तान्त में नहीं है; खेमा का नाम भी केवल इसलिए संस्मरणीय है कि वह उसके मंत्री जैतो (Jaitoh) से सम्बद्ध है जो जाति से छींपा था और गूमली का तालाब जिसका उल्लेख पहले किया गया है । उसो की उदारता का परिणाम है। । पचीसवें राजा अदीत (Adit आदित्य ?) का पुत्र हरपाल हुमा जिसने एक पशु-पालक अहीर की कन्या से विवाह किया; उनकी सन्तान ही देदान (Dedan) के बाबरिया हैं, जिनके अधिकार में ऊना (Oona) और देलवाड़ा (Dailwarra) तक के बारह गाँव हैं। इसके बाद कतिपय और भी उत्तराधिकारियों ने आदिवासी मेर (Mher) लोगों में अन्तर्जातीय विवाह किए; और, इस मिश्रित जाति के लोग जो मातपक्ष का नाम धारण करते हैं, संख्या में दो हजार से कम नहीं हैं और शस्त्रधारण करते हुए जेठवा राजा के संरक्षण में निवास करते हैं। अन्त में, पचीसवें राजा ज्येष्ठा(जत) नक्षत्र में पैदा होने के कारण जिसका नाम जेठ पड़ा) के साथ कमर (Camari) का परम्परागत नाम 'जेतवा' (Jeytwa) अथवा जैसा कि प्रचलन के अनुसार मैं लिखता हैं, जेठवा' (Jaitwa) में बदल गया और इस नये नाम के साथ उन्होंने महाराजा की पदवी भी ग्रहण की अथवा प्राप्त की। नब्बेवें राजा चम्पसेन (Champsen) ने सिन्ध से निष्कासित सुमरा-वंश के सुप्रसिद्ध हमीर को शरण दी। यही वह राजा है, जिसके राज्यकाल में करगर (Caggar) नदी (जो कभी विशाल उत्तरीय पर्वत श्रेणी से निकल कर भारतीय जंगल को जलाप्लावित करती थी] सूख गई और प्रचलित पद्य के अनुसार अब तक सूखी पड़ी है। परन्तु, इस कथा का तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक कि हमीर अणहिलवाड़ा के इतिहास में समकालीन सिद्ध नहीं हो जाता। इसी के राज्य का वर्णन करते हुए जेठवा वंशावली में कनकसेन चौहान के दरबार में विवाह-सम्बन्धो एक विस्तृत विवरण दिया गया है। कन्या का पाणिग्रहण करने के इच्छुक राजाओं में मेवाड़ के हमीर और अणहिलवाड़ा के चावड़ा राजा का भी उल्लेख है परन्तु, लिखा है कि, लम्बी पूंछ वाला (पूंछे Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १९; हालामण राजकुमार [ ४२३ डिया) जेठवा ही पुरस्कृत हुआ । इस वंशवृत्त का यह दुर्भाग्य है कि मेवाड़ का हमीर गूमली के विनाश से चार शताब्दी बाद हुआ था । गूमली के सौवें राजा भाणजी ने अणहिलवाड़ा के युवराज कर्ण को युद्ध में बन्दी बना लिया और इसके बदले में उसने बालराय से 'राणा' की वर्तमान उपाधि प्राप्त की । भाणजी के नाम के साथ ही हम जेठवों की सुदीर्घ वंशावली में किसी टिकाव पर पहुँचते हैं । उसके राज्य-काल में 'गोरी सुलतान का फौजी थाना मांगरोल' में था; वह गूमली और श्रीनगर देखने आया तथा जेठवा रानी का धर्म - भाई बन गया ।' भाणजी का उत्तराधिकारी श्योजी हुना जिसके पुत्र और जेठवा शासन के अधिकारी का नाम सालामन ( Salamun ) हुआ । एक पड़ौसी राज्य के चौहान राजा की पुत्री काव्य-प्रतिभा से सम्पन्न थी श्रौर उसकी रचनाओं की सर्वत्र प्रशंसा होती थी। वह अपनी प्रतिभा के आलोक को किसी परिसीमा में बद्ध न रख कर [मुसलमानों के श्रागमन से पूर्व ] उस वीर-काल में राजपूत रमणियों को प्राप्त स्वतन्त्रता का उपभोग करती हुई अपने पूर्ण पद्यों को राजकुमारों के पास पूर्ति के लिए भेजती थी। ऐसा ही एक काव्यात्मक प्रपत्र गूमली में भी पहुँचा प्रोर चौहानों के घुमक्कड़ भाट ने भरे दरबार में उसे राजकुमार सालामन के हाथ में प्रस्तुत किया। उसने तत्काल ही उस पद्य की पूर्ति कर दी और समय पर निश्चित पुरस्कार प्रर्थात् चौहानों की सैप्फो (Sappho) 3 का हाथ भी प्राप्त कर लिया। परन्तु जेठवा राजा ने अपने पुत्र की सफल प्रतिभा पर गर्व न कर के उसके इस कार्य को ईर्ष्यायुक्त क्रोध की दृष्टि से देखा तथा उसको देशवाटी ( देश निकाले) का दण्ड दिया । सालामन अपनी वधू को लेकर सिन्ध चला गया और वहाँ के राजा ने उसको दोबा (Doba ) और धरज (Dharaj) की भूमि गुजारे के लिए प्रदान की । इस प्रकार वह वहाँ पर रहता रहा और उसके बहुत सी सन्तानें भी हुईं जिनके " कहते हैं कि, बहुत शताब्दियों बाद, मांगरोल पर मकवाणों ने अधिकार कर लिया था और प्रम भी मेरा विश्वास है कि यह उन्हीं के अधिकार में है । मकवाणे हूणों की एक शाखा माने जाते हैं और सम्भवतः इस जाति के कुछ लोग मीनागढ़ ( Minagara ) में राज्य करते थे । * पश्चिमी भारतीय बोलियों में 'स' का उच्चारण 'ह' हो जाता है । अतः यह सालामन प्रसिद्ध 'हालामण राजकुमार' की कथा का नायक है । 3 ग्रीक कवयित्री । वह मिटिलिनी ( Mitylene) में छठी शताब्दी ईसा पूर्व हुई थी । उसके विषय में कितनी ही किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। प्राचीन काल की वह बहुत बड़ी कवयित्री मानी जाती है। उसके दो काव्य और कतिपय स्फुट पद्य उपलब्ध होते हैं । उसकी कविता यद्यपि वासनात्मक होती थी परन्तु उसमें भाषा की स्फीतता स्पष्ट परिafara -N. S. E; pp. 1100-01 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा सहित वह आगे चल कर इसलाम-धर्म में परिवर्तित हो गया। परम्परागत कथानों में कहा गया है कि उसी का पुत्र सिन्ध से सेना लेकर आया और उसी ने गूमली का विनाश कर दिया। प्राय: देखा गया है कि हिन्दू भाटों की नीरस वंशावलियों में प्रसंगत: आई हुई कथानों में कोई न कोई उपदेशात्मक अथवा प्रबोधात्मक तत्व अवश्य होता है और ऐसा बहुत कम अवसरों पर ही पाया गया है कि राज्यों के विनाश के मूल में कोई न कोई-पाप कर्म निहित न होता हो। एक ठठेरे की पुत्री का अपहरण करने के कारण गूमली के राजाओं को गद्दी से हाथ धोना पड़ा और जहाँ वे सम्पूर्ण पश्चिमी प्रायद्वीप के स्वामी थे वहाँ उसका दसवां भाग भी उनके अधिकार में न बच पाया। ठठेरे की लड़की धर्मात्मा थी, और हम यह भी मान लें कि वह सुन्दरी भी थो; उसने राजा के कुत्सित प्रस्तावों को निरादरपूर्वक ठुकरा दिया और अपने को उसकी शक्ति के सामने असुरक्षित समझ कर उसने चिता की शरण ग्रहण की। परन्तु. कामान्ध राजा ने किसी भी परिणाम की परवाह न करते हुए उसे हस्तगत करने को जिद की। जब उसकी मांग स्वीकार नहीं को गई तो उसने मन्दिर को भ्रष्ट कर दिया और अपने शिकार को घसीट कर बाहर ले आया। मन्दिर के पुजारी शाप देते रहे, चिल्लाते रहे, उसको और उसके वंश को कोसते रहे और अंत में बदला लेने में असमर्थ होकर देवता की वेदी के सामने उन्होंने अपने आपको बलिदान कर दिया। इसके बाद ही सिन्ध से आक्रमणकारी आ गए तब गूमलो को घेर लिया गया और छः मास तक घेरे का सामना होता रहा । लोगों का माल-मता, परिवार और बाल-बच्चे सब भीमकोट में रख दिए गए और उनकी रक्षा का भार मेरों को सौंपा गया; राजा, उसके सामन्त और सहायक राजपूत तलहटी अथवा नीचे के शहर की रक्षा में संलग्न हुए। रात को जब घेरा ढोला पड़ता तो रक्षक लोग अपने परिवार वालों से मिलने के लिए भीमकोट में चले जाते । घेरे वालों ने इसका लाभ उठाया, गमली में घुस गए और ताबड़तोड़ नसेनी लगा कर भीमकोट में उतर गए। अन्धाधुन्ध कत्ले-नाम हुआ जिसमें गूमली का तारक्विन (Tarquin)' श्योजो, उसके सगे-सम्बन्धी और मित्र मोदि टुकड़े-टुकड़े करके मार दिए गए। वंशावली में उनके नाम गिनाए गए हैं जिनमें से बहुत से तो १ रोम का सातवां अन्तिम राजा जिसका कथानकों में उल्लेख है। उसने ई.पू. ५३४ में राज्य करना प्रारम्भ किया था। वह बड़ा पराक्रमी था और उसने रोम के राज्य का बहुत विस्तार किया था।-N S. Ep. II99 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६, गूमली का पतन [ ४२५ प्राचीन डाबी जाति के पाए गए। वंशावली और भाट की मौखिक कथा के अनुसार इस अशुभ घटना की तिथि संवत् ११०६ (१०५३ ई०) है, जो स्मारक के पालियों [चबूतरों में से किसी पर भी अंकित संवत् से तीन वर्ष पहले की है। असुरों (राजपूतों के भाटों ने सामान्यतया यह शब्द मुसलमानों के लिए प्रयुक्त किया है) के लिए स्पष्ट लिखा है कि उनके लम्बी-लम्बी दाढ़ियां थीं और वे लोग 'मन्दिर में कुरान पढ़ कर' वापस सिन्ध लौट गए। मैंने पाठकों का ध्यान कई बार चित्तौड़, गमली आदि जैसे नगरों की ओर आकर्षित किया है और वहाँ सती के 'तिलक' अथवा स्मारक के विषय में भी घोषणायें की हैं, जिन से 'यहूदी पैगम्बर' द्वारा मिस्र, ईडम (Edom)' और टायर (Tyre) को दिए हुए शापों में से किसी एक की याद आ जाती है, और उस अनिष्ट-सूचक आदेश का भी स्मरण हो पाता है जो इतना प्रभावशाली और बीभत्स होते हुए भी 'पवित्र लेख' (Holi Writ बाइबिल ?) में इतनी सरलता से उल्लिखित है 'जो देश ऊजड़ हैं-उन्हीं के बीच में इन्हें भी ऊजड़ होना ही चाहिए'; यह कथन (आदेश) गूमली के एकान्त ध्वंसावशेषों पर ऐसा लागू होता है मानो विनाश के फरिश्ते के पर ही [वास्तव में इनके वैभव को] समेट ले गए हों। इसमें वे सभी चिह्न पाए जाते हैं जो किसी भी अकस्मात् ऊजड़ हुए नगर में होते हैं। शपथ [शाप] की गम्भीरता एक-एक पत्थर तक व्याप्त दिखाई पड़ती है । सभी पुरावशेष यथावत् मौजूद हैं, जो धीरे-धीरे ध्वस्त और ऊजड़ हुए किसी निर्जन नगर में शायद ही पाए जाते हैं। सती के शाप को क्रियान्वित करने और गूमली के अवशेषों की रक्षा करने के लिए केवल दो चेतावनियां ही पर्याप्त सिद्ध हई। पहला तो मोरवाड़ा (Morewarra) का उदाहरण है, जो पूर्णतया जेठवों की राजधानी के अवशेषों से निर्मित हुआ था और भूकम्प की एक ऐसी दुर्घटना में धराशायी हो गया जैसी प्रायः इन क्षेत्रों में ईश्वरीय आदेश की अवहेलना के फलस्वरूप हुआ ही करती हैं । ऐसा ही भांवल में हुआ, जहाँ आसानी से प्राप्त हुई यहां की सामग्री से निर्मित कुछ घर एक साथ गिर गए और उनमें रहने वाले भी उन्हीं के नीचे दब गए। अत: इन अवशेषों को मनुष्य द्वारा नष्ट होने की कोई आशंका नहीं है और ये विचित्र पदार्थों के रूप में उस समय तक यथावत् विद्यमान रहेंगे जब तक कि भविष्य में कोई प्रकृति का झोंका 'कुवरों के इस प्राचीन नगर को भूमिसात् न कर दे । ' पैलेस्टाइन के दक्षिणी जिले का नगर, जो मृतसमुद्र (Dead Sea) और अकाबा की खाड़ी के बीच की पर्वत श्रेणी के पास है। यहां के निवासी ईसाउ (पृ० ४३ टि०) के सम्बन्धी बताए जाते हैं। यह नगर यह दी पादरियों द्वारा अभिशप्त था। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा इस प्रकार हमें जेठवों के इतिहास की दो ऐसी घटनाओं का पता चलता है, जो सुदृढ़ आधारों से सम्पुष्ट हैं-पहली, संवत् ७४६ में गूमलो की स्थापना और दूसरी, संवत् ११०६ में इसका विनाश; प्रथम घटना शीलकुँवर से सम्बद्ध है, जो दिल्ली के अनंगपाल का समकालीन था (जिसका समय हमने अन्यत्र तिथिक्रम-सारणी एवं अन्य राज्यों के इतिहास की समसामयिक घटनाओं के आधार पर निश्चित किया है ) और गुमली के विनाश की सम्पुष्टि पालियों अथवा स्मारक पत्थरों से हो जाती है । वंशावली को प्रश्रय देते हुए (इस घटना के लिए] कुछ वर्ष आगे संवत् १११६ का समय भी मान्य किया जा सकता है। इन दोनों तिथियों के बीच में अर्थात् तीन सौ साठ वर्षों के समय में हम बीस राजाओं का गद्दी पर बैठना स्वीकार कर सकते हैं। इस बात की सुखद सम्पुष्टि करते हुए मेरे चारण मित्र ने बताया कि उसकी सूची में भी इतनी ही संख्या लिखी है और गमली के विनाश की दुर्घटना 'अब से सात सौ सत्तर वर्ष पूर्व' हुई थी। यह हिसाब पालियों की तिथि से भी बिलकुल सही बैठता है। इस बीच में एक ऐसा समय आता है जिस पर ध्यान देना प्रावश्यक है; वह है गुमली के विनाश से दस पीढ़ी पहले सिंहजी का समय । वंशावली से पता चलता है कि सिंहजी ने चित्तौड़ की राजकमारी से विवाह किया था। यदि अनुपातत: एक राजा का राज्यकाल तेवीस वर्ष माना जाय तो इस हिसाब से सिंहजी का समय ८२३ ई० पाता है, जो उस महान् घटना के बहुत ही निकट का सिद्ध होता है, जिसका उल्लेख मेवाड़ के इतिवृत्तों में हुआ है अर्थात् पहला इसलामी हमला जब कि समस्त राजपूती शौर्य चित्तौड़ की रक्षा के लिए एकत्रित हना था; और उन 'चौरासी राजाओं में, जिनके लिए किले की चारदीवारी में गद्दियां लगाई गई थीं, जेठवा राजा का विवरण मेवाड़ के भाट ने स्पष्ट रूप से दिया है । जेठवों के इतिवृत्तों में उन परिस्थितियों का भी वर्णन है जिनके कारण यह विवाह-सम्बन्ध सम्पन्न हुआ और हिन्दू मतानुसार इस 'पृथ्वी के छोर' का राजा चित्तोड़ के महाराणा के हितों की रक्षा के लिए स्वयं वहां पर गया। यह विवरण यद्यपि बहुत गम्भीर नहीं है, परन्तु इसका महत्त्व इस लिए बढ़ जाता है कि इससे यह पता चलता है कि जेठवों को उत्पत्ति की विचित्र कथा का आविष्कार प्राधुनिक या पिछले जमाने में नहीं हुआ है। चित्तौड़ का एक घुमक्कड़ गायक अपनी निरुद्देश्य यात्रा के प्रसंग में जेठवा राजा के दरबार में पहुंचा। राजा ने उसको खूब इनाम इकराम से लाद दिया और विवाह-प्रस्ताव का माध्यम बनाया। इस प्रस्ताव के उत्तर में चित्तौड़ के रावल ने तिरस्कारपूर्वक कहलाया 'मैं वानर पिता और मछली माता को सन्तान को अपनी पुत्री नहीं दूंगा।' तिरस्कार की Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १९; हिन्दू संघर-क्रम [ ४२७ भावना से युक्त इस अस्वीकृति से जेठवा राजा को बड़ा खेद हुआ; तब, उसके वंश-भाट ने बरड़ा पहाड़ी पर स्थित हर्षद-माता के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया और वहां इतनी कठिन तपस्या एवं बलिदान सम्पन्न किए कि उसकी कुलदेवी ने प्रत्यक्ष सामने आकर उसे 'जेठवों की प्राचीन वंशावली, का ज्ञान कराया । इस सूचना के साथ वह चित्तौड़ गया और वहां के राजा का मन मनाने में सफल हुआ । इस विचित्र कथा के प्राधार पर हम पूंछेडिया रावों के 'एक सौ पैंतालीस मुकुटधारी राजाओं' का हिसाब नहीं बैठा सकते और समसामयिक तिथिक्रमानुसार घटनाओं की कसौटी के आगे तो वे सब हवा में उड़ते नज़र आते हैं। फिर, हर्षद माता कोई जादूगरनी तो थी नहीं, न छल-वश होकर के अपनी पुत्री का पाणि-समर्पण किसी अर्द्ध-देवता को कर देने से 'हिन्दूपति सूर्य' का ही सम्मान बढ़ जाता था। परन्तु, इन छिछले उपाख्यानों से भी हम कुछ सच्चे ऐतिहासिक तथ्यों का पता चला सकते हैं, जो सब भारत में इसलाम के आगमन से कुछ ही शताब्दी पूर्व के उस अन्धकारपूर्ण, परन्तु रोचक, समय से सम्बद्ध हैं जब कि नईनई जातियां यहां निरन्तर आने लगी थी और वे प्राचीन राजपूतों में सम्मिलित हो रही थीं। जिन लोगों ने हिन्दू संवत्-क्रम (Chronology) पर विचार किया है उन्हें याद होगा कि बहुसन्दर्भित वलभी के शिलालेखों में कम-से-कम चार विभिन्न संवतों का उल्लेख मिलता है जिनमें से एक, जो सब से बाद का है, 'सी हो है' (Seehoh) [सिंह ?] नाम से अभिहित है । इस प्रकार वलभो संवत् ६४५= विक्रम संवत् १३२०-सीहोह संवत् १५१ हुआ, जिसको यदि १३२० में से घटा दें तो संवत् ११६६ अथवा १११३ ई० बच जाते हैं । उस समय यह चालू हुआ होगा। तब सिद्धराज प्रणहिलवाड़ा का सर्वसत्ता सम्पन्न राजा था और इन क्षेत्रों पर उसका सार्वभौम अधिकार था। क्या संभव हो सकता है कि बल्हरों में सब से बड़े इस राजा ने अपने अट्ठारह परगनों के साम्राज्य के निकटतम सौराष्ट्र के कोने में इस नये संवत् को चालू करने की आज्ञा दो हो ? किसी भी दशा में, यह गूमली के सीहोह [सिंह ?] से ही सम्बद्ध हो सकता है । परन्तु, गमली तो नष्ट हो चुका था और वहाँ का पापी राजा अपने कर्मों का फल भोगने चला गया था। चारण ने सालामन के देश-निकाले की दुःखपूर्ण गाथा का समर्थन किया है-'सिन्धु सुम्मा वंश के जाम ऊनड़ ने उसका संरक्षण किया जिसके पुत्र बमनिमा (Bumnea) ने सेना लेकर उसको पुनः गद्दी पर बैठाने के लिए आक्रमण किया, परन्तु सालामन ने अपनी जन्मभूमि को, जहां उसके पिता और ब्राह्मणों का रक्त बहा था तथा जो सती के शाप से अपावन हो गई Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा थी, बिलकुल छोड़ दिया और सिन्ध को लौट गया। वहीं उसने दो विवाह किये, एक धमरका (Dhumarka) के जाड़ेचा की पुत्री से और दूसरा उमरकोट के सुमरा के यहाँ । इस प्रकार यह वंश मुसलमान हो गया और अभी तक सिन्ध में दोबा धारजी ( Doba Dharjee) की भूमि पर इन लोगों का अधिकार है । सालामन की कवयित्री चौहान पत्नी का पुत्र प्रायद्वीप में लोट आया घोर रामपुर में बस गया, जहाँ उसके वंशज कितनी ही पीढ़ियों तक रहते रहे । सब, क्योंकि गूमली संवत् ११०६ में नष्ट हो गया था और ११६६ में सीहोह संवत् चालू हुआ था इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वाभाविकतया मालामन के पुत्र और सिंह के पौत्र ने नई राजधानी स्थापित करके गूमली के अन्तिम राजा के नाम से उसके नये संवत् को स्मरणीय बनाया होगा । इस घटनाप्रधान कहानी का अन्त इस प्रकार है । जेठवा उस समय तक रामपुर में जमे रहे जब तक कि जाम ने उन्हें वहाँ से हटा न दिया । इस घटना के बाद वे समुद्री तट पर चले गये और वहाँ पर अस्थायी निवास ( अथवा 'छाया' ) कायम कर लिया। उनके भवनों ने धीरे धीरे नगरी की संज्ञा ग्रहण कर ली, जो अब तक भी 'छाया' नाम से प्रसिद्ध है; और यद्यपि बाद में उन्होंने सुदामापुर की तरफ अपनी वर्तमान राजधानी पोरबन्दर भी खड़ी कर ली परन्तु जेठवा राजाओं का राजतिलक अब भी 'छाया' में ही होता है । इस अन्तिम परिवर्तन के बाद ग्यारह पीढ़ियां बीत चुकी हैं। वर्तमान राणा खेमजी कहलाते हैं और जाम के भाणेज ( बहन का पुत्र ) हैं । इनके दो पत्नियाँ हैं, एक तो ढाँक के बल्हों (Bhalla ) की पुत्री है और दूसरी चावड़ा रामपुर (Chaora Rampoor) के झालों की । इस काठी, कुनाणी ( Cunani ), मेर, बल्ह, झाला और जाम शाखाओं के सम्मिश्रण में भी 'कुँवर' रक्त निःशेष नही हो गया है; और यद्यपि सौराष्ट्र की वंशावलियों में उनकी गणना छत्तीस राजकुलों में की गई है, परन्तु हम यह निश्चय कह सकते हैं कि केवल स्थिति और परिस्थितिवश हो ये लोग हिन्दू बन गये हैं । कपिध्वज अथवा 'हनुमान् की प्राकृति-युक्त झण्डा' अब भी उसके वंशजों के आगे-आगे सभी जलूसों या सवारियों में चलता है और जब कभी जेठवा सुसराल जाता है तो पूंछड़ी या दुम उनकी पत्नियों के सगे-सम्बन्धियों में 'मजाक', बदनामी या मनोरंजन का विषय बन जाता है । हर्षद [ माता ] अब भी उनकी कुलदेवी है, परन्तु बरड़ा की पहाड़ियों में बने हुए उसके मन्दिर में सर्वसाधारण का प्रवेश निषिद्ध है श्रतः मीश्रानी ( Meannee) में एक नया मन्दिर बन गया है । यहीं हर्षद की यात्रा में Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; त्रागा; मुत्तासर; देवला बालनाथ महादेव भी भाग ले लेते हैं, परन्तु ये सब विनाश और पुनरुत्पत्ति के प्रतीक हैं। नगड़ी (Nugdeah) दिसम्बर २४ वीं; सात कोस या चौदह मील । निर्जन जंगल में होकर एक नीरस मंजिल ; तीन या चार झोंपड़ियां हमको मिली जिनमें अहीर बसे हुए थे। उन्होंने बबूल और जंगली घास के जंगल में कहींकहीं कुछ खेत भी जोत रखे थे, जो चारों ओर दुष्प्रवेश्य थूवरों से सुरक्षित थे। इन में से एक राजरियो (Rajirio) नामक गांव कुछ आकर्षण का विषय था क्योंकि यह एक ऐसे चारण का ग्राम था जिसने महमूद के आक्रमण के समय त्रागा' (Traga) अथवा आत्मघात कर लिया था । बेचारा चारण अत्याचारी से केवल इसी प्रकार बदला ले सका। इन गीत-पुत्रों चारणों के पालिये अथवा स्मृति-पट्ट इस परम्परागत कथा की सम्पुष्टि करते हैं और उनके वंशजों के लिए अब भी तीर्थ-स्थान बने हुए हैं । आज मेरे चम-चक्षों ने गौरवगिरि गिरनार के अन्तिम बार दर्शन किए। देवला-दिसम्बर २५ वीं; छः कोस । करीब आधे रास्ते पर हमने लानी (Lanni) नदिया को पार किया और प्रोकपात (Okapat) को भी, जो ओखामण्डल (Okamundala) को पूर्वी सीमा पर आसिया-भादरा (Asiabhadra) ग्राम के पास है। उत्तर में होलूर (Hollur हालार ?) है । यहां की पूरी आबादी अहीरों को है, परन्तु कहते हैं कि इस जमीन पर उनके मालिकाना अधिकार नहीं हैं। वह सम्पूर्ण स्वत्त्व राजपूतों को प्राप्त है, जो इस क्षेत्र में यत्रतत्र बहत थोड़ी संख्या में बिखरे हुए हैं । मैंने पहली बार अहीरों से उनकी उत्पत्ति के विषय में सुना; वे अपने को यदुवंश का बताते हैं और कहते हैं कि यमुना-किनारे सौरसेन गोकुल-भूमि को छोड़ कर वे गोपाल-राजा कन्हैया के साथ संघ के रूप में यहां चले आए थे। कुछ भी हो, इनका कथन पौराणिक कथाओं पर आधारित है। इनका भ्रमणशील होने का गुण तो निर्विवाद सिद्ध है ही। सब मिला कर व्यक्तिगत गुणों की दृष्टि से इस प्रायद्वीप में अहीरों से बढ़ कर कोई जाति नहीं है, और खेती की सामग्री जैसे हल, गाड़ी और पशु आदि में तो भारत भर में ' जब आततायी इतना प्रबल हो कि पीड़ित अपनी शक्ति से किसी प्रकार उसका सामना नहीं कर सकता है तो वह अपने इष्ट देवता के सामने बैठ कर हठ ठानता है और शरीर को विविध प्रकार की यातनाएं देता है । कभी-कभी यह प्रक्रिया मरणान्त चलती है और इस प्रकार के शरीर-त्याग को 'त्रागा' कहते हैं। जौहर और त्रागा राजस्थान एवं गुजरात के विशेष आत्मबलिदान के प्रकार रहे हैं। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. ] पश्चिमी भारत की यात्रा इनका जवाब नहीं है। फिर भी, ये गांव बहुत मामूली हैं; लगभग तीस-तीस झोंपड़ियां एक-एक में हैं और इनमें पारिवारिक सुख की अपेक्षा व्यक्तिगत सुख की भावना अधिक है । मीनानी (Meannee) हमारे बाईं ओर चार कोस पर थी, जहां से हमने कुछ बढ़िया मछलियां प्राप्त की थीं। मुक्तासर (Mooktasirr) - दिसस्बर २६ वीं-आठ कोस, पूरे अट्ठारह मील । परन्तु, दो ही ढानियां मिलीं जो एक दूसरे से दस मील की दूरी पर थीं अर्थात् देवला से दो मोल पर सतोपुर, जिसमें अहीरों के पचीस घर थे और बोगांत (Bogant) में लगभग पचास घरों की बस्ती थी। इस पहाड़ी इलाके में बेजोड़ चरागाह हैं, जिनमें होकर हम दिन भर चलते रहे और बढ़िया-बढ़िया जानवरों के झुण्ड पुष्कल 'दूर्वा' चरते हुए हमारे सामने आये । मुक्तासर को 'सौन्दर्य की झोल' कहते हैं। यहां पर जंगली जलमुर्गाबियों की भरमार है और इसके पेटे में सूर्यकान्त मणि की किस्म का वह पीला रत्न पाया जाता है जो इधर के मन्दिरों में सजावट के लिए प्रयुक्त होता है। द्वारका - दिसम्बर २७ वीं-दस कोस । 'प्रानन्द की झोल' से 'द्वार के देवता" तक बोस मील का मार्ग बिलकुल ऊजड़ और ऊसर है। यहाँ समुद्र के किनारे पर मादड़ी [?] (Maddi) नामक एक गाँव है अथवा कभी था ! परन्तु, कुछ वर्षों पूर्व समुद्री डाकूओं के आक्रमण के बाद वह ऊजड़ पड़ा है। इस ऊजड़ गांव के पश्चिम में कोई चार सौ गज की दूरी पर खारी नदी है, जिसका मुहाना बालू की दीवार से अवरुद्ध हो रहा है; यदि इसको हटा दिया जाय तो यह 'जगत की कंट' फिर उसी प्रकार द्वीपाकार हो जाय जैसे कि कृष्ण के समय में थी। हम समुद्र के किनारे-किनारे चले, जिसकी लहरें रह-रह कर बालू अथवा कठिन कंकरीट की चट्टानों से टकराती थीं-यही इस द्वीप की किस्म-जमीन है जिसमें बालू और कोरी चट्टानों पर समान रूप से फैलने वाली थूवर के अतिरिक्त कोई चीज पैदा नहीं होती। कोई छः मील इधर से ही द्वारका के मन्दिर का शिखर दिखाई देने लगा और कोई एक मील की दूरी पर तो हमें दूसरी खाड़ी (Khary) में उतरना पड़ा जिसका पानी [घोड़े की] जीन तक आ गया था। परकोटे से घिरे हुए नगर में से गुज़रते समय और हिन्दुओं के 'जगत्कूट' पर स्थापित हमारे डेरे पर जाते हुए हमने पवित्र मन्दिर पर दृष्टिपात किया। 'द्वारकानाथ । । दक्षिण पूर्व में मादड़ी की दूरी १३ मील है। मैंने गुमली पहाड़ी के पूर्व की माप ली। २०७२° पू. और इस प्रकार यह माप (समुद्री) तट से तट को मिलाती है। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; द्वारका का मन्दिर [ ४३१ बैरोमोटर ३००४,-थर्मामीटर प्रातः ६ बजे ६२°; दोपहर में ८५°-- सूर्यास्त के समय ७६° । कृष्ण के मन्दिरों में सब से अधिक प्रसिद्ध द्वारका का मन्दिर समुद्र-तट से कुछ ऊंचाई पर बना हुआ है और एक परकोटे से घिरा है, जो शहर के भी चारों ओर घूम गया है, परन्तु ये दोनों एक ऊंची दीवार से पृथक् कर दिए गए हैं। मन्दिर को अच्छी तरह देख सकने के लिए इसके अन्दर होकर निकलना पड़ता है । इसकी शिल्पकला वही है जिसे हम [शिखरबन्ध] देवालय को संज्ञा दिया करते हैं । इसे तीन भागों में बना कहा जा सकता है-मण्डप या सभा भवन, देवखण अथवा निज-मन्दिर, जिसको गर्भगृह (?) (Gabarra) भी कहते हैं और शिखर । पहले, मण्डप की बात कहें; यह प्रायः चौकोर है और भीतर से इक्कीस फीट है तथा इसकी ऊंचाई पाँच स्पष्ट श्रेणियों (मंज़िलों) में विभक्त है। प्रत्येक खण्ड में स्तम्भ-समूह है; सब से नीचे के खण्ड की ऊंचाई बीस फीट है और अन्त तक वही सम-चौकोण प्राकृति रहती चली गई है, जिसमें आड़े शीर्षपट्ट लगाए गए हैं, जो उत्तरोत्तर गुम्बज के लिए आधार बन जाते है; सब से ऊपर की चोटी धरातल से पचहत्तर फीट ऊँची है। प्रत्येक वर्गचतुष्कोण के मुख-भाग पर चार-चार भारी खम्भे खड़े किए गए हैं जो इस महान् भार की नींव का काम करते हैं । परन्तु, इन्हें भार-वहन के लिए अपर्याप्त समझ कर प्रत्येक स्तम्भयुग्म के बीच-बीच में कुछ अतिरिक्त खम्भे लगा दिए गए हैं जिससे समरूपता का बलिदान हो गया है। लगभग १० फीट चौड़ाई को एक खम्भेदार 'भमती' या फिरनी सब से नीचे की मंज़िल में घूम गई है, जिससे उत्तर, दक्षिण और पश्चिम की ओर के भाग खम्भों के सहारे और भी आगे बढ़ गए हैं। प्रत्येक खण्ड में एक भीतरी रविश भी है, जिसके सिरे पर तीन-तीन फीट ऊंची दीवार बनी हुई है कि जिससे कोई असावधान मनुष्य नीचे न गिर जाय । इन छोटी-छोटी दीवारों पर पृथक् पृथक् विभक्त भागों में कुराई का बढ़िया काम हो रहा था, परन्तु इसलाम की टांको ने भी अपना काम किया और प्रत्येक उत्कीर्ण मूर्ति को भ्रष्ट कर दिया गया, यहाँ तक कि अब मूल प्रायोजना का पता लगाने योग्य भी पर्याप्त चिह्न अवशिष्ट नहीं हैं; परन्तु, भ्रष्ट करने की यह क्रिया भी बहुत सोच-समझ कर की गई है कि जिससे मूल इमारत को कोई क्षति नहीं पहुँची है।। मन्दिर का अधस्तम अथवा वर्गाकार भाग पूर्वकाल में गर्भगृह या निजमन्दिर है, जिसमें कृष्ण-भक्तिकाल से पहले 'बुद्धत्रिविक्रम' की पूजा होती थी और स्वयं कृष्ण भी बुद्ध-पूजन करते थे, जिसका एक लघु मन्दिर अब भी अन्तस्तम Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२] पश्चिमी भारत की यात्रा देवालय में विद्यमान है और कृष्ण की मूर्ति इससे बाहर के कक्ष में स्थापित है। अत्यन्त प्राचीन शैली में निर्मित इस शिखर में एक के बाद एक पिरामिड बने हुए हैं, जिनमें से प्रत्येक ही एक लघु मन्दिर का प्रतीक है और सबसे ऊपर के शिखर की ओर सिकुड़ता चला गया है, जो जमीन से एक सौ चालीस फीट की ऊँचाई पर जाकर समाप्त होता है । जहाँ इस पिरामिड की आकृति वाले शिखर का व्यास बहुत छोटा हो जाता है उससे पहले इसको सात मंजिलें स्पष्ट हैं; प्रत्येक मंजिल का मुख भाग एक खुले ओसारे से सजा हुया है जिस पर छोटेछोटे खम्भों पर टिके हुए छज्जे भी बने हुए हैं। प्रत्येक मंजिल में भीतर की पोर खम्भों पर खम्भे टिके हए हैं और इन पर टिके हए मध्य-पट्ट उन पर धरे हुए भार की घटती हुई मात्रा की अपेक्षा अनुपाततः अधिक भारी होते चले गए हैं; यद्यपि सब से ऊपर की मंजिल में बहुत से मध्यपट्ट अपने ही भार से तड़क गए हैं, परन्तु वे समष्टिगत एकता के कारण अपने स्थान पर कायम हैं। इन खम्भों के शीर्ष-दल बिलकुल सादा हैं और चारों तरफ कुछ-कुछ आगे निकले हुए हैं कि उन पर मध्य-पट्ट आसानी से टिक सकें; शिल्पी की नासमझी या मन्दता के कारण, जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता, कुछ मध्य-पट्ट तो खम्भे के सिर पर न रखे जा कर वास्तव में शीर्ष-दल के इस आगे निकले हुए भाग पर हो टिके हुए हैं । यह जान कर आश्चर्य होगा कि सदियाँ बीत जाने पर भी उनकी क्षमता के प्रमाण में कोई अन्तर नहीं पाया है। अवश्य ही, विट विप्रस (Vitruvius)' इस आविष्कार से चकित हुए बिना न रहता। इस इमारत की पूरी बनावट, जिसकी भीतर से लम्बाई-चौड़ाई अठहत्तर फीट और छियासठ फीट है, चट्टानी पत्थर या बलुआ पत्थर की है, जिसमें इस द्वीप की किस्मजमीन की मिट्टी विभिन्न मात्रात्रों में मिली हुई है, जिसका रंग हरा-सा हैस्थानीय मिट्टी के पेटे (बन्ध) के कारण हो अथवा क्षारीय वायु-मंडल के कारण, परन्तु जब इस पर तेज रोशनी पड़ती है तो वह समस्त भवन-समूह को एक प्रकार की दर्पण के समान प्राभा से प्रत्यासित करती है। भीतर से इसकी विचित्र प्राकृति नाक जैसी है । शीर्ष-पट्ट यद्यपि अपवाद हैं, परन्तु समुद्री क्षारीय पिण्ड से निर्मित होने के कारण वे उन चूने के पिण्डों से भिन्न नहीं लगते जिनका वर्णन सोमनाथ के मन्दिर के प्रसङ्ग में किया गया है। • सुप्रसिद्ध रोमन शिल्पशास्त्री और De Architectura नामक बृहत् शिल्पशास्त्रग्रन्थ का कर्ता। इसके व्यक्तिगत जीवन के विषय में विशेष विवरण ज्ञात नहीं है; केवल इतना ही कहा जाता है कि उसका लेखन-काल रोम-निर्माण (ई. पू. २७) से पूर्व का है । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १६; रणछोड़ का मन्दिर ; बुद्ध त्रिविचम [ ४३३ इस मन्दिर की नींव अयनान्तकाल में रखी गई होगी क्यों कि इसकी प्रगवार ख-मध्य रेखा से दश अंश भिन्न है और क्योंकि ऐसे विषयों में शिल्पी को पण्डितों के मतानुसार कार्य करना पड़ता है इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि गुरुगूचा' (Goor-goocha) ब्राह्मणों को, जो उस समय के मुख्य प्रबन्धक थे, और जो उस समय के सूर्योदय-बिन्दु को ही सही पूर्व-बिन्दु मानते थे, 'सूर्य-सिद्धान्त' का ज्ञान नहीं था। अत: इसकी चौड़ाई उत्तर-पश्चिम (N.N.W.) से दक्षिण-पूर्व (S.S.W.) में है और नियमों के प्रतिकूल इसका पिछवाड़ा उदय होते हुए सूर्य की ओर तथा अगवार पश्चिम में है। यहाँ कृष्ण का पूजन 'रणछोड़' के रूप में होता है। यह वह रूप है जब मगध के बौद्ध राजा ने उनको पितृदेश शौरसेन से भगा दिया था। एक स्तम्भाधारित ढको हुई सुरंग कृष्ण के मन्दिर को उनकी माता देवकी के छोटे-से मन्दिर से जोड़ती है; और विशाल चौक में कुछ और भी छोटे-छोटे मन्दिर हैं, जिनमें से एक, दक्षिण-पूर्व के कोने वाले में बुद्ध-त्रिविक्रम की मूर्ति स्थापित है अथवा जिनको प्रायः त्रीकमराय (TricamRae) या त्रिमनाथ (Trimnath) के नाम से भी अभिहित करते हैं। यह मन्दिर सदैव यात्रियों से भरा रहता है। इसके सामने ही अथवा मुख्य-मन्दिर के दक्षिण-पश्चिमी कोने में कृष्ण के दूसरे रूप मधुराय' का छोटा मन्दिर है और इन दोनों के बीच में एक मार्ग है, जो सोपान-सरणि द्वारा गोमती तक जाता है । यह एक छोटी सी नदी है, जिसका मुहाना समुद्र के समान ही विशेष पवित्र माना जाता है यद्यपि इसको पार करते समय पैर का ऊपरी भाग भी गोला नहीं होता । बड़े मन्दिर से 'संगम' पर बने हुए संगमनारायण के मन्दिर तक गोमती के किनारे-किनारे उन यात्रियों की समाधियाँ बनी हुई हैं जिन्हें इस 'देव-द्वार' में जोवन-विसर्जन करने का सौभाग्य प्राप्त हा है। इनमें पाँच पाण्डवों में से चार भाइयों की समाधियाँ भी हैं, जो इस क्रमागत कथा का समर्थन करती हैं कि पाचवाँ भाई हिमालय में जाकर अदृश्य हो गया था; कहते हैं कि वह वहाँ पर बरफ में गल गया और उसके साथ भारतीय हरक्यूलीज़ बलदेव भी थे, जिनकी प्रतिमा कुछ सीढियां नीचे उतर कर भोयरे • ये 'गुलेचा' अथवा 'गुरेचा' ब्राह्मण कहलाते हैं । २ 'मधु' अर्थात् 'मादक' कृष्ण का साहित्यिक नाम है, जो सम्भवतः 'माधव' से और 'मधु' (मक्खी ) से सम्बद्ध है-शायद यह शब्द हमारे 'Mead' से बना हो । वास्तव में, श्रीकृष्ण का 'मधुराय' नाम मथुरा के स्वामी होने के कारण पड़ा है। मथुरा को प्रायः ‘मधुरा' अथवा मधुपुरी कहते हैं । Mead शब्द का प्राचीन अंग्रेजी में Meodu रूप है, जिसका अर्थ शहद और पानी मिला हुआ सुगंधित पेय होता है । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४] पश्चिमी भारत की यात्रा में मण्डप के दक्षिण-पश्चिमी कोने में विराजमान है । बलदेव को दानवों से युद्ध करके पाताल से ऊपर प्राता हुआ बताया गया है । संगमनारायण के मन्दिर में एक वृद्ध पुजारी बैरागी (Byragi) कहलाता था; कहते हैं, वह उस समय अपनी प्रायु के सौवें वर्ष में चल रहा था। उसने जीवन में खूब यात्राएं की थीं, विशेषतः वैष्णव-तीर्थों की भारत में और बाहर भी; परन्तु, उससे कुछ भी जानकारी प्राप्त करना मेरे लिए कठिन था। समुद्री डाकुओं के दो जहाजों के तल भी कम आश्चर्य-कारक और मनोरञ्जक नहीं थे, जो खींच कर तट से ऊपर सूखे में संगमराय के मन्दिर के पास ही डाले हुए थे। इसी देवता के झण्डे के नीचे और संरक्षण में वे डाकू इन समुद्रों में खोज किया करते थे। __ मेरी शिलालेखों की खोज यहाँ निष्फल गई क्योंकि जो दो लेख मुझे मिले वे जानबूझ कर इस प्रकार विकृत किये गए थे कि कुछ भी पढ़ने में नहीं आ सकता था; और यद्यपि सभी प्रान्तों से समय-समय पर पाए हुए भक्तों और यात्रियों ने अपने नाम लिख-लिख कर दीवारों को रंग दिया था, परन्तु इन साधारण से साधारण अभिलेखों (Records) में भी मुझे कोई ऐसी बात नहीं मिली कि जिसका मैं अपने संस्मरणों में उल्लेख कर सकू। .. 'चोरों और एकता' के देवता के मन्दिर के पुजारी अपनी वंश-परम्परा के विषय में भी अत्यन्त अनभिज्ञ हैं और 'द्वारका-माहात्म्य' एक नीरस शास्त्रीय गद्य ग्रन्थ' है जिसमें असत्य एवं प्रशुद्ध घटनाओं के अनावश्यक समावेश का भी कोई विचार नहीं किया गया है जैसा कि प्रायः ऐसे ग्रन्थों में होता ही है । ये पण्डे यात्रियों की भुजाओं पर देवता की छाप लगाने में बड़े पक्के हैं और इनका प्रकार प्रायः वही है जो हमारे नाविक प्रयोग में लाते हैं। यह क्रिया 'संगम' पर सम्पन्न होती है। पहले सिर के बाल मुंडवा कर जल के देवता [वरुण] को समर्पण कर दिए जाते हैं और नकद भेंट चढ़ा दी जाती है, तब वे इस धार्मिक चिह्न को ग्रहण करके स्वदेश लौट सकते हैं। इन लोगों का कहना है कि यह मन्दिर, त्रिविक्रम-बुद्ध के प्राचीन मन्दिर पर, पोखामण्डल के राजा वज्रनाभ ने बनवाया था जो कृष्ण का पोता था, और जिसका वंश, महान् अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध (महाभारत) के बाद यादवों के सिन्धु के पश्चिम में यत्र-तत्र बिखर जाने तक एक शताब्दी-पर्यन्त चलता रहा था। । 'द्वारका-माहात्म्य' स्कन्दपुराणान्तर्गत प्रह्लादसंहिता कहलाता है-अतः प्रवाहयुक्त संस्कृतपद्य में इसकी सरस रचना हुई है। जान पड़ता है लेखक को इसी का कोई गद्यानुवाद मिला होगा। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - १९; रईब-सईब [ ४३५ स्वयं वज्रनाभ भी अन्त समय में उत्तर के पर्वतों में भद्री (Bhadri) (बदरिकाश्रम ?) चला गया था और उसके वंशज उस प्रदेश के निवासियों में (जो दानू [दानव] कहलाते हैं) अन्तर्जातीय विवाह करके यहाँ जगत्कूट पर लौट आए तथा उन्होंने शंखोद्वार पर अधिकार कर लिया। वहां उन्होंने कलोर-कोट (Kulore Kote) खड़ा कर लिया, जहाँ वे एक हजार वर्षों तक राज्य करते रहे । इसो अवसर पर रईब और सईब (Raib and Saib) नाम के दो यवन प्रकट हुए, जिन्होंने इन सब को मार डाला और एक हजार पाँच सौ वर्षों तक यहाँ अपना अधिकार उस समय तक बनाए रखा जब मोहम्मद ●करा Mohomed Dhoonkra) जिसके पास विक्रमादित्य की चमत्कारिक अंगूठी थी, दिल्ली से आया; गोर और गजनी पर तो उसने पहले ही अधिकार कर लिया था। मोहम्मद ने कलोर-कोट और प्रोखा पर अधिकार कर लिया तथा बेलम (Belem)' जाति के रईब-सईब के वंशजों को मार कर समाप्त कर दिया । फिर पूर्व की ओर से कनकसेन चावड़ा पाया और उसके वंशज बहुत सो पीढियों तक राज्य करते रहे। इसके अनन्तर मारवाड़ से उम्मेदसिंह राठौड़ पाया जिसने चावड़ों का वध करके 'कूट' पर कब्जा कर लिया तभी से यह वाडेल (Wadail) या बाधेल (Badhail) कहलाने लगा क्योंकि यहाँ पर 'वध' किया गया था । बेट अथवा द्वीप में राजधानी बनी रही और इन राठौड़ों के वंशज यहाँ के पूर्व निवासियों में अन्तर्जातीय विवाहादि करके बाधेर (Wagairs) कहलाने लगे तथा साहसिक समुद्री लूटपाट के लिए प्रसिद्ध हुए। सामलामानिक वागेर के समय में औरंगजेब मन्दिरों को तोड़ता-फोड़ता इधर पाया और इसी अवसर पर द्वारका का शिखर भी उतार कर फेंक दिया गया; १ परम्परागत कपापों में कहा जाता है कि बेलम जाति और इसके मुखिया गोरी बेलम ने ही पालीताना का विनाश किया। • मोखामण्डल के इतिहास में वर्णित उत्तरवृत्त को राठोड़ों के इतिहास से सम्पुष्टि होती है। राठोड़ों के इतिहास में लिखा है कि सीहाजी ने मारवाड़ में अपना राज्य स्थापित किया । उनके तीन पुत्र थे, प्रास्तानजी, सोनिंगजी और उज्जो (उदजी) । प्रास्तानजी तो मारवाड़ के राजा हुए और सोनिंगजी व उदजी गुजरात की तरफ चले गए । वहाँ का राजा भीमदेव (द्वितीय) उनका मामा था। उसने कड़ी परगने में सामेतरा ग्राम अपने भानजों को जागीर में दिया। उदजी का विवाह द्वारका के पास चावडों के एक ठिकाने में हुआ था। कुछ समय बाद इस उदजी ने वहाँ के भोजराज चावड़ा को मारकर द्वारका पर अधिकार कर लिया । इसी उदजी को लेखक ने उम्मेदसिंह लिखा है। इस प्रसंग में देखेंबॉम्बे गजेटियर, पृ० ५६१ । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा परन्तु, सामला रणछोड़ की प्रतिमा को पहले ही बेट में ले गया जहां वह अब तक मौजूद है। सामला मानिक के वंशजों का संवत् १८७६ (१८२० ई.) तक अोखा की भूमि पर अधिकार बना रहा और वे अपनी समुद्री प्रवृसियों को चलाते रहे, परन्तु उसी समय मल्लू मानिक (Mulloo Manik) के अत्याचारों ने अंग्रेजों को बदला लेने के लिए सन्नद्ध कर दिया। तो यह है उस कथा का सारांश जिससे हिन्दुओं के 'जगत्कुंट' में कृष्ण की स्थापना, उसके वंशजों का यवनों अथवा ग्रीकों द्वारा निष्कासन, मोहम्मद (बिन कासिम ?) का आक्रमण और अन्त में मेरे मित्र और स्कूल के साथी ऑनरेबल कर्नल लिंकन स्टैनहोप (Hon. Colonel Lincoln Stanhope) की अध्यक्षता में सेना द्वारा संगमराय के समुद्री लुटेरों के सरदार मल्लू मानिक के निधन के साथ-साथ उनके समूलोन्मूलन तक का सम्बन्ध है । असुरों और यवनों बेलम राजाओं, जिनका, मोहम्मद या महमूद ने सफाया कर दिया और अंत में चावड़ों और राठौड़ों की मन्द प्राचीन कथानों पर आधार खड़ा करना समय को बिगाड़ना मात्र है; परन्तु, अन्तिम तीन घटनाएं ऐतिहासिक तथ्यों से सम्पुष्ट हैं और एक के बाद एक तिथिक्रम से सम्बद्ध हैं । बेलम (जाति) के विषय में हमें पालीताना के विध्वंस से सम्बद्ध गाथाओं पर आधारित सूचना मिल चुकी है और हम यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि जिस समय यवनों अथवा ग्रीकों ने अपोलोडोटस और मिनान्डर की अध्यक्षता में इन 'सुरोई' क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की थी, वह समय भी इन गाथाओं के अनुसार कोई बहुत लम्बा-चौड़ा नहीं है । उनके पूर्वज दनुज (danoos) अथवा असुर असीरियन होंगे-इस बात से इन सूर्य-पूजकों के प्रायद्वीप के नाम के अतिरिक्त यहां के असाधारण शिलालेखों का भी विवरण विदित हो जायगा। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २० बोरावाला (Beerwalla-बेरावल?)-प्रारमरा (Aramara), जूनी द्वारका; गोरेजा (गुरेजा ?); यवनों को मजारें; समुद्री डाकुओं के पालिए (स्मारक); बेट अथवा शंखो. द्वार; कृष्ण-कथा; बेट के शङ्ख; राजपूतों के रणवाद्य शंख; समुद्री लुटेरों का दुर्ग; हिन्दू अपोलो (विष्णु) के मन्दिर; राजपूत कवयित्री मीरा बाई; समुद्री राजाओं के ऐतिहासिक लेख; समुद्री वस्त्रों को सचाई ; नाविक धावों की सीमा । दिसम्बर ३०वीं व ३१वीं-प्रारमरा और बेट; अट्ठारह मील तक हमने खाड़ी के किनारे-किनारे एक सुन्दर सड़क पर यात्रा को जो परकोटा वाले शहर बेरावल और कच्छगढ़ के छोटे से किले में होकर निकलती है। प्रारमरा का प्राचीन और आकर्षक कस्बा समुद्र द्वारा बेट से पृथक हो गया है परन्तु, यह भूमि बिलकुल बेकार पड़ी थी जिसमें आज प्रातःकाल प्राकृतिक वनस्पति के रूप में केवल थूवर के ही दर्शन हो सके । कुछ भैंसों के झुण्ड, जिनको रेबारी चरा रहे थे, झाड़ियों में मुंह मार रहे थे, जो उनका मोटापा बनाए रखने के लिए पर्याप्त थीं-बस, यही जीवित प्राणियों के चिह्न हम वहाँ पर देख पाए। सदियों पुरानी समुद्री लूटपाट की आदत ने उनकी भूमि में बंजड़ होने का अवगुण ला दिया था; फिर भी, हमें परिश्रमी लोहरा भाटी मिले, जिनसे किसी भी ऐसे स्थान पर भेंट होना स्वाभाविक है, जहाँ धन पैदा करने की सम्भावना हो । ये लोग खारवा नाविकों और बह-संख्यक जाति के समुद्री लुटेरों वाघेरों अथवा मकवाणों में खूब घुल-मिल गए हैं । प्रारमरा का पटेल (Patel) अब भी अपने शुद्ध राठोड़ रक्त का अभिमान करता है और, यदि यह सच है तो, उसे अपने वंश का गर्व होना भी चाहिए। आसपास के कतिपय स्थलों के आधार पर यह ठीक जान पड़ता है कि प्रारमरा ही मूल अथवा प्राचीन द्वारका है। इसकी अपनी प्राकृति और आसपास के भग्न देवालय इस अनुमान की प्रबल साक्षी दे रहे हैं। बड़े मन्दिर की भांति यहाँ भी यात्रियों के शरीर पर कृष्ण की छाप लगाई जाती है, परन्तु यहाँ ब्राह्मण के स्थान पर चारण यह छाप भक्तों के देह पर अंकित करता है; भेंट के ग्यारह रुपये देने पड़ते हैं; त्यागी और वैरागी भी इससे मुक्त नहीं हैं। प्रारमरा के आसपास और भी बहुत सी आकर्षण की वस्तुएं हैं, जिनमें कुछ मन्दिर भी हैं, परन्तु उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिस पर मुसलमानों के Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा दुर्व्यबहार को छाप मोजूद न हो । कृष्ण के सहस्रनामों में से एक 'धन के पर्वत के स्वामी' गोरधननाथ' के मन्दिर में तो उल्लुनों ने एक उपनिवेश ही कायम कर लिया | गोरेजा या गोरीचा (गुरेचा ? ) में होकर हम सवेरे ही निकले थे । ये लोग इसको कच्छ गजनी ( Cacha Gazini) कहते हैं । यहाँ हमने दो प्रसिद्ध यवनों की मजारें देखीं, जिनके नाम अस्सा और पुर्रा (Assah and Purra) अज भी विचित्र कथानों में प्रचलित हैं । ये मज़ारें लम्बाई में बीस फीट से अधिक हैं और इनकी चौड़ाई भी इसी अनुपात से है; परन्तु, चरमरा में ही पाँच और मज़ारें बताई जाती हैं जो छत्तीस-छत्तीस हाथ लम्बी और छः छः हाथ चौड़ी हैं और इस बात का सूचन करती हैं कि पहले इस 'जगत्कूट' में जो असुर या यवन रहते थे वे वास्तव में दैत्याकार होते थे । बर्कहार्ड (Burkhardt ) ने फिलस्तीन में बी (नबी ? ) प्रशा ( Neby Osha) या पैग़म्बर होसी या ( ? ) की मज़ार का वर्णन करते हुए कहा है, 'यह एक ताबूत की शकल में है, छत्तीस फीट लम्बी, तीन फीट चौड़ी और साढ़े तीन फीट ऊँची; यह तुर्कों के मतानुसार बनाई गई है, जो यह मानते थे कि उनके सभी पूर्वज, मुख्यतः मोहम्मद से पहले के पैगम्बर दैत्याकार थे ।' आगे चल कर उन्होंने यह भी कहा है कि सीमोलो - सीरिया ( Coelo Syria) में नोहा ( नूह ) की मजार तो इनसे भी बड़ी है । यदि ये आरमरा के असुर प्रारमीयन ( Areanean) जाति के थे, जो प्राचीन असीरिया से आए थे, तो वे इन सब बातों में अपने पूर्वजों के रिवाजों का ही अनुसरण करते रहे होंगे । अब हम प्रारमरा के दैत्यों की कब्रों को छोड़ कर अधिक आकर्षक स्मारकों अर्थात् जल-दस्युओं के पालियों की ओर चलें, जो किसी भ्रामक भाषा में नहीं बोलते यद्यपि उन पर गूढाक्षरों के नमूने अंकित हैं; परन्तु कोई भी उनसे दोहरा अर्थं नहीं निकाल सकेगा क्योंकि टूटे-फूटे चबूतरों और भग्न छतरियों के पत्थरों में से जो दो बचे हुए हैं उन पर स्पष्ट उभरे हुए अक्षरों में 'युद्ध-रत त्रीकमराय के जहाज' ये शब्द कोरणी से अंकित हैं। इनमें से एक पालिया तीन मस्तूल की जहाज जैसा है जिसमें तोपों के लिए छिद्र बने हुए हैं; दूसरा अधिक पुराना और प्राचीन ढंग का जहाज है और उसमें एक ही मस्तूल है तथा युद्ध - • यह गोवर्धन का संक्षिप्त रूप है । इस नाम का एक पर्वत शौरसेन प्रान्त में जहाँ कृष्ण का जन्मस्थान है। यही पर्वत उनके प्रथम चमत्कार का साक्षी है । अब भी वहां लाखों यात्री जाते हैं और प्रतिवर्ष दूध से प्रतिमा का अभिषेक करते हैं । यहाँ 'गोवर्धन' का अर्थ लेखक ने 'धन के पर्वत का स्वामी' किया है जो स्पष्ट हो असंगत है । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण-२०; शङ्खोद्वार [ ४३६ सम्बन्धो अाधुनिक आविष्कारों में से कोई भी चीज नहीं दिखाई गई है। ये दोनों ही जहाज पीछा करने की तैयारी में दिखाए गए हैं। एक जल-दस्यु नाविक ढाल और तलवार लिए चद्दर में से झपट कर निकलता हुआ बताया गया है और दूसरा अपनी नाव के अग्र भाग से उठता हुआ; इन्हें देख कर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये उन वीरों की प्रतिकृतियाँ हैं, जो यहाँ समाधिस्थ हैं । दूसरा पालिया ‘राना रायमल' का अभिलिखित स्मारक है "जिसने संवत् १६२८ (१५७२ ई.) में राजा का अाक्रमण होने पर 'साका' किया था; उसके इक्कीस सगे-सम्बन्धी भी साथ में मारे गये और जेठवानो सती हुई।" इक्कीसों ही शहीदों के पालिये यहाँ पर बने हुए हैं । एक और पालिया था जो तिथिक्रम में सब से बाद का और इन्हीं प्रारमरा के जल-दस्यों को स्मृति में बनाया गया था तथा पर्याप्त सूचना लिए हुए था "संवत् १८१६ (१७६३ ई०) में जदरू (Jadroo) खारवा समुद्र में मारा गया।' खारवा हिन्दू नाविकों का सुपरिचित नाम है। पहली जनवरी, १८२३-जल-दस्युओं के द्वीप अथवा, जैसा कि अधिक बल देकर कहते हैं, बेट या 'द्वीप' को पार किया-परन्तु हिन्दुओं के शास्त्र में तो इसे शंखोद्वार अथवा 'शंखों का दरवाजा' कहते हैं और यह अत्यन्त पवित्र तीर्थों में गिना जाता है। यहीं पर कृष्ण या कन्हैया ने पीथियन 'अपोलो' की भूमिका सम्पन्न की थी और अपने शत्रु जल-नाग तक्षक का वध कर के पवित्र ग्रंथों का उद्धार किया था जिनको चुरा कर उसने उस महाशंख में छुपा दिया था। इसी कारण इस द्वीप का यह नाम पड़ा है । कन्हैया की पूरी कथा आलंकारिक भाषा में लिखी गई है, परन्तु वह न तो अरुचिकर है ओर न ऐसी ही है कि उसकी ग्रन्थियां न सुलझाई जा सकें। इन लोगों के पुराणों में इससे सरल उदाहरणात्मक अंश दूसरा नहीं है, जो उस समय के वैष्णवों के नये मत और उससे भी प्राचीन बुद्ध मत को मानने वाले लोगों के साम्प्रदायिक विवादों से सन्दर्भित है। कृष्ण के धर्मानुयायियों का प्रतीक उनका वाहन गरुड़ बताया गया है और उनके धूर्त प्रतिपक्षी बौद्धों को तक्षक नाग अथवा सर्प से चिह्नित किया गया है। यह नाम उन्होंने उत्तर से निकली हुई जातियों को दिया है, जो समय-समय पर भारत पर आक्रमण करती रही हैं। इन्हीं में से तकसिली लोग (Taksiles) भी थे। अलेक्जेण्डर का मित्र (जिसकी राजधानी का स्थान अब भी बाबर के संस्मरणों में सुरक्षित है) विक्रम के शत्रु तक्षक शालिवाहन के नाम से अधिक प्रसिद्ध है । यादव-राजकुमार कृष्ण की कथा में (जिन्होंने स्वयं बुद्ध त्रिविक्रम के मत को छोड़ कर विष्ण त ग्रहण किया था, भले ही वे उसके Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] पश्चिमी भारत की यात्रा प्रवर्तक न हों) हिन्दुओं के इस दूरस्थ स्थल पर उनके द्वारा नाग-शत्र से ग्रंथप्राप्ति और यमुना में उसके साथ प्रथम युद्ध से हमको उसी साम्प्रदायिक संघर्ष की सूचना मिलती है, जिसमें यहाँ आकर उन्हें उन लोगों को भारत के उत्तर में से तथा इस गोर से निकाल देने में सफलता प्राप्त हुई थी। इसी के अनुसार उन्हें मगध के नोस्तिक राजा जरासंध से पराजित होने के कारण 'रणछोड़' नाम प्राप्त हुमा तथा अन्त में इन धार्मिक एवं गृह-युद्धों के परिणामस्वरूप ही उनकी मृत्यु हुई और सारा यदुवंश तितर-बितर हो गया जिसके वे मुख्य प्राधार शङ्खोद्वार अब भी शंखों के लिए प्रसिद्ध है । एक किनारा, जो छिछले पानी के कारण अनावृत सा हो गया है, जहाज ठहरने के स्थान के समीप ही है और यहीं पर ये शंख पाये जाते हैं। परन्तु, इस कलिकाल में 'रणशङ्क' जिसके निनाद से रण का प्रारम्भ घोषित किया जाता था, अब किसी राजपूत के हाथों की शोभा नहीं बढ़ाता; अब तो इसका प्रयोग ब्राह्मणों तक ही सीमित रह गया है, जो इसके द्वारा 'प्रातःकाल देवताओं को जगाते हैं' अथवा लोगों को उनके भोग लगाने का समय सूचित करते हैं; अथवा इसका और भी महत्वपूर्ण उपयोग हिन्दूसुन्दरियों की कलाइयों के लिए चूड़ियाँ बनाने में किया जाता है। शंखोद्वार के ५ इन यादवों के विषय में मेरा विचार है कि ये सब धास्तव में बौद्ध थे और इण्डो-गेटिक निकास के थे जैसा कि इनकी बहुपतित्व की एक ही रीति से ज्ञात हो जाता है; और लमहमें सर्वोच्च जंन विद्वान् से यह सूचना मिलती है कि बाईसवां बुद्ध नेमिनाथ केवल यद ही नहीं था वरन् कृष्ण का निकट-सम्बन्धी भी था तो कोई संशय नहीं रह जाता। और, जैसा कि मैंने पहले कहा है अब तो यह घोषणा करने का मेरा पक्का विचार है कि ये यद ही 'यति' अथवा जक्सातीस (Jaxartes) के जेत (Gates) हैं जिनमें, चीनी अधि. कारी विद्वान् प्रोफेसर नुइमैन (Nueman) के अनुसार क्राइस्ट से पाठ सौ वर्ष पूर्व एक शामनीयन (Shamnean) सन्त उत्पन्न हुआ था। दोनों ही नेमिनाथ और शामनाथ का व्यक्तिगत नाम श्याम वर्ण के कारण पड़ा है-प्रथम को प्रायः अरिष्टनेमि अर्थात् श्यामनेमि और दूसरे को श्याम अथवा कृष्ण कहते हैं, जिसका अर्थ श्याम या काले रंग का होता है, और जब यह केवल परम्परागत कथा ही नहीं है अपितु द्वारका में कृष्ण के मन्दिर के भीतर बुद्ध का मन्दिर भी सुरक्षित है तो कोई सन्देह नहीं रह जाता कि वेवत्व-प्राप्ति से पूर्व कृष्ण का धर्म बौद्ध धर्म था। महाभारत का युद्ध बुद्ध से बहुत पूर्व हुआ था, यह सर्वमान्य है। फिर श्रीकृष्ण का बौद्धमतानुयायी होना कैसे संभव है ? लेखक 'बुद्ध त्रिविक्रम' नाम से भ्रम में पड़ गये जान पड़ते हैं । त्रिविक्रम विष्णु का नाम है और बुध ग्रह का इन दोनों ही देवताओं के मन्दिर द्वारका में हैं। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २०; शंखोद्वार के शंख [ ४४१ शंखों का सब से बड़ा ग्राहक बंगाल है। मझे याद है कि प्राचीन नगर ढाका में एक पूरा बाजार शंख काटने वालों का है और ये सभी शंख बेट से आते हैं। गायकवाड़ सरकार के (समद्री) किनारे खेतों की तरह शंखों से भरे रहते हैं, जिनको बम्बई का एक पारसी व्यापारी खारवा नाविकों से बीस 'कौड़ी' (पांच से छः रुपये) प्रति सैंकड़ा के भाव से ठेके पर ले लेता है और वहां से जहाज में भर कर बंगाल भेज देता है । अन्तिम लदान दो ही दिन पहले हुआ था और आधी दर्जन में से मुझे केवल एक ही शंख ऐसा मिला, जो प्राचीन काल के वीरों द्वारा काम में लेने योग्य हो सकता था। राजपूतों के वीर-काव्यों में 'शंखनाद' का निरन्तर उल्लेख आता है और यह इन लोगों में उसी प्रकार प्रचलित है जैसे हमारे यहाँ पश्चिमी योद्धाओं में पीतल का बाजा बजाना। दो मुख्य शंखों का उल्लेख 'महाभारत' (Great-war) में आता है अर्थात् स्वयं कृष्ण का शंख 'पाञ्चजन्य' (Panchaen) जो इतना भारी था कि उसको वे ही उठा सकते थे और दूसरा उनके मित्र तथा बहनोई (Brother-in-arms) अर्जुन का, जो उलट छिद्र के कारण दक्षिणावर्त (शंख) कहलाता था' और जो उसके प्रतिस्पर्धी कौरवों के सेनापति भीष्म को विजय-चिह्न के रूप में प्राप्त हुआ था। इनमें से एक प्रकार का शंख 'अमोलक' (Amuluc) भी कहलाता है, जिसका 'कोई मूल्य नहीं होता'-ऐसे एकमात्र शंख का अणहिलवाड़ा के बल्हरा राजा सिद्धराज के पास होने का उल्लेख मिलता है और, कहते हैं कि वह अब रूपनगर के सोलंकी सरदार के पास है, जो मेवाड़ के दूसरी श्रेणी के सामन्तों में है। यद्यपि मैंने उनसे उनकी गौरवपूर्ण वंश-परम्परा के विषय में कई बार बातें की हैं, परन्तु उनकी इस पैतृक चल-सम्पत्ति के बारे में मुझे कभी ख्याल ही नहीं पाया। पहले कह चुका हूँ कि जल-दस्युनों का यह दुर्ग पहले 'कलोर-कोट' कहलाता था । द्वीप के पश्चिम की ओर स्थित यह किला पूर्ण और प्रभावशाली है। इसकी ऊँची-ऊंची सुदृढ़ छतरियों में लोहे की मजबूत तोपें बड़ी चतुराई से रखी हुई हैं जिनका सबसे छोटा और सुदृढ़ मुख समुद्र की ओर है। सौन्दर्य-प्रेमियों के लिए यह सौभाग्य की बात है कि अन्तिम जल-दस्यु राजा का इस किले के ध्वंसावशेषों में दब कर नष्ट हो जाने का विचार पूरा न हो सका; और अब यह चिरकाल तक उस उत्पात के स्मारक-स्वरूप खड़ा रहेगा, जो अत्यन्त प्राचीनकाल से [अब तक] लाल समुद्र के प्रवेश-द्वार (शंखोद्वार) से कच्छ की खाड़ी तक फैला . अर्जुन के शंख का नाम 'देवदत्त' था। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा हुआ था और जिसका सफाया हो जाना पूर्वीय देशों में बृटिश सत्ता से प्राप्त लाभों में नगण्य नहीं है। जिस प्रकार साइरो-फोनीशियन (Syro Phoenician) और कैल्टिक लोगों में सूर्य-देवता बेलिनस (Bclenus) अथवा अपोलो (Apollo) नाविकों के संरक्षक थे, उसी प्रकार लारिस और सौराष्ट्र के समुद्री-राजाओं ने इस भूमि में बुद्ध-त्रिविक्रम से परिवर्तित कर के इनके देवत्व और पूजा पर एकाधिकार जमा लिया था; यह भी कम विचित्र बात नहीं है कि हिन्दुनों और पौराणिक ग्रीकों में अपोलो (विष्णु) और मरकरी (बुध) में समान रूप से गुण-विनिमय सम्पन्न हुआ। गोलो के तीरों को, जिनके प्रभाव से वह समद्र की तूफानी लहरों पर शासन किया करता थो, यहाँ उसकी पुजारिन ( Prietess) से कैल्टिक नाविकों ने खरोद लिए थे, जो अपने सम्भावित लाभ का एक अंश घूस के रूप में देवता को चड़ाते थे; इस बात का विचार नहीं था कि उनके मनोभाव नियमानुकूल थे अथवा नियम-विरुद्ध । इसके परिणाम-स्वरूप हिन्दुओं के इस देवता के जितने मन्दिर जगतकूट में हैं उतने अन्य किसी क्षेत्र में नहीं हैं (ये मन्दिर उतनी ही संख्या में हैं जितने उसके रूप हैं)। इनमें सब से प्राचीन शंखनारायण का मन्दिर है और देखा जाय तो यही सब से सही और उपयुक्त पूजा का पात्र है, परन्तु [विष्णु के] अन्तिम रूप 'रणछोड़' ने इसको दबा लिया है। रणछोड़ का वर्तमान मन्दिर डेरा (?) (Decah) अथवा तम्बू के आकार का है और अत्यन्त आधुनिक है क्योंकि इसको लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले जोम ने औरंगजेब के आक्रमण के समय बनवाया था; परन्तु, इस बीच में यह प्रतिमा कोई एक दर्जन बार चोरी चली गई या हटा दी गई और पुनः प्राप्त कर ली गई । भक्तों द्वारा उसके पार्थिव शरीर के प्रति ही अधिक श्रद्धा व्यक्त करने वाली यह बात भी कम विचित्र नहीं है कि जहाँ-जहाँ उस [कृष्ण] का मन्दिर बनाया गया है वहाँ-वहाँ उसको माता मथुरा के यादव-राजा वसुदेव की पत्नी देवकी का भी एक मन्दिर निर्मित हआ है। जब मैं मन्दिर में दर्शन करने गया तो 'देवता शयन कर रहे थे' और क्योंकि सामने के तट पर पहुँचने के लिए मेरा जहाज तैयार खड़ा था इसलिए 'अवकाश' होने तक ठहरने का निमन्त्रण में स्वीकार नहीं कर सका। परन्तु, जो देवालय मेरे लिए सब से अधिक आकर्षण की वस्तु सिद्ध हुआ वह था मेरी भूमि मेवाड़ की रानी लाखा राना की स्त्री' सुप्रसिद्ध मीरां । मीराबाई के पति का नाम भोजराज था, जो महाराणा संग्रामसिंह (सांगा) का द्वितीय पुत्र था और पिता के जीवन-काल में ही कालवश हो गया था। महाराणा संग्रामसिंह का Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २०; मीराबाई का मन्दिर [४४३ बाई का बनवाया हुआ सौरसेन के गोपाल देवता का मन्दिर, जिसमें वह नौ' का प्रेमी अपने मूल स्वरूप में विराजमान था; और निःसन्देह यह राजपूत रानी उसकी सब से बड़ी भक्त थी। कहते हैं कि उसके कवित्वमय उद्गारों से किसी भी समकालीन भाट (कवि) की कविता बराबरी नहीं कर सकती थी। यह भी कल्पना की जाती है कि यदि गीत-गोविन्द या कन्हैया के विषय में लिखे गये गीतों को टोका की जाय तो ये भजन जयदेव की मूल कृति की टक्कर के सिद्ध होंगे। उसके और अन्य लोगों के बनाए भजन, जो उसके उत्कट भगवत्-प्रेम के विषय में अब तक प्रचलित हैं, इतने भावपूर्ण एवं वासनात्मक (Sapphi). हैं कि सम्भवतः अपर गीत उसकी प्रसिद्धि के प्रतिस्पर्डी वंशानुगत गीत-पूत्रों के ईर्ष्यापूर्ण आविष्कार हों, जो किसी महान् कलंक का विषय बनने के लिए रचे गये हों। परन्तु, यह तथ्य प्रमाणित है कि उसने सब पद-प्रतिष्ठा छोड़ कर उन सभी तीर्थ-स्थानों की यात्रा में जीवन बिताया जहाँ मन्दिरों में विष्णु (Apollo) के विग्रह विराजमान थे और वह अपने देवता की मूर्ति के सामने रहस्यमय 'रासमण्डल' की एक स्वर्गीय अप्सरा के रूप में नृत्य किया करती थी इसलिए लोगों को बदनामी करने का कुछ कारण मिल जाता था। उसके पति प्रोर राजा ने भी उसके प्रति कभी कोई ईर्ष्या अथवा सन्देह व्यक्त नहीं किया यद्यपि एक बार ऐसे ही भक्ति के भावावेश में मुरलीधर ने सिंहासन से उतर कर अपनी भक्त का आलिंगन भी किया था- इन सब बातों से यह अनुमान किया जा सकता है कि (मीरां के प्रति सन्देह करने का) कोई उचित कारण नहीं था। यही नहीं, उसके पुत्र 'विक्रमाजीत' ने भी, जिसने बादशाह हुमायूं का सामना किया था, अपनी माता के पवित्र भक्ति-भाव को ग्रहण किया और "नित्य-प्रति गो-हत्या से अपावन हुए व्रजमण्डल से देव-प्रतिमा को लाने के लिए अपना और अपने साथी एक सौ राजपूतों का सिर देने की प्रतिज्ञा की थी" देहावसान वि० सं० १५८४ में हुमा था। महाराणा लाखा का समय वि० सं० १४३६ से १४५४ वि० सं० तक का है । तब यह कैसे सम्भव हो सकता है कि मीराबाई राना लाखा की स्त्री हो ? क० टॉड ने इस विषय में प्रायः सभी जगह भूल की है। अन्यत्र उन्होंने मीराबाई को महाराणा कुम्भा की रानी लिख दिया है जो सरासर अशुद्ध है। पता नहीं, उनके इस भ्रम का क्या कारण है और ऐसे परम खोजी होकर भी उन्होंने तथ्य को न ढूंढकर परस्पर विरोधी बातें कैसे लिख मारी हैं ? ' माठ पटरानियों और नवीं मीराबाई (?) • सैप्फो (Sappho) एक ग्रीक कवयित्री थी जो बहुत ही वासनात्मक कविता लिखतो थी-उसी के नाम पर ऐसी कविताओं के लिए यह विशेषण बना है। ३ विक्रमादित्य मीरा बाई का देवर था जो महाराणा रत्नसिंह के बाद गद्दी पर बैठा था। उसका राज्यकाल १५३१ ई०, १५३५ ई. था। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा इस प्रतिज्ञा को उसके वीर वंशज राणा राजसिंह ने धर्मान्ध औरंगजेब के समय में पूरी की। " मुझे एक झाला-वंशीय बुद्धिमान् सरदार से मिल कर बड़ा सन्तोष हुना जिसकी बहन बेट के भन्तिम जल- दस्यु राजा को ब्याही थी । उसने अपनी वंशोत्पत्ति सम्बन्धी विचित्र कथाएं ही नहीं कहीं वरन् 'बाधेलों' की उत्पत्ति के विषय में भी बहुत सी बातें बताई, जिन्होंने पिछली सात शताब्दियों से 'मण्डल' अथवा श्रखामण्डल पर अधिकार जमा रखा था । मुझे पवित्र 'कूंट' या जगत्कूंट के एक वंश-भाट से भी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसकी वंश-बही एवं राज-वंशावली में से मैंने कुछ पत्रों की नकलें कर ली थीं । श्रखामण्डल में बसने वाली इस जाति के प्रथम राजा का पिता उमेदसिंह राठोड़ था, जिसके पुत्र ने यहाँ के तत्कालीन अधिकारी चावड़ों का छल से 'बध' करके 'बाधेल' नाम प्राप्त किया था । श्रारमरा में चावड़ों की राजधानी थी और अब भी वही बाधेलों की 'तिलात' (Teelat ) अथवा राजतिलक होने की भूमि है | झाला सरदार और वंश-भाट दोनों ही मुझे इस घटना को सही तिथि नहीं बता सके न उस समय से अब तक की पीढियां ही गिना सके; परन्तु, मारवाड़ के इतिहास से यह कठिनाई हल हो जाती है जिसमें लिखा है कि मरु-स्थली अथवा महान् भारतीय रेगिस्तान में राज्य स्थापित करने वाले की एक शाखा श्रखा में भी जा कर नाबाद हो गई थी । अविवेकी राठौड़ ने चावड़ों का नाश करने में राजपूत की प्रथम भावना, 'भूमि प्राप्त करो' का ही पालन किया, परन्तु शीघ्र ही उसने और उसके परिश्रमी साथियों ने अपने पूर्ववर्ती चावड़ों की चाल अपना कर जीवन की नई धारा ग्रहण कर लो, जिनकी समुद्री लूट-पाट की आदतों के कारण, अणहिलवाड़ा के इतिहास के अनुसार, विक्रम की आठवीं शताब्दी में 'दीव' का नाश हुआ था । प्रथम बाधेल से कुछ पीढ़ियों बाद एक राजा के समय में बेट के समुद्री राजानों का उपनाम 'संगमधर' पड़ गया था । वह बहुत बड़ा कुख्यात जलदस्यु था जो वर्षों तक समुद्र पर सपाटे मारता रहा; परन्तु, अंत में उसकी धृष्टता ने उसे कठिनाई में डाल दिया और वह बन्दी बना कर बादशाह के सामने पेश किया गया । उसकी आत्मा तैमूर [ के वंशज ] के सामने भी उसी प्रकार अदम्य 3 इस प्रतिज्ञा के विषय में अधिक जानकारी के लिए 'ट्रांजेक्शन्स् श्रॉफ बी रायल एशियाटिक सोसाइटी भा० २ में मेरा लेख देखिए । इसी पुस्तक में पीछे पृ० १० की टिप्पणी भी द्रष्टव्य है । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २०; जोठवा और बाघेल [ ४४५ रही जिस प्रकार जहाज के तख्ते पर रहती थी; वे सब मिल कर भी उसे तख्त के सामने झुका न सके । अस्तु, इन उदारचेता बादशाहों की दयालुता का अनुभव करने वाला वह पहला ही व्यक्ति नहीं था । निदान वह जल-दस्यु अपना सिर गँवाने के बजाय विशेष उपाधि प्राप्त करके बेट लोटा । बाद में उसने कच्छ के जाड़ेचा राव की पुत्री से विवाह किया और जेठवों के नगर वारासरा (Warrasura ) के प्राक्रमण में मारा गया। संगमधर से तीन पीढ़ी बाद नई उपाधिधारो 'रिना' (राणा) सोवा ( Rinna Sowah ) हुआ, जो साहस और निर्भीकता में अपने पूर्वज से किसी भाँति कम नहीं था । उसकी वीरता का बखान करने के लिए हम वंशावली की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली भाषा की कल्पना नहीं कर सकते - "उसने गुजरात के बादशाह मुज़फ्फर को 'सरना' अथवा संरक्षण दिया" और उसे शत्रु को सौंपने से इनकार ही नहीं किया वरन् अपने एक जहाज में बैठा कर खाड़ी के उस पार सुरक्षित भेज दिया और स्वयं ने आरमरा के घेरे में डटे रह कर रक्षा करते हुए गौरव के साथ प्राणत्याग किया। इस जल-दस्यु का यह आचरण (बारह पीढ़ी पूर्व कच्छ के संस्थापक खंगार के पुत्र ) कच्छ के राव भार से कितना भिन्न था, जिसने प्रायद्वीप में मोरवी के परगने के लिए अपने शरणागत सुलतान के शरीर का सौदा तय किया था ! बादशाह ने अपना वचन पूरा किया; उसने मोरबी का परगना दुष्ट जाड़ेचा के सुपुर्द कर दिया, परन्तु उसका सिर ही इस पापपूर्ण सन्धि की इनायत या 'नज़राना' था और फिर जाड़ेचा की दुष्ट भावना के प्रति घृणा एवं जल- दस्यु बाधेल के प्रति आदर भावना प्रकट करने के लिए उसने दिल्ली के दरवाज़े पर दो पालिये बनवाये जिन पर यह आदेश लिखवा दिया कि जो कोई बाधेल के पालिये के पास से निकले वह उस पर फूलों की माला चढावे तथा जो जाड़ेचा के चबूतरे के पास होकर निकले वह उस पर जूता मारे । जाम जेसा के समय तक जाम भार के पालिये को इस बेइज्जती से मुक्ति नहीं मिली; जैसा की किसी सेवा के बदले में उसे शाही महरबानी प्राप्त हुई और मनचाहो मुराद माँगने की आज्ञा मिली; इस पर उसने प्रार्थना की कि वह पालिया तुड़वा दिया जाय अथवा कम से कम उस बेइज्जती से मुक्त कर दिया जाय जिससे प्रत्येक जाड़ेचा के आत्म गौरव को प्राघात पहुँचता था । 'राना सोवा' अथवा 'सवाई' तो इस उदार जल-दस्यु की उपाधि मात्र थीनाम उसका रायमल था, जिसका पालिया ढूंढ निकालने का मुझे सन्तोष है ! जैसा कि ऊपर लिख श्राया हूँ, इस पालिया पर श्रारमरा के साके में संवत् १६२८ ( १५७२ ई० ) में उसके निधन का उल्लेख है । इस तिथि से हमको बेट के - Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीम प्राग देसिल, ४] पश्चिमी भारत की यात्रा समुद्री राजाओं के इतिहास में घटना-प्रधान युग का ही नहीं गुजरात के सुलतानों के इतिहास का भी सूत्र मिल जाता है । नीचे दी हुई समानान्तर सूची से तत्कालीन योग्य और अयोग्य व्यक्तियों के वंशजों का पता चलता है; रायमल से पैंतालीस वर्षीय संग्राम तक नौ राजा हुए और कुख्यात भार से उसके वर्तमान वंशज तक, जिसका भी वही अशुभ नाम है, कुल ग्यारह क्रमानुयायी हुए हैं । राना रायमल राय भार अखैराज मेघ तमाचो संग्राम रायधन भजराज (भोजराज ?) दादोह (दूदा ?) गोर बाहप लाखो मखबाई [भाई ?] Makha bae गोर संग्राम रायधन भार, और देसल [भाई] राना भीम ने मसकट (Muscat)' के इमाम को, सम्पूर्ण शक्ति लगा कर जल और थल मार्ग से, अपने पर आक्रमण करने का अवसर दिया क्योंकि उसके नाविकों ने इमाम के प्रजाजनों पर कुछ ज्यादती की थी। कच्छ का राव देसल भी इस अवसर पर मसकॅट के जहाजी सेनापति के साथ था और उसने कच्छगढ़ किनारे पर कलोरकोट को गोलाबारी से उड़ाने के लिए बनवाया था। जल-दस्युओं के द्वीप पर कई बार फौजें उतारी गई परन्तु दुर्ग की सुदृढ़ता ने उनकी सम्मिलित शक्ति एवं प्रयास का उपहास मात्र किया; और समुद्री मार्ग की भूल-भुलैया में बहुत से पोतों के तितर-बितर हो जाने एवं अपने सहायक भुज-पति द्वारा कच्छगढ़ के आसपास की भूमि का ग्रास उत्कोच के रूप में प्राप्त कर लेने के कारण नौ-सेनापति को अपना बेड़ा लौटाना पड़ा तथा शंखनारायण के मन्दिर के काष्ठ-कपाटों को ही विजय-चिह न के रूप में प्राप्त कर के सन्तोष कर लेना पड़ा। इन किवाड़ों का उसने एक पलंग बनवा लिया, परन्तु रात को उसकी खाट उलट गई और जब उसे चेत हुआ तो वह काफ़िर-पलंग का तोफा उसके ऊपर सवार था। परम्परागत कथाओं में कहा • अरब का मुख्य बन्दरगाह । यह १५०८ से १६५० ई. तक पुर्तगालियों के अधिकार में - रहा था। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २०; अन्तिम बाधेल; वागेर, माणिक गया है कि इसके बाद उसने वह काष्ठ वापस बेट भेज दिया । संगम के अन्तिम 'धाती' संग्राम के समय तक इन जल-दस्युओं के इतिहास में और कोई उल्लेख योग्य बात नहीं है । उसके दादा का मुकाबला एक अंग्रेजी युद्धपोत से हुआ था जिससे उनको बड़ा आश्चर्य हुआ ( क्योंकि वैसा जहाज उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था ) और उस [ जहाज ] ने शीघ्र ही उनके जहाजों को नष्ट कर दिया तथा उनको अपने अधीन कर लिया । तदनन्तर, उदारचेता कर्नल वॉकर ने अपने शान्तिपूर्ण तरीकों से उनको प्रायद्वीप शान्ति स्थापना की सामान्य व्यवस्था में सम्मिलित कर के, जल- दस्युता की प्रादतों से विमुख कर दिया । परन्तु कहते हैं कि, उसको सन्धि का पालन नहीं हुआ और गायकवाड़ के कतिपय अफसरों के दुर्व्यवहार के कारण जल-दस्युत्रों को उसके सेनासन्निवेश के विरुद्ध पुनः उठ खड़ा होना पड़ा। उसी समय त्रीकमराय के पुजारी को, जो संग्राम का प्रधान था, अपनी व्यवस्था को छोड़ने के फलस्वरूप समुद्री लूट के लिए तैयार होना पड़ा। इस घटना ने शङ्खोद्वार के स्वामी के भाग्य का निर्णय कर दिया और जिस चोट ने द्वारका के वागेरों को नष्ट किया था उसी ने बेट के बालों का अस्तित्व भी मिटा दिया । सम्मान्य कर्नल लिंकन स्टॅनहोप की अध्यक्षता में बदले के लिए किले पर ग्राक्रमण में जो शीघ्रता और तीव्रता आई उसने संग्राम को सन्धि के लिए विवश कर दिया और उसने बेट को समर्पण कर के अपने स्वामी गायकवाड़ द्वारा नियत खानगी लेकर आरामरा में रहना स्वीकार कर लिया । यह मान लेना चाहिए कि उसका यह प्रात्म-समर्पण किसी अंश तक हमारे सुरक्षावचन से सम्बद्ध था; परन्तु, स्वाभाविक ही है, आरामरा अब संग्राम के लिए 'आराम' की जगह नहीं है; अन्तिम बाधेल को [ वहाँ से भी ] हटा दिया गया है और वह कच्छ में शरणार्थी बन कर रह रहा है । [ ४४७ जो द्वारका के वागेर बहुत लम्बे समय तक आरामरा के बाधेलों के साथसाथ इस समुद्र में प्रातंक जमाए रहे थे उनके विषय में भी यहाँ कुछ कहना श्रावश्यक है । वे भुज के जाड़ेचा वंश की एक मिश्रित शाखा में हैं । उनमें से एक बरा नामक व्यक्ति, जो चेहरे पर वीभत्स मूछों का जोड़ा रखने के कारण 'मूंछवाल' कहलाता था, राणा सोवा के समय में यहाँ आया था और उसीके वंश में उसने अन्तर्जातीय विवाह कर के गोमती अथवा द्वारका के थाने पर अधिकार प्राप्त किया था । उसके पुत्र से एक नीच जाति की स्त्री से सन्तान हुई और उन्होंने 'माणिक' अथवा 'रत्न' विशेषण के साथ वागेर नाम ग्रहण किया । इस वंश के अन्तिम चार राजा महप ( Mahap ) माणिक, सादूल माणिक, सामीह (Sameah ) माणिक और मलू माणिक हुए । मलू अपने सब सगे-सम्बन्धी, Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा कुछ वागेर लोगों, बालों और अरबों इत्यादि के संघ के साथ कड़े मुकाबले के बाद इस तूफान (युद्ध) में मारा गया अथवा कहीं चला गया । इस वीरअभियान में आक्रामकों को भी हानि उठानी पड़ी; जो लोग काम आए उनमें से एक अदम्य उत्साही ग्रात्मा का उल्लेख किया जा सकता है, जिसने उस दिन द्वारिका के जल-दस्युनों पर प्रथम और अन्तिम सशस्त्र वीर आक्रमण किया था । ऐसा जान पड़ता है कि कप्तान मेरोट ( Captain Mairott ) युद्ध-व्यवसाय के लिए ही जन्मा था और उसमें वे सभी उच्च और वीरतापूर्ण भावनाएं मौजूद थीं, जो इस व्यवसाय से सम्बद्ध होती हैं । नसेनी की चोटी से फिसल कर जहाँ वह गिरा था वही स्थान उसकी छतरी बनाने के लिए चुना गया; परन्तु इसी स्मारक से सन्तुष्ट न होकर उसके मित्रों ने इस वीर युवक की याद में भूमि के सबसे ऊँचे निकले हुए भाग पर एक खम्भा खड़ा किया है और जैसा कि एक अन्य साहसी उदार सैनिक मारसियू ( Marceau ) के विषय में कहा गया है, मेरोट ( Mairott) के लिए भी कह सकते है कि 'उसका जीवनवृत्त संक्षिप्त, वीरतापूर्ण और गौरवयुक्त था' उसे वही मौत मिली जिसके लिए उसकी सतत कामना थी । यद्यपि वह अपने सह-अधिकारियों की स्मृति में अब भी जीवित है, परन्तु उसके दूर- देशवासी मित्रों को यह जान कर संतोष होगा कि हिन्दुत्रों ने एक योगी का निवास वहाँ स्थित करके उस स्थान को पवित्र बना दिया है और जब कभी कोई नाविक जगत-अन्त रीप को पार करता हुआ उस स्थान पर - उसी भूमि की मिट्टी में मिल जाने के लिए नहीं - वहाँ जाता है और पूछता है कि यह खम्भा क्यों खड़ा किया गया है तो उसको पूरी कथा [उसके] नैतिक आचरण के साथ सुना दी जाती है । तो यह है 'जगत्कूंट' के जल- दस्युओं [ के इतिहास ] की प्रद्यतन रूपरेखा | यदि हम इसको विवरणों से भर सकें अथवा और पीछे के समय तक पहुँच कर (Larice ) या सौराष्ट्र के समुद्री राजाओं का वृत्तान्त प्राप्त कर सकें तो इसमें और भी रस पैदा हो सकता है; परन्तु हमें मिले हैं कुछ कोरे तथ्य, जिनमें शताब्दियों का अन्तर है; सिकन्दर से दूसरी शताब्दी में पेरीप्लुस ( Periplus ) के कर्ता तक, आठवीं शताब्दी में चावड़ों की राजधानी देवबन्दर के विनाश से उन्नीसवीं शताब्दी में द्वारिका और बेट तक वही लुटेरे मौजूद थे और उसी नाम के - क्योंकि सिकन्दर के सङ्गादियन ( Sangadians) ही वे 'संगमधारी' [संगमधर ? Sangum dharians ] हैं जिनके बारे में हम कहते हैं कि वे ] नदी और समुद्र के पवित्र 'संगम' के लुटेरे हैं, जहाँ से वे समुद्र में लूटमार करने जाते हैं और फिर वहीं इस पूरी खाड़ी, बन्दरगाह और संगम को Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकररण [ ४४e पावन करने वाले, चोरों के संरक्षक देवता की शरण में सुरक्षा के लिए लौट अति हैं। बहुत से ग्रन्थकारों ने 'संगादियनों' ( Sangadians) और 'संगारियनों' ( Sangarians) का किसी जाति के मुखिया के रूप में वर्णन किया है परन्तु ( D ' Anville) द' प्रानविले उनमें सर्वोपरि है । वह कहता है - २०; संगम ; संगमधार "थीवनॉट और विङ्गटन ने इन 'सांगानियों' का समुद्र के पूर्वी किनारे के निवासियों एवं जलदस्युत्रों के रूप में कई बार उल्लेख किया है । पूर्वीय देशों में इस जाति का नाम बहुत प्राचीन काल से चला आता है यद्यपि ये अब 'संगद' नाम से नहीं पहचाने जाते, जिनका निवास सिन्ध के बहुत पास ही था और जिन्होंने उस स्थान को बहुत पूर्वकाल में ही छोड़ दिया था, जहाँ से सिकन्दर की नौसेना निकली थी ।" " इस पर हमारा कहना यह है कि जहाँ-जहाँ मुहाना होता है वहीं संगम भी होता है; और जहाँ-जहाँ संगम है अथवा था, वहाँ-वहाँ संगद ( Sangada ) अथवा संगमधार अर्थात् जलदस्युओं का निवास भी था; और यह संगम अथवा मुहाना चाहे द्वारका की गोमती पर हो अथवा सिंधु नदी के डेल्टा की एक भुजा बनाती हुई खारी ( खाडी ?) पर, दोनों ही जगह दस्युओं के देवता और रक्षक संगमनारायण के मन्दिर मौजूद हैं; और खारी पर 'नारायण-सर' नामक स्थल से ही, जहाँ मैं अभी-अभी जा रहा हूँ, मेरी 'वापसी यात्रा' शुरू हो जायेगी । एरिश्रन और दानविले द्वारा अमरीकृत नाम की यही व्युत्पत्ति है; यह किसी जाति का नाम नहीं है प्रत्युत उन 'जल- दस्युनों' के लिए सीधा-सादा पर्यायवाची शब्द है जो १ सिन्ध से गुजरात तक समुद्री तट पर धावा मारने वाले जलदस्युओं को 'सांगा नियन' कहा गया है, सम्भवतः इसलिये कि ये सिन्धु के समुद्र - सङ्गम के पास रहने वाले थे; सांगानियन लोग प्रायः हिन्दू होते थे और यात्रियों के साथ उतनी क्रूरता का व्यवहार नहीं करते थे जितना कि बलोची लुटेरे किया करते थे। धीवनॉट को सांगानियनों का कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं था, परन्तु उसने उनके विषय में ग्रमानुषिक व्यवहारों का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया है कि 'उनके पास तीर और तलवार के अतिरिक्त कोई शस्त्र नहीं होता और सामने लाने वाले किसी भी प्राणी को वे जीवित नहीं छोड़ते; जिनको वे बन्दी बना लेते हैं उनकी टांगें और टखनें तोड़ देते हैं ।' दूसरे यात्री कैरेरी ( Careri ) ने इसके विपरीत लिखा है कि 'ये लोग जिनकी सम्पत्ति लूट लेते हैं उनको दास नहीं बनाते । ये लोग 'सांगानों' और 'राणा' कहलाते हैं । ये सम्पत्ति तो पूरी लूट लेते हैं, परन्तु शरीर को क्षति नहीं पहुँचाते हैं । ये सिन्ध र गुजरात के बीच में रहते हैं और कुछ लोग पास ही समुद्री द्वीपों में बसे हुए हैं ।' -Indian Travels of Thevenot and Careri, Intro., xxii; xxxvi. Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] पश्चिमी भारत की यात्रा अपने आपको 'त्रीकमराय' के बाल-बच्चे मानते हैं । द्वारका अथवा आरामरा के [दस्युओं का डेल्टा-निवासी समान-व्यावसायिक बन्धुनों से कभी मेल-जोल था या नहीं, इस विषय में कुछ कल्पना नहीं की जा सकती परन्तु, यह स्पष्ट है कि इन दोनों में धर्म और लूट के विषय में एक ही समान सिद्धान्त सक्रिय थे। ये लुटेरे अपने शिकार की तलाश में निकलते समय इष्टदेवता को प्रसन्न किए बिना या उत्कोच चढ़ाए बिना जहाज नहीं खोलते थे और न अपनी लूट में से बुध देवता को भेट चढ़ाए बिना वापस लौटते थे। दिन में सात बार शिकार करने वाले पिण्डारियों की तरह ये भारत के लुटेरे अथवा 'अंगूठियों के डाकू' भी अपने इस संकटपूर्ण व्यवसाय को पवित्र और सम्माननीय समझते थे; मानव-मस्तिष्क का भी अपनी ही विकृतियों के प्रति कैसा लगाव है ! यह कहना कठिन है कि सिन्धु के सांगारियनों (Sangarians) अथवा सौराष्ट्र के सौरों ने कभी गहरे समुद्र को पार कर के दूर देशों में जाने का साहस किया या नहीं, परन्तु सिन्धु से अरब तक का समुद्री किनारा इतने हिन्दू देवी-देवताओं और वीरों के नामों से चिह्नित है कि इसका उनसे सर्वथा अपरिचित होने का प्रश्न उपस्थित नहीं होता । समुद्री लुटेरों का अन्तिम जहाज, जिसको [भूमि के] ऊपर लाकर सूखे में रख दिया गया था, एक बड़ा अच्छा और प्रभावोत्पादक जलपोत था, जिसका पिछला भाग बहुत ऊँचा और अगला भाग 'व्याख्याता के मञ्च' जैसा आगे निकला हुआ था। परन्तु, यहाँ मेरे अच्छे जहाज का टंडेल (tandcal) घाट पर पा लगा है, जिसके पूरे मस्तूल व्यवस्थित हैं और वह मुझे 'कांठी कालपस' अथवा कच्छ की खाड़ी के उस पार ले जाने को तैयार खड़ा है, जो संयोग से सिकन्दर के सांगदा[ड़ा] Sangada का प्राचीन अड्डा रहा है । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २१ प्रन्थकर्ता का नौकारोहण; साथियों से बिवाई; ग्रन्थकर्ता के 'गुरु'; कच्छ की कांठी या खाड़ी; टॉलमी और एरियन द्वारा कच्छ की खाड़ी का वर्णन ; रण; माण्डवी की भूमि पर उतरना; वहां का वर्णन; यात्री; अरबों के जल-पोतों में प्रकोकी कार्यकर्ता, वास-प्रथा के अन्त का प्रभाव; माण्डवी के ऐतिहासिक प्रसंग ; समाधियाँ; स्मारक; सिक्के । पहली जनवरी, १८३३-जब हम रवाना हुए तो हवा साफ थी और दोनों ओर के समुद्री किनारे इतने नीचे थे कि जल्दी ही वे आँखों से ओझल हो गए और उन पर चमकीले नीले आसमान की छत उस नीची श्यामल रेखा तक छा गई, जिसको हिन्दू लोग इन्द्र और वरुण के लोकों की विभाजन-रेखा मानते हैं। मेरा कवित्त्व अब दुर्बल पड़ गया था क्योंकि मैं उन मित्रों से बिछड़ रहा था जिनके साथ पिछले छः मास तक रह कर मैंने उस आतिथ्य का आनन्द लिया जिसको केवल पूर्व के लोग ही जानते हैं (या जानते थे) । फिर भी इन झलकियों में जो कुछ आकर्षण है, वह मेरे मित्र विलियम्स' के कारण आ गया है, जिनके प्रभाव से मेरी सभी जिज्ञासाओं का सुविधापूर्वक समाधान हो सका और जिनके एतत्स्थानीय स्थलों एवं मनुष्यों के निजी ज्ञान से मुझे पदार्थों का चयन करने, उनके विषय में निर्णय लेने तथा सभी बातों की जानकारी प्राप्त करने में वास्तविक मार्ग-दर्शन मिला। अपने संस्मरणों की टिप्पणियों के आधार पर उनके उत्साहवर्धक अनुग्रहों को कृतज्ञतापूर्वक याद करते हुए मैं यहाँ यह श्रद्धा के भाव अर्पित करता हूँ, जो उस समय भी मेरे हृदय में ताजा थे और अब इतने वर्ष बीत जाने पर भी उनमें कोई अन्तर नहीं पाया है। यहीं पर मैंने अपने मित्र और गुरु 'ज्ञान के चन्द्रमा' यति ज्ञानचन्द्र से विदा ली, जो मेरे साथ उस समय से थे जब मैं अधीनस्थ अधिकारी के रूप में कार्य करता था और जिनका मेरे भारत-प्रवास-काल में आधे से भी अधिक समय तक साहचर्य रहा था; मेरे इस परदेश-वास में उनसे मुझे बहुत सुख और सन्तोष मिला। इस पुस्तक के पृष्ठों में तथा अन्यत्र भी मैंने प्रायः उनका उल्लेख किया है। वास्तविक बात तो यह है कि मेरे पुरा-शोध-सम्बन्धी प्रयासों के वे साकार स्वरूप थे, । ये सज्जन बडौदा के रेजीडेण्ट और गुजरात के राजनैतिक प्रायुक्त (Political Commi ssioner) रहे थे; इनको मृत्यु का समाचार अभी मिला है जब कि ये पृष्ठ प्रेस में चल Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अतः यहाँ पर उनके विषय में कुछ कहना [पाठकों को अस्वीकार्य न होगा। वे लम्बे और दुबले पतले थे और यद्यपि जब मैं उनसे विदा हुआ तब उनकी अवस्था तीन-बीसी [साठ, three scores] से अधिक नहीं थी तो भी उनके रजत केशों के कारण वे सद्यः नमस्करणीय लगतेथे । जब वे अपने हवा में लहराते हुए लम्बे दुपट्टे सहित हाथ में दण्ड लिए और नंगे सिर कमरे में आए तो एक सच्चे 'विद्वान्' जान पड़ते थे। वे बुद्ध के उपासक थे। इन प्राचीन काल के अवशेषों को ढूंढते-फिरने में उनको भी मेरे ही जितना रस पाता था और मेरे मुख्य अनुसन्धानों में उनके विशाल ऐतिहासिक ज्ञान एवं शिलालेखों के पढ़ने में असाधारण धैर्य के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। उसी समय में अपने प्रिय और बहादुर घोड़े 'जावदिया' से भी विदा हुआ। यह अश्व उदयपुर के राणा ने मुझे बख्शीश (भेंट) में दिया था और अब मैंने यात्रा के अनन्तर इस विशेष प्रार्थनासहित उसे लौटा दिया कि स्वयं राणा अथवा मेरे वृद्ध अश्वपाल के अतिरिक्त और कोई उसकी पीठ पर न चढ़े तथा महान सैनिक उत्सव 'दशहरा' के अवसर पर सब से पहले पूजित होने का सम्मान भी उसको प्राप्त हो। वियोग के अवसाद भरे भावों से छुट्टी पाने के लिए मैंने मानचित्र फैला लिया और अपने सामने 'Eclaircissemens de la carte D I' Inde'' (भारत के मानचित्र का स्पष्टीकरण] सहित बैठ गया; बराई (Baraee) के द्वीप अब भी आंखों के सामने थे और मैं इन विचारों में डूब गया कि टॉलमी और पॅरीप्लूस के कर्ता के समय से अब तक कच्छ के काँठी (कांठा) में क्या-क्या परिवर्तन आ चुके थे। अपर ग्रन्थकार ने, बहुत सम्भव है, अपने व्यापारिक प्रसंग में भडौंच से पाकर इसे देखा होगा; उसने लिखा है 'बराई (Barace) के पूर्व में एक गहरी खाड़ी है जो सप्त-संख्यक अन्य द्वीपों से उसे पृथक करती है। और मिस्री भूगोलवेत्ता के आधार पर द' आनविले लिखता है 'बलसेटी (Balseti) अथवा बरसेटी (Barseti) नामक एक बन्दरगाह है जो पूर्व में टॉलमी द्वारा कथित बराई (Baraee) और कुछ अन्य द्वीपों को सूचित करता है और 'कांठी कालपस' के प्रवेशद्वार के दक्षिण में है । अब यह प्रमाणित करने के लिए किसी दलील की आवश्यकता नहीं रह गई है कि बेट अथवा 'जल-दस्युओं का द्वीप' ही वह स्थान है जिसको स्थिति के आधार पर द' आनविले ने 'बलसेटी' (Balseti) की संज्ञा दी है और जो दूसरी शताब्दी में 'बराई' (Baraee) कहलाता था; इन चिह्नों में से अन्तिम कुछ के साथ अब नाम मात्र की ही समानता बाकी रह गई है- पहली इसकी द' अॉनविले की कुति । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २१; कच्छ की कांठी या खाड़ी [ ४५३ स्थिति, जो कांठी की खाड़ी के प्रवेश-द्वार से दाहिनी ओर है, और दूसरी, लघु द्वीपों को संख्या जो खाड़ी के आसपास और कुछ आगे दूरी पर स्थित है । 'बेट' शब्द का प्रयोग स्थानीय बोली में 'द्वीप' के लिए किया जाता है और कोई भी मनुष्य यह मान लेगा कि यह बोलने में 'बलसेट' का ही संक्षिप्त रूप है; परन्तु यह निकला कहाँ से? यह समस्त भूमि कन्हैया, कृष्ण अथवा नारायण के नाम से पवित्र है जिनका बचपन का नाम बाल, बालनाथ या बालमुकुन्द है और किशोरावस्था में गोपाल-देवता के उपकरण (चिह्न) मुरली या मुरनी बत) और पशु (गाय) चराने की लकुटी प्रसिद्ध है । ऐसी समानताओं का अन्त नहीं है और पूर्वीय देशों में इनका अतिक्रमण बहुत गम्भीर, असम्बद्ध एवं भयानक होता है जब कि पश्चिम में उनको ऐसे चमत्कारपूर्ण और सरल ढंग से परिष्कृत कर लिया जाता है कि जिससे उनके मूल-स्वरूप से सभी सम्बन्ध सरल लगते हैं। इन दो बड़े नामों के विषय में और भी स्पष्टीकरण और विवादास्पद बातों का समाधान करने का प्रयत्न करते हैं-'जिस खाड़ी को टॉलमी ने कांठी काल्पस के पूर्व में होना बताया है उसको पैरीप्ली (Pariple) ने इरिनस (Irinus) नाम से अभिहित किया है । 'कांठी' कोई तट या किनारे का सामान्य नाम नहीं है वरन् आज तक भी कच्छ के उस भाग के लिए प्रयुक्त होता है जो पहाड़ियों और समुद्र के बीच में है, और एरिअन ने इरिनस (Irinus) शब्द का प्रयोग केवल काल्पस (खाड़ी) के ऊपरी भाग के लिए किया होगा जो सामान्यतया 'रण' कहलाता है-यह संस्कृत के 'अरण्य' का अपभ्रंश है। इसी प्रकार पहले एरियन द्वारा प्रयुक्त एरिनोस (Erinos) वाक्यांश से 'बड़े रण' का अर्थ लेना चाहिए जो 'छोटे रण' से मिल कर सम्पूर्ण जलावेष्टित कच्छ बन जाता है । फिर, आगे का झूठा विवाद शान्त करने के लिए यह समझ लेना चाहिए कि लूनी नदी (जिसके विकास से पूरे मार्ग तक का मैंने अनुसंधान किया है और जो बड़े रण में होकर बहती है तथा इसको बनाने में सहायक है) वही है, जो 'खारो' के नाम से सिन्धु नदी के मुहाने पर उसकी पूर्वीय भुजा से मिलती है; लूनी और खारी का अर्थ एक ही है 'नमकीन नदी'। यदि लूनी का कभी स्पष्ट पृथक् मार्ग और कच्छ की खाड़ी के मुख भाग का छोटे रण में प्रवेश रहा हो तो हमें टॉलमी के 'ऑरबदरी' (Orbadri)' का तात्पर्य ज्ञात हो जाता है, जिसका . प्लिनी की सची में अन्तिम नाम Varetatae पाता है जिसको कहीं-कहीं वर्ण-विपर्यय से Vateratae भो लिखा है । कतिपय संस्करणों में इसी शब्द को Svarataratae भी लिखा है। यह 'सौराष्ट्र' का अपभ्रष्ट रूप हो सकता है । दक्षिण-पश्चिम भारत के निवासियों के लिए वराहमिहिर-कृ । मैं 'सौराष्ट्र' और 'बादर' दोनों शब्द Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा उसने उक्त स्थान पर खाड़ी में गिरना लिखा है और हम इसी नाम के संस्कृत समस्त पद की व्याख्या करते हुए इस निर्विवाद सत्य को प्रमाणित कर सकते हैं कि प्राचीन काल में हिन्दू लोगों का भूगोल पर पूरा अधिकार था। 'भद्रा' नदी का सामान्य नाम है और उपसर्ग 'ऑर' (or) का अर्थ है 'नमक का दलदल' अथवा 'नमक की झील' या वह स्थान जहाँ नमक जमा हो जाता है-यही लूनी का लक्षण है कि वह अपने मार्ग में सर्वत्र नमक की परतें छोड़ जाती है । खाड़ी के मुहाने पर स्थित नगर का नाम 'अर-सर' (Arisirr)' है; इससे उक्त शब्दव्युत्पत्ति की और भी पुष्टि हो जाती है क्योंकि 'सर' झील का दूसरा पर्याय है और विशेषत: 'नमक को झील' का; और यदि यह नदी (भादरा) इस नगर में होकर बहती थी तो हमें इसके नाम की उत्पत्ति के विषय में पर्याप्त लक्षणों की उपलब्धि हो जाती है । अस्तु, मैंने लूनी के निकास को देखा है और मरुस्थली में इसको कई स्थलों पर पार भी किया है तथा अब में नारायण-सर में इसके मुहाने पर भी जा रहा हूँ जहाँ सिन्धु-क्षेत्र में हिन्दुओं का अन्तिम मन्दिर विद्यमान है। अब मैं वह बात कहता हूँ जो और कोई व्यक्ति नहीं कह सकता कि मैं हरिद्वार से, जहाँ से उत्तरी श्रेणी में गङ्गा अपना मार्ग काटती है, ब्रह्मपुत्रा के संगम तक (जिसको टॉलमी ने 'प्रॉरिया रेगिया' (Aurea Regia) लिखा है और जो जल-दस्युओं के लिए भी प्रसिद्ध है), सिन्धु नदी के प्रोनाम (Onam) समुद्र में संगम-स्थान तक मैं यात्रा कर चुकंगा। परन्तु, पहले को हुई इन यात्राओं के विषय में कभी पुस्तक के रूप में टिप्पणियाँ नहीं लिखी गई और लिखे हैं । अत: 'बदरी' अथवा 'वदरी' के रहने वाले बादर कहलाए। दक्षिणी राजस्थान में बदरीफल अथवा वेर के वृक्ष बहुत पाए जाते हैं। इसी से लगा हुआ प्रदेश 'सौवीर' कहलाता था जिसको विदेशी लेखकों ने Sophir या Ophir लिखा है। यदि यह अनुमान सत्य है और सुन्दर बदरीफल के कारण ही इस क्षेत्र का नाम सौवीर पड़ा हो तो यह खम्भात की खाड़ी के ऊपर ही कहीं होना चाहिए । रुद्रदामन के प्राचीन लेख में सौराष्ट्र और भारुकच्छ के तुरन्त बाद ही सिन्धु-सौवीर का उल्लेख है। अत: यह सौवीर सौराष्ट्र और भडौंव के उत्तर में और निषध के दक्षिण में होना चाहिए। विष्णुपुराण में सौबीर की स्थिति अर्बुद के सन्निकट बताई गई है । --Cunningham; Ancient Geography of India, p. 496-47 यूल (Yule) ने भी Orbadarou अथवा Oradabari की स्थिति सन्देहास्पद दिशा में ही अर्बुद के समीप मानते हुए इसको अगवली की मुख्य श्रेणी बताया है। प्लिनी ने इसको गुजरात में 'होराती' (Horatae) अथवा सौराष्ट्र की सीमा पर माना है। । वास्तव में, 'अर' का अर्थ है पारा या नरसल, उससे युक्त 'सर' को 'अर-सर' कहा गया है। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २१; माण्डवी; व्यापारिक वस्तुएं [४५५ कभी कुछ लिखा भी था तो वह बहुत असम्बद्ध रूप में-यह कमी भी मेरे पछतावों का एक विषय बनी हुई है। ___ जनवरी २ री-भुज पर्वत श्रेणो की निनोवी (Ninovee) (द' अानविले की Ninove) चोटी अब उ.उ.पू. में दृष्टिगोचर हो रही थी; हवा बन्द हो जाने के कारण हम समुद्र की दो लहरों के बीच रात भर झकझोले खाते रहे और मेरे संघ में गंगाह्रद (Gangaridae) की सी तीव्र खलबली मची रही; और जब हम मांडवी की खारी के लंगर पर पहुँचे तो दिन के दो बज रहे थे। परन्तु, इससे भी बुरी बात यह हुई कि अब हवा ने रुख बदल लिया और वह कोटेश्वर तथा नारायणसर की दिशा में, जहाँ मेरी यात्रा समाप्त होने वाली थी, सामने पड़ रही थी, नाखुदा [ मांझी ] अब अट्ठारह घंटों के बजाय वहाँ पहुंचने में एक सप्ताह लगने की बात कह रहा था। 'सराह' [जहाज इसी मास की १५ वी तारीख को बम्बई से इंगलैण्ड के लिए रवाना होने वाला था और मैं अपने मार्ग-व्यय के चार सौ पाउण्ड जमा करा चुका था अतः अब में आशानों और आशंकाओं की छोटी-मोटी दुविधा के बीच में न रह गया था। मेरी इच्छाओं के विषय में एक सविवरण आवश्यक पत्र कच्छ के रेजीडेण्ट मिस्टर गार्डीनर (Gardiner) के नाम रवाना कर के मैं उनके उत्तर और हवात्रों के रुख की प्रतीक्षा करता हुआ वहीं ठहरा रहा । दिन में जल्दी ही माण्डवी के सम्मान्य एवं आदरणीय राज्यपाल जेठाजी के पुत्र मुझ से मिलने आए। वे मेरे साथ समुद्र-तट तक गए और तोपों की सलामी के साथ एक उद्यानगृह में ले गए, जो उन्होंने मेरे उपयोग के लिए नियत कर दिया था, परन्तु मैंने अपनी लम्बी नौका में ही रहना अधिक पसन्द किया। इस तट पर मांडवी या मण्डी बहुत प्रसिद्ध है; प्रायः इसको मस्का-मण्डी (Musca-Mandi) कहते हैं क्योंकि मस्का (Musca) नामक बड़ा कस्बा केवल रुक्मिणी नदी द्वारा ही इससे पृथक् हो रहा है। नगर के चारों तरफ़ एक 'शहरपनाह' या परकोटा है जिसकी बहुत सी बुजों पर तोपें चढ़ा कर रखी हुई हैं। यद्यपि यह एक जिले का मुख्य-स्थान है परन्तु स्थिति और समृद्धि के कारण ही इसका महत्त्व अधिक बढ़ा है, क्योंकि किसी-किसी समय तो इसके लंगर पर दो-दो सौ नौकाएं ठहरी रहती हैं। इनमें से बहुत सी तो यहाँ के निवासियों की निजी सम्पत्ति हैं, जिनमें सब से समृद्ध तो गोसांई लोग हैं जो, जैसा कि पहले कहा गया है, धर्म और व्यापार को मिलाए हुए हैं और पल्ली, बनारस आदि स्थानों में उनके व्यापार की बड़ी-बड़ी शाखाएं मौजूद हैं। यहाँ पचास से ऊपर सर्राफ़ या कोठीवाल हैं, जिनमें से "येक सौ रुपया के हिसाब से सरकार Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा को कर देता है; यह एक प्रकार का गृह कर है जिससे कोई भी मुक्त नहीं है, और कहते हैं कि इससे पचीस हज़ार रुपया वार्षिक की श्राय हो जाती है । यद्यपि माण्डवी से अरब और अफ्रीका के सभी बन्दरगाहों तक व्यापार होता है परन्तु, विशेष व्यापारिक आयात-निर्यात फारस की खाड़ी में कालीकोट (कालीकट ? ) और मस्कॅट ( Muscat ) से ही चलता है । पूर्व स्थान से यहाँ शीशा, कने ( Kanch) या हरा काच, इलायची, कालीमिर्च, सोंठ (अदरख ), बांस, जहाज बनाने को सागवान की लकड़ी, कस्तूरी (एक प्रकार की औषधि), पीली मिट्टी (Ochrc ), रंग और दवाएं आदि तथा मस्कट से सुपारी, चावल, नारियल, छुहारे खारिक ताज़ा पिण्डखजूर, रेशम श्रौर मसाले आदि का आयात होता है । तटीय चुंगी से एक लाख रुपये की वार्षिक प्राय होती बताई जाती है । मैं दिन भर नगर में और घाट पर घूमता रहा और वहाँ नए नए मनोरञ्जक दृश्यों एवं विभिन्न देश वासियों की टोलियों को देखता रहा-कालेकलूटे ईथोप, काकेशस के हिन्दकी, लम्बे-चौड़े अरब, विनम्र हिन्दू बनिए या उनका अनुकरण करने वाले प्राधे पण्डे और श्राधे-व्यापारी गोसांई, जो नारंगी रंग की पोशाक पहने घूम रहे थे। मैं सभी मण्डलियों में गया, वे नौका - स्वामी हों या यात्री और उन सब से प्रश्न भी पूछे । यात्रियों की भोर में बहुत अ/कबित हुआ। वे दिल्ली, पेशावर, मुलतान और सिन्ध के विभिन्न भागों से आए थे और समुद्रतट पर झुण्ड के झुण्ड इकट्ठे हो रहे थे या कतारें बना कर नमाज पढ़ रहे थे; उनकी स्त्रियां खाना पका रही थीं और बहुतों के बच्चे इर्द-गिर्द घूम रहे थे। सभी ने मक्का की यात्रा या हज के लिए नीली पोशाक पहन रखी थी; यह यात्रा ये लोग मुफ़्त में कर सकते हैं क्योंकि जहाँ भी ठहरते हैं मांग कर भोजन कर लेते हैं और इस प्रकार का भोजन दान करना सबाब का काम माना जाता है । इससे इस गर्वोक्ति का रहस्य सिद्ध हो जाता है कि किसी भी मुसलिम शक्ति ने न कभी कच्छ पर आक्रमण किया और न किसी प्रकार का कर ही लगाया - उनकी यह उदारता कम से कम उतनी ही राजनैतिक भी थी जितनी कि धार्मिक | एक प्रकार की प्रच्छन्न सहानुभूति परिचितों को भी, चाहे वे किसी वर्ग, धर्म या देश के हों, विदेशी भूमि अथवा स्थल पर एक दूसरे के प्रति आकृष्ट कर देती है-और शीघ्र ही मेरे चारों ओर एक भीड़ जमा हो गई । मैंने पेशावर की एक टोली को खुश कर दिया जब मिस्टर एल्फिन्स्टन के विवरण का स्मरण करते हुए मैंने उनको 'हिन्द की' कहा- वे अपने को 'लोग' या समूह ( Multitude) कहते हैं । दूसरे लोगों से मैंने शाहसुजा, की भूमि पर रणजीत के धार्मिक अभियान आदि की बातें कहीं, परन्तु उन्होंने इस पर कोई Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५७ ध्यान नहीं दिया क्योंकि इन स्वेच्छाचारी प्रदेशों में देश-प्रेम और जिसको हम स्वदेशाभिमान कहा करते हैं, वह एक ही बात नहीं है । २ इन विभिन्न मण्डलियों से मैं और भी विचित्र दृश्यावली में पहुँचा - यह थी बन्दरगाह पर एकत्रित जहाजों की छटा - ये जहाज या तो 'सोफाला' के स्वर्ण तट' को जाते हैं या 'सौभाग्यशाली अरबी मसाले वाले' तट को; इनमें से लगभग बीस नौकाएं अफ्रीका के काले सपूतों से भरी हुई थीं । इन नौकाओं का भार औसतन छः सौ कण्डी अथवा एक सौ पचीस टन था और प्रत्येक में तोपें भी रखी हुई थीं, जो अब बम्बई जलसेना द्वारा जोग्रामीज़ (Joamees ) को समाप्त कर देने के सराहनीय प्रयत्नों के फलस्वरूप केवल सलामी के काम आती हैं । अरबी समुद्र-तट के ये जल-दस्यु बहुत समय से इस समुद्र के अभिशाप बने हुए थे और लूट के साथ हत्या के दोहरे अभिप्राय को मिलाते हुए बन्दियों को कभी जीवित नहीं छोड़ते थे। उनका कहना था 'बिना खून के तुम्हारा माल लेने के माने यह होंगे कि हमने चोरी की, लूट नहीं; और कब्जे में प्राए हुए काफ़िरों को [ जिन्दा] छोड़ कर उनकी रोटी खाना मज़हब के खिलाफ़ है ।' आशा की जाती है कि बम्बई सरकार के उत्साहपूर्ण प्रयत्नों ने व्यापार जगत् के इस महान् रोग को सदा के लिए नष्ट कर दिया है । प्रकरण — २१; अरबों के अफ्रीकी दास अरबी जहाजों की बनावट, मैं समझता हूँ, वैसी ही है जैसी हिरम ( Hiram ) के समय में थी । इनमें से अधिकांश पर किरमिची तिरपाल डण्डों पर फैला रहता है जो नौका को प्रथम गति से खेने के लिए पर्याप्त होता है । मनुष्यों की तरह उनकी हर एक चीज़ भी काले रंग की थी और जहाज के अगले हिस्से में सैंकड़ों मिट्टी के घड़े लटक रहे थे, जो नाविकों के पराक्रम के चिह्न थे । जब से नर-मांस व्यापारिक वस्तु के रूप में बन्द हुआ है तब से 'स्वाल' और जंजीबार भी जो नक्शे में सोफाला और जिंग्यूबार Sofala and Zing uebar नाम से दिखाए गए हैं। अधिक श्रावागमन के स्थान नहीं रहे हैं । यह गैर-कानूनी व्यापार अभी तक बिलकुल बन्द नहीं हुआ है और थोड़ा बहुत सफोला अफ्रीका के पूर्वीय समुद्री तट पर स्थित बन्दरगाह इसी है । नाम की नदी के मुहाने पर स्थित होने के कारण इसका नाम 'सफोला' पड़ा है । १५०५ ई० में पुर्तगालियों के अधिकार में आने से पूर्व यह एक सुप्रसिद्ध मुसलमानी नगर और व्यापारिक केन्द्र था । यहाँ प्रायः एक हजार व्यापारिक नावों के ठहरने योग्य व्यवस्था थी । मिल्टन ने अपने 'पैरैडाइज लॉस्ट' (११; :६६-४०१ ) में इसको सालोमन द्वारा वर्णित 'सोफिर ' ( Sophir) बताया है, परन्तु यह अनुमान सत्य नहीं है । - E. B. XXII; p. 246 मस्कॅट बन्दरगाह । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा इधर-उधर होता रहता है। विश्व-प्रेमियों के विचारों ने अफ्रीकी दासों के मन पर बहुत असर कर लिया है जिन्होंने, मेरे संवाददाता के शब्दों में, 'श्रम और श्रद्धा (स्वामिभवित] को बिलकुल तिलाञ्जलि दे दी है ।' बेचारे सिद्दी (Sidi) की भाषा में सम्भवतः इन श्रम और श्रद्धा का अर्थ कोड़े और मेहनत के आगे आत्मसमर्पण करना है। उसने फिर कहा-'ये लोग अब हमारे काम के नहीं रहे क्योंकि जब उन्हें काम करने के लिए कहा जाता है तो वे जवाब देते हैं कि जब मर्जी होगी तब करेंगे और जब उनको सज़ा दी जाती है तो वे भाग जाते हैं । पहले, जब राव की सरकार सर्वेसर्वा थी तो उन्हें वापस माँग लिया जाता था परन्तु, अब वहाँ तुम्हारा [बृटिश] का भी दखल है । यदि मजबूर होकर अपना घाटा पूरा करने के लिए पगार या भोजन कम देते हैं तो वे चोरी कर के पूरा कर लेते हैं और यदि पीटने की धमकी देते हैं तो उनमें से कोई-कोई वापस तमाचा मारने को कहता है; जब कि पहले के जमाने में यह धमकी थी कि वे बदले में यह कहते हुए मर जायें कि-हमारी क्या जिन्दगी है ? मरने पर कौन रोने वाला बैठा है ? हमारे पीछे न बे-सहारा माताएं है न अनाथ बच्चे ।' यह मुझ से शब्दशः उस आदमी का कहना है, जो इस अपवित्र व्यापार से खूब फायदा उठा चुका था। मैंने सिही नाविकों से बढ़ कर प्रसन्न, चुस्त और गठीले आदमी और नहीं देखे चाहे वे सड़कों पर जहाजी बेड़े के सिपाहियों के रूप में घूमते हों या बन्दरगाह के बेड़े से सम्बद्ध हों। दासत्व के बुरे दिनों में इनमें से चुने हुए लोगों को ही दो या तीन सौ कौड़ी अर्थात् अस्सी रुपये या दस पाउण्ड मिलते थे। ऊपर लिखे आख्यान से विल्बरफोर्स (Wilberforce)' को कसा आनन्द प्राप्त होता! जनवरी ३ री-निर्दयी हवा अब भी प्रतिकूल रही अतः मैंने अपने कार्यक्रम में कुछ परिवर्तन कर लिया है और भुज के समुद्र-तट पर दौड़ जाने का निश्चय किया है । यदि वहाँ पर मुझे 'सराह' के विदा होने में देरी के समाचार मिले या लौटने पर भी हवा इसी तरह चलती रही तो फिर मैं किसी भी प्रकार की जोखिम उठाने को तैयार रहँगा । मैंने कल रात को ही एक घुड़सवार मिस्टर गार्डीनर के पास भुज दरबार का निमन्त्रण स्वीकार करने का समाचार लेकर भेज दिया है । मेरी यात्रा का कार्यक्रम जल्दी सम्पन्न कराने हेतु उन्होंने एक घोड़ों ' एक अंग्रेज विश्व-प्रेमी। इनका जन्म हल (Hull) में १७५६ में हुआ था । १७८० ई० में वृटिश पालियामण्ट के मैम्बर होकर इन्होंने दासप्रथा का अन्त करने के लिए बड़ा संघर्ष किया । अन्त में मार्च, १८०७ ई० में दास-प्रथा निरोधक बिल पास हुआ। विलबरफोर्स की मृत्यु २९ जुलाई, १६३३ ई० को हुई ।-N.S.E. p. 1297 Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २१, माण्डवो .. [ ४५६ को डाक गजनी (Gujni) भेज दी है और दूसरी मैंने यहां से भेजी है। वृद्ध राज्यपाल आदरणीय जेठाजो ने एक जीनसवारी का घोड़ा और कुछ घुड़सवार पहली मंज़िल के लिए मेरे हवाले कर दिए हैं। में आज ही साँझ पड़े रवाना हंगा और, क्योंकि फासला पचास मील से कम है, कल प्रात:काल 'छोटी हाजरी' के समय वहाँ पहुंच जाऊंगा। ___ मैंने नगर की गलियों में घूमने और आस-पास के कुछ प्राचीन दृश्यों को देखने में समय पूरा किया। यह पांचहजार पक्के घरों का बड़ा कस्बा है जिसमें बीस हजार मनुष्यों की आबादी है। जब यह उन्नति के शिखर पर था तो इस बन्दरगाह पर आवागमन करने वाले जहाजों की संख्या चार सौ से कम नहीं थी और वे प्रायः यहाँ के धनी व्यापारियों के निजी जहाज थे । परन्तु, सभी जगह का व्यापारी धन्धा ठंडा पड़ जाने के कारण मांडवी पर भी असर पड़ा है और अरब व अफ्रीका जाने वाले कुछ थोड़े से जहाजों को छोड़ कर किनारे-किनारे पर मलाबार तक का व्यापार ही सीमित रह गया है। राव गोर के समय में मांडवी उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था क्योंकि वह स्वयं समुद्री अभियानों में रुचि लेता था और उनसे अधिकाधिक लाभ प्राप्तकरने के अभिप्राय से उसने डच कारखाने के नमूने का एक महल इस बन्दरगाह पर खड़ा कर लिया था; परन्तु, पिछले भूचाल के प्रभाव से पश्चिमी भारत का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं रहा और राव गोर का यह महल भी हिल कर टुकड़े-टुकड़े हो गया। राव ने एक डाक-यार्ड [जहाज बनाने का कारखाना भी बनवाया था जिसमें अपने जहाजों के निर्माण की वह स्वयं देख-रेख करता था। पीटर महान के से पूर्ण उत्साह के साथ उसने निश्चय किया था कि उसके कारखाने में बना हुआ जहाज उसी की अध्यक्षता में उसके ही प्रजाजनों से भर कर इङ्गलैण्ड तक समुद्र को चीरता हुमा चला जायगा । यात्रा हुई, वह सुन्दर जहाज वर्षाऋतु में मलाबार के तट तक पहुँच कर सुरक्षित लौट आया; परन्तु, नाखुदा सच्चे नाविक ने जहाज और उसका भार काली देवी (Venus) के भेट चढ़ा दिया, और सबसे बढ़ कर आश्चर्य की बात तो यह है कि उसकी कारीगरी और योजना की सम्पूर्ति के बदले में राव ने उदारता-पूर्वक उसको क्षमा प्रदान कर दो। अब भी खारी और लंगर पर दो और तीन सौ के बीच जहाज हैं, जिनमें से एक तीन मस्तूल वाला जहाज कच्छ के राव का है। राव गोर और भावनगर के गोहिल राजा दोनों में ही हमको मानवीय मस्तिष्क के लचीलेपन और परिस्थितियों के अन ' प्रातराश (कलेवा)। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] पश्चिमी भारत की यात्रा सार मोड़ ग्रहण करने के विशिष्टि उदाहरण मिलते हैं क्योंकि जहाजों और व्यापार से संसर्ग रखने से बढ़कर राजपूत की प्रकृति में कोई विरोधाभास दृष्टिगत नहीं होता । मोम की मोटी-मोटी रोटो-जैसे अर्द्ध-पारदर्शक गैंडे के चमड़े जगहजगह बाजार में लटक रहे थे; ये ढालें बनाने के लिए तैयार किए गये थे; स्त्रियों के लिए चूड़े और दूसरे गहने बनाने के लिए हाथी-दांत, सूखे और ताज़ा खजर, किशमिश, बादाम, पिश्ते आदि से उन सभी स्थानों का सूचन होता था जिनसे मांडवी के व्यापारिक सम्बन्ध कायम थे। ऐसा लगता है कि कपास यहाँ के व्यापार की मुख्य वस्तु है; इसकी चपटी और गोल गांठे दबा-दबा कर बाँधी जाती हैं; मोटो सूती कपड़ा, शक्कर, तेल और घी भी बिकते नजर आ रहे थे। स्थानीय कागज-पत्रों में माण्डवी को अब भी अधिकतर इसके प्राचीन नाम 'रायपुर-बन्दर' अथवा 'रायपुर के बन्दरगाह' से अभिहित किया जाता है, जो 'खाड़ी' अथवा 'खारी' से तीन मील ऊपर की ओर इसके पुरातन अवस्थान राई (Raen) के कारण पड़ा था। मैंने इस स्थान को जाकर देखा । दो छोटी-छोटी झोपड़ियाँ इसके अवशेषों पर खड़ी हैं जिन से किसी प्रकार के प्राचीन स्मारक का पता नहीं चलता-हाँ, एक छोटा सा मन्दिर पवित्र तरुण-नाथ (Toorunnath) का है। कहते हैं कि वे प्रसिद्ध योगी थे और अज्ञात शक्तियों से उनका सम्बन्ध था। यह भी कहा जाता है कि राईं और इससे सम्बद्ध अन्य ग्रामों के निवासियों द्वारा अपने जीवन में सुधार करने सम्बन्धी आदेशों का पालन न करने के कारण उन्होंने उक्त स्थानों को नष्ट होने का शाप दे दिया था । हिन्दू आख्यानों में आई हुई अन्य कथाओं के समान इसके साथ भी कोई गहरा ऐतिहासिक तथ्य जुड़ा हुआ है। निस्सन्देह, राई के प्राचीन राजा उनके वंशजों, (वर्तमान भुज के राजाओं) से गए बीते नहीं थे जिनको आज भी प्रायः भूकम्प के धक्के सहने पड़ते हैं। वास्तव में, वे कभी भी इस आशंका के बिना तकिए पर सर नहीं रखते कि न जाने किस समय भूचाल के कारण उनको जग जाना पड़े। पहले, ज्वार के समय जहाज राई तक आ सकते थे परन्तु इसके शापग्रसित होने के दिन से एक मिट्टी की आड़ी दीवार ने प्रवेश को रोक दिया है और इसके नीचे बहने वाली नदी अब 'खारी' नहीं है अपितु ताजा पानी का प्रवाह है। में तरुण-नाथ के प्राचीन मन्दिर के अवशेषों में गया और सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद एक वृद्ध 'कनफटा' योगी को (ये लोग कान चिराने के कारण कनफटा कहलाते हैं) तरुण के 'चरणपद' अथवा चरण-चिह्नों पर रहस्यमयो क्रियाएं करते हुए देखा। वह उन्हीं [तरुणनाथ ही] के सम्प्रदाय का था। जब तक उसने अपने सभी पूर्ववर्ती गुरुओं की कृत्रिम समाधि पर 'जल चढाया', हरे Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २१; तरुणनाथ [ ४६१ पत्ते चढाए और धूप-दानी घुमाई तब तक मैं प्रतीक्षा करता रहा। मैंने भारत में अब तक जितने समाधि-स्मारक देखे हैं उनमें ये सब से विचित्र हैं और सन्दर्भो से प्रतीत होता है कि स्पष्ट रूप से ये 'बाल' के पुजारियों से सम्बद्ध हैं। ये बहुत ही छोटे-छोटे हैं और इनकी सीढ़ियां एक-केन्द्रीय वृत्तों के आकार में बनी हुई हैं ; बीच में (केन्द्र-बिन्दु पर) एक स्तम्भ खड़ा है-वह इस प्रकार है MASTE AENSE PHEM A इसी श्मशान भूमिके खण्डहरों में रहने वाले इस एकाकी प्राणी से मैंने बातचीत शुरू की, परन्तु या तो वह अपने सम्प्रदाय के कर्मकाण्ड के अतिरिक्त कुछ नहीं जानता था या उसने कुछ बताना ही उचित नहीं समझा। मुझे बताया गया कि वहाँ प्राय: चांदी के सिक्के मिल जाते हैं इसलिए मैं उन खण्डहरों में घूमता रहा और मेरे इस अनुसन्धान के परिणाम स्वरूप मुझे दो अच्छी दशा में सुरक्षित सिक्के प्राप्त हुए, जिनके एक ओर मुकुटधारी राजा की आकृति अंकित थी और दूसरी ओर पिरामिड की शकल का चिह्न, जिस पर उन्हीं दुष्पाठ्य अक्षरों में लेख था, जो गिरनार के शिलालेख में मिले थे। राई के खण्डहरों से लेकर प्राचीन उज्जैन (Oojein) तक समुद्र-तट पर अथवा बीच में पान वाले नगरों में समय-समय पर ऐसे ही सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिनसे स्पष्ट विदित होता है कि इस भाग पर किसी शक्तिशाली राजवंश का विशाल आधिपत्य रहा थापरन्तु, वे अणहिलवाड़ा के बल्हरा थे अथवा किसी और भी प्राचीन वंश के राजा थे, इस विषय में केवल कल्पना ही की जा सकती है। हमें आशा करनी चाहिए कि अनुसंधान की इस शाखा से जो प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है उसके कारण यह तथ्य सदा के लिए एक रहस्य नहीं बना रहेगा। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २२ काठियों की प्राचीन राजधानी कंथकोट (Cath kote) ; कच्छ के रावों के श्मशान; भूज नगर; ग्रन्थकर्ता को बाड़ेचा सरदारों से भेंट; उनको पोशाक; राव देसल से मुलाकात ; काचमहल; दीवानखाना; जाड़ेचों के विषय में ऐतिहासिक टिप्पणियाँ; यदुवंश राजपूतों का वंशानुक्रम; हिन्दुनों के बेटी-व्यवहार का विस्तार; यदुवंश और बौद्ध धर्म की एकता; जाड़ेचों के पूर्वज यदु (यादव ]; यादवों की शक्ति; पश्चिमी एशिया से श्राई हुई इण्डो-सीथिक यादव-जाति; सिन्ध - सुम्मा जाड़ेचा; वंश-वृक्ष; जाड़ेचों की वंशावली में से उद्धरण; सिन्धसुम्मा जाचों का इस्लाम धर्म में परिवर्तन; लाखा गर्बीले के क्रमानुयायी; बहु-विवाह की बुराइयाँ; कच्छ में सुम्मा जाति की पहली बस्तो; जाड़ेत्रों में बाल-वध की कुप्रथा का मूल; मोहलत कोट ( Mohlut kote) की दुर्घटना; बालवध की कुप्रथा अब भी चालू है; प्रथम जाड़े चालाखा ; जाड़ेचा रियासत के संस्थापक रायधन द्वारा महान् रण में उपनिवेश का नेतृत्व; भुज का संस्थापक राव संगार; जाड़ेचों को ऐतिहासिक वंशावली के निष्कर्ष । जनवरी ४ थी - यदि किसी कट्टर पाश्चात्य देशीय घुमकक्ड़ व्यक्ति को अच्छी तरह व्यालू [ रात्रि भोजन] करा कर श्राप 'कॉफी' के बजाय 'घुड़सवारी' के लिए श्रामन्त्रित करें और जीन पर ही रात बिताने को कहें तो उसे बड़ी कठिनाई होगी; परन्तु, अभ्यास उसे जल्दी ही ऐसे अनुशासन का प्रादी बना देगा और यदि इस श्रम के पुरस्कार रूप में ऐसे पदार्थ देखने को मिलें जो मेरी दृष्टि में थे तो उसे एक प्रकार का अवर्णनीय आनन्द प्राप्त होगा । यदि उसके स्वभाव में थोड़ी-सी भी कल्पना-शीलता अथवा साहसिक कार्यों के प्रति अभिरुचि होगी तो उसके अपने ही विचार उसकी पलकों को निद्रा से बचा ही न लेंगे श्रपितु ऐसी कल्पना को जगा भी देंगे कि अनजाने ही उसे सवेरा श्रा पकड़ेगा और उसकी इच्छा होगी कि काश ! वह रात और उसकी कल्पनाएं और भी लम्बी होतीं ! कुछ संस्मरण और विचार तो उस समय जाग पड़ेंगे जब उसे अंधेरे जंगल और उजाड़ मैदान को पार करना होगा, जहाँ उसके प्रास-पास की मण्डली के अतिरिक्त आदमी का चिह्न भी दिखाई न पड़े अथवा जब काठियों की प्राचीन राजधानो कठ-कोट जैसे टूटे-फूटे खण्डहरों में मशालें चमक उठें, जहाँ में मन्दिर के टूटे हुए बड़े-बड़े पत्थरों में शिलालेखों की खोज में भटकता फिरा था । चारों ओर चुपचापी थी और मेरे व मेरे मार्ग-दर्शक के ही पदचाप उन पत्थरो को खड़खड़ा रहे थे; यही नहीं, उस समय हमारे वीर घोड़े भी नासमझ नहीं जान पड़ते थे क्यों कि वे भी अपने सवारों की तरह, एक दूसरे की भोर Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२; काठियों को राजधानी [४६३ प्रश्नवाचक मुद्रा में सिर हिला-हिला कर देखते थे; यह दृश्य उस समय देखने में प्राता था जब मशाल की रोशनी उनके दाढ़ी वाले उन चेहरों पर पड़ती थी, जिन पर फिरंगी की हरकतों से उत्पन्न हुआ आश्चर्य भी स्पष्ट रूप में अंकित था। यह गेरार्ड डो (Gerard Dow)' अथवा स्कलकेन (Scalken) के देखने योग्य दृश्य था और कच्छ में घोड़े की पीठ पर बिताई हुई रात्रि के अनुरूप था। बहार्ड (Burckhardt) ने कहा है कि जब वह वादी मूसा (Wady Mosa) और हारूं Haron) की मजारें देखने गया और वहाँ के खण्डहरों में शिलालेखों को खोज करने लगा तो लोगों ने उस पर पूर्ण अविश्वास करते हुए उसे कोई दफ़ीना खोजने वाला जादूगर समझा; और पूरे भारत में यही धारणा फैल गई; यहाँ तक कि मुझे तो लोग अच्छी तरह जानते थे परन्तु फिर भी ऐसे कम ही थे जो मेरे शोध-कार्य को लक्ष्मी की अपेक्षा सरस्वती से अधिक सम्बद्ध मानते हों। फिर भी ऐसी धारणा का बिलकुल ही अादर न करना भी संगत नहीं होगा क्योंकि पूर्वीय अत्याचारों के शिकार बने हुए इन देशों के निवासी अपने धन-माल को सुरक्षित न मानते हुए उसे जमीन के अन्दर गाड़ने के अतिरिक्त स्वभावत: यह भी समझते हैं कि इस तरह के लेखबद्ध पत्थर उन स्थानों के सूचक हैं जहां ऐसे खजाने गड़े होते हैं। दिन निकलते ही भूज की पहाड़ियाँ दिखाई देने लगों और उनकी नंगी चोटियों पर आसमान में खड़ी परकोटे की दीवारें और बुर्जे यद्यपि उस सुनसान घाटी को एक प्रकार की सुन्दरता प्रदान कर रही थीं परन्तु उन्हें देख कर जाड़ेचा वास्तुविद् को चतुराई का कोई विशेष प्रमाण प्राप्त नहीं हो रहा था। पिछले भूचाल का ही एकमात्र आक्रमण इन पर हुआ था, जिससे बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई हैं परन्तु वर्तमान शासन में उनकी मरम्मत कराने की सूझ-बूझ भी नहीं रही। सूरज उगते-उगते में पोलिटिकल एजेण्ट मिस्टर गाडिनर के निवास स्थान पर पहुंचा तो वे पहले से ही 'तन्दुरुस्ती के लिए हवाखोरी' करने निकल गए थे; बीच का समय पूरा करने के लिए मैंने कच्छ के रावों के समाधि-स्थलों की ओर सीधा रास्ता पकड़ा। ये स्मारक झील के पश्चिमी किनारे पर बने हुए हैं, जिसके बीच में एक टापू भी है। इन स्मारकों में पुरातत्व और चित्रकला दोनों ही विषयों के आकर्षक पदार्थ मौजूद हैं । सन् १८१८ ई० के भूकम्प ने जाड़ेचों के इन गौरवपूर्ण स्मारकों में तहलका मचा दिया था, परन्तु सामान्य पालिए अक्षुण्ण खड़े रहे। कुछ स्मारक तो गिर कर ढेर हो गए और कुछ वैसे ही रहे, . व्यंग्यचित्रकार Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा यहाँ तक कि राव लाखा की छतरी में, जो बहुत नई और ठोस बनी हुई है, जरा सा भी नुकसान नहीं हुआ। इनकी बनावट राजपूताना के स्मारकों से भिन्न है क्योंकि वहाँ तो चबूतरे पर खुले खम्भों पर गुम्बज टिका रहता है जब कि यहाँ पर ये पत्थर को पर्दी (पतली दीवार) या जाली से घिरे रहते हैं-मानों उनके कारण अपवित्रता अन्दर नहीं पा सकती। इनमें होकर मैंने राव लाखा' का पालिया देखा जिसमें घोड़े पर सवार, हाथ में बल्लम लिए हुए उसकी उभरी हुई आकृति बनी हुई है। इसके दोनों ओर बराबर-बराबर संख्या में छोटे-छोटे पालिये बने हुए हैं, जो उसकी रानियों और दासियों के हैं जिनको उस अवसर पर 'सत' चढ़ा था। पालियों के पास ही, अथवा हमको छतरियाँ कहना चाहिए, एक गदा के आकार का खम्भा बना हुआ है, जिसके सिर पर दीपक रखने का स्थान खोखला करके बनाया गया है, जिससे राजपूत-दाह क्रिया के साथ मुसलिम तरीके का भी सूचन होता है। वास्तव में, जाड़ेचों ने इतनी बार मत-परिवर्तन किया है कि अब उनके लिए यह कहना कठिन है कि वे किस धर्म के अनुयायी हैं । इन सभी समाधि-स्थलों पर छेनी से बनाई हुई प्राकृतियों से ज्ञात होता है कि ये योद्धाओं के अवशेषों पर खड़े किए गए हैं-केवल एक समाधि ऐसे आदमी की है, जो अपने हाथ से मरा था। इस पर एक ऐसे आदमी की आकृति बनी है जिसने घुटने टेक रखे हैं और वह शाप देने की मुद्रा में कटार को अपने सीने की प्रोर ताने हुए है। सम्भवतः यह किसी चारण या भाट के संस्मरणीय 'त्रागा' का सूचक है, जो अत्याचारी से बदला लेने का एकमात्र प्रकार उसके वश में [होता था। भूजनगर केवल तीन शताब्दी पुराना होने का दावा कर सकता है अतः जाडेचों के विषय में मेरे द्वारा शिलालेखों की खोज करना बेकार था; परन्तु, कुछ पालिए ऐसे थे जिन की साधारण वेदियों पर पुराने लेख मौजूद थे, जो समय के प्रभाव से मिट कर दुष्पाठ्य हो गये थे। वापस लौटने पर मुझे रेजीडेण्ट साहब और उनके सहायक लेफ्टिनेंट वाल्टर मिले; उन्होंने ऐसा स्वागत किया कि ऐसी यात्राओं में प्रायः होने वाली जो कुछ छुटपुट असुविधाएं हुई थीं उन सब की भरपाई हो गई। सिन्धु नदी] की पूर्वीय भुजा पर पहुंचने की मेरी उत्सुकता को जान कर मिस्टर गाडिनर ने तुरन्त ही ' इस स्मारक के प्रशंसनीय और सही खाके के लिए मैं पाठकों को कैप्टन पाइण्डले (Capt. Grindley) लिखित 'सिनेरी प्राफ वैस्टर्न इण्डिया' (Scenery of Western India) नामक पुस्तक पढ़ने का अनुरोध करूंगा। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२; राव देसल से मुलाकात [ ४६५ लखपत स्थान पर डाक का दस्ता भेजने का प्रस्ताव कर दिया। इस प्रकार पूर्वीय कहावत के अनुसार उन्होंने मुझे 'कुआँ और खाई के बीच' रख दिया क्योंकि यदि में इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता हूँ तो मुझे एक क्षण भी न ठहर कर इसी समय रवानो हो जाना चाहिये और अपने पूर्वाभिमत जाड़ेचों के इतिहास और परम्पराओं की खोज का विचार छोड़ देना चाहिए। प्रतः मैंने भुज में छत्तीस घण्टों का अच्छे से अच्छा उपयोग करने तथा अपने कार्य को पूरा करके माण्डवी पहुँचने तक हवा की अनिश्चित स्थिति मान लेने का निश्चय किया। मैंने शीघ्र ही अपना विचार प्रकट कर दिया और मेरे मेजमान की उत्साहपूर्ण कृपा के फलस्वरूप उनकी निजी जानकारी के साथ-साथ जल्द ही मुझे भाट और उनकी बहियां भी उपलब्ध हो गईं। रीजेन्सी के प्रमुख और समझदार सदस्य आदरणीय रतनजी ने अपने लम्बे और रोचक वार्तालाप के अन्तर्गत जाड़ेचा शासन का पूरा-पूरा ज्ञान कराया और यह भी बताया कि इसमें और राजपूत शासन-पद्धति में कहाँ-कहाँ अन्तर पड़ता है। वस्तुतः उन्होंने पूरा समय मेरे साथ बिताया और बड़े ही कृपापूर्ण एवं सभ्य तरीके से मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर धैर्य के साथ लिखाते रहे-इसी [बातचीत] के आधार पर मैं भुज के वर्णन का उपसंहार करता हूँ। प्रातराश के बाद भुज के मुसाहब, रीजेन्सी के सदस्य और उस समय राजधानी में उपस्थित सभी जाड़ेचा सरदार स्वागत के रूप में मुझ से मिलने आए। इस असाधारण रईस-समाज के लोगों की साहसिक प्राकृति और रीति-रिवाजों को देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई; ये लोग, वास्तव में, बड़ी अच्छी जाति के मनुष्य हैं, परन्तु उतने लम्बे नहीं हैं जितने कि मैंने समझ रखे थे और इनके वर्ण में भी पूर्वीय राजपूतों से कोई विशेष भिन्नता नहीं है-केवल ठोड़ी पर बीच में से हजामत के कारण दोनों ओर निकली हुई लम्बी-लम्बी उलटी दाठियों से ही इनकी शकल में कुछ अन्तर जान पड़ता है । दूसरा अन्तर जाड़ेचों की भारी-भरकम पोशाक का है, जिसमें उनका बड़ा पायजामा और ढीली परन्तु गौरवपूर्ण पगड़ी शामिल है। दूसरे दिन दोपहर को मैं वहाँ के बालक राजा के दरबार में गया। उसकी अवस्था सात वर्ष की है और वह अपनी वंश-परम्परा में अन्तिम देसल नामधारी राजा से पाँचवीं पीढ़ी में इसी (देसल) नाम को धारण करता है। राजपूतों के समान अपने वंश के प्रसिद्ध नामों की परम्परा का पालन करते हुए ये लोग उनमें अन्तर बताने के लिए साथ में पिता का नाम भी जोड़ देते हैंइस प्रकार वर्तमान राजा देसल भारानी अर्थात् भार का पुत्र देसल कहलाता है, जो देसल गोरानी अर्थात गोर के पुत्र देसल से भिन्न है, इत्यादि। इस वंश में Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा इस नाम के दो ही राजा हुए हैं, परन्तु लम्बी वंशावली में लाखा और रायधन जैसे अधिक प्रसिद्ध नामों की आवश्यक परिवर्तन के साथ प्रावृत्ति का अधिक बार होना स्पष्ट है । शहर का जो कुछ भाग मैं देख पाया वह तो महलों में जाते समय भार्ग में ही देख सका और यदि वही सम्पूर्ण नगर का प्रतिनिधि भाग था तो और भागों को न देखने से कोई दुःख नहीं हुआ। बालक राजा को एक सिंहासन पर बैठाया गया, जो रजवाड़ा के राजाओं के सामान्य सिंहासनों से भी ऊँचा था, शायद इसलिए कि वह 'साहब लोगों की कूरसियों' से ऊपर दिखाई पड़े, जो राजपूत-दरबारों में कभी नहीं लगाई जातीं। लम्बा दीवानखाना जाड़ेचा जागीरदारों से खचाखच भरा था और ज्यों ही हम प्रविष्ट हुए, दूसरे सिरे से भाटों ने भूतपूर्व जाड़ेचा वीरों के नाम और पराक्रम का बखान शुरू कर दिया । औपचारिक रूप में आवश्यक समय तक बैठने के बाद स्वयं बालक राव ने हमको विदाई दी और हम रतन जी के साथ 'भुज के शेर' और शीशमहल देखने गए; ऐसा एक-एक शीशमहल रजवाड़ा के प्रत्येक रईस के राजमहल में होता है । इस विशाल प्रदर्शनीय मकान पर अस्सी लाख कौड़ी का धन (कच्छ राज्य का तीन वर्ष का राजस्व) खर्च किया गया था--परन्तु, इसको देखने पर इसे बनवाने वाले राव लाखा में किसी सुरुचि अथवा विवेक का होना नहीं पाया जाता; उसने अपने पूर्वज द्वारा कंजूसी से जमा किए हए खजाने का इस प्रकार अपव्यय मात्र किया था। इसका अंतरंग भाग सफेद संगमरमर का है, जिसमें सर्वत्र काच जड़े हुए हैं, जिनमें से प्रत्येक को चारों ओर सोने के अलंकरण द्वारा पृथक् बताया गया है। छत से रोशनी के झाड़ लटक रहे हैं और उस पर भित्ति-चित्र बने हुए हैं ; फर्श पर चोनी टाइलें जड़ी हुई हैं और वह डच लथा अंग्रेजी सुरोली घडियों से भरा पड़ा है, जिन सबको एक साथ चालू कर दिया गया तो एक पूरा डच-सहगान प्रारम्भ हो गया; दीवार के मध्य भाग में बने हुए ताक किसी मणिहार या बिसायती की दूकान की तरह काच के सामान से भरे हुए थे और दीवारों पर लगी हुई तरह-तरह की काच की मूर्तियों से भी इस उपमा में कोई अन्तर नहीं आ रहा था। इस बहुमूल्य साजसज्जा के बीच में राव लाखा का वह पलंग रखा है जिस पर उसकी मृत्यु हुई थी। इसके पाये सोने के हैं और सामने हो अखण्ड-ज्योति जलती रहती है। इस प्रकार यह पलंग जाड़ेचों के कुलदेवतामों में सम्मिलित कर लिया गया है और यदि इसकी नश्वर सामग्री बहुत लम्बे समय तक बनी रही तो यह राव लाखा के उत्तराधिकारियों द्वारा निरन्तर पूजित होता रहेगा । इस बड़े कक्ष के चारों ओर एक बरामदा है जिसकी फर्श पर भी टाइलें जड़ी हुई हैं और दीवारों पर एक विचित्र बेमेल आकृति-चित्रों का संग्रह Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२; जाडेचों का इतिहास [ ४६७ सजा हुआ है ; मेवाड़ का राणा जगतसिंह रूस की सम्राज्ञी कैथराइन के साथ मौजूद है ; मारवाड़ का राजा बखतसिंह और होगार्थ (Hogarth) का 'चुनाव',' दूसरे फ्लेमिश (Flemish) • , अंग्रेज तथा भारतीय प्रजाजनों के साथ कच्छ के प्रथम राव से लेकर अब तक के राजा सम्मिलित हो रहे हैं । ये सब असंबद्धताएं होते हुए भी जाड़ेचों की इस चित्र-दीर्घा से कितने ही अनुमानों के सूत्र मिलते हैं ; पुराने और नये रावों के पर्दो तथा सजावट के अन्तर से उनकी पोशाक और रहन-सहन में आदिमकालीन सादगी से स्पष्ट अतिक्रम ज्ञात हो जाता है। वहाँ से हम लोग नए बने हुए 'दरबार' या सभामण्डप में गए जो अभी पूरा तो नहीं बना था, परन्तु उसके निर्माण और सजावट की सादगी उस पूर्व-वर्णित 'खिलौनों के घर' से उपयोगी रूप में भिन्न थी, जिसमें से हम अभी निकल कर आए थे। यहाँ की दृढ़ता, सुविधा और उपयोगिता में अध्ययनीय समझदारी नज़र आती है। यह समस्त जाड़ेचा 'भायाद' के एकत्रित होने के लिए उपयुक्त है और इसको चारों ओर काले पत्थर की बनी हुई जल-कुल्या से सजा कर एक टापू-जैसा बना दिया गया है, जिससे वे लोग ठंडे रहें अथवा गर्मी के मौसम में शीतलता का अनुभव कर सकें। यह महल झोल के सम्मुख खड़ा है और इसमें सजावट के अन्य उपकरण भी होंगे परन्तु समय-संकोच के कारण में उन्हें देख नहीं सका। ___ अब हम जाड़ेचों के विगत इतिहास पर दृष्टिपात करें। मैं इस देश में यह पूरी आशा लेकर आया था कि इस क्षेत्र के राजवंश की प्राचीन स्थिति के अनुकूल कोई चिह्न अवश्य मिलेंगे और यह विश्वास भी था कि उन लोगों में टेस्सारियस्टस (Tessarioustus) [तेजराज?] के वंशजों की पहचान हो सकेगी, जिसके राज्य पर ईसा से दो शताब्दी पूर्व मीनान्डर और अपोलोडोटस ने अभियान किया था, परन्तु, मुझे यह जान कर बड़ा भारी आश्चर्य हुआ कि कच्छ में जाड़ेचों की स्थिति मुस्लिम-विजय काल की परिसीमा में ही थी और स्वतन्त्र राज्य के रूप में उनकी शक्ति तीन सौ वर्ष से पूर्व की नहीं थी। जाड़ेचों की वंशावली पूरे तीन सौ वर्षों में सीमित है, जिसमें केवल तीन-चार ही ऐसे तथ्य मिलते हैं कि जो सच्चे इतिहास में लागू हो सकते हैं; अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध होने पर भी ये महत्व ' होगार्थ (Hogarth) सुप्रसिद्ध अंग्रेजी चितेरा और कोरणीकार था । उसका समय १६६७ से १७६४ ई. तक का था। वह उस समय के प्रत्येक अविवेकपूर्ण कार्य पर व्यड़ ग्य-चित्र बनाता था। ऐसे चित्रों की एक प्रदर्शनी अब तक भी उसके मकान में लगी हुई है, जो होगार्थ-गली (Hogarth-Lane), लन्दन में है । उसकी अन्य कृतियाँ भी उस संग्रहालय में प्राप्त है। यहां ऐसे ही एक 'चुनाव' (व्यड़ ग्यचित्र) से तात्पर्य है। २ बेल्जिअम-निवासी Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा पूर्ण अवश्य हैं और इन्हें प्राप्त करने वाले हिन्दूपुरातत्त्व के शोधकर्ता को अपने थकान भरे एवं स्वल्प- लाभप्रद कार्य के लिए भी सन्तोष हो सकता है । जाड़ेचा, जो कभी भारत की शक्तिशाली जाति थी, महान् यदुवंश की शाखा में है । ये लोग अपना उद्भव शौरसेन के राजा कृष्ण से मानते हैं । मनु ने शौरसेन के निवासियों को रणकौशल में विशिष्ट बताया है ; सिकन्दर के इतिहास लेखक एरिमन ने भी ऐसा ही लिखा है । मैं समझता हूँ कि ईसा से आठ सौ वर्ष पहले जमना - किनारे के यदुवंशी राजा शूरसेन के पुत्र वसुदेव के आत्मज कृष्ण की स्थिति उतनी ही प्रामाणिक है जितनी कि अन्य किसी देश में उसी काल का कोई ऐतिहासिक तथ्य प्रमाण-सम्मत हो सकता है । असाधारण सौभाग्य अथवा अशिथिल शोध के परिणाम स्वरूप मैंने कृष्ण के पितामह द्वारा संस्थापित शौरसेन की राजधानी शूरपुर का पता लगा लिया, और मानो हिन्दूइतिहास को ग्रीक इतिहास से सम्बद्ध करने के लिए ही मुझे इन्हीं खण्डहरों में मेरा मूल्यवान अपोलोडोटसवाला चन्द्रक भी मिल गया । जमना नदी की धारा जहाँ से यह अपनी चट्टानी रोक को तोड़ कर योगिनीपुर ( श्राधुनिक दिल्ली ), मथुरा, आगरा, शूरपुर होती हुई गंगा से संगम करने के लिये प्रयाग ( वर्तमान इलाहाबाद ) तक, जिसको मेगस्थनीज़ ने प्रासी ( Prasii) की राजधानी लिखा है, पहुँचती है वही प्राचीन यादवशक्ति की विस्तार - श्रृङ्खला रही है; श्रौर इस जाति की उत्तरोत्तर संस्थापित राजधानियों का वर्णन पौराणिक वंशावलियों एवं अन्यत्र उद्धृत पद्यों' में ही नहीं हुआ है अपितु इस तथ्य की संपुष्टि में हमें उन अज्ञात अक्षरों की भी साक्षी मिल जाती है, जो दिल्ली, इलाहाबाद और जूनागढ़ में प्राप्त हुए हैं। अस्तु, यादव जाति का उद्भव कहीं से भी हुआ हो, भले ही वे अपनी 'वंशावली' के अनुसार, पश्चिमी एशिया के शक जातीय राजकुमार की ही सन्तानें हों, हमें अधिक छानबीन नहीं करना है और केवल उन्हीं तथ्यों को आधार मानना है जो उन्हीं के लेखों से प्राप्त हुए हैं अथवा अन्य स्रोतों से जिनकी सम्पुष्टि होती है और जिनसे यह सिद्ध होता है कि कुल " इस विवरण के लिए कृपया 'ट्रॉजेक्शन्स् श्रॉफ वी रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, भा० १, पृ० ३१४' देखिए । जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं वह स्थान 'संगम' कहलाता है और जहाँ तीसरी नदी श्रा मिलती है वह 'त्रिवेणी' कहलाती है जैसे प्रॉंग (प्रयाग) में । यहाँ मिलने वाली तीसरी नदी का नाम 'सरस्वती' है । 3 एनल्स ऑफ राजस्थान, भा० १ । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२, प्राचीन राजपूत वंश, सगोत्र विवाह . [ ४६६ पति-शासन के उस जमाने के बाद हिन्दू धर्म [ शासन प्रणाली? ] में अब तक बहुत सुधार हो चुका है। आजकल के राजपूतों में अपने ही कुल में सगोत्र विवाह के विचार को सबसे बुरा समझा जाता है, वे इसे अत्यन्त वर्जनीय मानते हैं। परन्तु, स्वयं कुष्ण की माता देवकी ही उनके पिता की फूफेरी (या मामेरी) बहिन थी; यही नहीं, हमें इस जाति में बहुपतित्व के भी उदाहरण मिलते हैं, जो ट्रान्सोक्षियाना (Transoxiana) के गेटों या जीतों (जिनको चीनी इतिहासकारों ने यूते या यूची (Yuechi) लिखा है ) पाए जाते हैं । इन्हीं में से, एक अधिकारी विद्वान् न्यूमॅन (Nuemann) के अनुसार बुध का जन्म ईसा से आठ सौ वर्ष पूर्व हुआ था। यदि पाठक मेरे 'जैसलमेर के यादव राजा (जो जाड़ेचों के समान अपनी वंशोत्पत्ति कृष्ण से मानते हैं) और जीत या 'गेटिक' वंश पर लिखे हुए निबन्ध को पढ़ें तो ज्ञात होगा कि ये अपर जाति' के लोग अपने को यादवों के वंशज बताते हैं, जिनका निकास हम गजनी से मानते हैं और कहते हैं कि पञ्जाब में सालपुरा होते हुए इस्लाम की बढ़ती के साथ-साथ वे सतलज पार करके भारतीय रेगिस्तान' में उनके वर्तमान संस्थान तक जा पहुंचे थे । यदु-भाटी गजनी को अपनी प्राचीन राजधानी मानने और चगतई वंश को अपनी स्वधर्मत्यागी शाखा बताने के अतिरिक्त यह भी कहते हैं कि वे पश्चिमी एशिया में महान् गृहयुद्ध और अपने नेता कृष्ण तथा पाण्डवों की मृत्यु के कारण आये थे। परन्तु तथ्य यह है, जैसा कि मैंने कई बार कहा है और फिर एक बार दोहरा देता हूँ, कि उस समय पाक्सस (Oxus) से गंगा तक एक ही धर्म में विश्वास करने वाली एक जाति थी और इन प्रदेशों में उनका खूब आवागमन था। अब, हर रोज उन 'साहिबान' (Savans) का आँखें खुलती जा रही हैं, जो कभी सिन्धु (नदी) के उस पार देखते ही न थे क्योंकि वही 'हिन्दू' थी और बाकी सब को 'बर्बर' कह कर सुदृढ़ मोहर लगा दी गई थी। इन संकुचित विचारों को अब छोड़ना पड़ रहा है ; हिन्दू नगर और हिन्दू-गेटिक चन्द्रक काकेशश' तक में पाए गए हैं और मुझे इस बात के प्रमाणित होने में भी आश्चर्य नहीं है कि महाभारत के यदु, पाण्डु और कुरु ही यूची (Yuechi), यती (Yuti) ' एनल्स अॉफ राजस्थान, भा० १, पृ० १०६ ; भा० २, पृ० १७६ । . एनल्स ऑफ राजस्थान, भा॰ २, पृ० २३१ । 3 इन चन्द्रकों और शिलालेखों को सही पढ़ कर समझने की बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] पश्चिमी भारत की यात्रा अथवा जीत थे; बुध उनका वृद्धगुरु अथवा नेता और पैगम्बर था और दिल्ली, प्राग और गिरनार-स्थित विजय-स्तम्भों पर खुदे हुए रहस्यपूर्ण अक्षर उसी जाति से सम्बद्ध हैं। बुद्ध के धर्म के साथ यद, यति या जीत वंश का दृढ़ सम्बन्ध जोड़ते समय प्रमाण के लिए यह बात याद रखनी चाहिए कि बाईसवें बुध या तीर्थंकर नेमि भी यदु थे और कृष्ण के ही वंश के थे अर्थात् वे दो भाइयों की सन्तान थे; और यह भी निश्चित है कि देवत्व प्राप्त करने से पूर्व स्वयं कृष्ण भी द्वारका में बुद्धत्रिविक्रम को पूजते थे, अतः स्पष्ट है कि यह पूजन-क्रम वंश-परम्परागत ही था। बुद्ध की गद्दी उन दिनों में अवश्य ही राजवंश में से निर्वाचन द्वारा भरी जाती थी और अब भी 'श्री पूज्य' अथवा प्रधान का चुनाव प्रोसवाल जाति में से ही होता है, जो अणहिलवाड़ा के राजाओं के वंशज हैं । यह अवश्य है कि इन लोगों ने व्यापार को अपना कर असि-कर्म का त्याग कर दिया था। मैं यह उल्लेख 'गिरनार के गौरव' नेमि के निर्वाचन के सम्बन्ध में कर रहा हूँ; आगे भी मैं एक ऐसी परम्परा बताऊँगा, जो अब भी जैनों में प्रचलित है और जो इस बात का प्रमाण उपस्थित करती है कि इन दोनों मतों का पृथक्करण कैसे हुआ और बन्द मन्दिर बनाने में 'बौद्धिक' [बौद्ध] उत्सव-प्रणाली का विसर्जन किस प्रकार किया गया ? एडोनिस' की भाँति कृष्ण-पूजा भी मुख्यतः सर्व-प्रथम भारतीय मेले में ही ग्रहण की गई थी और उसी अवसर पर सब लोग बुद्ध की उपेक्षा करते हुए गोपालदेवता के मन्दिर की ओर दौड़ गए थे। उसी समय बुद्ध के प्राचार्य ने 'दीवारों से घिरे' देवता का पूजन न करने के महान् सिद्धान्त का अतिक्रमण किया और लोगों के मेले को अपने देवता और धर्म की ओर पुनः आकृष्ट करने के लिए नेमिनाथ की मूर्ति मंदिर में प्रतिष्ठित की गई। यद्यपि पूर्व-काल की परम्पराओं और वर्तमान के प्रत्यक्ष ज्ञान से हमें यह सन्तोष हो जाता है कि सब देवों की एकता ही उनके धर्म का मुख्य सिद्धान्त है, परन्तु हम यह भी देखते हैं कि अन्य प्राचीन जातियों के समान उनकी पूजा-पद्धति में आकाशीय ग्रह-गण भी सम्मिलित हो गए थे-यथा सूर्य और उसका प्रतीक अश्व, जिसकी वे प्राचीन यूची अथवा जीत लोगों के समान वार्षिक बलि चढ़ाया करते थे। हैरोडोटस का कहना है कि ये जीत लोग आत्मा की अमरता में विश्वास करते थे। इस विषय १ एडोनिस (Adonis), ग्रीक देवता. इतना सुन्दर था कि स्वयं सौन्दर्य की देवी एफोडाइट (Aphrodite) भी उस पर मुग्ध हो गई। बाद में, उसी देवी के कहने से एक वराह ने उसका वध कर दिया था। N. S. E., p. 14. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २२; सामनगर, सिन्ध सुम्मा [ ४७१ पर मूर्तिपूजकों में कृष्ण और उनके मित्र अर्जुन के संवाद रूप में जो कुछ लिखा गया है वह सर्वोपरि है ।' · परन्तु, ये सब बातें अरुचिकर ही नहीं, बहुतों को बुरी भी लग सकती हैं इसलिए हम यदु-परम्परा में एक कदम आगे बढ़ कर सिकन्दर के समय में श्रा जाते हैं और इस बात का प्रयत्न करते हैं कि कहीं सिन्धु के तट पर उसका सामना करने वालों में जाड़ेचों के पूर्वजों की पहचान तो नहीं हो जाती है ? में यहाँ पर एक बार फिर दोहरा देता हूँ कि हम कृष्ण को केवल उनके पार्थिव रूप में मानते हैं; वे यदुवंशी राजकुमार थे, शौरसेन देश से उनको खदेड़ दिया गया था, सौराष्ट्र के जंगलियों ने उनका वध कर दिया और अपनी प्राठ रानियों से बहुतसी सन्तानें वे पीछे छोड़ गए थे । इन रानियों में से एक जाम्बवती और साम्ब नामक उसके पुत्र से ही जाड़ेचा अपनी उत्पत्ति मानते हैं । कृष्ण के निधन और यादव जाति के छिन्न-भिन्न हो जाने के बाद कुछ लोग, जैसे कि जैसलमेर राजवंश के पूर्वज, पञ्जाब होते हुए सिन्धु को पार करके आगे बढ़े और अन्त में उन्होंने गज़नी का राज्य स्थापित किया। दूसरी शाखा सौराष्ट्र में बनी रही; और तीसरी साम्ब और उसके साथियों की शाखा ने सिन्धु की घाटो में पैर जमाये तथा अपने नेता के नाम पर आधुनिक ठट्ठा के पास, जहाँ सिन्धु का डेल्टा दो भागों में बंट जाता है, एक नगर 'साम्ब' अथवा 'साम्बनगर' बसाया । इस नगर की स्थापना के साथ ही साम्ब का नाम इस जाति एवं राजानों के लिए उपाधि सूचक बन गया जो आज तक चलता है और उनके स्थानीय इतिहास में तथा मुसलमान इतिहासकारों द्वारा 'सिन्ध - सुम्मा' वंश के रूप में स्वीकार किया गया है । 'साम्ब के नगर' अथवा सामनगर का उल्लेख जाड़ेचों की वंशावली में ही बार-बार नहीं हुआ है अपितु जैसलमेर की समानान्तर शुद्ध शाखा के प्राचीन इतिहास में भी सुम्म- कोट' (Summa-kote) के नाम से मिलता है । इसीलिए जो बात मैंने कई वर्षों पहले अन्यत्र कही थी वह फिर कहता हूँ कि निस्सन्देह यादवों का यह 'सामि नगर' वही 'मि नगर' ( Mingara ) है, जिसका उल्लेख पॅरिप्लुस के कर्त्ता ने यह कहते हुए किया है कि जब वह भडौंष में था, अर्थात् दूसरी शताब्दी में, तब वह (मि-नगर ) एक इण्डो-सोथिक राजा की राजधानी ' देखिए 'भगवद् गीता' सर चाल्र्स विल्किन्स द्वारा अनूदित । 'बा' 'श' 'स' ये सम्बन्धकारक के चिन्ह हैं। साम्ब का अर्थ हुआ शाम या श्याम का-जो कृष्ण का उनके श्यामवर्ण के कारण सर्वविदित नाम है। 3 'कोट' या 'नगर' किले अथवा परकोटे वाले शहर को कहते हैं । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा था।' यदि एरिअन का अभिप्राय यह है कि उच्चतर एशिया से बाद में और भी लोग आकर सुम्माओं में मिल गए थे और उनको वह सीथिक जाति की संज्ञा देता है तो अधिक छानबीन की आवश्यकता नहीं रह जाती; परन्तु, जब यह कहा जाता है कि उस क्षेत्र के सर्वाधिक-संख्यक निवासी बलूच जाति के लोग धर्म-परिवर्तित जीत ही थे, जो अपने को यदुवंश का मानते थे, तो इस प्रस्ताव पर उन लोगों को अवश्य ध्यान देना चाहिए जो हिन्दू जाति की नृ-वंश-शास्त्रीय शोध में लगे हुए हैं। __ जब सिकन्दर भारत में था तो उस समय की प्रभुसत्ता-सम्पन्न जाति की वंशावली का विवरण देते हुए एरिअन कहता है कि उनके पूर्व-पुरुष का नाम 'बुडिअस' (Budaeus) अथवा बुध था; इस प्रकार वह यदु वंशावली के साथ बौद्ध [बुध] का घनिष्ठ सम्बन्ध सूचित करता है, जो यादवों के इतिहास से पूरापूरा मेल खाता है । हिन्दू-इतिहास के विषय में एरियन और जिन अन्य लेखकों ने लिखा है वे अपनी समस्त सूचना के लिए मेगस्थनीज़ के अखबारात के प्रति आभारी हैं, जो अब दुष्प्राप्य हैं; मेगस्थिनीज़ को सिल्यूकस ने प्राग [प्रयाग] के पास प्रासी (Prasii) के राजा के दरबार में राजदूत बनाकर भेजा था, जहाँ यादव-शक्ति की मुख्य और अत्यन्त प्राचीन राजधानी स्थित थी । यहाँ का राजा सान्द्रकोटस (Sandracottus), जिसके नाम में कितने ही परिवर्तन बताए गए हैं, कहते हैं, पौराणिक चन्द्रगुप्त था, जिसका नाम बहुत पुराने समय से यदु, चौहान और परमार जातियों की वंशावली में मिलता है। परन्तु, नाम के इस साम्य को लेते हुए और साथ ही ग्रीक लेखक द्वारा सूचित तत्कालीन प्रमुख राजवंश के पूर्वपुरुष के 'बुडियस' नाम पर विचार करते हुए हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में झिझक नहीं होती कि वह प्राग का राजा यदुवंशी ही था। भारत में सार्वभौमराज्य खो देने के बाद भी यादवों की सत्ता किसी तरह-बराबर बनी रही, इस • इण्डो-सीथिक जातियों ने अनेक भारतीय नगरों को अस्थायी रूप से 'मि-नगर' अथवा 'नगर' नाम से अभिहित किया है। बाद में जब इन जातियों का प्रभाव कम हो गया तो उन नगरों के मूल नाम पुनः प्रचलित हो गए। यथा, डॉ. मुलर ने इन्दौर का तत्कालीन नाम मि-नगर बताया है। इसी प्रकार विन्सेण्ट स्मिथ ने चित्तौड़ से ११ मील उत्तर में स्थित माध्यमिका नगरी को 'मि नगर' माना है। डॉ. डी. आर. भाण्डारकर का कहना है कि मन्दसौर का नाम 'मि-नगर' था। इसमें प्राचीन 'मिन' या 'मन' सुरक्षित रह कर 'दसोर' या दशपुर (दश उपनगरों वाला नगर) से मिल गया है। यहां जिस 'मि-नगर' का उल्लेख है वह 'बहमनाबाद' उ०२५°५०', ६८०५०' पू. हो सकता है। Ancient India by Ptolemy-S. N. Majumdar; pp.370-372 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२; यादव-कुन [ ४७३ बात का प्रमाण दूसरी शताब्दी में 'बाहार' के राजा सोमप्रीति के प्रायः प्राप्त परम्परागत विवरणों में मिलता है; वह बौद्ध धर्मानुयायी यदुवंशी राजा था, जिसकी सत्ता के प्रतीक अजमेर, कोमलमेर और गिरनार में वर्तमान हैं। परन्तु, सौराष्ट्र के प्रायद्वीप में, जिसका माहात्म्य उनके नेता की मृत्यु, वहाँ होने से बढ़ गया था, छिन्न-भिन्न हो जाने के उपरान्त भी यादव-जाति शक्तिशाली बनी रही, इसके बहत से प्रमाण मिलते हैं और इनके लिए हमें शिलालेख तथा पवित्र पर्वतों के माहात्म्य देखने चाहिएं, जिनमें जूनागढ़ के यादव राजाओं द्वारा पवित्र बौद्ध धर्म के मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराने में उदारतापूर्वक धन-व्यय करने के कितने ही प्रसंग मिलते हैं। अन्य राज्यों के इतिहासों में भी जूनागढ़ के यादव राजाओं का उल्लेख उस प्राचीन समय से मिलता है जब उन राज्यों की स्थापना हुई थी; जैसे, मेवाड़ के इतिहास में जूनागढ़ के स्वामियों के रूप में यादवों' का वर्णन विक्रम की दूसरी शताब्दी से मिलता है, जब वे पहले-पहल यहां आकर बसे थे। इसी प्रकार जेठवों और चावड़ों के इतिहास हैं, जिनमें विक्रम की सातवीं और दसवीं शताब्दी में उनके साथ वैवाहिक सम्बन्धों का वर्णन है और यह समय जाड़ेचों के सिन्ध से कच्छ के प्रति निष्क्रमण से बहुत पहले का है। इस प्रायद्वीप में यादवों की स्थिति-विषयक प्राचीन कथाओं की बहुलता मेरे लिए बहुत समय से अस्पष्ट धारणा का कारण बनी हुई थी और में उनको तथा जाड़ेचा राजानों को उस समय तक एक ही समझता रहा जब तक कि उनके इतिहास से मुझे यह विदित नहीं हो गया कि अपर वंश की सत्ता तो सिन्धु पर 'सामीनगर' में बारहवीं शताब्दी तक कायम थी। संक्षेप में, मेरा अभिमत इस प्रकार है कि यादव पश्चिमी एशिया से आए हुए इण्डो-सीथिक कुल के हैं और यहाँ के बहुत पुराने मूल निवासी हैं; कि अपने पूर्वपुरुष नेता बुध (जिसको एरिअन ने Budaeus लिखा है) के अधिनायकत्व में उन्होंने समस्त गाङ्ग-भारत को अपने अधीन कर लिया था और उसको छोटी-छोटी रियासतों में अपनी शाखाओं के अनुसार बाँट लिया था, जो इतिहास और परम्परा में 'छप्पन कुल यादव' जैसे करु, पाण्डु, अश्व, तक्षक, शक, जीत आदि नामों से प्रसिद्ध हैं; कि आन्तरिक अन्तर्जातीय-युद्धों के कारण वे बिखर गए और उनमें ' यह याव रखना चाहिए कि सरवेग (Sarwegas) और चूहासमा की प्रसिद्ध जातियां, जो अब सौराष्ट्र में नहीं है, यदुवंश की ही शाखाएं हैं। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा से कुछ अपने मूल देशों की ओर चले गए, जो अनुमानतः प्राक्सस और क्षार्तीस (Oxus and Jaxartes ) ' पर थे; कि उन्होंने कॉकेशस क्षेत्र में गजनी, पञ्जाब में सालपुर या श्यालकोट और सिन्धु तट पर सामनगर, सहेवान एवं अन्य नगर बसाए; कि धर्म-परिवर्तन अथवा कतिपय अन्य कारणों से कुछ लोग पुनः भारत में श्राए; और यह कि जैसलमेर के भाटी और कच्छ के सिन्ध-सुम्मा या जाड़ेचा उस कुल की प्रतिनिधि शाखाएं हैं, जिसके पूर्व पुरुष कृष्ण थे । अब मैं सिन्धु- सुम्मा जाड़ेचों की बात पर फिर आता हूँ । उनके पड़ोसियों के इतिहास के आधार पर मैं उनके इतिहास की प्रामाणिकता की जाँच करने का प्रयत्न करूंगा और यह सिद्ध करूंगा कि विक्रम की आरम्भिक शताब्दियों में भी सिन्धु [तट ] पर उनकी शक्ति बनी हुई थी। हम जाड़ेचा वंशावली में वर्तमान राजा से ऊपर की ओर अनुसंधान करेंगे जब तक कि समानान्तर वंश में किसी निश्चित नाम का पता न चल जाए। अच्छा तो, वर्तमान राजा से चालीस पीढ़ी पहले चूड़चन्द हुआ, जो जेठवा - इतिहास के अनुसार गूमली के संस्थापक शील की चौदहवीं पीढ़ी में राम चामर ( या कंवर ) का समकालीन था । अब, ४० राज्यकाल×२३ (प्रत्येक राज्यकाल के लिए अनुमानित वर्ष २ ) = ९२० वर्ष हुए, तो १८८० - ९२० = ९६० संवत् या ६०४ ई० सामनगर के राजा चूड़चन्द का समय हुआ । अब हम इस फैलावट की जाँच गूमली के पालियों पर लगे शिलालेखों से करते हैं, जहाँ का राजकुमार सालामन निष्कासित हो कर जाम ऊनड़ के पास चला गया था और उसने अपनी सेना साथ देकर शरणार्थी को पुनः गद्दी पर बिठाने के लिए सहायता की थी । जाड़ेचों के इतिहास में जाम ऊनड़ का नाम प्रसिद्ध है क्योंकि वही पहला राजा था जिसने पैतृक उपाधि सुम्मा को 'जाम' में परिवर्तित किया था; वह चूडचन्द की आठवीं पीढ़ी में था इसलिए ८x२३=१८४+१६० = संवत् १९१४४ उसका समय हुआ जिसमें और जेठवा - इतिहास के समय में वर्षों की केवल एक नगण्य-सी संख्या का अन्तर है अर्थात् जेठवा - इतिहास के अनुसार सिन्ध के बामनी सुम्मा ( Bamunca Summa ) जाति के 'लम्बी दाढ़ीवाले और सच्चे मुसलमान असुरों द्वारा' गूमली का विनाश १ मध्य एशिया की नदियां । २ जिस सामग्री के आधार पर यह अनुपात निकाला गया है उसके लिए देखिए 'एनल्स श्रॉफ राजस्थान' भा० १ पृ० ५२ । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२; जाडेचों का समय-क्रम; वंशावली - लेखन [ ४७५ संवत् ११०६ में हुआ; और यदि हम 'पालियों के शिलालेखों को मानें तो यह संवत् १११६ आता हैं। इस प्रकार हमें दो महत्त्वपूर्ण तिथियों का पता चल जाता है – पहली, जाम ऊनड़ की १०५३ ई०, जब इसलाम में परिवर्तन और पैतृक नाम में बदल की घटनाएं साथ-साथ हुई; दूसरी, चूड़चन्द की जो ६०४ ई० में गूमली के राम चामर का समकालीन था । जेठवों के इतिहास में यह भी कहा गया है कि इस राजकुमार का विवाह कंथकोट (Cath Kote) के तुलाजी काठी की पुत्री से हुआ था जिससे एक और समकालीन तिथि का पता चलता है अर्थात् sustice जाति इस प्रायद्वीप में कम से कम एक हजार वर्ष पूर्व श्राजमी थी । और यहीं पर समाप्ति नहीं हो जाती; अभी हम एक और महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, वह यह कि युदु-सुम्मा, काठी, चामर या जेठवा, झाला, बाल और हूर इत्यादि, ये सब 'रक्त' और 'वंश' के लिहाज से समान कोटि के थेआपस में बेटी व्यवहार आदि में आजकल के राजपूतों की तरह कोई भेद-भाव नहीं बरतते थे; इसलिए हम यह मान लेते हैं कि वे लोग, जैसा कि एरियन और कॉसमस आदि ने स्थान-स्थान पर लिखा है, उच्चतर एशिया से समयसमय पर प्राई हुई जातियों के टोलों में से थे । यह संतोष लेकर कि अब की तरह सन् ६०४ ई० में भी ये लोग सिन्ध में राज्य करते थे, अब इस जाति के इतिहास में खोज के लिए और पीछे जाने से कोई नतीजा नहीं निकलता । 'साम्ब' नामकी उपाधि चूड़चन्द के पुत्र के राज्यसमय में बदल गई थी जब कि उनका धर्म भी ( चाहे वह बौद्ध हो अथवा उनके देवत्व प्राप्त पूर्व पुरुष कृष्ण का हो ) इसलाम में परिवर्तित हो गया था । इस सम्बन्ध में हमें वंशावली -लेखन की एक विचित्र कला का पता चलता है, जो इस जाति के इतिहास में समाविष्ट हुई है । मैं सामनगर के राजा चूड़चन्द के समय अर्थात् संवत् ६६० या ६०४ ई० की याद दिलाता है । उसके पुत्र साम यदु के पाँच लड़के थे जिनके नाम श्वसपति, नरपति, गजपति, भोमपति और समपति थे । इस समय से लगभग दो शताब्दी पूर्व खलीफों ने सिन्ध पर विजय प्राप्त कर ली थी और भरोर के राजा दाहिर तथा मुसलिम सेनापति मुहम्मद-बिनकासिम की प्रसिद्ध कहानी से भारतीय इतिहास का प्रत्येक पाठक अच्छी तरह परिचित है । धर्म परिवर्तन और विजय दोनों मिली हुई एक ही चीज़ थी और जब सामनगर के राजा साम्ब के वंशजों के सामने इसलाम और हिन्दुत्व की ' हिजरी सन् ६५ प्रर्थात् ७१३ ई०; देखिए 'एनल्स ऑफ राजस्थान' भा० १, ५० २३१, परन्तु, सिन्ध की प्रतिम विजय कोई घाधी शताब्दी बाद हुई थी। वही० पु० २४४ । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ । पश्चिमी भारत की यात्रा समस्या आई तो अपने बलाक्रान्त परिवर्तन को छुपाने के लिए उन्होंने यह कहानी ईजाद की । जाड़ेचों के इतिहास में से 'पुरवोई' (Purvoe)' या अंग्रेजी लिपिक ने जो अंश अनुवाद करके दिया उसे मैं यहाँ पर अक्षरश: उद्धृत करता हूँ 'रोम (Rome) के देश में जो भी कोई शाम (Sham) से आता है वह सुम्मा कहलाता है । श्रीकृष्ण और जाम्बवती का पौत्र साद (Saad) शाम में रहता था, जहां से उसके वंशज नबी (पैगम्बर) के डर से भाग गए और उसम (Oossum) की पहाड़ी पर पहुंचे; परन्तु, वहाँ भी जब उन्होंने नबी को दावत करते हुए देखा तो बड़े हैरान हुए । बचाव न देखते हुए वे नबी के सामने लेट गए और प्रसपती ने उसके साथ भोजन करने तथा उसके करवे या मिट्टी के पात्र से पानी पीने का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। वह चगताइयों का राजा बना और उसके भाई अधीनस्थ सामन्त । नरपति को सिन्ध मिला और वह समाई (Samai) में बस गया । गजपति के वंशज भाटी-सुम्मा' कहलाए और उन्होंने जैसलमेर प्राप्त किया।' इत्यादि । इस प्रकार इसलाम का जामा पहन कर वे सौर क्षेत्र (जिसमें ऊसम की पहाड़ी है) के बजाय सीरिया में जन्म-स्थान प्राप्त कर लेते हैं और अपने आपको महान् शैमेटिक (Shemetic) वंश का बताते हैं ; फिर भी, यदि नबो के सामने भाग खड़े होने से उनका तात्पर्य मोहम्मद से है तो वे अपने पूर्व आभिजात्य को एकदम भुला कैसे बैठते हैं ? यह भी आश्चर्य की बात है कि जैसलमेर के यदुभाटियों के समान वे तक्षक, तुरुष्क या टर्किश जाति के चगताई (ज फेटिक) [Japhetic] वंश तथा गोर वंश को भी अपने से सम्बद्ध होना बताते हैं ; और इस अन्तिम वंश को 'शाम' का उपनाम देकर कुछ रंग भी दिया गया है, जिसका प्रयोग भारत के प्रथम विजेता मोइजुद्दीन (Moczodin) द्वारा किया गया था। यह सब इसी इच्छा से किया गया था कि उनकी वंशावली पर लगने वाला धब्बा, इसलाम-धर्म में परिवर्तन, जिसके कारण उनका मूल राजपूत वंश से ' अबुल फजल ने असम भाटी लिखा है। • गजनी के राजा शालिवाहन का पुत्र वालन्द हुमा । उसका द्वितीय पुत्र भूपति था। भूपति अपने पिता के जीवनकाल में हो राजगद्दी पर बैठ गया था। उसका बड़ा पुत्र 'चिकेता' था। भूपति की मृत्यु के अनन्तर जब चिकेता राजा हुमा तो उसने बाल्हीक (बलख) के म्लेच्छ राजा उजवक की रूपवती कन्या से विवाह किया और उसके राज्य को भी हस्तगत कर लिया । इसी चिकेता ने अपने भाठ पुत्रों सहित यवन-मत ग्रहण कर लिया था। इसी के वंशज प्रागे चल कर चकत्ता या घगतई मुगल कहलाए। (जैसलमेर का इतिहास; श्री हरिदत्त गोविन्द व्यास पृ० १२) Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७७ सम्बन्ध विच्छेद होता है, छुप जाय; और अब क्योंकि वे अपने पुराने और नए धर्म के बीच में भूल रहे हैं इसलिए उन्होंने अपने हिन्दू मूलपुरुष 'साम्ब' के नाम को भी पारसी 'जमशेद' के नाम पर बलिदान कर दिया है - इस प्रकार 'साम' 'जाम' बन गया है, जो इस समय नवानगर में निवास करने वाली शाखा की उपाधि बना हुआ है । प्रकरण - • २२; लाखा गरोरा हम (स्वधर्म - त्यागी साम यदु के पितामह) चूड़चन्द और लाखा के बीच की सात पीढ़ियों को छोड़ देते हैं । लाखा का उपनाम 'गोरारो' (Ghoraro) या गर्वीला था और वह सामनगर में राज्य करता था । उसके बहुत सन्तानं हुईं और उन्हीं में से एक की शाखा में से जाड़ेचों का निकास हुआ। एक चावड़ावंश की राजकुमारी से उसके चार पुत्र हुए जिनके नाम मोर, वीर, सन्द श्रीर हमीर थे; दूसरी रानी से, जिसकी जन्मभूमि कन्नौज थी, चार और पुत्र हुएऊनड़, मुनई, जय और फूल । 1 लाखा गोरारो (मगरूर ? ) के बाद जाम उनड़ गद्दी पर बैठा और कहते हैं कि वही प्रथम सुम्मा था जिसने 'जाम' नाम को ग्रहण कर लिया था । ऐसा लिखा है कि लाखा-पुत्र ऊनड़ कन्नौज की राजकुमारी से उत्पन्न हुआ था, अत: बड़े भाइयों के होते हुए भी उसके गद्दी पर बैठने से हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि वह राजकुमारी प्रतिष्ठा में बड़ी थी। कुछ भी हो, उसका सुम्मान की गद्दी पर बैठना घातक ही सिद्ध हुआ और इससे हमें बहु-विवाह के दुष्परि णामों का एक और उदाहरण मिल जाता है । ऊनड़ अपने चारों बड़े भाइयों के साथ वेधम प्रदेश में शेरगढ़ (वर्तमान लखपत ) ' गया था जहाँ सामनगर की बड़ी रानी का भाई चावड़ा राज्य करता था। वहीं पर उसे गुप्त रूप से राव लाखा की मृत्यु के समाचार मिले और वह उन सबको चकमा देकर राजधानी लौट आया तथा राजगद्दी पर बैठ गया । इसके कितने समय बाद, यह तो पता नहीं, वरिष्ठता के अधिकार से वञ्चित उसके सौतेले भाइयों ने उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचा (जिसमें उसका सगा भाई मुनई भी सम्मिलित था) और उसे 'दड़ी-दण्ड' के त्योहार में मार डाला । यह कायरतापूर्ण निस्सन्देह यह नाम लाखा के ही कारण पड़ा है। लखपत के अतिरिक्त सिन्ध में और भी बहुत से नगरों के ऐसे नाम हैं जिनसे सुम्मा वंश का प्रभुत्व सिद्ध होता है, जैसे हाला, इत्यादि । ★ यह गेंद बल्ल का खेल होता है जो प्रायः गांवों में मकर-संक्रान्ति के दिन खेला जाता है । यह गेंद पुराने कपड़ों की परत पर परत लपेट कर सूतली या ढोरी से बाँध कर बनाई जाती Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] पश्चिमी भारत को यात्रा वध-कार्य सम्पन्न करने के कारण तभी से मुनई को 'कायर मुनई' कहने लगे। ऊनड़ की पत्नी, जो 'राजकुमारी' कहलाती थी, उस समय गर्भवती थी इसलिए वह भाग कर अपने पिता की शरण में चली गई । उसने एक सेना भेजी जिसने मुनई और उसके भ्रात-घाती भाइयों को सिन्ध से बाहर निकाल दिया, जहाँ भ्रातृ-वध के उपरान्त भी उनको रहते बारह वर्ष बीत चुके थे। कायर-मुनई, उसके भाई और साथी कच्छ में भाग गए और वहाँ काठियों पर आक्रमण करके उनको कंथकोट से निकाल दिया; कंथकोट के पास ही मुनई ने एक नगर बसाया और उसका नाम 'कायरा' रखा। उसके बड़े भाई मोर को कण्टरकोट (KunterKote) प्राप्त हुआ और दूसरों ने बाबरियों, जेठवों तथा अन्य जाति के लोगों से भूमि छीन ली। तो, इस प्रकार सिन्ध की सुम्मा जाति कच्छ प्रान्त में पहले-पहल बसी और फिर उसकी बहुतसी शाखाएं फैल गईं, जिनमें सिन्धु के डेल्टा से खम्भात की खाड़ी तक चावड़ा सब में प्रमुख थे; और इसी कारण, हम फिर कहते हैं कि, इस सीमा में जो देश थे उनको चावराष्ट्र (चावड़ा राष्ट्र ?) अथवा सौराष्ट्र नाम प्राप्त हुआ, जिसको यद्यपि हिन्दू भूगोल-शास्त्रियों ने तो केवल प्रायद्वीप तक ही सीमित रखा है, परन्तु ग्रीक और रोमन भूगोलवेत्ताओं ने अधिक सूझ-बूझ के साथ 'सायराष्ट्रीन' नाम से उस समस्त भू-भाग का बोध कराया है, जिसका ऊपर वर्णन किया गया है । सात पीढ़ियाँ बीतने तक 'सुम्मा' का नाम 'जाडेचा' में परिवर्तित नहीं हुआ था और फिर सामनगर से दूसरी बस्ती ने आकर सन् १०७५ ई० में इस प्रथम विजय के सभी चिह्नों को नष्ट कर दिया। लाखा गोरार का वंश, जाम ऊनड़ की मृत्यु के उपरान्त जन्मे उसके पुत्र तमाच (Tamach) द्वारा सामनगर में ऊनड़ को सातवीं पीढ़ी में हाला सुम्मा तक तो बढ़ता रहा, परन्तु उसी समय एक ऐसी घटना हो गई कि गोत्र-संज्ञा बदलने के साथ-साथ जाड़ेचों में बाल-वध की कुप्रथा भी चालू हो गई । हाल के समय में ही (कुछ लोग कहते हैं उसके भाई वीर के समय में) जाड़ेचा नाम का आविष्कार हुआ था, जिसके मूल में एक अत्यन्त साधारण-सी घटना थी-ऐसी छुट-पुट घटनाएं भी राजपूतों में किसी वंश का नामकरण करने के लिए पर्याप्त है-कभी कभी परतों के भीतर पत्थर भी रख देते हैं । इस प्रकार यह ठोस गेंद और मजबूत लकड़ी के बल्लों का खेल आज कल को 'हॉकी' का पुराना रूप हो सकता है । जो अब तक गांवों में प्रचलित है । बल्ले को 'गेडिया' और गेंद को दड़ी कहते हैं। गेडिया प्रायः 'हॉकी स्टिक' की तरह ही एक सिरे पर मुड़ा हुमा होता है। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७६ प्रकरण - २२, जाडेजा नाम की उत्पत्ति कारण बन जाती हैं। इस राजा के सात पुत्र हुए जिनमें से छः एक-एक करके किसी महामारी के प्रकोप से मर गए और सातवाँ किसी सन्त के प्रभाव से बच गया। इन देशों में सर्वत्र हो गम्भीर बीमारी में 'झाडना' दिलाने की प्रथा है। इसमें एक सिद्धि-प्राप्त व्यक्ति (जो प्रायः 'जोगी' होता है) अपना मोर-पंखों से बना हुमा 'झाड़ा' बीमार पर हिलाता है और उसकी रोग-मुक्ति के लिए मंत्र बोलता रहता है। इसी प्रक्रिया से सुम्मा सरदार का रोग-मुक्त पुत्र बाद में सदा के लिए 'झाड़े जा' कहलाने लगा और उसके वंशज भी इसी नाम से प्रसिद्ध हए जिनकी अब बहत सी शाखाएं फैल गई हैं। हाल' की पुत्री का विवाह सूमरा जाति के ऊमर' नामक पड़ोसी राजा के साथ हुआ था, जिसका निवासस्थान मोहब्बत-कोट था, जो बाद में उसी के नाम पर ऊमर-कोट कहलाने लगा। इस विवाह के अवसर पर ही कोई झगड़ा खड़ा हो गया और सूमरा ने सिन्ध के राजा को अपने किले में कैद कर लिया। ज्यों ही इस अपमानजनक कृत्य की सूचना सामनगर पहुँची त्यों ही सुम्माओं ने अपने भाई-बन्धुत्रों को एकत्रित करके उसकी मुक्ति कराने के लिए प्रस्थान किया। सूमरा भी गाफिल नहीं थे और दोनों जातियों के पचास हजार मनुष्य मोहब्बत-कोट की दीवारों के नीचे मरनेमारने के लिए सन्नद्ध होकर जूझ पड़े। विजय सुम्मों की हुई यद्यपि उनके दस हजार प्रादमी, जिनमें उनका राजा भी शामिल था, मारे गए; सूमरों को अपनी जाति के सात हजार मनुष्यों के जीवन और राजधानी से हाथ धोना पड़ा। इस दुर्घटना में, जिसने रंग में भंग कर दिया था, नव-वधू भी अन्य सूमरा स्त्रियों के साथ सती हुई और चिता पर चढ़ते समय उन सब ने यह शाप दिया 'जो भी कोई जाड़ेचों की लड़की से विवाह करेगा वह फूले-फलेगा नहीं' और तभी से इस वंश की लड़कियों का नारियल ग्रहण करने को किसी की इच्छा नहीं होती । इस प्रकार, उन्हीं के इतिहास के अनुसार, जाडेचों में बाल-वध की अप्राकृतिक प्रथा का प्रारम्भ हुआ जो आज तक उनमें चाल है; फिर भी, वॉकर [Walker] जैसे विश्व-प्रेमी ने भी, जिसने इस प्रथा को समाप्त कर देने के लिए जी जान से प्रयत्न किए थे (और जिसको यह भ्रम हो गया था कि वह कच्छ के महिलासमाज का उद्धारक था) इस [मूल की ओर कोई संकेत नहीं किया है यद्यपि सिद्ध करने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि यह प्रथा छः शताब्दियों से निरन्तर . हैदराबाद [सिन्ध) के उत्तर में एक हाल नामक नगर है, जो निस्सन्देह इसी राजा के नाम पर बसा है। ऊमर-कोट और सूमरा वंश की उत्पत्ति के लिए मैं पाठकों को 'राजस्थान का इतिहास पढ़ने का अनुरोध करूंगा। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] पश्चिमी भारत की यात्रा . चली आ रही थी। इस प्रथा के चालू होने की यही व्याख्या सच है या नहीं, अब इसकी जांच करना बेकार है; परन्तु, ऐसे प्रमाणों के विरुद्ध भी मेरा मत तो यही है, जैसा कि मैंने अन्यत्र व्यक्त किया है, कि यहाँ बताए हुए मूल कारणों से कई पीढ़ियों पहले सुम्माओं के इसलाम में परिवर्तन से ही, जिसके फलस्वरूप राजपूतों में उनका वैवाहिक सम्बन्ध बन्द हो गया था, इस प्रथा का जन्म हुआ था; और क्योंकि यह कारण सती के शाप वाली बात से सम्बद्ध हो रहा है इससे इतना ही माना जा सकता है कि यह बर्बरता को हल्का करने का प्रयत्न मात्र है। मुझे विश्वस्त सूत्रों ने बताया कि इसमें कमी या शिथिलता लाने के कोई प्रयत्न नहीं किए गये प्रत्युत इसको चालू रखने के प्रयत्नों को प्रच्छन्न रखने के लिए और भी अधिक श्रम किया गया। परन्तु, यह भी विश्वास दिलाया गया, और बात भी ठीक है, कि लड़कियों की तरह ऐसे लड़कों की संख्या भी कम नहीं है जिन को पैदा होते ही थोड़ा सा दूध' (अफीम मिला हुआ) दिए जाने के दुर्भाग्य का परिणाम न भुगतना पड़ा हो । अभी तुरन्त ही हमें इस बात को सचाई का पता चल जायगा जब हम कच्छ और मारवाड़ में एक ही समय में बस जाने वाले जाड़ेचों और राठौड़ों की जन-संख्या की तुलना करेंगे; जनगणना करने पर जाड़ेचों में सब मिला कर बारह हज़ार आदमी ऐसे पाए गए जो शस्त्रधारण करने योग्य हैं जब कि राठौड़, एक शताब्दी पहले भी अत्याचारी औरंगजेब से अपने राजा की रक्षा करने के लिए पचास हजार आदमी ले आए थे और आज भी ला सकते हैं-और वे 'सब एक बाप के बेटे' हैं, यदि उन्हीं के शब्दों में कहें। फिर, एकान्त और असम्बद्ध रहने के कारण जाड़ेचा युद्ध की हानियों से भी बचे रहे जिनकी वजह से राठौड़ों की जनसंख्या बराबर क्षीण होती रही थी । जाड़ेचों का कहना है, और शायद ठीक भी हो, कि भूचाल और अकाल ने उनकी आबादी को नहीं बढ़ने दिया। हाल के बाद प्रथम जाड़ेचा लोखा गद्दी पर बैठा जिसके कोई सन्तान नहीं हई । लाखा और लखयार हाल के छोटे भाई वीर के पुत्र थे और इनमें से ही किसी एक की महामारी से रक्षा होने के कारण इस जाति का यह नाम पड़ा था। इसी प्रकार यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि वह लड़की भी, हाल को नहीं वेर की ही थी, जिसने शाप दिया था और जिसका पहला प्रभाव लाखा के ही वंश पर पड़ा था। इतिहास में लिखा है कि लाखा के वंश में सात लड़कियाँ हुई जो सर्वप्रथम इस अभिशाप का शिकार बनीं; परन्तु, उसके कुलगुरु एक सारस्वत ब्राह्मण ने इस कुकृत्य को इतना गर्हित समझा कि उसने इसे सम्पन्न कराने से इनकार ही नहीं किया वरन् उस वंश की गुरु-पदवी धारण करने की भी अनिच्छा Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२; जाडेवों द्वारा कच्छ में राज्य संस्थापन [ ४० १ प्रकट की । इतिहास अर्थात् वंशावली के शब्दों में- 'जब सारसोत बापू ने अपना काम छोड़ दिया तो एक प्रौदीच्य ब्राह्मण उसके स्थान पर नियुक्त हुना और उसने आज्ञा का पालन किया; उसने इन सातों लड़कियों को जला दिया और उसके वंशज तभी से जाड़ेचों के राजगुरु बने हुए हैं ।' अच्छा होता, यदि यह सम्पूर्ण जाति मुसलमान बनी रहती और हिन्दुओं की सीमा में पुनः स्थान प्राप्त करने के लिए प्रयत्न न करती; अब ये न हिन्दू रहे न मुसलमान । ऐसी दशा में, यदि भारत में किसी अन्य वर्ग अथवा जाति की अपेक्षा (मलाबार के हेलोतों (Helots ) के अतिरिक्त ) इन लोगों को ईसाई मत में परिवर्तित करने के प्रयोग किए जावें तो संभवतः वे अधिक सफल सिद्ध होंगे और उनके रहन-सहन में घुसे हुए इस तरह के जंगलीपन के अवशेषों से उद्धार करने के ऐसे किसी भी प्रयत्न से मानवता को प्रसन्नता ही प्राप्त होगी । लाखा का उत्तराधिकारी रायधन हुआ और उसको ही कच्छ में जाड़ेचा रियासत का संस्थापक माना जा सकता है क्योंकि यद्यपि राजघातकों मे कुछ नये संस्थान कायम कर लिए थे, परन्तु जाम ऊनड़ के पुत्रों ने उनको दबा कर क्षीण कर दिया था तथा अपने पिता के घात का बदला लेते हुए उन हत्यारों को 'कायरा' से भी खदेड़ कर बाहर निकाल दिया था । इसीलिए यह माना जाता है। कि कायर - मुनई की सन्तानें मेर और मोणों की नीची जातियों में मिल गईं तथा कालान्तर में उन्हीं लोगों में खो गईं। कन्थर-कोट (Kunter kote) के विजेता मोर के वंशजों ने अलबत्त: इस पर पाँच पीढ़ी तक अधिकार बनाए रखा परन्तु, बाद में सुप्रसिद्ध लाखा फूलानी के साथ, जिसका उल्लेख तत्कालीन प्रत्येक जाति के इतिहास में मिलता है, यह शाखा भी नष्ट हो गई । मोर के सरज, उसके फूल और फूल के फूलानी उपनामधारी लाखा हुआ, जो सतलज से लेकर समुद्र तट तक अपने लूट - अभियानों के लिए उस समय प्रसिद्ध था जब राठौड़ों ने मरुस्थली अथवा भारतीय रेगिस्तान में सर्वप्रथम राज्य स्थापित किया था । मारवाड़ के इतिहास में लिखा है कि वह सीहाजी द्वारा उसके भाई सीताराम के वध के बदले में मारा गया था। राठौड़ इतिहास के अनुसार यह घटना भारत पर शाहबुद्दीन द्वारा १९६३ ई० में मुसलिम - विजय के तुरन्त बाद की है; और क्योंकि रायघन जाम ऊनड़ की आठवीं पीढी में हुआ था, जिसका समय जेठवा - इतिहास के समसामयिक आधार पर १०५३ ई० आता है, इसलिए कच्छ में जानों द्वारा अन्तिम विजय और राज्य संस्थापन के समय को हम सरलता से उत्तरी भारत में मुसलिम - विजय का समकालीन अर्थात् ११९३ ई० मान सकते हैं । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२] पश्चिमी भारत की यात्रा रायघन ने सिन्ध के किनारे से महान् रण के तट तक एक नये उपनिवेश की स्थापना की और वहीं पहले 'चूड़ी' में स्थान कायम किया फिर जल्दी ही बुचाऊ (Butchao) के पास वेन्द (Vend) अथवा ऊंद (Oond) में स्थानान्तरित हो गया। रायधन के चार पुत्र उसके साथ सामनगर से आए थे परन्तु वंशावली में लिखा है कि उसके पोयला नामक एक 'पंचम पुत्र" भी था, जो किसी दासी से उत्पन्न हुआ था और उसके दो पुत्र जुदुब (Zudub) और कुतुब (Cootub) सिन्ध में ही रह गए थे। रायधन द्वारा स्वदेशत्याग का कोई कारण नहीं बताया गया है और न इस बात का ही उल्लेख है कि उसके मुसलिम नामधारी पुत्रों की उस समय सिन्ध में क्या स्थिति थी जब उनके पिता ने उस स्थान को छोड़ा था? सम्भावना यह है कि उसको वहाँ से निकाल दिया गया होगा । उसके चार पुत्र थे१. देदा (Dedoh)-कंथर-कोट की गद्दी प्राप्त की। | जेठवों को पराजित किया और उसके पुत्र हाल ने अपने २. गजन २ जीते हुए देश का नाम हालार रखा तथा नवानगर ' ' । बसाया और जाम की उपाधि को कायम रखा। ३. प्रो'ठो (Ot'oh) इससे भुज के राजवंश का उद्भव हुआ। ४. हो'ठी (Hot'hi) बरधा (Burdha) में बारह ग्राम प्राप्त किये ; इसके वंशज होठी कहलाते हैं। तीसरा पुत्र ओ'ठो पिता की गद्दी पर बैठा; इससे विदित होता है कि इस वंश में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था; छोना-झपटी में जितना भाग जो जीत लेता और अपने अधिकार में रख पाता वही उसका था । जाड़ेचों के वर्तमान राजनैतिक शासन पर विचार करते समय भी हमको यही बात ध्यान में रखनी चाहिये और अधिक प्राचीन लाखा गोरार जैसे राज्य-संस्थापकों को भी नहीं भुला देना चाहिए क्योंकि यदि ये नये संस्थान कायम न हो पाते तो यह पूरी संभावना थी कि वे पूर्ण नगण्यता में विलीन हो जाते । चूड़चन्द और सम्मानों के इसलाम में परिवर्तन से पहले भी कच्छ में उत्पात होते रहे हैं और इस भू-भाग का नाम इतिहास में उब्रासी (Ubrassie) मिलता है, जो इस बात का प्रमाण है कि प्रथम खंगार के पुत्र उब्रा (Ubra) के नाम पर ही इसे यह संज्ञा प्राप्त हुई थी। • राजपूतों में प्रपरिणीता में उत्पन्न पुत्र को 'पञ्चम पुत्र' कहते हैं । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२; बंगार; भुज नगर की स्थापना [ v$ इस इतिहास में (प्रो 'ठो की पीढियों में सातवें) हमीर तक कोई उल्लेखनीय बात नहीं है, जिसको इस वंश की बड़ी शाखा वाले हालार के जाम ने तेहरा (Tehra ) ग्राम के पास मार दिया था; परन्तु इस वध का उद्देश्य सफल नहीं हुआ क्योंकि स्वयं हालार की पत्नी ने, जो चावड़ा कुल की थी और हमीर के शिशु की माता की बहिन [ मौसी ] थी, उनके रक्षण का दृढ़ निश्चय किया और उनको अपने भाई ककुल (Kuku चावड़ा के पास भेज दिया, जिसने इस कर्तव्य और विश्वास का निर्वाह इतनी सचाई से किया कि अपने स्वयं के पुत्र के वध को भी सहन कर लिया परन्तु उन लोगों के छुपने का स्थान जाम को नहीं बताया । इतिहास में आगे लिखा है कि उसी दिन से ककुल के सामन्तों को 'किसी तलवार के वार से न मारे जाने का' वरदान प्राप्त हो गया- सेवा के बदले में ऐसा वरदान प्राप्त होना सन्देहास्पद-सा ही लगता है ! तरुण राजकुमार उस गुप्तवास से पूर्व की ओर गए और मानिक मेर से मिले जो भविष्य देखने में सिद्धहस्त था । सभी राज्य संस्थापकों के समान सब से बड़े भाई खंगार के पैर में राज्य - चिह्न था, जिसको उस ज्योतिषी ने जब वे एक मन्दिर में सो रहे थे तब देख लिया और उसके भाग्योदय की भविष्यवाणी करते हुए उन लोगों को बेधड़क अहमदाबाद जाने के लिए कहा। नई श्राशानों के साथ जब वे निकल पड़े तो उनको मार्ग में एक काला घोड़ा मिला जो एक बड़ा अच्छा शकुन था इसलिए वे श्रागे बढ़ते चले गए । राजा आखेट को निकला था और खंगार ने 'हाके" में शामिल होकर एक बड़े सिंह का शिकार किया। इस अवसर पर अपने परिचय एवं कहानी के परिणाम में वह राजा का प्रीतिपात्र बन गया और उसने कच्छ तथा मोरबी की जागीर 'राव' पदवी सहित प्राप्त की । राजकीय सेनाओं की सहायता से जाम रावल को अनधिकृत क्षेत्र से निकाल दिया गया और उसे हालार में जाकर शरण लेनी पड़ी। इस प्रकार राव खंगार हमीरानी (हमीर के पुत्र) ने संवत् १५९३ (१५३७ ई०) में अपना अधिकार प्राप्त किया और संवत् १६०५ ( १५४९ ई० ) में मगसिर महीने की पञ्चमी तिथि को भुजनगर की स्थापना की । मानिक-मेर को भी भुलाया नहीं गया; उसको और उसके वंशजों को वीर ( आधुनिक अंजार ) नामक नगर और परगना दिया गया; परन्तु आजकल अंजार के मालिक अंग्रेज़ हैं । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि हमीर ने अपने वध I " शिकार को हल्ला मचा कर ऐसे स्थान तक ले आना जहाँ आखेटक राजा आसानी से निशाना लगा सके । ऐसे अवसरों पर राजानों के साथ बहुत-से प्रादमी जंगल में जाते हैं और हल्ला मचाते हैं। राजस्थानी में 'हाका' का अर्थ हल्ला या शोर होता है । इसी आधार पर पूरे अभियान को 'हाका' कहा जाने लगा । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा से पहले कुछ जागीरें अपने वंश के लोगों और अवयस्कों को दे दी थीं, जो अब तक भी कच्छ के 'पटायत' या सामन्त हैं; जैसे, रोहा, वीजम, मावतेड़ा, नलिया, अरिसर, आदि । भुज के संस्थापक राव खंगार से वर्तमान अवयस्क राव तक चौदह पीढियाँ हुई हैं और उनके नाम, गद्दी पर बैठने की तिथि तथा निधन आदि सभी बातें सावधानी के साथ इतिहास में लिखी गई हैं; परन्तु इन सब बातों से पाठकों को कोई रस नहीं मिलेगा । क्रमागत नामों के साथ भेद-सूचक विशेषण लगाए गए हैं जिनसे जाड़ेचों की 'भायाद' की प्रत्येक शाखा के उद्गम का पता चल जाता है । इन जातियों के पारस्परिक, राजनीतिक और वंशानुगत सम्बन्धों एवं भेदों के विषय में पूरी जानकारी रखना जिन लोगों का कर्त्तव्य है उन लोगों के लिए ये सब बातें बहुत काम की हो सकती हैं परन्तु किसी पाश्चात्य पाठक को हमीरानी, खंगारानी, भारानी, तमाचीयानी, नौघानी, हालानी, रायधनानी, कारानी और गोरानी श्रादि की लम्बी वंशावलियों से कोई मतलब नहीं है, जिनमें एक ही नाम के राजाओं से चलने वाली शाखाओं का भेद बताने के लिए उनके विशेषणों को दो-दो तीन-तीन बार दोहराया गया है; यथा खंगार हमीरानी, खंगार तमाचीयानी, खंगार नौघानी; कहीं-कहीं तो खँगार या अन्य समान - नामधारी राजानों की शाखा का भेद बताने के लिए आधी दर्जन पैतृक नामों की भी आवृत्ति की गई है । यह सब खुजाना जाड़ेचों के भाट ने इकट्ठा कर रखा है, जो देखने में तो बेकार-सा लगता है परन्तु जब उत्तराधिकार सम्बधी विवाद खड़े होते हैं तो ये वंशावलियाँ ही निर्विवाद रूप में मान्य होती हैं । मूल वंशावली की सीमानों से बाहर न जाते हुए इसी विषय पर विस्तार से लिखना अपेक्षाकृत सरल काम था, परन्तु यहाँ पर मेरा मुख्य उद्देश्य वर्तमान राजवंश की यथावत् वंशावली को समझना, चालू शासन पद्धति की विशेषताओं का विवरण देना और जाड़ेचों के रहन-सहन, स्थिति एवं धर्म में आए हुए विचित्र परिवर्तनों का वर्णन करना है। इस प्रयास में आगे बढ़ने से पहले मैं इस जाति के विशिष्ट युगों का सिंहावलोकन करूंगा और इस विषय पर बहुत कुछ विचारमन्थन के उपरान्त जो दो मत कायम हुए हैं उनका भी उल्लेख करूंगा । भारत में यदुवंश की सर्वोच्च सत्ता ईसा से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व छिन्नभिन्न हो गई थी, तदुपरान्त उनकी विशृङ्खलता के और अधिकार के ( जो यद्यपि इतिहास विरुद्ध हैं ) प्रचुर प्रमाण हमें उनकी शुद्ध और अशुद्ध वंशावलियों, तीर्थस्थानों के माहात्म्यों, परम्पराओं और शिलालेखों आदि में प्राप्त होते हैं । इन्हीं सब स्रोतों से हमें ज्ञात होता है कि इन यादवों की एक शाखा पश्चिमी एशिया Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २२ बारेचों के इतिहास का तियिक्रम [४५ की तरफ चली गई और जाबुलिस्तान में बस गई; दूसरी सिन्ध में गई और वहाँ साम्ब की राजधानी सामनगर की स्थापना हुई, जो सिकन्दर द्वारा सिन्धु नदी पार करने के समय तक भी मौजूद थो; यह पंतृक नाम साम्ब अथवा साम बाद में भी उस समय तक चलता रहा जब तक कि उन्होंने अपना धर्म-परिवर्तन करके मुसलमानों की राजनीतिक एवं नैतिक प्राधीनता स्वीकार न करली और जिनके इतिहास में वे 'सिन्ध-सुम्मा' वंश के कहलाए; उनका यह नाम भी तब तक प्रचलित रहा जब तक कि उन्हें सिन्ध से न निकाल दिया गया और नए अवटंक 'जाड़ेचा' ने अतीत पर पर्दा न डाल दिया। इस प्रकार हमें सिन्ध-सुम्मा-इतिहास के निम्न प्रधान-युगों का पता चलता है । पहला, साम्ब का सिन्ध में जमाव, ११०० से १२०० ई० पू०; दूसरा, इस जाति की सिकन्दर के समय अर्थात् ३२० ई० पू० तक यथावत् स्थिति। इस समय से चूड़चन्द तक अर्थात् १०४ ई. तक के नाम तो मिलते हैं, परन्तु तिथियों का पता नहीं चलता। उसके पुत्र साम-यदु के साथ ही प्राचीन नाम के पुनः दर्शन होते हैं और, कहते हैं कि, उसके वंशजों ने भी 'साम नगर के सुम्मा राजा' की विशिष्ट पदवी की रक्षा की। इन्हीं में से, सब नहीं तो, कुछ ने अपना धर्म बदल लिया था। यहां हम रुक जाते हैं। पॅरोप्लुस का कर्त्ता कहता है कि दूसरी शताब्दी में एक पार्थियन अथवा इण्डोसीथिक संघ ने निचले सिन्ध पर अधिकार कर लिया था, जिसके राजा ने 'मि नगर' (जो सामि नगर Sami nagar ही है, जिसका पाद्य अक्षर 'सा' लुप्त हो गया है) को अपनी राजधानी बनाया था। अब, सवाल अपने आप खड़ा होता है क्या उस नई जाति ने साम्ब के वंशजों को नष्ट कर दिया अथवा बाहर निकाल दिया अथवा यह एरिअन द्वारा उल्लिखित चूड़चन्द और वर्तमान जाड़ेचों की वह इण्डो-सीथिक जाति है जो उच्चतर एशिया में अपने द्वारा पालित धर्म और रहन-सहन की अपेक्षा अधिक निषेधात्मक धार्मिक रीति-रिवाजों के सम्पर्क में आकर इन लोगों में मिल गई थी और साथ ही इनके इतिहास को भी अपनी वंशावलियों के प्रामुख में सम्मिलित कर लिया था ? परम्परा से प्राप्त कथाओं में इस तथ्य को स्पष्ट गन्ध आतो है । इनमें से नगर के जाम राजाओं के विषय में एक कथा इस प्रकार प्रचलित है कि 'इनका पूर्वज जसोदर मोरानो (Jusodur Morani) मुलतान और पञ्जाब छोड़ कर सिन्ध आया था।' यदि सुम्मा लोग दूसरी शताब्दी में सिन्ध-विजय करने वाली यूची जाति के नहीं हैं तो उन्होंने उनको निकाल दिया होगा; और हम देखते हैं कि हिजरी सन् की पहली और विक्रम को पाठवीं शताब्दी में ऊपरी सिन्ध की गद्दी पर दाहिर' का • यह विचित्र तथ्य है कि बाहिर 'वेशपति' अथवा सिन्ध के राजा दाहिर ने इसलाम के Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा वंश राज्य करता था और कर्नल पॉटिझर (Colonel Pottinger)' के अनुसार इस जाति ने टाक अथवा तक्षक (गेटिक वंश की एक प्रसिद्ध) जाति से अधिकार प्राप्त किया था, तो ऐसी दशा में हम यह निष्कर्ष निकालने में सक्षम हैं कि सुम्मायादव पश्चिमी एशिया से पाने वाली इन जातियों और वंशों के संघों में या तो खो गए, मिल गए अथवा उनके आधीन हो गए थे। सन् ६०४ ई० में चूड़चन्द से पूर्व छत्तीस राजाओं के नाम मिलते हैं, जो दूसरी शताब्दी में इण्डो-सीथिक जाति द्वारा सिन्ध-विजय के समय से उसकी श्रृंखला मिलाने के लिए पर्याप्त हैं और, क्योंकि वस्तुतः वंश के संस्थापक साम्ब से उ.का सम्बन्ध मिलाने के लिए अधिक कड़ियां नहीं मिलती हैं, इससे यही मान लेना चाहिए कि ऐसे नाम है ही नहीं। इनमें से बहुत से नाम तो राजपूतों में अप्रचलित नहीं हैं, परन्तु कुछ ऐसे हैं जो सिन्धु के हिन्दुओं से नहीं मिलते हैं और उनमें उन सीथिक तथा हूणी जातियों की तीव्र गन्ध पाती है, जिनके दल के दल इस देश में दूसरी तथा छठी शताब्दी में चले पाए थे, जैसे प्रोसनिक [Osnica-उष्णिक् ?], विसूबरा (Wisoobare विश्वम्भर ?], ऊंगड़ (Ungud), दुर्गक (Doorguc), कायीमा (Kayea) और इनका प्रति प्रसिद्ध वंश नाम खंगार । उदगम या निकास कहीं से भी हो, परन्तु यह निश्चित है कि यह वंश 'साम नगर' में चूड़चन्द से कई पीढ़ियों पहले जम चुका था, जिसका नाम उसके पड़ोसी राज्यों में भी प्रसिद्ध था और जिसके समय अर्थात् १०४ ई० से अब तक हमें निश्चयात्मक सूत्र मिल रहे हैं। इसलिए अब कल्पना और अनुमान की भूल-भुलैया में और अधिक चक्कर काटने से कोई फल निकलने वाला नहीं है। चूड़चन्द के पुत्र साम-यदु के समय में ही सुम्माओं का वंश और नाम सिन्ध में अच्छी तरह कायम हो चुका था; जाम ऊनड़ के नाम के साथ, जो उस समय भी उस क्षेत्र का स्वामी था, १०५३ ई० में इन लोगों का सौराष्ट्र से सर्वप्रथम सम्पर्क होना विदित होता है; और ११६३ ई० में रायधन के समय में स्थान-त्याग, उपनिवेश-संस्थापन और क्रमशः कच्छ पर विजय-प्राप्ति होती है, जो १५३७ ई० में प्रथम राव खंगार के प्रथम प्राक्रमण के समय चितौड़ की रक्षा करने में सहायता की पी। देखिए-राजस्थान का इतिहास भाग १, पृ० २३१ । 'कनल सर हेनरी पॉटिजर का जनम १७८९ ई० में प्रायरलैण्ड में हुआ था। यह १९३६ -४० ई० तक सिन्ध में गवर्नर रहे और बाद में 'अफीम-युद्ध' (Opium War) में प्रसिद्ध प्राप्त करके हांगकांग में पहले ब्रिटिश गवर्नर पद पर नियुक्त हुए। तदनन्तर मद्रास में भी १९४७-५४ ई. तक गवर्नर रहे । इन्होंने अपने संस्मरण भी लिखे हैं। -Webster's Biographical Dictionary; p. 12953 1959 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण [ ૪૬૭ काल में स्थायी सरकार का रूप ग्रहण कर लेती है । यह खंगार वंशावलियों में इस नाम का पाँचवाँ राजा हुआ था । लगभग एक हजार वर्षों के इस ताने-बाने की गुत्थियों के जाले से बाहर निकल कर मुझे सन्तोष है कि 'काल' के जाल में से कुछ ऐतिहासिक तथ्य निकाल पाया हैं, यद्यपि विरोधी लोग इनको पूर्णतया ऐतिहासिक नहीं मानेंगे । - २२; भुज राज्य का संस्थापन जब तक खंगार को अहमदाबाद के सुलतानों की सहायता से स्वतंत्र राजा की पदवी प्राप्त न हो गई अथवा उसने स्वयं ग्रहण न करली तब तक प्रत्येक जाड़ेचा बराबरी का दावा करता रहा और 'भायाद' में से किसी को भी उसने स्थायी रूप से स्वामी स्वीकार नहीं किया। ऐसी एक सर्वाधिकारपूर्ण सत्ता इन लोगों की बिखरी हुई जायदादों में सुदृढ़ता लाने एवं एक रियासत का निर्माण करने के लिए आवश्यक थी । तब से अब तक कुल बारह राजा हुए हैं, जिनमें से प्रत्येक को सन्तानों को जागीरें दी गई हैं और ये तथा खंगार से पहले की प्राचीन शाखाएं मिल कर एक 'भायाद' बनाती हैं, जिसका एक संक्षिप्तसा विवरण दे कर, जो सुदूर पूर्व की राजपूत रियासतों के प्रकार से भिन्न है, मैं कच्छ और जाड़ेचों की रूपरेखा को पूर्ण कर दूंगा । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २३ कच्छ के आंकड़े और भूगोल; इसका राजनीतिक गठन ; 'भायाद'; राव के अधिकार; जागीरों के पट्ट; उत्तराधिकार के झगड़े; 'भतना या अन्तर्जागीरों की समाप्ति; पश्चिमी राजपूत रियासतों और कच्छ के राजनीतिक रिवाजों में अन्तर; ब्रिटिश सरकार से सम्बन्धों का परिणाम, राव और 'भायाद' के विवाद में ब्रिटिश मध्यस्थता; ब्रिटिश सहायक सेना की स्थापना, ब्रिटिश का पूर्ण अधिकार; माण्डवी; पट्टामार के बोर्ड पर; खाड़ी के पार व्हेल मछली के दर्शन; पट्टामार के नाखुवा और नाविकों का चरित्र; बम्बई पहुंचना; वहां पर रुक जाना; इसके शुभ परिणाम ; उपसंहार। कच्छ के राजनीतिक और भौगोलिक आँकड़ों एवं विवरण के बारे में लोगों को पहले से ही बहुत कुछ मालूम है; इसलिए मैं यहाँ पर पहली बात के विषय में ही कुछ कहूँ। क्योंकि मुझे जाड़ेचों की प्रान्तरिक नीति और अन्य राजपूत रियासतों की नीति के अन्तर पर अभिमत प्रकट करना है। इस सूचना के बारे में भी मुझे बुद्धिमान् रतनजी के प्रति एक बार पुनः आभार प्रकट करना चाहिए, जो रीजेन्सी के सब से अधिक जानकार सदस्य हैं। उन्होंने मेरे सभी प्रश्नों के वाचिक उत्तर दिए जो मैंने उन्हीं के सामने लेखबद्ध कर लिए थे और उन्हीं के आधार पर मैं निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुँच सका हूँ। . जाडेचा रियासत का विस्तार लगभग एक सौ अस्सी मील लम्बे पोर साठ मील चौड़े भूभाग पर है; जमीन को किस्म मामूली, उपेक्षापूर्ण कृषि और हल्की आबादी; यह देख लीजिए कि दस हजार वर्ग मील से भी ऊपर क्षेत्रफल है फिर भी यहां के निवासियों की संख्या केवल आधा लाख होगी जिसका एक-बीसवाँ भाग राजधानी भुज में सीमित है और इतना ही माण्डवी के बन्दरगाह में। इन दो के अतिरिक्त और कोई ऐसी जगह नहीं है जिसको नगर कहलाने का सम्मान प्राप्त हो सके। यद्यपि कुछ कस्बे हैं जैसे, अंजार, लखपत, मंडिया इत्यादि जो केवल समुद्री-तट पर स्थित होने के कारण ही प्रसिद्धि प्राप्त कर सके हैं । इस जन-संख्या में से शासक-जाति के शस्त्र-धारण करने योग्य जाडेचों की संख्या केवल बारह हजार आंकी जाती है; बाकी लोग हिन्दू, मूसलमान आदि सब जातियों के हैं । राज्य की सम्पूर्ण प्राय, जिसमें सामन्तों से वसूल होने वाला कर और राजस्व भी शामिल है, पचास लाख कौड़ी या सोलह लाख रुपया है । इस राज्य के पांच में से तीन भाग राज्य (खालसा) के और दो भाग जागीरी के हैं। उल्लेख योग्य बड़े जागीरदारों की संख्या पचास के Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २३; कच्छ राज्य का गठन; भायाव [४५६ लगभग है, यद्यपि छुट-भाई और एक-एक गांव के जागीरदार मिला कर कोई दो सौ होंगे । परन्तु, यहाँ कच्छ में भी अन्य व्यवस्थित राजपूत रियासतों की तरह, कुछ ऊंची पदवी के जागीरदार बने हुए हैं, जिनको औरों की अपेक्षा अधिक सम्मान और भूमि प्राप्त है; जैसे, मेवाड़ में 'सोलह',' आमेर में 'बारह और जोधपुर में 'पाठ'' बड़े जागीरदार हैं उसी प्रकार कच्छ में 'तेरह' मुख्य सरदार हैं, इनमें भी प्रमुख वे हैं जो खंगार से 'पहले कायम हुए' ठिकानेदारों के वंशज हैं, जिनकी वंशावली में ये अशुद्ध तत्व, जैसा कि पहले कह चुका हूँ, सर्व-प्रथम सरकार के रूप में विलीन हुए थे। पहले, हर एक सरदार अपने स्वयं के द्वारा अथवा किसी पूर्वज द्वारा संयोग से जीतो हुई भूमि में असीमित अधिकारों का उपभोग करता था; और, जब १५३७ ई० में खंगार राजा घोषित हो गया तो भी वे लोग स्वनिर्मित अधिकारों पर डटे रहे तथा राज्य के नेता को उतनी ही सेवा अथवा सत्कार देते रहे जितनी कि समाज की एकता को स्थिर रखने के लिए आवश्यक थी। ये कच्छ राज्य के पूरे आजाद सामन्त हैं, और क्योंकि वे यहाँ की शासन प्रणाली के मूलभूत आधार हैं तथा राजवंश की उन समस्त शाखाओं के प्रतीक हैं जिन्होंने खंगार से पूर्व और अनन्तर भूमि प्राप्त की थीइसलिए यहाँ के राजा को किसी भी अन्य रियासत के स्वामी की अपेक्षा कमसे-कम अधिकार प्राप्त हैं, और यह शक्ति-विभाजन राजा और सामन्तों में इतना सन्तुलित है कि यदि किसी भी पक्ष में आचरण सम्बन्धी गड़बड़ी पैदा हो तो गंभीर परिवर्तनों का अवसर उपस्थित हो सकता है। मुझे इस बात का पता नहीं लगा कि जब असंगठित जाड़ेचा सामन्तों ने खंगार को अपना राजा ' मेवाड़ के सोलह प्रमुख ठिकानों के लिए देखिए इसी पुस्तक के पृ० १२-१३ की टिप्पणी। २ प्रामेर की बारह कोटड़ी महाराज पृथ्वीराज के १६ पुत्रों में से ५ के निस्सन्तान मर जाने और दो के राजा एवं जोगी बन जाने के कारण शेष १२ के नामों पर स्थापित हुई थीं । सामान्यतः इनके नाम इस प्रकार है-(१) नाथावत (ठि० चौमूं व सामोद), (२) रामसिंहोत (खोह, गुंणसी), (३) पच्याणोत (नायला, सामरया), (४) सुलतानोत (सूरोठ), (५) खंगारोत (साईवाड़, नरणा, डिग्गी), (६) बलभद्रोत (अचरोल), (७) प्रतापपोता (सांड-कोटड़ा), (८) चतुर्भुजोत (बगरू), (5) कल्याणोत (कालवाड़), (१०) सांईदासोत (बडोद), (११) सांगोत (सांगानेर) पोर (१२) रूपसिंहोत कुम्भाणी (बांसखोह) । विशेष विवरण के लिए देखें हनुमान शर्मा कृत 'नाथावतों का इतिहास' पृ. ६२-६५ ३ मारवाड़ के प्रमुख ठिकानों के नाम यों प्रसिद्ध है रियां', रायपुर, खेरवो३, पाऊों ने प्रासोप । बगड़ी', जाणा, खींवसर८, आठों मिसल अनोप। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] पश्चिमी भारत की यात्रा स्वीकार किया था तब उसके अधिकारों की सीमा और अपनी भावी मान्यताओं एवं सुविधाओं की भी कोई परिभाषा निश्चित की गई थी या नहीं; परन्तु, एक प्रतिज्ञा अवश्य हुई थी और वह उनके विशेषाधिकारों के संरक्षण के लिए थी कि सामन्त जाति को प्रभावित करने वाले किसी आन्दोलन या परिवर्तन से सम्बद्ध कोई भी निर्णय एकत्रित भायाद की सलाह के बिना नहीं लिया जायगा। 'भायाद' या 'भाइयों की पंक्ति अथवा श्रेणी' यह कच्छ के जागीरदारों का प्रभावशाली विशेषण है। यह 'राज्य-सभा' अब भी चलती है और इसमें प्रत्येक प्रमुख जागीरदार भाग लेता है। सब जाड़ेचा सामन्तों को एक साथ बुलाने का, जिसको 'खेर' कहते हैं, अधिकार राव को प्राप्त है; परन्तु, सर्वोच्च सत्ता के प्राज्ञापालन की इस धारा में भी उनकी स्वतंत्रता का एक चिह्न मौजूद है-वह यह कि इस उपस्थिति के बदले में राजा से कुछ आर्थिक भेट ली जाती है, जो यद्यपि इतनी साधारण होती है कि उन लोगों को बुलाने का अधिकार प्रबल है अथवा आज्ञा की अव. मानना करने की शक्ति-इसका निर्णय करने में सन्देह ही बना रहता है । इस भत्ते (भेट) की लघु राशि से, अर्थात् एक कौड़ी प्रति घुड़सवार और एक कौड़ी प्रति दो-पैदल से, यह ज्ञात होता है कि इस विषय में कोई आपसी समझौता है क्योंकि इसे स्वीकार करने में सरदार को तो यह अनुभव होता है कि यह सेवा अनिवार्य नहीं है (यद्यपि इस तुच्छ रकम से राशन (बूतायत) भी नहीं खरीदा जा सकता) साथ ही, यह कर इतना हल्का है कि राजा व प्रजा दोनों ही पर इससे कोई अधिक बोझा नहीं पड़ता। किसी जाड़ेचा सरदार की मृत्यु पर राव के द्वारा मृतक के उत्तराधिकारी के लिए एक तलवार और पगड़ी भेजी जाती है, परन्तु इसके द्वारा वह उत्तराधिकार पर न कोई अधिकार प्रयुक्त कर सकता है और न अधिकार-प्रदान की रीति के इस अनुकरण के द्वारा कोई 'नज़राने' का हो ऐसा प्रसंग उपस्थित होता है कि जिसे अन्तिम रूप से जागीर की स्वीकृति मानी जाय; मेवाड़ में ऐसा नजराना उस जागीर की एक वर्ष की आय जितना कायम किया जाता है। कच्छ में इसको केवल उत्तराधिकार की साधारण मान्यता के रूप में समझा जाता है और इसके बदले में कोई भेंट या मुलाकात आदि की रस्म भी पूरी नहीं की जाती। ऐसा प्रसंग रावों की गद्दीनशीनी, विवाह अथवा राजकुमार के जन्म के अवसरों के लिए ही सुरक्षित है जब प्रत्येक जाड़ेचा सरदारको दरबार में उपस्थित होकर सम्मानप्रदर्शन और 'नज़राना' पेश करना पड़ता है। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २३; भायाव का संगठन और अधिकार (४६१ जाड़ेचा रावों द्वारा जागीरों के पट्टे स्वीकार करने में पुनर्ग्रहण सम्बन्धी विषय का कोई विचार या भेद नहीं किया जाता; इनमें मेवाड़ की तरह 'काला पट्टा' या 'चूड़ा-उतार'" अर्थात् ग्रहीता के जीवनकाल पर्यन्त अथवा किसी भी समय पुनर्ग्राह्य जागीर जैसा भेद नहीं होता; वहाँ इस प्रकार की अनेक जागीरें हैं। यहाँ रतनजी के शब्दों में 'वह जागीर सदा-सर्वदा के लिए होती है चाहे भंगी को ही क्यों न दी गई हो; इस पर उसका सर्वाधिकार होता है।' संक्षेप में, इन जागीरों पर उनका उतना ही स्वतन्त्र अधिकार होता है जितना कि इंगलैण्ड में किसी लॉर्ड का अपनी जायदाद पर । जागीरदारों की भूमि एवं अधिकारों के विषय में राजा द्वारा हस्तक्षेप करने का एकमात्र उदाहरण उसका वह अधिकार है जिसके द्वारा वह अधीनस्थ जागीरों के आपसी झगड़ों का निर्णय करता है; उसका यह अधिकार जागीर. दारों द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार किया गया है परन्तु यह उन्हीं तक सीमित है जिनको खंगार के राजा स्वीकृत होने के अनन्तर राज्य की ओर से जागोरी भूमि दी गई हो। फिर भी, राव का कोई भी कार्य सरदारों की बड़ी समिति के परामर्श से मुक्त नहीं है इसलिए ऐसी अपीलों को, वास्तव में, उन लोगों की अपने आप से ही अपील समझनी चाहिए। उत्तराधिकार का एक विवादास्पद विषय इस समय विचाराधीन है जिसमें राव अथवा उसकी अवयस्कता में राज्य-सञ्चालिका समिति का सरदारों की बड़ी सभा से मतभेद है। पुराने और स्वतंत्र जाड़ेचों की खाप में से एक छोटे जागीरदार की मृत्यु हो गई। उसके कोई असली सन्तान या नज़दीकी रिश्तेदार नहीं है केवल एक भाटिया जाति की रखेल स्त्री से उत्पन्न अवैध पुत्र अवश्य है। ऐसी विकट परिस्थिति में दोनों ही पक्ष सिद्धान्तों की उपेक्षा कर रहे हैंराज्य की ओर से तो सब का सामान्य वारिस होने की दलील देकर उस जायदाद को खालसा (राज्य द्वारा पुनहीत) करने का नया हक जाहिर किया जा रहा है, जो उनकी दी हुई नहीं है। उधर, सरदार लोग ऐसी गैर कानूनी परम्परा को ' रियासत के स्वामी द्वारा राजवंश से इतर राजपूतों को दिया हुआ पट्टा 'काला पट्टा' कहलाता था। ऐसी जागीर कभी भी पुनगृहीत की जा सकती थी। २ प्रत्येक उपभोक्ता की मृत्यु पर जागीर का कोई अंश कम कर दिया जाता था। इस प्रकार वह जागीर उत्तरोत्तर कम हो जाती थी। इसको 'चूड़ा-उतार पट्टा' कहते हैं क्योंकि जैसे हाथ की मोटाई के अनुसार एक के बाद एक चूड़ी छोटी होती चली जाती है वैसे ही ऐसी जागीर भी कम होती जाती थी Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा चालू होने से रोकने के लिए उस कानीन पुत्र को 'भायाद' के समस्त हक-हकूक दिलाने की इच्छा बता रहे हैं। इसमें सब से अच्छा और ठीक तरीका समझौते का होगा अर्थात् सरदारों की साधारण सभा उस मृतक के समीपतम वंशज को (चाहे वह कितनी ही पीढ़ियों परे हो) उसका दत्तक पुत्र स्वीकार करे और राज्य इस गोद-नशीनी की स्वीकृति प्रदान कर दे । परन्तु, यह स्पष्ट है कि एक पक्ष ऐसे समझौते को स्वीकार नहीं कर रहा है; और, यद्यपि मूल सिद्धान्त को देखते हुए यह पक्ष सही हो सकता है और दूसरी राजपूत रियासतों की परम्परा का हवाला देते हुए वे लोग अपने वाद का समर्थन भी कर सकते हैं, फिर भी, जाड़ेचों में और उन अन्य राजपूतों में कोई समानता नहीं है, इसलिए चालू अमलदर-प्रामद [परम्परा] को तोड़ने के लिए यह दलील पर्याप्त नहीं है; किसी भी दशा में, इस प्रश्न का हल जाड़ेचों के सिद्धान्तानुसार ही निकलना चाहिए और वह भी निर्णायक के प्रथवा मध्यस्थ के रूप में ब्रिटिश अधिकारियों से मुक्त होना चाहिए। कच्छ में बांटा' या विभाजन की प्रथा उस हद तक चली गई है कि उसने विनाश का मूलभूत रूप ही ले लिया है; क्योंकि मनु के अनुसार जब सभी लड़के पिता की जायदाद के समानरूप से उत्तराधिकारी होते हैं (यद्यपि सब से बड़े के लिए एक प्रकार की मजोरत (majorat) सुरक्षित रहती है) और प्रत्येक को उसका 'बाँटा' मिलना ही चाहिए तो फिर अङ्कगणित के नियमों से ही यह तय हो सकेगा कि समस्त जाड़ेचों के अन्तविभाग कहां जाकर रुकेंगे और उनमें से प्रत्येक के हिस्से में, यदि उनकी ही भाषा का प्रयोग करें तो, 'भाले की नोंक टिके इतनी-सी जमीन रह जायेगी।' इस राजनीतिक भूल का मूल एक ही महान् नैतिक अपराध में है और 'बांटा' के सर्वोच्च नियम का पालन करते हुए खानदानों को नष्ट होने से बचाने के लिए ही प्रकृति अथवा परमात्मा के पहले नियम को अवहेलना की जाती है, जिसका परिणाम यह है कि बालवध की कुप्रथा केवल बच्चियों तक ही सीमित नहीं रही है ।' यदि ब्रिटिश सरकार, यह समझाते हुए कि इस प्रकार के अन्तहीन विभाजन से सामान्य हितों को कितना खतरा है, इस प्रकार की लावारिस (स्वत्वहीन) सम्पत्तियों का कुछ राज्य द्वाग और कुछ भायाद द्वारा ग्रहण करने का समझौता-पूर्ण कानून 'मिस्टर एल्फिस्टन ने, जिनकी टिप्पणियों के मैंने अनेक उद्धरण दिए हैं, अपनी 'कच्छ की रिपोर्ट में इस बात का समर्थन किया है और कहा है कि इसी कारण कितने ही घरों में एक मात्र पुरुष उत्तराधिकारी पाया जाता है। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २३; बांटा; भायार [ ४६३ बना सके तो इस समाज में आपसी सम्बन्धों की श्रृंखला दृढ़ हो सकेगी और जो भय छाए हुए हैं वे भी दूर हो जायेंगे। इस प्रकार हमने संक्षिप्त रूप में एक ऐसे राजा की असाधारण तसवीर प्रस्तुत की है जिसको पानी सोमा से बाहर कोई राजनोतिक अथवा शासन के अधिकार प्राप्त नहीं हैं और जो समाज के ढांचे को कायम रखने के लिए कमसे-कम राज्य-शक्ति का प्रयोग कर सकता है; न किसी को इनाम दे सकता है, न सजा दे सकता है; संक्षेप में, यह आयुधजीवी 'भायादों' का एक संघ है, जो एक बड़े वंश के सदस्य हैं और आपसी भय अथवा लाभ की भावना से प्रेरित होकर एक जगह मिल कर रहते हैं । झुगार से पहले भी ऐसा ही विधान था और इस प्रशस्त पुरुष के सम्मिलित हो जाने के बाद भी बहुत दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। पश्चिमी अन्य राजपूत रियासतों और कच्छ की बसावट में अन्तर है और इसी कारण उनकी सरकारों और नीति में भी भिन्नता है, जो अब तक इस असाधारण सामन्ती संघ को इसकी प्राचीन स्वतन्त्रताओं के साथ जीवित रख सकी है, ऐसा हमको मानना चाहिए । जब तक मैंने कच्छ की यात्रा कर के यहां के इतिहास को न टटोल लिया और यहां के जानकारों से बातचीत न कर ली तब तक यह बात मेरी समझ में ही नहीं पा रही थी कि कोई ऐसा समाज भी हो सकता है क्या ? क्योंकि दूर बैठे-बैठे जब मुझे इनके कुछ काननों, विशेषतः स्वत्वहोन भूमि के पुनर्ग्रहण, अतिक्रमण आदि से परिचित कराया जाता तो मेरी यही धारणा दृढ़ होती रहती कि कोई भी ऐसी सरकार, जिसमें सामन्तवर्ग राजा से स्वतन्त्र हो, अधिक दिन नहीं टिक सकती। विभिन्नता और समानता दोनों ही दृष्टियों से मेरी दलील सही है; क्योंकि यदि ऐसी सरकार कहीं राजपूनाना को समीपता में आ पड़ती तो एक शताब्दो भी बर-करार न रह पाती। परन्तु, जाड़ेचों को भूमि एक ओर समुद्र से और दूसरी ओर महान् रण से घिरी होने के कारण अपने हिन्दू पड़ोसियों से भय-मुक्त रही, साथ ही, सभी मुसलमान यात्रियों को मुफ्त में मक्का पहुँचाने की प्रशंसनीय नीति अपनाने के फलस्वरूप उन्होंने मुसलिम-शक्ति से भी मेल कर लिया, इसीलिए किसी भी सुलतान ने क्रोधावेश में आ कर इस प्रदेश की यात्रा नहीं की। और, इस बात की पूरी सम्भावना थी कि जाड़ेचों की सामन्ती प्रथा में उनको 'भायाद' और भी कुछ शताब्दियों तक यथावत् चलती रहती यदि सौभाग्य से उनको एक महान् सभ्य, महत्वाकांक्षी और सतत प्रगतिशील शक्तिशाली राज्य का पड़ोस प्राप्त न हो जाता; मेरा प्राशय स्पष्टत: ब्रिटिश सरकार से है। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४] पश्चिमी भारत की यात्रा मराठा-युद्धों के कारण बड़ोदा का गायकवाड़ दरबार हमारे प्रभाव में पा चुका है जिससे सौराष्ट्र के प्रायद्वीप में उसके अधीनस्थ राज्यों में भी हमारा दखल हो गया; और वहाँ से यद्यपि हमारे और कच्छ के बीच में एक खाड़ी ही हैं, परन्तु कदम-कदम बढ़ते हुए हम बहुत दूर सिन्ध के लोगों के सम्पर्क में आ गए हैं। यूरोपीय सामन्ती प्रणाली की तरह एकता के बन्धन और वरिष्ठता के प्रतीक चिह्नों का प्रभाव होते हुए भी रावों और सामन्तों के बीच में भूमि का ऐसा विभाजन हो रहा था कि यदि ठीक-ठीक प्रबन्ध किया जाता तो सामन्ती शक्ति छिन्न-भिन्न हो जाती और समस्त अधिकार राजाओं के हाथ में आ जाते। समस्त सामन्ती संघ की अपेक्षा राजा का खालसाई क्षेत्र अधिक बड़ा है और इसकी प्राय में कुछ नगरों और कस्बों के व्यापारिक कर से और भी अभिवृद्धि हो जाती है। इन साधनों से प्राप्त सुविधाओं का उपयोग करते हुए वह राजा सामन्तों में से कुछ की सेवाएं सरलता से प्राप्त कर सकता है क्योंकि हर एक दरबार में परस्पर विरोधी दलों और सिद्धान्तों के लोग रहते पाए हैं, और हैं भो; मुझे कुछ ऐसे उदाहरण बताए गए हैं कि कितने ही अवसरों पर राजा की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाने वाली कार्यवाही करने के कारण अपने ही एक सदस्य को दण्ड देने के लिए समस्त भायाद उसके विरुद्ध संगठित हो गई थी। ऐसे प्रभाव का उपयोग करते हुए 'खेर' को या सामन्त-संघ को एकत्र कर लेना कोई कठिन काम नहीं था और जब देश पर विदेशियों का प्राक्रमण होता तो सब जाड़ेचा सामना करने के लिए डट जाते । परन्तु, पिछले वर्षों में राजाओं द्वारा अरबों, सिन्धियों और रोहेलों को अपने रक्षक वर्ग में प्रवेश देने की जो चाल पड़ गई है उससे उनके सरदारों में ईर्ष्या और जलन पैदा हो गयी, और फिर ये 'भाड़ के टट्ट' भी अपने मालिकों के लिए कम दुखदायी नहीं हैं। सामंत अपने स्वामी की प्रत्येक प्राज्ञा का पालन करने के लिए तत्पर रहते हैं, परन्तु यह पारस्परिक सहिष्णुता और व्यावहारिक सन्तुलन उस समय खो जाता है जब उसमें किसी प्रकार का बाहरी हस्तक्षेप होता है। अन्तिम राव भारमल का दुर्भाग्य प्राचीन रूढ़ियों को तोड़ने का ही दुष्परिणाम-जन्य उदाहरण है । मद्यपान की तीव्रता ने उसके सहज दुस्स्वभाव को और भी उग्र बना दिया था; और इन भाडेती विदेशियों के बल-बूते पर उसने अपने अधिकारों को परम्परागत परिसीमाओं को ठुकरा कर अपनी मनमानी को ही कानून बना लिया था। परन्तु, उसका वास्ता उन लोगों से पड़ा था जो अपने अधिकारों को अच्छी तरह जानते-पहचानते थे और उन्होंने प्रात्मसमर्पण करने के बजाय बटिश सत्ता को मध्यस्थ के रूप में आमन्त्रित किया था। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण • २३; बृटिश हस्तक्षेप और भायाद की स्थिति [ ४६५ इस हस्तक्षेप के परिणाम में सच्ची मित्रता कायम हुई और लगे हाथों अनिवार्य बृटिश सहायक सेना आ गई। राव भारमल की चिड़चिड़ाहट ने बढ़ कर पागलपन का रूप ले लिया, फलतः उसको गद्दी से उतारा गया, बन्दी बनाया गया और उसके पुत्र राव देसल को 'गद्दी' पर बिठा दिया गया। वह बालक है इसलिए एक राज-प्रतिनिधि-सभा गठित की गई, जिसमें प्रमुख जाड़ेचा सरदार और पुराने राज्य कर्मचारी सम्मिलित किए गए हैं। उन्हीं में से एक, मुझे सूचना देने वाले, रतनजी भी हैं, जो अंग्रेजों के परम भक्त हैं। बृटिश रेजीडेण्ट को हो प्रतिनिधि सभा का प्रधान माना जाता है। जैसा मैंने देखा व सुना है, सभी काम ठीक-ठीक चल रहा है, सर्वत्र शान्ति है, सभी लोग अपने परिश्रम के फल अथवा पैतृक अधिकार का उपभोग कर रहे हैं और जब तक राव देसल नाबालिग है तब तक इस व्यवस्था में कोई बदल होने की सम्भावना नहीं है । भविष्य की बात उसके स्वभाव और इस अन्तरिम काल की दशा से लाभ उठाने की योग्यता पर निर्भर है। जिन जागीरदारों ने अपने राजा से दब कर रहने की अपेक्षा विदेशी शक्ति को प्राजादी समर्पण कर देना श्रेयस्कर समझा था उन्होंने उसी शक्ति से अपनी-अपनी जागीर की अक्षुण्णता का आश्वासन प्राप्त किया है और जो कुछ थोड़ी बहुत प्राधीनता पहले थी वह भी अब 'कुछ नहीं के बराबर रह गई है; हाँ, मध्यस्थ के पास उभय पक्ष की अपीलें निरन्तर पाती रहेंगी और सम्भवतः वह दोनों की ही घृणा का पात्र बना रहेगा। तो, ये हैं सायरास्ट्रीन की विलक्षण और संस्मरणीय बातें; मैं फिर कहता है कि यहां बसने वाली जातियों की विभिन्नता और प्राचीन काल के अब तक बचे हुए इमारती अवशेषों के कारण यह प्रदेश भारत में सब से बढ़कर है। अब सब कुछ बृटिश सत्ता की शक्तिशाली पकड़ में है। सर्वोच्च सत्ताधारी गायकवाड़, अणहिलवाड़ा का स्वामी, उसके सामन्त, गोहिल, चावड़ा, घुमक्कड़ काठी, जगत्कूट के जल-दस्यु और साम तथा यदु के वंशज जाड़ेचा-सबने अपने सामन्ती संघ के उस आकर्षण को समाप्त कर दिया है, जिसके द्वारा उनका और उनके राजानों का मापसी संबंध बना हुआ था-इन्होंने अब स्वेच्छा से विदेशी के जूए के आगे सिर झुका दिया है। यहूदियों के प्रतिभाशाली 'उपदेशक' और राजपूतों के अन्तिम महान् भाट ने प्रायः समान शब्दों में ही नाबालिगी के ख़तरों को घोषणा की है—'हे देश ! यह महान् दुःखपूर्ण बात है कि तेरा राजा बालक हैं। इसके आगे चन्द पूर्ति करता है और जब स्त्रियां राज्य करती है' और ऐसी परिस्थिति के परिणाम राजपूतों के लिए उपदेशक के इस पद्यांश 'और जब तेरे राजकुमार प्रातःकाल में भोजन करते हैं' से भी Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बहुत अधिक भयोत्पादक होते हैं । यदि अमल और तीव्र मद्यपान का प्रेमी राजपूत जीवन के मध्याह्न में पहुंचने तक 'कलेवा'" करने की इच्छा छोड़ दे तो अवश्य ही वह उसके पुनर्जीवन की प्रबल प्राकांक्षा समझी जायगी। परन्तु, इस 'सहायक सन्धि' रूपी राजनीतिक पिशाची के विशिष्ट भय का न यहूदी उपदेशक को भान था न राजपूत चारण को ज्ञान । यह अनुमान करना भूल होगी कि जाड़ेचा इस प्रकार की अपरिवर्तनीय और अटल सन्धि के लिए अपवाद रहेंगे, जिसने ध्रुव सत्य के समान संस्थापित होकर एक उच्चतर सभ्यता के मेल से प्रत्येक अर्धबर्बर स्थिति का अन्त कर दिया है, और यहाँ में इस स्पष्टोक्ति के लिए अनुमति चाहूंगा कि हमारे इरादे कितने ही नेक क्यों न हों फिर भी प्रतिनिधि सभा के बृटिश रेजीडेन्ट, हमारी ही सृष्टि के प्राणी और हमारे प्रभाव सक्रिय दूत [fu] रतनजी कितने ही भले क्यों न हों और उन जागीरदारों के कारण जिन्होंने जाडेचा राजदण्ड को हमारे चरणों में ला पटकने का अक्षम्य अपराध किया है, ये सब अपनी रक्षा के लिए हमारे मुखापेक्षी हो गए हैं । यह एक बहुत बड़ी बात होगी यदि इस रियासत को, जो भूतकाल की निशानी है और भविष्यत् में भी उदाहरण बनी रहेगी, इस नियम का अपवाद बना दिया जावे, उस समय तक जब तक कि राजपूताना के अन्तिम 'नॅस्टर' " जालमसिंह की भविष्यवाणी- - 'समस्त भारत में एक ही सिक्का चलेगा- पूरी न हो जाय और यह भविष्याकलन बड़ी तेजी से पूर्ति की ओर आगे बढ़ता नज़र ना रहा है । वह जालिमसिंह अपने देशवासियों की अदूरदर्शिता को अच्छी तरह जानता था और समझता था कि वे अपने गले के हार से, जब वह चुभने लगेगा तो तुरन्त हो, गर्दन निकाल कर उस जूए के नीचे दे देंगे जिससे उनका कभी निस्तार होने वाला नहीं है । 'अमलपाणी' की सत्यानाशी कुटेव ने भाटों, चारणों और वरदाइयों की उस उपदेशात्मक प्रतिभा को कुण्ठित कर दिया है जिसके द्वारा वे अपने 'बैंडे', [ बांके ] सरदार को श्रापत्तियों के प्रति सजग किया करते थे, और अब यदि उसी चारण की शब्दावली का प्रयोग करें तो जब वह अपने स्वामी के साथ • प्रातःकाल में ही अफीम श्रादि के सेवन से तात्पर्य है । नॅस्टर ( Nestor) पाइलॉस ( Pylos ) का शासक था। उसने प्रसिद्ध ट्रॉजन युद्ध अपने सैनिकों का नेतृत्व किया था और बाद में वृद्धावस्था में अपनी बुद्धिमत्ता, न्याय और वक्तृत्व शक्ति के लिए प्रसिद्ध हुआ । - The Oxford Companion to English Literature ; p. 552. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २३; माण्डवी [ ४९७ 'इमरत [अमृत ] की घूंट' लेता है तो भविष्य की चिन्ता अपने आप दूर भाग जाती है । इस प्रकार पथ-प्रदर्शक के अभाव में जाड़ेचों ने एक ऐसी जाति से भाईचारा बांध लिया है जिसके प्रालिङ्गनपाश से उन्हें अभी तक मुक्ति नहीं मिल पाई है । वह समय अब दूर नहीं है जब कि ब्रिटिश नौकरशाही की सामान्य सूची के जज, कलक्टर और अदालतें (adawlets) श्रादि सम्पूर्ण सायराष्ट्रीन ( Sayrastrene ) में फैल जायेंगे; जब कि कोई भाई डी' एनविले अथवा रेनेल (Rennell) अब तक के इस अनिर्णीत मुद्दे को तय करेंगे कि डेल्टा की किस भुजा को पार करते हुए मेसीडोनिया का बेड़ा बेबीलोन पहुँचा था; श्रथवा जब कोई श्राधुनिक लाइकर्गस (Lycurgus ) ' उस प्रश्न को हल करेगा, जो एक प्रकार से बड़ी टेढ़ी खीर बना हुआ है कि जाड़ेचों को कैसे सभ्य बनाना, गोरखर अथवा रण के जंगली गधों पर नियंत्रण का जुना रखना, पूर्व जाति (जाड़ेचों) को शिक्षित करके बाल वध, बहु-विवाह और बाँटा-दर- बांटा की विनाशकारी नीति की बुराइयों बताना इत्यादि ? सौराष्ट्र प्रायद्वीप की विभिन्न जातियों द्वारा गायकवाड़ की श्राधीनता से निकल कर सामन्ती एवं राजस्व के अधिकार हमारी शक्ति को हस्तान्तरित करना स्वागत को विषय होगा क्योंकि वे अभी तक हम को केवल अपनी भलाई के लिए मध्यस्थ ही मानते श्रा रहे हैं; श्रीर यद्यपि राजपूताना में अपनी जैसी एक ही सभ्यता के इन अवशेषों पर विस्तृत प्रभाव और अधिकार का मैं कट्टर विरोधी रहा हूँ, फिर भी कच्छ की वर्तमान नैतिक और राजनीतिक अवस्था में कोई भी प्रकार उस चालू दशा से तो श्रेयस्कर ही होगा जिससे हमारी प्रकृति के पहले सिद्धान्त की अवहेलना होती है। और जो मानवता को पशु-सृष्टि से भी निम्नतर श्रेणी में ले जा कर रख देता है । माण्डवी - ७वीं जनवरी - मेरे पट्टामार (जहाज) के तख्ते पर । मैंने जाड़ेचों की राजधानी से पूरी तत्परता के साथ कदम वापस बढ़ाए और आज प्रातः पुनः ' मण्डी' में श्रा पहुँचा । हवा बिलकुल अनुकूल चल रही थी इसलिए मुझे अपने ' लाइकस स्पार्टा के बादशाह इम्रानॉमस ( Eanomus) का पुत्र था। कहते हैं कि पूर्वीय देशों की यात्रा करके जब वह स्वदेश लौटा तो वहाँ अराजकता फैल रही थी। उसने विधान बनाया और प्रजा से यह शपथ ले ली कि जब तक वह पुनः नहीं लोटेगा तब तक सब उसके बनाए हुए नियमों और विधान के पाबन्द रहेंगे। प्लूटार्क का कहना है कि अपनी प्रजा में सदाचार प्रौर नियम पालन को कायम रखने के उद्देश्य से फिर वह कभी वापस नहीं आया और अन्यत्र ही कहीं अपने जीवन का अन्त कर दिया। PP. ( 477-78) -The Oxford Companion to English Literature; Paul Harvey Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा दूरस्थ दर्शनीय स्थान अर्थात् सिन्ध के मुहाने पर जाने का विचार छोड़ना पड़ा और तुरन्त जहाज पर चढ़ जाना पड़ा, जिसमें मुझे बंबई पहुँचने के लिए समुद्र में पांच सौ मील का रास्ता पार करना था । पाल खोल दिए गए श्रौर माण्डवी के मित्रों से विदा लेकर हम बढ़िया हवा में खाड़ी के पार खड़े थे - इस प्रकार हिन्दुनों के फिनिस्ट (Finisterre) [ जगतकूंट ] से चल कर हम अपने मार्ग में चावड़ों की प्राचीन राजधानी देव-बन्दर की ओर अग्रसर हुए जहाँ उतर कर मैंने अणहिलवाड़ा के संस्थापकों के इस जाति से सम्बद्ध शिलालेखों की खोज करने का इरादा कर रखा था । परन्तु, यह उपलब्धि मेरे भाग्य में नहीं थी क्योंकि मेरे 'नाखुदा' ने यह कह कर इरादा बदलवा दिया कि यदि में इस तरह रास्ते में घूमता रहा और हवा के अनुकूल रुख का कोई भी अवसर हाथ से निकल जाने दिया तो किसी भी दशा में मेरे लिए १४ तारीख तक बम्बई पहुँचना सम्भव नहीं हो सकेगा । मुझे चुपचाप मान लेना पड़ा और मेरे पट्टामार का मुंह स्थल की ओर से पलट दिया गया अथवा जैसा कि इब्राहीम ने कहा 'अब हम को 'लीले' [नीले] के बजाय लाल में खेना पड़ेगा ।' में ऐसी मल्लाही भाषा से परिचित नहीं था इसलिए इब्राहीम के कुतुबनुमा को सन्दूक के सामने बैठ कर प्रत्यक्ष में समझने-समझाने के लिए जहाज के पिछले भाग से नीचे उतर प्राया। जल्दी ही भेद खुल गया; मैंने देखा कि उसके कम्पास यन्त्र के उपविभागीय सिरों पर अक्षरों के बजाय नीले, लाल, हरे और पीले आदि विविध रंग चिह्नित थे और वे उस स्थान पर सरलता से सुरक्षित थे जहाँ सामान्य बुद्धि की पहुँच नहीं होती । इब्राहीम यद्यपि साक्षर नहीं था तो भी बेजानकार नहीं था; उसकी बुद्धि का विकास अनुभव की सर्वश्रेष्ठ पाठशाला में हुप्रा था और वह अक्षरों की सहायता के बिना जहाज ही नहीं चला लेता था अपितु सितारों को भी अपने मार्ग-दर्शन के लिए श्रामन्त्रित कर लिया करता था । सुहावनी हवा और निरभ्र आकाश के श्रालम में हम चलते रहे और जब तक चारों ओर अन्धेरा न फैल गया श्रागे बढ़ते ही रहे। उस समय हवा बन्द हो गई थी, रात गम्भीर श्रीर सुन्दर थी; 'मृगशिर नक्षत्र अपने दल के साथ' विजयोल्लास में हमारे सिर पर ना चुका था और उस गहरी निस्तब्ध शान्ति को मेरी नाव के मृदु सन्तरण से उत्पन्न लहरियों के स्वर के अतिरिक्त कोई छेड़ने वाला नहीं था । वह चिन्तन की रात्रि थी और मैं 'अतीत की मृदु स्मृतियों एवं भविष्य की मीठो कल्पनाओं' में खो गया । चिन्ता के प्रास्तीन का मुंह बन्द करने वाली और दिन भर के जीवन की मृत्यु, नींद Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २३; व्हेल मछली I rea ने हमारे आस पास सभी की आंखों पर मोहर लगा दी थी, केवल इब्राहीम नाखुदा और ऐसा ही पौराणिक नामधारी दूसरा मल्लाह अय्यूब या जोब (Job) जग रहे थे। जब हम हमारे प्राकाशीय मेजमानों को निहार रहे थे तो मुझे यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि इब्राहीम मुख्य-मुख्य तारक-गुच्छकों के नामों से भी परिचित था। उसने 'हायदीस' (Hyades)' का नाम 'अरणी' बताया जिसका. अर्थ हिन्दवी में 'भैंस' होता है; परन्तु 'अरेबिया' में यह जानवर अपरिचित है इसलिए यही बात ध्यान में आती है कि प्रकाशमान, अल्दीबारां (Aldebaran), 'भैस की आँख' के नामकरण के लिए भी अरेबियन लोग बीजगणित की तरह हिन्दू ज्योतिषो के ही आभारी हैं। दूसरा दिन भी अच्छा रहा; हवा वैसी ही मौतदिल बनी रही। दोपहर के करीब जब हम ऐसे मौसम का प्रानन्द ले रहे थे और दूर-दूर तक कहीं भी जमीन दिखाई नहीं दे रही थी तो हमारे पट्टामार से अनुमानतः बन्दूक की मार के फासले पर एक विशाल व्हेल मछली अपने शिशुमार मछलियों के समुदाय सहित निकली, जो कई सौ गज तक फैला हुआ था । लगभग एक घण्टे तक हमारी नाव के समानान्तर तैरते हुए उसने अपनी स्थिति बराबर बनाए रखी और हम से एक गज भी आगे न निकलो; कभी डुबकी लगा जाती, कभी बाहर निकल पाती और उसके साथ की छोटी मछलियाँ उछलती-कूदती हुई चारों ओर सभी तरह के खेल खेलती रहीं, मानों छुट्टी मना रही हों। मेरे साथ के गंगावासी नौकर, क्या सिपाही, क्या खिदमतगार, सभी उसको देख कर आश्चर्यचकित रह गए; छोटी मछलियां तो उन्होंने गंगाजी में बहुत देखी थीं, परन्त इस समुद्री दानव का उन्होंने नाम तक नहीं सुना था। मैं व्हेल अथवा किसी छोटी मछली पर गोली दागने के विचार को न रोक सका और मैंने अपनी बन्दक मँगाई, परन्तु अन्त में मुझे इब्राहीम के 'इस प्रकार बचपना न करने के' प्राग्रह के आगे झुकना पड़ा; मुझे रोकने के लिए उसने ठीक उसी भाषा का प्रयोग किया जो स्वर्गीय बर्कहाई के वफादार बेडूइन (Bedouin) पथ-प्रदर्शक प्राइद (Ayd) ने उस समय किया था जब उसने अकाबा (Akaba) की खाड़ी पार करते समय किसी शिशुमार पर गोली चलाने का इरादा किया था 'इन्हें मारना अज़ाब का काम (नियम-विरुद्ध) है क्यों कि ये आदमी की दोस्त हैं और कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती।' __ मैं अपने माझियों में से दो के पौराणिक नाम बता चुका हूँ, एक इब्राहीम ' सात तारों का गुच्छक । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] पश्चिमी भारत की यात्रा जो 'नाव का मालिक' (नाखुदा) था और दूसरा अय्यूब; इनके साथ ही एक इसमाइल और था। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि सभी माझी मुसलमान थे। अय्यूब बातूनी और मसखरा आदमी था और यद्यपि समझदारी के चिह्न उसको दाढ़ी को इज्जत बख्शने लग गए थे फिर भी जो अच्छाइयाँ उसमें नहीं थीं उनका दिखावा करने की अपेक्षा अपनी जिन्दादिली को बनाए रखना ही वह बेहतर समझता था; वह हर चीज और हर आदमी की मजाक उड़ाता था और कोई भी काम करने के लिए उसके नाखुदा को उसे दो बार कहना पड़ता था । फिर, पैगम्बर की हिदायतों के बावजूद ताज़ा पानी से कुछ ही बेहतर 'प्राबे हयात' का स्वाद भी उस मल्लाह ने चख लिया था जिसका पहला परिचय उसने मुझे बड़ी सादगी और चतुराई के साथ दिया। नाखुदा से बातचीत करते समय अय्यूब भी बीच-बीच में एकाध शब्द बोलने की कोशिश करता था और मौका पाकर उसने बड़ी गंभीरता से कहा 'मैंने 'वलायती दूध' अथवा 'यूरोप के दूध' के बारे में बड़ी अजीब कहानियां सुनी हैं कि वह एक ऐसी (पीने की) दवा है जो दिल ओ' दिमाग की सभी खराबियों को दूर कर के राहत पहुँचाती है। क्या आप जानते हैं, वह क्या चीज है ?' और ज्यों ही एक तीखी मुस्कान मेरे चेहरे पर गुज़री उसने तुरन्त पूछ लिया, 'पाप के पास है ?' मैंने कहा 'मैं जानता हूँ, मेरे पास है भी, और तुम्हारी जिज्ञासा शान्त करने के लिए कुछ दे भी दंगा लेकिन पहले यह बतायो कि तुम्हें उस चोज़ के गुण कसे मालूम हुए जिसे छूना भी 'शरीयत' में मना है ?' उसने जवाब दिया, 'एक अफसर का सामान बम्बई से पोरबन्दर ले जाकर भारी बरसात में उतारा था तब उसने मुझे और साथियों को एक-एक गिलास 'अरक' या रुह का दिया था और मेरे सवाल करने पर यही नाम बताया था।' मैं अय्यूब और उसकी बातचीत को भूल चुका था और अपनी कोठरी में मोमबत्ती के पास बैठा कुछ पढ़ रहा था कि किसी ने अन्दर आने की इजाजत चाही; यह अय्यूब था और हाथ में खोपरा या नारियल का कटोरा लिए मुझ से वादा पूरा कराने का ख्वास्तगार था। मैंने एक खिदमतगार को बोतल लाने के लिए कहा और उसे खोपरे में उंडेलने ही वाला था कि मुझे खयाल आया कि में बेवकूफी कर रहा था और शायद इस तरह हमारे नायब नाखुदा को यात्रा के पूर्वार्द्ध में ही बेकाबू बना रहा था। यदि किसी सिपाही को मौत की सज़ा सुना दी गई हो और 'बन्दूक दागो' के बजाय 'हथियार वापस लो' का शासन दिया जाय तो शायद वह इतना स्तम्भित और पाश्चर्यचकित न दिखाई देगा, जितना कि उस समय जोब (job)(अयूब) दिखाई दिया। जब मैंने पासव की बोतल को वापस सीधी कर ली तो वह बिलकुल बेजुबान था, एक शब्द भी न Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रध्याय - २३, बम्बई [ ५०१ बोला लेकिन हाथ में प्याला लिए उसे आगे बढ़ाए मुझ पर अांखें गडाए रहा मानो मेरे इस कार्य के लिए जवाब चाह रहा हो। 'खयाल करो अयूब', मैंने कहा, 'यह तुम्हें पागल बना दे और तूफान आ जाय ।' 'साहेब' बस उसने यही जवाव दिया और उसकी मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं पाया । 'सोचो अयूब, अगर बम्बई के बन्दरगाह पहुंचने पर मैं तुम्हें पूरी बोतल देने का वादा करूं तो क्या तुम आज की रात एक प्याले की माँग को न छोड़ सकोगे ?' हाथ और प्याला पीछे हट गए और यद्यपि उसके चेहरे पर उसो पुरानी कहावत 'नौ नकद तेरह उधार' के भाव अंकित थे फिर भी उसकी आकृति मुस्कराहट में बदल गई और किसी तरह उसने कह ही दिया 'मैं समझता हूँ, आप ठीक कहते हैं।' पाँच दिन तक हम शान्तिपूर्वक सुहावने मौसम में समुद्र में यात्रा करते रहे और कोई विशेष बात नहीं हुई; तब हम गौरवपूर्ण दृश्यों से युक्त बम्बई के प्रवेश-द्वार पर पहुंचे जहाँ अत्यन्त विभिन्न और गम्भीरतम वातावरण था, सभी तरह के सामान, पर्वत, जंगल, द्वीप और पानी आदि मौजूद थे । परन्तु, उस दिन चौदहवीं तारीख थी-'सराह' के इंगलैण्ड के लिए रवाना होने के लिए निश्चित तिथि से पहला दिन-दो बड़े जहाजों के खुले हुए आगे के पालों ने मेरा ध्यान अन्य सभी बातों से हटा लिया। मैंने पेंसिल से एक नोट (टिप्पण) लिखा और तरकीब से एक जहाज के तख्ते पर भेज कर यह मालम किया कि इनमें से कोई मेरा जहाज भी था क्या ? इधर, मैंने अपने सिपाहियों और खिदमतगारों को जल्दी से नाव में से उतारा कि जिससे जो कुछ भी परिणाम हो उसके लिए तैयार रहूँ। कुछ ही क्षणों में मेरा डर दूर हो गया; वे दोनों ही 'सराह' से पहले इंगलैण्ड के लिए स्वाना होने वाले थे। माँझियों को इनाम-इकराम देकर और जोब (अयूब) को 'विलायती दूध' अर्थात् ब्राण्डी की बोतल देना न भूल कर मैंने अपना साज-पो-सामान किनारे पर उतरवाया जिसमें अंगभंग देवता [प्रतिमाएं], शिलालेख, शस्त्रास्त्र, हस्तलिखित ग्रन्थ प्रादि चालीस-संख्यक बकसों में थे, और फिर उनको डेरे तम्बुनों के नीचे रखवा दिया जिनका प्रबन्ध मेरे मित्रों ने कृपापूर्वक करवा रखा था। जहाज रवाना होने तक मुझे तोन सप्ताह रुकना पड़ा और इस अवधि का प्रत्येक दिन मेरी चिर-चिन्तित योजना के पूरी न होने के दुःख को बढ़ाता ही रहा-इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए इससे प्राधा ही समय पर्याप्त था। परन्तु, बहुत थोड़ी ही बुराइयां ऐसी होती हैं जिनकी क्षतिपूर्ति में अच्छी बातें न होती हों-अनः इस अवसर पर मेरे रुक जाने के परिणाम सिन्धु की यात्रा से अपेक्षित परिणामों से कहीं बढ़ कर महत्वपूर्ण और आकर्षक हो निकले । जहाज में रवाना होने से कुछ दिन पहले तत्कालीन Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२] पश्चिमी भारत की यात्रा प्रधान सेनापति (Commander-in-Chief) जनरल सर चार्ल्स कॉलविल (General Sir Charles Colville) से यात्रा के विषय में मेरी बातचीत हुई; आबू की रमणीयता, पालीताना के खण्डहर, सोमनाथ, अणहिलवाड़ा और चन्द्रावती आदि, सभी पर वार्तालाप हुआ; उनकी सूचनानुसार जब कोचीन में जहाज को देर हुई तो मैंने अपनी यात्रा के मार्ग की एक विस्तृत टिप्पणी तैयार करके सम्बद्ध विषयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित करते हुए उनके पास भेज दी। इसको मार्गदर्शिका मानते हुए 'हिज एक्सलैंसी' ने शीघ्र ही उन मुख्य-मुख्य स्थानों को यात्रा की जिनमें से बहुतों का केवल मुझे ही पता था। मेरे लिए, वास्तु-विज्ञान के लिए और पुरावस्तु प्रेमियों के लिए प्रसन्नता का विषय यह है कि प्रधान सेनापति के सहायक वर्ग में कर्नल हण्टर ब्लेयर नियुक्त थे और श्रीमती हण्टर ब्लेयर की उत्साहपूर्ण कला-प्रियता एवं उनके उत्कृष्ट पेंसिल-चमकार के प्रति समस्त संसार 'हिन्दू-शिल्पी' की सर्वोत्तम कला-कृतियों की उन अनुकृतियों के लिए आभारी है, जिनसे उन सब का उद्धार उस अंधकार से हो गया है जिसमें वे युगों से पड़े हुए थे और तुरन्त बाद में होने वाले विनाश से भी उनका बचाव हो ही गया है । परन्तु, अब हमें पुनः 'युद्ध के घोड़े पर (Cheval da Gataille) सवार नहीं होना है; 'पाथेलो' की प्रवृत्तियाँ समाप्त हुई, और अब से मुझे अतीत की बातों को सपनों की तरह देखना चाहिये जो एकाकी वर्तमान जीवन का यथार्थ से योग कर देती हैं। यहाँ मेरी कहानी समाप्त होती है अथवा हिन्दी पत्र-लेखक के शब्दों में उपसंहार करूं तो 'किं विशेषण ?' सिवाय इसके कि जैसे-जैसे हम समुद्र में यात्रा करते रहे, मेरी दृष्टि स्थल की ओर ही लगी रही, मैं भविष्य की कल्पना-- 'मेरे राजपूतों' में वापस लौटने और उनके कल्याणविषयक अनेक योजनाएं बनाने, में डूबा रहा; अन्त में, जब हम भारत के अन्तिम छोर (भू-नासिका) पर पहुँच कर मनार की खाड़ी पार कर रहे थे तो ध्रुवतारा लहरों में निमग्न हो गया-उस समय में उससे इस तरह विदा हा मानों वह मुझे उस भूमि से सम्बद्ध करने वाली अन्तिम ग्रन्थि हो, जहाँ पर मैंने अपने जीवन का सर्वोत्तम समय बिताया था और जहां मैं हजारों लोगों की भलाई का निमित्त बना था। परन्तु, मेरे सभी पाठक ज्योतिषी नहीं हैं इसलिए में इस विशिष्ट नक्षत्र के साथ अपने लगाव के विषय में यहाँ कुछ विवरण दूंगा क्योंकि पूर्व तथा पश्चिम दोनों ही जगह के कवियों के लिए यह तारा स्थिरता अथवा ध्रवता का प्रतीक रहा है । उदयपुर में मेरे घूमने की मुख्य जगह मेरी पोळ या दरवाजे की छत थी जहाँ बैठ कर में प्राय: भोजन करता था और वहीं Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण - २३, उपसंहार [५०३ सो भी जाता था, खास तौर से गर्मी के दिनों में, जब बाहर निकल कर व्यायाम करना असम्भव होता था। उस देश के गहरे नीले आकाश की आभा में यह तारा अपने सुनहरी प्रभा-मण्डल के साथ ऐसा चमकता था कि मैं क्या कहूँ ? और, जब इस तरह का चन्दोवा मेरे सिर पर होता था तो में अपने आपको एक पूरा 'साबा-निवासी' अरबी सरदार मान लेता था । यदि मेरे निवासस्थान की जहाजी तख्ते-जैसी उस छत के आर-पार एक देशान्तरीय रेखा खींची जाय और अवकाश में सीधी बढ़ाई जाय तो वह ध्रुव तारे पर जाकर खतम होगी, जो नगर के दिल्ली-दरवाजे पर लम्बमान रहता है। इसलिए यह नक्षत्र वर्षों तक रात्रीय चहल कदमी में मेरा पथ-प्रदर्शक रहा है अथवा जब कभी में चन्द्र-ग्रहण का या किसी बृहस्पतिगत चन्द्रमा का अवलोकन करता तो वह मेरा सलाम ग्रहण करता था। उस आनन्दमयी घाटी और पास-पास की छोटी-सी दुनिया के दृश्यों की याद दिलाने वाला, जिनसे मुझे कभी तृप्ति नहीं हुई, अब एक ही चित्ताकर्षक पदार्थ रह गया था और इस 'उत्तरी ध्रुव नक्षत्र' के अतिरिक्त और कौन सी ऐसी वस्तु हो सकती थी जो हठात् मेरे सामने अतीत के चित्र उपस्थित करती? इस नक्षत्र की क्रमिक अस्तंगति को, जैसे-जैसे हम अक्षांश से नीचे उतरते गए, मैं टकटकी लगाकर देखता रहा । जब वह लहरों में डूब कर मेरी दष्टि से प्रोझल हो गया तो मुझे ऐसा लगा मानो किसी मित्र का वियोग हो गया-पोर जब हम उत्तरी अतला. न्तिक समुद्र में यात्रा कर रहे थे तो मैंने उसके पुनरुदय का प्रसन्नता से स्वागत किया। पाठकों का इस बात से कोई वास्ता नहीं है कि मैं सैण्ट हैलॅना' (St. Helena) में ठहरा और वहीं मैंने अपनी यात्रा का उपसंहार उस 'मनुष्यों में सब से महान्, किन्तु निकृष्ट नहीं' की मजार पर किया, जिसके विशाल मस्तिष्क की प्रवृत्तियों का साक्षात्कार मैंने कितने ही देशों में किया है 'नासमझी के ताने-बाने में बुनी महत्वाकांक्षा, तुम कितनी सिकुड़ गई हो ? जब इस शरीर में जीवन था, तो एक पूरा साम्राज्य भी उसके लिए बहुत छोटा और सीमित था; परन्तु, अब बुरी से बुरी दो कदम जमीन ही इसके लिए पर्याप्त है।' अक्टूबर २८, १८३५ ई० ॥ • सेण्ट हेलेना में नेपोलियन की १९२१ ई. में मृत्यु हुई थी। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट' सं० १ (पृ. १२) मोडिसा (वर्तमान मोरिया-स्थित) कनखलेश्वर मन्दिर का शिलालेख संवत् १२६५, बैसाख सुद पूनम, मंगलवार। चालुक्यवंशीय परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीमद् भीमदेव के विजय राज्य और जीवनकाल में, जब श्रीकररगमंत्री, समस्त राजमण्डल में बलिष्ठ केवल धारावर्षदेव का छत्र चन्द्रावती नगरी सर्वस्वभूमण्डलके ऊपर छाया हुआ था और जब उस समय राजा प्रल्लादन देव राजकार्य का सञ्चालन करता था, उस समय वीर केदारेश्वर ने कङ्कलेश्वर के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। शिलालेख' का लेखक पण्डित लखमीधर । ' इस परिशिष्ट में ग्रंथकर्ता ने उनके द्वारा सन्दर्भित शिलालेखों के प्रावश्यक अंशों का अंग्रेजी अनुवाद दिया है। उसी अनुवाद का यथावत् हिन्दी रूपान्तर यहाँ दिया जाता है । परन्तु, कितने ही लेखों का अंग्रेजी अनुवाद ठीक ठीक नहीं हुमा जिससे भ्रान्ति हो सकती है। अतः ऐसे लेखों को शुद्ध पाठ सहित पूरे रूप में उद्धृत कर दिया गया है। इनके विषय में प्रावश्यक सूचनायें भी, जैसी उपलब्ध हो सकी, उल्लिखित कर दी गई हैं। इस सामग्री का उपयोग "The Historical Inscriptions of Gujrat" आदि पुस्तकों में से किया गया है ।--अनुवादक २ कनखलेश्वर महादेव का मन्दिर और सरोवर 'बदरीनाप' में हैं, जो इस सरोवर में स्नान करते हैं उनका पनर्जन्म नहीं होता । कन्कल, 'खल' का अर्थ है अपराधों और मूर्खतामों से युक्त, पोर कन्' का अर्थ है उनका विनाश करना। 3 यह लेख उर्जन के शिवमठ के महन्त चपल अथवा चपलीय जाति के केदारराशि ने उत्कीर्ण कराया था। इसका हेतु उसके द्वारा अचलगढ़ में कनखल तीर्थ पर उसके पुण्यकार्यों को चिरस्मृत करने का है । लेख आबू पर्वत पर स्थित ईश्वर अथवा शिव की स्तुति से प्रारम्भ होता है और फिर राजाओं के समान केदारराशि के प्राध्यात्मिक गुरुषों की नामावली दी गई है। चण्डिकाश्रम का प्रथम महन्त वाकलराशि था, उसका शिष्य ज्येष्ठजराशि, तदनु योगेश्वर राशि, फिर मौनिराशि और योगेश्वरी साध्वी, फिर दुर्वासराशि हुआ, तच्छिष्य केदारराशि था। इस लेख के अन्त में बीसवीं पंक्ति से चौबीसवीं पंक्ति तक प्रणहिलवाड़ा के भीमदेव (द्वितीय) का उल्लेख है। यथा Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा सं० २ (१०६०) बहुत ढूंढने पर भो ग्रंथकर्ता के कागज पत्रों में इस लेख को नकल नहीं मिली। सं० ३ (पृ० १९७) कुमारपाल सोलंकी का शिलालेख; चित्तोड़ में ब्रह्मा के मन्दिर में स्थित, जो लाखण का मन्दिर कहलाता है । जो जल में निवास करने में आनन्दित होते हैं, जिनके जटाजूट से निरन्तर अमृतबिन्दु झरते हैं,वे महादेव तुम्हारी रक्षा करें। समुद्र में से उत्पन्न समुज्ज्वल रत्नराशि के समान चालुक्य वंश में कितने ही राज-रत्न पैदा हुए, उन्हीं की परम्परा में पृथ्वोपति मूलराज हमा। उसकी समानता कौन कर सकता था, जिसकी निर्मल कोति प्रकाशमान रत्न के समान अपनी किरणों से पृथ्वी-पुत्रों में आनन्द और क्षमकुशल का प्रसार करती थीं ? उस वंश में बहुत से बलशाली राजा हुए परन्तु उससे पूर्व किसी ने भी ऐसा महान् यज्ञ नहीं किया था । २०-संवत् १२६५ वर्षे वैशाख शु० १५ भौमे चोलुक्योद्धरणपरमभट्टारकमहाराजाधिराज श्रीमद्भीमदेव प्रवर्द्ध-- २१-मानविजयराज्ये श्रीकरणे महामुद्र-मत्य महं० ठा(प्रा)भूप्रभृति समस्तपंचकुले परिपंथति चन्द्रावतीनाथमांड-- २२-लिकासुरशम्भुश्रीधारावर्षदेवे एकातपत्रवाहकत्वेन भुवं पालयति । षट्दर्शन अवलम्बन स्तंभसकलकलाकोविद२३-कुमारगुरुश्रीप्रह्लादनदेवे योधराज्ये सति इत्येवं काले केदारराशिना निष्पादितमिदं - कोतनं । सूत्र पाहूणह२४-केन [उस्कोणं] __ अनुवाद में कितने ही शब्द और उनके अर्थ स्पष्ट नहीं हुए हैं। यथा- 'श्रीकरण' 'चन्द्रावतीनाथमाण्डलिकासुरशम्भु' आदि पदों के अर्थ; 'केदारराशि' को केदारेश्वर लिखा है और शिलालेख के लेखक का नाम लखमीधर लिखा है जब कि मूल लेख में पाह्लगह लिखा है। यह लेख 'इण्डियन एण्टीक्वेरी वॉल्यूम ११' सन् १८८२ में प्रो० एच० एच० विल्सन के अनुवाद सहित छपा है। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।५०७ परिशिष्ट कालान्तर में कई पीढ़ियों बाद सिद्धराज हुआ, जिसका नाम संसार में विदित है, जिसका शरीर विजयश्री द्वारा समाश्लिष्ट था और जिसके सत्कर्म इस पृथ्वीपटल पर व्याप्त हैं तथा जिसके कान्तियुक्त व्यक्तित्व और सौभाग्य के कारण अपरिमेय वैभव एकत्रित हो गया था। उसके बाद कुमारपालदेव हुा । वह कैसा था? ऐसा कि जिसने अपने दुर्जय मस्तिष्क से समस्त शत्रुओं को परास्त कर दिया था, जिसके आदेशों को पृथ्वीमण्डल के सभी राजा शिरोधार्य करते थे; जिसने शाकम्भरी के स्वामी को अपने चरणों में प्रणत किया ; जिसने शैवलक' के विरुद्ध स्वयं शस्त्र-ग्रहण किया और शालिपुर नगर में भूभृतों के शिर झुका दिए । चित्रकूट पर्वत पर......"अर, उस नरेश्वर ने कौतुक से ही इस (लेख) को देवालय में स्थापित किया और इस पर ऊँचा कलश भी चढ़ाया। क्यों ? कि यह मूखों के हाथों की पहुंच से बाहर रहे। ____जैसे रात्रि का स्वामी (निशानाथ) नीचे सुन्दर कामिनियों के मुख देखकर अपने कलङ्क के कारण ईर्ष्या करता है उसी प्रकार यह चित्रकूट अपने शिखर पर इस प्रशस्ति को देखकर लज्जित होता है । संवत् १२०७ (११४१ ई०) [मास और दिन का लेख टूट गया है ] ' मूल लेख में उल्लेख नहीं है। २ यह लेख 'राजस्थान का इतिहास' भाग १ के परिशिष्ट में उद्धत है। इस लेख में कुल २८ पक्तियां हैं। लेख का प्राशय चालुक्यनृपाल कुमारपाल द्वारा चित्रकूटगिरि अर्थात् आधुनिक चित्तौड़गढ़ की यात्रा के समय समिद्धेश्वरदेव के मन्दिर के निर्माण और उसी अवसर पर दिये हुए दान को चिरस्मृत करने का है। यह लेख 'इण्डियन एण्टीक्वेरी' के वोल्यूम २, में पृष्ठ ५२१ पर प्रोफेसर कीलोन द्वारा प्रकाशित किया गया है । लेख का शुद्ध पाठ नीचे दिया जाता है ॐ नमः सर्वज्ञाय । नमो सप्ताचिदग्धसंकल्पजन्मने । सर्वाय परमज्योतिर्वस्तसंकल्पजन्मने ।। मयतात् स मा श्रीमान् मगनी बनाम्बुजे। यस्य कण्ठच्छवी रेजे शंखालस्येव पल्सरी ॥ यदीयशिखरस्थितोल्लसदनल्पविष्यध्वज, समण्डपमहो नृणामतिविदूरतः पश्यताम् । । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा अनेक भवसञ्चितं क्षयमियत्ति पापं व्रतं, स पातु पदपङ्कजानतहरिः समिद्धेश्वरः ।। यथोल्लसत्यद्भुतकारि वाचः स्फुरन्ति चित्ते विदुषां सदा तत् । सारस्वतं ज्योतिरनन्तमन्तविस्फूर्जतां मे क्षतजाइयवृत्ति ।। जयन्त्यजलपीयूषविन्दुनिष्यन्दिनोऽमलाः । कवीनां समकीर्तीनां वाग्विलासा महोदयाः ।। न वैरस्य स्थितिः श्रीमान्न जलानां समाश्रयः। रत्नराशिरपूर्वोऽस्ति चोलक्यानामिहान्वयः ।। तत्रोपपद्यत श्रीमान् सद्वत्ततेजसा निधिः । मूलराजमहीनायो मुक्तामणिरियोज्ज्वलः ।। वितन्वति भृशं यत्र क्षेमं सर्वत्र सर्वथा। प्रजा राजन्वती नूनं जज्ञेऽसौ चिरकालतः ।। तस्यान्वये महति भूपतिषु क्रमेण, यातेषु भूरिषु सुपव्वंपतेनिवासम् । प्रोणुत्य वीद्धयशसा ककुभां मुखानि, श्रीसिद्धराजनृपतिः प्रथितो बभूव ।। जयश्रिया समाश्लिष्टं यं विलोक्य समन्ततः । भ्रान्स्वा जगन्ति यत्कीतिजंगाहेऽमरमन्दिरम् ।। तस्मिन्नमरसाम्राज्यं सम्प्राप्ते नियतेवंशात । कुमारपालदेवोऽभूत् प्रतापाक्रान्तशात्रवः ।। स्वतेजसा प्रसोन न परं येन शात्रवः । पदं भूभृच्छिरस्सूच्चः कारितो बंधुरप्यलम् ।। प्राज्ञा यस्य महीनाथश्चतुरम्बुधिमध्यगः । ध्रियते मूर्धभिन्नम्रर्वेवशेषेव सन्ततम् ॥ महीभूनिकुञ्जेषु शाकम्भरीशः प्रियापुत्रलोकेन शाकम्भरीशः।। अपि प्रास्तशत्रुभयात्कंप्रभूत: स्थिती यस्य मत्तभवाजिप्रभूतः ॥ सपादलक्षमामय नम्रीकृतभयानकः । स्थयमयान्महीनायो प्रामे शालिपुराभिधे ॥ सनिवेश्य शिविरं पृथु तत्र त्रासिता सहनभूपतिचक्रम् । चित्रकूटगिरिपुष्कलशोभा द्रष्टुं (कु)मारनपतिः कुतुकेन ।। (अनुष्टपछन्दः) यदुच्चसुरस पानोपरिष्टात् प्रपतन् सदा । रथं नयत्यलं मन्दं मन्दं भङ्ग भयाद्रधिः ।। यत्सोशिखरारूढकामिनीमुखसन्निधौ । वर्तमानो निशानायो लक्ष्यते लक्मलेखया ॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा [ ५०६ प्रफुल्लराजीवमनोहरानना विवृत्तपाठीनविलोललोच [नाः । [प्रम] त [भ]गावलिरोमराजयो रथाङ्गवक्षोरहमण्डलभियः ।। परिभ्रमसारसहसनिःस्वनाः सविनमाहारिमणालबाहकाः । बृहन्नितम्बामलवारि राशयो] मुदे सतां यत्र सरासरोगनाः । सुरभिकसुमगन्धाकृष्टमत्तालिमाला विहितमपुररावो यत्र चाभित्यकायाम् । स्खलिततरणिभानुः सल्ल [ रिमयिषति शश्वत्कामिनः कामिनीभिः ॥ शुभे यखने शाखिशाखान्तराले प्रियाः क्रीडया सनिलीना निकामम् । घने [ प णाम् तनूगन्धसक्तालयः सूचयन्ति ॥ प्राप कदापि न या हृदये शं सानुनयं स मया हृदयेशम् । यहनमेत्य सु[ ] [ र ] तरागम् ॥ . एवमादिगुणे दुर्गे स्वर्ग वा भुवि संस्थिते । राजा जिष्णुः परं प्रीत्या सञ्चरन् निजलीलया । ति [... ... ...(ता) श्चर्यसंकुलम् । वदर्भागाधगम्भीरं स्वच्छं स्वमिव मानसम् ।। निम्मल सलिलं पत्र पिहितं प [भि] । ... ... ... जे नीलाम्जरागभूषियम् ॥ विमुच्य व्योमपातालरसा पत्र त्रिमार्गगा । लोकान् पुनाति... ... ... ... ... ] ॥ तस्योसरतटेखानीसम्रामरसमचितम् । श्रीसमिदेश्वरं देवं प्रसिद्ध जगतीतिले]॥ [ ... ... ... ... ... ... ... 1 से। सन्ध्यतूर्यनादेन कलि निर्क्सयनिय ॥ यस्तषस्याषिपरपेऽस्थात् पुरा भट्टारिकोत्तमा । ... ... [[व] नपाभ्या ... ... ... ॥ तस्याः शिष्याऽभवत् साम्बी सुव्रतवासभूषिता। गौरदेवोति विख्याता ... ... ... कृतोचमा । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] देवपत्तनस्थित अनुवाद | यह लेख मूलतः सोमनाथ मन्दिर का है । जिनके जटाजूट से गङ्गा बहती है उन [ शिव ] को नमस्कार, जिनके जघनस्थल पर पार्वती विश्राम लेती है उन [ शिव को नमस्कार ]; पार्वती के पुत्र वीजीमराज ( Vizeem Raj ) | विघ्नराज ] को नमस्कार ! सरस्वती को नमस्कार, वह मेरी जिह्वा पर निवास करे । सूर्य और चन्द्रमा जिसके ग्राभूषण है वह और सब [ देवता ] मेरी रक्षा करें । ( शेष श्लोक छोड़ दिए गए हैं ) किनोज [ कनोज] का ब्राह्मण भाव बृहस्पति ( वृहस्पति) बनारस की यात्रा को गया । वह प्रवन्ती भोर धारा नगर पहुँचा जहाँ उस समय जयसिंह - देव राज्य करता था । परमार राजा और उसके समस्त परिवार ने उसको अपना गुरु बनाया और वह राजा उसको अपना भाई कहने लगा । जब सिद्धराज जयसिंह स्वर्ग (कुमार) पाल उसकी गद्दी पर बैठा; हुआ । कुँवर ( कुमार ) पाल तीनों उसने अपनी मुद्रा कोष श्रौर सर्वस्व सुमनो दुर्गा हि परिशिष्ट सं० ५ पृष्ठ ३४७ और ३६४ भद्रकाली मन्दिर के द्वार पर प्राप्त शिलालेख का ... ...... संसेव्या [मा] संवत् १२०७ सूत्रधा ... वीक्ष्य ...... यविनाशिनी । ता ॥ पवित्रीकृतसज्जनम् । 11 यत्तपः पावनं सस्मरुः पूर्वयमि शिवं प्रपूज्य त[ स्पवशरणम ]गमत् प्रणम्य तावुभौ भक्त्या शिरसा [ तस्वां ] तः पूजार्थ कुमारपालदेवोऽबाद् ग्रामं श्री ... 1 हरपादयोः । सिधारा तब वह चक्रवर्ती था; कुँअर भाव बृहस्पति उसके मन्त्रियों में प्रधान लोकों में कल्पवृच्छ (वृक्ष) के समान था । बृहस्पति के अधिकार में दे दिए और ... 446 ... ... ... ... 630 .......स्या विद्याराम भूणादित्य राज दीपार्थ घाणकमेकं सज्जनोप्यवात् .... *****... ... दण्डनाथ मतदानम श्रीजयको तिशिष्येण दिगम्बरगणेशिना । प्रशस्तिरीवृशी चक्रे श्रीरामकीर्तिना । टा दक्षिण पूर्वोत्तरं पश्चिमतः सरः पाली प्रभुः । ] ... ...... Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५११ कहा “जाओ और देवपत्तन के तीरन (Teerun) (तोरण या जीर्ण ?) मन्दिरों का जीर्णोद्धार करायो।" "भाव बृहस्पति ने उन्हें कैलास के समान बनवा दिया। उसने विश्वाधिपति (राजा) को अपना काम देखने के लिए आमन्त्रित किया। जब उसने देखा तो अपने गुरु की प्रशंसा में कहा “मेरा हृदय आनन्दित है; मैं तुमको और तुम्हारे पुत्रों (वंशजों) को मेरे राज्य में प्रधानता प्रदान करता हूँ।" प्रथम, चन्द्रमा ने स्वर्णमन्दिर खड़ा किया; फिर, रावण ने चांदी का मन्दिर बनवाया। बाद में, कृष्ण भीमदेव ने इसका पुननिर्माण कराया और इसमें जवाहरात जड़वाये; और फिर कुँअर (कुमार)पाल ने एक बार पुनः इसको मेरु के सदृश बना दिया । गूर्जनमण्डली (गुर्जर-मण्डल) के स्वामी ने ब्रह्मपुर (ब्राह्मणों की बस्ती) (ब्रह्मपुरो) के लिये भूमि और धन प्रदान किया। उसने दक्षिण में सोमनाथ के मन्दिर से लेकर उत्तर में ब्रह्मपुरी तक परकोटा खिंचवाया। सिद्धेश्वर और भीमेश्वर आदि सभी (देवताओं) के मन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ और सभी पर स्वर्णकलश चढ़ाए गए। कुत्रों, सरोवरों, यात्रियों के लिए भवनों, जल के टॉकों से देव-मन्दिर तक रजत-जल-कुल्यायों और देव (प्रतिमा) के लिए सिंहासन (आदि का निर्माण हुआ)। रुक्मण (रुक्मिणी) द्वारा बनवाये हुए पाप-मोचनेश्वर के मन्दिर का भी, जो तोड दिया गया था, पुननिर्माण हुआ। बलभी सं० ८५०२ ' 'चरित्र' में लिखा है कि मन्दिर का स्वर्णकलश बृहस्पति ने बनवाया था। • बलभी संवत् ८५०+३७५ वि० सं० १२२५, ई० सन १९६६। यह समय कुमारपाल के बाद एक को छोड़कर दूसरे उत्तराधिकारी भीमदेव के पाटण को गद्दी पर बैठने * प्रभास पाटण में सुप्रसिद्ध सोमनाथ का मन्दिर है । यह नगर जूनागढ़ के अधिकार में था । यहां भद्रकाली का भी एक मन्दिर है जिसके प्रवेश-द्वार के दाहिनी तरफ एक शिला पर यह लेख है । यह 'भावनगर प्राचीन संस्कृत इंस्क्रिप्सन्स' के पृ० १५५ पर प्रकाशित हुआ। इसमें लिखा है कि कुमारपाल ने अपने गुरु भाव बृहस्पति के आदेशानुसार बहुत से शिव और अम्बिका के मन्दिरों का निर्माण कराया तथा बहुतों का जीर्णोद्धार भी कराया। इसी प्रकार एक वापिका बनवाई और अनेक ब्राह्मणों को दान में भूमि प्रदान की । लेख का समय वलभी संवत् ८५० (ई. सन् १९६९; वि० सं० १२२५) है । लेख इस प्रकार है। १. प्रों नमःशिवाय नाहं भवत: सहे सुरधुनीमंतजंटानामतः, कर्णे लालयसि कमेण कितयोत्संगेऽपि ता धास्यसि Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] २. ३. ४. ७. ६. इयः सुतया सकोप परिश्चिमी भारत की यात्रा (मुखयो ) क्तोऽवोचदायें भुवो भूषेयं गुरुगंडकीर्तिरिति वः सोऽव्याद्भवानीप्रियः ॥ १ ॥ श्रीविघ्नराज farmer नमोऽस्तु तुभ्यं वाग्देवते त्यज नघोषितथि जिह्वे समुल्लस षि यतोऽहं सखि प्रकरोमि यावत् । सर्वेश्वर गंडगुणप्रशस्ति ॥ २ ॥ सोमः सोऽस्तु जयी सम[स्म ] रांगदहनो यं निर्मलं निर्ममे गौर्याः शाप- ५. कलौं किञ्चिद् व्यतिक्रान्ते स्थानकं वीक्ष्य विप्लुतं तदुद्धारकृते शम्भुनंदीश्वरमथादिशत् ॥४॥ प्रस्ति श्रीमति कान्यकुजविषये वाराणसी विषु(ता) पुर्यस्यामधिदेवता कुलगृहं धर्मस्य मोक्षस्य च तस्यामीश्वरशासनाद् द्विजपते हे स्वजन्म (प्र) हं पाशुपतवृतं ( व्रतं च विदधे नंदीश्वरः ( बलेन) वे कृतयुगेऽदृश्यत्य मु (मौ ? ) पेयुष प्रादात् पाशु (शु) पतायंसाघसुधियां यः स्थानमेतत् स्वयं कृत्वा स्वामय पद्धति शशिभूतो देवस्य तस्याज्ञया ॥३॥ ( सर्ववित्) । ५॥ तोयं (स्थान) विधानाय भूभुजां दक्षिणाय च स्थानानां रक्षणार्थाय निययौ स तपोनिधिः ॥ ६ ॥ श्रीमद्भावबृहस्पतिः समभव (त्) (सद्वि ) विश्वाचितो नानातीर्थकरोपमानपदवीमासाद्य धारां पु सम्प्राप्तो नकुलीश सनिभतनः संपूजितस्तापसंः कंदर्पप्रतिमश्च (शास्त्र) मलिलस्थीयारामोद्घाटनम् ॥७॥ ॥ यद्यन् मालवकान्यकुब्जविषयेऽवत्यां सुतप्तं तपो नीताः शिष्यपदं प्रमारपतयः सम्यङ्मठाः पालिताः । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १०. प्रोतः भोजयसिहदेवनृपतितित्वमात्यंतिक तेनेवास्य जगत्त्रयोपरिल सत्यद्यापि विज भितम् ॥८॥ संसारावतरस्य कारण मसौ संस्मारितः शंभुना स्थानोखारनिबंधनं प्रति मति चके पवित्राशयः । तस्मिन्नेव दिने कृतांजलिपुटः श्रीसिद्धराजः स्वयं च मुष्य महत्तरत्वमसमं चार्यत्त्वमत्यादरात् ॥६॥ तस्मिनाकम पेयुषि क्षितिपतो तेजोविशेषोदयी श्रीमदोरकुमारपालन पतिस्तद्रायसिंहासनम् । प्राचक्राम झटिस्व (त्य चिन्यमहिमा बल्लाद(८) धाराषिपः श्रीमज्जाङ्गलभूपकुञ्जरशिरःसञ्चारपञ्चाननः ॥१०॥ १४. राज्यमनारतं विवाति श्रीवीरसिंहासने श्रीमढीरकुमारपालनपतो त्रैलोक्यकल्पद्रुमे । गण्डो भावबहस्पतिः स्मररिपोरुद्वीय देवालयं जीणं भूपतिमाह देवसदनं प्रोद्धर्तमेतद्वचः ॥ ११ ॥ प्रादेशात् स्मरशासनस्य सुबहत्प्रासादनिष्पादक चातुर्जातकसंमतं स्थिर पियं गार्गेयवंशोभवम् । श्रीमद्भावग्रहस्पति नरपतिः सर्वेशगण्डेश्वर चक्रे तं च सुगोत्रमण्डलतया ख्यातं धरित्रीतले ।। १२ ।। बत्त्वालङ्करणं क रेण तु गले व्यालम्ब्य मुक्त्या" ... ... ... ... ... ... .."प्रणम्याग्रतः। उत्सार्यात्ममहत्तमं निजतमामुच्छिद्य मुद्रामदात् । स्थानं भव्य पुराणपद्धतियुतं निस्तन्त्रभक्त्यव्ययम् ॥ १३ ॥ प्रासावं पदकारयत् स्मररिपोः कैलासलोपर्म भूपालस्तदतीवहर्षमगमत् प्रोषाच चेदं वचः । श्री१६. मद्गण्डमहामति प्रति मया गण्डस्वमेतत्तव प्रत्तं सम्प्रति पुत्रपौत्रसहितायाचन्द्र तारारुणम् ॥१४॥ १७. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा - २०. सौवर्ण सोमराजो रजतमयमयो रावणीदार वीर्यः कृष्णभीभीमदेवो रुचिरतरमहाग्रावनी रस्नकूटम् । तं कालाजीणमेष क्षितिपतितिलको मेरुसंजं चकार प्रासाद सप्रभावः सकल गुणनिषेर्गण्डसर्वेश्वरस्य ॥ १५ ॥ पश्चादगुर्जरमण्डलक्षितिभुजा संतोषहृष्टात्मना दत्तो ब्रह्मपुरीति नामविवितो प्रामः सवृक्षोदकः । २१. कृत्वा पुटता(म्र)शासनविषि श्रीमण्डलीसनिधी स्वत्पुत्रस्तवनुव्रतः स्वकुलजः संभुज्यता स्वेच्छया ॥१६॥ उद्धृत्य स्थानकं यस्मात कृतं सोमव्यवस्थया। (ब)हस्प२३. तिसमो गण्डो नाभून भविवा परः ॥ १७ ॥ बहुकुमतिजगण्डग्रव्यलोभाभिभूते पकुसचिववृन्दाशितं स्थानमेतत् । सपदि तु गुरुगणेनोवृतं दन्त२४. कोटीस्थितपरणिमराहस्पढ़या लीलयव ॥ १८॥ के के नैव विम्बिता नरपतेरप्रे विपक्षवमा: केषां नैव मुखं कृतं सुमलिनं केषां न वप्पो हृतः । २५. केषां नापहृतं पदं हट(8)तया वस्था पर मस्तके के वानेन पिरोपिनो न बलिना भिक्षावतं प्राहिताः ॥१६॥ सुस्थामभिबंहिरिवं बहुभियंतीय गढि गुण२६. नियमितं यदि नाभविष्यत। नूनं तदन्तरखिलं सुभतं यशोभिब्रह्माण्डभाडकमणु(ः) स्कुटमस्फुटिष्यत् ॥ २० ॥ यद्रूपक्षणवाच्छया शतमखो पत्ते सहन दशा यन्निसीमगुणस्तुती कृतषियो पातुश्चतुर्वक्त्रता। यन्माहात्म्यभराच्चलेति वसुधा गोपाचलेकोलिता यत्कोतिनं भुवि प्रयास्यति ततो नूनं त्रिलोकीकृता ।। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५१५ २८. ॥ २१ ॥ उद्धृत्यवृत्तयो येन सबाह्याभ्यन्तरस्थिताः। चातुर्जातकलोकेभ्यः संप्रवत्ता यशोऽर्थिना ॥ २२ ॥ स्वमर्यादा विनिर्माण स्थानकोटा२६. रहेतवे। पञ्चोत्तरी पञ्चशतीमार्याणां योऽभ्यपूजयत् ।। २३ ।। देवस्य दक्षिणे भागे उत्तरस्या तथा दिशि । विषाय विषमं दुर्ग प्रावड़यत यः परम् ।। २४ ।। ३२. ३०. र्या भीमेश्वरस्याय तथा देवकपद्दिनः । सिद्धेश्वरादिदेवानां यो हेमकलशान् वो ॥ २५ ॥ नपक्षालां च यश्चके सरस्वत्याश्च कृषिकाम् । महानसस्य शुचथं सुस्नापनजलाय च ।। २६ ॥ कदिनः पुरोभागे सुस्तम्भी पट्टशालिकाम् । रौप्यप्रणालं देवस्य मण्डुकासनमेव च ।। २७ ।। पापमोचनवेवस्य प्रासादं जी प्रम(मु) तम्। तत्र त्रीन् पुरुषांश्चक्रे नद्यां सोपानमेव च ॥ २८ ॥ युग्मम् येनाक्रियन्त बहुशो ब्राह्मणानां महागृहाः । विष्णुपूजनवृत्तीनां यः प्रोद्वारमचीकरत् ॥ २९ ॥ नवीननगरस्पान्तः सोमनाथस्य चाध्वनि । निमिते वापिके द्वे च तत्रैवापरचण्डिका ॥ ३० ॥ गण्डेनाकृत पापिकेयममला स्कारप्रमाणामत प्रख्या स्वादुजला३४. सहेलविलसत्कारकोलाहलः । भ्राम्य रितरारघट्टटिका मुक्ताम्बुधाराशतेर्या पीतं घटयोमिनापि हसतोवाम्भोनिषि लक्ष्यते ॥ ३१ ॥ शशि३५. भूषणदेवस्य चण्डिको सन्निपिस्थिताम् । यो नवीनां पुनश्चके स्वधेयोराशिलिप्सया ॥ ३२ ॥ सूर्याचन्द्रमसोम्रो प्रतिपदं येनाधिता साषयः । सर्वज्ञा(:)३६. रिपूजिता बिजवरा बानः समस्तैरपि। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ / ३७. भक्तिः स्मरद्विषि रतिः परमात्मवृष्टी ३६. ४०. ४१. ३८. एतस्याभवदिन्दुसुन्दरमुखी पत्नी प्रसिद्धान्यया गौरीव त्रिपुरद्विषो विजयिनी लक्ष्मीर्मुरारेरिव । श्रीगङ्गेष सरस्वतीय यमुनेवेदाकी गिरा कान्त्या ४३. ४४, तद्वत्पचसु पर्वसु क्षितितलख्यातंश्च दानकर्म मैंन कमा परितोषिता गुणनिधिः क ( स्तत्समोऽन्यः पुमान् ) ॥ ३३ ॥ ४५. ४६. श्रद्धा श्रुतो व्यसनिता च परोपकारे । शांता मतिः सुचरितेषु कृतिश्च यस्य विश्वम्भरेऽपि च नृतिः सुतरां सुखाय ॥ ३४ ॥ ४२. (व्य:) ... सोटलसम्भवा भुवि महादेवीति या विश्रुता ॥ ३५ ॥ लावण्यं नवचम्पकोद्गतिरथो बाहुः शिरीषावली दृष्टि: क्रौंच... हासः कुन्दममन्दरोधकुसुमान्नच्चा कपोलस्थली यस्या मन्मथशिल्पिना विरचितं सर्वतु लक्ष्म्या वपुः ॥ ३६ ॥ ... सिद्धा इचत्वारस्ते वशरथ समेनास्य पुत्रोपमानाः । प्राद्यस्तेषामभवदपरादित्यनामा ततोऽभूद् (थे) रत्नादित्य.. ...... पश्चिमी भारत की यात्रा ... देते रामादिरू नि *** ... ... ... ... सोमेश्वर इति कृती भास्करचापरोऽभूपमिता सत्यसो भ्रात्रयुक्ता: । 0 ... ... ... ... ... विनिहिताबाहवः श्रीमुरारेः ॥ ३८ ॥ धन्या सा जननी नूनं स पिता विश्वशेषरम् । यावज्जी... 1 ... www 633 ... ... "न ... लक्ष्मीः संभूतवाजिचामरनजा द्विद्युद्विलासस्य च । प्रा ... दलोपरि लुठत्पानीय बिन्दूपमा 'येन गुणिना कीतिः परं संचिता ॥ ४० ॥ सत्वेनाद्य शिबिरंधीचिरथवा तीव्राज्ञया रा ( वण) ... युधिष्ठिरः क्षितिपतिः किवा बहु ब्रूमहे । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५१. सं० ६. (प० ३४७) देवपत्तन के द्वार का शिलालेख संवत् १४४२, आषाढ़ बुद ८, शनिवार । सरस्वती को नमस्कार करके । चीतोड़ (Cheetore) का राजा भीम यदुवंश का था, उसकी पत्नी मानिक देवी और पुत्री यामुनी बाई; वह राष्ट्रोड (?) (Rushtore) सरदार बनी ब्रिह्मोजी (Bunee Brimohjee) को ब्याही गई थी। वे प्रलियास (?) (Pruiias) आए और उन्होंने दान-दक्षिणा दी, जिसके पुण्य से लोग अब भी लाभान्वित होते हैं (यथा, तालाब आदि) (उसी शिला पर) संवत् १२७३ संबत् बिक्रम बैशाख बुद चौथ । देवपत्तन में राजा मूलदेव (हुमा) उसके बाद हमीर हुआ जिसने सोमनाथ के मन्दिर और मण्डप का जीर्णोद्धार कराया इत्येतेऽभिषया बृहस्पतितया सर्वेऽपि ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... । ४७. .... .." कुमारपालस्य भागिनेयो महाबलः ॥ ४२ ।। प्रेमल्लदेव्यास्तनयो भोज ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... (४३) श्रीसोम नाथपूजा यच्छशांकग्रहणक्षणे। कारितो गण्डराजेन तेन प्रीति मगा... .. ... ... ... ... ... ... यथाक्रम ॥ ४५ ॥ ... ... ... ... ... ... ... ... ... हिरण्यतटिनीतीरे पापमोचनसन्निधौ । गण्डत्रि... ... ... ... ... ... २०. ... ... (ददौ) तस्मै माहेश्वरनृपापणीः ।। ४७ ।। शासनीकृत्य दवता ग्राम... ५१. (वंशप्र) भवैः पुत्रपौत्रः भोक्तव्यं प्रमवाभिश्च । यावच्चन्द्रा.. ... ... ... ... ... ५२. (गण्डग)णप्रशस्ति चकार यः शीघ्रकविः सुकाव्यः ।। ५० ॥ ५३. (५१) लक्ष्मीधरसुतेनेयं लिखिता कसु (रु)रिणा ... ... ५४. बलभी संवत ८५० ग्राला ... ... ... ... .... Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा सं० ७० (पृ० ३६३) १. बेलावल में प्राप्त शिलालेख जो मूलतः सोमनाथ मन्दिर का है।' सर्वेश्वर को नमस्कार, विश्वज्योति* को (नमस्कार) वर्णनातीत मूर्ति को नमस्कार, उसको नमस्कार जिसके चरणों पर सभी नमस्कार करते हैं। मोहम्मद के वर्ष ६६२ में और बिक्रम (विक्रम) १३२० में तथा श्रीमद्बलभी (संवत्) १४५ में और सीहोह (शिव-सिंह) संवत् १५१ (१२६४ * इससे सहज ही में ज्ञात होता है कि सोमनाथ सूर्य का नाम है, सोम अथवा चन्द्रमा का स्वामी । संक्षेप में, सूर्यदेव बालनाथ जिसका प्रतीक लिङ्गम्' या फलोत्पादक देवता है । ' इस लेख का सर्व प्रथम उल्लेख कर्नल टॉड ने ही किया है परन्तु उनका यह तथाकथित अनुवाद केवल अनुमान और कल्पना पर ही आधारित है क्यों कि अनुवाद और मूल लेख की बातें मेल नहीं खातीं । बाद में यह लेख श्री ई० हुल्ज (E. Hultzscb, Ph. D., Vienna) द्वारा इण्डियन एण्टीक्वेरी के वॉल्यूम ११ के पृष्ठ २४१-२४५ पर सन् १८८२ ई० में प्रकाशित हुआ है। उसी के आधार पर कुछ मुख्य बातें नीचे दी जाती हैं। १ इस लेख में एक साथ चार संवतों का उल्लेख है अर्थात् हिजरी सन् ६६२, विक्रम संवत् १३२०, वलभी संवत् १४५ और सिंह संवत् १५१ आषाढ़ वदि १३ । विक्रम संवत् १३२० का प्रारम्भ कार्तिक मास से होता है, जो सन् १२६३ ई. के मध्य में पड़ता है और प्राषाढ़ मास १२६४ ई. के मध्य में पड़ता है। वूस्टन फोल्ड ( Watstenfeld ) सारिणो के अनुसार १२६४ ई० का मध्य हिजरी सन् ६६२ के प्रारम्भकाल में पड़ता है, जो ४ नवम्बर १२६३ ई० को शुरु होता है। इस प्रकार विक्रम संवत् और हिजरी सन् का मेल बैठ जाता है । वलभी संवत् के विषय में स्थानीय जानकारों का कहना है कि वलभी विध्वंस वि० सं० ३७५ अथवा ३१८-३१६ ई० में हुआ था। अलबेरुनी (Alberuni) ने वलभी संवत् का प्रारम्भ शक संवत् २४१ से लिखा है, जिसके अनुसार विक्रम संवत् ३७६ अथवा ३१६-३२० ई० प्राता है। प्रस्तुत लेख में दिया हुमा वलभी संवत् विक्रम संवत ३७५ वाले मत से मेल खाता है। सिंह संवत् विक्रम संवत् ११६६ अथवा १११३ ई० में प्रारम्भ होता है । कर्नल टॉड (Col. Tod.) ने इसको शिव संवत् या सीह संवत् लिखा है और देवद्वीप के गोहिलों द्वारा प्रचलित संवत् बताया है। २. इस शिलालेख में अर्जुनदेव के बारे में बहुत कम सूचना दी गई है। यद्यपि यह उसी के समय में उत्कीर्ण कराया गया है । कर्नल टॉड (Col. Tod.) ने जो कुछ अपनी कल्पना के आधार पर लिखा है उसी का आश्रय लेकर किनलॉक फारवस (Kinloch Forbes) ने रासमाला में अर्जुनदेव का हाल लिखा है । इस विषय में यहाँ विशेष टिप्पणी उपयुक्त नहीं है। Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५१६ ई०) में, प्राषाढ बुद १३ रविवार (Rubewar) । श्रीमद् अण्हल (पुर) पाट (लाल (scarlet) अथवा पाटण को अपभ्रंश) में अनन्त-सामन्तविराजमान, परमेश्वर-भट्टारक-ऊमियेश्वर (Lord of oomia) (उमापति ?) वरप्राप्त, परमभाग्यशाली, निर्भय, शत्रुसमूह-कण्टक श्री चालुक्य चकवर्ती महाराजाधिराज श्रीमद् अर्जुनदेव (?) (Urgoon Deva) सर्वविजयी। उसका मन्त्री श्रीमालदेव, राज्य के विभिन्न कार्याधिकारी, पंचकुल, बेलाकूल (बेलाउल) के हुरमुज सहित, पुण्यमार्गगामी अमीर रुक्नु द्दीन के राज्य में और साथ ही नाखुदा नूरुद्दीन फीरोज का पुत्र हुरमुजनिवासी खोजा इब्राहीम तथा चावड़ा' पलकदेव (पीलुगि) (Palook Deva), राणिक श्री सोमेश्वरदेव, चावड़ा रामदेव, चावड़ा भीमसिंह एवं अन्य सभी चावड़ा तथा इतर जातीय सरदार एकत्रित हुए । नैणसी राजा चावड़ा ने देवपत्तन निवासी महाजनों को एकत्रित करके मन्दिरों की भेट निश्चित की व जीर्णोद्धार का प्रबन्ध किया; कि रत्नेश्वर, चौलेश्वरी', पुलिन्ददेवो के मंदिरों तथा अन्य कतिपय मन्दिरों में पुष्प, तेल और जल निरन्तर चढ़ाया जाय । सोमनाथ के मन्दिर के चारों और परकोटा बनवाया गया जिसका मुख्य द्वार उत्तर की ओर रखा गया। मोदुल (Modul) ३. मूल लेख के अनुसार इस शिलालेख का उद्देश्य किसी हुर्मज निवासी मुसलमान नाखुदा द्वारा बनवाई हुई मस्जिद के लिए एक भू-खण्ड, जिसमें कुछ प्राच्छादित मकान थे, एक तेल-घाणी और दो दुकानों की प्राय समर्पित करना है । इसी में सोमनाथ पट्टण के अन्य नाविकों द्वारा विशेष उत्सवों पर इसी आय में से व्यय करने का उल्लेख है। शेष द्रव्य मक्का-मदीना भेज देने का विधान है। सोमनाथ पट्टन के मुसलमानों की जमाथ (समूह या समिति) को इस प्राय की देखभाल के लिए नियुक्त किया गया है। ४. लेख की भाषा संस्कृत है परन्तु शुद्ध नहीं हैं। फिर भी इसमें मुसलमानी भाषा के शब्दों ओर धार्मिक रीति-रिवाजों का उल्लेख किया गया है । अतः यह पठनीय और अध्ययनीय है। इसमें पाए हुए घाणी, चूना, छोह, छाद्य क आदि देशी शब्द और नाखू या नाखुदा, खोजा, अमीर, रमूल, महम्मद, सहड, मुशलमान. मिजिति (मस्जिद), खतीब, मालिम, जमाय, चुणकर, आदि अरबी फारसी शब्दों के यथावत् अथवा विकृत रूप दर्शनीय हैं । ५. मूललेख और कर्नल टॉड (Col. Tod.) कृत अनुवाद का अन्तर देखने पर ऐतिहासिक तथ्यों, नामों, भाषा और लेख को मूलभावना सम्बन्धी भेद सहज ही स्पष्ट हो जाते हैं। ' मूल लेख में 'छाड़ा' लिखा है। • सोमनाथ (पट्टण) में शिव का विशाल मन्दिर । । चालुक्यवंश की कुलदेवी । भीलों की देवी। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] पश्चिमी भारत की यात्रा चावड़ा के पुत्र कोल्हणदेव ने सोहन के पुत्र लूणसी और दो महाजन बालजी तथा करण के साथ साप्ताहिक व्यापार का लाभ मन्दिरों को भेट किया। यावच्चन्द्र दिवाकर इसे नहीं ग्रहण करेंगे। फीरोज को इसकी व्यवस्थापालन की आज्ञा दी गई। समय उत्सव की भेट खर्च होती रहे और अतिरिक्त भेट धर्मस्थान के जीर्णोद्धार हेतु कोश में जमा रहे । चावड़ों और नाखुदा नूरुद्दीन को महाजनों और मुसलमानों की बस्ती में इस आदेश का पालन कराने की आज्ञा हई । इस आदेश को मानने वाले के भाग्य में स्वर्ग और इसको तोड़ने वाले के भाग्य में नरक प्राप्त होगा।' २. पाटण से प्राप्त बेलावल का दूसरा शिलालेख श्रीमद् बलभी, ६२७, फाल्गुन सुद बीज, बुदवार, आदि श्री, देवपत्तन, मूल जोग गोहिल एवं अन्यों ने गोरधननाथ के मन्दिर का निर्माण कराया। २. ' इस शिलालेख की एक नकल (किंचित् परिवर्तन के साथ) ग्रन्थकर्ता की विव रणात्मक टिप्परिणयों सहित 'राजस्थान का इतिहास' के भाग १ के परिशिष्ट में छपी है। १. ॐ॥ ॐ नमः श्रीविश्वनाथाय ।। नमस्ते विश्वनाथाय विश्वरूप नमोस्तुते । नमस्ते सू (शून्यरूपाय लक्षालक्ष नमोस्तु ते ॥१॥ श्रीविश्वे नाथ प्रतिबद्धता जनानां बोधक रसूलमहंमद संवत् ६६२ त३. या श्रीनृप (वि)क्रम सं० १३२० तथा श्रीमद्वलभी सं० ६४५ तया श्रीसिंह सं० १५१ वर्षे प्राषाढ वदि १३ र वावयह श्रीमदणहिल्लपाटपाधिष्ठितसमस्तराजावलीसमलंकृत परमेश्वरपरम __ भट्टारक श्रीउमापतिवरलब्धप्रौढप्रतापनिःशङ्कमल्ल . परिरायहृदयशल्य श्रीचौलुक्यचक्रयत्तिमतत्पादपोजन हाराजाधिराज श्रीमत् अर्जुनदेव-प्रय मान-कल्यामविजयी महामात्यराणकश्रीमालवेवे श्रीश्रीकरणादिसमस्तमुद्राव्यापारान् परिपंययतीत्येवं का-" ले प्रवर्तमाने इह श्री सोमनाथदेवपत्तने परमपाशुपताचार्य महापंडित ___ महत्तरधर्ममूत्ति गण्डश्रीपरवीरभद्रपारि 'मह' श्रीअभयसीहप्रभृतिपञ्चकुलप्रतिपतो तथा हुमजवेला फूले अमीर-धीरुकनवीनराज्ये परिपंथयति सति कार्यवशात् श्री सोमनाथदेवनगरं स १०. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ११. मायाहुमुं जदेशीय खोजानो '० ब्राहिमसुतनाखू' नोरदीनपीरोजेन श्री१२. सोमनाथ देवद्रोणीप्रतिबद्ध महायणतिः पाति प्रत्ययवृहत् पुरुष ४० श्रीपीलुगिदेव१३. बृहत्पुरुषराणक श्री सोमेश्वरदेववू [हत्यु ]रुष ठ० श्रीरामदेववृहत्पुरुष ८० श्रीभीम१४. सीहबृहत्पुरुषराम ठ० श्रोछाडाप्रभृतिसमस्तमहण लोकप्रत्यक्षं तथा समस्त जमा१५. यप्रत्यक्षं च राजश्रीमानसीहसुतवृह० राजश्रीछा [डा ] प्रभृतीनां पारर्थात् श्रीसोमनाथ१६. देवनगरबासीकोत्तर्या महायणपाल्यां संतिष्ठमानभूषण्डं नवनिधानसहि १७. तं यथेष्टकामकरणीयत्वेन स्पर्शनन्यायेन समुपात्तं । ततः नाखू० पीरोजे१८. न स्वधर्मशास्त्राभिप्रायेण परमधामिकेण भूत्वा श्राचन्द्रावकं स्थायिनीकी प्रि१६. सिद्धचर्यं श्रात्मनः श्रेयोऽथं उपर्यालापितभूषंडस्य स्थाने पूर्वाभिम (सु) खमिजिगिति२०. धर्मस्थानं वृह० 'राज'० श्रीछाडासखायत्वेन धर्म्मबांधवेन कारितं नाखू० पीरोजेन २१. श्रस्य मिजिगितिधर्म्मस्थानस्य वर्त्तापनार्थं प्रतिदिनं पूजादोपतेलपानीयं तथा मा२२. लिममोदिनमासपाठक तथा नोविसकानां समाचारेण बरातिराबियतमराति२३. विशेषपूजन महोत्सवकारापनार्थ तथा प्रतिवर्ष छोहचूनागभग्न विशीर्णसमारच२४. नाथं च श्रवणेश्वर देवीयस्यामपतिश्री परत्रिपुरान्तक तथा विनायकभट्टारक२५. पररतनेश्वरप्रभृतीनां पाश्र्वात् उपात्तश्री [सो ] मनाथ देवनगरमध्ये श्री वलंब२६. रथीयसमग्र पल्लडिका नानामुखतृण छाद्य कचेलुकाच्छादितगृहैरुपेता तथा उत्त२७. राभिमुखद्विभौममठसमेतापरं श्रस्या मध्ये सूत्र सूत्र० कान्हे श्रासक्तपूर्वाभिमुखगृहै२८. बाह्य चतुराघाटेषु श्रव्यप्राकारोपेता उत्तराभिमुख प्रतोली प्रवेशनिर्गमोपे२६. ता यथावस्थितचतुराघाटन विशुद्धा यथाप्र सिद्धपरिभोगा तथा घाणी १ सक्तदानपलं ३०. तथा अस्या मिजिगिति अप्रतः प्रत्यय० निर्मात्यछ [[ ] डासोढल सुतकील्हणदेव तथा ठ० ३१. सोहणसुतलूनसीहधरणिमसूमा तथा बाल्यर्थ करणेणाविष्ठितराण० प्रासधरप्रभु३२. तीनां पार्थात् स्पर्शनेनोपातं हृट्टद्वयं एवमेतत् उदकेन प्रदत्तं ॥ श्रनेन प्रायपदेन ३३. श्राचन्द्रग्रहतारकं यावत् नौ० पोरोजसक्त मिजिगितिधर्मस्थानमित्रं नौ० पोरो३४. जश्रेयोऽयं प्रतिपालनीयं वर्त्तापनीयं भग्नविशीष्णं समारचनीयं च ॥ श्रनेन श्राय३५. पदेन धर्मस्थानमिदं वर्त्तापयतां प्रतिपालयतां तथा विशेषमहोत्सव पर्व्वव्यये ३६. कुर्वतां च यत्किचित् शेषद्रव्यमुद्गरति तत्सर्वं द्रव्यं मषमिदीनाधम्र्मस्थाने प्रस्थाप३७. नीयं ॥ अस्य धर्मस्थानस्य प्रायपदं सदैव जसा थमध्ये नाखुयानोरिकजमाथ त३८. या खतावसहित समस्त शहडसक्तघट्टिकानां जमाय तथा चुणकरजनाथ तथा प३६. पतीनां मध्ये मुशलमानजमाथप्रभृतिभिः समस्तैरपि मिलित्वा श्रायपदमि४०. दं पालनीयं धर्मस्थानमिदं वर्त्तापनीयं च ॥ I दाता च प्रेरकश्चैव ४२. ४३. परिशिष्ट ये धर्मप्रतिपालकाः । ते सर्वे पुण्यकर्माणो नियतं स्वर्गगामिनः || यः कोऽपि धर्मस्थानमि पातकदोषेण लि [ ५२१ · दं तथा श्रापदं च लोपयति लोपाययति स पापात्मा पंचमहा प्य[ते] नरकगामी भवति ॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा सं० ८ (पृष्ठ ३६८) सूरज मडू (Mudu) द्वारा, कोरॉसी, चूडवाड़ का शिलालेख (संसार से समस्त मनोध्वान्त का नाश करने हेतु सूर्य को नमस्कार करके) , सहस्रकिरणों वाले, अन्धकार का नाश करने वाले, पृथ्वी और पहाड़ों पर प्रकाश फैलाने वाले, कमलों को विकसाने वाले सूर्यदेव ! मैं तुमको नमस्कार करता हूँ। ऐसे सूर्य से उत्पन्न वे राजपुत्र हुए जिन के अश्व-खुरों के नीचे (शत्रुओं) का गर्व अन्धकार में दब गया । इन में से एक ब्राह्मण-जाति (Bramin race) का चक्रवर्ती राजा हुमा । वह विद्वान और वीर था, छत्तीसकुली राजपुत्र उसकी आज्ञा मानते थे। उसका निवास स्थान ........... अचल (प्राब) (Rabarri Achil) की तलहटी में मरुस्थली के मण्डल में था । उसी के वंश में बहुत सी पीढ़ियों बाद लूणङ्ग (Lonung लूणिग?) पृथ्वीपति हुअा; अपनी विशाल सेना, शस्त्रास्त्रों और नौ-सेना के बल से उसने सौराष्ट्र पर अधिकार प्राप्त कर लिया। उसका पुत्र भीमसिंह परमवीर और योद्धा हा। उसके पुत्र लवणपाल ने अपने पड़ोसियों का धन लूट लिया । उसका पुत्र भी महान योद्धा, अभिमानी था और अपने भुजबल के कारण सूर्य के समान प्रचण्ड था ऐसा भूमिपाल परम प्रसिद्ध हुआ, जिसका पुत्र लक्ष्मणसिंह था । वह (Panihul ? ) से जूनागढ़ चला पाया; वह इस इन्द्रपुर का साक्षात् इन्द्र था । उसका भतीजा राजसिंह था जिसने नव-मण्डलों को एक ही राज्य में सुदृढ़ किया। उसका पुत्र खेमराज राजाधिराज था । उसका पुत्र सोमब्रह्म और उसका बेनगज परमपराक्रमी हुआ। सौराष्ट्र में बहुत से पाप-मोचन स्थल हैं... श्रीमत् खंगार था। श्रीमोहम्मद बहन्मद पादशाह (Sri Mohummed Brehummud Padshah) ने गिरनार में भी अपनी प्रान फिरवा दी और खंगार और उसके भाई भीमदेव के अतिरिक्त सभी से अपने 'दीन' (धर्म) का मान करवाया। उस (खंगार) की बहन रतनदेवो थी जो राजसिंह को ब्याही गई । उसी का पुत्र मूलदेव था जिसने कोरासी (Koraussi) बसाया। उसका पुत्र मूलराज [?] (Mooraj) था जो मत्तगज के समान था। उसका पुत्र शिवराज और उसका मालदेव हुआ । सूर्यदेव को पहले ही विदित था कि उसका पुत्र यहाँ पर सूर्यमन्दिर का निर्माण करावेगा। मालदेव ने इसे बनवाया । उसकी पत्नी परमार-कुल की बनलादेवी सीता के समान पतिव्रता थी। हवन-यज्ञादि के अनन्तर सूर्य-प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई। (इसके बाद भतीजे भतीजियों के कुछ नाम दिये हैं जिनमें मूलराज बाघेला का भी नाम है) संवत् १४४५, फाल्गुन बुद ५, सोमवार । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५२३ सं० १ (पृ० ३८५) [ इस लेख का भी पता नहीं चलता सं० १० (पृ० ३८५-८६) (दामोदर कुण्ड में रेवती-कुण्ड पर (लघु पत्थर पर उत्कीर्ण) लेख का अनुवाद) श्री गणेशाय नमः; जिसकी कृपादृष्टि के लिए योगीश्वर और मुनीश्वर निरन्तर आकांक्षा करते हैं उसको नमस्कार । जिसने गोपियों' का दधि लूटा, जिसके हाथ यशोदा' ने दाम' (रस्सी) से बाँध दिये थे वही सृष्टिकर्ता विष्णु दामोदर (के रूप में) यहाँ विराजमान हैं। पुरातन काल में यदुवंशी माण्डलिक नरेश था । वह शत्रुओं के लिए खिलाड़ी (Athlete) के मुद्गल' [मुग्दर] के समान था। वह लक्ष्मी का कृपापात्र था और भूपतियों को उसका आदेश मान्य था । उसके वंश में महीपाल हुवा जिससे पृथ्वीश्वर खंगार' की उत्पत्ति हुई । वह कैसाक था ? शत्रुओं का मर्दन करने वाले [मत्त गज के समाम । उसने सोमेश्वर' के स्थान का निर्माण कराया और ब्राह्मणों को नित्य रजतमुद्राओं का दान किया। उसके जयसिंहदेव नामक पुत्र हुआ जो प्राचीन नन्द के समान था। वह कैसाक था ? ऐसा जिसने चारों वर्गों और आश्रमों (Aterums) का रक्षण किया। उसके विक्रमसिंह हुमा जो शत्रु-रूपी गज पर सदा विजयी होता था। उसकी समानता कौन कर सकता था? बड़े-बड़े बलिष्ठ मुकुटधारी हो चुके हैं, स्त्रियों ने कितने ही पुत्रों को जन्म दिया है परन्तु उस सामन्ताग्रणी के समान कोई नहीं हुआ। उसके माण्डलिक हुआ जिसका पुत्र भाग्यशाली और शरणागतवत्सल मेलग था। उसका पुत्र जयसिंह था जिसके राज्य में वीराग्रणी अभयसिंह यादव हुमा, ' गोचर-भूमि बज को ग्वालिन, जहाँ कृष्ण अथवा कन्हैया का जन्म हुआ था। २ कन्हैया की माता। 3 बही बिलौने की रस्सी (नेता)। ४ लकड़ी के बड़े-बड़े हत्थेवार लट्ठ । इन्हें व्यायाम के अध्यापक प्रयोग में लाते थे। ५ जिस प्रासाद का चित्र दिया गया है उसका निर्माण इसी खंगार ने कराया था। ६ सोमेश्वर अथवा सोमनाथ-'चन्द्रमा का स्वामी यह शिव की उपाधि है और सूर्यदेवता पर भी लागू होती है। . 'माण्डलिक' यद्यपि व्यक्तिवाचक संज्ञा है,परन्तु यह एक उपाधि भी है 'मण्डल का अधिपति'। इस नाम का और 'खंगार' का परम्परामों में खूब निर्वाह हुमा है। जूनागढ़-गिरनार की प्रत्येक वस्तु इनमें से किसी न किसी एक से अवश्य सम्बद्ध है। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा जो जिजरकोट की तलहटी' में अपने शत्रु जवन' का विनाश करके पुण्यपथगामी' हया। संवत् राम, तुरङ्ग, सागर, मही, वैशाख मासे (सुदी) पञ्चमी ब्रिगुबसरी (भृगुवासरे) अथवा शनिवार के दिन यह पवित्र स्थल समर्पित हुअा और यह लेख स्थापित किया गया। __सं० ११ (पृ० ३६६) सं. १-तेजपाल और बसन्तपाल-बन्धुनों द्वारा निर्मापित चन्द्रप्रभ-मन्दिर का शिलालेख। पवित्रता के सागर-समान यदुवंश में इन्दु नेमीश्वर हुए जिनके चरणकमलों का अनुसरण करते हुए परमोच्च उज्जयन्ति' तक चढ़ कर यदुवंशियों के झुण्ड के झुण्ड युग-युग से नेमिनाथ" के चरणों में मस्तक नवाते आए हैं। विक्रम संवत् १२०४६, बुधवार फाल्गुन'° मास को ६ तिथि को श्री ' किसी भी किले या गढ़ी को पहाड़ी के नीचे बसे हुए नगर या कसबे को तलहटी कहते हैं। परन्तु, मुझे इस नाम के किसी किले का ज्ञान नहीं है, यद्यपि अबुलफजल ने सौराष्ट्र के पाठवें उपविभाग (जिले) में 'झमिर' नामक बन्दरगाह का जिक्र किया है। • हिन्दू लोग 'जवन अथवा यवन' शब्द का प्रयोग यूनानी और मुसलमान, दोनों के लिए करते हैं। ३ राजपूत का 'पुण्यमार्ग' वही है जो रोमन का है अर्थात् पुरुषार्थ ; यह अभयसिंह अर्थात् निर्भीक सिंह के लिए यहाँ प्रालंकारिक भाषा में कहा गया है कि वह युद्ध में मारा गया। ४ गूढ तिथि ५ इन्दु अथवा चन्द्र से उत्पन्न वंशों में यदु (यादव) मुख्य है । सम्भवतः नेमीश्वर इस वंश के संस्थापक थे । 'नेम' अर्थात् 'नींव' और 'ईश्वर' अर्थात् स्वामी । • उज्जयन्ति अथवा उजैन्ति गिरनार का ही एक नाम है। देखिए पृ० (३६८) • इससे ज्ञात होता है कि निस्सन्देह यदुवंशी बुध अथवा जन-मत के अनुयायी थे। वास्तव में, नेमनाथ अथवा प्रसिद्ध रूप में नेमि (जो कृष्ण वर्ण के कारण अरिष्टनेमि कहलाते थे) यदुवंशी ही थे और श्रीकृष्ण के समकालीन ही नहीं वरन् समानु (Samadru) [समुद्रविजय के पुत्र होने के कारण बहुत निकट-सम्बन्धी भी थे । वस भाइयों में बसुदेव सब से बड़े और समानु सब से छोटे थे। [प्रा. हेमचन्द्र रचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र के अनुसार समुद्रविजय सब से बड़े थे और वसूदेव सब से छोटे । अनु०] ८ मुझे विश्वास है कि इस संवत् में शून्य के स्थान पर ३ का अंक होना चाहिए और यह सवत् १२३४ होगा जैसा कि आगे वाले शिलालेख में है। बुधधार का नाम बुध के कारण पड़ा है। नया काम प्रारम्भ करने के लिए यह दिन शुभ माना जाता है। ।' फाल्गुन वसन्त ऋतु का मुल्य महीना है। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५२५ चन्द्रप्रभ की प्रतिष्ठा हुई। श्री राज ठाकुर सामन्त भोज के राज्य में, उसका पुत्र असेरराज [पासराज] और उसकी पत्नी श्रीकुंमरदेवी [कुमारदेवी] जिससे श्रीलूनीराम [लूणसिंह] उत्पन्न हुआ। तेजपाल और बसन्तपाल दोनों भाई ललिता देवी' और पुत्र श्रीमाल [पोरवाल] जातोय थे, सं. २- ऊपर वाली चन्द्रप्रभ-मन्दिर की ही शिला पर रेवाचल' पर स्थित यह नेमीश्वर-तीर्थ विविध प्रकार के रत्नों से सुसज्जित है जिनको धनिक व्यापारी दूर-दूर के समुद्र-तटों से लाए हैं, सं० १२२७, श्रीशत्रुज और उज्जयन्ती [दोनों ही] महान् पूजा-स्थल हैं और यात्रियों के समूह निरन्तर यहाँ आते रहते हैं। इस देवस्थान का जीर्णोद्धार और इसकी सज्जा चालुक्य वीर' महाराज राज श्रो.....................""ने कराई। (त्रुटित) सं. ३ ~ मल्लिनाथ के मन्दिर का शिलालेख संवत् १२३४५ पौष मासे ६ तिथो श्रीगुरु गिरनार-तीर्थ पर वणिक् तेजपाल और वसन्तपाल ने अपने पिता राजपाल [प्रासराज] सहित श्रीपाटन के श्रीकुमारपाल के राज्य में तीर्थरत्न उज्जयन्ति-गिरि पर मेरु-मण्डलसदृश श्रीमल्लिनाथ, श्रीचन्द्रप्रभ और आदीश्वर के मन्दिरों का साथ-साथ निर्माण कराया। __सं. १२ (५० ४०३) गिरनार के शिलालेख सं. १ – महान् नेमनाथ के मण्डप के स्तम्भ पर सं० १३३३, वैशाष सुद १४, सोमवार। श्रीजिन सिरोबोद सूरी (Sri jin ' ललितादेवी हन दानवीर बन्धुनों में से किसी की पत्नी अथवा उनकी बहन या माता थी। [ललितादेवी वस्तुपाल की धर्मपत्नी थी।] • सौराष्ट्र के भूगोल में इस पवंत-श्रेणी का प्राचीन नाम रेवाचल मिलता है। 3 इस मन्दिर की सजावट में मुख्यतः जिस पाषाण-रत्न का प्रयोग हुमा है वह jaune antique नामक संगमर्मर से बहुत मिलता-जुलता है । सम्भवतः इन 'लक्ष्मीपुत्र पणिकों' ने इसको म्याँस हुरमज (Myas Hormus) अथवा लाल समुद्र के किसी अन्य बन्दरगाह से प्राप्त किया होगा जहाँ की खानों पर बाद में रोमन लोगों का दखल हो गया था। ४ इस मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने वाला चालुक्य राजा कोई तत्कालीन प्रणहिलवाड़ा के राजवंश का ही छुट-भाई होगा । उस समय के राजपूत राजा साधारणतः जन प्रषवा बुष के धर्म को मानते थे, इस बात का एक प्रमाण इससे प्राप्त होता है। ५ संवत् १२३४ या ११७८ ई० । इससे ऊपर वाले शिलालेख को सही तिथि ज्ञात हो जाती है. जो १२०४ के स्थान पर १२३४ होनी चाहिए। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा Siroboda Sooree) की प्राज्ञा से ऊजा सूर (Ooja Sroor) श्रावकगुरु और उसके पुत्र बीरपाल व हीरा लखू ने महान् तीर्थ उज्जयन्ति पर नेमेश्वर-मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया; इस कार्य के निमित्त उसने २०० मोहरें अपनी ओर से दी और २००० मोहरें ब्याज पर उधार दी। सं. २ - राजा सम्प्रति के मन्दिर का शिलालेख संवत् १२१५२ चैत मास ८, रविवार, उज्जयन्त-गिर-तीर्थ पर यह देव चूली (मन्दिर के चारों ओर कोठरियाँ) शक्ति राजा चोमालि सिन्धेरन (Sacti Raja Comali Sindherana)' ने शाके शालिवाहन ..............." में कराई । सूर्यवंशी जसोहर और ठाकुर सोदेव (Sodeva) ने प्रवेश-द्वार का निर्माण कराया। ठाकुर भरत और अन्यों ने एक टाँका खुदवाया । ' संवत् १३३३ वर्षे ज्येष्ठ पदि १४ भोम श्रीजिनप्रबोधसूरिसगुरूपदेशात् उच्चापुरी-वास्तव्येन घे० प्रासपालमत श्रेहरिया. लेन प्रात्मनः स्वमातृहरिलायाश्च श्रेयोऽर्थश्रीउज्जयन्तमहातीर्थे श्रीनेमिनाथदेवस्य नित्यपूजार्थ ७० २०० शतवयं प्रदत्तं । अमीषां व्याजेन पुष्पसहना २००० येन प्रतिदिनं पूजा कर्तव्या श्रीदेपकीय-प्रारामवाटिकासस्कपुष्पानि श्रीदेवकपंचकलेन श्रीदेवाय कटापनीयानि ।। ग्रन्थकर्ता ने संभवतः ऊपर के लेख का अनुवाद किया है । इन पंक्तियों का ठीक-ठीक अर्थ यह है कि "संवत् १३३३ के वर्ष में ज्येष्ठ वदि १४ मंगलवार को श्रीजिनप्रबोधसूरि सद्गुरु के उपदेश से उच्चापुरी-निवासी सेठ प्रासपाल के पुत्र सेठ हरिपाल ने अपने और अपनी माता हरिला के पुण्यार्थ श्रीउज्जयन्त महातीर्थ में श्रीनेमिनाथदेव के नित्यपूजा-निमित्त २०० द्रम्म प्रदान किए । इन द्रम्मों के ब्याज से २००० पुष्पों से नित्य पूजा होनी चाहिए; श्रीदेवकी पारामवाटिका में से श्रीदेव के पञ्चकुल द्वारा श्री देव के निमित्त [ये पुष्प] प्राप्त किए जावें ।" परन्तु, दोनों लेखों में मास और वार का अन्तर विचारणीय है। . ११५६ ई० में कुमारपाल पश्चिमी भारत का सम्राट् था। - 3 इस विरुव से यह सिद्ध होता है कि यह राज-यात्री, जिसने इस देवचूली (धर्मशाला) का निर्माण कराया था, सिन्ध का राजपूत राजा था। उस समय तक सोढा राजानों ने बहुत प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर ली थी। वे 'राणा' पदवी भी धारण करते थे। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट • खंगार के महलों के दरवाजे पर I ( गिरनार की वन्दना के बाद) यदुवंशी श्रीमाण्डलिक' नरेश्वर ने नेमनाथ के मन्दिर का विस्तार कराया। उसके नवघन (Nogan ) हुआ, नव खण्डों पर उसका अधिकार था; वह दयालु उदार और दानी था; उससे महीन्द्र महीपाल उत्पन्न हुआ । प्रहुसपत्तन ( प्रभासपत्तन) में उसने सोमनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया | उसका पुत्र खंगार * हुआ जिसने अपने शत्रुओं के फलवृक्षों पर अधिकार कर लिया । उसका पुत्र जयसिंहदेव था । उसका लड़का मोकल हुआ । उसका सुत मोलग ( मूलग ) था जिससे महीपाल उत्पन्न हुआ । उसका पुत्र माण्डलिक हुआ जो सौराष्ट्रमण्डल का अधिपति और भोज के समान महिमावान् था । सं. २ [ ५२७ ( इसके बाद शिलालेख माण्डलिक की प्रशस्ति के साथ समाप्त होता है जिसमें यात्रियों और साधुओं को स्पष्ट एवं आलंकारिक भाषा में सम्बोधित किया गया है - -M "क्यों याचना करते हो जब कि माण्डलिक कल्पवृक्ष विद्यमान हैं, उसी के पास जाओ, वह सदा प्रसन्न रहे ! ) सं० ४ - तेजपाल और वसन्तपाल द्वारा निर्मापित पार्श्व (नाथ) के मन्दिर के शिलालेख से सं० १२८७, फाल्गुन बुदि तीज, रविवार (१२३१ ई० ) अणहिलपुरपाटन में चालुक्य वंशी कमलराजहंस - श्रीमन्त राजावली महाराजाधिराज श्री " ( यहां लेख का महत्वपूर्ण भाग अर्थात् सार्वभौम राजा ( राजावली ) का नाम 1 इस राजवंश में 'माण्डलिक' पदवी थी जिसको धारण करने वाले चार हुए हैं; और क्योंकि प्रथम ( माण्डलिक ) पाटन के सिद्धराज (सं० ११५० - १२००) के समकालीन बँगार से चार पौढ़ी पूर्व हुआ था इसलिए इसके समय का हिसाब प्रासानी से लगाया जा सकता है। असिम ( माण्डलिक ) वह हुना जिसको महमूद बेगड़ा ने पराजित किया था । २ यह प्रायद्वीप नौ विभोगों में बंटा हुआ था । 3 सोमनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने वाले महीन्द्र ने सम्भवतः सार्वभौम राजा सिद्धराज के समय में यह पुण्यकार्य कराया था । ४ सौराष्ट्र में यदुवंशी परमप्रसिद्ध खंगार सुप्रसिद्ध सिद्धराज (जर्यासह) की देवड़ा राजकुमारी का पाणिग्रहण करने के कारण व्यक्तिगत वंर एवं स्पर्धा थी । * यहाँ माण्डलिक को स्पष्टतः सौराष्ट्र का स्वामी कहा गया है क्योंकि इस समय तक अहिलवाड़ा की दशा इतनी दुर्बल हो गई थी कि इन लोगों पर सिद्धराज द्वारा स्थापित श्राधिपत्य को इन्होंने उतार फेंका था । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा मिट गया है; लेख इस प्रकार पुनः चालू होता है ) वीरधवल' के मंत्री, सामन्तसिंह, जो गुजरात का स्वामी था और उसका पुत्र प्रह्लादन........ सं० १३ तारंगा का शिलालेख यह लेख मुझे प्रादिनाथ और अजितनाथ [के मन्दिरों] से पवित्र पर्वत के एक यति ने दिया था। इससे एक बड़े ही आश्चर्यकारक विषय का ज्ञान होता है जो तेजपाल र वसन्तपाल - बन्धुनों की अपार सम्पत्ति से सम्बद्ध है जिनके श्राबू और गिरनार पर्वतों पर कराए हुए (निर्माण) कार्यों का विवरण दिया गया है ] स्वस्ति श्रीसर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् को [ नमस्कार ] संवत् १२८४ ( १२२८ ई०) फाल्गुण सुदी २, रविवार । अणहिलपुर निवासी पोरवाल(Poorwur) जातीय चन्द का पुत्र श्रासो हुआ, उसके अखैराज और पत्नी नौकुँअर से लूणसर उत्पन्न हुआ; उसकी पत्नी मालदेवी और पुत्र बस [न्त ] पाल ने तारंगी पर्वत पर प्रथम और द्वितीय तीर्थङ्कर आदिनाथ और अजितनाथ के मन्दिरों का निर्माण कराया । सं० १४ पट्टण - सोमनाथ के स्तम्भ का शिलालेख [ इस लेख की प्रतिलिपि, ग्रन्थकार की प्रार्थना पर, पुराणी (पौराणिक ? ) रामदत्त कृष्णदत्त पत्तननिवासी ने की और उसका (अंग्रेजी) में अनुवाद बम्बई निवासी मिस्टर वाथेन ( Mr. Wathen ) ने एक विद्वान् जैन साघु की सहायता से किया ।] शाश्वत परमात्मा को नमस्कार जो पचीस सिद्धान्तों (तत्त्वों) का श्रादिस्रोत है । आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-रूपी पञ्चतत्त्वों के ग्राधार सूर्य और चन्द्रमा हैं; जो कोई इनका ध्यान करता है वह मुक्ति प्राप्त करता है और १ पुरुषार्थ का प्रतीक | - कनखलेश्वर के लेख (सं० १) से इसमें सहायता मिलती है और ज्ञात होता है कि प्रल्हादन, जिसको उस समय 'देव' उपाधि प्राप्त थी, धाराधर्षदेव का पुत्र और प्रतिनिधि था, जिसका एक छत्र चन्द्रावती नगरी पर छाया हुआ था और वह पाश्र्ववर्ती मण्डलों का ईश्वर (मण्डलकेश्वर ) था ।" मैं फिर कहता हूँ कि यह भारत - विजयी शाहबुद्दीन के प्रतिनिधि और उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन का यशस्वी विरोधी था । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५२६ इस प्रकार पूर्णता (perfection) का भी त्याग कर देता है और सर्वव्यापक परमात्मा में लीन हो जाता है । शिव को नमस्कार ! दैत्यों का नाश करने वाले लक्ष्मीनारायण समस्त विश्व में विदित हैं; वे नमस्करणीय हैं । यह श्री सोमनाथ का मन्दिर रत्नकान्ति के समान सुन्दर है और सूर्य एवं चन्द्रमा की ज्योति के समान विशाल और प्रकाशमान है । समस्त सद्गुणगणों के निधान और वर्णनीय कोशों के श्रागार यह देव, सोमनाथ समस्त दुःखों श्रोर दुरितों का नाश करने वाले हैं । सर्वशक्तिमान् प्रभो ! श्रापकी जय हो ! श्राप समुद्रतटों पर शासन करते हैं । ब्राह्मण सोमपार (Sompara) पूर्ण ज्ञाता है, वह यज्ञों के विधिविधान, नियम, ध्यान, पूजा, उत्सव और बलि आदि की विधियों से सुपरिचित है । राजा वेर (Vera) के वंश में एक शाण्डिल्य गोत्रीय नृपति हुआ जिसने एक महान् यज्ञ किया । प्रणहिलपुर- पत्तन का सम्राट् राजा मूलराज संसार का रक्षक हुन । उसने नदी पर गङ्गाघाट बनवाया; उसके पुण्यकार्य बहुत हैं। मूलराज ने पानी के टाँके, कुए, तालाब, मन्दिर, धर्मस्थान, पाठशालाएं और धर्मशालाएं (कारवां-सरायें ) बनवाईं; ग्रतः ये सब उसकी शुभकीर्ति के प्रतीक बन गए; उसने नगर, ग्राम और ग्रामटिकाएं बसाईं तथा प्रसन्नता से उन पर शासन किया । वह इस विश्व में चूडामणि रत्न के समान हुआ; मैं उसके पराक्रमों का वर्णन कैसे करूँ ? उसने अकेले अपनी शक्ति से ही संसार पर विजय प्राप्त की और फिर उसका रक्षण किया । मूलराज के पुत्र श्रीमधु ने इस विश्वविजय को पूर्ण किया । उसने अपने राज्य में प्रजानों की अभिवृद्धि की और उन्हें सुसभ्य बनाया । उसने (शत्रुओं) से निर्भय होकर राज्य किया । इस राजा का पुत्र दुर्लभराज हुआ जिसने अपने विरोधी नृपों का उसी प्रकार नाश किया जैसे शिवजी ने कामदेव को जला कर क्षार कर दिया था। उसका छोटा भाई विक्रमराज था जो पराक्रम में सिंह के समान था । उसने विशाल सेना एकत्रित करके राजसिंहासन प्राप्त किया तथा स्वर्ग की देवाङ्गनात्रों को भी वश में कर लिया; उसकी कीर्ति तीनों लोक में फैल गई । समस्त राजोचितगुणों से विभूषित इस उच्चवंशीय राजा ने अपनी प्रजा को परम सुखी किया । विजय लक्ष्मी उसकी विजय पताका धारण करती थी । इस परमार वंश में श्री विक्रम के कुल में श्रीकुमारपाल राजा महाशूरवीर हुआ । वह परमप्रसिद्ध योद्धा था और समुद्र की लहरों के समान भयानक और विशाल राजा था। अब श्रीकुमारपाल का वंश-वर्णन करते हैं- चालुक्य वंश प्रतिप्रसिद्ध है; इसमें पोढ़ी Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ] पश्चिमी भारत की यात्रा दर पीढ़ी ऐसे राजा हुए हैं जिन्होंने धर्मतरु को बढ़ाया है। ऐसे राजा, जिन्होंने धर्म और न्याय का पालन किया है। उन्होंने इन्द्र के समान प्रजाओं पर कृपावृष्टि की जैसे बादल पानी बरसा कर पृथ्वी को उर्वरा बनाते हैं। इस वंश में परमप्रसिद्ध और महावीर गुल्लराज-नामक राजा हुआ जिसने सोमेश्वर के मन्दिर का विशाल मण्डप बनवाया और प्रसिद्ध 'मेघध्वनि' नामक महायज्ञ का अनुष्ठान भी उसीकी आज्ञा से हुआ । उसका पुत्र लालक्खिया (Lalackhia) और तत्पुत्र भाभक्खिया (Bhabhackhia) हा जो परमवीर था । भीमराज उसका मित्र था; यह राजा लाल जब सिंहासन पर बैठता था तो पूर्णकलाओं सहित चन्द्रमा के समान सुशोभित होता था। उसका पुत्र जयसिंह, इस पृथ्वी पर सुयश-सहित राज्य करके स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ। उसके पुत्र राजसिंह ने सोमन्त कुमारपाल को गद्दी पर बिठाया और स्वयं राज-काज चलाने लगा। कुमारपाल का पुत्र श्रीरोहिणी महान् राजा हुआ; वह सूर्य के समान सभी सद्गुणों से मण्डित था। वह चन्द्रमा के समान परमप्रकाशमान श्रीधर-नाम से राजा हुआ। संसार का रक्षक, महाबली, सुप्रसिद्ध राजा श्रीभीम-भूपति व्यापारियों का विशेष ध्यान रखता था और उनका मान करता था। . श्रीधर राजा का वर्णन चालुक्य-वंश में यह राजा रत्न के समान उत्पन्न हुआ, चन्द्रमा के समान प्रकाशमान, समस्त सद्गुणों का निधान, श्रीराम के समान कीर्तिमान्, कामदेव के समान रूपवान्, ऐसा था श्रीधर राजा । उसमें सभी सद्गुण केन्द्रित थे । वह देवताओं का पूजन और ब्राह्मणों का सम्मान करता था; वह वास्तव में सच्चा राजा था। जिस प्रकार ईश्वर वैकुण्ठ के सभी देवताओं में श्रेष्ठ है उसी प्रकार वह इस पृथ्वी के समस्त राजाओं में श्रेष्ठ और इन्द्र के समान सर्वोपरि था। वह ऐसा उदार था कि कामधेनु के समान सब की वाञ्छाएं पूरी करता था, अत्यधिक दयावान् और विनयसम्पन्न था। पुनः, जैसे राजहंस सब पक्षिों में श्रेष्ठ है वैसे ही वह अन्य राजाओं में सिरमौर था और उसकी कीत्ति इस पृथ्वीमण्डल पर चन्द्रमा की चांदनी की तरह फैली हुई थी। श्रीसोमनाथ की स्तुति __ जैसे जल का प्रवाह मैल को धो डालता है वैसे पापों को कौन धो सकता है ? अपने भक्तों को सम्पन्न और सफल कौन बना सकता है ? ऐसे देव श्री सोमनाथ ही हैं ! यह मन्दिर तीनों लोकों में असाधारण है; भक्ति (ध्यान) के लिए अत्यन्त उपयुक्त; जिसका जन्म शुभ (घड़ी में हुआ) है वह इस देवता का ध्यान करता Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५३१ है; इस देव की महिमा सर्वविदित है, वह परमपवित्र और कल्मषरहित है । ऐसे देव शिव हैं, जिनकी स्तुति सुनने से मन पवित्र हो जाता है। वह अपने भक्तों को सभी शुभ वस्तुएं और स्वर्ग में प्रवेश प्रदान करते हैं। रत्न के समान उनका स्थान केन्द्र में है। वह अपनी सहज कृपा से कलियुग में जन्मे हुए प्राणियों के अपराध क्षमा कर देते हैं। उनको महिमा और शक्ति समस्त संसार में व्याप्त है । उनकी सदा जय हो ! सर्प जिनके आभूषण हैं, वह विश्व के स्वामी हैं, तीनों लोकों में वह ही दया के निधान हैं । पत्तन का वर्णन यह नगर देव का पत्तन कहलाता है, जहां शिवजी की कृपा से ऊँचे-ऊँचे प्रासाद, विशाल मन्दिर, अनेक उद्यान और आनन्दमयी कुजें हैं। श्रीधर का वर्णन जिस प्रकार समुद्र अपनी लहरों से पाप के पहाड़ों को भी धो डालता है उसी प्रकार श्रीधर अपनी सेना के बल पर सोमनाथपुरी में राज्य करता है। इस नगरी में श्रीकृष्ण का एक सुन्दर मन्दिर हैं; वहाँ उसका एक परम बुद्धिमान् मंत्री भी रहता है, जो दुष्कमियों और पापियों को बाहर निकाल देता है। इस श्रीधर ने [वेदों के ] कितने ही पारायण कराए हैं, यज्ञ सम्पन्न किए हैं, धर्मार्थ कितने ही मन्दिरों का निर्माण कराया है और उन मन्दिरों को उद्यानों, कुञ्जों और क्यारियों से सुशोभित किया है, शोभा और प्रकाश में ये मन्दिर सुर्वण-सुमेरु की श्रेणियों की समता करते हैं; इनमें सोमनाथ का मन्दिर बहत विचित्र है; यहां विविध भांति के कलश हैं, जो बहुत प्रकार की पताकायों से युक्त हैं, अत: यह स्थान पवित्र पर्वत [ देवगिरि ] के समान लगता है। मन्दिर के महन्त का वर्णन यहां का महन्त मानवों में श्रेष्ठ, सद्गुणों का आगार, और परम दयावान महेश्वर है। वह निरन्तर शिवपूजन में व्यस्त, महन्तोचित सभी मूल्यवान सदगणगणों से युक्त, पवित्र पूजा के विधि-विधान और सतत यज्ञों का अनुष्ठाता है । उसका मन अत्यन्त निर्मल और निरन्तर हरिभक्ति में लीन रहने वाला है ; वह विष्णु की भी पूजा करता है, जिसकी भक्ति से मनवाञ्छित फल, अमरत्व का शाश्वत आनन्द, ऐहिक ऐषणाओं और मानवीय सुखों को प्राप्ति होती है । भक्ति से उसे उन सभी पदार्थों की प्राप्ति हो जायगी जिनकी वह इच्छा करेगा; यह भक्ति शुभ है और इससे सभी प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है। इन श्रीसोमनाथ की कृपा से मनुष्यों को सौभाग्य की प्राप्ति होती है। वह सोम (चन्द्रमा) के नाथ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा (स्वामी) हैं। श्रीधर महाराज उनके कुल में विराजमान हैं, यह राजा इन देव के पुजारियों का बहुत मान करता है । राजा श्रीसोमनाथ के इस मन्दिर का भक्ति-पूर्वक सम्मान करता है; वह शिव को महिमा को नमस्कार करता है। इस मन्दिर में सन्तों का निवास है; यहां लक्ष्मी विलास करती है और शिव के चरणों का पूजन करने से समस्त दुरितों का क्षय होता है । इस मन्दिर का दर्शन करने से दुष्कर्मों का लेश भी लुप्त हो जाता है, दुःख और रोग का भी नाश होता है। - श्री विक्रमादित्य राजा के संवत् १२७२ (१२१५ ई०) में वैशाख वदु ४ थी (शुक्रवासरे) को इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई।' ' कर्नल टॉड के बाद इस लेख को मिस्टर पोस्टन्स् ने 'बॉम्बे ब्रांच प्राफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी' के जर्नल वॉल्यूम २ के पृष्ठ १६ पर प्रकाशित कराया था। इन दोनों ही लेखकों का कहना है कि यह लेख वेरावल के पास देवपट्टण अथवा सोमनाथपाटण में किसी काजी के घर के समीप खम्भे में जड़ा हुआ था। अब वह शिला, जिस पर यह उत्कीर्ण है, शहर के बड़े दरवाजे की दाहिनी बाजू किले की दीवार में जड़ी हुई है । कर्नल टॉड और मिस्टर पोस्टन्स ने वह नकल प्राप्त की थी जो मिस्टर वाष ने एक जैन प्राचार्य की सहायता से रामदत कृष्णदत्त पुराणी के समक्ष तैयार की थी और उसका अनुवाद भी किया था। मिस्टर वाघ का अनुवाद अपहिलवाड़ा के चौलुक्य-राजाओं के विषय में बहुत ही सूचनागर्भित टिप्पणियों से युक्त है परन्तु उसकी ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है। __नीचे दी गई नकल 'हिस्टोरीकल इन्सक्रिप्शन्स् ऑफ गुजरात' भा० २ में से उतारी गई है- परन्तु, इसमें क्रम पंक्तियों के प्राधार पर न रख कर श्लोकों के आधार पर रखा गया है कि जिससे पढ़ने में सरलता रहे। बड़े कोष्ठकों में प्रक्षर-पूर्ति भी कहीं उक्त पुस्तक की टिप्पणियों के अनुसार प्रौर कहीं-कहीं अपनी सूझ के अनुसार प्रयास करके करदी गई है कि जिससे लेख का तात्पर्यसरलता से समझ में पा सके और ग्रन्थकर्ता के अनुवाद तथा मूल लेख के भाव का अन्तर ज्ञात हो सके। (अनु०) श्रीधर की देवपाटण की प्रशस्ति १. [ॐ नमः शिवाय ॥ मनोमन्याविभूभ्यन्तसत्त्वमालावलम्बनम् । उपास्महे परं तत्वं पञ्चकुत्यककारणम् ॥१॥ वियद्वायुर्वह्निर्जलमवनिरिन्दुबिनकरशिवदाधारश्चेति त्रिभुवनमिदं यन्मयमभूत् । सवः श्रेयो देया [स्परमसुरनाथः सुरनरी तरूपां बिभ्राणः शिरसि गिरिजाक्षेपविषयः ॥२॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५३३ पुष्णातु स्फुरवभ्रविभ्रमभृतः कृष्णस्यवक्षस्थलप्रेङ्खस्कौस्तुभकान्तिभिः कचिता लक्ष्मीकटाक्षावलिः । या संभोगभरालसा तनुत [टे सौजन्य विन्यासभूरिव्रधमवावपावकशिखाकारानिशं वः श्रियम् ॥३।। श्रीसोमनाथायतनस्य रेखा भूमेरिवोल्गु लिरत्र भाति । अनन्यसाधारणशोभमेतत् परं पुरारेरिति सूचयन्ती ॥४॥ महीवदनपङ्कजं भवन [वास भूषाविधिनिधिः सकलसम्पदा त्रिपुरवैरिणः सम्मतम् । तवेतवतिदुःसहक्षयविनाशसिद्धो पुराशशाङ्करचितं पुरं जयति धारिधेः सन्निषो ॥५॥ अस्ति स्वस्तिमवम्बुजासननिर्भरध्यासितं यज्वभिधूमध्या (श्या) मलिता मिलाम्बरतलं स्थान प्रयोकेलिभूः । अभ्यध्यं द्विजपुङ्गवानगरमित्यद्धेन्दुचूडामणिः प्रावावष्टकुलान्वयापरचतुःषष्टय[:] स्वतुष्टयं च यत् ॥६॥ शाण्डिल्याख्योदग्रवंशाप्रकेतुर्गोत्रं ख्यातं नाम वस्त्राकुलं यत् । ऊया६. (भ)ट्टो वेषयुस्तत्र जज्ञे देवज्ञत्त्वं यस्य सान्वर्थमासीत् ॥७॥ पदीयाशीविरमरपतिकार्पण्यजनक भुनक्ति स्मायत्तं निहतरिपुराज्यं चिरतरम् । निहत्य मापालानणहिलपुरे मूलनृपतिः प्रभुत्त्वं तत्पुढेष्वकृत सुकृतार्थव्यवसितम् ।।८।। गङ्गाप्रवाह प्रतिमा बभूवुस्तस्यात्मजा माषवलल (बल्ल)भाभाः। ते मूलराजेन पुरस्कृताश्च भगीरथेनेव यशोऽवतंसा[:] ॥६॥ पापीकूपतडागकुट्टिममठप्रासादसत्रालयान् सौवर्णध्वजतोरणापणपुरप्रामप्रपामण्डपान् । कोतिश्रीसुकृतप्रदानरप त(ति:)श्रामूलराजस्त्रिभिस्तैरपासनिभव्यंधापयदयं चोलुक्यचडामणिः ॥ १० ॥ . Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा १०. १. यद्यानासु तुरङ्गमोबुरखुरान्नक्षमामण्डल क्षोदच्छन्नदिगन्तमम्बरमभूदेकातपत्राकृति । प्राशाकुञ्जरकर्णकोटरतटीरप्यु च्च गण्डोपलान्भिन्दानः पटहध्वनिः क्षितिधरश्रेणीषु बभ्राम च ॥११॥ तस्मिन् भूभुजि नाकनायकसभामध्यासिते भूपतिः प्राथ क्षितिपाललकुलिशश्चामुण्डराजोऽभवत् । प्रीत्या ग्रामवरं ददौ निजपितुमित्रा य कन्हेश्वरं यः श्रीमाधवनामधेयकृतिने तस्मै महामंत्रिणे ॥ १२ ॥ यस्योत्तुङ्गतुरङ्गताण्डवभवः पांशूत्करः सोनिका स्वःसीमासु मरुद्गणाभयमहावप्रप्रकारोऽभवत् । शक्रेणासुर(गो] []कप्रशमनं दृष्ट्वातितुष्टा स्मना निःशक्षं निदधे शचीकुचतटे चेतश्चिरेण ध्र वम् ॥ १३ ॥ तस्यात्मजस्तदनु दुलाराजनामा यस्यारिराजमकरध्वजशङ्कराख्याख्यः । पृथ्वी बभार परिपंथि शिरःकिरीट रत्ना तिच्छुरितशो]णितभद्रपोठः ॥ १४ ॥ तदनु तदनु१२. जोऽभूदल्लभो भूर्भुवःस्व स्त्रितयपठितकीतिमूतिमदिक्रमश्रीः । यदरिनृपपरेषु स्थूल[मुक्ताफलाङ्का मृगपतिपदपंक्तिलक्ष्यते चत्वरेषु ॥ १५ ॥ क्षोणीचक्रकश ... . ... ... ...। ... प्रेसत्प्रतापप्रतिहतनि खिलारातिराजन्यसैन्य । तस्मिन् देवाङ्गानानां निबिडतरपरीरम्भभाजि क्षितीश कर्णः कोर्णाभियातिभुवमभृत भुजे भोगिभृन्म[त्सरेण ।। १६ ॥ तस्मिन्न [सह्यभुवनासि जय ... ... ..."रभूज्जासहदेव ? यस्य क्षपाक१४. रकवत्प्रतिमल्लमुतिः कोतिर्जगत्सु नरिनति नटाङ्गनेव ॥ १७ ॥ पाणी कृत्य जयश्रियं क्षितिभुजामग्रे समग्रा महीमेकच्छवपरिच्छदां विदधता वीरेण वि(स्ता)रितः । येनारालिनपा... ... ... ...वढाभिभशं Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. संधुक्य क्षुभि तोर्वसभिसमुत्क्षेपः प्रतापानलः ॥ १८ ॥ तस्मिन्द्रत्वमनुप्रवृत्ते त्रैलोक्यरक्षाक्षमविक्रमाङ्कः । परिशिष्ट लोकम्पूर्ण रात्मगुणैरलङ घ्या: [ घ्य] कुमारपाल : प्रबभूव भूपः ।। १६ ।। दरि | पुरेषु व्याघ्रवित्र ] स [व] - - प्रसृमपटुको लालोढदिक्कः प्रतापः । क्वथयति धनफेनस्फार कल्लोललोलं जलनिधिजलमद्याप्युत्पतिष्णु प्रकामम् ॥ २० ॥ श्राखण्डलप्राङ्गणिके न तस्मिन् भुवं बभाराजयदेव [ भूप: ] [ उच्छारयन् भूप] तरुप्रकाण्डानुवाप यो नैगमधर्मवृक्षान् ॥ २१ ॥ यत्खङ्गधाराजलमग्ननानानृपेन्द्रविक्रान्तियशः प्रशस्तिः । बाज तत्पुष्करमालिकेव श्रीमूलराजस्तदनुदियाय ॥ २२ ॥ [तस्यानुजन्मा जयति क्षितीशः ] श्रीभीमदेवः प्रथितप्रतापः । श्र कारि सोमेश्वर मण्डवोऽयं येनाऽत्र मेघध्वनिनामधेयः ॥ २३ ॥ लू (मू) लात्मज: समजनिष्ट विशिष्टमाभ्यो भाभाख्यया सुभटभीमनृपस्य मित्रम् । लूला [ख्यया तु भ]वजीवन [पूर्णकुम्भः ] [श्री भीमभू ] पतिसभार्णवपूर्णचन्द्रः तस्याभवद्भुवनमण्डल मण्डनाय शोभाभिधः प्रियसुहृज्जर्यासहनाम्नः । यस्यात्मजः सचिवतामधिगम्य बल्लः [म्मान ] सुचिरमास कुमारपालम् ।। २५ ।। योपयेमे दयितां च रोहिणी मुमामिदेश: कम लामिवाच्युतः । श्रजायतास्यां कुलकरवाकर - प्रबोधकः श्रीधरनामचन्द्रमाः ।। २६ ।। क्षीरोदपुरपरिपाण्डुरपुण्यकीर्ति ।। २४ ।। रोगमेष [ पुरुषा] षमातनोति । [भूपालराजपरिवर्त]नमन्त्रशक्तिः श्रीभीम भूपतिनियोगिजनक मान्यः ॥ २७ ॥ [ ५३५ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा २४. माशो:परम्परा सेयमूयाभट्टस्य तायते । चौलुक्यवस्त्राकुलयोराकल्पं प्रीतिरमता ॥ २८ ॥ कान्त्या चन्द्रति तेजसा...... [मुक्त्योत्तानपदात्मजत्यखि२२. लसम्पत्या धनाध्यक्षति । [वृत्त्यासागरति प्रभावविधिना नित्यं विरञ्चत्यसो । का रामति रूपसुन्दरतया कन्दर्पति श्रीधरः ।। २६ ॥ निःसीमसं[पदुदयकनिधानहेतु राकल्पमानजनता]गुरुभिनिबद्धः । सौजन्यनी२३. रनिधिरुन्नतसत्त्वसीमा जागति चास्य हृदये पुरुषः पुराणः ॥ ३० ॥ श्रीधरोऽपि न वैकुण्ठः सर्वज्ञोऽपि न नस्तिवित् । ईश्वरोऽपि न कामारिरि[न्द्रोऽपि नचवृत्रहा) ॥ ३१ ॥ तत्रानिशं बिबुष] पादपकामधेनुमुख्याः स मस्तजनवाञ्छितवा भवन्तु । किन्त्वस्य सन्त्यभयदानवशंवदत्व विस्मेरवक्त्रविनयप्रमुखा विशेषाः ॥ ३२॥ जम्बालस्तुहिनायते पिकततिः श्रीराजहंसायते कालिन्दी जलदायते हरगलः क्षीरोद२५. बेलायते । शौरिः सीरभरायतेऽजनगिरिःप्रालेयशैलायते यत्कोा सुपयस्यते क्षितिगवी राहुःशशाङ्कायते ॥ ३३ ॥ निर्माल्यं [चन्द्रदेवो रघुपतिचरित: सेतुबन्धः प्रणाली] क्षीरोद: पादशौचाम२६. तमचलपतिदेहसंवाहपङ्कः । उच्छिष्टं पाञ्चजन्यं सुरसरिदमलस्वेदतोयोदयश्रीरित्येवं यस्य कोत[:] स्वयमकृत नुति सोमनायोऽतिश्रद्धः ॥ ३४ ॥ ... ... ... ... ..."सी त्रिलोकोमालोक्य संकीर्णनिवासमस्याः। वेधा विलक्ष: स्तुतिमाततान तवास्ति नान्या सदृशीति नूनम् ।। ३५ ॥ असो वीरो वान्तः सुचरितपरिस्पन्दसुभगः ... ... .."परिणगिरी काऽपि सुकृती। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [ ५३७ प्रमं पूर्व ज मन्यखिलगुणविस्तारमधुरं नुनाव स्वच्छन्द विमलमिव वाल्मीकिरसकृत् ॥ ३६ ॥ यदीयगुणवर्णनभूवणकोकोच्छेवया ... ... ... . ... ...गमा। मनः किमिव रज्यते _____ऽनुचितबन्दिभिर्वेधसस्तदस्य कविमानिभिनं च चरित्रमुद्योतते ।। ३७ ॥ दिदन्तावलकर्णतालविलसत्कम्भ (कुम्भश्च) रङ्गाङ्गणे यत्कोत्तिमंदमत्त वारमितातुल्यं पदा) नत्यति । रोदाकन्दरपूरण प्रणयिनो निःशङ्कमात्मभरिभिन्दन्ती तमसा कुलं कलिमलप्रध्वंसबद्धोत्सवा ॥ ३८ ॥ लोकालोकालवाला जलनिधिसलिलासिक्त [ मुक्ता वहन्ती] [शम्भोमू विलम्बिन्य खिलगुणमय रंकुरैः कीतिबल्ली। यस्य प्रालेयभानुप्रविकचकुसुमोदारतारापरागदिकच व्यापयन्ती जयति फणिपतिप्रांशुमूला जगत्याम् ॥ ३६॥ तस्य पत्न्यस्तु सावित्रीलक्ष्मीसौभाग्यदेव्याख्याः । ३२. इच्छाज्ञानक्रियाख्येया यदीशस्य शक्तयः ।। ४० ॥ ताभिर्भु धनवन्द्याभिः सन्ध्याभिरिव वासरः। [श्रीधरः]शोभते शश्वल्लोमाकीकः ॥ ४१ ।। उत्ताल[मालवतमाल वनायमानसेनागज प्रकरभंगुरितां भुवं यः । [भूयः स्थिरां सपदि मन्त्रवलेन कृत्वा श्रीदेवपत्तनमपालयदात्मशक्त्या ।। ४२ ।। प्रलयजलधिवेलोल्लोलकल्लोलगोल [चरणधरणमात्रापान] संपिष्टशलम् । दलितधरणि चक्र वीरइंपोरन बहुतृणमकरोद्यः श्रीघरो दुर्गदर्पः ।। ४३ ।। मातुः कंवल्यहेतोम्मुररिपुभवनं रोहिणीस्वामिनाम्ना ... ... ... ... ... ... ... .. केशवाद्यः । नाम्ना ता तस्य तच्छियभवनमपि... ... .."जयाख्यं [धाम] श्रीमच्छिवस्य प्रतिहतटुरितं कारितं भूरिशोभम् ।। ४४ ।। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ] ३६. ३८. ३६. ४०. ३७. किञ्चिच्छ्रीनृपनायिकाभिरभितः... ...... offer [r] दरमहारत्नस्फुरज्ज्योतिषां ४१. ४२. पश्चिमी भारत की यात्रा वो दौवारिकोsभूद [रिगिरिशिखरादाकृष्ट, गूर्जरात्रा निज निपुण गुणैः सूनुना [त्मालिगभ्यं ] [येने (ह) श्रीधरीयो ह] नगरपवे योजितस्तस्य नाम्ना प्रासादः श्रीधरेणाप्ययमयमिजयः कारित: [शङ्करस्य ] ।। ४५ ।। .. घनस्तोमाच्चमत्कारिणः ४३. नैते मेरुमहीधर... [ द्विजोत्त] मा द्विजवृद्धिभाजः ... .... चित्तवृत्ति **** ... ... ... ... fa... सततविहित श्रथक 600 ... ... 808 ... ... ... माहेश्वरव्याकरणोपमानाः ॥ ४७ ॥ ... वैशेषिका इव । 000 ... ... ... ... ... समानदीर्घाः सगुणा: । जलधि[[म]. ... 2004 ... ... *****. ⠀⠀⠀ .... ... B... ... ... ... ... add ... ... ... ... T-OM ... ... 300 for देवादागतः [ श्रीनिवासी ] [प्रतिनृपतिमतं यः पण्डितंमन्य ···] धूपोद्ध तथा... ...कथाश्रयाय मठं वि[धाय ] .... .... "जीमूतवाहन.. ..पावनो यतिपति -P ... ......... "मुनयो यथा ॥ ४९ ॥ ...f: ... ... ***D ... •••|| ४८ ।। ... श्रीधरे, “'॥ ४६ ॥ *** *** ... ... .... ... " देते ॥ ५० ॥ ...... ... 'चेतः ॥ ५१ ॥ "भूपाल कुलसद्गु •.• ।। ५२ ।। रुः । •.• ।। ५३ ।। स्याङ्जावि [धिः ] ••• ।। ५४ ।। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বহিরি [ ५३६ संख्या १५ जूनागढ़ के शिलालेख, जो पवित्र पर्वत गिरिनाल (गिरनार) के भवनों में से प्राप्त किए गए हैं। (बम्बई के मिस्टर वॉथेन द्वारा अनूदित ) । सं० १- (गणेश को नमस्कार करके) पवित्र गिरनाल का वर्णन करना मेरे लिए उचित है । पर्वतों के स्वामी इस रैवताचल पर भक्त और साधु-सन्त निरन्तर भक्ति, यश और तपस्या में निरत रहते हैं। उस पवित्र गिरनार पर एक प्रसिद्ध स्थान है जो घने जंगलों से घिरा हुआ है, उसके बीच-बीच में विशाल और सुन्दर मन्दिर हैं, जलाशय तथा अनेक धार्मिक स्थान हैं जिनसे यह पर्वत सुसज्जित और सुशोभित है । इन एकान्त स्थानों में साधु-महात्मा मद और लोभ का त्याग करके वासना पर विजय प्राप्त करते हुए विचरते हैं और सर्वशक्तिमान् परमात्मा का ध्यान करते हैं। विविध प्रकार के दृश्यों से समन्वित इस स्थान पर पुण्यात्मानों को (उनके तप के फलस्वरूप) सुख, सौभाग्य श्री... .."दूरे प्रसरणपरिते... ... .... .. .""क्षणिकमत महान्याल संरम्भसिन्धुः । ... ... ... ... ... ... ....... ... .[तवादिविमलशिवमुनि]र्माननीयो[नवेन्युः] ॥ ५५ ।। ... ... ... ... [वीक्ष्य च . पावपो अङ्गीकृता... ... ... ... ... ... ॥ ५६ ॥ ४६. [निःशेषपाण्डिमणालखण्ड भक्त्याऽस्य तुष्टः प्रतिपन्नवयंः प्रशरितमेतामयमधार] ॥ ५७ ॥ याव द्विष्णोरसि... ... ... ...। यावाणी विहरति वि(धुर्वक्तृपिण्डान्तराले(ियो)वलयमखिलं गण्डयंती यमस्य ।। ५७ ॥ [एते]... ... ... .."वेन प्रासादाः ४७. .... ... सूत्रिता: शुभाः । लिखि... ... ...[॥ ६०॥] श्रीमविक्रमनृप संवत् १२७३ वर्षे वैशाख शुवि ४ शुके [निष्पा] वितमिति शिवमस्तु ।। छ । मंगल महाश्रीः ॥ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० । पश्चिमी भारत की यात्रा और समृद्धि की प्राप्ति होती है, उनका मन सदैव परमात्मतत्त्व के चिन्तन में लीन रहता है। बहुत प्राचीन समय में गिरनाल पर कीतिमान् हरिवंश ने महान् यज्ञों और उत्सवों का आयोजन किया। कालान्तर में भी बहुत से यदु [वंशी] राजाओं ने इस पर्वत पर उदार धर्म-कार्य सम्पन्न करके स्वर्ग में अपने लिए आनन्ददायक भवनों की प्राप्ति की । बहुत-सी पीढियों बाद इस यदुवंश में माण्डलिक-नामक राजा उत्पन्न हुआ जिसके गुरु हेमाचार्य ने इस ऊंचे (पर्वत) पर श्रीनेमनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित की। अब उस राजा के पुण्य कार्यों का वर्णन करते हैं-वह महान् वीर और प्रजापालक प्रसिद्ध राजा था। उसका पुत्र महीपाल कहलाता था । अपने सद्गुणों के कारण वह इस पृथ्वी पर देवता के समान और उदारता के कारण कल्पवृक्ष के समान माना जाता था। फिर, खंगार राजा ने राज्य किया, उसके राज्य में बहुत समृद्धि हुई । उसका उत्तराधिकारी जयसिंह राजा हुआ, वह समस्त राजाओं का अग्रणी अलङ्कारभूत और राजहंस के समान सुन्दर था। फिर, इस पृथ्वी का पालक और अन्याय का नाश करने वाला राजा महीपाल हा । उस के पुत्र माण्डलिक ने सिन्धु के तट-पर्यन्त वसुन्धरा पर राज्य किया, उसकी कीर्ति सर्वत्र फैली हुई थी, उराने धर्म-पूर्वक राज्य किया, वह दयावान्, न्यायी और दीन-दुर्बलों का रक्षक था। इस प्रकार उसने सोरठ देश पर आनन्दपूर्वक राज्य किया। बड़े-बड़े और सुप्रसिद्ध राजा इस माण्डलिक के दरबार में उपस्थित होते थे और दुष्ट राजाओं के गर्व एवं अभिमान को उसने मिटा दिया था; इस बुद्धिमान् और धर्मात्मा राजा ने बहुत वर्षों तक राज्य किया। यहां एक नगर भी है, जिसमें समस्त ऋद्धियां निवास करती हैं और यह मूर्तिमान् उत्कर्ष के समान है। यहां के उत्तम शासन-प्रबन्ध से प्राकृष्ट होकर देश के सभी भागों से पा-या कर लोग बस गए हैं। यहां पर बहुत से मुकुटधारी राजा सपरिवार निवास करते हैं। अनेक कुए, जलाशय, विविध भवन और देवालय भी यहां पर विद्यमान हैं। इस रैवताचल की निरन्तर झांकी के कारण यहां के निवासियों की समृद्धि अत्यधिक बढ़ रही है। अनन्तर-काल में भी यदुवंशी राजा हुए जिन्होंने पवित्र जिन [ देव ] के आगे मस्तक झुकाया और इसके फलस्वरूप समृद्धि का उपभोग किया तथा न्यायपूर्वक प्रजा पर शासन किया। विक्रमादित्य के वर्ष १२०४ (११४८ ई०) में कार्तिक शुद ६ ठ (कार्तिक के शुक्लपक्ष) को चन्द्रप्रसाद [चण्डप्रसाद] राजा हुआ; फिर सामन्त भोज, पाशराज नन्द और कुमारदेवी; उनका पुत्र श्री लूनीराम; श्रीमालकुल; श्रीतेजपाल, जिसक । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [५४१ उत्तराधिकारी उसके बड़े भाई का पुत्र वस्तुपाल हुआ; फिर श्री ललितराज ने राज्य किया, जो संवत् १२७७ (१२२१ ई०) में महान् व्यापारी हया । इस राजा ने शत्रुञ्जय, गिरिनार और अन्य पवित्र स्थानों की यात्रा की और उत्सव सम्पन्न किए; उसने महान देवताओं के मन्दिरों का भी निर्माण कराया। महाराजा ललित चालुक्य-वंश का था। माता अम्बा को स्तुति सं० २-भय और संशय का नाश करने वाली, भक्तों के सभी मनोरथ पूर्ण करने वाली श्रीमाता अम्बिका ही वह शक्ति है, जो मनुष्यों की प्रार्थना सुनकर इच्छाएं पूरी करती है ! हम उसको स्तुति करते हैं, उसको जय हो ! सं० ३-संवत् १३३६ (१२८३ ई०) ज्येष्ठ शुद १०मी वृहस्पतिवार को रैवताचल पर पुराने और ध्वस्त मन्दिरों को उनके स्थान से हटा कर नया निर्माण कराया गया। सं० ४-संवत् १३३३ (१२७७ ई०) में वैशाख ४थ, सोमवार को श्री जनप्रबोध [जिन प्रबोध] प्राचार्य, उज्जैन के श्रीपूज्य (High Priest) के आदेश से श्रावक गणेश, उसके पुत्र वीरपाल श्रीमालज्ञातीय साह हीरा लक्खा ने स्वताचल पर श्रीनेमनाथ को मन्दिर में प्रतिष्ठित करने के लिए २०० मोहरों का विसर्जन किया और देव पूजा के निमित्त २००० मोहरें प्रतिदिन वितीर्ण की। सं०५-श्रो पण्डित देवसेन सुंग की आज्ञा से संवत् १२१५ (११५९ ई०) चैत्र शूद मी रविवार को देवताओं के प्राचीन मन्दिरों को हटा कर नया निर्माण कराया गया। सं० ६-संवत्"सरसिन्धु रण(?) (Sindhiran) में शालिवाहन नामक राजा राज्यकरता था; उसका पुत्र सुवर ठाकुर था; तथा पति शालिवाहन उसका पुत्र रुच्यपर्व। इन राजकुमारों ने बड़े-बड़े यज्ञ किए और भीमकुण्ड-मामक सरोवर का निर्माण कराया । वस्तुपाल और तेजपाल ने श्रीअम्बिका की मूर्ति गिरिनार पर प्रतिष्ठित कराई और 'रस-कुम्पिका'नामक कुए का निर्माण कराया। सं० ७-संवत् १२३४ (११७८ ई०) में पोष वद ६० वृहस्पतिवार को शाह वस्तुपाल तेजपाल ने गिरिनार पर एक विशाल मन्दिर बनवाया जिसमें श्रीमलीनाथ को पधराया । उस समय कुमारपाल' राजा पाटन में राज्य करता था जो अन्य राजाओं का शिरोमणि था। समाप्त जे. ल. कॉग्स एण्ड सन्स; ७५ प्रेट क्वीन स्ट्रीट लिंकन इन फोल्ड द्वारा मुद्रित १ इससे ज्ञात होगा कि यहाँ कुमारपाल के राज्यकाल से पूर्व तिथि अङ्कित की गई है क्योंकि उसका राज्यारोहण संवत् ११८६ निर्णीत हो चुका है। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चात् टिप्पणी पृ० ३. सहेलियों की बाड़ी का निर्माण महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (१७११-१७३४ई.) ने कराया था। टॉड साहब ने इसको 'हाडी रानी की सहेलियों की बाड़ी' लिखा है । परन्तु, महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के कोई हाडी रानी नहीं थी । यहाँ लेखक को भ्रम हो गया है। वास्तव में, महाराणा संग्रामसिंह प्रथम (महाराणा सांगा) की स्त्री हाडी रानी थी, जो बूंदी के राव नबंद हाडा की पुत्री और सूरजमल की बहन थी। उसका नाम करमेती या कर्मवती था । इस रानी के पुत्र विक्रमादित्य और उदयसिंह को महाराणा सांगा ने रणथम्भौर की जागीर दी थी और हाड़ा सूरजमल को उनका अभिभावक नियुक्त किया था, परन्तु बाद में साँगा के पुत्र रतनसिंह ने महाराणा बनने पर इसका विरोध किया था और अन्त में एक शिकार के प्रसंग में रत्नसिंह और सूरजमल दोनों कट मरे थे। (उ. रा. इ. , मुंहता नैणसी री ख्यात; वीरविनोद) पृ० २३. म्यूसीडोरा (Musidora)-जेम्स थॉमसन (James Thomson) कृत 'Seasons' नामक काव्य में म्यूसीडोरा और उसके प्रेमी डॅमन (Damon) का वर्णन आता है । डॅमन ने म्यूसीडोरा को स्नान करते हुए देखा था और वह उसी अवस्था में उस पर मुग्ध हो गया था। The Oxford Companion to English Literature by Paul Harvey पृ०६१. पर अन्तिम पैरे से पहले पढ़िए.---" सिरोही के राजा और उनके अधीनस्थ सामन्त देवड़ा जाति के हैं। यह राजपूतों की श्रेष्ठ शाखा चौहानों के अन्तर्गत मानी जाती है। पाबू के शिखर इनकी क्रीडास्थली रहे हैं और वहां से वे अरावली और बाबू से लगते हुए प्रान्त में फैल गए थे । जोधपुर के राठोड़ों द्वारा मरु में पदार्पण करने से बहुत पूर्व ही, जब वे कन्नौज नगर में राज्य-वैभव का उपभोग कर रहे थे, देवड़ों ने नांदोल, जालोर और अन्य स्थानों में छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए थे। सिरोही प्राबू और चन्द्रावती उस समय परमारों के अधिकार में था और जब तक जालोर के राजा कान्हदेव के काका ने तेरहवीं शताब्दी में कपटपूर्वक परमारों का वध करके पूर्व राज्य और उसके अधीनस्थ भागों पर अधिकार न कर लिया तब तक यह प्रान्त उन्हीं के पास रहा था। देवड़ा राजा आजकल जिस नगर में रहते हैं वह अपेक्षाकृत आधुनिक है और पुरानी सिरोही तो पहाड़ की दूसरी श्रेणी के पीछे बताई जाती है, परन्तु वहाँ जाने के लिए मेरे पास समय नहीं था।" पृ०४८१. Helots के विषय में पाद टिप्पणी पढ़िए १. प्लूटार्क ने एक संदर्भ में मदमस्त हैलॉटों (Drunken Helots) का उल्लेख किया है । हैलॉट प्राचीन स्पेन निवासी थे और कतिपय विशिष्ट अवसरों पर सुरामत्त होने का रिवाज़ इनमें प्रचलित था। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १. स्थानों के नाम अम्बा भवानी का मन्दिर, १२, १३०, ३६६ अमरावती, २६३ अमरेली, ३१५, ३१६, ३१७, ३२७ ३२८, ३६१ प्रबुद, भरबुद्द. ७६, १३० टि०, २६१, ४०८ प्रबुंदा माता का मन्दिर, ११५ परटीला, ३५६ टि. परब, अरब देश, १५३, २२८, २९३, ४५६ अरावली पर्वत, १४, ५६, १२८, १३७, प्रकाबा की खाड़ी, ४२५, ४६९ अघोर (प्रौघड़) शिखर, ३६१, ३६३ अचलगढ़, ८६, ६६, ६७, ६६ अचलेश्वर, ८२, ८८, १२१, १२३ अजमेर, ५१, १३० टि०, १४१, १५८, १६२, १७०, १७५, १८०२०७० २०६, २१६, २२२ टि०, ३०२,४७३ अजितनाथ का मन्दिर, ४०१ अटक, १६३ अडीसा, २४२ प्रणहिलवाड़ा मन्हलवाड़ा अनुरवाड़ा (Annurwarra) नेहलवाड़ा (Nehalvare) नहरोरा (Naharora) पण हलनयर १५, १६, ६२, ६६, १०३, १०८, १११, १२८, १२६, १३१, १४६, १५२, १३, १५६, १६०, १६१, १६३, १६४, १६६, १७०, १७१, १७२, १८०, १८३, १६०, १६३ टि०, १९६,१६७, १९८, २१०, २१८, २२१, २२४, २२७, २३०, २३३, २३४, २३७, २४१, २४३, २४४, २४६, २५०, २५१, २७१, २७२, २९९, ४०१, ४०४, ४१८, ४४४, ४६१, ४७०, ४६५, ५०२ प्रतलान्तिक समुद्र. ५०३ अफीका, १५३, १९६ अरिसर, ४८४ अरोर, ४७५ अलहम्बा, अलहम्बा के भवन, ७६, ११३, २३८ प्रवन्ति गिरि (गिरिनार-शिखर) ३८० अवन्ती के खण्डहर, १४१ अष्टारॉय नगर (Astaroth) ३५० टि. अस्सा पुरी यवन की मज़ारें, ४३८ असीरिया, २७६ टि. अहमदाबाद, ८६, १२६, १३२, १४२, २२४, २४२, २५०, २५१, २६४. २६५, ३०३, ३२२, ४८३, ४८७ प्रॉक्सस (Oxus) नदी, ५५, ४७४ पाकला, ३१५ प्रागरा नगर, १० टि०, १७, ११३, ४६८ प्रादिपुष्कर, ३३४ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ] आदिवास (गाँव) २३ माबू. ७, २६ ८ १० १००, १०४, ११३ ११५, १२५, १३०, १७२ टि० २१६ २४२, २६६, ३०३, ३४७, ५०२ बेसिन (सिन्धु ) ६ मेट, ठिकाना (मेवाड़) १२ टि० श्रम्बेर, श्रामेर, अमीर, ७६,२१७, २२३, ४८६ श्राया माता का मन्दिर, १३६ आरबदरी, ४५३ धरमरा द्वीप, ४३७, ४३६, ४४४, ४४५, ४५० श्रारासरण, १२६, १३७ आरोर (नगर) १३२ आसिया भादरा गाँव, ४२६ इंगलैण्ड, ५०१ इजराइल, ५४ टि० इटली, ३२३ इन्द्रप्रस्थ, १६२ इरिनस, इरिनोस की खाड़ी, ४५३ इसरियो गाँव, ४१२ ईडम नगर, ४२५ ईडर, ३० २७६ टि०, ३५० ईरान, उंछ, ऊंच देश, १६१, १६७ उज्जयन्त गिरि (गिरिनार - शिखर ) ३५० उज्जैन, १८४, २३२, २३३, २५५, २६१ उणियारा, उरिण्याला, उनियारा, २२३, ३७१ पश्चिमी भारत की यात्रा उदयपुर, ३, ६, ३१,४४,८८, ५०२ उदयसागर बान्ध, ५ उब्रासी प्रदेश, ४८२ उमरकोट, ऊमरकोट. १६५, २३३, ४२१, ४२८, ४७६ उमराला, २८१ ऊंटवर (गाँब ), ऊनवास ग्राम, २८.२९,५६ १७ टि० ऊना ग्राम, ऊसम पहाड़ी, ४७६ ३२८, ३३३, ४२२ एक्रॉपालिस, १४६ २२६ ए ( Acre ) बंदरगाह, ३५७ एण्ट नपं (Antwerp) बन्दरगाह, एरिया (जिला ) टस्कनी, ३०८ टि० एण्डरनॉच (Andernanch ) झील, ११६ एपीनाइन पर्वतश्रेणी ४०८ एब्रो (नदी), २३९ एब्सम्बोल (Ebasambol) ४०४ एरिलॉक (Arioc, Arcake ) ११८, १६६, २०३ एरिया ( Aria ), १६८, २७३ एल्ब (Elbe ) नदी, ३२४ एशिया महाद्वीप, २२६ एस्फाल्टाइटीज नदी, श्रमण्डल (प्रोखा मण्डल ) ७, २६१, २६२, ४२१, ४३४, ४३६, ४४४ लोकवास, ४२६ ७७ योगणा (ग्राम) ६, २९, ३१. २२३ प्रोजिनी (उज्जयिनी ), २२ε ओरिया (उरिया ) गाँव, ८०, ८७ लिम्पस, ऑलिम्पस (देवगिरि), ७८ २४३ श्रौजा, ( श्राज्जा) ग्राम, श्रीरङ्गाबाद, १९६ कोटक (मंडल), २५६ टि० २६ अंजार (प्राचीन वीरनगर) ४८३, ४५८ अंतर्वेद, १८१ २१८ क्षार, कार नदी, ४२२ कनगर (मरु का नाला) १८५ टि० कालेश्वर, ( कनखलेश्वर ) ६२ कछ १८८, ४२१, ४८३, ४६२, ४६३, ४६७ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छ की खाड़ी, ७, २४, ४१८ कच्छ गज़नी, ४३८ कच्छ्रगढ़, ४३७, ४४६ कच्छ देश, १९१ कच्छ भुज, १७० कच्छ राज्य, ४८६ कचला नाळ, ७९ कठकोट, ४६२ कड़ियां ग्राम २१ ४३५ कड़ी परगना, कण्टरकोट, कन्थरकोट, ४७८, ४८ १ कन्थकोट, ४२१, ४७५, ४७८ कन्नौज, १५, १५७, १७८, १८५, १८७.१९३, २१८ कपूरथला, १६२ टि० कर्णविहार, १८२ कर्णाटक, १०२, १८३, १९१ कर्णाटक नगरी, १८२ कल्याण, १७२, १६६, २००, २०४ कल्याण कटक, १७४ कल्याण काटिका ( कल्याण कटक ) १८५, १५५ टि० १६० टि०, १६२ कल्याण (पुर), कलकत्ता, २४५ कलोरकोट, ४३५, ४४१, ४४६ कृष्णगढ़ (नगर) १० टि० कृष्ण - विलास ( कोटा ), १० टि० काकेशस पहाड़, २३२, २६१, ४६६ काटोच या गर्त्त, १६२ टि० काठी कॉलपस ( कच्छ की खाड़ी) ४५०, ४५२, ४५३ काठीवाड़ा, ( काठियावाड़) १६३, २१२, २८०, ३२५ काठीवाना, ४११ कान्तिपुर, १८५ टि० कान्यकुब्ज ( कन्नोज) १.७४ अनुक्रमणिका कानोs ठिकाना (मेवाड़) काबुल की घाटी, काबुल नदी, ३४८ टि० काबेरी, ४०७ १४१ टि० कायरा ४७८, ४८१ कालिका शिखर, ३६१ कालिन्द्री (गांव), ७२ कालीकट. १७० कालीकोट, १७१, २२२, २४५, ४५६ कॉलजिन पर्वत श्रेणी, ४०६ कालेड़ी ( भरना ), १३६ काशबिन राज्य, १७० कासगंज, १७४ काहिरा ( Cairo ), १२४ किराडू, १३० टि०, २१६ टि० कुण्डल कुण्ड, ३६२ कुतुब मीनार, कुम्भलगढ़, कुम्भलमेर, १० टि०, ५१,५६,३०२ कुम्भलमेर की घाटी, २० कुरैतर (गांव), १३७ १०६ २८ टि० कुलूनगर, १८५ कुस्तुन्तुनिया, ३७६ क्रेमलिन, ७६, ११३ कैरदेश, (कीरदेश), १६१ केरली की घाटी, ११५ [ ५४५ १२ दि० २०४, १६६ कोंकरण देश, १९९ कोंकरण श्र ेणी, १३७ कोचीन; १७०, ५०२ कोटा, ३२०, ३२२ कैरो ( Cairo ) (नगर), ५५ टि० कोंकण, (कमकम) १७०, १७२, १६१, १५, १६, १७, २२३ कोमलमेर, ४७३ कोटेश्वर, ४५५ कोठारिया ( ठिकाना मेवाड़) : १२ ट, Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिमी भारत की यात्रा कोरावर (जागीर), १२८, ३३३ कोरासी (Korausae), ३६८ कोल्हापुर, २२८ टि. कोलीवाड़ा, २४, १३० कोलूर गांव, ५६ कोलूर की पहाड़ी, ५७ खम्भात खम्भायतस्तम्भायतनस्कम्भायतनस्तम्भनगर, १५३, १८५, २२८, २६१, २६३ टि०, २६४, २६५ खम्भात की खाड़ी, २७२ खम्भात बन्दर. १८४, १६६ खरड़ क्षेत्र, ३१ खुलसना गांव, ४१२ खेड़ा, २५२, २५५ खेराबाद, (मेवाड़) ५३ टि. खेरथळ, २७६, ८१, २८२ खेरधर, २६८, २७३ खरवा ग्राम, ३१३ खोखस, २८१ खोरिया माता का तालाब, ३०२ खोह (ग्राम), ४८६ टि. गङ्गरार, १५२ टि. गङ्गाभ्यो, ६७ गजना ग्राम, २६१ टि०, २६२ गजना बन्दरगाह, २२८ गज (राव) की छतरी, ६० गज़नी, १८१, १९२ टि०, १९४, २३४, ३५८, ४१८,४५६, ४६६ गढिर", काली गढ़िया नदी, ३२८ गढ़िया प्राम, ३२६, ३२७, ३२८, ३२९ गणपति का मन्दिर, ४१५ गोशकुण्ड, ७७ गणेश घाट, ७७ गणेश मन्दिर, ७६ गया, १४१ टि० गाङ्गयी, १५२ गान्धार, १४१ टि. गिरनार (पर्वत), गोरीनर ७, १८१, १९३, २६१, २६२. ३०१, ३१६, ३२७, ३६८, ३७२ टि०, ३६७, ३६८, ४७०, ४७३ गिरवर, १२२, १२७, १२६, १३२, १३३, १३७ गिरिराज पर्वत, १० टि. गिलबॉय पर्वत, २७० टि. गुजरात (गूर्जराय) १७४ टि०, १६१, २०७, २१७, २३२ गुंणसी (ग्राम), ४८९ गुरुघातृशिखर, ३६१ गुरुशिखर, ७५, ९८, ९६, १२३ गूमलीनगर, ४१३, ४१८, ४१६, ४२२, ४२४, ४२६, ४७४ गेराजिम (बॉलबैक) नगर ३५१ गोकुल, ४०७ गोगनी, गर्जनी, गजनी; (प्राचीन खम्भात), १९६ गोगुंदा, (ग्राम, ठिकाना, मेवाड़) ६, १२, १२ टि०, १३. १४, ३० . गोगो बन्दर, २७३, २७५, २०१, २८३, २६३ गोडघ्री, १५२ टि० गोंडल, ३२४, ३२५ गोड़वाड़, (परगना), १०० गोड़वाड़ इलाका, ६८ गोध्रा, २०२ टि. गोपति प्रयाग, ३३६ गोमती नदी, ४३३ गोरखनाथ का मन्दिर, १६६ गोरज, गोजर, (गुजरात), १६६ गोरधननाथ का मन्दिर, ४३८ गोरेजा या गुरेचा, गुरीचा गांव, ४३८ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकमणिका [ ५४७ गोलकुण्डा, १६६, १७० गोहद, ४५ गोहिलवाड़ा, २६८, २८०, २८१ गौरीदर, (दरा), ३३३ गोड़ियाधार, गौरियाघार ३१२, ३१५ ग्रानाडा नदी, ७६ प्रेनाडा राज्य, २३८ ग्वालियर, ३९८ . घस्यार (ग्राम), ८, चंडावर (नागोर), १७ चन्दनावती नगरी, २५८ चन्द्रगिरि, २६१ चन्द्रभागा (हाडोती), १३२ चन्द्रावती नगरी, २४, ६२, ६६, ११६, १२५, १२७, १२८, १२६ चन्द्रौती, १३२, १३४, १४०, १६२ चन्दौती, १८८, २१६, २४१, २५१, चिन्तामरिण का मन्दिर (जैसलमेर), २९२ चिनाव नदी, १९२ टि. चिरचेई पर्वत श्रेणी, ३३५ चूड़वाड़ (चोरवाड़), ३६७, ३७० चूड़ी, ४८२ चूलिमहेश्वर, १२८ चोरवाड़ माता का मन्दिर, ३७८ चौपासनी (मारवाड़), १० टि० चोमू, ४८६ टि० छप्पन (भील प्रदेश), २६ छोटा नाथद्वारा (ोगणा) ३० जगत कूट (द्वारकापुरी), ७, ९७, ३४२, ४३७ जगन्नाथपुरी का मन्दिर, १७५ टि. जगान, १३६ टि. जंजीबार, ४५७ जॅबेल मसा (The Mountain of ___Moses), ५६ टि० जमना नदी, ४०७ जमालशाह का मन्दिर या तकिया, ३९१, चन्देरी, ४५ चम्बल (नदी), चारुमती (चर्मण्वती), २२,२३ चम्बल प्रपात, ८ चम्बा, १९२ टि. चमारनी, २५१, २८२ चरूरी (ग्राम), ३२५ चांपी ग्राम, १२८ । चालुक्य-पर्वत, १७३ टि० चावराष्ट्र (चावड़ा राष्ट्र), ४७८ चित्राङ्गगढ (चित्तौड़), १८५ चित्रासणी (चीरासणी), १३७, १३८, १३९ चित्तौड़ (चित्रकूट), १७, १२८, १३२, १६२, १६३, १८५, १८, १९७, २०१ टि०, २१६, २२७, २७४, २८१, २८२, २६५, ३००, ३५०, ४२५, ४२६ जयपुर, ७६, ३६८ जयपुर के महल, ११३ जरगा (शृंग), ५६ जरूसलम, ३०, ५५, ३५७ टि०, ३६४ जवन की खान, २३० जवास, २९, ३०, ३१ जहाजपुर, २२३ जक्षार्तीस नदी (Jaxartes), ४७४ जाबुलिस्तान, ४८५ जामुनवाडा, ३३३ जालंधर, १९१, १६७ जालोर (मारवाड़), २५, ६८, ८६, १३१, १३६, १८१, २१७ टि. जालोर का किला. ५४ जावर (को खाने), ४१ जावाला (ग्राम), ७२ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा जिञ्जिरी (ग्राम), ४११ जीरोल, ठिकाना: ३१ जुमा मसजिद, ३५४ जूमो नाळा (जवाई), ५४ जूड़ा या जोड़ा, २६ जूनागढ़, २७०, २७२, ३२९, ३५३, ३७१, ३७४, ३८३, ३८४, ३८५, ३८६, ३८८, ४१०, ४२०, ४६८, ४७३ जूनागढ़ (गिरनार), ४०३ जैतपुर, ३६१ जैसलमेर, १६०, १८६, २०१, २०२, २४८, २४६, २६२, ३५८, ४६६, जोप्पा (Joppa) बन्दरगाह, ३५६ जोधपुर (नगर), १० टि०, ५४, ७१ ७२, ७६, २६७, ४८६ जोधपुर का राजदुर्ग, ८२ जोड़ा मोरपुर, (ग्राम), ३० झालरापाटण, २४२ झालावाड़, २१२, २७२, २८०, ३२२, ४०८, ४१८ झिगरकोट, ३८६ . झिरी ग्राम, ३२०, ३२७ झेलम नदी, १९२ टि. टॅगस (Tagus) नदी, ५८ टायर (Tyre) नगर, ७,५५, १५२, ४२५ ट्राय नगर, ३६१ टि. ट्रांसोक्षियाना ट्रासोजाइना (Transo xiana) ४६, ४६६ टेडमोर (Tadmor) नगर, २३६ टोंक टोडा, २२२ टि० टोडरी (टोरड़ी), २२३ टोड़ा, १७४, २२३ ठट्ठा, ठट्ट नगर, १८१, २३१, ४७१ डच ईस्ट इंडिया कम्पनी, २५६ टि० डभोई, २०२ टि. ड्य मा, मिलान (Duma of Milan), ३५० डॅल्फॉस (Delphos), ३४०, डालपुर, ३६८ टि. डीसा, १३६ डूंगरपुर, ३१, १०८ डूंडी नदी, ३७० ढाई दिन का झोंपड़ा (अजमेर), ६६ टी० ढोक या ढंक, १५३ टि. ढांक, २२७ ढांक गिरि (गिरिनार शिखर), ३८० ढाका, ४४१ दाब (Dhab) ग्राम ३६८ तक्षशिला, २२२ टि० तगर नगर (Tagar), १९८, १९६ २३१ तन्न (थारणा), १९६ तरुणनाथ का मन्दिर, ४६० ताउलाउस (Toulouse), २२६ टि. ताजमहल, १०३, ११३ वारंगा, तारंगी, तारिंगी, १३०, २०२, २१६, २६२, ४०१ तिब्बत, १६ तिलतिलापुर पट्टण, २२७ टि. तिलापुर, ४१२ तुर्किस्तान, २७६ टि. तुरसी गांव, ४१२ तुलसी शाम, ३१६. ३२८, ३३३ तुलाई (ग्राम), ४२२ तेलिंगाना, १७० तेहरा ग्राम, ४८३ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [५४९ तोरतोना (Tortona) पर्वतीय स्थान देलवाड़ा, ८२,६८,१०३, ११४,४२२ ४०८ देलवाड़ा का दर्रा, २० त्रावणकोर, १७७ टि०. देवकूट, ४०१ त्रिचनापल्ली, ७७ टि. देवगढ़, ठिकाना (मेवाड़), १२ टि. अम्बावती (ताम्रलिप्ति), त्रिम्बावती देवपट्टण, १६३, १६८, ३००, (ताम्रनगरी), २६३ टि. देवपत्तन, २३३ त्रिभुवनपाल विहार, (बाहडपुर) देवबन्दर, १६१, २००, २१२, १६३ टि. ३४७ विसावी ग्राम, २६२ २२१, २३८ थनकण्डोल, ४१२ टि. देववन्दर, दिउ, ड्यू, २७२ थर्मापिली, ३३ देथली (देवस्थली), १८४, १६० थेराद, २२२ टि० दोबा (Doba) ग्राम. ४२३ दतिया १३३ दोबा धारजी (दोबा पारड़ा), ४२८ दम्मनगर, ३१५ दोहन (ग्राम), ३३२ दमॉऊ (दम्मन), १६६ दौलताबाद, २६० टि. दमिश्क (Damuscus) (टर्की में) द्वारका, ३५५, ४०७, ४३०, ४४७, ७२, १४८ टि० ४७० दशपुर, ४७२ टि. घडक नगर, १५३ दशाणा, दशाणोह (ग्राम), २२ धमरका, ४२८ दसाणा या दस्सारणा. २८ टि० धरडा गांव, ४२३ दहेवारण ग्राम, २६१ धानुक (धेनुका), २८५ दांतल (ग्राम), १३७ घार, १२८, १५७, १६२, १८०, २०१ दांता (ग्राम), ७४, १३८ घोलका, २६१ टि. दांतीवाड़ा, १३६ धोलारा, २८० दादूसर, (ग्राम), ४११ नखी तालाब, ११६ दामोदर महादेव का मन्दिर, ३८४ नगड़ी (ग्राम), ४२६ दारू (नाम), १३७ नयर (Nyr), १७१ दिउ, देवपट्टण, देवपत्तन, ३६५ नरबदा (नर्मदा), १३७ दिल्ली, १५, १५७, १७४, २१६, नरबॉन द्वीप, २६ २१७, २१८, ४०२, ४२६, ४५६, नरवर, ४५ ४७० नरकुण्डा, २३२ दीपक देश, १९१ नलिया गांव, ४८४ दीव (द्वीप), ४४४ नवागांव, २९ दुरगी (ग्राम), ३६१ नवा नगर, २७२, ४७७ दूधिया रा नळा, १६१, ३२८ नहरवाळा नगर, ७ देदान (ग्राम), ४२२ नहरूरा, १९६ देवला, ३१६, ३२३, ४१२, ४२६ नहरौरा, २३४ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ] पश्चिमी भारत की यात्रा नहर वाला, १०४, १४६, १६८, । पंजाब, ४६६ २३३, २६६, २८३ पनरवा, पानरवा (ग्राम), ६, २६, २२३ नागपुर, ४६ पर्सीपोलिस नगर (Persepolis), २३६ नाघेर, ३५६ टि.. पोरी या पॉवरी, थाना, (Pawori), नाणा, ५३ नाथद्वारा, ६, १६ पाटन, १७५, १७६, १८४, १८८, १६४, नांदोद २८१ २०१ टि०, २४२ ३१५ ३२२ नांदोल, १२८ पाटण (सोमनाथ), २७५ नायर क्षेत्र. ३० पातालेश्वर, ८९ नारायणसर, ४०६, ४५५ पातालेश्वर का मन्दिर, ११६ नारायणा, १७२ टि. पार्थिनॉन (देवालय), ११६ नासिक (जिला), २२८ टि० पापावती, २६२ forallat (Ninovee) पामीर, २६१ (भुजा पर्वत की श्रेणी), ४५५ पामीरा नगर (Palmyra), २३६ टि. निवाई, २२३ पारकर नगर, ३१० नीपियर (Dnieper) नदी, ३७६ टि. पारकर, १३० टि. निमाडा, ७१, ७२ पारसोली, ठिकाना (मेवाड़), १२ टि. नीमच की छावनी, ४४ पारिया ग्राम, ७२ नीमाज ठिकाना, ६२ पालड़ी, १२३ नोल (Nile) नदी, ३७ पालड़ी ग्राम, ७४ नूबिया (Nubia), ४०४ पालनपुर, १४० नूह की मजार, ४३८ पालनपुर (राज्य),पालनपुर रियासत नेटोरा गाँव, ७४ नेपल्स (Naples) राजधानी, ५८ ।। ६८, १३७, टि० १३६ नेमिनाथ का मन्दिर, ३६७ पालीताना, १७०, २८१, २८४, २६२, नेहलवरेह, (नहरवाला) १७० २६६, २६७, ३०१, ३०५, ३०६, नोसगेर (Nosgair) जिला, ३३३ ३०८, ३०६, ३१२, ३१३, ३१५, नौकोटी मारवाड़, १३० ३७२ टि०, ४३६, ५०२ पछनोरा, ३३७ पालीताना पल्ली, २८६, २६० . पजारो (ग्राम), २२ पालीताना (नगर), ७ पजौली (Puzzouli), १०५ पिराई, गांव; ५६, ५७ पञ्चालिका, पाञ्चालिका (नगरी), पीची (Pichee), ४०७ १६२, १६६, १७४, २८५ पीथापुर, २२२ टिं० पट्टण,पाटण, १६१, २२४, २४६, २४८, ३०६, ३५८, ३६८, ३६१ पोपलेश्वर तीर्थ, ३४३ पट्टण सोमनाथ, ३३६ पीरम. पंचासर, १६० टि०, २४४ पोरम टापू, २७४, २८१ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ ५५१ पोस्टम (Paestum) नगर, ४०६ बनारस, अथवा काशी, ४२, १५४ टि०, पुरज (उप जिला), ३७० १८५, ४०७ पुष्कर (तीथं), १० टि. बनास (नदी), ७, २२, १२६, २७२ पूंगलगढ, १३० टि० बम्बई, २५८, ४४१, ५०१ पेलिग्रॉन (Pelion) पर्वत, २५१ बम्बेर, १६१ पेशोवर, ४५६ बमनवाड़ा (बमनवासो), ४२१ पठान नगर, ३१० बर्दवान (वर्धनपुर), १५२ टि. पैनजान्स् बंदरगाह (Penzance), ३५५ बरडा या बड़ीरा की पहाडियां, परिस, २४६ टि. ४१२, ४२७ परिस गेट, ३२२ बरधा, ४०२ पैरोपामिसाँ (हिन्दुकुश) पर्वत बरबॉन द्वीप, २६ (Paropamisan), २६१, ३४८ बरवाड़ा, २२३ परोपैमीसस (Paropamisus) बराई द्वीप पैलेस्टाइन, २०४, ३०७ बॅरिगाजा, बॅटिगाजा (भृगुकच्छ भडौंच) पोरबन्दर, २७२, ३६१, ४१८, ४२८ बरवच प्रतिष्ठानपुर, २६३ टि. बॅरूगाजा, बेरोगाजा, १४७ टि०, प्रयाग, १४१ टि०, ४६८, ४७० २००, २०४,२२८,२२६,२३२,२३३ प्राग (इलाहाबाद) बरूनी (घाटी), १२ प्रल्हादन पत्तन (पालनपुर), १३६ बॅरोठी (ग्राम), २६ प्राची पट्टन, ४२१ बरोच, २२८ प्रासी (Prassi), ४६८ बल्खबामियां, ३६६ टि. प्रेम मोदी का टूक, ३.२ बल्हरा साम्राज्य, १६० फारस की खाड़ी, ४५६ बलदेव की फाड़, ३३० फोनीशिया, ७ टि. बॅलबॅक (Balbec) नगर, ५५ फ्रोजिया (Phrygia), ३८२ टि० बलभी, ३६३ बगदाद, १७८ टि०, २३८ । बलराम का नाला, १३८ बघेलखण्ड, बाघेलखण्ड, २२२ टि० बलसेटी, बरसेटी, ४५२ बड़वार, २८२ बस्सी. २२३ बड़ौदा, १५४ टि०. २४८, २५८, बही (गाँव). ५६ २६२, ३०१, ३०६, ३५४, ३६४, ब्रह्मखाळ, ८६ ४६४ बाइजॉण्टियम, १६८, १६८ टि०, २२८, बडौदा, वटपद्र, वटोदर, बडोदरा, वीरावती, वडवछ, चन्दनावती, बाघवती नगरी, २६३ २५८ टि. बाडोली, ५१, ६१, १३१, १३२, २४१, बडबड्डे, २५६ टि. ३४७, ४१६ बदनोर, ठिकाना (मेवाड़), १२ टि. बाडोली के मन्दिर, ३७६ बद्यार (बढियार) (वृद्धिपथिका), १६० । बानसी, ठिकाना (मेवाड़), १२ टि. Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ । बौनी कंसल, २५५ बाबरियावाड़, २८०, ३३३ श्रादम का टूक (शिखर), ३०१ बालनाथ का मन्दिर, ३५३ बालिक देश, १५३ ५१ बाली (कस्बा), बाली ( वलेह ), २८१ बालोतरा, बालोत्रा, ८२, २८१ बॉस्फोरस नदी, बाहड़पुर, १६३ टि० ३७६ टि० बाड़मेर २१६ पश्चिमी भारत की यात्रा बाहार, ४७३ बाहुबलि तीर्थ. ३५० बिरकेत - प्रल- क ( चन्द्रसरोबर ) खाड़ी, ३५६ टि० बिलाकुल ( Billacul) ( वेलाकूल) बंदर, २२० बीजापुर, १७०, ३५६ टि० बीजीपुर (विजयपुर ), ५३, ५४ बयां ठिकाना (मेवाड़), १२ टि० बीदासर, २८ टि० बुचाऊ, ४८२ बुरहानपुर, १७० बूंदी, २२२ टि० बूंदी नगर, १० टि० बेक्ट्रिया, १५२,२०० ai, ठिकाना (मेवाड़), १२ टि० बेट द्वीप, ४३६, ४३७ वेदला (ग्राम), ८ बेला ठिकाना (मेवाड़), १२ टि० बेराञ्जी ( शत्रुञ्जय ), ३७२ टि० बेरावल, ३५४, ३६३ टि०, ४३७ लावल, वेलाकुल बेनीस ( बंदरगाह ) ( Berenice), २३५ बेरूर, १२१ होती माता का मन्दिर, ३०१ बेबीलोन, २३६ बोड़िया गांव, ७२ कन ( Bonkun ), २२३ बोगांरा गांव, ४३० बोध पहाड़, ७६ बोरिस्थिनीज़ ( नीपर) नदी, ३२३, ३७६ ब्रोरा (बडोदरा ), २५६ टि० भटनेर, १८१ भडौंच, १४१ टि०, १५५, १८६, २००, २०४, ४५२, ४७१ भदेसर, ४ भद्रकाली का मन्दिर ३४७ भद्री ( बदरिकाश्रम ), ४३५ भंसबर, १६१ भलका तीर्थ, ३४३ भव बनास, नदी, ५६ भँवरथाळ, भादर नदी, ८६ ४११, ४१८ भाव नगर, २७५, २७६, २८०, २६३, ३१२, ३२२, ३२५. ४५६ भावनाथ महादेव का मन्दिर, ३८६ भाँवल ग्राम ४१२ भिन्नमाल, १७४ भींडर, ५ ठिकाना (मेवाड़), १२ टि०, १५ भीतरिल घाटी, ८२ भीमकुण्ड, ४०१ भीमकोट, ४२१, ४२४ भीमनाथ का मन्दिर, २८७, ३४३, भीमाज, भीलवाड़ा, २५१ ६४ भुजा (नगर), ७, ४६४, ४८३ भेलसा, ३७० Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ ५५३ मस्कट, बंदरगाह, ४४६, ४५६ मस्का मण्डी, ४५५ मही नदी, २६१ मांगरोल, ३५७, ३५८, ३७१, ४२३ माचल गाँव ५६, ५७ मांडलगढ २२३ मांडू ६०, १२६, २५० टि० मॉण्ट ब्लॅक (Mant Blanke), ४०८, ४०९ भैसरोड, २४३ टि० भृगुकच्छ (बरगछ), भारुकच्छ, बैरिगाजा, भडौंच, ३०८, ४५४ टि. २०४, २२८, भोगवती (भोगावती), १६३ टि. भोपाल, ३७० म्यूस, (Myus) बंदरगाह, २३५ मऊ मैदनो (Mau-Maidano), २२३ मक्का , ३६५, ४५६ मक्का देश, मक्का पाक, २६३, २६४, ३५३ मकराणा, ३०३ मकरान, १३७ मगध, ४४० मच्छन्दरी नदी, ३३३ मजी पट्टण, २८५ मेडिशिअन पुस्तकालय, २३१ टि० मण्डी, १९२ टि. मण्डोर १० टि० मण्डोवर (नगरी), १३० टि. १८१, २३३, २६७ मतारिया (Matariya) प्रान्त, ५५.टि. मथुरा, १० टि. __ मथुरा (नगरी), ४४२, ४६८ मदार, (गाँव) १३२ मधुमावती (महुवा), २६५, ३०० मधुराय का मन्दिर, ४३३ मनार की खाड़ी, ५०२ मम्बई (बम्बई), १९६, २०० मयणल (मेनाल, मेवाड़ में), २८५ मॅरॉथान, ३३ मरुदेश, १९१, १९८, २३३, २५० मरुस्थली, ३१० मल्लिनाथ का मन्दिर, ३९६ मलाबार, १६१, १७६, २०४, २३५, ४५६, ४८१ माण्डवी (नगर), ७ माण्डवी बंदर, २२६ माण्डवी, २०२ टि०, ४५६, ४५६ ४६०, ४६५, ४६८, ४६७, ४६८ मॉण्ट सेनिस (Mont Cenis), ४०६ माता शिखर, ३६१ मादड़ी (ग्राम), २६, ३०, ४३० मान्यखेट, १६८ टि. मान अग्निकुण्ड, ८८ मानसरोवर, २४२ मारमारा समुद्र (Sea of Marmara) १६८ टि. मारवाड़ १८१, १९४ टि०, २६७, ३०३, ४३५, ४०० मालवा, १९१ मालिया गांव, ३७० मावतेड़ा गांव ४६४ मावला, १६१ मॉस्को, ७६ टि. मास्क्वा नदी, ७६ टि० माहीड़ा, २०२ टि. माहोल (मावल), १२६ मिरचीखेड़ा, २२३ मिस्र, मिस्र देश, २२८, २३५, ४२५ Algrat (Meannec), YRE मीइपुर, ४१३ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा मीनगर, मीनागढ़, १८८, २३१, ३६४ । रणथम्भौर (रणस्तम्भवर), १८ टि. (मीनागर) सामी नगर, ४२३ १८२ मीनल (मेनाल), १८८ रणस्तिपुण्डी, १७३ टि० . मुकतासर, ४३० रमठ, ३४१ टि. मुकन्दरा घाटी, ३६२ राइन नदी (Rhine), ११६ मुल्तान, १६२ राई माता का शिखर, ३६१ राईपुर (राणकपुर), ६ मुलतान, १५१, १६२ टि०, २३२ राजगढ़, १८५ राजग्रह (गृह), ३०२ मूंगथाल या मूंगथल झील, १३६ राजपीपला, २६५, २८१ मूंगीपट्टन, २२७, ४२१ राजपूताना, ४६३,४६७ मुंडिया ग्राम, ४८८ राजरियो गांव, ४२६ मूसा का पर्वता १२४ राणपुर, २८१ मेरपुर या मीरपुर, २९ राणापाज २२ मेरिया (ग्राम), ७४ राधवा गाँव ५७ मेवाड़, १५८, १६३, १९१, २३०, रामपुर, ४२८ रामसर, २२२ टि. २३२, २७१, २९४, २८४, २६१, रामसेतु, १३७ ३६६, ४२२, ४८६ रायपुर बन्दर, ४६० मेवाड़ का विजय-स्तंभ ३८२ रायपुरजी (राणपुर) का मन्दिर, ५१ मेवास, ५६ राष्ट्रदेश, १६१ मेनपुरी (जिला), १६ टि० रिगी (Righi) (स्विट्जरलैण्ड में), मंसिडोन (Macedone), २८० ४०८ मैसिडोनिया, २७२ रिन-बिनाइ (Rin Binai) (भिणाय? ) २२३ टि० मोजाम्बिक बंदरगाह, २८० रीवाँ, २२२ टि. मोदी टूक, ३०॥ मोर (मरु) देवी का पर्वत, .३०० रुक्मिणी नदी, ४५५ रूपनगढ़, ५६ मोरवी, ४८३ रूपनगर, १७२, १७४, २२३, ४४१ मोरवाड़ा, ४२५ रेवती कुण्ड, ३८५ मोरवी परगना, ४४५ रेवाडो गाँव, ५६ मोहब्बतकोट, ४७६ रैवताचल, १८२ युफ्राटीस (Euphrates) नदी, ५५, रोम, १७०, २३२, २३४, ३०८ टि. २२६ रोम देश, ४७६ योगिनीपुर, ४६८ रोहा प्राम, ४८४ रणछोड़ का मन्दिर, ३३५, ४४२ लखपत नगर, ४६५, ४८८ . Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाखाराना का मन्दिर, ३५० लाटी, २८१ ३५६ टि० लाठी, लानी नदिया, ४२६ लारदेश, लारिका, १६१, १६६, १६७, १६६, २००, २२७, २२८, २७१ लालबाग़ ( नाथद्वारा ), १० टि० लालसमुद्र, ४४१ लिले ( Lille) दुर्ग, ३२२ लुवा, लोद्रवा लोदवा १३० टि०, १५६, ३३७ लूणावाड़ा, २०२ टि०, २२२ टि० लूनी या खारी नदी, २५ ५४, ८२, ४५३ लोकोट, लोहकोट ( पंजाब ), १७४, २२७, २८५, ३६४, ३७५ व्यास नदी, १६२ टि वलभीपुर, ७, १६८ वलभी नगर, वलभीपुर, अनुक्रमणिका वलभी ( बलभी), ७, ५३, १५३, १६२, १६३, १६६, २१६, २२१, २२७, २३३, २३४, २४८, २६२, २८४, २८६, ३७१ वला क्षेत्र, १५३ वला ( वलभी), वलेह ( वलभी), वसिष्ठ का श्राश्रम, ११६ वसिष्ठ का मन्दिर, ११४, ११७ वजिनी (सरस्वती) नदी, ३३६ वामनस्थली, १२८ वारासरा नगर, ४४५ वाहक (बल्ख ), ४७६ वितोद्रा नदी, ४१३ विजयस्तम्भ (दिल्ली), १८० २८२ १५४ वीजम गांव, ४८४ वीजीपुर या वीजापुर, २७ वीरगांव, ५४, ५६ वीरावती ( बडौदा ), २५८ टि० वीसलनगर, १८२ वीसलनगरी, ४१२ टि० वृषभदेव का मन्दिर, EE वेटिकन लाइब्रेरी (Vatican Library ) २३१ टि० वेज़र ( Weser ) नदी, वेद या ऊंद, ४८२ वेधम प्रदेश, वेनिस, ४०ε वेरोना ( Verona ), ३२३ वेलावल, बेलाकूल, ४७७ [ ५५५ ३६५ श्याम समुद्र, (Black Sea ) १६८ टि० श्यालकोट, ४७४ शङ्खोद्वार, ४१८, ४३५, ४४० शत्रुञ्जय, १६३ टि०, २६०, २६२, ३१७, ३२१, ३६०, ४०२ शत्रुज नदी ३२१ ३२४ शंखनारायण का मन्दिर, ४४२, ४४६ शाकम्भरी, १८१, १६४ टि०, ११३, शूद्रपाड़ा, ३३५, ३३६ शूरपुर, ४६८ शेरगढ़, ३७१ २०५ शिवदासपुर, ४२१ शिवपुरी ( पुरानी सिरोही), १६२ टि. शिवा सोमजी का टूक, ३०३ शेरगढ़ (वर्तमान लखत नगर ), ४७७ शेषकूट; सहस्र-शिखर, २६१ शौरसेन देश, ४७१ श्रीनगर, ४२०, ४२३ श्रीनाथजी का मन्दिर ( नाथद्वारा), १० टि Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] - पश्चिमी भारत की यात्रा श्रीस्थल (शिष्टे) श्रीस्थलक, १४१, __ सांडेरा (मारवाड़), २८४ १४१ टि. सादड़ी, १२ टि०, १४, ५६ स्कण्डेनेविया, ३२४ सादड़ी की नाळ, ५१ FET et alatat (Strada di Toledo) सादड़ी की घाटी, ११२ साबरमती नदी, १२६, २६३, टि०, स्तम्भनपुर, २६३ टि. २६७ सेक्सन सप्तराज्य (Sexon Heptrarchy) सांभर, संभरी, १७२ टि०, २१०, २३५ २१२ सकोत्रा, ४१६, ४२० साम्ब नगर (साम नगर), सामि नगर सतलज (नदी), १६२, १६२, ३५८, ४६६ सामनगर, ४७५, ४७८, ४७६ सतीपुर, ४३. सामीनगर, २३१, २७३ संगम नारायण का मन्दिर, ४३३ सामोद गाँव, ४८६ टि. संगवरी गाँव, ३३३ सायराष्ट्रीन (सौराष्ट्र), १९७, ४७८ संजेतीधार (कृष्णपुर), १० टि. सारणेश्वर का मन्दिर, ५० संबुलदेश, १६१ सालपुरा, graferas (Saints Pinnade), सालपुर नगर, १६९,१६७,४६६ सालसिट, १९९, २०० सनवाड़, ठिकाना (मेवाड़), ५३ सिधान का मन्दिर (Sion), ३५० सनाई पर्वत, २८६ टि सिंगुर. ३३७ सम्पू, १८५ सिंगोरा (निकुंती) झरना, ३३५ सम्मेत शिखर, २६१, ३६६ सिंदुढ (गाँव), ७४ समरकन्द, १५० सिद्धपुर, १४१, १५७, २८४ समाई (Samai), ४७६ सिद्धराज, २६३ टि. समेतरा गांव, ४३५ सिद्धेश्वर का मन्दिर, ३४० सरगूजा, सिन्ध, १६५, ४५६ सिरगुजा सिन्ध (सिन्धु घाटी), १७६, २३६, सिरगूजर. ३८ ४६ सरस्वती नदी, २१५, २४२, २७१ सिन्धु, ७, १६१, ३५८ सरहिन्द, १९२ टि. सिनाइ (Sinai) पहाड़, ५५, १२४ सरोतरा, सरोत्रा, १३५, १३७ सिरणाय पहाड़ी १३२ टि० साल्वेफर्थ (Salwayfirth), ६६ टि. सिरसोहा गांव, ३६४ सलूबर ठिकाना (मेवाड़), १२ टि. सिराफ १६६ टि. १४, ३१, ४२ सिरोंज, ३७२ टि. सहस्रलिङ्गमहादेव का मन्दिर, १६४ सिरोही, ५४, ६१, ७२, १००, १२७, सहेवान नगर, ४७४ महेलियों की बाड़ी, ३ सिहाड़ (ग्राम), १.टि. ८० Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ ५५७ ritutat elftar (Ciolo Syria), सीबू (Ccbu) द्वीप, ३६ टि. सीरिया. १४१ टि०, १५३, २३५, २६९ सीरोरिया (गाँव), ७५ सीहोर, २८२, २८३, २८६, २६२, सोरठ, २१३ सोरोंभद्र, १६२, १७४ सौती या सोती, ३१६ सौर भूमि, १५३ सौरसेन गोकुल भूमि ४२६ सौराष्ट्र, (सौरद्वीप) २५०, २७२, २८५, सुदामापुर, ४२८ सुनार का कुण्ड ३८१ सुम्भकोट, ४७१ सुमाइजा (भीलों का गाँव), २६ सुल्तानपुर, १६२ सुलेमान का मन्दिर, ३५३ सुंवेरा (गाँव), ७५ सूकड़ी नदी, ५४, ७४ सूर्यनारायण का मन्दिर (सोमनाथ पत्तन) १६३ टि. सूरजगड, ३० सूरत (सौराष्ट्र), १६१, १६३, ३०६, alerserat (Saurastrene) __ सायराष्ट्रीनो (Syrastrene), २६६ हमदान, २७७ टि. हमीरपुर (गांव), ७४ हर्षदमाता का मंदिर, ४१६, ४२७ हरमज. हुरमुज, (Hormuz). २२०, २२१, २३५, ३६५ हॅलिग्रॉपोलिस नगर (Helioplis), ५५ टि. हांगकांग, ४०६ हाड़ोती, हाडौती हारावती, १२८, २२३, ४०७, ४०० हाथी टूक (गिरनार शिखर), ४०७, हालार प्रदेश, ४१८, ४८८ हालिब (Halib). २३६ हाँसी, २१७ हिङ्गलाज माता का मन्दिर, ६६, सूरपुर (नगर). १३२ सूखामाता का मन्दिर, ४५ सेजकपुर, २८१ सेण्ट पीटर्स गिर्जाघर, ११३ सेण्ट हैलेना, ५०३ सेवलक (शैवलक), १९१ सेमूर, ३०, ५६ संमूर (अमरावती), १६ सरिका (Serica), २३२ सले रम बंदरगाह (Salerum), ३५५ सोजत (मारवाड़), १८१, २११ सांट (Sont), २२३ सोनारिका नदी, ३७३, ३७४, ३८१, ३६४,४०५ सोनी पार्श्वनाथ का मन्दिर, ४०२ सोफाला बंदरगाह, ४५७ सोमनाथ का मन्दिर, १६१, ३५४ सोमनाथ पट्टण. १९३ टि०, २२७, ५०२ हिडम्बावन, ३२६ हिडम्बा झूला, ३६१ हिर्बुज (शत्रुञ्जय) १७० हिन्दुकोट, २६१ हिप्पोकुरा, १६६, २२८ हिरण्या नदी, ३३६, ३४३ हिरम, ४५७ हिसार, ३२२ हेमखाड़ा, १६५ टि. होलूर, (हालार), ४२६ होशियारपुर, १९२ टि० Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा २. व्यक्तियों के नाम अकबर साहि, २०३, टि. अकबर, २७१, ३०३, ३६८, ३७०, ४०२ प्रखैराज, २७४, २८२ प्रगन सैन, १३२ अजयपाल, १९५; २०१, २०२, २६६, अरहिल रेबारी या ग्वाला, २६१ प्रदीत (आदित्य) (गूमली का राजा)४२२ अनंगपाल, ४२०, ४२६ अनन्तवर्मन् चोड़देव, १७५ टि. अनिरुद्धसिंह महाराव (बूंदी) १० टि. अपोलोडोटस (Apollodotus) १४१, २००, २२१, २६८, ३७३, ३८२, ४३६, ४६७ अफलातून (प्लेटो) ८५ टि. अब्बीशाह सन्त, ३३६ अम्बी रेनेडो (Ahbe, Renaudot, M. १४८, टि. अबुल फजल, १५७, १५८, १७८, १९८, २०२, २२२, २७१, ३६८, ३७०, ४११ अबुलफिदा, १४८ टि. प्रबूजद अल हसन (ग्रन्थकार) १६६ टि० अभयसिंह, अभयसिंह राजा, ६१,६२ ३८६ अभिराम, १७५ अमरसिंह, (अमरकोष का कर्ता) २११ टि० अमरसिंह (द्वितीय) महाराणा, १२ टि. अमरसिंह सेवड़ा, २११ अय्यूब या जोव नाखुदा, ४६६ अरोराज, १८८ अर्जुनदेव, १५८, ११६, २२० प्ररिकेसर, १८२, १६९ अरिष्टनेमि, १०८ अरिस्टॉटल (अरस्तू) ८४ टि. परिसिंह राणा, १० टि०, १२८, २४५ अल्तमश बादशाह, ११८ अल इदरिसी, १४६ टि० १५१, १९६, १६७, २००, २७१, २३४ अलाउद्दीन खिलजी, १३१, १५६, २२१ टि० २२३ दि० २२८, २४४, २४५, २४६, २४० अलक्षेन्द्र (सिकन्दर), ७, २६८, २८५ अल-बुकर्क, २७५ अशोककुमार मजूमदार, २१८ टि. असपति यदु, ४७६ प्रसोरा (Asora), २४५ महमदशाह, १२६, २२४, २६७ अहल्याबाई (हुल्कर) ३५४ ऑगस्टस, २३२, २३३ ऑथेलो, ५०२ प्रादिपाल, ६४ आन्न अथवा अर्णोराज. १८४ टि. द' प्रॉनविले, (D Anville)८४, १४१, १४५, १५३, १९६, ३६४, ४४६ पावरा मंछवाल, ४४७ प्राम्र, श्री पूज्य, २४६ आर्थर मैलट, मिस्टर (Arthur Mallet, ____Mr.) २३८ टि. मॉरिप्रॉस्टो, २१५ टि० पालम फीरोज, २४४ पॉलीरियस (Olearius) ६८ टि०, १३६ प्रास्तानजी राठौड़, ४३८ टि० प्रासा भील, १८२ प्रॉसिरिस, देवता, ५५ इच्छिनी, ६७ इन्द्रदमन राजा, १७५ टि०, ४२० इन्द्रवर्मन, १७५ टि. इब्न सईद, १९६, १९७, १६६ इब्राहीम, १६२, टि. इब्राहीम नाखुदा, ४६८, ४६६ इरेतोस्थिनीज (Eratosthenes)१४८ टि. Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरोटोस्थनीज, १५५ टि० ५०० इसमाइल नाविक, ईशानेन्द्र, २६५ ईसाउ ( Esau ) ४३ टि० उज्जी, उदजी, उदयसिंह राठौड़, ४३५ उजबक, ४७६ उदयन, १७३ टि० उदयन मंत्री, १६४ टि० उदय राणा, ८८ उदयसिंह महाराणा, उदयादित्य उदयामती, १८८ १८२ उब्रा सुम्मा, ४८२ उम्मेदसिंह अनुक्रमणिका उमेदसिंह राठौड़, ४३५, ४४४ उर ( श्रर), १७५ उलुग बेग, १५०, १७० ऊनड़ जाम, १७, ५३ टि० ४२७,४७४, ४७५, ४७८, ४८१, ४८६ ऋषभदास कवि, १५५ टि० २०३ टि०, एडवर्ड ब्लण्ट (Edward Blunt ) २३१ टि० एण्टोनिओ-द-सालदन्हा (Antonio-de Saldanha ) -२७४, ३६६ एण्ड्रोमीडा, २७८ टि० एरिन, १५५ टि०, १६६, २२०, २२५, २२६, २३०, २३१, २३२, ४४६, ४५३, ४७३, ४७५ एल्फिन्स्टन, मिस्टर, ४५६, ४९२ टि० एल्बोन (बादशाह) (Alboin) ३२३ टि० का (श्रोना) राणी, ६७ ओठो, जाङेचा सुम्मा, ४८२ विंग्टन, ४४६ श्रीरङ्गजेब (बादशाह), श्रालमगीर, ६, १० टि० ८० टि० १४० टि० ४३५, ४४२, ४४४ क्लाइव, लार्ड, १७७ टि० कक्कराज, १५४ टि० ककराइच काले ( सोरठ), २१३ ककुल चावड़ा, ४८३ कच्छ-रा राजकुमार, २१६-२१७ कन्ह, २१० कन्हड़देव चौहाण, १३१ कन्हाय, २१४ कन्हराय, खाण्डेराय, कह न काका २०८, २०६ कनकसेन, २३३, ३६४, ३७५ कनकसेन (सूर्यवंशी), २८५ कनकसेन चावड़ा, ४३५ कनकसेन चौहान, ४२२ [ ५५६ कनक्ष २२७ टि० कनिङ्खम, जनरल, कपर्दिन्, १६६ कर्क (कक्क द्वितीय), कटिस (Curtius ) कर्णं बाघेला, ४२१ कर्ण, २२० कर्णदेव हेला, १५८, २२२ कर्ण राजा, १४०, १४३, १५७ कर्माशाह डोसी, २६५ करनॉक, जनरल (Carnac General), १८ कल्याण (टोडा का राजा ), क्षेमराज, १०२, १८४, टि० क्षरक्षस (Xerxes), १६२ काण्ड भाई, ३१२ कान्ह, कान्ह राव, कण्डीराय, कान्हदेव, १८४ टि० कान्हड़देव, १८६ टि० कानजी राठौड़, २८१ कापडिया चारण, कामदेव (मंत्री), १८६ कॉलविल, सर चार्ल्स ३४१ टि० ३४८ टि० ५६ टि० १५५ टि० २२३ १८ कमाण्डर इन चीफ, १३४, ५०२ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० पश्चिमी भारत की यात्रा काश्मीरा देवी, १६० टि. गजपति यदुभाटी, ४७६ कांसमस (Cosmas), २३०, २६१, गयासुद्दीन, सुलतान (मालवा), ६६ टि. ३६४, ४७५ गंगदेव चोड़, १७५ टि. कीर्तिपाल, १८४ टि०, १९० गंगाबाई, १० टि. कुतुबुद्दीन बादशाह, ११८, २२० गॉग्युएट (Goguet), ३४ कुम्भा राणा, महाराणा, ६०, ६७, गाडिनर, मिस्टर; ४५४, ४६३, ४६४ १०६, ४४३ टि. (रेजीडेण्ट) कुमारपाल, . ६६, १४०, १५६, १५७, ग्राइण्डले, कैप्टेन, ४६४ टि. १५६. १६५, १६६, १७५, १८४, गाँसलिन (Gosselin), १५१ १८४ टि०, १८३, १८६, १८७, गिबन (Gibbon), ३२६, ३६४, १८६, १६३, १९४, १६५, १९७, ४१६ २००, २०१, २०२, २३४, २६५, गिरिधारीजी गोस्वामी, १० टि० २६६, २६८, २९६, ३४७, ३५६, ग्रीव्स् (Greaves), १४९, १४६ टि. ३६३, ४०१ गेरार्ड डो (Gerard Dow), ४६३ कुमारशाह, ३०० गोगरा गोहिल, २७४ कृणदेव, १९४ गोर, राव, ४५६ कृष्णदेव (मंत्री), १८६, १८६ गोरी बेलम, ३०५, ३०९ कृष्णा कुमारी, २२२ गोरी सुल्तान, ४२३ केलण मोर, २४४ गोविन्द गोस्वामी, १० टि. केसरियानाथजी, १०७, १०८ गोविन्दराय, २२२ टि. कथराइन, साम्राज्ञी, ४६७ गोविन्दराव सूबेदार, ३१० केन्यूट, बादशाह, १०० टि. चक्रायुध, २६५ कोलबक, १७७, चन्द, २१२, २१४, २१५ कोलम्बस (Columbus), ४८ टि. चन्दकवि (वरदायी), ५, १४, ६७, खंगार राव, ४०४, ४०५, ४४५, ४६४ १८०, १८१, १८७, २०५, २०६, खेंगार हमीरानी, ४८३ २७६ खलील खान (मुजफ्फर शाह द्वितीय), चन्द्रगुप्त, ४७२ २५६ टि० चन्द्रलेखा रानी, २६३ टि. खापरा चोर, ३७६ खीमराज, (क्षेमराज), १५६, १६६ चन्द्रादित्य, १७५ खुर्रम शाहजादा, ३०३ चम्पसेन (गूमली का राजा) ४२२ खुसरू शाहजादा, २०३ चाउंड, खेमजी राणा, ४२८ चामुण्ड (जामुण्ड), १५७, १७६ खेमाराजा (गूमली), ४२२ चाँसर कवि, १३ टि. गजन जाडेचा, ४५२ चिकेता (गजनी का राजा) ४७६ गज़नवी, सुलतान महमूद, ५२ टि० । चित्राङ्गद मोरी, १८५ टि. Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूड़चन्द, यदु, ४२१, ४७४ चूडा, २६७ छोनीपाल, अजयपाल, जयपाल, १५७, २०२ ज़क (ज़फर, वजीर-उल्- मुल्क ), जगडू (शाह), १८५ जगतसिंह महाराणा, ४६७ २१४ जगदेव भाट, जगदेव परमार, जगन्नाथ सम्राट्, जगमाल महाराव, जदरू खारवा, ज़फर, १३६ टि०, १५८ १५५ टि० ६६ टि० ४३६ ज़फरखाँ, वज़ीर-उल्मुल्क ३६०, ३६१ जयकल्याण सूरि, ६६ टि० जयशेखर चावड़ा, १६०, १६१ टि० जयसिंह ( कन्नौज का राजा), १५७, १९३ जयसिंह ( जूनागढ़ ), ३८६ जयसिंह महान् (आमेर ) जयसिंह, सवाई महाराजा, ७६ टि०, १५५ टि०, २२३ १२ε जसराज चावड़ा, १६१ जसोदर मोरानी, ४८५ ज़रदुश्त, २२५ जलालुद्दीन शाहजादा, १९४, १९५ जवानसिंह राणा, १४ जस्टिनस, १२५ टि० जस्टिन, २६८ २६७, जहाँगीर, ३०३ जॉन गिल्पिन ( John Gilpin ) १२२ टि० जॉन चार्डिन, सर (Sir John Chardin ) १७० जॉन प्लाण्टा जेनेट, १५६ १४६ जॉन डी बराँस (John De Barros ), अनुक्रमणिका ३२६ टि० जार्ज पञ्चम, सम्राट् जार्ज विलयम फ्रेडरिक ( George William Fredrich) बादशाह, २७७ टि० जालिम सिंह ( कोटावाला), ६, ३२१, ४६६ जावड़शाह, २६३, २६५ जावदिया घोड़ा, ४५२ जॉन विल्सन, २०४ जॉसेफस, (यहूदी इतिहासकार), जिनचन्द्र सूरि, युगप्रधान जिनदत्त सूरि २६१ टि० जिनमण्डन गरिए, १५५ टि०, २०३ टि० जिन माणिक्य सूरि, ३०३ जिनहर्ष गरिण, २६५ टि० जेठाजी राज्यपाल, जेसल १८९ जेसाजी ठाकुर, ३२५, ३२७ जेसा जाम, ४४५ ra (Jacob ), ४३ टि० जैत (परमार), १३१ २८२ जैत ( राठौड़), जैतो मंत्री, ४२२ ६६ ४५५, ४५६ टॉलॅमी, [ ५६१ जैत्र ( धाबूपति), जैनादित्य सूरि जोगराज, १५५ जोजफ कॉनराड (Joseph Conrad ), ३०४ ३२२, ३२३, ३२४, २१६ २६१ ३५० ३२६ जोधराम, ३१ जोधा राव, ७६ टि०, २६७ जोन्स, सर विलियम, ८० टि० ट्राजन (Trajan), रोम का बादशाह, १५४, १६८, १९६, ११८, १६६, २००, २०४, २२८, २६८ टिसियस ( Ctesias ), ८५ टि० Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा - टीसीअस १५५ टि. टेस्सारियस (तेजराज) ४६७ ठट्ट मुलतान का राय, १५३ डा कॉस्टा (Da Casta), ३०० डायोडोरस, १५५ टि. डायोडोरस सीक्यूलस (ग्रोक इतिहासकार) (Diodorus Siculus) २० टि. डो' अॉनविले, ४६७ डी'गुइग्नोस् (D' Guignes) २३०, ३६४ डी' हरबीलाट् (D' Herbelat) (प्राईन अकबरी का अनुवादक) १३६ टि०, डूंगरशी रावल, १७ डूंगा राठौड़, २८१ डेरियस (फारस का बादशाह). १८६,२३२ डेलॉ वले (Della Valle), ६८,६६ टि० तारक्विन, राजा (रोम), ४२४ तिमाथी (Timathy) सन्त, ४१८ तुलाजी काठी, ४७५ तेजपाल, ११०, ३६६ तेसारिकारेत्तस (तेजराज), ३७३ तेसोरिप्रस, ३८२ तैमूर, ४४४ तैमूर महान्, १५० टि. तैलिप (द्वितीय), १५४ टि. त्रिभुवनपाल, १६०, २१६ टि०, २२० त्रिलोचन पल्हव, १७३ टि. थामस हाइडे (Thomas Hyde), १४६ थीबनॉट (Thevenot), ६६ टि०, ८५ टि०, १२६, ४४६ दण्डरूप चारण, २११ दन्ति दुर्ग, १५३ टि. १७३ टि. इलपन, १७ दशरथ शर्मा, डॉक्टर, १३. दि. दाविशलीम, १७६ दामाजी, २२४, २४३ दामाजी गायकवाड, २३७ दामोजी (गायकवाड़), ३१५, ३१८ दामोदरजी गोस्वामी, १०टि० दारापरेस (धारावर्ष) (Daraparais), ६२ टि० दाहिर देशपति, ४८५ टि. दाहिर राजा, ४७५ दुर्लभ (नाहर राव), १५७, १८० दुर्लभसेन राजा, २६८ दुसाज (दूसाजी), १८६ देवा जाडेजा, ४८२ देवपति, २१० देवप्रसाद, १८४ टि. देवराज, १६६ देवलदेवी, १८४ टि० देवचन्द्रसूरि (देवचन्द्र), २४४, २४५ देसलराव, ४६५ देसल गोरानी, ४६५ देसल भारानी, ४६५ धनेश्वर सूरि, २६० घरणीवराह १३० टि. धवलाङ्ग, २१० धवल रा, २१० धारपरमार, ११८ धारावर्ष, ६२, ११०, ११८, १३१, २२०, २४६ धीतक, १७५ धुन्धवीर्य (दण्डवीर्य), २६५ धूनो (गोहिल), २८२ न्यूमॅन (Nuemann), (विद्वान्) ४६६ नन्हा दे कान्ह, २३४, ३६६ नबी पोशा (Neby Osha), ४३८ नरवर्मा (नीरवर्मा), १९६ नवधन गोहिल, २६७ मॅस्टर (Nestor). ४६६ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमाणका पेलाडिअन देवता, (Palladiun), पृथ्वीराज, २०८, २१२, २१६, २१८, २२२ टि०,४०० पृथ्वीराज चौहान, ५, १८ टि०, १३१, नागेन्द्र मोर, २४५ नासिरउद्दीन, १७० नीअरकॉस (Nearchos) १४८ टि. नीला (राजकुमारी), २५८ नूरुद्दीन (नाखुदा), ३६५ नूरुद्दीन फीरोज, २२० नेपोलियन, ३५६ टि. नेपोलियन बोना पार्ट, ५०३ नेबुचेंडनेजर, बादशाह, (Nebuchadnezzar), ३६४ नेमिनाथ, १०८ प्लिनी (Pliny), ३५, ८५, १५५ टि०, २०० प्लूटार्क (Plutarch), ३६, १५५ टि. प्लेटो, २५५ पलनसी चौहान, १३६ टि. पर्सिप्रस (Perseus), २७८ प्रताप, वीर प्रताप, महाराणा, प्रतापसिंह ___ महाराणा, २२,४१,४६, २०७ प्रतापमल्ल, २२० टि० प्रताप (सोलंकी), २०८ प्रल्हादनदेव, १३६ टि. प्रेमलदेवी, १८४ टि० प्रेमानन्द कवि, २५८ टि. प्रलदम (प्रल्हादन), १३१ पॉटिजर, कर्नल (Pottinger Colonel), ४८६ पादलिप्त, ३०८ पादलिप्ताचार्य, २६३ टि. गाल परमार, १३६, २४६ पॉसितिग्रिस (Pasitigris), १४८ टि० पिरजूण (प्रद्युम्न) पजूण राव, २१७ पीटर महान्, ४५६ पुरवोइ (Purvoe), ४७६ पुलकेशिन्, १५३ टि. पूर्णपाल राजा, १६३ पृथ्वीराज (ग्रामेर का राजा), ४८६ पृथ्वीराज महाराजा, ७६ टि० पोयला जाडेचा, ४८२ पोरस (राजा), २३२, ३८४ फतह (डाक जमादार), ४८ टि. फतह पुरी (अघोरी), ८६ फखशियर, ३ टि. फरिश्ता (इतिहासकार), १८, २६ टि०, १५८, १७६, २०८, ३५६ फालस्टाफ (Fallstaff), ३४२ - फिरदौसी (कवि), १४ टि. फीरोज, ३८३ फूल कुंवर राजा, ४२१ फूलजी जाडेचा, १८८ ब्युह लर, डॉक्टर, २१६ टि. व्यो (बी) रजी, १५६ ब्लेयर, श्रीमती हण्टर, १३३ टि. बखतसिंह (प्राट्टाभाई), २८२ बखतसिंह राजा (मारवाड़), ४६७ बंसराज, वनराज, १६१ बप्पारावल (बल्ला), १६२, १६३ बॅबशेलीम, १७६ बमनिमा (जाम का पुत्र), ४२७ बहार्ड (Burkhardt), ३६, १२४, २६४, ४०४, ४३८, ४६३, ४६६ बर्क एडमण्ड (Burke Edmond), बनियर, ६६ टि०, १३८ बहिदेव (बाहड़) मेहता, २६५ बल्ल, १५३ बल्ल (कच्छपति), २१३ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बल्लि राय, बलभीसेन, बल्लभ, १५७ बहादुरशाह (गुजरात का बादशाह), १७, २७५, ३०० बहादुरसिंह पट्टेदार (बीदासर), २८ टि. बहारसिंह (पहाड़ी शेर), ४ बाघाजी, २२२ टि. बापा रावल, १४ बाबर बादशाह, १२ बॉयरन लार्ड, ३ बानवेल, मेजर, (Barnewell, Major) बालो (बाल) मूलदेव, १५७, २१८ बालकृष्ण गोस्वामी, १० टि. बालूकराय, १८२ बाहुबली, २६३ ब्रिग्स, जॉन, ३५६ बीकलदेवी, १८२ बीजजी राठौड़, २८१ बीड़ (Bede, Rev.) सम्माननीय, २३० बीत्थुक, १२८ बोरजी (वीरसिंह), १६६ बीरसिंह (वैरिसिंह), १५६ बीसल, २८२ बीसलदेव, १५७ बीसलदेव चौहान, १८० बीसा गोहिल, २८२ बुडिअस (Budaeus), ४७२ ब्रूस, जेम्स (Bruce, James), ३७, ३७ टि. बेगड़ा गोहिल, ३५६ बेयर (Bayer), १९६, १९७, २६८ बेले (Bayley), २६० टि. बेसिर (Beysir), आईन-ए-अकबरी का __ अनुवादक, १७६ टि. भगवानलाल इन्द्रजी, डॉ०, १६५ टि. भण्डारकर, डी. पार, ४७२ मरत (राजा), २६३ भलका कुण्ड, ३५६ भवान गुप्त, १२८ भाणा ऋषि, ३६६ भागजी राजा, ४२१, ४२३ भान चूड़ासमा, २११ भानु भट्ट, २५६ टि० भार जाम, ४४५ भार राव, ४४५ भारमल राव, ४६५ भावसिंह, २२ भावसिंह रावल, २७६ भीनेशाह (भीमाशाह), ११२ भीम (राजा), १५२ भीमक यदुवंशी, ४०१ भीम चालुक्य, २१०, २१३ भीमजी गोहिल, ३५६ टि. भीम राना, ४४६ भीमदेव, १३१ टि०, १५७, १५८, १८०, २०५, २१८, २१९, २२० भीमदेव सोलंकी, ८७ भीमसिंह, १२८ भीमसिंह महाराणा, ३ टि०, ५ टि०, १७ टि. भुवनपति, २६५ भूवड़, १६० टि. भूषण कवि, ८० टि० भैरू बारेठ, २११ भोज परमार, १६२ भोजराज चावड़ा, ४३५ भोजराज (राजकुमार), ४४२ टि० भोज राजा, १२८, १३०, १५७, १८०, २०१ भोमादित्य, १७५ भोला भीमदेव, १५७, २२२ टि०, ४०० म्यूसीडोरा (Musidora), २३ मकरावण काबा, २१३ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका मकवाणा, २१७ टि. मॅगेलॉन (Magellan), ३६ मंगलीश चोहान, १५३ टि. मणिकराय, १७४ टि. मॅरिनोस, १५५ टि. मरुदेवी, ३०० मल्लू मानिक, ४३६ मलयसी (आमेर का राजा), २१८ टि. मलयागिरि (रानी), २५८ मलिक-प्रल आदिल, ३५६ टि. मलिक यूसुफ, १३६ टि० मसऊदी, अबुल हसन अली, १७८ टि०, महमूद, १५७, २३४, २७५ महमूद खिलजी, १२६ टि. महमूद गजनवी, १७६, २९६, ३५५, (गजनी का सुलतान), ३५८ महमूद बादशाह १४ टि० महमूद बेगड़ा, २५६ टि०, ३६३ टि. महमूद बेगचा (डा), ३७२,३७७,४०१ महमूद हाजी (मांगरोलीशाह), ३६७ महारजस अपलदत्तस १४१ टि० महीप (महपा) राजा, ४२२ । महीपाल, १७२ टि०, १८४ टि०, १६०, २०२ महेन्द्र, २६५ माइल्स, मेजर, १३६, १४०, ३१४ माण्डलिक राव, ३७२, ३७७, २८६, ४०१,४०३ माणिकचन्द चौहान, १८ टि. माणिकचन्द राव, १७ माणिकपाल (राय) चौ०, १६२ माणिकराय चौहान, ७० माणिकराय (अजमेर का राजा), ७३ माधवराव सिंधिया, ४१ टि. मान, राजा, ६३ मान, राजा (मामेर), २२३ मान (राव, सिरोही), ७१, ७२, ९, 8.टि. मानसिंह राजा (कृष्णगढ़), १० टि. मानिक मेर, ४८३ मानिक वागेर, ४३५ मोमडिया (मम्मट) चारण, ३४१ टि. मारशीयू (Marceau) सैनिक, ४४८ मिनर्वा (Minerva) (सरस्वती), ७६ मिलनदेवी (मीनलदेवी), १७५, १८२ मोताखाँ, ३६२ मीनान्डर, १२१, १७१ टि०, २००, २६८, मेनान्दर, ३७३, ३०२, ४३६, ४६७ मीरखां (अमीरखा), २२३ मीराबाई, ४४३ मुञ्जराज, १५७, १८० मुजफ्फर, २२४, ३६०, ३६१ मुजफ्फर खान, १२६ टि. मुजफ्फर शाह (गुजरात का सुल्तान), १७ मुजफ्फर सुलतान,. ४४५ मुनई कायर, ४७८, ४८१ मुहम्मद बिन कासिम, ४३६, ४७५ मुहम्मद साहब (पैगम्बर), ११ टि. मूलदेव, २१६ मूलराज, १२८, १४१ टि०, १४३ टि. १५७, १७५, १७६, २३७, २८२ मूविस (Muvis), देवता ५५ मूसा (पंगम्बर), २८६ मेगस्थनीज़, १४८ टि०,, १५५ टि०, मेमनॉन, ४०४ मेरुतुंग, १३२ मेरुतुंग प्राचार्य, २०१ टि. मेरोट, कप्तान, ४४८ मैक मुरड़ो, कप्तान (Mac Murdo, Captain), ३२८ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] मैकाम, डॉक्टर (Macadam, Dr.), ४१७ मैकॉले ६७ टि० मैण्डलस्लो (Mendelslo ), २५६ टि० मोइजुद्दीन, ४७६ मोकल राणा, १८ मोखला, राठोड, २८१ मोनबोडो, लार्ड जेम्स बरनेट Manboddo, Lord James Burnett ३८ टि०, ४२० पश्चिमी भारत की यात्रा मोरताज ( मोरध्वज ) १७६ मोरी (बप्पा का काका), १६२ मोहम्मद, २८९ मोहम्मद घूंकरा, ४३५ मोहम्मद सुलतान बेरा (बेगड़ा), ८६ मौदूद, १८० मौदूद (शाह), ययाति केसरी, यशोवर्मन, यशोवर्मा, युवराज देव, १७३ टि० युक्रेटाइडीस (Eukratides), १४१ टि० योगराज ( जूगराज ), १६५ १६६ रईब व सईब, ४३५ रणजीत, ४५६ रणधवल, १८८, २०१ रत्नादित्य, १५६ रतनजी, ४६५, ४६६, ४६८, ४६५, राणजी राठौड़, २८१ राणिङ्ग, राणिङ्गदेव झाला, २१०, २११, राणिङ्गदेव राव, ४०७ ४०८ ३१७ टि० राजभान, २१० राज सामन्त, १७४ राजसिंह ( प्रथम ) महाराणा, १२०, ४४४ राजलदेवी (सोमजी की पत्नी), ३५६ १७५ टि० १८८, २०१ १० टि० ३०३ राबर्ट श्रोर्मे (Robert Orme), १७७ fzo रॉबिन हुड, रामचन्द्र ३७६ २०२ टि० राम चामर (कुँवर) ४७४, ४७५ राम राजा (जेठवा ), ४२१ रामजी राठौड़, रामसिंह (राठोड़), २५१, २५२ रामानन्द स्वामी, रोयधन जाड़ेचा, राय परमार, १७० रायमल जाम, ४४५ रायमल राणा जेठवा, ४३९ राहमी (राजा), १६७, १६९, १७० रिचार्ड कोर डी लायन ( Richard ८१ ४६६, ४८१, ४६६ Coeur, de Lion ), ३५७. रिचार्ड प्रथम, ३५६ टि० रुद्रदामन, ૪૫૪ દિ रुद्रपाल, ४०४ हरिक (रूस में ज़ार साम्राज्य का संस्थापक) ३२३ रेनेडो (Renadout), रेनेल (Rennell ). १५१, ४९७ मस ( Remus ), २३९ टि० रोम्युलस (Romulus ), २३६ रोलेण्डो २०३ लक्षण (लक्ष्मण) चौहान, ६७ १३१ टि० लक्षरणपाल, १५५ लखमसी वणिक् ३६९ लखयार जाडेचा, ४५० लडली, कर्नल (Ludlow Col.) ४४, ४५ लाखा राव, लाखा गोरार, लव, १५३ लेवेटर (Lavater ) विद्वान्, ३३५ लाइकस (Lycurgus ) ४६७ ४६६ १९३ टि० ४७८ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लासा गोरारो, ४७७ लाखा जाडेचा, ४० लासा फूलाणी, १५६, ४८१ लाखा राना, ४४२ लाखा राव, ४६४ लाजा विजयराय, १६ . . लालसिंह (भोगरणा का मुखिया), ३० लासेन (Lassen), २०४, ३४६ लीलादेवी, १७५ लीलाधर ब्राह्मण, २११ लुई १६ वा, बादशाह ५२ लुई चौदहवां (बादशाह), १२९ लुंपाक लेखक ३६६ टि. लुम्बा राव ११ लेक, लॉर्ड (Lake, Lord), २३१ टि० . लोकसिंह सहस्रार्जुन, १२८ लोटपुत्र, १७३ टि. ध्यन्तरेन्द्र, २६५ वंशराज (वन राज), १५५ टि०,१५६.१६३, १६५, १६८, २००, २२२, २२४, - २३७, २४४, २४५, २४६ वयजलदेव प्रतिहार, २०२ टि० वचनाभ राजा, ४३४ ... परनेट (Vernet), १६० बल्लभ कीर्तिवर्मा, १५३ टि. वल्लभ गोस्वामी, १.टि. वल्लभराज, १५३ टि. बल्लभ सेन, १७९ वसन्त (वस्तु) पाल, ११०, ३६६ वॉकर कर्नल, ४४७, ४७९ वाघ, कैप्टेन (Waugb, Captain), २१ वाधिग श्रेष्ठी, २९१ टि. वादी मूसा (Wady Mosa), ४६३ वाबन (Vauban) इजीनियर, ३४६ वॉल्टर, कर्नल, १८टि. वॉल्टर, लेफ्टिनेण्ट, ४६४ वालन्द (गज़नी का राजा), ४७६ [५६७ वॉलेग्राण्ड गैलिन्सन डी जोध .. Wollebrapdt Geleyassen de Jogh (पुर्तगाली अफसर) २५६ टि. वास्को-डे-गामा, २७४ . बाहड़देवी, २६१ टि. विजयसिंह, राजा (मारवाड़), १० टि. विजयसिंह (रावळ भावनगर), २७६॥ २७६, २०२ विजयसेन सूरि, २०३ टि. विट्ठलनाथजी गोस्वामी, १०टि. विट्ठलराव दीवान, १४५ वित्रुविप्रस, शिल्पकार (Vitruvius), २३६, ४३२ विम्सेण्ट, डॉक्टर, २३०, २३२ विमलशाह, १०३, १०६, १०६ विमलादित्य, १७३ टि. विक्रम सम्राट्, २४७ विक्रमाजीत, राव, ४४३ विल्फोर्ड, १९८, १६६, २०० विल्बर फोर्स ४५८ विल्सन, २२७ टि० विलियम्स, मिस्टर. २५८, २७६, ३५५, ___३८७, ३६३, ४२१. ४५१ विलियम कूपर, (William Cowper); १२२ टि. विलियम, विजयी (William, the Conqueror), ३४८ टि. विष्णभट्ट सोमयाजी, विष्णुवर्धन, १७३ टि. वीरदेव, १७२ टि०, १७४, २२२ टि. वोरमदेव, ५३ टि०, १३१ वीरराय (राजा), १७८ वीरसिंह चौहान, २११ वीर सुम्मा, ४७८ वृषभदेव, १०७ श्योजी, ४२४ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ) . पश्चिमी भारत की यात्रा योदास राठोड़, २८१, २८२ समय सुन्दर उपाध्याय, २९५ टि. श्योसिंह, (सिरोही का राव), ७१, ७२ । सरम पेरीमल (सरम परमारवंशी) १००, १२१ सरमा पायरीमल, १७१ ।। शम्भ (श्याम का राजा), २११ १९३ टि. शम्भुसिंह (सनवाड़ का जागीरदार), सलख जैत्र परमार, १७ टि. ५३ टि. सलादीन, सलादीन बादशाह, १४८ टि. श्रेणिक राजा, ३०२ ३५६ टि० शालमॅन (Charlemagne) सहस्रमल्ल या संसमल, १३२ टि. (रोम का बादशाह), ७३, १५६ सहसा सालिग संघवी, ६६ टि० शालिवाहन ताक (टाकतक्षक), २४७, सहारन टाक, २२४ ३०६, ३१०, ४३६ संग्राम (संगम धर), ४४६, ४४७ शालिवाहन (गज़नी का राजा), संग्रामसिंह बाबा, ५३ टि० ४७६ टि. संग्रामसिंह (सांगा) राणा, १८ टि०, ६८ शाहजहां बादशाह, १३६ ४४२ टि. शाहबुद्दीन गोरी, १८, ६६ टि. सग्रामसिंह (द्वितीय) महाराणा, ३ टि. २०१, २११, टि०, २१४, ४८१ संग्रामसिह राव, १७ शाहशुजा, ४५६ संग्राम सोनी, ४०२ शिलादित्य, २६०, २६१ सांखला भाट, १४३ शीलकवर, ४२०, ४२६, ४७४ सातवाहन राजा, २६३ टि. शीलगुण सूरि (सलग सूरि), १५५ टि० साद (Saad) यदु, ४७६ २४४, २४५ सान्द्राकोटस (Sandracotus). ४७२ शीलादित्य, २३३ (चन्द्रगुप्त) शेखमली दरवेश, ३० सामन्त, १५६ शोर, कप्तान, (Shore, Capt.) २६६ सामन्तराज, १७२, १७५ स्कॅलकेन (Scalcen) ४६३ साम यदु, ४७५ स्किनर, जैम्स कर्नल, २५६ सामला मानिक, ४३६ स्टॅनहोप, मॉनरेबुल लिकन (Stanhope, सायराक्यूस का सन्त (प्रार्कमिदिस), ५० ___Honble Lincoln), १४२ सारंगदेव, १५८, २०६, २०७, २१०, स्ट्रॉबो, १५५ टि. २६८ २२१ (Strabo), ३५६ टि०, सारंग (राठौड़), २८१ स्मिथ विसेन्ट, ४७२ टि. साल्वेटर रोजा (Salvator Roza) १७१ सगर चक्रवर्ती, २६५ सॉल (Saul) सदयवत्स, ३०६ (इजराइल का बादशाह), २७० सन्दनेश (स्यन्दनेश) राजा, २००, २०४ सालामन (हालामरण) राजकुमार, ४२३ सम्प्रतिराज, ३०२ ४२७, ४२८,४७४ समरेश, १६३ सालिग सूरि, १६०, १६५, १६८ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অক্ষরলিঙ্কা [ ५६६ सालोमन, (Solomon), ५६, १५३ । सेफ्फो (कवयित्री), ४२३ सावलिंगा, ३०४ सेको (Sancho) दार्शनिक, २५४ सिकन्दर, १६३, २३३, ३१८, ३८४, संण्ट एण्ड्य , ३४५ ४६८, ४४८, ४७१, ४७२ सैलगसूरि प्राचार्य, १५५ सिकन्दर लोदी, १७ सोनतान (सुरतान) राव, ४१६ सिद्धराज, १६६, १८४ टि०, १८६, सोनिंगजी राठौड़, ४३५ १८७, २२०, २२३, २३४, २३७, सोमप्रीत (सम्प्रति) राज, ३७८ २६४, २८४, २६५. २६८, ४०४, सोमप्रीति राजा, ४०२ ४२७,४४१ सोम वर्मा (मालवराज), १२८ सिद्धराज जयसिंह, १५७, १८३ सोनसीजी राठौड़, २८१ सिद्धराज महान्, १४०, सोमादित्य, १७५ १४१, १४३ सोमादित्य भट्ट, २५६, टि. सिद्धसेन देवकाचार्य (दिवाकर), ३९८ सोमेश्वर, २१२ सिनसिनाटस (Cincinnatus), ३१८ सोमेश्वर चौहान, २०५ सिल्यूकस, १४१ टि०, ४७२ सोमेश्वर परमार, १२८ सिंहजी, (गूमली का राजा), ४२६ सोमेश, २०६ सीडीलोट (Sedilot), १५० टि० सोवा राणा, ४४५ सीताराम (सेतराम, राठौड़), ४८१ सोकरी (राजकुमारी), २५८ सोहाजी राठौड़, ४३५ टि०, ४८१ ह्य मान सांग, १९२ टि. सुखराज (पालीताना), २६२ सुन्दरजी, ३८०, ३८१ हाम (Hume), १६० सुन्दीरूपा [रूपसुन्दरी] रानी, १६१ हॅक्टोइस (Hectoeus), १५५ टि. सुब्बू राव (शिवभाण या शोभ). हजा पोर, २६६ १३२ टि० हण्टर ब्लयर, कर्नल, ५०२ सुमरा सारंग (समराशाह), २९५ हण्टर ब्लेयर, श्रीमती, ५०२ सुरतान, २१० हम्मीर राव (रणथम्भोर), १८ टि. सुरतान राव, १०० हमीर (भदेसर का ठाकुर), ४ सुलतान नूरुद्दीन जहाँगीर, ३०३ हमीर (सिन्ध का), १८५ सुलेमान बादशाह, ५४ हमीर (गोहिल), ३५६ सुलेमान (अरब सौदागर) १६६ टि. हमीर (सुमरा), ४२२ सुलेमान, २०५, २२२, २२६, ३७८ ... हमीर सुम्मा. ४८३ सुवर्णवर्ष (राजा), २५६ टि. हर्बट (सर थामस हर्बर्ट), ६८ टि. सुशर्म चन्द्र, १९२ टि० हर (राजा), १७० सूजनकुमारी (चित्तोड़), २७४, २०२ हरज (Haraz) [हर्ष], १६७, १६६ सूरपाल डाकू, १६१ हरपाल (गूमली का राजा), ४२२ सेजक राठौड़, २८१ हरब्रह्म गोहिल, २८२ सेन्टपॉल, ४१८ हेरॉड (Herod) बादशाह, ३०६ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ] पश्चिमी भारत की पात्रा हेराडोटस, ८५ टि०, १५१, १५२, . हुमायुं (बादशाह), १७,४४३ १५५ टि०, २६६, ४७० हुसैन (Hoyson), ११ हरिभद्रसूरि, २५६ हेमचन्द्र प्राचार्य, ९९ हरिसिंह जेठया महाराजा, ४१७ हेमाचार्य, १४, १८६, १९३, हामिन (Hadrian), रोम का बादशाह, १९४, टि०, १९५, २०१, २०२, २३८, २४४, २४७, २६४, २६५ हाडी रानी, ३ हाफ़िज़, २२९ हेम श्रीपूज्य, २४६ हेमाभाई, ३०७ हाराद्रि कणं, १२८ हेस्टिंग्स माइस, ६१, ६३, २१७ हा प्रल रशीद (बगदाद का खलीफा), हंगा पीर, ३०५ ७२, १५६, २००, २३८, ३६५, हैपन्न, लेफ्टि० (Hepburn, Leuti.), हॉलवीन (Holbien) चित्रकार, २७६ हाला सुम्मा, ४७८, ४७९ हैबर, रेनाल्ड बिशप, ७६, १०१, ११९ हिरम (प्रथम) बादशाहा ५४ टि. हैलम (Hallam), १६० हिरम बादशाह, १५॥ होगार्थ (Hogartb), ४६७ हीरविजयसूरि, २०३ टि. हो'ठी सुम्मा, ४८२ ३. कुछ जातियों के नाम अष्ट्रखांन (Astrakhan), २६४ अहीर, ४११ प्रान्ध्र वंश, २०४ मायंपुन्ति, २२६ भारमीयन, ४३८ इडोमाइट (ईडम के अनुयायी), ४४ टि. एस्टीटोलॉस (श्वेतहरण) (Abtetelas), काठी, ४२८, २६८ काबा (बिरादरी), ४२, २१३, २७२ कामड़ा (गायक जाति), ३९ कामरी, २७२ काष्ठासंघी जैन,, ३९८ कुनाणी, ४२० कुळमी, (Koolummies), एस्कीमो, ३३, ३० कॅल्टिक बेलिनू (Celtic Belenu), केट्टी (Kettae), ३०८ कैलेबियन, ४०६ कोमानी, २६, २७२ कोली, ३० खारवा नाविक, ४३७ कलचुरी वंश, १७३ टि० Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यूल्फिक ( Guelphic) वंश, ३२६ गलाती (Galatai ), ३०८ गहलोत भील, ३१ गहलोत राजपूत, गॉल (Gaul), २३ गुरुगूचा ब्राह्मण, ३६८ गुरेचा, गुलेचा, ४३३ गोलवाल राजपूत, २२२ टि० १७५ टिक गंग वंश (प्रोड़ीसा), चगतई वंश, ४६६ चरण ( चौहान रा० ), १३ टि० १७३ टि० १४, १५ चालुक्य, चौलुक्य, चावड़ा, चावड़ा वंश, १५ १७६ चूडावत, १३ टि० चूडासमा राजपूत, ३६८, ४७३ टि० छप्पन कुल यादव, ४७३ जाड़ेचा, जाड़ेजा राजपूत, છ • जाम, ४२८ जेठवा, जेतवा, २७२, ४२२ जीट (Gatae), या जीत ( Jit), ४६ झाला राजपूत, १३, १४, ४२६ टाक, ताक (तक्षक) क्षत्रिय, १२९ टी, २४७ टीटन, ७८ तुर्क (मुसलमान), २१ दस्सारणा, धनुकमणिका दहारणा या दुहाना (क्षत्रिय), २८ टि० देवड़ा चौहाण, देवाना गोहिल, २८२ १३९ टि० नाथावल राजपूत, ४८९ टि० नॉरमन (Norman ), ३२४ परमार भील, ३१ पल्ली, ३०६ पवार (परमार राज ० ), १३ टि० पिण्डारी, ४५० पुरवई, पुरवोई १५४ टि० पेल, ३०८ फिलातीन, ३०८ बरड़ राजपूत, बल्ह जाति, ४२८ बलाई, ३६ बलूता ( Bulotah ), ४११ बाघेला वंश, २०२ बाघेला, वाडेला (राजपूत), बाघेर, वागेर, ४३५ १३७ बामनी सुम्मा, ४७४ बालनोत राजपूत, २२३ बालेकर, १५५, १६, २२८. बाबरिया, ४२२ बीराना ( गोहिल ), २८२ astra ( Bedouin ), २४१ बेलम जाति, ४३५ भाटी, ४११ भाटी सुम्मा, ४७६ भील, २० मकवारणा, २७२, ४३७ माणिक, ४४७ [ ५७१ मीणा, २१ मोरिया, २७२ मुरमयूर संधी जैन, २६८ मेर, २१, ४२० मोमन, ४११ मोर, २४५ मोहिम, ३८ यूते या पूची ( Yucchi), ४६९ रजपूत ( Razbouts), १३६ राठवड़ ( राठौड़ रा० ), १३ टि० १४, १५ राणावत (राजपूत), १५ रंबारी, ३३३ लांगोबोर्ड (Longobard ), ३२३ ३२४ लार, १९३ 1 Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ । पश्चिमी भारत की यात्रा - लोमड़ी जाति (Noomris), ४६ लोहरा भाटी, ४३७ वराह या शूकर जाति, ४६ वाराजिमन, ३२३ विण्डसर कुल, ३२६ टि० विसिगॉथ (Visigoth), २३६ वश्य (चौरासी जातियाँ), १६८ टि. शक्तावत (रा.), १३ टि. १५ । शातकर्णी वंश, २०४ शालिक्य वंश, १७३ टि० शिलारवंश, १९९ शेमेटिक ((Shemetic), ४७६ सॅरॅग्नीस (वंश), २०४ सरजा जाति, ३५ . सरवेग, ४७३ टि. सरोग्रस्प (सरवैया राजपूत), ४५, ४५ टि. सादिनी (Sadinies) वंश, २०४ साबा-निवासी (साबीन), २०३ साबीन (Sabean), २७० सामानी, २२५ सासी (Sacce), २६६ सिन्धसुम्मा वंश, ४२७, ४७१ सिम्बी (Cimbri), ४१६ - सीसोदिया, १७ सुमरा-वंश, ४२२ सैरिया (भील जाति), ४५ सोनिगरा (राजपूत), २१७ दि० सौरोमेटी वंश (Souromateal), २६६ संगाविप्रन, ४४८ हुम्बड़ (वैश्य), ३९८ हे लोत (हैलॉट) (Helors), ४८१ ४. विशिष्ट शब्द अट्ठारह बरण ११, अफीमयुद्ध (Opium war), ४८६ प्रम-प्रल-बेलाद (नगरों की माता) १५३ टि. अमलपाणी ४६६ अमीर-अल-आब (Admiral), २२१ टि. अमोलक शंख ४४१ अरणी ४६६ अरब द्रम्म (Arabas que Drachum) 'प्रान', ५४ माबे-हयात, ५०० माला (ताक), २४५ इन्द्रवाहन, ७८ उत्तर का जादूगर, १६२ उतरा मही, हुमा संही, २५७ प्रोजी (Ojee), २४० ओसारा, ४३२ कटहरा, ४१४ कण्डी (तौल १२५ टन), ४५७ काँकरा (कंकरीट), ४१३ काला पट्टा, १६, ४६१ काला मुंह, ४२ कुम्प्टा (बाँस का धनुष), २२ अल्दी बारां (Aldebaran), ४६९ अश्वतूड़ (अश्व थर), ३५२ अष्टकोण मण्डप ४१४ प्राड़ी डाट, ३५३ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनुक्रमणिका [५७३ कुल्फ, २४७ जन्त (सर्वोच्च सत्ता द्वारा अधिगृहीत कूगर, कग्गर लकड़ी, २४७ जागीर), १६ कोस, १६४ टि. जमशेद, ४७७ खानगी (गुजारा), १६ जूझार (पालिया), ३१३ खांप, २४५ जोतदान, इटि. खुसरो (Cosrose) उपनाम, १६७ झाड़ा, ४७९ खेर (जाड़ेचों की सभा), ४६० ट्यूटोनिक भाषा (Teutonic), ३२४ खोत बारण, २१३ टंक (सिक्का), १६४ टंडेल (जहाज का), ४५० गंगाजमुनी, ३०७ ड्योढी, ३०० गङ्गाटेय, गाङ्गटेय, १५२ टि० डबोरे, ३५२ गङ्गराइड्स (Gangarides), १५२ डम्भ (ठग), १८२ गजथूड (गजथर), ३५२ डायजा (दहेज), ३६ गजलीबन्ध, १६२ गद्दीनशीनी, ४६० ड्रम (निराशा), १२ डूम (गाने बजाने वाला), १२ गधागाळ, २६७ गाङ्गराष्ट्रिय, १५२ टि० ढांक (प्रवहण), ४२१ ढाणा (कुए का), ३२० गुम्बज (गुम्बद), १०६ श्रागा, ४२६ गुहागृह, ३५३ त्रिपोलिया, २४६ गोठ (भोज), १६ गोर-स्तर (जंगली गधे), ४६७ तत्त (ठट्ट) (मुलतान का राय), २८५ तातारी द्रम्म (सिक्का), १६६ घाघरा, २२. तिलात (राजतिलक का स्थान), ४४४ घोड़ियाँ (वास्तु), ११४ तोरण, १०६, २४० चन्द्रक (Medal), ४६८ तोशकदार, २१३ चपटी छठ, १०६ तोशाखाना, ७० . चाल्दिमन (Chaldean) अक्षर, २२६ दक्षिणावर्त शंख, ४४१ चुल्ल, ३१ दड़ी-दण्डा खेल, ४७७ चूड़ाउतार पट्टा, ४६१ दालान, १०६, ३५३ चोबदार, १४३ देवखण्ड (गुम्बज), ४०२ चौखट, ३४० देवदत्त शंख, ४४१ चौरी, २९७ देशवाटी (का दण्ड), २०६, ४२३ छज्जा, ४३२ नज़राना, ४४५, ४६० छतरी, १०६ नरथर, ३५२ टि० छाया (अस्थायी निवास), ४२५ नाखुदा, ४६ छोटा बरसात, ५१ माडों, ५१ छोटी हाजरी (प्रातराश), ११, ४५६ नामाक्षर-भित्ति (monogram) ३०३ जगमोहन (दालान), १११ माळ, २४ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा नालगोळा, २४ टि. भमती या फिरनी (रविश), ४३१ निजमन्दिर (गर्भ गृह), १०६, ३४० भाड़े के टट्ट, ४६४ प्लांटार्जनेट, (Plantagenet), ४६, भाणाजी (भागिनेय), १८ ४६ टि० भायाद (भ्याद), ५३, ३२५, ४६२ पाञ्चजन्य शंख, ४४१ भार (सेना), १८१ पञ्चतीर्थ, ३६६ भारपट्ट, १०६, ४१४ पंचमपुत्र, ४८२ भित्तिसज्जा, ४१४ पटायत, १६ भूमिया, ३२७ पट्टे (सिर के काले बाल), ११५ भेड़चाल, २८ पद्दर, १५१, २५७ भेंडा (भोला), २०६ पदीन, १५१ भैरों झांप, ३८७ पलचर (राक्षस), २१५ भोमियां, ३० पालिया, १३ मज़ार, ४६३ पॉम्पोनिमस मेला (Pamponius Me मज़ोरत, ४९२ ____la), १५१ मठोठ (मध्य-पट्ट), ४३२ पारधी, १५२ मण्डप, १०५ पिंजरापोस, ३०६ मदरसा, २५० पियाज़ा (Piazza), १६४ टि. मदिकोर (मुर्दाखोर या मर्दखोर), ८४ पीठिका २९६ मांडळ (चडस का भाग), ३२० पुजारो या पुजारा, २८ टि०, २६ माळ (चिकनी मिट्टी वाला भू भाग), पूंछेडिया राणा, ४१८ पूरब का पातशाह (गोहिलों का सरदार) मूंडेर, ४१७ २८२ मेतायर (Metayer), प्रथा १६५ टि. पोथीभण्डार, २४४ मेहराब, २४० फिनिस्ट्रे (जगतकूट), ४६८ मोहरमी-प्रल-प्रदर (कान छिदाने वाले), बजरी, ३५३ १५० बॅलीसारडा (तलवार) (Balisarda), मोला का सरना, ३२ २१५ टि. यलो ब्वायज़ (Yello-boys), २५६ बाबा (महाराणा के परिवार की लड़की) यूरीका, ५० - रजवाड़ा, २२, २६७, ४६६ बारह कोटड़ी (मामेर के ठिकाने), ४८६ टि. रणशंख, ४० बालराय, बल्हरा, १५३ रविश, १०६, ४१४ बीजलसार (तलवार), २१५ रात की माग, २७ बतायत, ४९. रासमण्डल, ३५२ बैरा (कच्चा कुमा), ११४ रूपा (चांदी), १६७ टि. बैंडे सरदार, ४६६ लोई (Plaster), ३५२ बोलारी (मनीती), २८८ वनपुत्र (भील), ३१ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका वलायती दूध, ५०० सहायक-सन्धि, ४९६ वीरषण्ट, २४१ साका, ४३९ शहना (प्यादा, सिपाही), २५ सिराको, ४०६ शहरपनाह (परकोटा), ४५५ सीता (श्री) सम्प्रदाय, 1 शिरोपाव, ४३ सुक्खी (पक्षी), १३० शीर्षदल (सीसपाट), ४२ सूडचा चड़स, ३. . शीर्षपट्ट, ३५३ सोमपट्ट, ४०१ शेरे-भुज, ४६६ स्तम्भाधार पुतली (Caryatide), हयराज, २५७ हाइडीज़ (Hydis), ४९९ संगमपर (राजाओं की उपाधि), ४४४ हाका, ४८३ टि. संजाफ, ६ हिन्दको (हिन्दुस्तानी), ४५६ सरना (संरक्षण), ४२, ४४५ हिन्दूकुल-सूर्य (महाराणा), १८ : सराह, साराह पहाज, ४५५, ५०१ हिन्दूपति सूर्य, ४२७ सवाई (सोवा) उपाधि, ४४५ हूज र (महाराणा), १८ सहस्राब्दीय शरत, ४०६ हेप्ट्रार्कस् (सप्त-राज्य, बुटेन), १५६ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. कर्नल टॉड द्वारा मूल पुस्तक में उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रन्थकार अल्माजेस्टम (Almagestum), टॉलेमी कृत प्राबू माहात्म्य - एशियाटिक रिसर्चेज, (Asiatic Researches) एरियन (Arrian), परोप्लुसका कर्ता कुमारपाल चरित्र गीतगोविव, जयदेव कृत चूडासमा वार्ज म (Chorasmia Khwrazerm), बेघर (Baver) कृत अस्टिन (Justin), इतिहासकार तारीख महमूद गजनी द्वारका माहात्म्य पॅरिप्लुस (Periplus of the Erythracan Sea) प्रकोणं संग्रह बाबर के संस्मरण, (Memoirs of Babar; Tuzuk-i-Babari) . भोज-चरित्र, मैकेजी -संग्रह, (Mackenzie Collection). रेनेल (Rennell), भूगोलशास्त्री वंशराज चरित्र स्ट्रावो (Strabo), इतिहासकार और भूगोलशास्त्री समरसागर सहस्त्ररजनी चरित्र (Arabian Nights) हरिवंश पुराण हमीररासो Eclaircissemens de La Cartc D l'Inde-D' Anville Fragments-Robert Orme Relations Anciennes-M. Renadaut Scenery of Western India--Cape. Grindley Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अनुवाद में सहायक एवं संकेतित ग्रंथ १. हिन्दी कृष्णाजी - रत्नमाला कविराजा श्यामलदास - धीर-विनोद कविराव मोहनसिंह (संपा०) - पृथ्वीराज रासो गंगाधर - प्रवासकृत्य गोपालनारायण बहुरा (संपा०) - राजविनोद महाकाव्य (उदयराज कृत) दशरथ शर्मा (संपा०)-पंवार-वंश-अर्पण दुर्गाशंकर केवलराम शास्त्री -- गुजरात नो मध्यकालीन राजपूत इतिहास नरोत्तमदास स्वामी (संपा०)- बांकीवास री ख्यात पीटर पीटर्सन - खम्भात ग्रंथ भंगर की सूची पयधर पाठक (संपा०) - बुद्धि-विलास (बखतराम कृत) बहादुरसिंह - क्षत्रिय जाति की सूची बदरीप्रसाद साकरिया (संपा०) - मुंहता नैणसी री ख्यात भूरसिंह मलसीसर - महाराणा यश प्रकाश गौरीशंकर हीराचन्द प्रोझा - उदयपुर का इतिहास; सिरोही राज्य का इतिहास मानशंकर पीताम्बरवास मेहता - मेवाड़ के गोहिल यति रामलाल-बादा साहेब की पूजा रणछोड़भाई उदयराम - रासमाला (गुजराती अनुवाद) रत्नमणि राव भीमराव - खम्भात नो इतिहास रामचन्द्र वर्मा - अरब और भारत के सम्बन्ध सय्यद गुलाब मियां मोर मुन्शी - पालनपुर की तवारीख हनुमान शर्मा - नाथावतों का इतिहास हरिक्त गोविन्द व्यास - जैसलमेर का इतिहास हरिभद्र सूरि - उपदेश पर २. अंग्रेजी Bayle, Sir Edward Clive, Local Muhammadan Dynasties of Gujrat, ___London 1886, Beale, Thomas William, An Oriental Biographical Dictionary, London, 1894. 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Sexon Heptarchy Sexon Heptrarchy २४० इस प्रकार जानने का.. इस प्रकार यह जानने का. मुहाने २७५ हितक गुजरात हितकर्ता गुजरात २६६ बचे खुचे हुए हिस्सों बचे खुचे हिस्सों ३०२ भादि बोध मादिबोध । सोना केतो यह बह कर'.. सोना तो बह बह कर ३१५/१४ प्रवरूद्ध प्रवरुद्ध ३१६/२१ तुर्रा तुर्रा ३४६ टि० जीर्णोद्धार जीर्णोद्धार २३. टि. Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ucation intematonal