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- पश्चिमी भारत की यात्रा योग्य बात नहीं है, केवल उसकी शक्ति के स्मारक कुछ प्राचीन प्रस्तर-मूर्तियों के टुकड़े मन्दिर के आस-पास पड़े हुए हैं। इसके पास ही वह तालाब है जो हेमाचार्य के 'मसिपात्र' के रूप में प्रयुक्त हुआ था।
ऐसी बात नहीं है कि नए नगर में कोई आकर्षण को वस्तु हो न हो; यहां पर दो चीजें ऐसी हैं जो विशेष समादरणीय हैं; एक, अणहिलवाड़ा के संस्थापक वंशराज की मूर्ति और दूसरी जैनों का 'पोथी-भण्डार'। सफेद पत्थर से बनी हई वह मति .पार्श्व (नाथ) के मन्दिर में रखी हुई है और लगभग साढे तीन फीट ऊँची है । एक और छोटी मूर्ति इसके दाहिने हाथ की ओर रखी हुई है और वह वंशराज के प्रधान-मंत्री की बताई जाती है, परन्तु यह अधिक सम्भव है कि वह उसके संरक्षक आचार्य को प्रतिमा हो । दोनों ही मूर्तियों के साथ एकएक शिलालेख लगा हुआ है, जिनसे स्पष्टतः दूसरी मूर्तियों के स्थान का सूचन होता है जिनको महान् मूर्तिभञ्जक अल्ला [उद्दीन] ने नष्ट कर दिया था और उसका नाम भी इन पर खुदा हुआ है 'महाराज श्री खूनी आलम मोहम्मद पादशाह-उसका पुत्र (अथवा उत्तराधिकारी) श्री आलम फीरोज़ जिनकी कृपा से कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा, वृश्पतवार, इत्यादि । _ 'सान्देरा गच्छ के शीलगुण सूरि पंचासर के वन में मुहूर्त देखने गए थे। एक महुवा-वृक्ष के नीचे लटकते हुए झूले में उन्होंने पेड़ की छाया में एक नवजात शिशु को देखा; वह छाया स्थिर थी, इससे शीलगुण सूरि को उस शिशु के महान् भविष्य का ज्ञान हुआ । उसकी माता-सहित वे उसको अपने साथ ले गए और अपने सेवकों से उनका पालन-पोषण करने की अभिलाषा प्रकट की; उन्होंने ऐसा ही किया भी। वन में जन्म होने के कारण उस बालक का नाम वंश (वन ?) राज रखा गया और संवत् ८०२ में उसी ने अणहिलवाड़ा के परकोटे की दीवार खिंचवाई तथा देवीचन्द्र सूरि आचार्य ने अल्लेश्वर' महादेव की प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई।'
दूसरा लेख इस प्रकार है-"संवत् १३५२ [१२९६ ई०] शुक्रवार, ६ वैशाख मास । वह, जिसका निवास पूर्व में है, जिसकी जाति मोर है, केलण का
' एक नया नाम, सम्भवतः 'मालय' अर्थात निवासस्थान ।
___ यह भी सम्भव है कि अल्लाउद्दीन को प्रसन्न करने के लिए उसकी स्मृति रक्षित करने हेतु 'मल्लेश्वर' नाम रख दिया हो। प्रायः ऐमा चलन है कि मन्दिर का निर्माता अपना या जिसके निमित्त मन्दिर बनाया जाता है उसके लघु नाम के साथ 'ईश्वर' शब्द जोड़ कर उस शिव मूर्ति को प्रसिद्ध करता है।
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