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प्रकरण २२
काठियों की प्राचीन राजधानी कंथकोट (Cath kote) ; कच्छ के रावों के श्मशान; भूज नगर; ग्रन्थकर्ता को बाड़ेचा सरदारों से भेंट; उनको पोशाक; राव देसल से मुलाकात ; काचमहल; दीवानखाना; जाड़ेचों के विषय में ऐतिहासिक टिप्पणियाँ; यदुवंश राजपूतों का वंशानुक्रम; हिन्दुनों के बेटी-व्यवहार का विस्तार; यदुवंश और बौद्ध धर्म की एकता; जाड़ेचों के पूर्वज यदु (यादव ]; यादवों की शक्ति; पश्चिमी एशिया से श्राई हुई इण्डो-सीथिक यादव-जाति; सिन्ध - सुम्मा जाड़ेचा; वंश-वृक्ष; जाड़ेचों की वंशावली में से उद्धरण; सिन्धसुम्मा जाचों का इस्लाम धर्म में परिवर्तन; लाखा गर्बीले के क्रमानुयायी; बहु-विवाह की बुराइयाँ; कच्छ में सुम्मा जाति की पहली बस्तो; जाड़ेत्रों में बाल-वध की कुप्रथा का मूल; मोहलत कोट ( Mohlut kote) की दुर्घटना; बालवध की कुप्रथा अब भी चालू है; प्रथम जाड़े चालाखा ; जाड़ेचा रियासत के संस्थापक रायधन द्वारा महान् रण में उपनिवेश का नेतृत्व; भुज का संस्थापक राव संगार; जाड़ेचों को ऐतिहासिक वंशावली के निष्कर्ष ।
जनवरी ४ थी - यदि किसी कट्टर पाश्चात्य देशीय घुमकक्ड़ व्यक्ति को अच्छी तरह व्यालू [ रात्रि भोजन] करा कर श्राप 'कॉफी' के बजाय 'घुड़सवारी' के लिए श्रामन्त्रित करें और जीन पर ही रात बिताने को कहें तो उसे बड़ी कठिनाई होगी; परन्तु, अभ्यास उसे जल्दी ही ऐसे अनुशासन का प्रादी बना देगा और यदि इस श्रम के पुरस्कार रूप में ऐसे पदार्थ देखने को मिलें जो मेरी दृष्टि में थे तो उसे एक प्रकार का अवर्णनीय आनन्द प्राप्त होगा । यदि उसके स्वभाव में थोड़ी-सी भी कल्पना-शीलता अथवा साहसिक कार्यों के प्रति अभिरुचि होगी तो उसके अपने ही विचार उसकी पलकों को निद्रा से बचा ही न लेंगे श्रपितु ऐसी कल्पना को जगा भी देंगे कि अनजाने ही उसे सवेरा श्रा पकड़ेगा और उसकी इच्छा होगी कि काश ! वह रात और उसकी कल्पनाएं और भी लम्बी होतीं ! कुछ संस्मरण और विचार तो उस समय जाग पड़ेंगे जब उसे अंधेरे जंगल और उजाड़ मैदान को पार करना होगा, जहाँ उसके प्रास-पास की मण्डली के अतिरिक्त आदमी का चिह्न भी दिखाई न पड़े अथवा जब काठियों की प्राचीन राजधानो कठ-कोट जैसे टूटे-फूटे खण्डहरों में मशालें चमक उठें, जहाँ में मन्दिर के टूटे हुए बड़े-बड़े पत्थरों में शिलालेखों की खोज में भटकता फिरा था । चारों ओर चुपचापी थी और मेरे व मेरे मार्ग-दर्शक के ही पदचाप उन पत्थरो को खड़खड़ा रहे थे; यही नहीं, उस समय हमारे वीर घोड़े भी नासमझ नहीं जान पड़ते थे क्यों कि वे भी अपने सवारों की तरह, एक दूसरे की भोर
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