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________________ ११८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा बहुत ही प्रभावपूर्ण था और जब यह समाप्त हुई तो सभी शिष्यों ने बारी-बारी से गुरु के चरणों में दण्डवत् (dandhote) की। इससे निवृत्त होकर वे दो-दो चार-चार की टुकड़ियों में अग्नि (धूनी) के चारों ओर इकट्ठे हो गए (जो ठंडी और नम हवा के कारण आवश्यक थी) और विशाल धर्मशाला के फर्श पर समय काटने लगे। मैंने अपनी भेट मेरे गुरु के द्वारा वृद्ध योगी के चरणों में चढ़वाई और अन्य सन्तुष्ट साधुओं को वहीं फर्श पर कलोल करते हुए छोड़ कर बाहर आ गया क्योंकि यद्यपि उनके शरीरों पर भस्म पुती हुई थी परन्तु उनके मोटेताजे शरीरों से यह स्पष्ट था कि उनकी तपस्या सच्ची नहीं थी। यदि नीचे के मैदान में, जहाँ थर्मामीटर १३५० पर था, वे आग जला कर उसके चारों ओर बैठते तो उसका कुछ मूल्य भी होता परन्तु यहाँ तो तापक्रम ७० ही था और बादल घिरे हुए थे, ऐसे स्थान पर यह अग्नि एक विलास का साधन मात्र थी।' मन्दिर के प्रवेश-द्वार की दोनों बाज़ काले संगमर्मर के पत्थरों पर दो परे शिलालेख थे (जिनकी प्रतिलिपि परिशिष्ट में दी गई है) उनकी नकल करने के कामों में गुरुजी को लगा कर में टॉर्च की रोशनी से चारों ओर के हिस्से को देखने लगा। पहली ही वस्तु जो बहुत रुचि की थी - वह अन्तिम परमार की छतरी थी, जो एक पतले से मार्ग द्वारा मन्दिर से पृथक बनो हुई थी। इस पर एक अण्डाकार गुम्बद खम्भों पर टिका हुआ है, नीचे एक वेदी पर परमार की मूर्ति खड़ी है, जो मुनि के प्रति विनयावनत है । पीतल की बनी हुई लगभग साढ़े तीन फीट ऊँची इस मूर्ति की ओर भी मुसलमान का ध्यान गए बिना न रहा और उसने धन की खोज में इसकी जांघ पर कुल्हाड़ी का वार कर ही दिया । शिलालेख से विदित होता है कि मुनि ने आबू के प्रति किए हुए पूर्ववणित दोहरे अपराध के कारण धारावर्ष की विनती पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस पवित्र पर्वत पर राज्य करने वाला वह अपनी शाखा का अन्तिम राजा था, परन्तु इतिहास में धार परमार के नाम का अब भी सम्मान है और पहाड़ों के निवासी उसे इसी नाम से पुकारते हैं; उसके शत्रुओं के इतिहास में भी बादशाह कुतुबुद्दीन के विजेता के रूप में उसका उल्लेख प्राप्त है जो उसके देश-प्रेम और पराक्रम का साक्षीभूत है। वह अल्तमश के समय तक पूर्णरूपेण सल्तनत की शक्ति के आधीन भी उस समय तक नहीं हुआ था जब तक कि नाडोल के चौहान विरोधी शक्ति से न जा मिले और उन्हीं की एक शाखा देवड़ा आगे , योगियों की तपस्या का एक यह भी प्रकार है कि वे वर्ष के उष्णतम महीनों में अपने चारों ओर भाग जला लेते हैं और बीच में बैठ कर एक बड़े चिमटे से उसमें लगातार इंधन डालते रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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