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प्रकरण - २२; यादव-कुन
[ ४७३ बात का प्रमाण दूसरी शताब्दी में 'बाहार' के राजा सोमप्रीति के प्रायः प्राप्त परम्परागत विवरणों में मिलता है; वह बौद्ध धर्मानुयायी यदुवंशी राजा था, जिसकी सत्ता के प्रतीक अजमेर, कोमलमेर और गिरनार में वर्तमान हैं। परन्तु, सौराष्ट्र के प्रायद्वीप में, जिसका माहात्म्य उनके नेता की मृत्यु, वहाँ होने से बढ़ गया था, छिन्न-भिन्न हो जाने के उपरान्त भी यादव-जाति शक्तिशाली बनी रही, इसके बहत से प्रमाण मिलते हैं और इनके लिए हमें शिलालेख तथा पवित्र पर्वतों के माहात्म्य देखने चाहिएं, जिनमें जूनागढ़ के यादव राजाओं द्वारा पवित्र बौद्ध धर्म के मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराने में उदारतापूर्वक धन-व्यय करने के कितने ही प्रसंग मिलते हैं। अन्य राज्यों के इतिहासों में भी जूनागढ़ के यादव राजाओं का उल्लेख उस प्राचीन समय से मिलता है जब उन राज्यों की स्थापना हुई थी; जैसे, मेवाड़ के इतिहास में जूनागढ़ के स्वामियों के रूप में यादवों' का वर्णन विक्रम की दूसरी शताब्दी से मिलता है, जब वे पहले-पहल यहां आकर बसे थे। इसी प्रकार जेठवों और चावड़ों के इतिहास हैं, जिनमें विक्रम की सातवीं और दसवीं शताब्दी में उनके साथ वैवाहिक सम्बन्धों का वर्णन है और यह समय जाड़ेचों के सिन्ध से कच्छ के प्रति निष्क्रमण से बहुत पहले का है। इस प्रायद्वीप में यादवों की स्थिति-विषयक प्राचीन कथाओं की बहुलता मेरे लिए बहुत समय से अस्पष्ट धारणा का कारण बनी हुई थी और में उनको तथा जाड़ेचा राजानों को उस समय तक एक ही समझता रहा जब तक कि उनके इतिहास से मुझे यह विदित नहीं हो गया कि अपर वंश की सत्ता तो सिन्धु पर 'सामीनगर' में बारहवीं शताब्दी तक कायम थी। संक्षेप में, मेरा अभिमत इस प्रकार है
कि यादव पश्चिमी एशिया से आए हुए इण्डो-सीथिक कुल के हैं और यहाँ के बहुत पुराने मूल निवासी हैं;
कि अपने पूर्वपुरुष नेता बुध (जिसको एरिअन ने Budaeus लिखा है) के अधिनायकत्व में उन्होंने समस्त गाङ्ग-भारत को अपने अधीन कर लिया था और उसको छोटी-छोटी रियासतों में अपनी शाखाओं के अनुसार बाँट लिया था, जो इतिहास और परम्परा में 'छप्पन कुल यादव' जैसे करु, पाण्डु, अश्व, तक्षक, शक, जीत आदि नामों से प्रसिद्ध हैं;
कि आन्तरिक अन्तर्जातीय-युद्धों के कारण वे बिखर गए और उनमें
' यह याव रखना चाहिए कि सरवेग (Sarwegas) और चूहासमा की प्रसिद्ध जातियां, जो
अब सौराष्ट्र में नहीं है, यदुवंश की ही शाखाएं हैं।
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