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________________ ६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा न हो जायगा ? इन गहरे हरे पत्थरों में, जिन पर तुम चल रहे हो, उन टूटीफूटी चट्टानों के टुकड़ों में, जिन पर घनी जंगली बेलें फैल गई हैं और जहाँ कभी झण्डा फहराया करता था, कितने गौरवपूर्ण इतिहास छुपे पड़े हैं ? ये अनावृत छतविहीन प्रासाद, जिनमें से आज हम विनीत किन्तु आशापूर्ण हो कर निकलते हैं और मतकों एवं जीवित व्यक्तियों के प्रति उदार भाव धारण करते हैं, (हमारी) विचारशील दृष्टि के लिए कितने उत्कृष्ट विषय एवं विचारों के लिए कितने पवित्र अाधार उपस्थित कर देते हैं ?" जैसे ही सूर्य-देवता ने हमारे चारों ओर फैले हए बादलों के अन्धकार को छिन्न-भिन्न कर दिया वैसे ही इस मोहक (जादू भरे) प्रदेश का भू-भाग अपनी चरम सीमा तक प्रभावोत्पादक नज़र आने लगा, स्थान के प्रत्येक परिवर्तन के साथ नई-नई वस्तुएं सामने आईं। सबसे पहले, देलवाड़ा के जैन-मन्दिर (द० ८०° प० छः मील दूर) जिनके पीछे ही अर्बुदा माता का शिखर है; फिर, गुरुशिखर (उ० १५° पू० चार मील पर) तथा इस अप्सरा-देश की दूसरी बहुत सी चोटियाँ भी दृष्टिगोचर हुईं जिनमें से प्रत्येक के नाम के साथ कोई न कोई जनश्रुति सम्बद्ध है । तीन घण्टे की यात्रा के बाद अत्यधिक शीत से (जब कि थर्मामीटर ६४° पर बैठ गया था) मुझे वह उन्नत निवासस्थान छोड़ देना पड़ा; उसी समय मेरे मार्गदर्शक ने व्यङ्ग्यपूर्वक कहा, 'इन्द्र और पर्वत का झगड़ा बहुत पुराना है ।' उतराई में मैंने मेवाड़ के सुयोग्य वीरों के प्रतिनिधि राणा कुम्भा को अश्वाधिष्ठित पीतल की प्रतिमा को नमस्कार किया-इस राणा ने इन्हीं दीवारों में बहुत सी लड़ाइयों में लोहा लिया था। इसके पास ही उसके पुत्र राणा मोकल और पौत्र उदय राणा की भी मूर्तियाँ थीं-'जिस (राणा उदय) ने सैकडों राजाओं की कीर्ति पर कालिख पोत दी थी।' मैं उस कायर पथभ्रष्ट की मूर्ति के पास से हट गया जिसके विषय में बाबर के प्रतिद्वन्द्वी, उसी के वीर पौत्र साँगा ने कहा है कि 'यदि उदयसिंह पैदा न होता तो राजस्थान पर तुर्कों का आधिपत्य कभी न हो पाता।' वहीं पर एक चौथी मूर्ति राणा कुम्भा के पुरोहित की भी थी जो आकार-प्रकार में सब से विशिष्ट थी। इस विशेषता का ठीक-ठीक कारण तो मुझे ज्ञात न हो सका परन्तु सम्भवतः यह किसी वीर-कार्य के उपलक्ष में ही बनी होगी, क्योंकि समय-समय पर ब्राह्मण भी राजपूतों के साथ रह कर बराबर की तलवार बजाते रहे हैं । इन भग्न दीवारों के बीच में अतीत के शुभ कार्यों के निमित्त [इन प्रतिमाओं की] आज भी जो पूजा होती है वह देखने लायक है; अचलगढ़ के त्राता की प्रार्थनाएं होती हैं तथा नित्य केशर-चन्दन चढ़ाया जाता है; और, यह सब उसके वंशजों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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