SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०] पश्चिमी भारत की यात्रा कर दी हैं ।' किले की ये दीवारें इस जंगल में बहुत ही मनोहर दृश्य उपस्थित करती हैं। यहाँ पर कुछ सुन्दर वनस्पतियाँ भी हैं जिनमें से एक बहुत ही सुन्दर और आकर्षक झाड़ी मेरे देखने में आई । इस पर झड़बेरी की सी शकल १ पहले मथुरा के पास गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी का मन्दिर था। औरङ्गजेब ने गोस्वामीजी को कुछ चमत्कार दिखाने को कहलाया। बादशाह की दुर्भावना से प्राशंकित होकर गोस्वामी विट्ठलनाथजी के पौत्र गिरिधारीजी के पुत्र दामोदरजी श्रीनाथजी की मूर्ति को रथ में विराजमान कर अपने काका गोविन्दजी, बालकृष्णजी, वल्लभजी और गंगाबाई सहित आश्विन शुक्ला ५ संवत् १७२६ (ता० १० अक्टूबर, १६६६ ई.) को घड़ी भर दिन रहे निकले और आगरा पहुँचे । सोलह दिन वहां रह कर कार्तिक शुक्ला २ (२६ अक्टूबर, १६६६ ई०) को बूंदी के महाराजा राव अनिरुद्धसिंह के पास आए । बरसात का मौसम कोटा के कृष्ण-विलास में बिता कर पुष्कर होते हुए कृष्णगढ़ पाए। वहाँ के राजा मानसिंह ने प्रकट रूप से रखने में असमर्थता प्रकट की तो वसंत और ग्रीष्म वहीं बिता कर मारवाड़ में चौपासनी में आकर वर्षा ऋतु व्यतीत की। इस प्रकार पहली वर्षा संजेतीधार के पास कृष्णपुर में, दूसरी कोटा के कृष्ण-निवास में और तीसरी चौपासनी में बीती। जब राजपूताने की किसी रियासत में भी श्रीनाथजी की प्रतिष्ठा न हो सकी तो गोस्वामी दामोदरजी के काका गोविन्दजी महाराणा राजसिंह प्रथम के पास गए। महाराणा ने श्रीनाथजी का पधारना स्वीकार करते हुए कहा-'मेरे एक लाख राजपूतों के सिर कट जाने के बाद ही आलमगीर मूर्ति को हाथ लगा सकेगा।' इस पर गोविन्दजी बहुत प्रसन्न हुए और कार्तिक शु० १५ संवत् १७२८ (१७ नवम्बर १६७१ ई०) को प्रस्थान कर के उदयपुर से १२ कोस उत्तर में बनास के तट पर सिहाड़ ग्राम के पास मन्दिर बनवा कर फाल्गुन कृष्णा ७ सं० १७२८ (२० फरवरी, १६७२ ई० ) शनिवार को श्रीनाथजी को पाट बैठाया गया। (वीरविनोद, ६-४५२-५३) नाथद्वारा में आने से पूर्व श्रीनाथजी की मूर्ति का पूजन केशवदेव के नाम से होता था। नाथद्वारा का पूर्व नाम सिहाड़ था। देखिए–'Mathura, a district memoir-- F. S. Growse; 1880-pp. 120-121' 'गोड़वाड़ा का परगना, जोधपुर आबाद होने से पहले मण्डोवर के राजपूतों से राणाई के खिताब सहित हासिल किया गया था। वह परगना राणा अरिसिंह ने राजा विजयसिंह (मारवाड़) को इस मतलब से दिया था कि कुम्भलमेर के झूठे दावेदार इस पर कब्ज़ा न करें और इस जागीर की एवज़ ३००० पैदल फौज़ राणां की नौकरी में रहेगी।' यह मारवाड़ी फौज़ नाथद्वारा में लालबाग के करीब रहती थी; वह जगह अब तक फौज के नाम से प्रसिद्ध है। (वीरविनोद, पृ० १५७३-१५७५; टॉडकृत राजस्थान, जि० १, प्रक० १६, पृ० ४६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy