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प्रकरण - २; उदयपुर से प्रस्थान
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वर्ग में प्रवेश किया था और बारह वर्ष बाद राजनैतिक मध्यस्थ बन कर श्राया था । इन सब के पीछे की ओर राता माता की ऊंची चोटी दिखाई देती है। जिस पर बनी हुई अनेक बुर्जे इस घाटी को बाह्य सीमा को सुन्दरता से प्रकट कर रही हैं ।
अपने बँगले से डेढ़ मील चल कर हम घाटी के उस तंग रास्ते पर पहुँचे जो गोगुंदा को जाता है । इस रास्ते ने एकदम बायीं ओर घूम खाकर हमें घाटी में बन्द कर दिया और उस भूमि पर ले जा पहुँचाया जहाँ अभी तक कोई यूरोपियन नहीं गया था । थोड़ी दूर तक हम ऐसे रास्ते से चलते रहे जो ऊँची-नीची विषमोन्नत जमीन पर था, परन्तु चढ़ाई बहुत कम थी; दोनों ओर की पहाड़ियाँ चोटी तक कांटेदार थूहरों से ढँकी हुई थीं जो यत्र-तत्र उगे हुए बड़े पेड़ों के नीचे झाड़ियाँ जैसी मालूम होती थीं ।
लम्बी-लम्बी मंज़िलें चलने से प्रादमियों और जानवरों दोनों के ही पैर थक जाते हैं इसलिए यह ग़लत तरीका है कि एक ही बार में बहुत दूर चल कर विश्राम लिया जाय । राजधानी से केवल छः मील दूर घॅस्यार पहुँच कर हम ठहरे । घाटी के दरवाज़े से ही चढ़ाई क्रमश: ऊँची होती गई थी और अब हम उदयपुर से कुछ सौ फीट की ऊंचाई पर आ गए थे । यद्यपि घॅस्यार के प्रवेशद्वार को अरावली की पूर्वीय पहाड़ियों का नाम देने को मेरा मन हुआ परन्तु मेरा विश्वास है कि इस पर्वत के ऊँचे भाग को चारों ओर से वेर कर जा मिलने वाली चट्टानों की श्रेणियों के बीच में, उदयपुर की घाटी को हमें एक उपजाऊ नखलिस्तान ही मानना चाहिए। घॅस्यार एक नगण्य-सा गाँव है परन्तु प्रापत्तिकाल में जब भारत के भगवान् विष्णु का मरहठों और पठानों ने सम्मान नहीं किया तब यमुना तट पर बने हुए आदिमन्दिर से औरंगजेब द्वारा खदेड़े हुए नाथद्वारा के श्रीनाथजी ने 'समस्त राजपूतों के राजा' के यहाँ शरण ली ; और तभी से श्रीनाथजी की पुनः प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त माने जाने के कारण इस स्थान की इतनी प्रसिद्धि हुई । वर्तमान गोस्वामीजी के पिता ही कोटा के ज़ालिमसिंह के अनुरोध करने पर महाराणा की अनुमति से श्रीनाथजी को, (पूर्व) नाथद्वारा से यहाँ लाए थे । इस स्थान के चारों ओर एक सुदृढ़ परकोटे द्वारा किलेबन्दी की गई है और परकोटे पर घाटी के आर-पार बुर्जे भी बनी हुई हैं। राजप्रतिनिधि (दीवान) ने सुरक्षा के लिए दो पैदल- फ़ौज की टुकड़ियाँ भी यहाँ पर नियुक्त
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