________________
२४० ]
पश्चिमी भारत की यात्रा और, यह भी किसी प्रकार सम्भव नहीं है कि जब मजहब के दीवाने 'अल्ला' ने एक बार इसके मन्दिरों और दीवारों को बरबाद कर दिया तो फिर किसी मुसलमान बादशाह ने हिन्दुओं के रहने के लिए इसका पुननिर्माण कराया हो। इस स्थापत्य का प्रकार 'अल्ला' से पहले गोरी वंश के समय का होने के कारण बहुत पुराना है। बाद में, इसमें धीरे धीरे कोमलता आती गई और अन्त में बेल-बूटे एवं फूल-पत्तियों की सजावट साज-सज्जा तथा मुगलों की स्त्रैण किन्तु अाकर्षक विशिष्टता का समावेश भी इसमें हो गया । नुकीली शैली के विभिन्न प्रकारों का भेद ज्ञात कर लेना योरप में बहुत आसान है परन्तु अरबों द्वारा पश्चिम में जीते हुए देशों में इण्डो-सारसेनिक (शुद्ध सारसेनिक प्रणाली से भेद करने के निमित्त इस शब्द के प्रयोग की हमें छूट दी जावे) प्रणाली में इन प्रकारों का भेद ज्ञात करना इसकी अपेक्षा कटिन है क्योंकि उन्होंने (अरबों ने) अथवा उनके अनुवत्तियों ने प्रत्येक धार्मिक इमारत को नष्ट कर दिया या इसलाम के इबादतखाने में बदल लिया, और इस प्रकार जानने का कोई चारा न रहा कि विशुद्ध हिन्दू प्रकार क्या था ? यदि कोई कलाकार अथवा गवेषक पुरानी दिल्ली जाये और कुछ महीनों तक विभिन्न राजवंशों के समय में बनी हुई टूटी-फूटी इमारतों के अपार ढेरों में रहे तो उन गम्बदों को बनावट को देख कर वह इनके भेद को इतिहास के पन्नों की अपेक्षा अधिक शुद्धता से जान सकेगा क्योंकि इनमें से प्रत्येक का प्रकार उन सभी शैलियों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट है, जिनको (पुस्तकों में ?) हमने गॉथिक बाइजेंन्टाइन या तेदेस्के (Tedesquc) सारसेनिक और सॅक्सन आदि कह कर विभक्त किया है। मैं समझता हूँ, प्रोजो (Ogee)' या सिकुड़ी हुई मेहराब को हम हिन्दुनों द्वारा आविष्कृत मान सकते हैं क्योंकि उनके सभी वैवाहिक अथवा विजय-काल के साधारण से साधारण तोरणों की बनावट इसी प्रकार की है और घोड़े की नाल जैसी नुकीली मेहराब, जिसको सारसेनिक कहना गलत न होगा, इसी का परिशोधित रूप हो सकता है। ज्योतिष को ऊँची से ऊँची गति, बीज-गणित और सूक्ष्मतम आध्यात्मिक विषय की सभी गुत्थियों को सुलझाने में जिन समृद्ध और वैज्ञानिक हिन्दुओं के अनुसंधान एक ऐसे स्थल पर विद्यमान हैं कि जिसके मूल में कोई विवाद नहीं है उन्हीं के विषय में, जंगली और
• इस प्रकार' का नाम 'प्रो-जी' इसकी प्राकृति के कारण पड़ा है जो ऐसा होता है जैसे 'G'
अक्षर पर '0' रख दिया गया हो। प्राचीन पाण्डुलिपियों में इसे Ressaunt (रेसाँ) कहा गया है ।--E.B. Vol: I; p. 468
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org