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________________ प्रकरण • १४; सवयवत्स-सावलिंगा को कथा [ ३११ उससे पहले उन्हें यह भी ज्ञात नहीं हुआ था कि अदृश्य रूप में कामदेव उनकी शिक्षा का अधिष्ठाता बन चुका था जिसने एक ऐसा पाठ पढ़ा दिया था कि जिसे पढ़ लेना सुकर था परन्तु प्राचार्य द्वारा प्रदत्त सम्पूर्ण ज्ञान के बल पर भी भुला देना कठिन था। अन्त में, वह घातक सत्य सामने आ ही गया, और सदयवत्स को उसके भविष्य का निर्णय कालिका माता की वेदी के सामने ही सुना दिया गया, जो उन दोनों की पारस्परिक शपथों की साक्षी थी कि वे एक दूसरे के लिए ही जीवित रहेंगे। यह निश्चय हुआ कि विवाह के दूसरे दिन प्रात:काल ही में पारकर का महाजन अपनी नव वधू को लेकर विदा होगा और मरुस्थल के मार्ग में पड़ने वाले सभी सौर-देशस्थ धार्मिक मन्दिरों के दर्शन भी करता हुमा जायगा। सावलिंगा ने किसी प्रकार इस कार्यक्रम की सूचना अपने प्रेमी को पहुँचा दी और अन्तिम मिलन के लिए देवी के मन्दिर का स्थान निश्चित किया जहाँ उन्होंने प्रेम-प्रतिज्ञा की थी। सदयवत्स देवी के मन्दिर में जा छुपा और प्रेमपगी प्रेमिका भी वहीं जा पहुँचो परन्तु देवी को एक स्त्री की यह कर्तव्यच्युति सहन न हुई क्योंकि वह अन्य पुरुष की परिणीता हो चुकी थी, अतः उसने राजकुमार को गहरो निद्रा में मग्न करके उस योजना को विफल कर दिया-ऐसी गहरी निद्रा में कि सावलिंगा की सभी प्रणय-चेष्टाएं उसे जगाने में असफल रहीं। समय के पर लग गये थे और यह डर सर पर चढ़ा था कि लोग इसे ढूंढ़ लेंगे; साथ ही इस बात का भी दुःख था कि वह अपने प्रेमी को वचन-पूर्ति की सूचना दिए बिना सदा के लिए छोड़ दे । अन्त में, उसे एक ही तरकीब तुरन्त सूझ पड़ी; पान के निचुड़े हुए रस (पीक) से उसने अपने प्रेमी की हथेली पर कुछ लिखा और विदा हो गई। स्पष्ट है कि जब राजकुमार की मोह-निद्रा भंग हुई तो वह बहुत निराश हुमा । उसने भिक्षुक का वेश बनाया, हाथ में दण्ड लिया, कन्धे पर मृगछाला डाली और प्रेमिका की खोज में पैठान का राजमहल छोड़ दिया।' पालीताना पहुँच कर वह शहर की पुरानी बावड़ी में मुंह हाथ धोने गया; जब वह स्नान करने लगा तो उसे एक पुर्जा दिखाई दिया जिस पर लिखा था 'कालिका के मन्दिर में ली हुई शपथ याद रखना।' इन अक्षरों का अर्थ समझाने के लिए किसी व्याख्याकार की आवश्यकता न थी; इन्हें प्रेम की आँखें ही पढ़ सकती थीं, और कोई नहीं । शालिवाहन के युवराज का हृदय खुशी से भर गया; उसने तुरन्त ही प्रसन्नता से अपना डण्डा उठाया और पाशा और उत्साह के साथ मरुस्थल की ओर पुनः प्रस्थान कर दिया। पाठकों को कहानी के इतने ही अंश से सन्तोष करना पड़ेगा (क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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