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पश्चिमी भारत की यात्रा और भी बढ़ गया।' (इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि वह काफिरों के हाथों में पड़ गया था) 'इस अवसर पर यद्यपि हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों के अधिक आदमी मारे गए थे परन्तु वे (हिन्दू) सन्धि के लिए प्रयत्न कर रहे थे और सभी तरह के दूत, चारण, भाट अथवा अन्य सन्देशवाहक महमूद के पास यह संवाद लेकर भेजे गए कि वह किसी भी शर्त पर और कितना भी धन लेकर आक्रमण बन्द कर दे। परन्तु, सोमनाथ के मन्दिर में सिजदा पढ़ने से कम किसी भी शर्त पर उसको सन्तोष नहीं हुअा। छठे मास में फिर घमासान युद्ध हुआ, जिसमें दोनों राजपूत योद्धाओं के मारे जाने पर शेष योद्धा रानी की रक्षा का प्रबन्ध कर के शत्रु का सामना करने के लिए सन्नद्ध हो गए। इस विशाल प्रतिरोध को बलपूर्वक रोकने में असमर्थ सुलतान ने चाल से काम लिया और समस्त रक्षकों को नियत स्थानों से हटा लिया । उसने पीछे हटने का बहाना किया, सभी उपलब्धियों को छोड़ दिया और चौकियों को तोड़ कर परकोटे से पाँच कोस पीछे हट गया। घिरे हुए योद्धा उसके जाल में फंस गए और अपने को मुक्त समझ कर खुशी के नारे लगाने लगे तथा हर्षोन्माद में प्रबन्ध को ढीला कर बैठे।
_ 'उस दिन जुमेरात अर्थात् इसलाम का रविवार' था। मध्यरात्रि में पैगम्बर का हरा झण्डा खोला गया और जफर व मुजफ्फर नामक दो भाइयों की अधीनता में एक चुनी हुई फौज की टुकड़ी के सुपुर्द किया गया। वे चुपचाप दरवाजे पर पहुंच गए । एक विशाल हाथी, जिसका सुदृढ़ मस्तक पुराने जमाने में दरवाजा तोड़ने के हथियार की एवज काम में लिया जाता था, द्वार के निकले हुए लोह-शूलों से युक्त कपाटों से जा टकराया; उस समय एक ऊंट को हरौल बनाया गया जिसके भारी शरीर के बीच में आ जाने से आक्रमणकर्ता का मस्तक बच गया और दरवाजे के किवाड़ टूट कर दूर जा गिरे । अन्दर युद्ध का ज्वार उठा और जफर बन्धुओं की अग्रिम टुकड़ी की सहायता के लिए स्वयं महमूद की अध्यक्षता में मुख्य सेना भी तुरन्त आ पहुँची। उस दिन अन्धाधुन्ध मारकाट मची। खुदा की बरकत और इसलाम के ईमान के नाम पर पट्टण की गलियों में खून की नदियां बह चलीं और जिन्होंने पैगम्बर के नाम पर रहम की प्रार्थना की उनके सिवाय कोई भी स्त्री, पुरुष किसी भी दशा में, शक्त, अशक्त, बच्चा या बुड्ढ़ा तातार की पाशविक फौलादी तलवार से न बच सका। अप
• जुमेरात शुक्रवार को कहते हैं; यहाँ रविवार से छुट्टी का दिन अथवा प्रार्थनादिवस से
तात्पर्य है।
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