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________________ प्रकरण ४ ; कानूनी संग्रह - ग्रन्थ का प्रभाव [ ६७ विधान - शास्त्री ( Justinian ) सामने नहीं आया है कि जो 'रेग्यूलेशन्स्' (नियम एवं पद्धति) कहलाने वाली इस विशाल, एकत्रित प्रौढ़ सामग्री को संक्षिप्त कर के सरल रूप में सामने ला सका हो । बात यह है कि हमारे एक या दो गवर्नरों के लिए निश्चित एक झपके का सा कार्यकाल इस काम को पूरा करने के लिए बहुत परिमित होता है अथवा इसको रोकने के लिए 'नीम हकीम खतर- ए जान' वाली क्षुद्र कहावत चरितार्थ हो जाती है । प्रस्तु, हम आशा करते हैं कि हमारे शासन की इस प्रसंगति को दूर करने के लिए किसी भावी राज प्रतिनिधि को सद्भावना से नहीं तो अपने को अमर बनाने की मिथ्या भावना से ही एक कानूनी संहिता (Code) बनाने की प्रेरणा मिलेगी जो जनता की समझ और मार्ग-दर्शन के निमित्त एक बार अपना लेने पर हमारी श्रेष्ठता का तब तक एक उपयुक्त प्रमाण बना रहेगा जब तक हमारे प्रोर शासित वर्ग के बीच अतलान्त महासागर लहरें मारता रहेगा । हमारे शासन के आधीन जो गहन जन-समूह है उस पर सभी परिस्थितियों में लागू हो सके ऐसे समान कानून का सङ्कलन बनाने में कठिनाई उपस्थित होने की बात कह कर इस प्रयत्न के शैथिल्य को सावा जा सकता है; परन्तु राजधानी से सटे हुए विस्तृत प्रान्तों में बिलकुल परीक्षण न करने की दशा में यह दलील ठीक नहीं जँचती, क्योंकि इन प्रान्तों के लिए बनाए हुए नियमों में राज्य विस्तार के साथ-साथ परिवर्तन व परिवर्द्धन किया जा सकता है । हमारे करद एवं प्राधीन राज्यों के विषय में हमारी राजनैतिक सन्धियाँ ही उनके साथ हमारे सम्बन्धों व व्यवहारों का आधार बन सकती हैं, फिर, इनमें भी किसी तरह एकरूपता लाई जा सकती है और इनको व्यक्तियों की इच्छा पर केन्द्रित करने के बजाय एक सामान्य रूप से अनुकूल बनाया जा सकता है । " १ मेरे इन्हीं विचारों से सम्बन्धित प्रश्नों का (जिनको मैंने बहुत वर्षों पूर्व लेखबन्द कर लिया था) मिस्टर मॅकॉले के स्पष्ट एवं अधिकारपूर्ण 'भारत की समस्या' विषयक भाषण में निरूपण किया गया है जो मेरे देखने में उस समय प्राए जब मैंने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि प्रेस में भेजने के लिए तैयार कर ली थी; वे इस प्रकार हैं- 'मेरे विचार से किसी और देश को कानून की इतनी आवश्यकता नहीं है जितनी कि भारत को । यही समय है। जब कि न्यायकर्त्ता (Magistrate ) यह समझ ले कि उसे किस नियम को लागू करना है और प्रजा को यह मालूम हो जाय कि उसे किस कानून के प्राधीन रहना है। मुझे लगता है कि विविध नियमों का एकीकरण करने की दिशा में, किसी भी जाति व धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाए बिना, बहुत कुछ किया जा सकता है। हम उन नियमों का एकीकरण करें या न करें परन्तु उनके बारे में अपना मत तो निश्चित कर लें, उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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