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________________ ४५८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा इधर-उधर होता रहता है। विश्व-प्रेमियों के विचारों ने अफ्रीकी दासों के मन पर बहुत असर कर लिया है जिन्होंने, मेरे संवाददाता के शब्दों में, 'श्रम और श्रद्धा (स्वामिभवित] को बिलकुल तिलाञ्जलि दे दी है ।' बेचारे सिद्दी (Sidi) की भाषा में सम्भवतः इन श्रम और श्रद्धा का अर्थ कोड़े और मेहनत के आगे आत्मसमर्पण करना है। उसने फिर कहा-'ये लोग अब हमारे काम के नहीं रहे क्योंकि जब उन्हें काम करने के लिए कहा जाता है तो वे जवाब देते हैं कि जब मर्जी होगी तब करेंगे और जब उनको सज़ा दी जाती है तो वे भाग जाते हैं । पहले, जब राव की सरकार सर्वेसर्वा थी तो उन्हें वापस माँग लिया जाता था परन्तु, अब वहाँ तुम्हारा [बृटिश] का भी दखल है । यदि मजबूर होकर अपना घाटा पूरा करने के लिए पगार या भोजन कम देते हैं तो वे चोरी कर के पूरा कर लेते हैं और यदि पीटने की धमकी देते हैं तो उनमें से कोई-कोई वापस तमाचा मारने को कहता है; जब कि पहले के जमाने में यह धमकी थी कि वे बदले में यह कहते हुए मर जायें कि-हमारी क्या जिन्दगी है ? मरने पर कौन रोने वाला बैठा है ? हमारे पीछे न बे-सहारा माताएं है न अनाथ बच्चे ।' यह मुझ से शब्दशः उस आदमी का कहना है, जो इस अपवित्र व्यापार से खूब फायदा उठा चुका था। मैंने सिही नाविकों से बढ़ कर प्रसन्न, चुस्त और गठीले आदमी और नहीं देखे चाहे वे सड़कों पर जहाजी बेड़े के सिपाहियों के रूप में घूमते हों या बन्दरगाह के बेड़े से सम्बद्ध हों। दासत्व के बुरे दिनों में इनमें से चुने हुए लोगों को ही दो या तीन सौ कौड़ी अर्थात् अस्सी रुपये या दस पाउण्ड मिलते थे। ऊपर लिखे आख्यान से विल्बरफोर्स (Wilberforce)' को कसा आनन्द प्राप्त होता! जनवरी ३ री-निर्दयी हवा अब भी प्रतिकूल रही अतः मैंने अपने कार्यक्रम में कुछ परिवर्तन कर लिया है और भुज के समुद्र-तट पर दौड़ जाने का निश्चय किया है । यदि वहाँ पर मुझे 'सराह' के विदा होने में देरी के समाचार मिले या लौटने पर भी हवा इसी तरह चलती रही तो फिर मैं किसी भी प्रकार की जोखिम उठाने को तैयार रहँगा । मैंने कल रात को ही एक घुड़सवार मिस्टर गार्डीनर के पास भुज दरबार का निमन्त्रण स्वीकार करने का समाचार लेकर भेज दिया है । मेरी यात्रा का कार्यक्रम जल्दी सम्पन्न कराने हेतु उन्होंने एक घोड़ों ' एक अंग्रेज विश्व-प्रेमी। इनका जन्म हल (Hull) में १७५६ में हुआ था । १७८० ई० में वृटिश पालियामण्ट के मैम्बर होकर इन्होंने दासप्रथा का अन्त करने के लिए बड़ा संघर्ष किया । अन्त में मार्च, १८०७ ई० में दास-प्रथा निरोधक बिल पास हुआ। विलबरफोर्स की मृत्यु २९ जुलाई, १६३३ ई० को हुई ।-N.S.E. p. 1297 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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