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समय पश्चात् यह नाम अमरावती अथवा 'अमर नगरी' में बदल गया जो पहले से सुन्दर तो अवश्य था परन्तु अधिक समय तक चल न सका । अतः यह 'बाघवती' ' अथवा 'बाघों का निवास स्थान' हो गई और फिर 'त्रिम्बावती' अथवा 'तारा-नगरी'' कहलाने लगी । यह अपर नाम इस विचार पर आधारित था कि इसका परकोटा ताँबे की धातु का बना हुआ था । अन्तिम परिवर्तन होकर यह खम्भायत' अथवा खम्भावती ( स्तम्भ नगर ) हो गई जिसका कारण यों बताया जाता है कि एक राजा ने खाड़ी का पानी या जाने अथवा मही की उपजाऊ मिट्टी अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाने के कारण प्राचीन नगर को निवासयोग्य नहीं समझा और वर्तमान नगर की स्थापना की । उस समय उसने देवी को प्रसन्न करने के लिए समुद्र तट पर एक स्तम्भ (देशी 'खम्भ' ) स्थापित किया और उस पर प्राचीन नगर एवं चौरासी ग्रामों की आय नवीन नगरस्थ देवी मंदिर के भोगराग-निमित्त व्यय करने का लेख उत्कीर्ण करवाया । यद्यपि उस स्तम्भ
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१ अमरावती नाम इसकी तत्कालीन शोभा सम्पन्नता के कारण ही पड़ा होगा ।
२ बाघवती तो नहीं, भोगवती: प्रथवा भोगावती नाम बहुत प्राचीन समय से मिलता है । सम्भव है, क. टॉड ने 'भोगवती' को ही 'बाघवती' समझ कर इस शब्द की व्युत्पत्ति 'बाघों का निवास स्थान' कर डाली है ।
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प्रकरण १३; खम्भात के प्राचीन नाम
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खम्भात गजेटियर, बम्बई (टिप्पणी), पृ० २१२ ।
वास्तव में म्बावती ताम्रलिप्ति (सं०) का अपभ्रंश है । ताम्रलिप्ति, तामलिति, तामलुक आदि नाम प्राचीन ग्रंथों और गुजराती रासो आदि में मिलते हैं। वेबर ने सिंहासनद्वात्रिंशिका के विवरण में Indische Studien, पृ० २५२ में साबरमती और मही नदियों के 'बीच ताम्रलिप्ति' का उल्लेख किया है ।
स्कन्दपुराण के कुमारिका-खण्ड के अनन्तर नगर - खण्ड (प्रध्याय २६४ ) में तारकासुर का निवास स्थान ताम्रवती नगरी लिखा है ।
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खम्भात अथवा खम्भायत नाम सिद्धराज के समय से भी बहुत पहले से चला आता है । अरब यात्रियों ने १५ ई० के लगभग भी इसका नाम कम्बायत या खम्भायत लिखा है । कहते हैं, पादलिप्ताचार्य ने प्रतिष्ठानपुर के सातवाहन राजा की पद्मिनी रानी चन्द्रलेखा के हाथ से पारद का स्तम्भन कराया था इसलिए इसका नाम स्तम्भनपुर पड़ा । वि० सं० ११६३ में पं० गंगाधर - रचित 'प्रवासकृत्य' नामक ग्रन्थ में भी इसका नाम 'स्तम्भतीर्थ' लिखा है । मेरुतुंगाचार्य ने स्वरचित ' स्तम्भनाथ चरित्र' में लिखा है "सं० १३६८ वर्षे इदं.... बिम्बं श्रीस्तम्भतीर्थे समायात्" । इससे विदित होता है कि स्तम्भपार्श्वनाथ की स्थापना से पूर्व ही इस स्थान का यह नाम प्रसिद्ध हो चुका था ।
कुछ विद्वानों का मत है कि शिव का पूजन प्रत्यन्त प्राचीन सभ्यता का अंग रहा है। यह महादेव श्रथवा 'शिव-लिंग' स्तम्भ अथवा 'स्कम्भ' के प्राकार में पूजा जाता है इसलिए 'स्तम्भायतन' अथवा 'स्कम्भायतन' से ही बिगाड़ कर 'खम्भायत' या ' खम्भात' बना है ।
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