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प्रकरण - ३, भीलों की शक्ति
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पड़े । परन्तु इतनी हिम्मत और चतुराई के होते हुए भी मीणे परास्त हुए और दोनों ओर के कुछ प्रादमी मारे गए जिनमें पुजारो (Pudzaroh) का भतीजा भी था, जिसके कुछ रिश्तेदार मुझे घाटी पार करने तक पहुँचाने आए थे।
जिन लोगों को ऐसे झगड़ों और पुराने जमाने की महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों के उपाख्यान सुनने का शौक है उनके लिए यहाँ को प्रत्येक घाटी और नाळ पुरावृत्त से भरी पड़ी है; और यदि मुझे पाठकों के अत्यधिक धैर्य और समय को नष्ट करने का ध्यान न होता तो मैं ऊटवण के मीणों द्वारा अरावली की गोशालाओं पर हुए आक्रमणों के और भी रोचक वर्णन प्रस्तुत करता; अथवा प्रोगणा, पानरवा तथा मेरपुर के अधिक सभ्य भाई-बन्धुनों के साथ मिल कर कुछ दूर के छप्पन' के भोलों के हमलों का भी बयान करता। मैं समझता हूँ कि मीणों का संक्षिप्त इतिहास ही पर्याप्त स्थान ले लेगा और भीलों के इत्ति वृत्त पर तो पहले ही बहुत कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। फिर भी, इन स्थानों का भौगोलिक चित्रण करते हुए मैंने 'स्वतंत्र' भील जाति के विषय में थोड़ा-सा वर्णन किया है जो उनके रहन-सहन, रीति-रिवाजों और 'पृथक्' स्थिति के कारण बहुत ही मनोरञ्जक है।
पहले कह चुका हूँ कि मेरा इरादा इन गाँवड़ों में हो कर सीधा प्राबू/जाने का था परन्तु मेरा विचार है कि जो रास्ता मैंने अब चुना है उससे दिलचस्पी और भी बढ़ जायगी । जब मैं 'पृथक्, या स्वतन्त्र' शब्द कहता हूँ तो मेरा तात्पर्य भौगोलिक एवं राजनीतिक स्थिति के दृष्टिकोण से है । ऊँचे-ऊँचे पर्वतों से पावत, अनेक घाटियों और वनों से सुरक्षित, सेना की टुकड़ियों के लिए दुर्भेद्य स्थानों में ये लोग पूर्ण स्वतन्त्रता का जीवन व्यतीत करते हैं; ये अपने सरदार ही के अधीन हैं, जो यदि अपनी घाटियों के रक्षार्थ इनको इकट्ठा करे तो निश्चय ही 'पन्द्रह हजार धनुष' एकत्रित हो सकते हैं। इस अर्द्ध-स्वदेशी भ्रात-संघ (बिरादरी) के मुख्य गाँवों के नाम पानरवा, प्रोगणा, जड़ा मेरपुर, जवास, सुमाइजा, मादड़ी, औजा, आदिवास, बँरोठी, नवागांव आदि हैं जिनके
१ दक्षिणी मेवाड़ का भील प्रदेश । + में इसे Transactions of the Royal Asiatic Society के लिए एक निबन्ध का
विषय बनाना चाहता हूँ। [ यह भी उन बहुत से बहुमूल्य संस्मरणों में से है, जिनसे लेखक कर्मल टॉड की दुखद
मृत्यु के कारण, जनता वञ्चित रही।] 3 इस जाति के विस्तृत वृत्तान्त के लिए 'Transactions of the Royal Asiatic
Society, Vol. (i), p. 65' में स्वर्गीय सर जॉन मालकम का लेख पढ़िए ।
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