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पश्चिमी भारत की यात्रा मुखिया, वन-पुत्र अथवा वनराज नाम का उपहास करते हुए, अपनी उत्पत्ति, वंश और रक्त राजपूतों से सम्बद्ध बतलाते हैं। पानरवा का मुखिया इन सब का स्वामी है और दशहरे के सैनिक पर्व पर सब लोग इसके सामने उपस्थित होते हैं । वह 'राणा' की उच्च उपाधि धारण करता है और कम से कम बारह सौ 'पुरे' और 'पुरवे' उसके सीधे अधिकार में हैं। इनमें बहुत से तो बिलकुल छोटे-छोटे हैं और अधिकांश एक ही बड़ी घाटी में कुछ कोसों के गिरदाव में स्थित हैं, जिनमें गेहूँ, चना, मूंग-मोठ रतालू, हल्दी (Puldi) और खाने योग्य कन्द अरबी, जो जरूसलम (Jerusalem) के चुकन्दर या हाथीचक्के जैसा होता है, बहुतायत से बोये जाते हैं। ये अपनी आवश्यकता से अधिक पैदा होने वाली चीजों को पड़ौसी रियासतों में भी भेजते हैं। आडू और अनार, जो इन पहाड़ियों की अपनी चीजें हैं, प्रोगणा और पानरवा में दोनों ही जगह बहुत पैदा होती हैं। प्रोगणा का मुखिया, जिसका नाम लालसिंह है, पद में दूसरे स्थान पर है। उसकी पदवी रावल है और वह नापने आपको पानरवा के अधीन मानता है। उसकी जागीर में साठ पुरे और पुरवे हैं। ओगणा, जो पानरवा से बीस मील दूर है, छोटा नाथद्वारा कहलाता है और मेरपुर जितना ही समृद्ध है । गोगुन्दा-सरदार का निकाला हुआ प्रधान प्रोगणा के भोमियाँ भील के यहाँ उसी पद पर नियुक्त है । ये लोग इस विशेषण (भोमियां) के प्रयोग के विषय में बहुत ध्यान देते हैं क्योंकि इससे भूमि के साथ उनकी आत्मीयता सिद्ध होती है और वास्तव में यह उनको भूमि का प्रादि-स्वामी सिद्ध करता है । पानरवा के राणा का एक छोटा-सा दरबार है जो राणा के दरबार की नकल है। मुझे बताया गया कि इस दरबार में पूर्ण शिष्टाचार बरता जाता है और 'राणा' भी अपने अधीनस्थ अनेक धनुर्धारी दरबारियों से महाराणा की तरह सम्मान प्राप्त करता है। पानरवा, भोगणा और अन्य अधीन मुखिया अपने को परमाररक्त का बताते हैं और जूड़ा-मेरपुर, जवास तथा मादड़ी के भोमियों से बेटीव्यवहार करते हैं जो अपने को राजपूतों की चौहान शाखा से सम्बद्ध मानते हैं । जूड़ा और मेरपुर, जिनका नाम सदैव एक साथ लिया जाता है, एक दूसरे से पाँच मील की दूरी पर बसे हुए हैं और नायर नामक क्षेत्र में स्थित हैं जो ईडर की सीमा को स्पर्श करता हुआ कम से कम नौ सौ झोंपड़ियों को अपने अंक में लिए हए है। मेरे सैमूर के पड़ाव से जूड़ा केवल बारह मील था और प्रोगुणा उससे आगे आठ मील । परन्तु रास्ता एक ऐसे जंगल में हो कर जाता था जो दुर्गम्य था । गोगुंदा से भी प्रोगणा उतनी ही दूर था। बीच में राणाजी की सीमा पर सूरजगढ़ की चौकी थी, जहाँ पर इन स्वतन्त्र निवासियों को दबाने
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