SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण • ३; भीलों का रहन-सहन [ ३१ के लिए अथवा आवश्यकता पड़ने पर इनसे सहायता लेने के लिए सीमान्त फौजी दस्ता तैनात था। निस्संदेह, प्राचीन काल में ये सभी वनपुत्र हिन्दूपति (राणा) के परम आज्ञाकारी रहे हैं। जब राणा के घराने की प्रतिष्ठा पर मुगलों की ओर से प्रायः आघात होते रहते थे तब इन लोगों ने उसकी रक्षार्थ सर्वोत्कृष्ट सेवाएं अर्पित की थीं। कुछ तो उन सेवाओं के प्रति कृतज्ञभाव के कारण और कुछ इन लोगों के दुर्दमनीय होने के कारण इनकी स्वतन्त्रता अक्षण्ण बनी हई थी। फिर, इन पर आक्रमण करना भी खतरे से खाली नहीं था। एक बार उदयपुर और प्रोगणा के बीच की सीमान्त चौकी पर जीरोल के ठाकुर और प्रोगणा के भील में झगड़ा हो गया, जो अपने आदमियों को चौकी पर चढ़ा ले गया था, परन्तु उनमें से समाचार कहने के लिए भी कोई नहीं लौटा। बदले में, जोधराम अपने दोहरा कवचधारी घुड़सवारों को चढ़ा लाया और उधर हजारों धनुर्धारी इकट्ठे हो गये । परन्तु, केवल पच्चीस राजपूत घुड़सवारों ने उस भारी भीड़ पर आक्रमण किया और मार-काट मचा कर उनको हरा दिया तथा गाँव में घुसकर लूटपाट करके बारह हजार का माल ले गए। खर [5] क नामक क्षेत्र, जिसकी राजधानी जवास है, डूंगरपुर और सलूम्बर की सीमाओं को स्पर्श करता है; यहाँ के ठाकुरों का इस क्षेत्र के निवासियों से निरन्तर वैर बना रहता है । ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरे हुए और विशेषतः बांस तथा धोक के घने जंगलों से ढंके हुए इस क्षेत्र पर कितनी ही फौज लेकर भी सफल अाक्रमण करना सम्भव नहीं है और यदि इन लोगों को अचानक भी धर दबाया जाय तो भी आक्रामकों में से कुछ तो अवश्य ही काट डाले जाएंगे। घाटी के रास्ते पर यदि कोई पेड़ काटने की हिम्मत करता है तो उसके भाग्य में मृत्यु निश्चित ही समझनी चाहिए। प्राग के (दारू गोले के) हथियार केवल गाँव के ठाकुरों और मुखियाओं द्वारा ही प्रयुक्त किए जाते हैं। इनका राष्ट्रीय शस्त्र कुम्प्टा या एक बाँस का धनुष होता है जिसके पतली और लचकीली छाल की पट्टी से चुल्ल' बंधी रहती है। प्रत्येक भाथे में साठ नुकीले तीर होते हैं । यद्यपि ये लोग अपना निकास विभिन्न राजपूत शाखाओं से मानते हैं और अपनी जातियों के साथ वही अवटंक लगाते हैं, जैसे चौहानभील, गहलोत-भील, परमार-भील इत्यादि, परन्तु इनकी उत्पत्ति का ठीक-ठीक पता तो उन देवताओं से चलता है जिनकी ये पूजा करते हैं और उन भोजनविषयक मान्यताओं से भी, जो इनमें प्रचलित हैं। ये कोई भी सफेद रंग की चीज नहीं खाते, जैसे सफेद भेड़ या बकरी; और इनकी सब से बड़ी शपथ ' प्रत्यञ्चा, डोरी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy