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________________ प्रकरण - ५ ; रामानन्द की पादुकाएं [८१ और बहुत सी दूसरी अनोखी वनस्पतियों से भी मार्ग सजा हुआ था; परन्तु पर्वत के अन्य भागों में इनकी बहुतायत होने के कारण आबू की उपज का सामान्य वर्णन करते हुए इन पर अन्यत्र विचार किया जायगा। जब हम अाबू की सब से ऊंची चोटी की ऊँचाई पर, जहाँ अब तक किसी यूरोपनिवासी ने कदम नहीं रखा था, पहुँचे तो सूर्य आकाश के मध्य में प्रा चूका था। यद्यपि पहाड़ की चोटी पर देखने में कोई ऐसी चढ़ाई नहीं मालूम पड़ती थी परन्तु जैसे ही हम मारवाड़ के मैदान में हो कर पहुँचे तो यहाँ पर पठार की सतह से पूरे सात सौ फीट की ऊँचाई थी; फिर भी मेरा सुस्त बॅरामीटर केवल १५' की ही ऊँचाई बता रहा था और अभी २७°१०' पर ही बना हुना था; उधर थर्मामीटर, जिसे हिन्दुस्तान के उष्णतम दिनों में और अयनवृत्तीय प्रदेश में खुली धूप में देखा गया था, ७२° पर आ गया था और बॅरामीटर की अपेक्षा अच्छा मार्ग-प्रदर्शन कर रहा था। दक्षिण की ओर से बहत ठण्डी हवा तेजी से चल रही थी जिसके प्रभाव से बचने के लिए होशियार पहाड़ी लोग अपनो काली कम्बलियों में लिपट कर एक ऊँची निकली हुई चट्टान के सहारे जमीन पर सीधे लेट गए थे। उस समय का दृश्य वास्तव में गम्भीर और विचित्र था। बादलों के समूह हमारे पैरों तले तैर रहे थे और उनमें हो कर कभी-कभी सूर्य की एक किरण फूट पड़ती थी मानो इसलिए कि अत्यधिक प्रकाश के कारण हम चौंधिया न जायें। इस धुंधली ऊँचाई पर एक छोटा सा गोल चबतरा है जिसके चारों ओर छोटी-छोटी चारदीवारी बनी हुई है। इसके एक तरफ एक गुफा है जिसमें ग्र्यानिट पत्थर के बड़े टुकड़े पर दाता भृगु (विष्णु के अवतार) के चरणचिह्न अंकित हैं, जो यात्रियों के लिए यहाँ की यात्रा का परम उद्देश्य हैं; दूसरे कोने में सीता [श्री ?] सम्प्रदाय के महान् प्रवर्तक रामानन्द' , 'वैष्णवमताब्जभास्कर' के अनुसार रामानन्द स्वामी के सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत - सम्मत हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार चित् (चेतन-Mind) और अचित् (अचेतन-Matter) दोनों का अस्तित्व ईश्वर से भिन्न नहीं है । चिद्विशिष्ट और अचिद्विशिष्ट ईश्वर एक ही है। वह जगत् का कारण भी है और कार्य भी । वह स्थूल और सूक्ष्म दोनों अवस्थानों से विशिष्ट रहता है इसी लिए विशिष्टाद्वैत कहलाता है। श्रीरामानन्दजी ने सीता और लक्ष्मणसहित श्रीराम की उपासना का विधान निर्दिष्ट किया है । सीता सृष्टि की उदभव. स्थिति-संहाररूपिणी प्रकृतिस्थानीयाँ हैं, लक्ष्मण जीव-स्थानीय हैं और श्रीराम ईश्वरतत्व के प्रतीक हैं। इस सम्प्रदाय की प्रवतिका श्रीसीताजी मानी जाती हैं जिन्होंने सर्वप्रथम हनुमानजी को मंत्रोपदेश दिया। इसीलिए यह सीता-सम्प्रदाय अथवा श्री-सम्प्रदाय कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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