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________________ ११० ] पश्चिमी भारत की यात्रा दिया गया था तब उसने परमारों के बहुत दिनों से उजड़े हुए किलों पर सूर्य (वंश) का झण्डा फहराया था । यहाँ के प्रत्येक पत्थर में इतिहास भरा पड़ा है परन्तु उनका उपयोग करने के लिए भूत काल के विषय में पूरी जानकारी का होना आवश्यक है । वाणिकराज के कार्यों का अध्ययन करने में मुझे प्रायः एक महीना लग जाता परन्तु समय बहुत कम था और ऐसे ही श्रीर भी महत्त्वपूर्ण अन्य स्थान मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे । चौक पार कर के कुछ सीढ़ियों द्वारा हम सर्वाधिक प्रसिद्ध तेवीसवें जिनेश्वर पार्श्वनाथ के मन्दिर में पहुँचे जो पूर्वोक्त मन्दिर से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। इस मंदिर का निर्माण भी जैन- मतावलम्बी तेजपाल और बसन्त वस्तु ? ]पाल नामक वैश्यबन्धुत्रों ने करवाया था जो धारावर्ष के राज्य में चन्द्रावती नगरी के निवासी थे जब कि भीमदेव पश्चिमी भारत का सार्वभौम शासक था । इस मन्दिर का नक्शा और बनावट भी अन्य सभी उपकरणों सहित पूर्ववर्णित ( वृषभदेव के ) मन्दिर के नमूने पर निर्मित हुए हैं, परन्तु सब मिला कर यह उससे बढ़कर है । इसके वैभव में सादगी अधिक है, मण्डप के कामदार खम्भे अधिक ऊँचे हैं और अन्दर की ओर छत पर यद्यपि कुराई का काम उसी मात्रा में हो रहा है परन्तु कारीगरी, विशदता और परिष्कृत रुचि के विचार से यह उससे उत्कृष्ट है । गुम्बद का व्यास भी माप में दो फीट अधिक अर्थात् २६ फीट है; संगमर्मर भारी-भारी भारपट्ट भी पन्द्रह-पन्द्रह फीट लम्बे तथा ऊपर रखे हुए भार के अनुपात से ही ठोस एवं वजनदार हैं। खम्भों की पंक्ति भी पूर्व वर्णित प्रकार के अनुसार ही है और उसी तरह बीच-बीच के स्तम्भों द्वारा चौक से सम्बद्ध हो जाती है। बीच की गुम्बद तथा इसके आस-पास की छतरियों पर जो कुराई का काम हो रहा है उसकी महर्षता एवं विचित्रता का ठीक-ठीक वर्णन करना सम्भव है । विशाल छत से लटकते हुए एक भी लटकन की उपेक्षा करना हमारे लिए उचित न होगा, जिसका चित्रण करने में लेखनी चीं खा जाती है और गम्भीर से गम्भीर कलाकार की पेंसिल [ तूलिका ? ] को भी पूरा जोर पड़ता है । यद्यपि गॉथिक गिरजाघरों की दीवारों में उभरी हुई घोड़ियों से इनका कुछ कुछ साम्य है, परन्तु गॉथिक वास्तुकला की फूलपत्तीदार शैली में कोई भी ऐसी बात नहीं है जो इनकी महता के साथ तुलना में ठहर सके । श्राकार में ये तीन-तीन फीट लम्बे बेलन के समान हैं और जहाँ से ये छत से लटकते हैं वहाँ अर्द्धविकसित कमल के समान दिखाई देते हैं जिनके पल्लवों की गहराई इतनी बारीक, उज्ज्वल तथा शुद्ध रूप में दिखाई गई है कि देखते-देखते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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