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________________ प्रकरण - ६; पार्श्वनाथ का मन्दिर [ १११ माँखें वहीं अटक जाती हैं । भर्द्धगोलाकार गुम्बद एक ही केन्द्र से चली हुई घनोत्कीर्ण विभाजक रेखाओं द्वारा सम-विभागों में बंटा हुआ है जिनके बीच-बीच की जगह में भी सुन्दर एवं विशद कुराई का काम हो रहा है। एक विभाग में एक मद्यगोष्ठी का चित्रण है जिसमें सभी लोग मतवाले होकर वर्ष के प्रारम्भ में प्रानन्द मना रहे हैं, समस्त प्रकृति उत्सव-मग्न है, धनवान व्यक्तियों ने नव-वसन्त के उल्लास में लक्ष्मी का ध्यान भुला दिया है (अर्थात् खुले हाथों धन खर्च कर रहे हैं); सम्भवत: इससे निर्माता के नाम का सन्दर्भ समझाया गया है-वसन्तपाल अर्थात् वसन्त द्वारा पालित । एक अन्य विभाग में फलों, फूलों और पक्षियों से युक्त मालाएँ बनी हुई हैं, इनका काम ऊपर से नीचे तक बहुत ही स्पष्ट है और इसी में कुछ योद्धाओं की आकृतियाँ भी मौजूद हैं जिनमें से प्रत्येक एक ऊँचे पीठ पर अपने ढंग से खड़ा हुआ है-हाय में तलवार अथवा राजदण्ड है-ये सम्भवतः, अणहिलवाड़ा के राजा हैं। तुरन्त ही, तोरण हमारा ध्यान छत से अपनी ओर खींच लेता है । ऐसा प्रतीत होता है मानों यह दो समुद्री-परियों के मुखों से निकल पड़ा है, जिनके मुख उन स्तम्भों की ऊपरी चौकी पर उद्गत हुए हैं, जो मेहराब (तोरण) को अपने ऊपर साधे हुए हैं। इसका शाब्दिक वर्णन करना व्यर्थ है-अब, हमें मण्डप से मन्दिर की ओर चलना चाहिए। सीढ़ियाँ चढ़ कर हम जगमोहन (दालान) में आते हैं, जिसके दोनों बाजू एक-एक ताक बना हुआ है-वह प्राधा दीवार के अन्दर है और प्राधा बाहर निकला हुआ है। धरातल एक वेदी के रूप में है और छोटे-छोटे पवित्र स्तम्भ एक बहुत ही सुन्दर कामदार चँदोवे को साधे हुए हैं । बनावट अत्यन्त सादी है परन्तु इसे कोई भी चीज पा नहीं सकती; किसी भी रेखा अथवा तल में असमानता ढूंढने पर भी नहीं मिलती। छीनी का काम इतनी सफाई का है कि यह सब मोम में ढला हुआ सा प्रतीत होता है; अर्द्ध-पारदर्शक किनारे मोटाई में एक रेखा के चतुर्थांश भी नहीं हैं। इन ताकों पर सवा लाख रुपया अर्थात् लगभग बारह हजार पौण्ड व्यय हा बताया जाता है । अकेला एक व्यक्ति ही उस ज़माने में इतना धनवान था। आजकल तो अणहिलवाड़ा राज्य की पूरे वर्ष की आय में भी ऐसा एक मन्दिर न बन सकेगा। वेदी पर पार्श्व [ नाथ विराजमान हैं जिनका चिह्न सर्प है । यहां भी पूजा के उपकरण वही हैं; केशरार्पण-विधि, घृत-दीपों के झाड़, धूप, स्फटिक नेत्र, हीरे का टीका और प्रधान मूर्ति के चारों ओर अवर देवताओं की पीतल की मूर्तियाँ । ___ अब हम मन्दिर के चारों तरफ वाले चौक में चलें। इस चौक का क्षेत्रफल प्रायः पहले वाले चौक जितना ही है-शायद कुछ अधिक हो । दोहरे खम्भों वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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