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पश्चिमी भारत की यात्रा में घूमने वाला शृगाल भी, उसकी प्रकृति को देखते हुए, अघोरी की अपेक्षा अधिक स्वच्छ होता है । यह पशु दुर्गन्धि एवं सडान्द से दूर भागता है और अपनी जाति के मृत पशु का शिकार नहीं करता; परन्तु अघोरी ऐसा नहीं करता, उसकी समदृष्टि में, अथवा यों कहें कि भूख में मरा हुआ मनुष्य और मरा हुआ कुत्ता समान है और यह कितना घणित है कि वह मल-भक्षण करने में भी हिचक नहीं करता । मैंने सुन रखा था कि ये अभागे आबू में ही नहीं वरन् सौर प्रायद्वीप के अन्य पहाड़ों की कन्दरामों में भी, जो जैन धर्म को अर्पित हैं, वर्तमान हैं । प्रतिभाशाली द' अॉनविले' (D' Anville) ने उनको 'राक्षसों की एक जाति' (Une espece de monstre) बताया है जिनके अस्तित्व में उसने अपने देशवासी यथार्थलेखक थोवेनॉट (Thevenot) के लेखों के उद्धरण देते हुए. सन्देह प्रगट किया है । वह कहता है कि "थीवनॉट ने उस स्थान के निवासियों में ऐसी असाधारण पोरता और दुर्दम्य साहसिक प्रकृति का अनुभव किया कि उनके बीच में होकर जाने वाले के लिए शस्त्र-सज्जित होना आवश्यक था; साथ ही वे उन लोगों से कुछ आगे बढ़े हुए भी थे जिनको “मदि कोर" [मुर्दाखोर] या नर-भक्षी कहते हैं । यह बात पहले किसी यात्री को साधारण रूप में ज्ञात नहीं थी, यह इससे सिद्ध होता है कि इस वर्णन-कर्ता को 'मदि कोर' शब्द का परि
१ Jean Baptiste Bourguingnon D' Anville का जन्म १६९७ ई० में पैरिस में हुआ
था। उसने प्राचीन भूगोल-शास्त्र का गम्भीर अध्ययन करके बहुत से तथ्यों की खोज, पुरानी मान्यताओं में संशोधन और कितने ही स्थानों की भौगोलिक स्थिति का मानचित्रों में शुद्ध अंकन किया था। जिन स्थानों व नामों के विषय में पूरे प्रमाण उपलब्ध नहीं हुए उनको उसने अपने बनाए हुए मानचित्रों में स्थान नहीं दिया। अपने अनुसन्धानों और संशोधनों को अधिकाधिक उपयोगी बनाने के लिए उसने १७६८ ई० में Geographie Ancienne Abregee नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसका अंग्रेजी अनुवाद Compendium of Ancient Geography शीर्षक से १७६१ ई० में प्रकाश में आया। १७७५ ई. में भूगोलवेत्ता के रूप में उसे Academy of Sciences का सदस्य बनायां गया और बड़े सम्मान के साथ First Geographer to the King (राजकीय प्रथम भूगोलशास्त्री) भी नियुक्त किया गया। द'पानविले की मृत्यु जनवरी, १७८२ में हुई थी। उसके अन्य संस्मरणों और शोधपत्रों की कुल संख्या ७८ और मानचित्रों की २११ थीं । De Manne नामक प्रकाशक ने उसकी सम्पूर्ण कृतियों को प्रकाशित करने की घोषणा १८०६ ई. में की थी परन्तु सन १८३२ ई० में उसकी मृत्यु के समय तक केवल उनमें से दो ही प्रकाशित हो सकी थीं। -E. B. Vol. VI, pp. 820-21
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