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प्रकरण - ७; रुद्रमहालय के अवशेष
[ १४३ शिलालेख मिले जिनमें से एक से विदित होता है कि राजा मूलराज (अणहिलवाड़ा के सोलंकी वंश के प्रवर्तक) ने इसको संवत् ६६८ (६४२ ई० ) में बनवाना आरम्भ किया था और दूसरे से ज्ञात होता है कि सिद्धराज ने इसे पूरा करवाया । इस लेख का अनुवाद इस प्रकार है- 'संवत् १२०२ ( ११४६ ई०) में माघ मास की चतुर्थी कृष्णपक्ष को सोलंकी सिद्ध ने रुद्रमाला को पूर्ण कराया और शुद्ध मन से शिव का पूजन कराया, इससे संसार में उसका यश फैला ।'
एक पद्य में अलाउद्दीन द्वारा इस (मन्दिर) के विध्वंस का विवरण है'संवत् १३५३ (१२६७ ई० ) में म्लेच्छ अला आया, नरेशों का नाश करते हुए उसने रुद्रमाला का विध्वंस किया ।' फरिश्ता के मतानुपार इसी संवत् में गुजरात विजय हुआ और यहां के राजा कर्ण का वध हुआ था जिसको इन इतिहासकारों ने भूल से गोहिल लिख दिया है । परन्तु उस निर्दय अत्याचारी अलाउद्दीन के मन में भी, जिसका नाम ही 'खूनी' प्रसिद्ध हो गया था, कोई न कोई मनोव्यथा अथवा पश्चात्ताप का भाव आ गया प्रतीत होता है; तभी तो उसने मूर्तिपूजकों के विशाल मन्दिर का इतना मात्र अंश बाको छोड़ दिया। इसके अतिरिक्त मेरे साथियों ने सांखला भाट ( Chronologist) से भी मेरी जान पहिचान कराई जिसे बहुत सी पुरानी बातें याद थीं और वह बहुत से ऐतिहासिक गीत दोहराता था; एक नमूना यह है - 'रुद्र के मन्दिर में १६०० स्तम्भ थे, १२१ रुद्र की प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न कक्षों में विराजमान थीं, १२१ स्वर्ण काश, १८०० अ देवो देवताओं की मूर्तियाँ ७,२१३ विश्रामजो मन्दिर के भीतर और बाहर बने हुए थे, १,२५००० कुराईदार जालियां व पर्दे और निशान तथा ध्वज लिए हुए चोबदारों, योद्धागणों, यक्षों, मानवों तथा पशु-पक्षियों को हजारों लाखों पुतलियां बनीं हुई थीं ।' सभी पुरावृत्तों में उल्लेख है कि सिद्धराज ने इस मन्दिर के निमित्त एक करोड़ चालीस लाख स्वर्ण मुद्राएँ व्यय की थीं; परन्तु, प्रत्येक मुद्रा का मूल्य स्पष्ट निर्धारित नहीं है। किसी समय के इस उत्कृष्ट स्मारक के मुख्य प्रवशेष और प्राधा भाग अब प्राय: कोली सूत्रकारों के घरों से घिरा हुआ एवं प्रच्छन्न है; भय यह है कि कभी उनके घर व उनके मस्तक उन पर टूट कर पड़ते हुए द्र के मुण्डों ' से चकनाचूर न हो जायें क्योंकि यद्यपि उनकी नींव चट्टानों में लगी हुई है फिर भी, मुझे बताया गया है कि १८१६ ई० के भूचाल में, जो पूरे
कक्ष,
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युद्ध के देवता रुद्र की माला नरमुण्डों की बनी हुई होती है-ये मुण्ड (खोपड़ियां ) प्राचीनकाल में राजपूत वीरों द्वारा पान-पान के रूप में व्यवहृत होते थे ।
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