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पश्चिमी भारत की यात्रा
'करते थे तो वे अपनी चद्दर पर तैर कर नदी पार कर लिया करते थे । एक दिन पानी के देवता ( वरुण ? ) ने अपने राज्य में से निकलने के निमित्त दान कर ? ) मांगा तब आचार्य ने अपना अंगूठा काटकर भेंट कर दिया। कहते हैं कि वह चमत्कारिक चद्दर विचित्र लिपि में लिखित पुस्तक' के साथ अब भी जैसलमेर में चिन्तामरिण [ ? ] ( Chortaman ) के मन्दिर में सुरक्षित है। यही चद्दर जैनादित्य की गद्दी पर बैठने वाले प्रत्येक आचार्य के कन्धों पर डाली जाती है ।' इस गर्वोन्नत पर्वत के नाम चोबीस से कम नहीं हैं और एक सौ आठ शिखर इसको गिरनार पर्वत से संयुक्त करते हैं; जैन भूगर्भवेत्ता इस क्रम को प्राबू और तरिंगी [तारिंगा ] तक गया हुआ मानते हैं और सीहोर, बल्ल तथा अन्य पर्वत श्रृङ्खलाओं से, जिनमें कुछ बहुत नीची हैं और कुछ भूगर्भित हैं, सम्बन्धित बताते हैं । नाममाला में से एक उद्धरण इस प्रकार है :
प्रथम | शत्रुञ्जयतीर्थनामानि ॥ माहात्म्य में इस नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी हुई है । प्राचीन काल में सुखराज पालीताना में राज्य करता था । जादू की सहायता से उसके छोटे भाई ने उसकी सी सूरत बना ली और राजगद्दी पर अधिकार कर लिया । राज्यच्युत राजा बारह वर्षों तक जंगलों में भटकता रहा और इस अवधि में नदी का सद्य जल नित्य श्रीसिद्धनाथ की प्रतिमा पर चढ़ाता रहा ।' उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर देव ने उसे शत्रु पर विजय प्रदान की । कृतज्ञ हो कर राजा ने उस प्रतिमा को पर्वत पर स्थापित किया, जो शत्रुञ्जय कहलाया । अतः यह पर्वत मूलतः शिव के अर्पित रहा होगा, जिनका एक मुख्य नाम 'सिद्धनाथ' अथवा 'सिद्धों के स्वामी' है; मेरा विश्वास है कि यह विशेषण जैनों के प्रथस तीर्थङ्कर प्रादिनाथ को कभी नहीं प्राप्त हुआ ।
पण्ढरी पर्वत आदिनाथ के प्रिय शिष्य पण्ढरी [पुण्डरीक] का पहाड़ | श्री सिद्धक्षेत्र पर्वत - पवित्र अथवा सिद्धक्षेत्र का पर्वत । श्रीविमलाचल तीर्थं - शुद्धि यात्रा तीर्थ (विमल - शुद्ध, पवित्र ) ।
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सिन्धु देश में पञ्चनदी पर साधे पांचों पीर । लोई ऊपर पुरुष तिराए, ऐसे गुरू सधीर ॥
( दादा साहेब की पूजा; यति रामलालजी कृत ) जिस लोई ( चद्दर) का यहाँ विवरण दिया गया है वह पहले महोपाध्याय वृद्धिचन्द्र के उपाश्रय में सुरक्षित थी, अब जैसलमेर के बड़े ज्ञान भण्डार में रख दी गई है ।
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यह विचित्र ( Sylulline ) पुस्तक, जो अब मुत्राङ्कित हो गई है, एक जंजीर से लटकी रहती है और वर्ष में केवल एक बार पूजन करके नये वेष्टन में लपेट कर पुनः रख देने के लिए ही उतारी जाती है। इसके अक्षर बड़े विचित्र हैं और जब एक स्त्री-यति (साध्वी) ने इसको पढ़ने की चेष्टा की तो वह अन्धी हो गई ।
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