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प्रकरण - १४; शत्रुञ्जय
[ २६१ जीर्णोद्धार मात्र ४२१ ई० में हुआ था, इससे मूल मन्दिर के निर्माण का समय हम कतिपय शताब्दियों पीछे ले जा सकते हैं । दूसरे, हमें कर्ता के निवासस्थान का पता चलता है कि वह बलभी का आचार्य था; तीसरी बात जो सब से अधिक महत्वपूर्ण है वह यह है कि यह राजा शिलादित्य सूर्यवंशी था। ये सभी बातें विशेष रूप से मेवाड़ के इतिहास की पुष्टि करती हैं। यही वह राजा था जिसका वर्णन उस इतिहास में किया गया है कि वह पश्चिमीय एशिया के पाक्रामक बर्बरों से बलभी की रक्षा करते हुए मारा गया था। मोहम्मद से पहले हुए हमलों में यह दूसरा था कि जिसका उल्लेख प्राप्त होता है। पॅरिप्लुस (Periplus) के कर्ता के मतानुसार प्रथम आक्रमण दूसरी शताब्दी में हुआ था; और कॉसमस (Cosinas)' के आधार पर तीसरा आक्रमण छठी शताब्दी में हुआ जब हूण लोग सिंध की घाटी में आकर बसे थे; इसी कारण जेटों अथवा जीतों ( Getes or Jits), हूणों और काठियों प्रोदि के मूल अब भी सौराष्ट्र में पाये जाते हैं ।
मानो भारत के प्रमुख वंश के इतिहास-सम्बन्धी मेरी अशिथिल शोध में चार चाँद लगाने हेतु अथवा बलभी के वृत्तांत को अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ आगे चलकर मैंने एक प्रस्तर-लेख प्राप्त किया, जिसमें लिखा था कि बलभी का स्वतंत्र संवत् भी प्रचलित था जो इस माहात्म्य की रचना से एक शताब्दी पूर्व ही चालू हुआ था।
शत्रुञ्जय जैनों के पञ्चतीर्थो में से है। इनमें से तीन अर्थात् अर्बुद, शत्रजप और गिरनार तो पास-पास हैं। चौथा समेल [सम्मेत शिखर मगध अथवा वर्तमान बिहार की प्राचीन राजधानी में है और पांचवां चन्द्रगिरि, जो शेषकूट अथवा 'सहस्र-शिखर' भी कहलाता है, हिन्दूकोट अथवा पर्वतपति पामीर के बर्फीले क्षेत्रों में स्थित है, जिनको ग्रीक लोग कॉकेशस (Caucasus) और परोपैमोसम (Paropanmisus) कहते हैं। पहले बौद्ध धर्मगुरुओं के लिए सिन्ध में कोई 'अटक' नहीं थी और अनुश्रुतियों के साथ कल्पना और चमत्कार का सम्मिश्रण करते हुए (जो उनके मत की मूल विशेषता है) उन्होंने लिखा है कि 'जब प्राचार्य जैनादित्य सरि' अपने दलों से मिलने सिंध के पश्चिम में जाया
' कॉसमॅस (Cosmas) का समय १०४५-११२६ ई० है । उसने Chronicon Bohemo_rum नामक बोहेमियां का इतिहास लिखा था, जो १६०२ ई० में मुद्रित हुना।
-E. B. VI. p. 446 २ सुप्रसिद्ध युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि का जन्म गुजरात प्रान्त में धोलका में श्रेष्ठी वाछिग
के यहाँ वि० सं० ११३२ में हुआ था। इनकी माता का नाम वाहड़देवी था। वरिणत विषय में यह दोहा प्रचलित है :
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