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पश्चिमी भारत की यात्रा कोई सामने आता था उसे वे निर्दयतापूर्वक नष्ट कर देते थे, परन्तु यह सौभाग्य की बात थी कि मन्दिरों को मसजिदों में परिवर्तित करना वे ठलाघनीय समझते थे और अन्दर घुसकर 'अल्लाहो अकबर' का नारा लगाना उस नापाक इमारत को पवित्र करने के लिए पर्याप्त मान लेते थे। फिर, धार्मिक भवनों का नाश उन्होंने कितने ही बड़े पैमाने पर किया हो, परन्तु एक ऐसे सम्प्रदाय के स्मारकों को नष्ट करना उन विजेताओं की शक्ति के बाहर की बात थी, जिसमें सिद्धान्तों का प्रतिपालन अन्य बातों की अपेक्षा परम्पराओं पर अधिक निर्भर है।
पालीताना, पल्ली को निवासस्थान, शत्रञ्जय की पूर्वीय तलहटी में स्थित है। यह पर्वत आदिनाथ (जैनों के चौबीस में से सर्वप्रथम तीर्थकर) के नाम से पवित्र है और लगभग दो हजार फीट ऊँचा है। रास्ते के मोड़ और घुमाव आदि का हिसाब लगावें तो इसकी चढ़ाई दो और तीन मील के बीच में आती है। इस मनोरञ्जक स्थल पर मेरे अनुसन्धानों में कुछ विद्वान साधुनों से वास्तविक सहायता मिली, जिनसे मेरा परिचय मेरे यति ने करवा दिया था। ये लोग इस समय यात्रा करने आए हुए थे और उन्होंने मुझे अपने धर्म तथा तीर्थ के विषय में 'शत्रुञ्जय-माहात्म्य' के आधार पर बहुत से विवरण एवं सूचनाएं दीं, जिसका कुछ अंश उनके साथ था । अन्य उदाहरणों के साथ-साथ में यह भी प्रस्तुत करना चाहता हूँ कि उन संकुचित और ईर्ष्यापूर्ण मनोविकारों के कारण हमारी जिज्ञासानों की शान्ति में यहाँ कोई बाधा उपस्थित नहीं हो पाती कि जिनका वर्णन मेरे देशवासियों ने बहुत ही बढ़ा चढ़ा कर किया है। मैंने इस मत के जितने भी अनुयायियों से बात-चीत की, चाहे वे जनसाधारण में से हों अथवा पढ़े-लिखे, उनमें बहुत उदारता पाई और ज्ञान की भी उनमें कोई कमी नहीं थी।
प्रत्येक तीर्थस्थान का एक माहात्म्य-ग्रन्थ होता है जिसमें भवतजनों द्वारा सम्पादनीय धार्मिक कृत्यों के वर्णन के साथ बीच-बीच में बहुत-सा कथा भाग भी अथित रहता है; मन्दिर के निमित्त भेंट, दक्षिणा, जीर्णोद्धार और भूमिदानादि के उल्लेखों में, जो प्रायः शिलालेखों में सुरक्षित रहते हैं, कुछ प्राकृतिक उपज के भी सूचन दिए होते हैं (जैसे आबू माहात्म्य में) । 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य की रचना बलभी नगरवासी धनेश्वर सूरि आचार्य ने संवत् ४७७ (४२१ ई०) में की थी जब सूर्यवंशी राजा शिलादित्य ने आदिनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था।' इस उद्धरण से हमें इन ग्रंथों के अवलोकन से प्राप्त होने वाले लाभ का प्रत्यक्ष उदाहरण मिलता है क्योंकि इस ग्रंथ के रचनाकाल के साधारण उल्लेख से ही हमें इस क्षेत्र से सम्बन्धित तोन ऐतिहासिक तथ्यों का पता चल जाता है। पहली बात तो यह है कि यह पर्वत आदिनाथ को अर्पित है, जिनके मन्दिर का
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