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पश्चिमी भारत की यात्रा
प्रकरण १
प्राक्कथन
प्रस्तुत यात्रा का उद्देश्य; ग्रंथकर्ता के भारत छोड़ने के कारण; ग्रंथकर्ता के प्रति देशी राजामों की प्रादरभावना; बम्बई के लिए प्रस्तावित मार्ग।
जिन्होंने 'राजस्थान का इतिहास' (Annals of Rajasthan) का अवलोकन किया है वे, उसकी समाप्ति के उपरान्त किसी प्रकार के प्रारम्भिक वक्तव्य की
आवश्यकता का अनुभव किए बिना, सहज ही इस पुस्तक को पढ़ना आरम्भ कर सकते हैं। परन्तु यह मान कर कि पाठक मेरी एक कृति से अपर की ओर आकृष्ट हुए हैं, मैं अपनी इस अन्तिम यात्रा के उद्देश्यों के विषय में कुछ भी न कहूँ तो यह उनके प्रति अत्यन्त अनौपचारिक व्यवहार होगा; और तब, प्रस्तुत ग्रंथ में प्रचुरता से प्रयुक्त 'मैं' सर्वनाम को, किसी प्रकार का प्रात्मनिवेदन किए बिना, पाठकों पर थोप देना भी अशोभनीय होगा।
निजी यात्राओं के वर्णन में यदि ग्रन्थकार अपने लिए कुछ कहने में पद-पद पर संकोच करने लगे तो उसे बड़ी कठिनाई होगी। विवरणात्मक वर्णन में बातों को निरन्तर अप्रत्यक्ष और जटिल ढंग से कहना सरल और स्वाभाविक शैली की अपेक्षा अप्रिय प्रतीत होता है जो केवल उसी अवस्था में अच्छी नहीं लगतीं जब वह अनावश्यक और कृत्रिम रूप में प्रयुक्त होती हैं। फिर, व्यक्तिगत यात्राओं के पाठक वर्णन-कर्ता के वैयक्तिक जीवन से इतना अभिज्ञ होने के तो इच्छुक होते ही हैं कि वे उन परिस्थितियों से परिचित हो सकें जिनके कारण वह किन्हीं विशिष्ट दृश्यों का विवरण उपस्थित करता है-ऐसा सम्बन्ध, प्रस्तुत प्रसंग की भांति, वर्णन की यथार्थता का प्रमाण बन जाता है। अतः निःसंकोच भाव से, आत्मश्लाघा के उपालम्भ की आशंका न करते हुए मैं अपना और अपने से सम्बद्ध विषयों का उसी प्रकार खुल कर अप्रतिहत वर्णन करता चलंगा जैसा किसी अन्य पुरुष के विषय में करता।
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