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________________ प्रकरण - १६, कृष्ण को निर्वाणस्थली .. [ ३४३ दोपहर को चिलचिलाती धूप से बचने के लिए कन्हैया ने एक छत्राकार पीपल-वृक्ष के तले विश्राम लिया; जब वह लेटे हुए थे तो (जनश्रुति के अनुसार) एक भील ने उनके चरण-तल में अङ्कित पद्म-चिन्ह को हरिण की आंख समझ कर अपने तीर का निशाना बनाया। जब उनके सम्बन्धी लोटे तो उन्होंने देखा कि जीवन निश्शेष था। बहुत देर तक बलदेव मृत शरीर से लिपट कर विलाप करते रहे परन्तु अन्त में उन लोगों ने तीन नदियों के संगम पर उनको उत्तरक्रिया सम्पन्न की। पीपल का एक पौधा, जो निश्चित रूप से 'मूल वृक्ष' की ही परम्परा में माना जाता है, अब भी उस स्थान को निर्दिष्ट करता है, जहां हिन्दू अपोलो [विष्णु ने शरीर छोड़ा था, और वहीं से एक सोपान-सरणि 'हिरण्य' (नदी) के तल तक चली गई है, जिसके द्वारा यात्री वहाँ पहुँच कर पवित्रता प्राप्त करता है। यह पावन भूमि 'स्वर्ग-द्वार' के नाम से प्रसिद्ध है और पापों का शमन करने में देवपट्टण की स्पर्धा में अधिक सामर्थ्यवती मानी जाती है। यह भलका और पद्मकुण्ड नामक दो सुन्दर सरोवरों से सुशोभित है। प्रथम भलका-कुण्ड बारह समान भुजाओं वाला सरोवर है, जिसका व्यास तीन सौ फीट के लगभग है । पद्मकुण्ड कुछ छोटा है और इसकी सतह पर कन्हैया के प्रिय पद्म-पुष्प छाये रहते हैं। इसी से उनका अत्यन्त मधुर नाम 'कमल' पड़ा है। कुण्ड के पूर्वीय किनारे पर एक छोटा-सा महादेव का मन्दिर है। गोपालदेव के भक्तों को दृष्टि में ये दोनों कुण्ड बहुत पवित्र माने जाते हैं और अकबर के समय में भी इनका ऐसा ही माहात्म्य था, क्योंकि अबुल फजल ने अपनी कृति के कुछ अंश में पीपलेश्वर और भलका-तीर्थ को यात्राओं का वर्णन किया है। इस पवित्र पीपल-वृक्ष को छूते हुए एक मसजिद के निर्माण, से मुसलिम-असहनशीलता स्पष्ट परिलक्षित होती है; और, यद्यपि इन क्षेत्रों पर अब बहुत समय से धर्म-परायण हिन्दू राजाओं का आधिपत्य चला आ रहा है, परन्तु वह आपत्तिजनक मसजिद अछेड़ अवस्था में ज्यों की त्यों बनी हुई है। इससे एक धर्म की सर्वप्रिय सहनशीलता सह-अस्तित्त्व भावना और दूसरे की कट्टर धर्मान्धता को लेकर दोनों का प्रबल और स्पष्ट अन्तर ज्ञात हो जाता है । यहां से मैंने अपने कदम हिरण्य (नदी) से ऊपर की ओर आगे बढ़ाये और भीमनाथ के मन्दिर पहुंचा, जो शिव का ही नाम है । इसका शिखर डेरे की भांति का है, जिसकी छत पिरामिड के ठोस आधार जैसी है; सम्भवत: महाकाल के मन्दिर को यही प्राचीनतम प्रकार है । मुझे शायद इस मन्दिर की वर्तमान अवस्था की अपेक्षा इसकी भूतकालिक दशा का वर्णन करना चाहिये, क्योंकि एक घेरघुमेर वट-वृक्ष ने इसमें जड़ें जमा ली हैं और उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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